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सोमवार, 30 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--17)


ज्ञान ध्यान के पार ठिकाना मिलैगा—(प्रवचन—सत्रहवां)

दिनांक; शुक्रवार, 27 जुलाई 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र—
टोप—टोप रस आनि मक्खी मधु लाइया
इक लै गया निकारि सबै दुख पाइया।।
मोको भा बैराग ओहि को निरखिकै
अरे हां, पलटू माया बुरी बलाय तजा मैं परिखिकै।।

फूलन सेज बिछाय महल के रंग में।
अतर फुलेल लगाय सुनदरी संग में।।
सूते छाती लाय परम आनंद है।
अरे हां, पलटू खबरि पूत को नाहिं काल को फंद है।।

खाला के घर नाहिं, भक्ति है राम की।
दाल भात है नाहिं, खाए के काम की।।
साहब का घर दूर, सहज ना जानिए।
अरे हां, पलटू गिरे तो चकनाचूर, बचन कौ मानिए।।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--28)

मेरा सिर मुंडवाना—(अध्‍याय—अट्ठाइसवां)

शो के पास रहते हृदय में हमेशा एक जुनून बना रहता है। एक मस्‍ती सी छाई रहती, यूं लगता कि बस नशे में हों। ओशो के वचन सुनते तो सीधे हृदय में उतरते जाते हैं। ओशो रोज हमें नई—नई चुनौतियां देते, हमारी संभावनाओं को ललकारते। हमें भी ओशो के साथ अज्ञात की इस यात्रा पर चलने का बड़ा ही आनंद आता।
एक बार अष्टावक्र पर बोलते हुए ओशो कहते हैं कि 'जब संन्यासी अपने सिर के बाल कटवाता है, सर मुंडवा लेता है तो सिर्फ बाल ही नहीं कटते, कुछ और भी कट जाता है।मैंने प्रवचन सुना और सीधा नाई के पास गया। और बोला कि 'बाल और दाढी सब साफ कर दे।नाई को थोडा अजीब लगा, लेकिन भगवा वस्त्र, गले में ओशो की माला, इतना पर्याप्त था कि उसने अधिक प्रश्न पूछे बिना मेरी दाढ़ी और सिर के बाल काट दिये।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--27)

दद्दा जी की सेवा—(अध्‍याय—सत्‍ताईसवां)

शो ने प्रारंभ से एक बात अक्सर की है वह यह है कि उनके काम में जो भी सहभागी होता है, उस व्यक्ति का एक काम पक्का नहीं रहता है। हर थोड़े समय में बदलाव हो जाता। कभी भी कोई एक व्यक्ति किसी एक जगह पर अधिक समय तक काम नहीं करता था। इससे एक तो काम से पकड़ नहीं बनती, दूसरा व्यक्ति नये—नये काम सीखता है तो उसका विकास जारी रहता है। और फिर सबसे बड़ी बात मन पुराने को पकड़ता है, नया उसे रास नहीं आता। और यह भी कि जब नया व्यक्ति उसी काम को करता है तो वह अपनी नवीनता उस काम को देता है इस प्रकार से प्रत्येक कार्य नित—नया होता जाता है।
मैं काफी समय से सासवड़ का काम देख रहा था। एक दिन मुझे बुलाकर कहा गया कि अब मैं आश्रम के उपयोग में आने वाली सभी वस्तुओं की शॉपिंग का काम करूंगा।

शनिवार, 28 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--16)

गहन से भी गहन प्रेम है सत्संग—(प्रवचन—सोलहवां)

