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सोमवार, 28 मार्च 2011
सादगी भरा व्यक्ति और प्रसन्नता—
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शनिवार, 26 मार्च 2011
क्या आप फिर से एक और जन्म ले सकते है?
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शुक्रवार, 25 मार्च 2011
बुधवार, 23 मार्च 2011
01-दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)
01-नीम का दर्द-(कहानी)
(दसघरा की दस कहानियां)नीम के उस पेड़ को अपनी विशालता, भव्यता और सौंदर्य पर बहुत गर्व था। गर्व हो भी क्यों न प्रत्येक प्राणी उसके रंग रूप और आकार को देख कर कैसा गदगद हो उठता था। पक्षी उस पर आकर कैसे अठखेलिया करते थे। एक दूसरे के साथ चिलौल-झपटमार करते थे। कैसे आपस में लड़ते झगड़ते कूदते-फुदकते इस डाल से उस डाल पर मचलते रहते थे। उन पक्षियों का नाद कैसे मधुर गीतों की किलकारीयों जैसा लगाता था। मानो आपके कानों में कहीं दूर से महीन घंटियों का मधुर नाद आ रहा हो। कोई अपनी चोंच टहनियों पर रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ करने की कोशिश कर रहा होता था। कोई चोंच मार कर आपस में प्रेम प्रदर्शित करते दिखते थे। आप बस यूं कह लीजिए की उस नीम के पेड़ के चारों और एक रौनक मेला लगा रहता था। उस सब को देख कर नीम भी मारे खुशी के पागल हुआ जाता था। उस नीम का तना हमारे आंगन में जरूर था पर उसकी शाखा-प्रशाखा दूर पड़ोसियों के छत और आंगन तक पसरी फैली हुई थी। वो इतना ऊँचा और विशाल था कि ये बटवारे की छोटी-छोटी चार दीवारी उसकी महानता के आगे बहुत ही बोनी और छोटी थी। उसकी विशालता के आगे इन दीवारों की उँचाई का कोई महत्व नहीं रह गया था। या यूं कह लीजिए कि नीम कि उँचाई के आगे ये बटवारे की दीवारें बहुत बोनी ही लगती थी। जड़ें और तना भले ही हमारे आंगन में हो, परन्तु उसकी छत्र छाया का आशीर्वाद दूर दराज के घरों को भी उतना ही मिलता था। ये शायद उसकी बुजुर्ग और महानता का ही वरदान था।
संभोग से समाधि की और—29
सोमवार, 21 मार्च 2011
चाय का अन्वेषक— बोधिधर्म
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रविवार, 20 मार्च 2011
अस्तित्व की आधारभूत संरचना—
अब मैं तुम्हें तुम्हारे अस्तित्व की एक परम आधारभूत यौगिक संरचना के बारे में बताता हूं।
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शुक्रवार, 18 मार्च 2011
संभोग से समाधि की और—28
गुरुवार, 17 मार्च 2011
सिद्घपुरुष और संबोधी व्यक्ति में भेद—
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बुधवार, 16 मार्च 2011
विवेकानंद और वेश्या– (कथा यात्रा)
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मंगलवार, 15 मार्च 2011
संभोग से समाधि की और—27
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रविवार, 13 मार्च 2011
संभोग से समाधि की और—26
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शुक्रवार, 11 मार्च 2011
संभोग से समाधि की और—25
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बुधवार, 9 मार्च 2011
गुरु की खोज—
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मंगलवार, 8 मार्च 2011
हंसी कि छ: कोटियां—
सोमवार, 7 मार्च 2011
स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—24
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जब मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था। मैंने एथिक्स, निति शास्त्र लिया था। मैं उस विषय के प्रोफेसर के केवल एक ही लेक्चर में उपस्थित हुआ। मुझे तो विश्वास ही नहीं आ रहा था कि कोई व्यक्ति इतना पुराने विचारों का भी हो सकता है। वे सौ साल पहले जैसी बातें कर रहे थे। उन्हें जैसे कोई जानकारी ही नहीं थी। कि नीति शास्त्र में क्या-क्या परिवर्तन हो चुके है। फिर भी उस बात को में नजर अंदाज कर सकता था। वे प्रोफेसर एकदम उबाऊ आदमी थे।
और जैसे कि विद्यार्थियों को बोर करने की उन्होंने कसम खा ली थी। लेकिन वह भी कोई खास बात न थी। क्योंकि मैं उस समय सौ सकता था। लेकिन इतना ही नहीं वे झुंझलाहट भी पैदा कर रहे थे। उनकी कर्कश आवाज उनके तौर-तरीके,उनका ढंग, सब बड़ी झुंझलाहट ले आने वाले थे। लेकिन उसके भी अभ्यस्त हुआ जा सकता था। लेकिन वह बहुत उलझे हुए इंसान थे। सच तो यह है मैंने कभी कोई ऐसा आदमी नहीं देखा जिसमें इतने सारे गुण एक साथ हो।