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मंगलवार, 31 जनवरी 2012

प्रिंसिपिया एथिका-(जी. इ. मूर)-049

प्रिंसिपिया एथिका—जी. इ. मूर—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

आधुनिक दर्शन शास्‍त्र के विकास में जी. ई मूर का योगदान उतना ही महत्‍वपूर्ण है! जितना कि बर्ट्रेंड रसेल का। उसकी बहुत कम रचनाएं प्रकाशित हुई। और ‘’प्रिंसिपिया एथिका’’ उनमें से सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रसिद्ध किताब है।
      अंग्रेजी साहित्‍य और चिंतन पर उसका प्रभाव विचारणीय है। बर्ट्रेंड रसेल ने इस किताब के बारे में लिखा, ‘’इसका हमारे ऊपर (कैम्ब्रिज में) जो प्रभाव पडा, और इसे लिखने से पहले और बाद में जो व्‍याख्‍यान हुआ उसने हर चीज को प्रभावित किया। हमारे लिए वह विचारों और मूल्यों का बहुत बड़ा स्‍त्रोत था। लॉर्ड केन्‍स का तो मानना था कि यह किताब प्लेटों से भी बेहतर है।

      ‘’यह किताब नैतिक तर्क सारणी के दो मूलभूत सिद्धांतों की मीमांसा करती है। इसमें दो प्रश्‍न अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण  मालूम होते है; वे कौन सी चीजें है जो अपने आप में शुभ है, और हम किस तरह के कृत्‍य करें? नीतिशास्‍त्र के चिंतन में मूर के लेखन की सरलता, स्‍पष्‍टता और कॉमन सेंस ताजा प्राण फूंक देते है। उसकी बौद्धिक प्रामाणिकता और ओज इस किताब पर श्रेष्‍ठता की मुहर लगाते है।

सोमवार, 30 जनवरी 2012

ध्‍यान में प्रथम अनुभूति--स्‍वामी आनंद प्रसाद

ध्‍यान के प्रथम कदम मनुष्‍य के एक नर्म मुलायम मिट्टी पर पड़ें कदमों की तरह होते है जो बहुत गहरी छाप छोड़ जाते है। फिर आप उसमें श्रद्धा की गुड़ाई की हो तो सोने पे सुहागा समझो। अगर उस भूमि में अपने बीज बो दिया तो वह बहुत गहरा और उँचा वृक्ष जरूर बनेगा। जिसे कोई भी मीलों दूर से भी देख सकेगें। इस लिए प्रथम अनुभूतियों को आज भी में अपने बिलकुल पास महसूस करता हूं, जैसे वो अभी कोरी और अनछुई है। ध्‍यान के पहले दिन ही चित मुझे अचेतन की उन गहराइयों में ले गया। जिस की अनुभूति आज मैं रोंए रेशे में मांस मज्‍जा बन कर समा गई है। कितनी मधुर और ठोस धरातल पर वह अनुभूति मुझे एक स्‍वप्‍न तुल्‍य लगती है। परन्‍तु मैं जानता हूं कि वह कोई कोरी कल्‍पना नहीं थी।

बीइंग एंड टाईम-(मार्टिन हाइडेगर)—48

बीइंग एंड टाईम-(मार्टिन हाइडेगर)—ओशो की प्रिय पुस्‍तकें

कभी-कभार कोई ऐसी किताब प्रकाशित होती है। जो बुद्धिजीवियों की जमात पर टाइम-बम का काम करती है। पहले तो उसकी अपेक्षा की जाती है लेकिन जैसे-जैसे मत बदलते है वह लोगों का ध्‍यान आकर्षित करने लगती है। ऐसी किताब है जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर द्वारा लिखित ‘’बीइंग एंड टाईम’’
इसका प्रभाव न केवल यूरोप और अमेरिका के दर्शन पर हुआ बल्‍कि वहां के साहित्‍य और मनोविज्ञान पर भी हुआ। इसके प्रशंसक तो यहां तक कहते है कि उसने आधुनिक विश्‍व का बौद्धिक नक्‍शा बदल दिया। सार्त्र, मार्टिन वूबर, और कामू जैसे अस्‍तित्‍ववादी दार्शनिक हाइडेगर से बहुत प्रभावित थे। यह किताब पहली बार 1927 में प्रकाशित हुई। चूंकि हाइडेगर जर्मन लोगों के लिए बेबूझ था। इस लिए इसका अनुवाद करना लगभग असंभव था। लेकिन हाइडेगर के प्रभाव शाली शिष्‍य जॉन मैकेरी और एडवर्ड रॉबिन्‍सन ने बड़ी मेहनत से यह किताब अंग्रेजी में उपलब्‍ध कराई। हाइडेगर की खूबी यह है कि वह प्रचलित शब्‍दों का सामान्‍य अर्थों में प्रयोग नहीं करता, वरन उन्‍हें अपने आशय देता है। इस करके उसका लेखन बेहद तरोताजा होता है। पाठक को पुलकित करता है लेकिन अनुवाद के लिए चुनौती बनता है।

शनिवार, 28 जनवरी 2012

पुनर्जन्‍म की बात—ओशो

प्रश्‍न—कुछ धर्म पुनर्जन्‍म में विश्‍वास करते है और कुछ नहीं करते। आप अपने बारे में कैसे जान सकते है कि आपने भी जीवन जिया है और पुन: जीएंगे?

