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रविवार, 30 नवंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--099

 मेरी बातें छत पर चढ़ कर कहो—(प्रवचन—निन्‍यनवां)

प्रश्न-सार

1--मात्र होने और बनने में क्या भेद है?

2--क्या शत प्रतिशत शुभ संभव नहीं है?

3--क्या आपकी बात दूसरों को समझाई जाए?

4--आपकी जैसी दृष्टि कैसे उपलब्ध हो?

पहला प्रश्न:

आप कहते हैं कि कुछ होने, बनने या बिकमिंग की चेष्टा मत करो, बस जो हो वही हो रहो--जस्ट बीइंग। विस्तार से बताएं कि यह कैसे साधा जाए?

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--098

नियमों का नियम प्रेम व स्वतंत्रता है—(प्रवचन—अट्ठानवां) 

अध्याय 59

मिताचारी बनो

मानवीय कारबार की व्यवस्था में मिताचारी

होने से बढ़िया दूसरा नियम नहीं है।

मिताचार पूर्व-निवारण करना है;

पूर्व-निवारण करना तैयार रहने और सुदृढ़ होने जैसा है;

तैयार रहना और सुदृढ़ होना सदाजयी होना है;

सदाजयी होना अशेष क्षमता प्राप्त करना है;

जिसमें अशेष क्षमता है,

वही किसी देश का शासन करने योग्य है;

और शासक देश की माता (सिद्धांत) दीर्घजीवी हो सकती है।

यही है ठोस आधार प्राप्त करना, यही है गहरा बल पाना;

और यही अमरता और चिर-दृष्टि का मार्ग है।


सूत्र के पूर्व कुछ बातें समझ लें।
मनुष्य के व्यवहार में और मनुष्य की व्यवस्था में स्वतंत्रता सूत्र है। जितने कम होंगे नियम, जितनी कम व्यवस्था करने की चेष्टा होगी, उतनी ही व्यवस्था आती है।

बेटे की मृत्‍यु के शोक में डूबा श्रावक—(कथायात्रा—053)

बेटे की मृत्‍यु के शोक में डूबा श्रावक—(एस धम्मो सनंतनो)

क श्रावक का बेटा मर गया। वह बहुत दुखी हुआ।
श्रावक कहते हैं सुनने वाले को, बुद्ध को सुनता था। अगर सुना होता तो दुखी होना नहीं था, तो कानों से ही सुना होगा, हृदय से नहीं सुना था। नाममात्र को श्रावक था, वस्तुत: श्रावक होता तो यह बात नहीं होनी थी।
जब बुद्ध को पता चला कि उस श्रावक का बेटा मर गया और वह बहुत दुखी है तो बुद्ध ने कहा अरे तो फिर उसने सुना नहीं। फिर कैसा श्रावक! श्रावक का फिर अर्थ क्या हुआ। वर्षों सुना और जरा भी गुना नहीं। तो आज बेटे ने मरकर सब कलई खोल दी सब उघाड़ा कर दिया।
उसका दुख कुछ ऐसा था कि सारे गांव में चर्चा का विषय बन गया। नित्यप्रति वह श्मशान जाता। बेटा मर गया, जला भी आया मगर रोज जाता उस जगह जहां बेटे को जलाया। वहां बैठकर रोता। जो बेटा अब नही है उससे बातें करता। वह करीब— करीब विक्षिप्त हो गया।

युवक माता—पिता मोहवश संन्‍यस्‍त—(कथा यात्रा—052)

युवक के माता—पिता का मोहवश संन्‍यस्‍त होना—(एस धम्मो सनंतनो)


क युवक बुद्ध से दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था युवक था अभी बहुत कच्ची उम्र का था? जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था मां— बाप से ऊब गया था—इकलौता बेटा था मां—बाप की मौजूदगी धीरे— धीरे उबाने वाली हो गयी थी। और मां— बाप का बड़ा मोह था युवक पर ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे एक ही कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।
थक गया होगा घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था लेकिन ये मां— बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए और कोई उपाय नहीं दिखता था तो वह बुद्ध के संघ में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की मां—बाप तो रोने लगे चिल्लाने— चीखने लगे। यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना उनका मोह उससे भारी था।

तिष्‍यस्‍थविर -परिनिवृत होने की कथा—(कथायात्रा—051)

 तिष्‍यस्‍थविर और बुद्ध के परिनिवृत होने की कथा—(कथा—यात्रा)

