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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

14-संत बाबा शेख फरीद-(ओशो)

संत बाबा शेख फरीद—भारत के संत-(ओशो) 

     शेख फरीद के पास कभी एक युवक आया। और उस युवक ने पूछा कि सुनते है कि हम जब मंसूर के हाथ काटे गये, पैर काटे गये। तो मंसूर को कोई तकलीफ न हुई। लेकिन विश्‍वास नहीं आता। पैर में कांटा गड़ जाता है, तो तकलीफ होती है। हाथ-पैर काटने से तकलीफ न हुई होगी? यह सब कपोल-काल्‍पनिक बातें है। ये सब कहानी किसे घड़े हुये से प्रतीत होते है। और उस आदमी ने कहां, यह भी हम सुनते है कि जीसस को जब सूली पर लटकाया गया,तो वे जरा भी दुःखी न हुए। और जब उनसे कहा गया कि अंतिम कुछ प्रार्थना करनी हो तो कर सकते हो। तो सूली पर लटके हुए, कांटों के छिदे हुए, हाथों में कीलों से बिंधे हुए, लहू बहते हुए उस नंगे जीसस ने अंतिम क्षण में जो कहा वह विश्‍वास के योग्‍य नहीं है। उस आदमी ने कहा, जीसस ने यह कहा कि क्षमा कर देना इन लोगों को, क्‍योंकि ये नहीं जानते कि ये क्‍या कर रहे है।

13-संत भर्तृहरि-(ओशो)

संत भर्तृहरि—भारत के संत -(ओशो) 

    भर्तृहरि ने घर छोड़ा। देखा लिया सब। पत्‍नी का प्रेम, उसका छलावा, अपने ही हाथों आपने छोटे भाई विक्रमादित्‍य की हत्‍या का आदेश। मन उस राज पाठ से वैभव से थक गया। उस भोग में केवल पीड़ा और छलावा ही मिला। सब कुछ को खूब देख परख कर छोड़ा। बहुत कम लोग इतने पककर छोड़ते है इस संसार को जितना भर्तृहरि ने छोड़ा है। अनूठा आदमी रहा होगा भर्तृहरि। खूब भोगा। ठीक-ठीक उपनिषद के सूत्र को पूरा किया: ‘’तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा:।‘’ खूब भोगा।एक-एक बूंद निचोड़ ली संसार की। लेकिन तब पाया कि कुछ भी नहीं है। अपने ही सपने है, शून्‍य में भटकना है।

     भोगने के दिनों में शृंगार पर अनूठा शास्‍त्र लिखा, शृंगार-शतक। कोई मुकाबला नहीं। बहुत लोगों ने शृंगार की बातें लिखी है। पर भर्तृहरि जैसा स्‍वाद किसी ने शृंगार का कभी नहीं लिखा। भोग के अनुभव से शृंगार के शास्‍त्र का जन्‍म हुआ। यह कोई कोरे विचारक की बकवास न थी। एक अनुभोक्‍ता की अनुभव-सिद्ध वाणी थी। शृंगार-शतक बहुमूल्‍य है। संसार का सब सार उसमें है।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

गोल-गोल घूमने की विधि-(प्रवचन-05)

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

प्रवचन-05 सूफी दरवेश गोल-गोल घूमने की विधि-ओशो

The Transmission of the Lamp, chapter #27, Chapter title: Unless your feet are holy...,

8 June 1986 am in Punta Del Este, Uruguay.

(ओशो दि ट्रांसमिशन ऑफ दि लैंप से अनुवादित)

प्यारे ओशो,
अपने बचपन के जिन अनुभवों के विषय में हमने आपको बताया, आपने कहा कि वे अनुभव वास्तव में ध्यान की विधियां हैं जो शरीर से बाहर निकलने के लिए सदियों से उपयोग की जाती रही हैं। क्या यह विधियां बचपन में हुए अनुभवों को देखते हुए ही विकसित की गई थीं, या बचपन में ऐसे अनुभव पिछले जन्मों की स्मृतियों के कारण होते हैं?
ये विधियां- और केवल ये ही नहीं, बल्कि अब तक विकसित की गईं सभी विधियां- मनुष्य के अनुभवों पर ही आधारित हैं।

12-बाबा हरिदास-(ओशो)

फकीर संत  बाबा हरिदास—भारत के संत -(ओशो) 

     अकबर ने एक दिन तानसेन को कहा, तुम्‍हारे संगीत को सुनता हूं, तो मन में ऐसा ख्‍याल उठता है कि तुम जैसा गाने वाला शायद ही इस पृथ्‍वी पर कभी हुआ हो और न हो सकेगा। क्‍योंकि इससे ऊंचाई और क्‍या हो सकेगी। इसकी धारणा भी नहीं बनती। तुम शिखर हो। लेकिन कल रात जब तुम्‍हें विदा किया था, और सोने लगा तब अचानक ख्‍याल आया। हो सकता है, तुमने भी किसी से सीखा है, तुम्‍हारा भी कोई गुरू होगा। तो मैं आज तुमसे पूछता हूं। कि तुम्‍हारा कोई गुरू है? तुमने किसी से सीखा है?