ओशो—सिद्धांतों में मेरा विश्‍वास नहीं हे। मैं एक साधारण आदमी हूं कोई सिद्धांतवादी नहीं। सिद्धांतवादी तो महान विचारक होते है। वह यथार्थ के बारे में कुछ भी नहीं जानते, मगर वह इसके बारे में सिद्धांत गढ़ता रहते है। उसकी पूरा जीवन घूमता ही रहता है। और सत्‍य, यर्थाथ तो बस केंद्र में ही रह जाता है। किंतु सिद्धांतवादी इधर-उधर की हांकने में माहिर होता है।

धर्म के नाम पर इतना गोरख धंधा क्‍यों? ( ओशो)

धर्मों के कारण ही। धर्मों का विवाद इतना है, धर्मों की एक दूसरे के साथ इतनी छीना-झपटी है। धर्मों का एक दूसरे के प्रति विद्वेष इतना है कि धर्म-धर्म ही नहीं रहे। उन पर श्रद्धा सिर्फ वे ही कर सकते है जिनमें बुद्धि नाममात्र को नहीं है। अस सिर्फ मूढ़ ही पाए जाते है मंदिरों में, मसजिदों में। जिसमें थोड़ा भी सोच विचार है, वहां से कभी का विदा हो चुका है। क्‍योंकि जिसमें थोड़ा-सोचविचार है, उसे दिखाई पड़ेगा कि धर्म ने नाम से जो चल रहा है वह धर्म नहीं, राजनीति है। कुछ और है।

उमर ख्‍याम की रूबाइयां—047

उमर ख्याम की रूबाईया-(उमर ख्याम)-ओशो की प्रिय पुस्तके

उमर ख्‍याम  सुंदरी, शराबी, इश्‍क के बारे में लिखता है। उसे पढ़कर लगता है, यह आदमी बड़े से बड़ा सुखवादी होगा। उसकी कविता का सौंदर्य अद्वितीय है। लेकिन वह आदमी ब्रह्मचारी था। उसने कभी शादी नहीं की, उसका कभी किसी से प्रेम नहीं हुआ। वह कवि भी नहीं था। गणितज्ञ था। वह सूफी था। जब वह सौंदर्य के संबंध में लिखता तो ऐसा लगता कि वह स्त्री के सौंदर्य के बारे में लिख रहा है। नहीं, वह परमात्‍मा के सौंदर्य का बखान कर रहा है।

      .....पर्शियन भाषा में उसकी किताबों में चित्र बनाये हुए है और अल्‍लाह को साकी के रूप में चित्रित किया गया है—एक सुंदर स्‍त्री हाथ में सुराही लेकिर शराब ढाल रही है। सूफी शराब को प्रतीक की तरह इस्‍तेमाल करते है। जो इंसान अल्‍लाह से इश्‍क करता है उसे अल्‍लाह एक तरह की मस्‍ती देता है जो उसे बेहोश नहीं करती बल्‍कि होश में लाती है। एक मदहोशी जो उसे नींद से जगाती है।
      फिट्जरल्‍ड को इन प्रतीकों की कोई जानकारी नहीं थी। वह सीधा सरल पार्थिव कवि था। और वस्‍तुत: उमर ख्‍याम से बेहतर कवि था। जब उसने अनुवाद किया तो उसने यही समझा कि स्‍त्री यानी स्‍त्री, शराब यानी शराब। प्रेम यानी प्रेम। उसके लिए प्रतीक नहीं थे। फिट्जरल्‍ड ने अपनी गलतफहमी के द्वारा उमर ख्‍याम को विश्‍व विख्‍यात कर दिया। अगर तुम उमर ख्‍याम को समझने की कोशिश करोगे तो दोनों में इतना अंतर दिखाई देगा कि तुम हैरान होओगे कि फिट्जरल्‍ड ने उमर ख्‍याम के गणितिक मस्‍तिष्‍क से इतनी सुंदर कविता कैसे निर्मित की।

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

लिसन-लिटल मैन-(विलहम रेेक)-46

लिसन-लिटल मैन—विलहम रेक
ओशो की प्रिय पुस्‍तकें

ऑर्गोन इंस्टिट्यूट की आर्काइव्‍ज का एक दस्तावेज ‘’लिसन लिटल मैन’’ एक मानवीय पुस्‍तक है, वैज्ञानिक नहीं। यह ऑर्गोन इंस्टिट्यूट के आर्काइव्‍ज के लिए 1945 की गर्मी में लिखी गई थी। इसे प्रकाशित करने का कोई इरादा नहीं था। यह एक (Natural scientist) प्राकृतिक वैज्ञानिक और चिकित्‍सक के अंतर्द्वंद्व और आंतरिक आंधी तूफ़ानों का परिमाण है। इस वैज्ञानिक ने बरसों तक पहले भोलेपन से, फिर आश्‍चर्य से और अंतत: भय से देखा है कि सड़क पर जानेवाला छोटा आदमी अपने साथ क्‍या करता है। कैसे वह दुःख झेलता है। और विद्रोह करता है; कैसे वह अपनी दुश्‍मनों को सम्‍मान करकता है और दोस्‍तों की हत्‍या करता है। कैसे जब भी उसे लोक प्रतिनिधि बनने की ताकत मिलती है वह इस ताकत का गलत उपयोग कर उससे क्रूरता ही पैदा करता है। इससे पहले उच्‍च वर्ग के पर पीड़कों ने उसके साथ जो किया है। उससे यह क्रूरता अधिक भंयकर होती है।