दिनांक; गुरुवार, 26 जुलाई 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्‍नसार:
1—भगवान, बुद्ध कहते हैं: अप्प दीपो भव। अपने दीए स्वयं बनो। और आपकी देशना है: रसमय होओ, रासमय होओ। क्या दोनों उपदेश मात्र अभिव्यक्ति के भेद हैं?
2—भगवान, मैं वर्षों से संतों की वाणी के अध्ययन—मनन में लीन रहा हूं, पर अभी तक कहीं पहुंचा नहीं। और संत तो कहते हैं कि सत्संग क्षण में पहुंचा देता है!
3—भगवान, कोई इंसान इंसान को भला क्या देता है
आदमी सिर्फ बहाना है, बस खुदा देता है
वह जहन्नुम भी दे तो करूं शुक्र अदा
कोई अपना ही समझकर तो सजा देता है

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--26)

भारतीय संस्कारो पर चोट—(अध्‍याय—छब्‍बीसवां)

शो हम सभी पर जमी संस्कारों की धूल को हटाने का काम करते हैं। वे हमें हर तरह के बंधन से मुक्त करते हैं ताकि हम पूरी तरह से मुक्त होकर अपने जीवन को परम दशा में जी सकें। जहां पश्चिम के लोगों की समस्याएं अलग तरह की होती हैं वहीं पूरब के लोगों की अपनी तरह की।
हमारे देश में सालों से काम को, सेक्स को, स्त्री—पुरुष के रिश्ते को हजारों— हजार संस्कारों के तले इस तरह से कुचला गया है कि स्वस्थ रिश्ता बनना ही कठिन सा लगता है। ओशो ने हमारी काम प्रवृत्तियों पर करारी चोट की। हमारे दमित चित्त को हर तरफ से तोड़ा।
जब ओशो सेक्स पर बोले, स्त्री—पुरुष के रिश्तों पर बोले तो स्वाभाविक ही अनेक मित्रों ने अपने ही अर्थ लगा लिये। ओशो पर सेक्स गुरु का ठप्पा भी लग गया।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--25)

हर कृत्‍य में सत्‍य के लिए तैयारी—(अध्‍याय—पच्‍चीसवां)

शो के रहने, खाने—पीने, चलने—उठने, बैठने हर बात में एक निराला अंदाज है। वह हर काम को इतनी सफाई व सुंदरता से करते कि बस देखते ही रह जाओ। उनका उठना—बैठना भी अपने आपमें एक नृत्य होता है, उत्सव होता है। यह उन दिनों की बात है जब ओशो सिर्फ सफेद रोब पहनते थे। हर दिन एक ही तरह का रोब। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। ओशो के रोब बहुत विशेष प्रकार के कपडे के बनते थे।
एक दिन ओशो ने मुझे बुलाया, उनके पास एक कपडा था कोई मित्र दे गये होंगे। कहने लगे कपड़े का रोब बनवाकर लाओ, उन्होंने अपना नाप दे दिया और बोला कि नीचे से डेढ इंच मुड़ा होना चाहिए। मैंने दर्जी को कपड़ा दे दिया और जब रोब बनकर तैयार हो गया तो मैं ले आया। मैंने रोब जाकर ओशो को दिया, उन्होंने रोब को देखा और बोले कि ' नीचे से कम मुड़ा हुआ है। मैंने डेढ़ इंच मोडने को कहा था, यह तो कम मुड़ा हुआ है।मैंने कहा' गलती हो गई, ठीक करवा लाता हूं।

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--61

तुम्‍हारा घर जल रहा है—(प्रवचन—इकसठवां)

सूत्र:
88—प्रत्‍येक वस्‍तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है। ज्ञान के द्वारा ही आत्‍मा
क्षेत्र में प्रकाशित होती है। उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।
89—है प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्‍ट होने दो।


मैंने एक किस्सा सुना है। अनुदार दल की एक जन—सभा में लॉर्ड मैनक्राफ्ट को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। वे ठीक समय पर आए और मंच पर चढ़े—वें थोड़े घबराए हुए लग रहे थे—उन्होंने लोगों को कहा. 'अपना भाषण जल्दी खतम करने के लिए मुझे क्षमा करें, लेकिन तथ्य यह है कि मेरे घर में आग लगी है।