पविवेकं रसं पीत्वा रसं उपसमस्स च।
निद्दरो होति निप्पापो धम्मपीतिरसं पिवं। 
     तस्‍माहि:
धीरन्च पज्‍च्‍ज्‍च बहुस्सुतं व धोरय्हसीलं वतवतमरियं।
न तादिसं सपुरिसं सुमेधं भजेथ नक्सतपथं व चंदिमा ।।

क दिन वैशाली में विहार करते हुए भगवान ने भिक्षुओं से कहा—भिक्षुओं सावधान। मैं आज से चार माह बाद परिनिवृत्त हो जाऊंगा। मेरी घड़ी करीब आ रही है मेरे विदा का क्षण निकट आ रहा है। इसलिए जो करने योग्य हो करो। देर मत करो।

ऐसी बात सुन भिक्षुओं में बड़ा भय उत्पन्न हो गया स्वाभाविक। भिक्षु— संघ महाविषाद में डूब गया। स्वाभाविक। जैसे अचानक अमावस हो गयी। भिक्षु रोने लगे छाती पीटने लगे। झुंड के झुंड भिक्षुओं के इकट्टे होने लगे और सोचने लगे और रोने लगे और कहने लगे अब क्या होगा? अब क्या करेंगे।

शिव--सूत्र (ओशो)--प्रवचन--05

संसार के सम्‍मोहन और सत्‍य का आलोक(प्रवचनपांचवां)

दिनांक 15 सितंबर, 1974;
श्री ओशो आश्रम, पूना।
प्रात: काल।

सूत्र:
आत्‍मा चित्‍तम्।
कलादीनां तत्‍वानामविवेको माया।
मोहावरणात् सिद्धि:।
जाग्रद् द्वितीय कर:।
      आत्‍मा चित्‍त है। कला आदि तत्‍वो का अविवेक ही माया है। मोह आवरण से युक्‍त को सिद्धियां तो फलित हो जाती है। लेकिन आत्‍मज्ञान नहीं होता है। स्‍थाई रूप से मोह जय होने पर सहज विद्या फलित होती है। ऐसे जाग्रत योगी को, सारा जगत मेरी ही किरणों का प्रस्‍फुरण हैऐसा बोध होता है।

शनिवार, 29 नवंबर 2014

महावीर वाणी--(भाग--2) प्रवचन-19

वर्णभेद जन्म से नहीं, चर्या से—(प्रवचन—उन्नीसवां)

दिनांक 3 सितम्बर, 1973;
तृतीय पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर हाल, बम्बई

ब्राह्मण—सूत्र : 3

न वि मुंडिएण समणो, ओंकारेण बंभणो
मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेणतावसो ।।
समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो
नाणेणमुणी होइ, तवेण होइ तावसो ।।
कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ
वइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।।
एवं गुणसमाउत्ता, जे भवन्ति दिउत्तमा
ते समत्था समुद्धत्तुं,
परमप्पाणमेव चे ।।

सिर मुंडा लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं होता, "ओम' का जाप कर लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, निर्जन वन में रहने मात्र से कोई मुनि नहीं होता, और न कुशा के बने वस्त्र पहन लेने मात्र से कोई तपस्वी ही हो सकता है।
समता से मनुष्य श्रमण होता है; ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है; ज्ञान से मुनि होता है; और तप से तपस्वी बना जाता है।

भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित—(कथायात्रा—050)

 भोजन भट्ट सम्राट प्रसेनजित—(एस धम्मो सनंतनो)

 म्राट प्रसेनजित भोजन— भट्ट था। उसकी सारी आत्मा जैसे जिह्वा में थी। खाना-खाना और खाना। और तब स्वभावत: सोना-सोना और सोना। इतना भोजन कर लेता कि सदा बीमार रहता। इतना भोजन कर लेता कि सदा चिकित्सक उसके पीछे सेवा में लगे रहते। देह भी स्थूल हो गयी। देह की आभा और कांति भी खो गयी। एक मुर्दा लाश की तरह पड़ा रहता। इतना भोजन कर लेता।
बुद्ध गांव में आए तो प्रसेनजित उन्हें सुनने गया।
जाना पड़ा होगा। सारा गाव जा रहा है और गाव का राजा न जाए तो लोग क्या कहेंगे? लोग समझेंगे, यह अधार्मिक है। उन दिनों राजाओं को दिखाना पड़ता था कि वे धार्मिक हैं। नहीं तो उनकी प्रतिष्ठा चूकती थी, नुकसान होता था। अगर लोगों को पता चल जाए कि राजा अधार्मिक है, तो राजा का सम्मान कम हो जाता था। तो गया होगा। जाना पड़ा होगा।

