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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

दि बुक—(ऐलन वॉटस)-035

ऑन दि टैबू अगेंस्‍ट नोइग हू यू आर-ओशो की प्रिय पुस्तकें 

The Book on the Taboo Against Knowing Who You Are by 

     किताब में प्रवेश करने से पहले खुद ऐलन वॉटस संक्षेप में इसे लिखने की वजह बताता है।
      ‘’यह किताब मनुष्‍य के उस निषिद्ध लेकिन अनचीन्‍हें टैबू के संबंध में है जो एक तरह से हमारी साजिश है हमारे ही प्रति कि हम स्‍वयं को जानना नहीं चाहते। चमड़े के थैले में बंद हम जो एक अलग-थलग हस्‍ती बनकर जीते है वह एक भ्रांति है। यही वह भ्रांति है जिसकी वजह से मनुष्‍य ने टैकनॉलॉजी का उपयोग अपने पर्यावरण पर विजय पाने के लिए और फलत: खुद के अंतिम विनाश के लिए किया।

      ‘’इसलिए दरकार है इस अहसास की कि हम विश्‍व के साथ जो कट गये है इससे बाहर आ जायें और अपने वजूद को पहचाने। इसलिए मैंने वेदांत के सूत्रों को चुनकर उन्‍हें पूरी तरह से आधुनिक शैली में पेश किया है। ताकि वेदांत दर्शन का परिचय पश्‍चिम को हो। यह पाश्‍चात्‍य विज्ञान और पूर्वीय अंत: प्रज्ञा का क्रॉस ब्रीड है, संकर है।‘’

सेक्‍स नैतिक या अनैतिक—ओशो (भाग दो)

हास्‍य और सेक्‍स के बीच क्‍या संबंध है--
     इनमें निश्‍चित संबंध है; संबंध बहुत सामान्‍य है। सेक्‍स का चरमोत्कर्ष और हंसी एक ही ढंग से होता है; उनकी प्रक्रिया एक जैसी है। सेक्‍स के चरमोत्कर्ष में भी तुम तनाव के शिखर तक जाते हो। तुम विस्‍फोट के करीब और करीब आ रहे हो। और तब शिखर पर अचानक चरम सुख घटता है। तनाव के पास शिखर पर अचानक सब कुछ शिथिल हो जाता है। तनाव के शिखर और शिथिलता के बीच इतना बड़ा विरोध है कि तुम्‍हें ऐसा लगता है कि तुम शांत, स्‍थिर सागर में गिर गये—गहन विश्रांति, सधन समर्पण।

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

सेक्‍स नैतिक या अनैतिक: ओशो (भाग-1)

सेक्‍स से संबंधित किसी नैतिकता का कोई भविष्‍य नहीं है। सच तो यह है कि सेक्‍स और नैतिकता के संयोजन ने नैतिकता के सारे अतीत को विषैला कर दिया है। नैतिकता इतनी सेक्‍स केंद्रित हो गई कि उसके दूसरे सभी आयाम खो गये—जो अधिक महत्‍वपूर्ण है। असल में सेक्‍स नैतिकता से इतना संबंधित नहीं होना चाहिए।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

दि गॉस्पल—(थॉमस)-034

दि गॉस्पल-(एकॉर्डिंग टू थॉमस)--ओशो की प्रिय पुस्तकेंं


The Gospel of Thomas

     वह दिसंबर का एक भाग्‍य शाली दिन था। सन था 1951 उत्‍तर ईजिप्‍त में एक शहर है नाग हम्‍मदि। उसके आसपास बियाबान में एक अरब किसान अपने खेत के लिए खुदाई कर रहा था। अचानक उसे एक मिट्टी का बड़ा सा लाल रंग का पुराना बर्तन मिला। वह उत्‍तेजना से भर गया, उसे लगा की कोई गड़ा हुआ धन मिल गया। पहले तो उसे डर लगा कि कोई जिन प्रेत है; उसने जल्‍दी से फावड़ा मार कर बर्तन को नीचे गिराया, अंदर उसे न तो जिन मिला और न धन। कुछ कागजी किताबें जरूर मिलीं। लगभग एक दर्जन किताबें सुनहरे भूरे रंग के चमड़े में बंधी हुई। उसे क्‍या पता था कि उसे एक ऐसा असाधारण दस्‍तावेज मिला है जो तकरीबन 1500 साल पहले निकटवर्ती मठ के भिक्षुओं ने पुरातनपंथी चर्च के विध्‍वंसक चंगुल से बचाने की खातिर भूमि के नीचे दफ़ना रखा था। चर्च उस समय जो-जो भी विद्रोही मत रखते थे उन सबको नष्‍ट कर रहा था। चर्च का क्रोध जायज भी है कि क्‍योंकि जीसस के ये मूल सूत्र प्रकाशित होते तो चर्च का काम तमाम हो जाता।

एक आदमी पर्वत जैसा-(हु आंग पो)-033

दि ज़ेन टीचिंग ऑफ हु आंग पो ऑन दि ट्रांसमिशन ऑफ माईड--ं
अंग्रेजी अनुवाद: जॉन ब्‍लोफेल्‍ड

The Zen teaching of Huang Po on the transmission of mind-John Blofield

    हु आंग पो एक मनुष्‍य का नाम था और पर्वत का भी क्‍योंकि हु आंग पो इसी नाम के पर्वत पर रहता था। यह एक उतंग ज़ेन सदगुरू था जिसे पर्वत शिखर का नाम मिला क्‍योंकि वह खुद भी एक उत्तुंग शिखर था।
      यह किताब उसके शिष्‍य और विद्वान पंडित पेई सियु द्वारा किया गया संकलन है। चांग साम्राज्‍य में ईसवीं सदी 850 में यह संकलन चीनी भाषा में किया गया था।

      आठवीं शताब्दी में ज़ेन दो शाखाओं में बट गया था: आकस्‍मिक बुद्धत्‍व और क्रमश: बुद्धत्‍व।
      क्रमश: बुद्धत्‍व का प्रतिपादन करने वाली शाखा अधिक समय नहीं चली। आकस्‍मिक बुद्धत्‍व में विश्‍वास करने वालों की संख्‍या अधिक होती चली गई।

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

रिसरेक्‍शन—(टॉलस्टॉय)-032

रिसरेक्‍शन-(लियो टॉलस्‍टॉय)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

Resurrection-Leo Tolstoy
     ‘’रिसरेक्शन’’ टॉलस्‍टॉय का आखिरी उपन्‍यास है। इससे पहले ‘’वार एंड पीस’’ और ऐना कैरेनिना’’ जैसे श्रेष्‍ठ और महाकाय उपन्‍यास लिखकर टॉलस्‍टॉय ने विश्‍व भर में ख्‍याति अर्जित कर ली थी। ऐना कैरेनिना के बारे में उसने खुद कहा कि मैंने अपने आपको पूरा उंडेल दिया है। इस उपन्‍यास के बाद टॉलस्‍टॉय की कल्‍पनाशीलता वाकई चुक गई थी क्‍योंकि इसके बाद वह दार्शनिक किताबें लिखने लगा था। अपने आपको एक संत या ऋषि की तरह प्रक्षेपित करने लगा था। उस भाव दशा में ‘’रिसरेक्शन’’ जैसा उपन्‍यास लिखने की प्रेरणा टॉलस्‍टॉय के पुनर्जन्‍म जैसी ही थी। रिसरेक्‍शन अर्थात पुनरुज्जीवन।