     तो तानसेन ने कहा, मैं कुछ भी नहीं हूं गुरु के सामने; जिससे सीखा है। उसके चरणों की धूल भी नहीं हूं। इसलिए वह ख्‍याल मन से छोड़ दो। शिखर? भूमि पर भी नहीं हूं। लेकिन आपने मुझ ही

11-धनी धर्मदास-(ओशो)

11-धनी धर्मदास-भारत के संत

का सोवे दिन रैन—जस पनिहार धरे सिर गागर-(ओशो)

धनी धरमदास की भी ऐसी ही अवस्था थी। धन था, पद थी, प्रतिष्ठा थी। पंडित-पुरोहित घर में पूजा करते थे। अपना मंदिर था। और खूब तीर्थयात्रा करते थे। शास्त्र का वाचन चलता था, सुविधा थी बहुत, सत्संग करते थे। लेकिन जब तक कबीर से मिलन न हुआ तब तक जीवन नीरस था। जब तक कबीर से मिलना न हुआ तब तक जीवन में फूल न खिला था। कबीर को देखते ही अड़चन शुरू हुई, कबीर को देखते ही चिंता पैदा हुई, कबीर को देखते ही दिखाई पड़ा कि मैं तो खाली का खाली रह गया हूं। ये सब पूजा-पाठ, ये सब यज्ञ-हवन, ये पंडित और पुरोहित किसी काम नहीं आए हैं। मेरी सारी अर्चनाएं पानी में चली गई हैं। मुझे मिला क्या? कबीर को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या? मिले हुए को देखा तो समझ में आया कि मुझे मिला क्या?

इसलिए तो लोग जिसे मिल गया है उसके पास जाने से डरते हैं। क्योंकि उसके पास जाकर कहीं अपनी दीनता और दरिद्रता दिखाई न पड़ जाए। लोग उनके पास जाते हैं जो तुम जैसे ही दरिद्र हैं। उनके पास जाने से तुम्हें कोई अड़चन नहीं होती, चिंता नहीं होती, संताप नहीं होता।

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

10-दयावाई-(ओशो)

दयावाई-भारत के संत

जगत तरैया भोर की-ओशो

संत का अर्थ है, प्रभु ने जिसके तार छेड़े। संतत्व का अर्थ है, जिसकी वीणा अब सूनी नहीं; जिस पर प्रभु की अंगुलियां पड़ीं। संत का अर्थ है, जिस गीत को गाने को पैदा हुआ था व्यक्ति, वह गीत फूट पड़ा; जिस सुगंध को ले कर आया था फूल, वह सुगंध हवाओं में उड़ चली। संतत्व का अर्थ है, हो गए तुम वही जो तुम्हारी नियति थी। उस नियति की पूर्णता में परम आनंद है स्वभावतः।
बीज जब तक बीज है तब तक दुखी और पीड़ित है। बीज होने में ही दुख है। बीज होने का अर्थ है, कुछ होना है और अभी तक हो नहीं पाए। बीज होने का अर्थ है, खिलना है और खिले नहीं; फैलना है और फैले नहीं; होना है और अभी हुए नहीं। बीज का अर्थ है, अभी प्रतीक्षा जारी है; अभी राह लंबी है; मंजिल आई नहीं।

09-सहजो बाई-ओशो

सहजो बाई—भारत के संत 

बिन घन परत फुुहार-सहजो बाई  

     अब तक मैं मुक्‍त पुरूषों पर ही बोला हूं। पहली बार एक मुक्‍त नारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान था। उन्‍हें में समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।
     अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए।

08-संत दादू दयाल-(ओशो)

08-दादू दयाल-भारत के संत

सबै सयाने एक मत-पिव-पिव लागी प्यास-(ओशो)