बुधवार, 25 नवंबर 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--60

डरने से मत डरो—(प्रवचन—साठवां)

प्रश्‍नसार:
      1—क्‍या स्‍वतंत्रता और समर्पण परस्‍पर विरोधी नहीं है?
      2—सूत्र का सिर्फ यह यह है पर इतना जोर क्‍यों है?
      3—क्‍या भगवता या परमात्‍मा संसार का ही हिस्‍सा है?
            और वह क्‍या है जो दोनों के पार जाता है?
      4—तंत्र के अनुसार भय से कैसे मुक्‍त हुआ जाए?
      5—ऐसी ध्‍वनियां सुनने लगा हूं जो बहती नदी या झरने
            की घ्‍वनियों जैसी है। यह ध्‍वनि क्‍या है?

मंगलवार, 24 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--15)


करामाति यह खेल अंत पछितायगा—(प्रवचन—पंद्रहवां)
दिनांक; बुधवार, 25 जुलाई 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
करामाति यह खेल अंत पछितायगा
चटक—भटक दिन चारि, नरक में जायगा।।
भीर—भार से संत भागि के लुकत हैं।
अरे हां, पलटू सिद्धाई को देखि संतजन थुकत हैं।

क्या लै आया यार कहा लै जायगा।
संगी कोऊ नाहिं अंत पछितायगा।।
सपना यह संसार रैन का देखना।
अरे हां, पलटू बाजीगर का खेल बना सब पेखना।।

जीवन कहिए झूठ, साच है मरन को।
मरूख, अजहूं चेति, गहौ गुरु—सरन को।।
मांस के ऊपर चाम, चाम पर रंग है।
अरे हां, पलटू जैहै जीव अकेला कोउ ना संग है।।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--24)

ओशो के कार्य करने के निराले ढंग(अध्‍यायचौबीसवां)

अध्यात्म की यात्रा, ध्यान की राह, भक्ति की डगर.. .इतनी आसान भी नहीं होती है। जहां संसार में बहुसंख्य एक दिशा में सदियों से चला जा रहा है, वहां अचानक कोई एक विपरीत दिशा में चल पड़े तो कदम—कदम पर कठिनाइयां तो अवश्य ही आती हैं। और ये कठिनाइयां और भी अधिक दुरूह हो जाती हैं जब हम बुद्ध के साथ चल रहे होते हैं। हमारी नींद को तोड्ने के लिए, हमारी बेहोशी को समाप्त करने के लिए, जागृत व्यक्ति हमें बार—बार झकझोरता है, हमारी तंद्रा को तोड्ने की कोशिश करता है। हमारा सोया मन इन क्षणों में इतना भी सतर्क नहीं रह पाता कि हर चोट को तत्काल समझ पाए, नींद से जगाने के प्रयास को प्रेम पूर्वक देख पाए।
और बुद्ध जब ओशो जैसे हों तो सच मानो की यह बात और भी कठिन हो जाती है। ओशो के साथ होना तलवार की धार पर चलने जैसा है। किस समय, किस तरह से ओशो चोट कर देते हैं पता ही नहीं चलता।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--23)

ओशो का बोलना(अध्‍यायतैइसवां)

शो एक बार आकर अपनी कुर्सी पर विराजमान होते तो बिना रुके बिना किसी तरह के विश्राम या ब्रेक के लगातार बोलते जाते। लगभग चालीस सालों तक यह सिलसिला अनवरत चलता रहा। इस सूरज तले शायद ही कोई ऐसा विषय होगा जिस पर ओशो ने अपनी बात न कही हो। दुनिया भर से श्रेष्ठतम प्रतिभावान, कलाकार, प्रोफेसर्स, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक, डॉक्टर्स, इंजीनीयर्स, साहित्यकार, कलाकार ओशो के पास आए और जीवन के हर आयाम से संबंधित प्रश्न पूछे और ओशो हर प्रश्न, हर विषय पर इस तरह बोलते कि सुनने वाले बस सुनते ही रह जाते। विभिन्न विषयों को, जीवन को इस तरह से भी देखा जा सकता है यह सुन कर ही अचंभित हो जाते।
इसी के साथ ओशो बोलते समय शब्दों के बीच अंतराल देते। उनका कहना रहा है कि सुनते हुए सुनने वाले को ध्यान में ले जाने का उनका अपना बनाया उपाय है। शायद ही कभी किसी ने बोलने का उपयोग इस तरह से किया हो।