      अख़बार में प्रकाशित एक छोटी सी खबर पढ़कर टॉलस्‍टॉय के भीतर का सोया हुआ सर्जन जाग उठा और उसने इस उपन्‍यास को जन्‍म दिया। ‘’रिसरेक्‍शन’’ के कई अंश लंबे समय तक विवाद के घेरे में पड़े थे। रशियन चर्च ने उन पर प्रतिबंध लगा दिया क्‍योंकि वे चर्च के पाखंड और राजनीति पर प्रहार करते थे। चर्च जीसस के सूत्रों पर जिस तरह अमल कर रहांं था वह टॉलस्‍टॉय को बिलकुल पसंद नहीं था, इसलिए अपने उस पर चोट की।

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

ब्रदर्स कार्मोझोव-(दोस्तोव्सकी)-031

ब्रदर्स कार्मोझोव-(फ्योदोर दोस्तोव्सकी)-ओशो की प्रिय पुस्तकेंं
The Brothers Karamazov by Fyodor Dostoevsky
      विश्‍व विख्‍यात रशियन उपन्‍यासकार फ्योदोर दोस्तोव्सकी की श्रेष्‍ठ रचना ब्रदर्स कार्मोझोव ओशो की दृष्‍टि में सर्वश्रेष्‍ठ तीन किताबों में से एक है। यह कहानी है बेइंतहा प्‍यार की, कत्‍ल की और आध्‍यात्‍मिक खोज की। यह कहानी वस्‍तुत: लेखक की अपनी खोज की कहानी है। उसकी खोज यह है कि सत्‍य क्‍या है। मनुष्‍य क्‍या चीज है, जीवन क्‍या है, ईश्‍वर क्‍या है, है या नहीं। इस उपन्‍यास के सशक्‍त चरित्र दोस्तोव्सकी की गहरी निगाह के प्रतीक है जो मनुष्‍य के अवचेतन की झाड़ियों में गहरी पैठती है। इस किताब के विषय में वह खुद कहता है कि ‘’अगर मैंने इस उपन्‍यास को पूरा कर लिया तो मैं प्रसन्‍नतापूर्वक विदा लुंगा। इसके द्वारा मैंने अपने आपको पूरी तरह अभिव्‍यक्‍त कर लिया है।

      यह कहानी बहती है फ्योदोर कार्मोझोव और उसके चार बेटों के अंतर्सबंधों के बीच उपन्‍यास का खलनायक है। यह अर्थपूर्ण है कि दोस्तोव्सकी उसे अपना नाम देता है। उसका सबसे छोटा बेटा जो कि नेक और भला है, सबका प्‍यारा है, इस उपन्‍यास का नायक है।

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

‘शत्रुघ्न सिन्‍हा:

ओशो: काले वातावरण में चमकता हुआ प्रकाश पुंज--
     ओशो साधारण व्‍यक्‍तियों के बीच एक असाधारण व्‍यक्‍तित्‍व है। असाधारण इसलिए कि उन्‍होंने अपनी शक्‍ति को न केवल पहचाना है बल्‍कि उसका विकास भी किया है। इस साधारण हाड़-मांस के शरीर को अपनी बुद्धि, तपस्‍या, ज्ञान, गुण, परिपक्‍वता, साधना, संयम, साहस इन सारी बातों के बल पर अपने आपको बिलकुल भिन्‍न कर दिया है। असाधारण व्यक्तित्व में परिवर्तित कर दिया है। साथ-साथ उन्‍होंने यह भी रास्‍ता दिखा दिया है कि मनुष्‍य अगर अपनी क्षमता को पहचाने, और रियाज़ करे तो अपनी शक्‍ति को पूर्ण विकसित कर सकता है। लोगों के संग रहते हुए भिन्‍न हो सकता है। ओशो ने जो पाया वह मनुष्‍य के लिए मुश्‍किल तो है; नामुमकिन नहीं।

दि विल टु पावर: (नीत्से)-030

दि विल टु पावर-(फ्रेडरिक नीत्‍से)-ओशो की प्रिय पुस्तकेंं

The Will To Power-Nietzche's

     कुछ व्‍यक्‍तियों का वजूद इतना बड़ा होता है कि उनके देश का नाम उनके नाम सक जुड़ जाता है। जैसे ग्रीस सुकरात और प्लेटों की याद दिलाता है। चीन लाओत्से का देश बन गया। वैसे ही जर्मनी फ्रेडरिक नीत्‍शे का पर्यायवाची हुआ। नीत्‍शे—जिस महान दार्शनिक को ओशो ‘’जायंट’’ या विराट पुरूष कहते है। नीत्‍शे की प्रतिभा को ओशो ने बहुत सम्‍मान दिया है। नीत्‍शे के महाकाव्‍य ‘’दसस्‍पेक जुरतुस्त्र’’ पर प्रवचन माला कर ओशो ने नीत्‍शे को अपनी साहित्‍य संपदा में अमर कर दिया है। उसी नीत्‍शे की अंतिम किताब ‘’दि विल टु पावर’’ ओशो की मनपसंद किताबों में  शामिल है।
      यह किताब कई अर्थों में अनूठी है। एक—यह किताब प्रकाशित करने के लिए लिखी ही नहीं गई थी। नीत्‍शे का निधन 1900 में हुआ। 1884-1888 के बीच उसने जो टिप्‍पणियां अर्थात नोटस लिखे थे उन्हें एकत्रित कर उसकी बहन फ्रॉ एलिज़ाबेथ फ्रॉस्‍टर नीत्‍शे ने 1901 में प्रकाशित किया।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

जीसस के अज्ञात जीवन का रहस्‍य : (ओशो)

ओशो कहते है कि जीसस पूर्णत: संबुद्ध थे किंतु वे ऐसे लोगों में रहते थे जो संबोधि या समाधि के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे। इसलिए जीसस को ऐसी भाषा का प्रयोग करना पडा जिससे यह गलतफहमी हो जाती है कि वे संबुद्ध नहीं थे। प्रबुद्ध नहीं थे। वे दूसरी किसी भाषा का प्रयोग कर भी नहीं  सकते। बुद्ध की भाषा इनसे बिलकुल भिन्‍न है। बुद्ध ऐसे शब्‍दों का प्रयोग कभी नहीं कर सकत कि ‘’मैं परमात्‍मा का पुत्र हूं।’’ वे ‘’पिता’’ और ‘’पुत्र’’ जैस शब्‍दों का प्रयोग नहीं करते क्‍योंकि ये शब्‍द व्‍यर्थ है। परंतु जीसस करते भी क्‍या। जहां वे बोल रहे थ वहां के लोग इसी प्रकार की भाषा को समझते थ। बुद्ध की भाषा अलग है क्‍योंकि वे बिलकुल अलग प्रकार के लोगों से बात कर रहे थे।