आलवी में बुद्ध ने एक निर्धन उपासक को भोजन कराया—(कथायात्रा—049)

 आलवी में बुद्ध ने एक निर्धन उपासक को भोजन कराया—कथा—यात्रा

क समय भगवान पांच सौ भिक्षुओं के साथ आलवी नगर आए आलवी नगरवासियों ने भगवान को भोजन के लिए निमंत्रित किया उस दिन आलवी नगर का एक निर्धन उपासक भी भगवान के आगमन को सुनकर धर्म—श्रवण के लिए मन किया। किंतु प्रात: ही उस गरीब के दो बैलों में से एक कहीं चला गया सो उसे बैल को खोजने जाना पड़ा बिना कुछ खाए— पीए ही दोपहर तक वह बैल को खोजता रहा बैल के मिलते ही वह भूखा— प्यासा ही बुद्ध के दर्शन को पहुंच गया उनके चरणों में झुककर धर्म—श्रवण के लिए आतुर हो पास ही बैठ गया।


लेकिन बुद्ध ने पहले भोजन बुलाया। उसके बहुत मना करने पर भी पहले उन्होंने जिद की और उसे भोजन कराया। फिर उपदेश की दो बातें कहीं। वह उन थोड़ी सी बातों को सुनकर ही स्रोतापत्ति— फल को उपलब्ध हो गया भगवान के द्वारा किसी को भोजन कराने की यह घटना बिलकुल नयी थी ऐसा पहले कभी उन्होंने किया न था—और न फिर पीछे कभी किया तो बिजली की भांति भिक्षु— संघ में
चर्चा का विषय बन गयी अंतत: भिक्षुओं ने भगवान से जिज्ञासा की। तो उन्होंने कहा भूखे पेट धर्म नहीं। भूखे पेट धर्म समझा जा सकता नहीं भिक्षुओ भूख के समान और कोई रोग नहीं है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

जिधच्छा परमा रोना संखारा परमा द्रुखा।
एतं जत्वा यकभूतं निबानं परमं सुखं ।।

'भूख सबसे बडा रोग है, संस्कार सबसे बड़े दुख हैं। ऐसा यथार्थ जो जानता है, वही जानता है कि निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।
इस बात को समझना।

बुद्ध का कुलकन्‍या के विवाह में निमंत्रण—(कथा यात्रा—048)

 श्रावस्‍ती में बुद्ध को कुलकन्‍या के विवाह में निमंत्रण—(एस धम्मो सनंतनो)

श्रावस्‍ती में एक कुलकन्‍या का विवाह। मां—बाप ने भिक्षु संध के साथ भगवान को भी निमंत्रित किया। भगवान भिक्षु—संध के साथ आकर आसन पर विराजे है। कुलकन्या भगवान के चरणों में झुकी और फिर अन्य भिक्षुओं के चरणों में। उसका होने वाला पति उसे देखकर नाना प्रकार के काम— संबंधी विचार करता हुआ रागाग्नि से जल रहा था। उसका मन काम की गहन बदलियों और धुओं से ढंका था। उसने भगवान को देखा ही नहीं। न देखा उस विशाल भिक्षुओं के संघ को। उसका मन तो वहां था ही नहीं। वह तो भविष्य में था। उसके भीतर तो सुहागरात चल रही थी। वह तो एक अंधे की भांति था।

भगवान ने उस पर करुणा की और कुछ ऐसा किया कि वह वधू को देखने में अनायास असमर्थ हो गया। जैसे वह नींद से जला ऐसे ही वह चौककर खड़ा हो गया। और तब उसे भगवान दिखायी पड़े और तब दिखायी पड़ा उसे भिक्षु— संघ। और तब दिखायी पड़ा उसे कि अब तक मुझे दिखायी नहीं पड़ रहा था। संसार का धुआ जहां नहीं है वहीं तो सत्य के दर्शन होते हैं। वासना जहां नहीं है वहीं तो भगवत्ता की प्रतीति होती है। उसे चौकन्ना और विस्मय में डूबा देखकर भगवान ने कहा कुमार। रागाग्नि के समान दूसरी कोई अग्नि नहीं है। वही है नर्क वही है निद्रा। जागो प्रिय जागो। और जैसे शरीर उठ बैठा है ऐसे ही तुम भी उत्तिष्ठित हो जाओ। उठो! उठने में ही मनुष्यता की शुरुआत है।
और तब उन्होंने यह गाथा कही—