सोमवार, 23 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--14)

धर्म की भाषा है: वर्तमान—(प्रवचन—चौदहवां)
दिनांक; मंगलवार, २४ जुलाई १९७९;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान, पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। लोहा पारस हो जाए, क्या यह संभव है?
2—भगवान, नाम—जप करते—करते उम्र ढल गई। हाथ तो कभी कुछ लगा नहीं। लेकिन जब भी तथाकथित पंडित—पुजारियों, साधु—महात्माओं से पूछा, तो उन्होंने कहा—बेटा, यह कार्य जन्मों की साधना से होता है। और जीवन के अंतिम पहर में अब आप मिले तो लगता है: मैं भी किन धोखेबाजों के चक्कर में पड़ा रहा! अब मैं क्या करूं?
3—भगवान,
ये युगल बावरे नैन
और तू दूर देश का वासी
चिर से तव दर्शन की उत्कट अभिलाषा है
तेरे इस मधुर मिलन की इनको आशा है
दर्शन से पहले भी ये कुछ—कुछ गीले हैं
बात मिलन की करें, सजन उन्मीले हैं

तंत्र--सूत्र--(भाग--4) प्रवचन--59

स्‍वयं को असीमत: अनुभव करो—(प्रवचन—उन्‍नसठवां)

सूत्र:
86—भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं,
जो दृष्‍टि के परे है, जो पकड़ के परे है, जो अनास्तिव के,
न होने के परे है—मैं।
      87—मैं हूं, यह मेरा है। यह यह है। हे प्रिय,ऐसे भाव में ही असीमत: उतरो।

नुष्‍य द्विमुखी है—पशु और देवता दोनों है। पशु उसका अतीत है और देवता उसका भविष्य। और इससे ही कठिनाई पैदा होती है। अतीत बीत चुका है, वह है नहीं, उसकी स्मृति भर शेष है। और भविष्य अभी भी भविष्य है, वह आया नहीं है, वह एक स्‍वप्‍न भर है, एक संभावना मात्र है।

रविवार, 22 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--22)

अपराध बोध के पार(अध्‍यायबाईसवां)

ब शुरू में कोरेगांव पार्क, पुणे में आश्रम स्थापना हुई तो ओशो लाओत्सु भवन के खुले प्रागणन में प्रवचन देते थे। कुछ समय पश्चात वहां पर छत बनवाई गई। ओशो ने ही डिजाईन बनाया। जब छत का कार्य चल रहा था, ईंट, कंक्रीट, सीमेंट से बनी छत को लकड़ियों के सहारों से टिकाया हुआ था। उस समय छत का निर्माण इसी तरह से होता था। तो टनों बोझा छत के खंभों पर टिका था। एक दिन पता नहीं क्या चूक रह गई कि सारी की सारी छत धड़ाम से नीचे गिर गई। पूरा छत नीच बैठ गया। सारा मलवा बड़ी धमाके की आवाज के साथ नीचे आ गिरा। मैं और लक्ष्मी ने जाकर मंजर देखा तो दंग रह गये, पूरी छत नीचे गिरी पड़ी थी।
इस बात की राहत थी कि कोई छत के नीचे नहीं आया था, किसी को जरा भी चोट नहीं लगी थी। कुछ ही समय पहले हम उसी छत के नीचे खड़े थे, हमारे जाने की देर थी और छत का गिरना हुआ।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--21)

ओशो के कार्य को समर्पित होना—(अध्‍याय—इक्‍कीसवां)