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

दि हिस्‍ट्री ऑफ वेस्‍टर्न फिलॉसॉफी-(रसेल);029

दि हिस्‍ट्री ऑफ वेस्‍टर्न फिलॉसॉफी—(बर्ट्रेंड रसेल)-ओशो की प्रिय पुस्तकें  

A History of Western Philosophy - Bertrand Russell 
 इंग्‍लैंड के विश्‍व विख्‍यात दार्शनिक, लेखक बर्ट्रेंड रसेल ने अपरिसीम श्रम करके विचार के विकास की कहानी लिखी है। यह कहानी उसके एक महाकाव्‍य पुस्‍तक में उंडेली है। जिसका नाम है: ‘’दि हिस्‍ट्री ऑफ वेस्‍टर्न फिलॉसॉफी’’ पाश्‍चात्‍य दर्शन का इतिहास अर्थात मनुष्‍य के विचारों का इतिहास। इस पुस्‍तक में रसेल ने 2500 वर्षों के काल-खंड को समेटा है। लगभग 585 ईसा पूर्व से लेकिर 1859 के जॉन डूयुए तक सैकड़ों दार्शनिकों के चिंतन, दार्शनिक सिद्धांत और मनुष्‍य जाति पर हुए उनके परिणामों का संकलन तथा सशक्‍त विश्‍लेषण इस विशाल ग्रंथ में ग्रंथित है।

      इस पुस्‍तक का नाम सुनकर यदि कोई यह सोचे कि यह तो पश्‍चिम के मनुष्‍य के काम की चीज है, हमारा उससे क्‍या लेना देना, तो यह गलत सोच रहा है। मनुष्‍य पश्‍चिम का हो या पूरब का, आज इक्कीसवी सदी की दहलीज पर पूरब-पश्‍चिम एक हो गए है। और हम सभी पश्‍चिम से प्रभावित है। हम सब अरस्‍तू के वंशज है। हमारा तर्क, हमारी सोच, हमारी बुद्धि अरस्तू की तर्क सरणी से बनी है। अरस्‍तू ने तर्क का जो ढांचा दिया है वह मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क में इतना गहरा खुद गया है कि आधुनिक मनुष्‍य उससे अन्‍यथा सोच भी नहीं सकता।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

प्रार्थना ध्‍यान—ओशो

अच्‍छा हो कि यह प्रार्थना ध्‍यान आप रात में करो। कमरे में अंधकार कर ले। और ध्‍यान खत्‍म होने के तुरंत बाद सो जाओ। या सुबह भी इसे किया जा सकता है, परंतु उसके बाद पंद्रह मिनट का विश्राम जरूर करना चाहिए। वह विश्राम अनिवार्य है, अन्‍यथा तुम्‍हें लगेगा कि तुम नशे में हो, तंद्रा में हो।

सायकोसिंथेसिस—(असोजियोली)-028

ए मैन्‍युअल ऑफ प्रिंसिपल्‍स एंड टेकनिक्स—असोजियोली एम. डी.

ओशो की प्रिय पुस्तकें

Psychosynthesis: A manual of principles and techniques -Roberto Assagioli

(यद्यपि असोजियोली  बुद्ध पुरूष नहीं है, और वह चेतना की परम स्‍थिति का वर्णन नहीं करता, तथापि अंतर् याता की समूची प्रक्रिया को वह अत्‍यंत विधायक दृष्‍टिकोण से और वैज्ञानिक ढंग से प्रस्‍तुत करता है। लगता है कहीं उसका तार ओशो चेतना द्वारा होने वाली आगामी आध्‍यात्‍मिक क्रांति से मिला हुआ है। अंत: आश्‍चर्य नहीं कि ओशो कहते है, मैं चाहूंगा कि मेरे सभी संन्‍यासी असोजियोली को पढ़े।)

     मनोविश्‍लेषण के क्षेत्र में यह एक ऐसी किताब है जो फ्रायड की मनोवैज्ञानिक सलिला को एक नया मोड़ देती है। मानव मन की अचेतन वृतियां को समझने के लिए सिगमंड फ्रायड ने मन को विश्‍लेषण कर अवचेतन की बारीक से बारीक तरंग को पकड़ने की कोशिश की है। और इटालियन मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट असोजियोली ने उससे ठीक उलटी प्रणाली ईजाद की। विश्‍लेषण से छिन्‍न-भिन्‍न हुए मन के टुकड़ों को समेट कर उसे एक अखंड संपूर्णता प्रदान करने की विधि विकसित की। असोजियोली के इस विज्ञान का नाम है: सायकोसिंथेसिस। इसकी सही अनुवाद होगा: मानसिक संश्‍लेषण या मन को जोड़ना।

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

ओस कण और सागर: (ओशो--ध्‍यान विधि)

(यह विधि इस बात का बोध कराने का एक उपाय है कि हम किस प्रकार स्‍वयं को दूसरों से पृथक करते है। और होश पूर्वक उस पृथकता को विलीन करते है।)

कब:
      प्रात: स्‍नान के पश्‍चात और रात्रि सोने से पूर्व अविधि; तीस मिनट
निर्देश:
      फर्श पर या कुर्सी पर बैठ जाएं, अपने शरीर को बिना किसी प्रयत्‍न या तनाव के यथासंभव सीधा रखें ताकि आपकी रीढ़ की हड्डी 90 डिग्री के कोण पर हो। आँखों को जोर से बंद न करे, लेकिन सहज स्फुरणा से दोनों पलकों को आराम से बंद होने दे।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

सुरक्षा प्रभा मंडल ध्‍यान: (काया कल्‍प करने के लिए)

क्‍या आप जानते है कि सप्ताहांत में आप इतना थक जाते है कि खड़े भी नहीं हो पाते। एक विधि प्रस्‍तुत है—कायाकल्‍प करने के लिए नहीं, अपितु आपकी क्‍लांति को यथासंभव कम करने के लिए। हमारी थकावट के कई कारण हो सकते है—चारों और का शोर, हलचल, गंध दूसरों की भावनाएं, उनके विचार—सभी आपको प्रभावित कर सकते है। हम निरंतर एक दूसरे को भला बुरा कहते रहते है। एक दूसरे को डाँटते-फटकारते रहते है। निरंतर अपने नकारात्‍मक भाव व विचार क्रोध-आक्रोश भय चिंता, विवशता आदि-आदि दूसरों को संप्रेषित करते रहते है। यदि हम स्‍वयं को इनके आक्रमणों से बचाना नहीं जानते तो यह बात समझ में आती है कि हम क्‍यों थक जाते है।