संकल्पवान परमात्मा को खोजेगा, फिर झुकेगा। पहले उसके चरण खोज लेगा, फिर सिर झुकाएगा। समर्पण से भरा हुआ व्यक्ति, भक्त, सिर झुकाता है; और जहां सिर झुका देता है, वहीं उसके चरण पाता है। गिर पड़ता है, आंखें आंसू से भर जाती हैं। रोता है, चीखता है, पुकारता है, विरह की वेदना उसे घेर लेती है। और जहां उसके विरह का गीत पैदा होता है, वहीं परमात्मा प्रकट हो जाता है।
तुम्हारी मर्जी! जैसे चलना हो। लेकिन दादू दूसरे मार्ग के अनुयायी हैं। उन्हें समझना हो तो एक शब्द है--समर्पण। उसे ही ठीक से समझ लिया तो दादू समझ में आ जाएंगे।

इसलिए दादू कहते हैं, सबै सयाने एकमत।
वह एकमत समर्पण का है। और जिन्होंने भी जाना है उन्होंने वही कहा है। कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि संकल्प से चलने वाले लोगों ने भी अंत में यही कहा है। चले संकल्प से, पहुंचे समर्पण से।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

07-संत रज्‍जब दास-(ओशो)

भारत के संत -(ओशो)

संत रज्‍जब दास—सातवाां
रज्जब तैं त किया गज्‍जब......
आज हम जिस अनूठे आदमी की बाणी में यात्रा करेंगे, वह आदमी निश्‍चित अनूठा रहा होगा। कभी ऐसे अनूठे आदमी होते है। और उनके जीवन से जो पहला पाठ मिल सकता है वह यही है।
      संत रज्‍जब की जिंदगी बड़े अद्भुत ढंग से शुरू होती है। तुमने सोचा भी न होगा कि ऐसे भी कहीं जिंदगी बदलती है। वह भी कोई जिंदगी के बदलने का ढंग है। रज्‍जब मुसलमान थे। पठान थे। किसी युवती के प्रेम में थे। विवाह का दिन आ गया। बारात सजी। बारात चली। रज्‍जब घोड़े पर सवार। मौर बाँधा हुआ सिर पर। बाराती साथ है,बैंडबाजा है इत्रका छिड़काव है, फूलों की मालाएँ है। और बीच बाजार में अपनी ससुराल के करीब पहुंचने को ही थे। दस पाँच कदम शेष‍ रह गये थे। सूसराल के लोग स्‍वागत के लिए तैयार थे सूसराल के लोग—और यह क्रांति घटी। कि
अचानकघोड़े के पास एक आदमी  आया उसका पहनाव बड़ा अजीब था। कोई फक्‍कड़ दिखाई दे रहा था।बारात के सामने आ कर खड़ा हो गया। और उसने गौर से रज्‍जब को देखा।

बोध कथा-09

बोध कथा-नौवी--(ओशो)

मैं एक छोटे से गांव में गया था। वहां एक नया मंदिर बन कर खड़ा हो गया था और उसमें मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह चल रहा था। सैकड़ों पुजारी और संन्यासी इकट्ठे हुए थे। हजारों देखने वालों की भीड़ थी। धन मुक्तहस्त से लुटाया जा रहा था। और सारा गांव इस घटना से चकित था। क्योंकि जिस व्यक्ति ने मंदिर बनाया था और इस समारोह में जितना धन व्यय किया था, उससे ज्यादा कृपण व्यक्ति भी कोई और हो सकता है, यह सोचना भी उस गांव के लोगों के लिए कठिन था। वह व्यक्ति कृपणता की साकार प्रतिमा था। उसके हाथों एक पैसा भी कभी छूटते नहीं देखा गया था। फिर उसका यह हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था? यही चर्चा और चमत्कार सबकी जुबान पर था। उस व्यक्ति के द्वार पर तो कभी भिखारी भी नहीं जाते थे। क्योंकि वह द्वार केवल लेना ही जानता था। देने से उसका कोई परिचय ही नहीं था। फिर यह क्या हो गया था? जो उस व्यक्ति ने कभी स्वप्न में भी न किया होगा, वह वस्तुतः आंखों के सामने होते देख कर सभी लोग आश्चर्य से ठगे रह गए थे।

बोध कथा-08

बोध कथा-आठवी--(ओशो) 