शो के साथ रहते, उनको सुनते, ध्यान करते, धीरे— धीरे दिखाई देने लगा था कि अब मेरे लिए व्यवसाय की दुनिया में बने रहना मुश्किल होता जा रहा है। जोड़—तोड़, मारा—मारी, भागम— भाग, महत्वाकांक्षा, जितना है उतना पर्याप्त नहीं है, दौड़ते रहो, प्रतियोगिता, इसके पहले कि कोई दूसरा आगे निकल जाए या हमसे अधिक कमा ले हमें सबसे आगे निकलना है...। इस अंधी दौड़ को ओशो संदेश के उजाले में जीवन में जारी रखना मुश्किल होता जा रहा था। यह स्पष्ट ही दिखाई देने लगा कि जीवन में अर्थ की जरूरत होती है लेकिन इतनी भी नहीं कि सारा जीवन ही उसके लिए दांव पर लगा दिया जाए। अर्थ तो माध्यम मात्र है, अर्थ लक्ष्य तो हो ही नहीं सकता।
इस सरल—सी समझ के साथ जब मैं यह देखता कि ओशो हमें उस यात्रा पर ले जा रहे हैं जहां अंतिम लक्ष्य हासिल हो सकता है, जहां पहुंचकर और कुछ पाना शेष नहीं रहता है। ओशो की अज्ञात की यात्रा का आमंत्रण हृदय में गहरे तक उतरता जा रहा था।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--20)

भ्रमित होना—(अध्‍याय—बीसवां)

ब ओशो जैसे बुद्ध के संपर्क में आते हैं। जब ध्यान के द्वारा अपने ही अंधेरे अचेतन में प्रवेश होता है तो जीवन में हर तल पर बदलाव आता है। हमारी समझ, हमारी सोच, हमारे जीने का ढंग, लोगों से संबंधित होने के तरीके.....हर चीज में बदलाव आता है। इसी के साथ यह भी होता है कि कई बार हम अपने में हो रहे बदलावों को खुद ही नहीं समझ पाते हैं। जिस तरह से हम सोचते रहें हैं, विचारते रहें हैं, वह जब बदलता है, तो स्वाभाविक ही प्रश्न उठने लगता है कि कुछ गलत तो नहीं हो रहा।

ओशो के संपर्क में आने के बाद मेरे जीवन में जैसे एक नया ही मोड़ आ गया। जहां एक तरफ मैं संसार की महत्वाकांक्षा की दौड़ में भागा जा रहा था, वहीं दूसरी तरफ रात—दिन बहुत कुछ करने के बाद भी हाथ खाली के खाली हैं का भाव भी बना ही रहता था।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--13)

राग का अंतिम चरण है वैराग्य—(प्रवचन—तेरहवां)

दिनांक; सोमवार, 23 जुलाई 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
जीवन है दिन चार, भजन करि लीजिए।
तन मन धन सब वारि संत पर दीजिए।।
संतहिं से सब होइ, जो चाहै सो करैं
अरे हां, पलटू संग लगे भगवान, संत से वे डरैं।।

ऋद्धि सिद्धि से बैर, संत दुरियावते
इंद्रासन बैकुठ बिष्ठा सम जानते।।
करते अबिरल भक्ति, प्यास हरिनाम की।
अरे हां, पलटू संत न चाहैं मुक्ति तुच्छ केहि काम की।।

आगम कहैं न संत, भड़ेरिया कहत हैं।
संत न औषधि देत, बैद यह करत हैं।।
झार फूंक ताबीज ओझा को काम है।
अरे हां, पलटू संत रहित परपंच राम को नाम है।।

गुरुवार, 19 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सूमधुर यादें--(अध्‍याय--19)

ओशो के मुखारबिंद से मेरी कविता(अध्‍यायउन्‍नीसवां)