दीवान-ए-गालिब-(मिर्जा गालििब)-027

 दीवान-ए-गालिब-(असदल्‍ला खां ग़ालिब)-ओशो की प्रिय पूस्तकें

Deewan-E-Galib-(Mirza Galib)

कल हमने दिल्‍ली के ही एक सूफी फकीर सरमद की बात की थी आज भी दिल्‍ली की गलियों में जमा मस्जिद से थोड़ा अंदर की तरफ़ कुच करेंगें बल्‍लिमारन। जहां, महान सूफी शायद मिर्जा गालिब के मुशायरे में चंद देर रूकेंगे। बल्लिमारन के मोहल्‍ले की वो पेचीदा दरीरों की सी गलियाँ...सामने टाल के नुक्‍कड पर बटेरों के क़सीदे...गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद, वो वाह, वाह....चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कूद टाट के परदे...एक बकरी के मिमियाने की आवाज....ओर धुँधलाती हुई शाम के बेनूर अंधेर ऐसे दीवारों से मुंह जोड़कर चलते है यहां, चूड़ी वाला के कटरे की बड़ी बी जैसे अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाजे टटोलते। आज जो गली इतनी बेनुर लग रही है। जब मैं पहली बार उस घर में पहुंचा तो कुछ क्षण तो उसे अटक निहारता ही रह गया।

      असल में वहां अब जूते का कारखाना था। शरीफ़ मिया ने मुझे उस घर में भेजा जहां इस सदी का महान शायद मिर्जा गालिब की हवेली थी। समय ने क्‍या से क्‍या कर दिया। खेर सरकार ने बाद में उस हवेली का दर्द सूना और आज उसे मिर्जा जी की याद में संग्रहालय बना दिया। वो बेनूर अंधेरी सी गली, आज भी बेनुर लग रही है। जिसके रोंए-रेशे में कभी काफ़ी महकती थी। अब उदास और बूढ़ी हो कर झड़ गई है। अब उन पैबंद को कौन गांठ बांधेगा।

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

सरमद :यहूदी संत-(सरमद)-026

सरमद : भारत का यहूदी संत—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

( सरमद का कत्‍ल कर दिया गया मुगल बादशाह औरंगज़ेब के हुक्‍म से। उसने मुल्‍लाओं के साथ साजिश की थी। लेकिन सरमद हंसता रहा। उसने कहा, मरने के बाद भी मैं यहीं कहूंगा। दिल्‍ली की विशाल जामा मस्‍जिद, जहां सरमद का कत्‍ल हुआ, इस महान व्‍यक्‍ति की समृति लिये खड़ी है। बड़ी बेरहमी से, अमानवीय तरीके से उसका कत्‍ल हुआ। उसका कटा हुआ सर मस्‍जिद की सीढ़ियों पर लुढकता हुआ चिल्‍ला रहा था: ‘’ला इलाही इल अल्‍लाह।‘’ वहां खड़े हजारों लोग इस वाकये को देख रहे थे।
      दिल्‍ली की मशहूर जामा मस्‍जिद से कुछ ही दूर, बल्‍कि बहुत करीब, एक मज़ार है जिस पर हजारों मुरीद फूल चढ़ाते, चादर उढ़ाने आते है। इत्र की बोतलों और लोबान की खुशबू से महक उठता है उसका परिवेश। वह मज़ार है हज़रत सईद सरमद की।

      आज वे हज़रत कहलाते है लेकिन जब तक जिस्‍म ओढ़े थे तब तक वह एक नंगा फकीर था। सच पुछें तो मुगल बादशाह औरंगज़ेब की निगाहों में फकीर कम, काफ़िर ज्‍यादा। सरमद एक यहूदी सौदागर था, जो सत्रहवीं सदी में पैदा हुआ—शायद पैलेस्‍टाइन में। वह आर्मेनिया, पर्शिया और हिन्‍दुस्‍तान के बीच बगीचों और मेवों का व्‍यापार करता था। हिंदुस्‍तान में सोने-चाँदी के बर्तन, पीतल और तांबे की चीजों की खरीद-फरोख्‍त करता था। उस वक्‍त हिंदुस्‍तान की हर तरह की कारीगरी में बड़ी साख थी।

रविवार, 18 दिसंबर 2011

लल्‍लवाख—(लल्ला)-025

लल्‍लाावाखनी-(लल्‍ला की वाणी)-ओशो की प्रिय पुस्तकें
Lalla-Vakyani 
     योग मार्ग स्‍त्री-पुरूष, दोनों के लिए समान रूप से उपल्‍बध है। लेकिन न जाने क्‍यों स्‍त्रियां उस मार्ग पर बहुत कम चलीं। और जो चलीं भी, उनमें पहुंचने वाली अत्‍यंत कम है। कश्‍मीरी रहस्‍यदर्शी स्‍त्री लल्‍ला ऐसी अद्वितीय स्‍त्रियों में से एक है। वह योगिनी थी इसलिए उसे नाम मिला, लल्‍ला योगेश्‍वरी।

      लल्‍ला की एक और अद्वितीयता यह थी कि वह आजीवन नग्‍न रही। शायद विश्‍व में एक मात्र स्‍त्री होगी जो निर्वस्‍त्र होकर बीच बाजार रही। पुरूष भी इतनी हिम्‍मत नहीं कर पाते जो आज से सात सौ साल पहले एक भारतीय स्‍त्री ने की। स्‍त्रियों के लिए अपनी देह के पार जाना लगभग असंभव है। एक लल्‍ला ही अनोखी थी जो विदेही अवस्‍था में मुक्‍त मन से विचरती रही। इसलिए कश्‍मीरी लोग कहते थे, ‘’हम दो ही नाम जानते है; एक अल्‍लाह और दूसरा लल्‍ला।‘’

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

सायकोएनेलिसिस एंड दि अनकांशस–(लॉरेन्स)-024

सायकोएनेलिसिस एंड दि अनकांशस—(डी. एच. लॉरेन्स)

ओशो की प्रिय पुस्तकें

Psychoanalysis and the Unconscious-Lawrence, D. H.

