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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

पतंजलि: योग--सूत्र (भाग--1) प्रवचन--09

स्‍वयं में प्रतिष्‍ठित हो जाओ—प्रवचन—नौवां

      दिनांक 3 जनवरी, 1974; संध्‍या।
      बुडलैण्‍डस, बंबई।

योगसूत्र:

            दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्थ वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।। 15।।

वैराग्य, निराकांक्षा की 'वशीकारसंज्ञा' नामक पहली अवस्था है—ऐंद्रिक सुखों की तृष्णा में, सचेतन प्रयास द्वारा, भोगासक्ति की समाप्ति।

            तत्पर पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्।। 16।।

वैराग्य, निराकांक्षा की अंतिम अवस्था है—पुरुष के, परम आत्मा के अंतरतम स्वभाव को जानने के कारण समस्त इच्छाओं का विलीन हो जाना।

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--30)

संन्‍यास बांसुरी है साक्षीभाव की--(प्रवचन-पंद्रहवां)

      दिनांक: 10 अक्‍टूबर, 1976;
      श्री रजनीश आश्रम, पूना।

पहला प्रश्न :

आपने बताया कि जब अष्टावक्र मां के गर्भ में थे, उनके पिता ने उन्हें शाप दिया, जिसकी वजह से उनका शरीर आठ जगहों से आड़ा—तिरछा हो गया। भगवान, इस आठ का क्या रहस्य है? वे अठारह जगह से भी टेढ़े—मेढ़े हो सकते थे और अष्टावक्र कहलाते। यह आठ का ही आंकड़ा क्यों?

 यह आठ आंकड़ा अर्थपूर्ण है। ये छोटी—छोटी कहानियां गहरे सांकेतिक अर्थ लिए हैं। इन्हें तुम इतिहास मत समझना। इनका तथ्य से बहुत कम संबंध है। इनका तो भीतर के रहस्यों से संबंध है।
आठ का आंकड़ा योग के अष्टांगों से संबंधित है। पतंजलि ने कहा है. आठ अंगों को जो पूरा करेगा—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि—वही केवल सत्य को उपलब्ध होगा। यह पिता की नाराजगी, यह पिता का अभिशाप सिर्फ इतनी ही सूचना देता है कि वे आठ अंग, जिनसे व्यक्ति परम सत्य को उपलब्ध होता है, मैं तेरे विकृत किए देता हूं।

पतंजलि: योग-सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--08

दुःख की संरचना का बोध—प्रवचन—आठवां

दिनांक 1 जनवरी, 1974; संध्‍या।
बुडलैण्‍डस,बम्‍बई।

प्रश्‍न सार:

1—अनासक्ति यात्रा के आरंभ में ही होगी या अंत में?


2—क्या बुद्ध और महाकाश्यप के बीच घटा संप्रेषण समूह के लिए संभव नहीं है?

 
3—अभ्यास एक मन: शारीरिक संस्कारीकरण है। और इसी के द्वारा समाज मनुष्य को गुलाम बना लेता है। फिर 'अभ्यास' से मुक्‍ति कैसे फलित होगी?


4—पश्‍चिमी—मन का अधैर्य और छिछलापन देखते हुए भी क्या उसे योग—साधना में ले जाया जा सकता है?

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

पतंजलि: योग-सूत्र--(भाग-1) प्रवचन--07

वैराग्‍य और निष्‍ठापूर्ण अभ्‍यास—प्रवचन—सातवां

दिनांक 30 दिस्‍मबर, 1973; सुबह

 बुडलैण्‍डस, बंबई।

योगसूत्र:

            अभ्यासवैराग्याभ्या तन्निरोध:।। 12।।

(सतत आंतरिक) अभ्यास और वैराग्‍य से इन वृत्तियों की समाप्ति की जाती है।

            तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास:।। 13।।

इन दो में, अभ्यास स्वय में दृढ़ता से प्रतिष्ठित होने का प्रयास है।

            स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽऽसेवितो दृढ्भूमि:।। 14।।

बिना किसी व्यवधान के श्रद्धा— भरी निष्ठा के साथ लगातार लंबे समय तक इसे जारी रखने से वह दृढ़ अवस्थावाला हो जाता है।