      ‘’लिटल मैन’’ के साथ यह बातचीत अपने बारे में फैलायी गई अफ़वाहों और बदनामी के लिए दिया गया विलहेम रेक का खामोश जवाब था। वर्षों से, ‘’भावनात्‍मक प्‍लेग’’ ने ऑर्गोन रिसर्च को कुचल डाने का प्रयास किया है—उसे गलत सिद्ध करके नहीं, उसकी बदनाम करके। दुर्भाग्‍य से वह लेखक को ही मारने में सफल हुआ। लेकिन लेखक का काम अभी भी स्‍थापित वैज्ञानिकों और

बुधवार, 25 जनवरी 2012

शिष्‍य का चौथ द्वार खोलना और गुरु कि महाकुंजी—

प्रश्न--हम अपनी मूर्च्‍छित और अहंकारी अवस्‍था में, सदा गुरु के संपर्क में नहीं होते। लेकिन गुरु क्‍या सदा हमारे संपर्क में होता है?
ओशो--    तुम्‍हारी चेतना परत मात्र एक है चार परतों में। लेकिन यह तभी संभव है जब तुमने समर्पण कर दिया हो और उसे अपने गुरु के रूप में स्‍वीकार कर लिया हो, उससे पहले यह संभव नहीं है। यदि तुम मात्र एक विद्यार्थी होते हो, सीख रहे होते हो, तब तुम संपर्क में होते हो तभी गुरु संपर्क में होता है; जब तुम संपर्क में नहीं होते तब वह भी संपर्क में नहीं होता।

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

दि सूफीज़-(इदरीस शाह)-045

दि सूफीज़—(इदरीस शाह)-ओशो की प्रिय पुस्‍तकें

The Way of the Sufi-Idries Shah

समुंदर ने पूछा किसी ने कि ‘’तुम नीला रंग क्‍यों पहले हुए हो ? यह तो मातम का रंग है। और तुम निरंतर उबलते क्‍यों रहते हो ? वह कौन सी आग है जो तुम्‍हें उबालती है ? समुंदर ने कहा, ‘’मेरे महबूब से बिछुड़ कर में उदास हूं इसलिए नीला पड़ गया हूं, और वह प्‍यार की आग है जिससे मैं खोलता रहता हूं।‘’
     यह है सूफी तरीका। सीधा सी बात को प्रतीक रूप में कहना और उस कहने में अर्थों के समुंदर को उंडेलना सूफियाना अंदाज है।
       सूफियों की जीवन शैली, उनके तौर-तरीकों के बारे में अगर सब कुछ एक साथ जानना हो तो इस किताब की सैर करें। रहस्‍य के पर्दे में ढँके सूफियों को दिन के उजाले में लाने  का महत्‍वपूर्ण काम इदरीस शाह ने किया है।

सोमवार, 23 जनवरी 2012

बालशेम तोव—(हसीद)-044

बालशेम तोव—(हसीद दर्शन)-ओशो की प्रिय पुस्तके 

The Baal Shem Tov-Tzavaat HaRivash

हसीद की धारा कुछ चंद रहस्यदर्शीयों की रहस्‍यपूर्ण गहराइयों से पैदा हुई है। बालशेम उनमें सबसे प्रमुख है। हमीद पंथ का जा भी दर्शन है वह शाब्‍दिक नहीं है, बल्‍कि उसके रहस्यदर्शीयों के जीवन में, उनके आचरण में प्रतिबिंबित होता है। इसलिए उनका साहित्‍य सदगुरू के जीवन की घटनाओं की कहानियों से बना है। हसीदों की मान्‍यता है कि ईश्‍वर का प्रकरण स्‍तंभ इन ज़द्दिकियों में प्रवेश करता है और उनका आचरण इस प्रकाश की किरणें है अंत:, स्‍वभावत: दिव्‍य प्रकाश से रोशन है।

      बालशेम तोव हसीदियों का सर्व प्रथम सदगुरू है। ‘’बालशेम तोव’’ असली नाम नहीं है, वह एक किताब है जो इज़रेलबेन एलिएज़र नाम के रहस्‍यदर्शी को मिला हुआ था। हसीद परंपरा में उसे बेशर्त कहा जाता है। इसका अर्थ है: दिव्‍य नामों वाला सदगुरू। बालशेम एक यहूदी रबाई था जिसके पास गुह्म शक्‍तियां थी। वह गांव-गांव घूमता था और अपनी स्वास्थ्य दायी आध्‍यात्‍मिक शक्‍तियों से लोगों का स्‍वस्‍थ करता था। उसने अपनी शक्‍तियां तब तक छुपा रखी थी। जब तक कि उसने खुद को आध्‍यात्‍मिक सदगुरू घोषित नहीं किया। वह किस्‍से-कहानियों में अपनी बात कहता था। हसीद साहित्‍य में बहुत गुरु गंभीर ग्रंथ नहीं है। हसीद फ़क़ीरों द्वारा कही गई किस्‍से कहानियों ही कुल हसीद साहित्‍य है। हसीद मिज़ाज यहूदियों से बिलकुल विपरीत है। यहूदी लोग गंभीर और व्‍यावहारिक होते है। और हसीद मस्‍ती और उन्‍मादी आनंद में जीते है। हसीदों की प्रज्‍वलित आत्‍माएं, ‘’Soul on fire’’ कहा जाता है।