     बीसवीं सदी के आरंभ में सिगमंड फ्रायड और उसके शिष्‍योत्‍तम युग ने पहली बार मनुष्‍य के मन की गहराई में दबे हुए अवचेतन या अनकांशस का उॅहापोह किया। ओशो स्‍पष्‍ट कहते है कि लॉरेन्‍स एक स्‍थापित मनोवैज्ञानिक न होते हुए भी वह मन की गहराइयों में अधिक कुशलता से पहुंचा है। और उसने बड़ी सुंदरता से अवचेतन की बारीकियां को शब्‍दांकित किया है।

      यह किताब सबसे पहले 1923 में प्रकाशित हुई। इन दो निबंधों में लॉरेन्‍स का मूल बिंदू यह है कि ‘’अवचेतन’’ जीवन का ही दूसरा नाम है। उसका मानना है कि मानव जीवन में जो भी कहा नहीं जा सकता वह उसकी निजता और भावनाओं का सबसे गहरा स्‍त्रोत है। फ्रायड ने मनुष के अवचेतन को बड़ा की कुरूप, अंधियारा, और रूग्‍ण दिखाया है। और इसी कारण लॉरेन्‍स अवचेतन के संबंध में अपने विचार जाहिर करने के लिए प्रेरित हो उठा। इन निबंधों में वह अवचेतन के जैविक और शारीरिक पहलुओं को उजागर करता है। और कहता है कि समाज और व्‍यक्‍ति दोनों ही अवचेतन का उपयोग अपने काम संबंधों में और पारिवारिक रिश्‍तों में न कर सकें। उसका आग्रह है कि अवचेतन को विकसित करने के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन किये जाये।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

मदर-(गोर्की)-023

मदर—(मैक्‍सिम गोर्की)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

Mother-- Maxim Gorky
 (विख्‍यात रशियन लेखक मैक्‍सिम गोर्की उपन्‍यास मदर पहली रशियन क्रांति के पहले लिखा गया था जब ज़ार शाही के खिलाफ मजदूरों को उत्‍थान शुरू हुआ। रशिया में नया-नया औधोगिकीकरण हुआ था। शहरों में कारखाने खड़े हुए और उनमें काम करने के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ने लगी। कारख़ानों के मालिक मजदूरों का शोषण ठीक उसी तरह करने लगे जैसे ज़ार किसानों का करते थे। मजदूरों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ।)

      यह उपन्‍यास भी एक कारखाने की पृष्‍ठभूमि में लिखा गया। एक अर्थ में उपन्‍यास की नायिका मदर है, मदर अर्थात मां, पावेल की मां—लेकिन सच देखा जाये तो मजदूरों की बदतर हालत, उनका असंतोष और असंतोष जन्य बगावत इस उपन्‍यास के मुख्‍य चरित्र है। सारे मजदूर यहां एक सामूहिक चेहरा बनकर उभरते है। मदर है उन मजदूरों के नेता पावेल की मां। वह अप्रयोजन, परिस्थितिवश उनके आंदोलन में खिंच जाती है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

दि डेस्‍टिनी ऑफ दि माइंड-(हास)-022

दि डेस्‍टिनी ऑफ दि माइंड—विलियम हास
ओशो कीी प्रिय पुस्तकें 
The Destiny of the Mind. East and West by William S. Has
      बीसवीं सदी के प्रारंभ में अनेक जर्मन तथा यूरोपियन विद्वान पूरब की प्रज्ञा की और आकर्षित हुए। यूरोप में बुद्धिवाद का उत्कर्ष चरम शिखर पर था लेकिन यह बुद्धिवाद तर्क पर आधारित था। वह बुद्धि की संतुष्‍टि तो कर सकता था लेकिन ह्रदय की प्‍यास बुझाने में असमर्थ था। इसीलिए विशेष रूप से जर्मन विद्घान भारत की वैदिक प्रज्ञा को समझने के लिए उत्‍सुक हुए।

      विलियम हास भी उनमें से एक था।
      जर्मनी के एक छोटे से शहर में पला, बड़ा हुआ हास भारतीय आध्‍यात्‍मिक ग्रंथों का थोड़ा-बहुत अध्‍यन कर रहा था। एक दिन अपने गांव के रमणीय निसर्ग के सान्‍निध्‍य में बने हुए मकान की छत पर बैठा हुआ हास एक भारतीय अतिथि के साथ दार्शनिक चर्चा कर रहा था। विषय था, तर्क पर खड़ी हुई बौद्धिक समझ की सीमाएं। अचानक उस भारतीय व्‍यक्‍ति ने सामने खिले हुए फूलों की और इशारा कर पूछा, ‘’इन फूलों को आप किस पृष्‍ठभूमि से देखते है?’’

ओशो--( चक्रा साउंड ध्‍यान)

चक्रा साउंड ध्‍यान:


     इस ध्‍यान में चक्रों को लयवद्ध करने व उसके प्रति एक चेतना जाग्रत करने के लिए ध्‍वनियों का उपयोग किया जाता है। स्‍वयं घ्वनियां पैदा करते हुए अथवा केवल संगीत को सुन कर अपने भीतर ध्‍वनियों को महसूस करते हुए, इस ध्‍यान में आप एक गहरे शांत अंतर मौन में उतर सकते है। यह ध्‍यान किसी भी समय किया जा सकता है। पृष्‍टभूमि का संगीत आपको ऊर्जा गत रूप से इस ध्‍यान में सहयोगी होता है। व हर चरण के प्रारंभ का संकेत देता है।
पहला चरण: (45 मिनट)

      खड़े होना चाहें, आराम से बैठाना चाहें, या लेटना—आपको जो भी सुविधाजनक हो करें।( परन्‍तु मेरे खुद के अनुभव से आपको एक बात कहना चाहता हूं की आप क्‍यों न तीनों अवस्‍थाओं में ध्‍यान प्रयोग करें—इस ध्‍यान की तीन शृंखला है, पहले में खड़े हो, दूसरी में बैठ जाये और तीसरी में लेट जाये, तीसरी और आखरी में आप इतने गहरे विश्राम में चले जायेगे, जो बहुत सहज होगा) अपनी पीठ को सीधा करें व शरीर को ढीला छोड़ दे। श्‍वास को छाती की बजाय पेट से आने दे। जो भी घ्वनियां आप करेंगे वह खुले मुंह व जबड़े को ढीला छोड़ कर करें। अपनी आंखें बंद कर लें और संगीत को सुनें; यदि आप चाहें तो पहले चक्र में घ्वनियां पैदा करना शुरू कर दे। आप चाहे तो एक ही सूर निकाल सकते है या सूर बदल भी सकते है।

दांतों में छिपे रहस्‍य: ओशो

एक समबुद्ध का निजि अनुभव:

इन पिछले कुछ दिनों से मेरे दांतों में भयानक दर्द है। मैं बिलकुल भी सो नहीं पाया। घंटों लेटे रहते हुए मैंने अपने जीवन में पहली बार दांतों के बारे में सोचा। साधारणतया डेंटिस्ट, दंत चिकित्‍सक को छोड़कर दांतों के बारे में कौन सोचता है।

लेडी गागा—ये क्‍या कहते है

ओशो भारत से मेरा पहला परिचय है: लेडी गागा
     लेडी गागा वर्तमान समय में संगीत के अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍टेज पर सबसे बड़ा नाम है। कुछ ही वर्षो के अल्‍प समय में उसकी ख्‍याति माइकल जैकसन की ख्याति को भी पार कर गई। विश्‍व भर में करोड़ों युवा और युवा ह्रदय लोग उनके संगीत के दीवाने ही नहीं, इंटरनेट पर ट्विटर के ज़रिये उनके विचारों की भी प्रतीक्षा करते है।