नत्थि रागसमो अग्नि नत्थि दोससमो कलि।
नत्मि खंधसमा दुक्खा नत्थि सति परं सुखं।।

शिव--सूत्र-(ओशो) -प्रवचन--04

चित्त के अतिक्रमण के उपाय(प्रवचनचौथा)

दिनांक 14 सितंबर, 1974,
प्रात:काल, श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

चितं मंत्र:
प्रयत्‍न: साधक:।
गुरु: उपाय:।
शरीरं हवि:।
ज्ञानमन्‍नम्।
विद्यासंहारे तदुत्‍थस्‍वप्‍नदर्शनम्।

चित्‍त ही मंत्र है। प्रयत्‍न ही साधक है। गुरु उपाय है। शरीर हवि है। ज्ञान ही अन्‍न है। विद्या के संहार से स्‍वप्‍न पैदा होते है।

चित्त ही मंत्र है।
मंत्र ही अर्थ है: जो बार—बार पुनरूक्ति करने से शक्‍ति को अर्जित करे; जिसकी पुनरुक्ति शक्ति बन जाये। जिस विचार को भी बार—बार पुनरुक्त करेंगे, वह धीरे—धीरे आचरण बन जायेगा। जिस विचार को बार—बार दोहराएंगे, जीवन में वह प्रगट होना शुरू हो जायेगा। जो भी आप हैं, वह अनंत बार कुछ विचारों के दोहराए जाने का परिणाम है। सम्मोहन पर बड़ी खोजें हुईं। आधुनिक मनोविज्ञान ने सम्मोहन के बड़े गहरे तलों को खोजा है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--097

शासन जितना कम हो उतना ही शुभ—(प्रवचन—सतानवां)

अध्याय 58

आलसी शासन

शासन जब आलसी और सुस्त होता है,
तब उसकी प्रजा निष्कलुष होती है।
जब शासन दक्ष और साफ-सुथरा होता है,
तब प्रजा असंतुष्ट रहती है।
विपत्ति भाग्य के लिए छांहदार रास्ता है,
और भाग्य विपत्ति के लिए ओट है।
इसके अंतिम नतीजों को जानने योग्य कौन है?
जैसा यह है, सामान्य कभी भी अस्तित्व में नहीं होगा,
लेकिन सामान्य शीघ्र ही पलट कर छलावा बन जाएगा,
और मंगल पलट कर अमंगल।
इस हद तक मनुष्य-जाति भटक गई है!
इसलिए संत ईमानदार या दृढ़ सिद्धांत वाले होते हैं,
लेकिन काट करने वाले या तीखे नोकों वाले नहीं;
उनमें अखंडता, निष्ठा होती है, लेकिन वे दूसरों की हानि नहीं करते;
वे सीधे होते हैं, पर निरंकुश नहीं;
दीप्त होते हैं, पर कौंध वाले नहीं।

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--096

आदर्श रोग है; सामान्य व स्वयं होना स्वास्थ्य—(प्रवचन—छियानवां) 

 अध्याय 57

शासन की कला

राज्य का शासन सामान्य के द्वारा करो।

युद्ध असामान्य, अचरज भरी युक्तियों से लड़ो

संसार को बिना कुछ किए जीतो

मैं कैसे जानता हूं कि यह ऐसा है?

इसके द्वारा:

जितने अधिक निषेध होते हैं,

लोग उतने ही अधिक गरीब होते हैं।

जितने अधिक तेज शस्त्र होते हैं,

राज्य में उतनी ही अधिक अराजकता होती है।

जितने अधिक तकनीकी कौशल होते हैं,

उतने ही अधिक चतुराई के सामान बनते हैं।

जितने ही अधिक कानून होते हैं,

उतने ही अधिक चोर और लुटेरे होते हैं।

इसलिए संत कहते हैं:

मैं कुछ नहीं करता हूं और लोग आप ही सुधर जाते हैं।

मैं मौन पसंद करता हूं और लोग आप ही पुण्यवान होते हैं।

मैं कोई व्यवसाय नहीं करता और लोग आप ही समृद्ध होते हैं।

मेरी कोई कामना नहीं और लोग आप ही सरल और ईमानदार हैं।

शिव--सूत्र--(ओशो) प्रवचन--03

योग के सूत्र: विलय, वितर्क, विवेक—(प्रवचनतीसरा)


दिनांक 13 सितंबर, 1974,
प्रात : काल, श्री रजनीश आश्रम, पूना.