दमी केवल उसका चेतन मन ही नहीं है। उसके पास चेतन से नौ गुना ज्यादा, मन की अचेतन परत भी है। केवल यही नहीं, आदमी के पास शरीर है—सोमा, जिसमें यह मन विद्यमान होता है। शरीर नितांत अचेतन है। उसका कार्य लगभग अनैच्छिक है। केवल शरीर की सतह ऐच्छिक है। आंतरिक स्रोत अनैच्छिक होते हैं, तुम उनके बारे में कुछ नहीं कर सकते। तुम्हारी संकल्पशक्ति प्रभावकारी नहीं है।

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

पतंजलि: योग-सूत्र--(भाग-1) प्रवचन--06

सम्‍यक ज्ञान, असम्‍यक ज्ञान और मन—प्रवचन—छट्ठवां

       दिनांक 29 दिस्‍मबर, 1973; संध्‍या।
      बुडलैण्‍डस, बंबई।
प्रश्‍न सार:
1—अगर पतंजलि का योग तर्कबद्ध विज्ञान है तो क्या इसका अर्थ यह न हुआ कि असीम सत्य की प्राप्ति सीमित मन द्वारा की जा सकती है?

 2—स्वयं पर संदेह दिव्यता का द्वार बन जाता है—कैसे?

3—बुद्ध द्वारा महाकाश्यप को दिया गया ज्ञान किस कोटि में आता है—प्रत्यक्ष, अनुमान या आगम?

  4—क्या पतंजलि के सूत्रों में भी मिलावट की गयी है?

  5—वह कौन—सी शक्ति है जो दुखों के बावजूद भी मनुष्य के मन को संसार में ग्रसित रखती है?

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--29)

ध्यान अर्थात उपरामप्रवचनचौदहवां

दिनांक: 9 अक्‍टूबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

अष्टावक्र उवाच।

            विहाय वैरिणं काममर्थं चानर्थसंकुलम्।
धर्ममष्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु ।। 91।।
स्वप्तेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पैल वा।
मित्रक्षेत्रधना गारदारदायादिसम्पद ।।92 ।।
यत्र यत्र भवेतृष्णा संसार विद्धि तत्र वै।
प्रौढ़वैराग्यमाश्रित्य वीततृष्ण: सुखी भव ।। 93।।
तृष्णमात्रात्मको बंधस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते।
भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्प्रर्मुहु ।। 94।।
त्वमेकश्चेतन: शद्धो जडं विश्वमसत्तथा।
अविद्यापि किंचित्सा का बुभुत्मा तथापि ते।। 95।।
राज्यं सता कलत्राणि शरीराणि सखानि च।
संसक्तस्यायि नष्टानि तव जन्मनि जन्मनि।। 96।।
अलमर्थेन कामेन सुकृतेनायि कर्मणा।
एभ्य: संसारकांतारे न विश्रांतमभून्मन: ।। 97।।
कृतं न कति जन्मानि कायेन मनसा गिरा।
दुखमायासदं कर्म तदताध्युपरम्यताम्!। 98।।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

पतंजलि: योग-सूत्र--(भाग-1) प्रवचन--05

योग—विज्ञान की शुचिता—प्रवचन—पांचवां

      दिनांक, 30 दिसम्‍बर; 1973, संध्‍या।
      बुडलैण्‍डस, बंबई।

योगसूत्र:

            प्रत्यक्षानुमानागमा: प्रमाणानि।। 7।।

सम्यक ज्ञान (प्रमाण वृत्ति) के तीन स्रोत हैं प्रत्यक्ष बोध, अनुमान और बुद्धपुरुषों के वचन।

            विपर्ययो मिथ्या ज्ञानमतदूपप्रतिष्ठम्।। 8।।

विपर्यय एक मिथ्या ज्ञान है, जो विषय से उस तरह मेल नहीं खाती जैसा वह है।

            शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्प:।। 9।।

शब्दों के जोड़ मात्र से बनी एक धारणा जिसके पीछे कोई ठोस वास्तविकता नहीं होती, वह विकल्प है, कल्पना है।