एक मित्र ने पूछा है ‘समाज में इतनी हिंसा क्यों हैं?’
हिंसा के मूल में महत्वाकांक्षा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है। मनुष्य चित्त दो प्रकार का हो सकता है। महत्वाकांक्षी और गैर-महत्वाकाक्षी। महत्वाकांक्षी-चित्त से राजनीति जन्मती है और गैर-महत्वाकांक्षी-चित्त से धर्म का जन्म होता है। धार्मिक और राजनैतिक--चित्त के ये दो ही रूप हैं। या कहें कि स्वस्थ और अस्वस्थ।
स्वस्थ चित्त में हीनता नहीं होती है। और जहां आत्महीनता नहीं है, वहां महत्वाकांक्षा भी नहीं हैं। क्योंकि, महत्वाकांक्षा आत्महीनता के बोध को मिटाने के प्रयास से ज्यादा और क्या है? लेकिन, आत्महीनता ऐसे मिटती नहीं हैं और इसलिए महत्वाकांक्षा का कहीं अंत नहीं आता है। आत्महीनता का अर्थ है आत्मबोध का अभाव। स्वयं को न जानने से ही वह होती है।

06-संत पलटूबनिया—(ओशो)

भारत के संत-ओशो

अजहूं चेत गंवार-(संत पलटूबनिया)
      पलटू दास के संबंध में बहुत ज्‍यादा ज्ञान नहीं है। संत तो पक्षियों के जैसे होते है। आकाश पर उड़ते जरूर है, लेकिन पदचिन्‍ह नहीं छोड़ते जाते है।। संतों के संबंध में बहुत कुछ ज्ञात नहीं रहता है। संत का होना ही अज्ञात है। अनाम। संत का जीवन अन्तर जीवन है। बहार के जीवन के तो परिणाम होते है। इतिहास पर इति वृति बनता है। घटनाएं घटती है। बहार के जीवन की। भीतर के जीवन की तो कहीं कोई रेखा नहीं होती। भीतर के जीवन की तो समय की रेत पर कोई अंकन नहीं होता। भीतर का जीवन तो शाश्‍वत,सनातन,समयातित जीवन हे। जो भीतर जीते है उन्‍हें तो वे ही पहचान पाएंगे जो भीतर जायेंगे। इसलिए सिकंदरों हिटलरों चंगैज खां और नादिर शाह इनका तो पूरा इतिहास मिल जाएगा। इनका तो पूरा बहार का होता है । इनका भीतर को कोई जीवन होता नहीं। बाहर ही बाहर का जीवन होता है। सभी को दिखाई पड़ता है।

05-बाबा-जग जीवन दास-(ओशो)

05-बाबा--जग जीवन दास—भारत के संत 

कुछ संत ऐसे है, जो हमारी परिभाषा और परिचय के परिशमन में नहीं आ पाते, कुछ जंगली फूलों की तरह जिनका सौंदर्य तो अटूट होता है। पर हमारी आंखे जिन्‍हें जानने और देखने की आदि हो जाती है, वह उसके परे है। हम चल तो पड़ते है उस मार्ग पर, उस से परिचित होना सब के बास की बात नहीं है। इसी तरह के संत का आज हम जिक्र करेंगे। वह है संत जग जीवन दास,जग जीवनको समझाने की क्षमता सब में नहीं है। जो लोग प्रेम को समझने में समर्थ है, जो उस में खो जाने को तैयार है, मिटने को तैयार है, वही उस का आनंद अनुभव कर सकेगें। शायद समझ बुझ यहाँ थोड़ी बाधा ही बन जाये।

      जग जीवन प्रमाण नहीं दे सकते,गीत गा सकते है और गीत भी काव्‍य के नियमों के अनुसार नहीं होगा, छंद वद्ध नहीं होगा।उसके तुक नहीं मिले होगें। शायद शब्‍द भी अटपटे हो पर यह रास्‍ता अति मधुर और सुंदर अवश्‍य हो एक पहाड़ी रास्‍ते की तरह, जो उबड़ खाबड़ हा, कष्‍ट कांटों से भरा हो, ऊँचा नीचा हो। पर उस का सौंदर्य देखते ही बनता है। नहीं पद चाप मिलेंगे वहां मुसाफ़िरों के पर अद्भुत होगा वह मार्ग। गांव के बिना पढ़े लिखें थे जग जीवन, गांव की सादगी, मिलेगी, सरलता मिलेगी।

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2019

04-संत सुंदर दास-(ओशो)

भारत के सतं-ओशो

ज्‍योत से ज्‍योत जले-(सुंदर दास)

