तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के राजगीत) (भाग-एक)
तीसरा
प्रवचन—(मधु तुम्हारा है)
(दिनांक
23 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।)
एक
मेध की तरह,
जो उठता है समुंद्र से
अपने
भीतर समाएं वर्षा को,
करती
हो आलिंगन घरती जिसका,
वैसे
ही, आकाश की भांति
समुंद्र
भी उतना ही रहता है,
न
बढ़ता,
न घटता है।
अतः, उस स्वच्छंदता
से जो कि है अद्वितीय
बुद्ध
की पूर्णमाओं से भरपूर
जन्मती
हैं चेतनाएं सभी
और
आती है विश्राम हेतु वहीं
पर
यह साकार है न निराकार है
वे
करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर
और
गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को
उद्धीपक
जो निर्मित करते है,
खोज में उन सुखों की
मधु
है उसके मुख में,
इतना समीप...
पर
हो जाएंगा अदृश्य,
यदि तुरंत ही न करले वे उसका पान
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार है दुख,
पर
समझते हैं वे विद्वान तो
जो
पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को
जबकि
पशु भटकते फिरते हैं
एंद्रिंक
सुखों के लिए