रविवार, 22 जनवरी 2012

दि वे ऑफ झेन-(ऐलन वॉटस)-043

दि वे ऑफ झेन-(ऐलन वॉटस)–ओशो की प्रिय पुस्तकें

The Way of Zen-

आध्‍यात्‍मिक अनुभवों का सौंदर्य यह है कि उनके घटने से विश्‍व की और देखने का नजरिया बदल जाता है। विश्‍व एक समस्‍या नहीं रहता। उल्‍टे ऐसा लगता है कि जो भी है बिलकुल ठीक है, इससे अन्‍यथा हो ही नहीं सकता।   
      इस बार ऐलन वॉटस की दो किताबों को एक साथ प्रस्‍तुत कर रहे है। ये दोनों किताबें ओशो ने एक साथ गिनाई है। ऐलन वॉटस ओशो का प्रिय लेखक है। बहुत कम लेखक है जिनकी शख्‍सियत ओशो को प्रसंद आती है। और ऐलन वॉटस उनमें से एक है। आम तौर पर लेखक और उनकी रचना में जमीन आसमान का फर्क होता है। लेकिन ऐलन वॉटस उसका अपवाद है।

      ‘’दि इज़ इट’’ ऐलन वॉटस के अनुभवों से उपजे हुए लेखों का संकलन है। इन लेखों से जाहिर होता है कि वह केवल विचारक या दार्शनिक नहीं वरन खोजी भी है। उसका कंठ पानी पीने के लिए प्‍यासा है, उसे पानी की बौद्धिक चर्चा नहीं करनी। पहले पृष्‍ठ पर ही ये पंक्‍तियां है: झेन और आध्‍यात्‍मिक अनुभव पर एक निबंध’’ किताब 1961 में प्रकाशित हई है। उसके आमुख में ऐलन वॉटस ने जो वर्णन किया है उससे इन निबंधों की प्रकृति समझ में आती है। 

सोमवार, 9 जनवरी 2012

मैन्‍स पॉसिबल इवोलुशन-(ओस्पेंस्की)-042

दि साइकोलाजी ऑफ-मैन्‍स पॉसिबल इवोलुशन—पी. डी. ओस्पेंस्की--(मनुष्‍य का
संभावित विकास) 
ओशो की प्रिय पुस्तकें 

The Psychology of Man's Possible Evolution-Peter D Ouspensky

     पी. डी. ओस्पेंस्की बीसवीं सदी के विख्‍यात रहस्‍यदर्शी गुरजिएफ का प्रधान शिष्‍य था। वह अत्‍यंत विद्वान और प्रतिभाशाली तो था ही, उसे शब्‍दों की बादशाहत भी हासिल थी। उसने आध्‍यात्‍मिक जगत की खोजों पर एक से एक अद्भुत किताबें लिखी है। यक किताब ‘’दि सॉयकॉलाजी ऑफ मैन्‍स पॉसिबल इवोलुशन’’ ओस्पेंस्की की सबसे छोटी किताब है। वस्‍तुत: यह उसके पाँच व्‍याख्‍यानों का संकलन है जो उसने लंदन में 1934 के दौरान दिये।

      पी. डी. ओस्पेंस्की के व्‍याख्‍यानों का विषय है, ‘’मनोविज्ञान का अध्‍ययन।‘’ बीसवीं सदी से पहले मनोविज्ञान एक स्‍वतंत्र विषय नहीं था। वह धर्म ओर अध्यात्मिक का हिस्‍सा था। हजारों साल तक विश्‍व के सारे पुराने ग्रंथ, भारत के योग सूत्र और छहों दर्शन, सभी कुछ मनोविज्ञान का हिस्‍सा थे। लेकिन इस नाम से मनोविज्ञान कभी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाया। न जाने क्‍यों उसके बारे में यही धारण थी कि वह विकृति है और उसमे कुछ गलत है। मनोविज्ञान को दर्शन शास्‍त्र से घटिया माना जाता था जबकि वे सारे शास्‍त्र चाहे सांख्‍य हो, योग हो, सूफी देशना हो, क्‍या मानवीय मन का ही विज्ञान नहीं बताते?

सूक्ष्‍म शरीर का जगत—ओशो (भाग--3)

प्रश्‍न—क्‍या हम अपने अतीत के जन्‍मों को जान सकते है?

