पाँच सौ भिक्षुओं का अरण्यवास में जाना (पूर्वार्द्ध)—(एस धम्मो सनंंतनो)
भगवान
जेतवन में
विहरते थे।
उनकी देशना
में निरंतर ही
ध्यान के लिए
आमंत्रण था
सुबह दोपहर सांझ
बस एक ही बात
वे समझाते थे—
ध्यान ध्यान
ध्यान सागर
जैसे कहीं से
भी चखो खारा
है वैसे ही बुद्धों
का भी एक ही
स्वाद है—
ध्यान। ध्यान
का अर्थ है—
निर्विचार
चैतन्य। पांच
सौ भिक्षु
भगवान का
आवाहन सुन ध्यान
को तत्पर हुए।
भगवान ने
उन्हें
अरण्यवास में
भेजा। एकांत
ध्यान की
भूमिका है।
अव्यस्तता
ध्यान का
द्वार है।
प्रकृति—
सान्निध्य
अपूर्वरूप से
ध्यान में
सहयोगी है।
उन
पांच सौ
भिक्षुओं ने
बहुत सिर मारा
पर कुछ परिणाम
न हुआ। वे पुन:
भगवान के पास
आए ताकि
ध्यान— सूत्र
फिर से समझ
लें। भगवान ने
उनसे कहा— बीज
को सम्यक भूमि
चाहिए अनुकूल
ऋतु चाहिए
सूर्य की रोशनी
चाहिए ताजी
हवाएं चाहिए
जलवृष्टि चाहिए
तभी बीज
अंकुरित होता
है। और ऐसा ही
है ध्यान।
सम्यक संदर्भ
के बिना ध्यान
का जन्म नहीं
होता।
इसके
पहले कि हम
सूत्रों में
प्रवेश करें, इस
छोटे से
संदर्भ को
जितनी गहराई
से समझ लें उतना
उपयोगी होगा।
भगवान
जेतवन में
विहरते थे।
विहार
बौद्धों का
पारिभाषिक
शब्द है।
बिहार प्रांत
का नाम भी
बिहार इसीलिए
पड गया कि वहा बुद्ध
विहरे। विहार
का अर्थ होता
है,
रहते हुए न
रहना। जैसे
झील में कमल
विहरता है—होता
है झील में, फिर भी झील
का पानी उसे
छूता नहीं।
होकर भी नहीं
होना, उसका
नाम है विहार।
बुद्ध ने
विहार की
धारणा को बडा
मूल्य दिया
है। वह समाधि
की परम दशा
है।