            अभावप्रत्ययालम्बनावृत्तिर्निद्रा।। 10।।

निद्रा मन की वह वृत्ति है, जो अपने में किसी विषय—वस्तु की अनुपस्थिति पर आधारित होती है।

            अनुभूतविषयासम्प्रमोष: स्मृति: ।। 11।।

स्मृति है पिछले अनुभवों को स्मरण करना।



सम्यक ज्ञान (प्रमाण वृत्ति) के तीन स्रोत हैं—प्रत्यक्ष बोध अनुमान और बुद्धपुरुषों के वचन।

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--28)

बोध से जीयोसिद्धांत से नहींप्रवचनतैहरवां

 दिनांक: 8 अक्‍टूबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

अष्टावक्र ने कहा कि महर्षियों, साधुओं और योगियों के अनेक मत हैं—ऐसा देख कर निर्वेद को प्राप्त हुआ कौन मनुष्य शांति को नहीं प्राप्त होता है? कहीं इसलिए ही तो नहीं आप एक साथ सबके रोल— महर्षि, साधु और योगो के; अष्टावक्र, बुद्ध, पतंजलि और चैतन्य तक के रोल—पूरा कर रहे हैं, ताकि हम निवेंद को प्राप्त हों?

 निश्चय ही ऐसा ही है। जिससे मुक्त होना हो, उसे जानना जरूरी है। जाने बिना कोई मुक्त नहीं होता।

तर्क से मुक्त होना हो तो तर्क को जानना जरूरी है। तर्क में जिनकी गहराई है, वे ही तर्क के पार उठ पाते हैं। बुद्धि के पार जाना हो तो बुद्धि में निखार चाहिए। अति बुद्धिमान ही बुद्धि के पार जा पाते हैं। बुद्धि के पार जाने के लिए जितनी धार रखी जा सके बुद्धि पर, उतना ही सहयोगी है।

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--26)

स्वतंत्रता की झील मर्यादा के कमलप्रवचनग्यारहवां

दिनांक: 6 अक्‍टूबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
      प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

भारतीय मनीषा ने आत्मज्ञानी को सर्वतंत्र स्वतंत्र कहा है। और आप उस कोटिहीन कोटि में हैं। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि उस परम स्वतंत्रता से इतना सुंदर अनुशासन और गहन दायित्व कैसे फलित होता है!

सा प्रश्न स्वाभाविक है। क्योंकि साधारणत: तो मनुष्य अथक चेष्टा करके भी जीवन में अनुशासन नहीं ला पाता। सतत अभ्यास के बावजूद भी दायित्व आंनदपूर्ण नहीं हो पाता। दायित्व में भीतर कहीं पीड़ा बनी रहती है। जो भी हमें कर्तव्य जैसा मालूम पड़ता है, उसमें ही बंधन दिखाई पड़ता है। और जहां बंधन है, वहां प्रतिरोध है। और जहां बंधन है, वहां से मुक्त होने की आकांक्षा है।

कर्तव्य या दायित्व, हमें लगते हैं, ऊपर से थोपे गए हैं। समाज ने, संस्कृति ने, परिवार ने, या स्वयं की सुरक्षा की कामना ने हमें कर्तव्यों से बंध जाने के लिए मजबूर किया है—पर मजबूरी है वहां, विवशता है, असहाय अवस्था है।

पतंजलि: योग-सूत्र (भाग--1) प्रवचन--03

मन की पाँव वृत्‍तियं—प्रवचन—तीसरा

दिनांक 27 दिसम्‍बर, 1973;
वुडलैण्‍डस, बंबई।

योगसूत्र:

            वृत्तय: पञ्चतय्य: क्लिष्टाक्लिष्टा:।। 5।।

मन की वृत्तियां पाच हैं। वे क्लेश का स्रोत भी हो सकती हैं और अक्लेश का भी।

            प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय:।। 6।।

वे वृत्तियां हैं प्रमाण (सम्यक ज्ञान), विपर्यय (मिथ्या ज्ञान), विकल्प (कल्पना), निद्रा और स्मृति।