 विस्मयो योगभूमिका:।
स्वपदंशक्ति।
वितर्क आत्मज्ञानमू।
लोकानन्द: समाधिसुखम्।

विस्मय योग की भूमिका है। स्वयं में स्थिति ही शक्ति है। वितर्क अर्थात विवेक आत्मज्ञान का साधन है। अस्तित्व का आनंद भोगना समाधि है।

विस्मय योग की भूमिका है।
इसे थोड़ा समझें।
विस्मय का अर्थ शब्दकोश में दिया है—आश्‍चर्य; पर, आश्‍चर्य और विस्मय में एक बुनियादी भेद है। और वह भेद समझ में न आये तो अलग—अलग यात्राएं शुरू हो जाती है। आश्‍चर्य विज्ञान की भूमिका है, विस्मय योग की; आश्चर्य बहिर्मुखी है, विस्मय अंतर्मुखी; आश्‍चर्य दूसरे के संबंध में होता है, विस्मय स्वयं के संबंध में—स्व बात।

पाँच सौ भिक्षुओं से एक जेतवन रूक जाना (उत्‍तारर्द्ध)—(कथायात्रा—047

पाँच सौ भिक्षुओं में से एक आलस्‍यवश जेतवन में रूक जाना (उत्तारर्द्ध)—(एस धम्मो सनंतनो)



भगवान से नवदृष्टि ले उत्साह से भरे वे भिक्षु पुन: अरण्य में गये। उनमें से सिर्फ एक जेतवन में ही रह गया

चार सौ निन्यानबे गये इस बार, पहले पांच सौ गये थे। एक रुक गया।

वह आलसी था और आस्थाहीन भी। उसे भरोसा नहीं था कि ध्यान जैसी कोई स्थिति भी होती है!

वह तो सोचता था, यह बुद्ध भी न—मालूम कहां की बातें करते हैं! कैसा ध्यान! आलस्य की भी अपनी व्यवस्था है तर्क की। आलस्य भी अपनी रक्षा करता है। आलसी यह न कहेगा कि होगा, ध्यान होता होगा, मैं आलसी हूं। आलसी कहेगा, ध्यान होता ही नहीं। मैं तो तैयार हूं करने को, लेकिन यह ध्यान इत्यादि सब बातचीत है, यह कुछ होता नहीं। आलसी यह न कहेगा कि मैं आलसी हूं इसलिए परमात्मा को नहीं खोज पाता हूं, आलसी कहेगा, परमात्मा है कहां! होता तो हम कभी का खोज लेते, है ही नहीं तो खोजें क्या? और चांदर तानकर सो रहता है। आलस्य अपनी रक्षा में बड़ा कुशल है। बड़े तर्क खोजता है। बजाय इसके कि हम यह कहें कि मेरी सामर्थ्य नहीं सत्य को जानने की, हम कहते हैं, सत्य है ही नहीं। बजाय इसके कि हम कहें कि मैं जीवन में अमृत को नहीं जान पाया, हम कहते हैं, अमृत होता ही नहीं।

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—(कथायात्रा—046)

पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्‍यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—(एस धम्मो सनंंतनो)

गवान जेतवन में विहरते थे। उनकी देशना में निरंतर ही ध्यान के लिए आमंत्रण था सुबह दोपहर सांझ बस एक ही बात वे समझाते थे— ध्यान ध्यान ध्यान सागर जैसे कहीं से भी चखो खारा है वैसे ही बुद्धों का भी एक ही स्वाद है— ध्यान। ध्यान का अर्थ है— निर्विचार चैतन्य। पांच सौ भिक्षु भगवान का आवाहन सुन ध्यान को तत्पर हुए। भगवान ने उन्हें अरण्यवास में भेजा। एकांत ध्यान की भूमिका है। अव्यस्तता ध्यान का द्वार है। प्रकृति— सान्निध्य अपूर्वरूप से ध्यान में सहयोगी है।