ओशो—निश्‍चित ही जान सकते है। लेकिन अभी तो आप इस जन्‍म को भी नहीं जानते है, अतीत के जन्‍मों को जानना तो फिर बहुत कठिन है। निश्‍चित ही मनुष्‍य जान सकता है। अपने पिछले जन्‍मों को। क्‍योंकि जो भी एक बार चित पर स्‍मृति बन गई है, वह नष्‍ट नहीं होती। वह हमारे चित के गहरे तलों में अनकांशस हिस्‍सों में सदा मौजूद रहती है। हम जो भी जान लेते है कभी नहीं भूलते।

रविवार, 8 जनवरी 2012

सूक्ष्‍म शरीर का जगत—ओशो ( भाग--2)

प्रश्‍न-- एक और मित्र ने पूछा है, आत्‍मा शरीर के बाहर चली जाए, तो क्‍या दूसरे शरीर में भी प्रवेश कर सकती है?
ओशो—कर सकती है। लेकिन दूसरे मृत शरीर में प्रवेश करने का कोई अर्थ और प्रयोजन नहीं रह जाता। क्‍योंकि दूसरा शरीर इस लिए मृत हुआ है कि उस शरीर में रहने वाली आत्‍मा उस शरीर में रहने में असमर्थ हो गई थी। वह शरीर व्‍यर्थ हो गया था। इसीलिए छोड़ा था। कोई प्रयोजन नहीं है, उस शरीर में प्रवेश करने का। लेकिन इस बात की संभावना है कि दूसरे शरीर में प्रवेश किया जा सके।

सूक्ष्‍म शरीर का जगत—ओशो ( भाग--1)

प्रशन--एक मित्र ने पूछा है कि यदि मां के पेट में, पुरूष और स्‍त्री, आत्‍मा के जन्‍मनें के लिए अवसर पैदा करते है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आत्‍माएं अलग-अलग है और सर्वव्‍यापी आत्‍मा नहीं है? उन्होंने यह भी पूछा है कि मैंने तो बहुत बार कहा है कि एक ही है सत्‍य, एक ही परमात्‍मा है, एक ही आत्‍मा है। फिर ये दोनों बातें तो कंट्राडिक्‍टरी, विरोधी मालूम होती है।
ओशो—ये दोनों बातें विरोधी नहीं है। आत्‍मा तो  वस्‍तुत: एक ही है। लेकिन शरीर दो प्रकार के है। एक शरीर जिसे हम स्‍थूल शरीर कहते है, जो हमें दिखाई देता है। एक शरीर जो सूक्ष्‍म शरीर है जो हमें दिखाई नहीं पड़ता है। एक शरीर की जब मृत्‍यु होती है, तो स्‍थूल शरीर तो गिर जाता है। लेकिन जो सूक्ष्‍म शरीर है वह जो सटल बॉडी है, वह नहीं मरती है।

शनिवार, 7 जनवरी 2012

माय ऐक्सपैरिमैंट विद दि टूथ-(गांधी)-041

माय ऐक्सपैरिमैंट विद दि टूथ-(महात्‍मा गांधी)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

My Experiments with Truth: An Autobiography-Mahatma Gandhi

आज में जिस किताब का जिक्र करने जा रहा हूं, उसके बारे में किसी ने सोचा नहीं होगा कि मैं  बोलूगा। वह है: महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा। माय ऐक्सपैरिमैंट विथ टूथ। सत्‍य को लेकिर उनके प्रयोगों के विषय में बात करना सचमुच अद्भुत है। यह सही समय है।
      आज महात्‍मा गांधी के बारे में मैं कुछ अच्‍छी बातें कहता हूं, एक: एक भी व्‍यक्‍ति ने अपनी जीवनी इतनी ईमानदारी से, इतनी प्रामाणिकता से नहीं लिखी। आज तक जो सबसे प्रमाणिक जीवनी लिखी गई उसमें से एक है।

      जीवनी बड़ी विचित्र चीज है। या तो तुम अपनी प्रशंसा करना शुरू कर दो या अत्‍यंत विनम्र बनो। लेकिन महात्‍मा गांधी ये दोनों बातें नहीं कहते। वे सरल है; सिर्फ तथ्‍य कथन करते है, एक वैज्ञानिक की भांति। उन्‍हें हम बात का बहुत अहसास है कि यह उनकी जीवनी है। वे उन सब बातों को कहते है जिन्‍हें आदमी दूसरों से छिपाना चाहता है।

दि आऊटसाइडर-(कॉलिन विलसन)-040

दि आऊटसाइडर-(अजनबी)—कॉलिन विलसन

ओशो की प्रिय पुस्तकें

 The Outsider-Colin Wilson

(प्रसिद्ध लेखक एच. जी. वेल्‍स भी एक अजनबी है। वह स्‍वयं को ‘’अंधों के देश में आँखवाला आदमी’’ कहता है। सोरेन किर्कगार्ड एक गहरा आध्‍यात्‍मिक  दार्शनिक था। ‘’अस्तित्ववाद’’ उसी ने प्रचलित की हुई संज्ञा है। उसने तर्क और दर्शन को बिलकुल ही नकार दिया। वह कहता था: मैं कोई गणित का फार्मूला नहीं हूं—मैं वास्‍तव में ‘’हूं’’।
     बीसवीं सदी के मध्‍य में जो शब्‍द लोकप्रिय हुआ उनमें से एक है: आऊटसाइडर। अस्तित्ववादी दार्शनिक सार्त्र और आल्बेर कामू ने अपनी किताबों में इस शब्‍द का बहुतं प्रयोग किया है। आऊटसाइडर। इस किताब पर एक फिल्‍म भी बनी थी जो बहुचर्चित रही।