       सुंदर दास थोड़े से कलाकारों में एक है जिन्‍होंने इस ब्रह्मा को जाना। फिर ब्रह्म को जान लेना एक बात है, ब्रह्म को जनाना और बात। सभी जानने बाले जना नहीं पाते। करोड़ों में कोई एक आध है, ब्रह्म को जानता है और सैकड़ों जानने वालों में कोई एक जना पात है। सुंदर दास उन थोड़े से ज्ञानियों में एक है, जिन्‍होंने निशब्‍द को शब्‍द में उतारा, जिन्‍होंने अपरिभाष्‍य की परिभाषा की, जिन्‍होंने अगोचर को गोचर बनाया। अरूप को रूप दिया। सुंदर दास थोड़े सद् गुरूओं में से एक है। उनके एक-एक शब्‍द को साधारण मत समझना। उनके एक-एक शब्‍द अंगारे है। और जरा सी चिंगारी तुम्‍हारे जीवन में पड़ जाये तो तुम भी भभक उठ सकते हो परमात्‍मा से। तो तुम्‍हारे भीतर भी विराट का आविर्भाव हो सकता है। पडा तो है ही विराट, कोई जगाने वाली चिंगारी चाहिए।

03-बाबा मलूक दास-(ओशो)

भारत के संत-ओशो

राम दुवारे जो मरे-(बाबा मलूक दास) 

      बाबा मलूक दास, यह नाम ही ऐसा प्‍यारा है, तन मन-प्राण में मिसरी घोल दे। ऐसे तो बहुत संत हुए है, सारा आकाश संतों के जगमगाते तारों से भरा है। पर मलूक दास की तुलना किसी और से नहीं की जा सकती। मूलक दास बेजोड़ है। उनकी अद्वितीयता उनके अल्‍हड़पन में है—मस्‍ती में है, बेखुदी में। यह नाम मलूक का मस्‍ती का पर्यायवाची हो गया। इस नाम में ही कुछ शराब है। यह नाम ही दोहराओं तो भीतर नाच उठने लगे।
      मलूक दास ने तो कवि थे, न दार्शनिक है, न धर्मशास्‍त्री है। दीवाने है। परवाने है । और परमात्‍मा को उन्‍होंने ऐसे जाना है जैसे परवाना शमा को जानता है। यह पहचान बड़ी और है। दूर-दूर से नहीं, परिचय मात्र नहीं है वह पहचान—अपने को गंवा कर, अपने को मिटा कर होती है। राम दुवारे जो मरे। राम के द्वारे पर मर कर राम को पहचाना है। कवि हो जाये। लेकिन मलूक की मस्‍ती सस्‍ती बात नहीं है। महंगा सौदा है।

जीवन का अंतिम उपहार-(प्रवचन-04)

जीवन का अंतिम उपहार-(प्रवचन-चौथा) 

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

The Book of Wisdom, Chapter #14, Chapter title: Other Gurus and Etceteranandas, 24 February 1979 am in Buddha Hall

प्यारे ओशो,
क्या आप मृत्यु तथा मृत्यु की कला के संबंध में कुछ कहेंगे?
 देव वंदना, मृत्यु के संबंध में सबसे पहली बात समझने जैसी है कि मृत्यु एक झूठ है। मृत्यु होती ही नहीं; यह सर्वाधिक भ्रामक बातों में से एक है। मृत्यु एक और झूठ की छाया है- उस दूसरे झूठ का नाम है अहंकार। मृत्यु अहंकार की छाया है। क्योंकि अहंकार है, इसलिए मृत्यु भी प्रतीत होती है।

मृत्यु को जानने, मृत्यु को समझने का रहस्य स्वयं मृत्यु में नहीं है। तुम्हें अहंकार के अस्तित्त्व की गहराई में जाना होगा। तुम्हें देखना और निरीक्षण करना और ध्यान देना होगा कि यह अहंकार क्या है? और जिस दिन तुम यह पा लोगे कि अहंकार है ही नहीं, कि यह कभी था ही नहीं- यह केवल

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

धर्म और राजनीति-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा -(धर्म और राजनीति) ओशो
 The Hidden Splendor, Chapter #6, Chapter title: Only fools choose to be somebody, 15 March 1987 am in Chuang Tzu Auditorium, 

राजनीति सांसारिक है- राजनीतिज्ञ लोगों के सेवक हैं। धर्म पवित्र है- वह लोगों के आध्यात्मिक विकास के लिए पथ-प्रदर्शक है। निश्चित ही, जहां तक मूल्यों का संबंध है राजनीति निम्नतम है, और धर्म उच्चतम है, जहां तक मूल्यों का संबंध है। वे अलग ही हैं।
राजनेता चाहते हैं कि धर्म राजनीति में हस्तक्षेप न करे; मैं चाहता हूं कि राजनीति धर्म में हस्तक्षेप न करे। उच्चतर को हस्तक्षेप का हर अधिकार है, किंतु निम्नतर को कोई अधिकार नहीं।