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

दि फीनिक्स-(लॉरन्स)-021

दि फीनिक्स—(डी. एच. लॉरेन्स)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

The Phoenix and the Flame- D. H. Lawrence

      लॉरेन्स इंग्‍लैण्‍ड में 1885 में पैदा हुआ। दुर्भाग्‍य से इस प्रतिभाशाली लेखक को बड़ी छोटी सी जिंदगी मिली। केवल पैंतालीस वर्ष—लेकिन उम्र के इस छोटे से सफर में उसकी सर्जनशीलता जलप्रपात की तरह धुंआधार बहती रही। उसने चालीस से अधिक किताबें लिखी। वह पूर्णतया नैसर्गिक जीवन के हक में था। कारख़ानों और मशीनों के आक्रमण से विकृत हुई इंग्‍लैण्‍ड की संस्‍कृति से वह बेहद दुःखी था। वह स्‍वस्‍थ जीवन, प्रेम और मानवीयता का आलम चाहता था। उसका लेखन अत्‍यंत संवेदनशील, सौंदर्य पूर्ण और नजाकत से भरा हुआ था। सेक्‍स और प्रेम के विषय में उसकी कोई कुंठाएं नहीं थी।
वह स्‍त्री-पुरूष प्रेम संबंध पर बेझिझक और बेबाक लिखता था। इसीलिए संभ्रांत समाज उससे डरता था। 1930 में फ्रांस के एक रुग्णालय में उसकी बीमार हालत में मृत्‍यु हुई। उसकी असमय मृत्‍यु के जिम्‍मेदार कौन थे? उसकी अविश्‍वसनीय गरीबी, उसकी देह और जर्जर बनाने वाला टी. बी. या वे सारे प्रकाशक जो उसकी सत्‍यवादिता से भयभीत थे?

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

मैक्‍ज़िम्‍स फॉर रिवोल्‍युशनिस्‍ट-(बर्नार्ड शॉ)-020

मैक्‍ज़िम्‍स फॉर रिवोल्‍युशनिस्‍ट-(जॉर्ज बर्नार्ड शॉ)-ओशो की प्रिय पुस्तकें


Man and Superman by Georj Barnad Shaw
     जॉर्ज बर्नार्ड शॉ इस सदी का अद्भुत मेधावी और मजाकिया लेखक था। उसका व्‍यक्‍तित्‍व उतना ही रंगबिरंगा था जितनी कि उसकी साहित्‍य-संपदा। उसकी रोजी रोटी कमाने का मूल व्‍यवसाय था। ‘’नाटकों को लेखन।’’ बर्नार्ड शॉ एक साथ कई चीजें था। उसको किसी एक श्रेणी में रखना संभव नहीं था। उसको किसी एक श्रेणी में रखना संभव नहीं था। वह बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। वह परिष्‍कृत कलाओं का—साहित्‍य, संगीत, चित्र, नाटक—समीक्षक था। वह अर्थशास्‍त्री और जैविकीतज्ञ था। वह अपना धर्म ‘’क्रिएटिव इवोल्‍युशनिस्‍ट, सृजनात्‍मक, विकासवादी बताता था।
उपन्‍यास लिखते समय वह इन्‍सेनवादी था, शेलीवादी नास्‍तिक भी था। शाकाहारी, चाय और शराब से दूर रहनेवाले, खतरनाक आदमी, मसखरा, असुरक्षित साईकिल चलाने वाला और भगवान जाने क्‍या-क्‍या था। अपने शिखर पर रहते हुए उसने अपने आसपास के सभी लोगों को संभ्रमित कर रख था। उसके व्‍यक्‍ति के इतने अधिक और विरोधाभासी आयाम थे कि यह मानना कठिन था कि वह एक ही आदमी के विभिन्‍न चेहरे है।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

श्री भाष्‍य–-(आचार्य रामानुज)-019

श्री भाष्य-रामानुज आचार्य-ओशो की प्रिय पुस्तकें  

brahma Sutra-Rama Nujama
      रामानुज लिखित श्री भाष्‍य उस युग का प्रतिनिधित्‍व करता है जिस युग में भारत चित पर पांडित्‍य राज करता था। बुद्धत्‍व की अनुभूति तो बहुत तो बहुत संक्षिप्‍त सुत्रों में लिखी जाती है। ठीक वैसे जैसे विज्ञान के सूत्र होते है। तीन या चार सुगठित शब्‍दों में समुंदर जैसा अनुभव भर देना प्रबुद्ध पुरूषों की प्रिय क्रीड़ा थी। लेकिन इन आणविक सूत्रों पर लंबी-लंबी दार्शनिक टीकाएं लिखना पंडितों का मनपसंद खेल था। इन टीकाओं का जंगल इतना घना होता कि उसमें से रास्‍ता खोजते हुए मूल सूत्रों तक पहुंचना माउंट एवरेस्‍ट पर चढ़ने से कम दूभर नहीं था। पढ़ने वाले भी दार्शनिकों के वाग वैभव का खूब आनंद लेते थे।

      रामनुजाचार्य का श्री भाष्‍य भी इसी परंपरा का वहन करता है। बादरायण ने लिखे हुए ब्रह्मसूत्र विश्‍व विख्यात है। वे इतने गुह्म है कि आदि शंकराचार्य जैसे परम स्‍थिति को उपलब्‍ध महापुरुष भी उसकी टीका लिखे बगैर नहीं रह सके। इन्‍हीं ब्रह्मसूत्रों पर टीका लिखी है रामानुज ने। शंकराचार्य अद्वैत वादी थे। तो रामानुज ने विशिष्‍टाद्वैत को स्‍थापित किया। अद्वैत को मानने वाले विशुद्ध ज्ञान के पक्ष में थे। रामानुज भक्‍ति की राह चले थे और फिर भी भक्‍ति को ज्ञान के साथ जोड़ सके। एकदम रूखे-सूखे ब्रह्मसूत्रों में उन्‍हें भक्‍ति का रस कैसे दिखाई दिया यही ऐ चमत्‍कार है।

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

यारी मेरी यार की (ओशो)--(सुख राज) भाग--3

सुखराज ओशो के बाल सखा

कहानी
     कहानी अब नर्मदा के पात्र की तरह गहरी हो चली थी: इसके बाद फौरन पैंतरा बदलकर ओशो कहते है मैं जाता हूं। तू भी मेरे साथ चल। मैंने कहा, आपकी छोटी गाड़ी है, पहले ही इतने सारे लोग बैठे है, आप निकलो, मैं पीछे-पीछे आ रहा हूं। तो वे बोले, अच्‍छा एक काम कर, तेरे बेटे शेखर को मेरे साथ भेज दे। लेकिन मैं नहीं माना। मेरी यही रट कि मैं आपके पीछे आ रहा हूं।