द्गुरु के प्रेम में होना, ध्यान और भक्ति का आनंद लेते श्रद्धा के शिखर का अनुभव करना, अपने आपमें अनूठा अनुभव होता है। एक बार ओशो के कारवां में शामिल हो जाने के बाद, कभी और कुछ याद नहीं रहा। उन दिनों की बात है, जब ओशो हमारे अपने गृह नगर पुणे में विराजमान थे। रोज सुबह ओशो के अमृत प्रवचन दिन भर आश्रम में कार्य— ध्यान करना। कब सुबह होती, कब शाम होती और कब रात हो जाती कुछ पता ही नहीं चलता। ओशो के प्रेम में डूबे संन्यासियों के साथ कैसे समय गुजर रहा था पता ही नहीं चलता था।
रोज सुबह ओशो अपने अमृत वचनों से हमें नहला जाते, तरोताजा कर जाते... पूरा दिन एक नशा सा छाया रहता। वह दौर था जब ओशो भक्तों के वचनों पर बोल रहे थे। भक्तों के जीवन का दीवानापन, मस्ती और सधुक्कड़ी बातों में ओशो इतना भाव— विभोर कर देते कि बस उनके साथ हम सभी भाव जगत में पूरी तरह से खो ही जाते।

स्‍वर्णिम क्षणों की सूमधुर यादें--(अध्‍याय--18)

मेरे और गुरूदयाल सि पर चुटकुला(अध्‍यायअट्टारहवां)

क दफा ओशो ने एक चुटकुला सुनाया, स्वामी स्वभाव, स्वामी गुरुदयाल सिंह जंगल में भटक गए। सात दिन के भूखे प्यासे थे। जंगल में एक रेस्टोरेंट मिला, जहां नग्न स्त्रियां खाना परोसती थीं। जब स्वामी स्वभाव से पूछा कि ' आप क्या लेंगे?' तो उन्होंने कहा, 'मिल्क शेकतो उस स्त्री ने अपने स्तन से दूध निकाल कर दे दिया। इस पर स्वामी गुरुदयाल जोर—जोर से हंसने लगे। वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतह। और बोले, 'मैं तो काफी बनाने के लिए गरम पानी मांगने वाला था।बाद में आश्रम में हर कोई हम से पूछे कि 'भाई यह रेस्टोरेंट कहां है?' तब मैंने कहा, 'भाई ऐसा कोई रेस्टोरेंट नहीं है। यह तो ओशो की माया है।

मधुबाला का अर्थ होता है. जो तुम्हारा जाम भर दे। यहां मेरे सारे संन्यासी इसी काम में लगे हुए हैं कि जो तुम्हारी प्यालियों को भर दें। उन्होंने चखा है, वे तुम्हें भी चखने का आमंत्रण दे रहे हैं।

स्‍वर्णिम क्षणों की सूमधुर यादें--(अध्‍याय--17)

सरदार गुरूदयाल सिंह एक अनूठा व्‍यक्‍ति(अध्‍यायसत्‍तरहवां)

      म सभी के बीच सरदार गुरुदयाल सिंह बहुत प्रसिद्ध हैं। वे अपने आपमें अनूठे सज्जन थे। उनकी जितनी तारीफ की जाए कम है। ओशो ने अपने प्रवचनों में सरदार गुरुदयाल सिंह के बारे में बहुत कुछ बोला है। उनकी हंसी के ठहाके जग प्रसिद्ध हैं। वे मेरे बहुत ही अजीज मित्र थे। शुरू में मुलाकात हुई और हमारे बीच कोई बात बन गई। उनमें एक भोलापन था, जिसका आनंद उनके साथ रहने में आता था। यह घटना उन दिनों की है जब ओशो माउंट आबू में ध्यान शिविर लिया करते थे।
वहां शिविर के दौरान एक दिन मैं जब सुबह शिविर स्थल पर पहुंचा तो मुझे पता चला कि सरदार गुरुदयाल सिंह को वहां से निकाल दिया गया है। क्योंकि जयंती भाई को उनका विदेशी लडकियों के साथ घूमना—फिरना, साथ रहना पसंद नहीं आया। मुझे यह बात बडी अजीब लगी। मैंने पूछा कि 'भाई सरदार को क्यों निकाल दिया?' तो मुझे जवाब मिला कि उन्होंने ऐसा—ऐसा किया और इस कारण उन्हें निकाल दिया और ज्यादा जानना है तो ओशो से पूछो।