      क्‍या अर्थ है ‘’आऊटसाइडर’’ कि? शब्दशः: आऊटसाइडर वह है जो बाहरी व्‍यक्‍ति है, जिंदगी के बाहर खड़ा है। साथी द्रष्‍टा, तटस्‍थ। जीवन के कोलाहल में वह अजनबी है। साक्षी और द्रष्‍टा आध्‍यात्‍मिक शब्‍द है, और आऊटसाइडर दार्शनिकों के दिमाग से पैदा हुआ। बीसवीं सदी के प्रारंभ में पाश्‍चात्‍य विचारक मानव जीवन के प्रति हताश ओर निराशा से भर गये थे। उनकी बुद्धि इतनी प्रखर हो गई थी कि वह साधारण सामाजिक जीवन में रस नहीं ले पाती थी। उस दौर में जो भी अस्तित्ववादी साहित्‍य पैदा हुआ उसमे लेखकों का जीवन के प्रति रूख ऐसा था जैसे वे एक कमरे में खड़े है और दूसरे कमरे में घटने वाली घटनाओं को दूर से देख रहे है। इन अर्थों में आऊटसाइडर याने अजनबी।

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

ए न्‍यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स-(पी. डी. ऑस्पेन्सकी)-039

ए न्‍यू मॉडल ऑफ दि यूनिवर्स—(पी. डी. ऑस्पेन्सकी)-ओशो की प्रिय पुस्तकें

A New Model of the Universe-P. D. Ouspensky

पी. डी. ऑस्पेन्सकी एक रशियन गणितज्ञ और रहस्‍यवादी था। उसे रहस्‍यदर्शी तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन रहस्‍य का खोजी जरूर था। विज्ञान अध्‍यात्‍म, गुह्म विद्या, इन सबमें उसकी एक साथ गहरी पैठ थी। इस अद्भुत प्रतिभाशाली लेखक ने पूरी जिंदगी अस्‍तित्‍व की पहेली को समझने-बुझने में लगायी। उसने विश्वंभर में भ्रमण किया, वह भारत भी आया, कई योगियों और महात्‍माओं से मिला। और अंत मैं गुरजिएफ का शिष्‍य बन गया। गुरजिएफ के साथ उसे जो अनुभव हुए उनके आधार पर उसने कई किताबें लिखी।
     ऑस्पेन्सकी को बचपन से ही अदृश्‍य पुकारता था; उसकी झलकें आती थी। एक तरफ वह फ़िज़िक्स का अध्‍यन करता और दूसरी तरफ उसे ‘’अनंतता’’ दिखाई देता।

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान: ओशो

(3)नासाग्र को देखना (ध्‍यान)—ओशो
लाओत्‍से ने कहा: व्‍यक्‍ति नासाग्र की और  देखे।
क्‍यों—क्‍योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्‍हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है। जब तुम्‍हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें होती है। मूल बात यह है कि तुम्‍हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है—कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्‍बकत्‍व रतना शक्‍तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो अपने बावजूद भी तुम उसकी और खींचे चले आओगे। तुम बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए। एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।

बुधवार, 4 जनवरी 2012

तीसरी आँख : स्‍वप्‍न या सत्‍य?—

ध्‍यान के अंतर्यात्रा पर जो भी चल पड़ता है वह अक्‍सर, अध्‍यात्‍म-जगत के गुह्म विज्ञान से बेहद आकर्षित हो जाता है। इससे पहले कि उसके पैर पार्थिव शरीर की भूमि में दृढ़ता से जम जाएं, वह तीसरे-चौथे-पांचवें सूक्ष्‍म शरीरों की खोजबीन करने लगता है। सुदूर आकाश के ये रहस्‍यपूर्ण टिमटिमाते सितारे उसे बुलाने लगते है। इन सितारों में सर्वाधिक आकर्षक सितारा अगर कोई मालूम होता है तो वह है: ‘’तीसरी आँख का।‘’

तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान: ओशो

(2) पंख की भांति छूना ध्‍यान —ओशो
    
शिव ने कहा: आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।
ओशो--अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्‍हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्‍हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्‍योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे। दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्‍त न हो जाए—बस तुम्‍हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्‍पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्‍योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति।

तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान: --ओशो

(1) साक्षी को खोजना—ओशो

      शिव ने कहा: होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो। देह को पैर से सिर तक प्राण तत्‍व से भर जाने दो, ओर वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए।
      वह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस वह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्‍तव में यह पश्‍चिम में सारे रहस्‍यवाद का उद्गम बन गया। स्‍त्रोत बन गया। वह पश्‍चिम में पूरे रहस्‍यवाद का जनक है।
      यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। इसे समझने का प्रयास करो: ‘’होश को दोनों भौहों के मध्‍य में लाओ।‘’

तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का अंग है: भाग-2 (ओशो)