टशियन ऑर्गेनम-(आॅॅस्पेन्सकी)-018

टर्शियम ऑगेंनम—(डी.पी. ऑस्‍पेन्‍सकी)-ओशो की प्रिय पुसतकें

Tertium Organum-P.D. Ouspensky


     इस पूस्‍तक का लेखक पी.डी ऑस्‍पेन्‍सकी गणितज्ञ ओर तर्कशास्‍त्री, दोनों था। ओर इन दोनों विषयों में उसकी जो पैठ थी उसका इत्र निचोड़कर उसने एक दर्शन खड़ा किया जिसका लोकप्रिय नाम था: चौथा आयाम। उसकेआधार पर उसने पश्‍चिमी तर्कसरणी तथा रहस्‍यवाद के बीच सेतू बनाया।

      ऑस्‍पेन्‍सकी कहता है: आकाश का आयाम चेतना के विकास से तालमेल रखता है। वहकहता है कि चौथा आयाम, चेतना की अभिव्‍यक्‍ति है। ओर वह चौथा आयाम; अंत:प्रज्ञा। आज मनुष्‍यजाति चेतना के जिस उच्‍चतर स्‍तर पर खड़ी है, विश्‍व चेतना का उदय हो रहा है। उसके लिएएक नये किस्‍म की तर्कसारणी की आवश्‍यकत होगी—ऐसी तर्कसरणी जो अरस्‍तु ओर बेकन के पार है। इसीलिए वह शीषक दिया गया है: दर्शियम आर्गोनम विचार का नवीन सिद्धांत। नवीन गणित और सापेक्षता के सिद्धांत का ऊहापोह करने वाला हये पहला महत्‍वपूर्ण ग्रंथ है।
      अपने ग्रंथ को ऑस्‍पेन्‍सकी किस प्रकार देखता है।

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

यारी मेरी यार की (ओशो)--(सुख राज) भाग-- 2


सुखराज भारती की यादें..
       एक बार रजनीश बोले, ‘’यार सुखराज, अपन तो ऊब गये है यहां रहते-रहते। अपन तो चलें कहीं और। ये कहां की झंझट में पड़े है, रोज खाना खाओ, पानी पीओ, यह करो, वह करो।‘’ सुखराज जी की आंखों में एक चित्र उभर आया।
      ‘’मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया कि कहां चलने की बात कर रहे है। मैंने पूछा, क्‍या कह रहे हो यार? कहां चले अपन?’’

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

दि सॉंग्‍ज ऑफ मारपा-(तिलोपा)-017

महामुद्रा का उत्‍सव—(तिलोपा) ओशो की प्रिय पुस्तकेंं 
     तिब्‍बत में काग्‍यु गुरूओं की एक लंबी परंपरा थी। जो सदियों-सदियों से चली आ रही थी: रहस्‍यदर्शी गुरु अपनी गहरी आध्‍यात्‍मिक अनुभूति को अभिव्‍यक्‍त करने के हेतु सहजस्‍फूर्त गीत रचते थे। तिब्‍बती साहित्‍य में इन बौद्ध शिक्षकों को गीत बहुत प्रसिद्ध है। इन गीतों में सत्‍य की अभीप्‍सा, ह्रार्दिक भक्‍ति और विनोद बुद्धि भी झलकती है।

      काग्‍यु गुरूओं की परंपरा चर्च की तरह बहुत संगठित धर्म नहीं थी। इस परंपरा को तिलोपा  ने स्‍थापित किया था। या कहें, उसके बाद काग्‍यु गुरूओं की परंपरा बनी। तिलोपा गुरूओं की शरण में गांव-गांव भटका, और उसने उनसे ध्‍यान के प्रयोग सीखें। अंतत: गंगा किनारे एक घास की झोंपड़ी बनाई और वहां रहने लगा। जो उसके पास आते उनको ध्‍यान सिखाता। उनमें एक था पंडित नारोपा। प्रसिद्ध नालंदा विद्यापीठ का कुलपति नारोपा आखिर सांसारिक सफलताओं के पीछे छुपा हुआ ह्रदय का खालीपन सह न सका। एक झटके में सब कुछ छोड़कर वह वास्‍तविक गुरु की तलाश में घूमने लगा। तिलोपा में उसे ऐसे गुरु के दर्शन हुए और वह वहीं टिक गया। बारह साल तक उसने ध्‍यान और योग किया और उसे महामुद्रा का बोध हुआ।

रविवार, 4 दिसंबर 2011

सात-सात साल का वर्तुल—(ओशो)

एक से सात साल तक--
     बच्‍चा बहुत मासूम होता है, बिलकुल संत जैसा। वह अपनी जननेंद्रियों से खेलता है लेकिन उसे पता नहीं होता कि वह गलत है। वह नैसर्गिक ढ़ंग से जीता है।

सात से चौदह साल तक--
      सात साल में बच्‍चा बचपन से बहार आ जाता है। एक नया अध्‍याय खुलता है। अब तक वह निर्दोष था, अब दुनियादारी और दुनिया की चालाकियां सीखने लगता है। झूठ बोलने लगता है, मुखौटे पहनने लगता है। झूठ की पहली पर्त उसे घेर लेती है।

यारी मेरी यार की —ओशो ( सुखराज)

(सुख राज का बाल सखा)
      ओशो कम्‍यून के बुद्ध कक्ष में हजारों लोग बैठे है, उस भरी सभा में ओशो कह रहे है, ‘’मेरा बचपन का दोस्‍त सुख राज यहां बैठा हुआ है। हमारी दोस्‍ती इतनी पुरानी है कि उस समय की स्मृति भी अब धुँधली हो गई है। और वह मेरा एकमात्र दोस्‍त है.....मेरे और भी कई दोस्‍त थे लेकिन वे आये और चले गये। लेकिन वह आज भी मेरे साथ है। अविचल क्‍योंकि यह किसी वैचारिक सहमति का सवाल नहीं था। प्रेम का सवाल था। इससे कोई लेना देना ही नहीं था कि मैं क्‍या कहता हूं, क्‍या करता हूं, वह क्‍या करता है, क्‍या कहता है। यह बात ही असंगत है।...सुख राज बड़ा प्‍यारा आदमी है।

दि सांग ऑफ सांगस्--(सालोमन)-016

सोलोमन का गीत—(विच इज़ सोलोमनस्) 

ओशो की प्रिय पुस्तकें
     गीतों का गीत जो कि सोलोमन का है।
      यहूदियों के धर्मग्रंथ ‘’दि ओल्‍ड टैस्टामैंट’’ या बाइबिल के कुछ विवादास्‍पद पन्‍ने ‘’सोलोमन का गीत’’ बनकर आज भी यहूदी आरे ईसाई धर्म गुरूओं के लिए शर्म और संकोच की वजह बने हुए है।
      गुरु गंभीर धार्मिक संहिता के बीच अचानक लगभग छह गीत ऐसे उभरे है जैसे मजबूत पुराने किले की दीवारों में कहीं लिली का नाजुक गुलाबी ह्रदय खिल उठा हो।