तंत्र-सूत्र--(भाग-4) प्रवचन--58

अपनी नियति अपने हाथ में लो—(प्रवचन—अट्ठावनवां)

प्रश्‍नसार:
1—क्‍या त्‍वरित विधियां स्‍वभाव के, ताओ के विपरीत नहीं है?
2—हम अब तक बुद्धत्‍व को प्राप्‍त क्‍यों नहीं हुए?
3—यदि समग्र बोध और समग्र स्‍वतंत्रता को उपलब्‍ध होकर प्राकृतिक
      विकास के करोड़ो जन्‍मों का टाला जा सकता है, तो क्‍या यह
      तर्क नहीं किया जा सकता है क ऐसा हस्‍तक्षेप नहीं करना चाहिए?
4—क्‍या अकर्म और विस्‍तृत बोध पर्यायवाची है?

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

सपना यह संसार--(प्रवचन--12)


होश और बेहोशी के पार है समाधि—(प्रवचन—बारहवां)
दिनांक, रविवार, 22 जुलाई 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान, मुझे हिंदी तो बहुत आती नहीं, और कभी कुछ लिखा भी नहीं है, लेकिन जब से आप आए हैं जिंदगी में, आप साथ कविता भी ले आए हैं। कल आपने कहा कि होश से रहना, चूक मत जाना। तो आप ही बताएं, अब क्या होगा! जब इतनी पिला दी, तो होश में आने को कहते हो!

बैठे हैं राहगुजर पे तेरी, सांस थाम के
मदहोश गिर गए हम तेरे जाम से
लड़खड़ाऊं उठ न सकूंगा, जो उठूं कभी
पहुंचेंगे जाने कैसे हबी तेरे धाम पे
रातो सहर की होश नहीं आए जाए कब
कुर्बान हुए जब हम तेरे नाम पे।
जब से खुला मैखाना तेरे इश्क का हसीं
पीने चले दीवाने सभी, जिगर को थाम के।

सोमवार, 16 नवंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--16)

प्रवचन खोखला लगा(अध्‍यायसोहलवां)

शो से पूरी दुनिया से लाखों—लाखों मित्रों ने तरह—तरह के प्रश्न पूछे हैं। शायद ही ऐसा कोई विषय छूटा हो जिस पर ओशो से प्रश्न न पूछा गया हो। और हर तरह के प्रश्न का जवाब ऐसा होता कि सुनते ही रह जाओ। एक बार किसी ने तो यह तक पूछ लिया कि ' मैं आपको सुनते—सुनते बोर हो गया हूं।जरा सोचो कोई अपने सद्गुरु से इस तरह का प्रश्न पूछ सकता है? क्या किसी दूसरी सभा में यह संभव है? लेकिन ओशो के साथ सब कुछ संभव है।
इस प्रश्न का उत्तर भी ओशो ने बहुत ही सुंदर दिया। सबसे पहले तो यह बात स्वीकार ली कि 'मैं कोई बहुत बड़ा साहित्यकार या शब्दों का मालिक नहीं हूं। थोड़े से शब्द हैं जो बार—बार उपयोग करता हूं। बोर होना स्वाभाविक है।इतना कहने के बाद ओशो उस मित्र पर बोलते हैं, कहते हैं, 'तुम भी गजब के व्यक्ति हो, बोर हो गये लेकिन बदले नहीं, रूपांतरित नहीं हुए। मेरे शब्द मनोरंजन के लिए नहीं जगाने के लिए हैं......।