तो ये बात बहुत विरोधा भाषी है, लेकिन ऐसा है। यदि कोई स्‍त्री ब्रह्मचर्य धारण करना चाहे और अपने शरीर से पृथक रहना चाहे तो वह यह पुरूष की उपेक्षा अधिक आसानी से कर सकती है। एक बार शरीर से अनासक्ति सध जाए तो वह अपने शरीर को पूरी तरह भूल सकती है।
      पुरूष बहुत सरलता से नियंत्रण कर सकता है; लेकिन उसका चित उसके शरीर से ज्‍यादा बंधा है। इसी कारण से नियंत्रण उसके लिए संभव है; लेकिन यह नियंत्रण उसे रोज-रोज करना होगा। सतत करना होगा। और चूंकि स्‍त्री की कामवासना अनाक्रामक है, इसलिए वह इस दिशा में अधिक विश्राम पूर्ण हो सकती है। अधिक अनासक्‍त हो सकती है। लेकिन अनासक्‍ति कठिन है।

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

तीसरी आँख सूक्ष्‍म शरीर का अंग है: भाग-1 (ओशो)

पहले तो दो बातें समझ लेने की है। एक, तीसरी आँख की ऊर्जा वही है जो ऊर्जा दो सामान्‍य आंखों को चलाती है। ऊर्जा वही है, सिर्फ वह नई दिशा में नए केंद्र की और गति करने लगती है। तीसरी आँख है; लेकिन निष्‍क्रिय है। और जब तक सामान्‍य आंखे देखना बंद नहीं करती, तीसरी आँख सक्रिय नहीं हो सकती है। देख नहीं सकती।
      उसी उर्जा को यहां भी बहना है। जब उर्जा सामान्‍य आँखो में बहना बंद कर देती है तो वह तीसरी आँख में बहने लगती है। और जब ऊर्जा तीसरी आँख में बहती है तो सामान्‍य आंखों में देखना बंद कर देती है। वब उनके रहते हुए भी तुम उनके द्वारा कुछ नहीं देखते हो। जो ऊर्जा उनमें बहती थी वह वहां से हट कर नये केंद्र पर गतिमान हो जाती है। यह केंद्र दो आँखो के बीच में स्‍थित है। तीसरी आँख बिलकुल तैयार है; वह किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। लेकिन इसे सक्रिय होने के लिए ऊर्जा चाहिए। और सामान्‍य आंखों की ऊर्जा को यहां लाना होगा।

मात्र एक प्रश्न:

1. मनुष्‍य संध्‍या समय क्यों शराब पीना चाहता है?
ये प्रश्‍न मेरे अंतस से उठी एक जिज्ञासा अभीप्सा है। और में प्रत्‍येक मित्र से चाहता हूं, इसका उत्‍तर दे। क्‍योंकि इसका उत्‍तर जीवन में है, जीने की कला में है,  न की किताबों में......बिना झिझक, प्रयास रहित, चाहे वो शराब पिता हो या नहीं ये बात मायने नहीं रखती। शराब तो मैंने भी कभी नहीं पी परन्‍तु प्रश्‍न ने तो मुझे घेर लिया...याद रखे हम सब का उत्‍तर ही मिल एक उत्‍तर होगा......
स्‍वामी आनंद प्रसाद


एट दि फीट ऑफ दि मास्‍टर-(जे कृष्ण मुर्ति)-038

एट दि फीट ऑफ दि मास्‍टर-(जे. कृष्‍ण मूर्ति)—ओशो की प्रिय पुस्तकें 

At the Feet of the Master: Selected-J. Krishnamurti

     यह किताब गागर में सागर है। इतनी छोटी है कि उसे किताब कहने में झिझक होती हे। चार इंच चौड़ी और पाँच इंच लंबी इस लधु पुस्‍तक के सिर्फ 46 पृष्‍ठों में पूरा ज्ञान सम्‍माहित है। किताब के लेखक का नाम दिया है ‘’अल्‍कायन’’। मद्रास के थियोसोफिकल पिब्लशिग हाऊस ने सन 1910 में पहली बार यह किताब प्रकाशित की। उसके बाद इसके दर्जनों संस्‍करण हुए। ओशो ने यह किताब 1969 में जबलपुर की किसी दुकान से खरीदी थी।

      किताब की भूमिका है एनी बेसेंट द्वारा लिखित। उन्‍होंने लिखा है कि हमारे एक छोटे बंधु की—जो कि आयु में छोटा है, आत्‍मा में बड़ा—यह पहली किताब है जो उसके गुरु ने उसे हस्‍तांतरित की है। गुरु के विचार शिष्‍य के शब्‍दों का परिधान पहन कर आये है।
      इसके बाद एक आमुख है जिस पर किसी का नाम नहीं है। जाहिर है इसे लेखक ने ही लिखा है। उसमे लेखक स्‍पष्‍ट करता है: ‘’ये मेरे शब्‍द नहीं है, मेरे गुरु के शब्‍द है। ये शब्‍द उन सके लिए है जो अंतर्यात्रा पर चलना चाहते है। लेकिन गुरु के शब्‍दों की प्रशंसा करना काफी नहीं है, उन पर चलना जरूरी है। गुरु के शब्‍दों को एकाग्रता से सुनना चाहिए। यदि चूक गए तो वे सदा के लिए खो गए। क्‍योंकि गुरु दो बार नहीं बोलता।‘’