उन पांच सौ भिक्षुओं ने बहुत सिर मारा पर कुछ परिणाम न हुआ। वे पुन: भगवान के पास आए ताकि ध्यान— सूत्र फिर से समझ लें। भगवान ने उनसे कहा— बीज को सम्यक भूमि चाहिए अनुकूल ऋतु चाहिए सूर्य की रोशनी चाहिए ताजी हवाएं चाहिए जलवृष्टि चाहिए तभी बीज अंकुरित होता है। और ऐसा ही है ध्यान। सम्यक संदर्भ के बिना ध्यान का जन्म नहीं होता।

इसके पहले कि हम सूत्रों में प्रवेश करें, इस छोटे से संदर्भ को जितनी गहराई से समझ लें उतना उपयोगी होगा।
भगवान जेतवन में विहरते थे।
विहार बौद्धों का पारिभाषिक शब्द है। बिहार प्रांत का नाम भी बिहार इसीलिए पड गया कि वहा बुद्ध विहरे। विहार का अर्थ होता है, रहते हुए न रहना। जैसे झील में कमल विहरता है—होता है झील में, फिर भी झील का पानी उसे छूता नहीं। होकर भी नहीं होना, उसका नाम है विहार। बुद्ध ने विहार की धारणा को बडा मूल्य दिया है। वह समाधि की परम दशा है।

कहे कबीर दीवाना--(प्रवचन--20)

सत्संग का संगीत—(प्रवचन—बीसवां) 

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,
ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—आपकी भक्ति साधना में प्रार्थना का क्या स्थान होगा?



2--कबीर पर बोलते हुए आपने सत्संग पर बहुत जोर दिया। आज के परिप्रेक्ष्य में सत्संग पर कुछ और प्रकाश डालेंगे?



3—समर्पण कब होता है?


पहला प्रश्न :

संत कबीर पर बोलते हुए आपने भक्ति को बहुत-बहुत महिमा दी। लेकिन कबीर की भक्ति तो जगह-जगह प्रार्थना करती मालूम होती है। यथा--"आपै ही बहि जाएंगे जो नहिं पकरौ बांहि।" और आपने प्रार्थना को भी ध्यान बना दिया है। आपकी भक्ति-साधना में प्रार्थना का क्या स्थान होगा?

कहै कबीर दीवाना-(प्रवचन--19 )

सुरति करौ मेरे सांइयां—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

सारसूत्र :

सुरति करौ मेरे सांइयां, हम हैं भवजल मांहि।

आपे ही बहि जाएंगे, जे नहिं पकरौ बाहिं।।

अवगुण मेरे बापजी, बकस गरीब निवाज।

जे मैं पूत कपूत हों, तउ पिता को लाज।।

मन परतीत न प्रेम रस, ना कछु तन में ढंग।

ना जानौ उस पीव सो, क्यों कर रहसी रंग।।

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो तोर।

तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।। 

हंकार है सारी पीड़ाओं का स्रोत, नरक का द्वार। लेकिन तुमने समझ रखा है, कि वही स्वर्ग की कुंजी है। और अहंकार को सिर पर लेकर तुम लाख उपाय करो, सुख की कोई संभावना नहीं है, न शांति का कोई उफाय है, न स्वर्ग का द्वार खुल सकता है। अहंकार के लिए द्वार बंद है, द्वार के कारण नहीं, अहंकार के कारण ही बंद है।

कहै कबीर दीवाना-(प्रवचन--18 )

गंगा एक घाट अनेक—(प्रवचन—अट्ठारहवां)

दिनांक 8 जून, 1975, प्रातः,ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना

प्रश्नसार :

1—जब आप पूना आए। तब यहां कुछ तोते थे; लेकिन अब एक वर्ष में ही न जाने कितने प्रकार के पक्षी यहां आ गए। क्या ये आपके कारण आ गए हैं? क्या आपका उनसे भी कोई विगत जन्म का वादा है?



2—आपसे प्रश्नों का समाधान तो मिलता है, पर समाधि घटित नहीं हो पा रही है। क्या करूं?



3—ज्ञानी का मार्ग भक्त के मार्ग से क्या सर्वथा भिन्न है? यदि होश हो तो प्रेम कैसे घटेगा?



4—कबीर किस गुरु के प्रसाद से आनंद विभोर हुए जा रहे हैं?



5—सत्य की उपलब्धि भीतर, फिर बाहर समर्पण पर इतना जोर क्यों?