न दासता का स्रोत हो सकता है और मुक्ति का भी। मन इस संसार का द्वार बन जाता है, प्रवेश बन ? जाता है लेकिन वह बाहर निकलने का द्वार भी बन सकता है। मन तुम्हें नरक की ओर ले जाता है, लेकिन मन तुम्हें स्वर्ग की ओर भी ले जा सकता है। यह इस पर निर्भर करता है कि मन का उपयोग कैसे किया जाता है। मन का ठीक उपयोग ध्यान बन जाता है, मन का गलत उपयोग पागलपन बन जाता है।

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

अष्‍टावक्र महागीता--(प्रवचन--25)

दृश्य स्वप्न हैद्रष्टा सत्य है-प्रवचन--दसवां

दिनांक: 5 अक्‍टूबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

तदा अधो यदा चित्तं किंचिद्वाच्छति शोचति।
किंचिन्मुज्‍चति गृहणाति किंचिड़ष्यति कुप्‍यति।। 71।।
तदा मक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति।
मज्‍चति न गृहणाति न हष्यति न कथ्यति।। 72।।
तदा अधो यदा चित्तं सक्तं कास्वपि दृष्टिषु।
तदा मोक्षो यदा चितंसक्तं सर्व द्वष्टिषु।। 73।।
यदा नाहं तदर मोक्षो यदाहं बंधन तदा।
मत्वेति हेलंयर किंचित् मा गृहाण विमुज्‍च मा।। 74।।

पतंजलि: योग-सूत्र (भाग-1) प्रवचन--02

शिष्‍यत्‍व और सदगुरू की खोज—प्रवचन—दूसरा

      दिनांक, 26 दिसम्‍बर, 1973; संध्‍या।
      बुडलैण्‍डस, बंबई।

प्रश्‍न सार:

1—योग—पथ पर चलने के लिए क्या निराशा और विफलता का भाव नितान्त जरूरी है?

2—क्या योग एक नास्तिक वादी दर्शन है?

3—योग के मार्ग पर शिष्यत्व की बड़ी महत्ता है, लेकिन एक नास्तिक शिष्य कैसे हो सकता है?

4—यदि योग आस्था की मज़ा नहीं करता है तो शिष्य का समर्पण कैसे हो?

5—क्या सत्संग का अर्थ सद्गुरु से शारीरिक निकटता है? शारीरिक दूरी से क्या शिष्य हानि में रहता है?

6—मन को यदि समाप्त होना है, तो आपके प्रवचनों को कौन समझेगा?

7—अगर योग आंतरिक रूपांतरण की प्रक्रिया है तो यह बिना उद्देश्य के कैसे संभव होगा?

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

पतंजलि: योग--सूत्र-(भाग-1) प्रवचन-01

योग के प्रवेश द्वार पर—प्रवचन—एक

दिनांक 25 दिसम्‍बर, 1973;
वुडलैण्‍ड्स, बम्‍बई, संध्‍या।

योगसूत्र:

            अथ योगानुशासनम् ।।1।।

अब योग का अनुशासन।

            योगक्षित्तवृत्तिनिरोधः।।2।।

योग मन की समाप्ति है।

तदास्तु: स्वस्‍वपेऽवस्थानम्।। 3।।

तब साक्षी स्वयं में स्थापित हो जाता है।

            वृत्तिसास्‍वषमितरत्र।। ४।।

अन्य अवस्थाओं में मन की वृत्तियों के साथ तादात्‍म्‍य हो जाता है।


म एक गहरी भ्रांति में जीते हैं—आशा की भांति में, किसी आने वाले कल की, भविष्य की भ्रांति में। जैसा आदमी है, वह आत्म—वंचनाओं के बिना जी नहीं सकता। नीत्से ने एक जगह कहा है कि आदमी सत्य के साथ नहीं जी सकता; उसे चाहिए सपने, भ्रांतियां; उसे कई तरह के झूठ चाहिए जीने के लिए। और नीत्से ने जो यह कहा है, वह सच है। जैसा मनुष्य है, वह सत्य के साथ नहीं जी सकता। इस बात को बहुत गहरे में समझने की जरूरत है, क्योंकि इसे समझे बिना उस अन्वेषण में नहीं उतरा जा सकता जिसे योग कहते हैं।