सोमवार, 2 जनवरी 2012

कमेंटरीज़ ऑन लिविंग-(जे कृष्ण मूर्ति)-037

कमेंटरीज़ ऑन लिविंग-(जे. कृष्‍ण मूर्ति) ओशोे की प्रिय पुस्तकें

Commentaries on Living: Jiddu Krishnamurti's

      जे कृष्‍ण मूर्ति की बेहद खूबसूरत किताब, ‘’कमेंटरीज़ ऑन लिविंग’ एक निर्मल झील है। जो कृष्‍ण मूर्ति के अंतरतम को पूरा का पूरा प्रतिबिंबित करती है। कृष्‍ण मूर्ति प्रकृति के सौंदर्य से असीम प्रेम करते थे। जंगलों में, पहाड़ों में देर तक सैर करने का उनका शौक सर्वविदित है। वे प्रकृति की बारीक से बारीक भंगिमा का अति संवेदनशीलता से आत्‍मसात करते थे।

      यह डायरीनुमा दस्‍तावेज कृष्‍ण मूर्ति ने अल्डुअस हक्‍सले के अनुरोध पर लिखा है। कृष्‍ण मूर्ति अमेरिका यूरोप और भारत में निरंतर भ्रमण करते थे। वहां के लोगों से मिलते थे, उनके प्रश्‍नों को हल करते थे। उनका वर्णन उन्‍होंने एक डायरी के रूप में लिखा है। इस डायरी का एक नक्‍शा है जो कृष्‍ण मूर्ति का अपना है। वह इस प्रकार है: पहले प्रकृति का वर्णन, फिर स्‍वयं की मन स्‍थित और चेतना का चित्रण और अंतत: उन व्‍यक्‍तियों और उनके साथ हुए संवाद का शब्‍दांकन जो उस दिन घटा था। यह डायरी त्रिविध संवाद है—व्‍यक्‍ति का प्रकृति से, व्‍यक्‍ति का स्‍वयं से, और व्‍यक्‍ति का व्‍यक्‍ति से। कृष्‍ण मूर्ति की वर्णन शैली फिर वह प्रकृति का वर्णन हो या सामने बैठे हुए व्‍यक्‍ति की मानसिकता का—चित्रमय है। वे दृश्‍य को शब्‍दों में रँगते है। उनके रंग इतने सजीव होते है कि उनके साथ हम भी वह दृश्‍य देखने लगते है। ये डायरियां कृष्‍ण मूर्ति के जीवन भविष्‍य है।

दि फर्स्‍ट एंड लास्‍ट फ़्रीडम-(जे कृृष्णमूर्ति)-036

दि फर्स्‍ट  एंड लास्‍ट फ़्रीडम-(जे. कृष्णामूर्ति) ओशो की प्रिय पुस्तकें 

The First and Last Freedom-Jiddu Krishnamurti

      यह किताब जे. कृष्णामूर्ति के लेखों का संकलन है। यह उस समय छपी है जब कृष्‍ण मूर्ति आत्म क्रांति से गुजरकर स्‍वतंत्र बुद्ध पुरूष के रूप में स्‍थापित हो चूके थे। लंदन के ‘’विक्‍टर गोलांझ लिमिटेड’’ प्रकाशन ने 1958 में यह पुस्‍तक प्रकाशित की। कृष्‍ण मूर्ति के एक प्रशंसक और सुप्रसिद्ध अमरीकी लेखक अल्‍डुअस हक्‍सले ने इस किताब की विद्वत्तापूर्ण भूमिका लिखी है।

      ओशो ने यह किताब 1960 में जबलपुर के मार्डन बुक स्‍टॉल से खरीदी है। इस पर उनके हस्‍ताक्षर है, सिर्फ ‘’रजनीश’। किताब के दो खंड है। पहले खंड में विविध मनोवैज्ञानिक विषयों पर कृष्‍ण मूर्ति के प्रवचन है और दूसरे खंड में प्रश्‍नोतरी है। प्रवचनों के कुछ विषय इस प्रकार है:
क्‍या हम खोज रहे है?
व्‍यक्‍ति और समाज
विश्‍वास
सादगी
इच्‍छा
समय और रूपांतरण
क्‍या सोचने से सारी समस्‍याएं हल हो जायेगी?

रविवार, 1 जनवरी 2012

ओशो गौरी शंकर ध्‍यान--

निर्देश:
     इस विधि में पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण है। पहले दो चरण साधक को तीसरे चरण में सहज लाती हान के लिए तैयार कर देते है।
      ओशो ने बताया है कि यदि पहले चरण में श्‍वास-प्रश्‍वास को ठीक से कर लिया जाए तो रक्‍त प्रवाह में निर्मित कार्बनडाइऑक्साइड के कारण आप स्‍वयं को गौरी शंकर जितना ऊँचा अनुभव करेंगे।

पहला चरण: पंद्रह मिनट
      आंखे बंद करके बैठ जाएं। नाक से गहरी श्‍वास लेकर फेफड़ों को भर लें। श्‍वास को जितनी देर बन पड़े रोके रखें, तब धीमे-धीमे मुख के द्वारा श्‍वास को बाहर छोड़ दे और जितनी देर संभव हो सके फेफड़ों को खाली रखें। फिर नाक से श्‍वास भीतर लें और पूरी प्रक्रिया को दोहराते रहे।