      इन गीतों में पैलेस्‍टाइन का सम्राट सोलोमन और उसकी प्रेमिका के बीच हुए प्रणय प्रसंग का कामुक वर्णन है। काम के उठते हुए ज्‍वार को इन गीतों में बेपर्दा होकर मुखरित किया है। रबाइयों के लिए ये गीत कांटे बनकर चुभते है। इजरायल में पहली ईसवी में हुई धर्म परिषद ने पवित्र बाइबिल के दामन पर लगे हुए इस दाग को मिटा देने की भरसक कोशिश की। लेकिन रबाई आकिब ने पूरी शक्‍ति लगाकर इन्‍हें धर्म ग्रंथ में स्‍थापित किया। उसने कहा, ‘’जिस दिन यह किताब इजरायल को दी गई उस दिन की गरिमा के सामने पूरा ब्रह्मांड फीका है।

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

दि तवासिन—(मंसूर)-015

तवासिन—(मंसूर मस्ताना)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

Tawanish-Mansoor Mastana

     कभी-कभी इंसान की मौत इतनी जिंदा हो जाती है कि उसकी जिंदगी को भी अपनी रोशनी से पुनरुज्जीवित कर देती है। पर्शियन सूफी औलिया अल-हृल्लास मंसूर का नाम दो चीजों के लिए इन्‍सानियत के ज़ेहन में खुद गया है : एक उसकी रूबाइयात और दूसरा उसकी मौत। ‘’अनलहक़’’ का निडर ऐलान करने वाले कई औलिया होंगे लेकिन इस क्रूफ्र के लिए अपने जिस्‍म की बोटी-बोट कटवाने वाला एक ही था: ‘’मंसूर’’ इस खौफनाक, अमानुष मौत की वजह से उसका प्‍यारा वचन ‘’अनलहक़’’ भी दसों दिशाओं में अब तक गूंज रहा है। आदि शंकराचार्य ने भी ‘’अहं ब्रह्मास्‍मि’’  के महावाक्य का उद्घोष किया था लेकिन सहनशील, उदारमना हिंदू धर्म ने उन्‍हें इतनी कठोर सज़ा नहीं दी।

            मंसूर अल हल्लाज पर्शिया में मुसलमान मां-बाप से पैदा हुआ। वह सन था ईसवी 857। फारसी और तुर्की किताबों में उसका जिक्र पाया जाता है। वह अरेबिक भाषा में लिखता था। हल्लाज का मतलब है, ऊन निकालने वाला। मंसूर के पिता का यह पेशा था, और मंसूर ने भी यही पेशा अपनाया। जन्‍म से सुन्‍नी होने के नाते मंसूर बहुत पाक दिल था। वह रमज़ान में रोज़े रखता था और हज़ की यात्रा में वि पूरा मौन रहता था ताकि उसे अंदर से अल्‍लाह की आवाज़ सुनाई पड़े।

ताओ तेह किंग-(लाओत्से)-014

ताओ तेह किंग—(लाओत्‍से)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

Tao Teh King-Lao Tzu

लाओत्‍से ने जो कहा : वह पच्‍चीस सौ साल पुराना जरूर है। लेकिन, एक अर्थ में यह इतना ही नया है। जितनी सुबह की ओस की बुंदे नयी होती है। नया इसलिए है कि उस पर अब तक प्रयोग नहीं हुआ। नया इसलिए है कि मनुष्‍य की आत्‍मा उस रास्‍ते पर एक कदम भी नहीं चली। रास्‍ता बिलकुल अछूता और कुंआरा है।

भारत की तरह चीन ने भी धरती पर सबसे पुरानी वह समृद्ध सभ्‍यता की विरासत पायी है। कोई छह हजार वर्षों का उसका ज्ञात इतिहास है—अर्जनों और उपलब्‍धियों से लदा हुआ। यदि पूछा जाए कि चीन के इस लंबे और शानदार इतिहास में सबसे उजागर व्‍यक्‍तित्व, एक ही व्‍यक्‍तित्‍व कौन हुआ, तो आज का प्रबुद्ध जगत बिना हिचकिचाहट के लाओत्‍से का नाम लेगा। कुछ समय पूर्व इस प्रश्‍न के उत्‍तर में शायद कंफ्यूशियस का नाम लिया जाता। कंफ्यूशियस लाओत्‍से का समकालीन था। और यह भी सच है कि बीते समय में चीनी समाज पर लाओत्‍से की जीवन दृष्‍टि के बजाय कंफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए।


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

दि प्रॉफेट-(खलिल जिब्रान)-013

दि गार्डन ऑफ दि प्रॉफेट(खलिल जिब्रान)
The Prophe-Kahlil Gibran
      यह छोटी सी खूबसूरत किताब अधिकत: गद्य में लिखी गई है। लेकिन इसके ह्रदय में कविता बह रही है। खलिल जिब्रान का अंतस् उस सौंदर्य लोक में प्रविष्‍ट हुआ है। जहां गद्य और पद्य में बहुत फर्क नहीं होता और विचार भी एक तरह का संगीत हो जाता है।
      यह किताब भी जिब्रान ने उसी अंदाज में लिखी है जैसे उसकी अन्‍य किताबें। अल मुस्‍तफा, एक प्रबुद्ध रहस्‍यदर्शी बहुत यात्राएं कर उसके अपने द्वीप में वापस लौटता है जहां उसका अपना बग़ीचा है। उस बग़ीचे में उसके मां-बाप दफनाये गये है। इसी बग़ीचे में वह पला, बड़ा हुआ।

      ‘’तिचरीन’’ के महीने में अल मुस्‍तफा अपने द्वीप वापस लौटता है। यह महीना स्‍मरण करने का महीना है। अंत: अपने मां-बाप और मातृभूमि का स्‍मरण करने अल मुस्‍तफा आ रहा है। जैसे उसका जहाज किनारे से गुफ्तगू करने लगता है। जहाज का नाविक देखते है कि किनारे पर गांव वालों की भीड़ खड़ी अल मुस्‍तफा के स्‍वागत का इंतजार कर रही है। अल मुस्‍तफा के ह्रदय में समुंदर लहरा रहा है। लेकिन उसके होंठ चुप है। वह गांव वालों की पीड़ा को अपने भीतर महसूस कर रहा है।
      तभी भीड़ में से करीमा आगे आती है। करीमा उसकी बचपन की दोस्‍त है। वह सबकी जबान बनती है—‘’बारह साल तक तुम हमसे मुंह छिपाये रहे। बारह साल तक तुम्‍हारी आवाज सुनने के लिए हमारे कान तरसते रहे।