धर्म मानव-चेतना को सदियों से ऊपर उठाता रहा है। जो कुछ भी मनुष्य आज है, कितनी भी थोड़ी जो चेतना उसके पास है, उसका सारा श्रेय धर्म को है। राजनीति एक अभिशाप रही है, एक विपदा; और जो कुछ भी मानवता में अभद्र है, राजनीति उस सब के लिए जिम्मेवार है।

बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

02-लाल नाथ कुंभनाथ-(ओशो)

लाल नाथ कुंभनाथ : (गुरु द्वार जन्‍म)

     श्री लाल नाथ के जीवन में बड़ी अनूठी घटना से शहनाई बजी। संतों के जीवन बड़े रहस्‍य में शुरू होते है। जैसे दूर हिमालय से गंगो त्री से गंगा बहती है। छिपी है घाटियों में, पहाड़ों में, शिखरों में। वैसे ही संतों के जीवन की गंगा भी, बड़ी रहस्‍यपूर्ण गंगोत्रियों से शुरू होती है। आकस्‍मिक, अकस्‍मात, अचानक—जैसे अंधेरे में दीया जले कि तत्क्षण रोशनी हो जाये। धीमी-धीमी नहीं होती संतों के जीवन की यात्रा शुरू। शनै:-शनै: नहीं। संत छलांग लेते हे।
      जो छलांग लेते है, वही जान पाते है। जो इंच-इंच सम्हाल कर चलते है, उनके सम्हालने में ही डूब जाते हे। मंजिल उन्‍हें कभी मिलती नहीं। मंजिल दीवानों के लिए है। मंजिल के हकदार दीवाने है। मंजिल के दावेदार दीवाने हे।

      ‘’लाल’’ दीवानों में दीवाने है। उनके जीवन की यात्रा, उनके संतत्‍व की गंगा बड़े अनूठे ढंग से शुरू हुई। और तो कुछ दूसरा परिचय नहीं है। न देने की कोई जरूरत है; हो तो भी देने की कोई जरूरत नहीं है। कहां पैदा हुए, किस गांव में, किस ठांव में, किस घर-द्वार में,किन मां-बाप से—वे सब बातें गौण है और व्‍यर्थ है। संतत्‍व कैसे

01-कबीर दास-(ओशो)

संत कबीर-- पूर्णिमा का चाँद

      कबीर, संत तो हजारों हुए हैं, पर कबीर ऐसे है जैसे पूर्णिमा का चाँद—अतुलनीय, अद्वितीय, जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीया जला दे, ऐसा यह नाम है। जैसे मरुस्थल  में कोई अचानक मरूद्यान प्रकट हो जाए, ऐसों अद्भुत और प्‍यारे उनके गीत हे।
      कबीर के शब्‍दों का अर्थ नहीं करूंगा। शब्‍द तो सीधे-सादे है। कबीर को तो पुनरुज्जीवित करना होगा। व्‍याख्‍या नहीं हो सकती उनकी। उन्‍हें पुनरुज्जीवन दिया जा सकता है। उन्‍हें अवसर दिया जा सकता है। वे मुझसे बोल सकें। तुम ऐसे ही सुनना जैसे यह कोई व्‍याख्‍या नहीं है। जैसे बीसवीं सदी की भाषा में, पुनर्जन्‍म है। जैसे कबीर का फिर आगमन है। और बुद्धि से मत सुनना। कबीर का कोई नाता बुद्धि से नहीं। कबीर तो दीवाने है। और दीवाने ही केवल उन्‍हें समझ पाए और दीवाने ही केवल समझ पा सकते है। कबीर मस्‍तिष्‍क से नहीं बोलते है। यह तो ह्रदय की वीणा की अनुगूँज है। और तुम्‍हारे ह्रदय के तारे भी छू जाएं,तुम भी बज उठो, तो ही कबीर समझे जा सकते है।

बोध कथा-07

बोध कथा-सातवीं

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

मैं जीवन में उन्हें हारते देखता हूँ जो कि जीतना चाहते थे। क्या जीतने की आकांक्षा हारने का कारण नहीं बन जाती है?
आँधी आती है तो आकाश को छूते वृक्ष टूट कर सदा के लिए गिर जाते हैं और घास के छोटे-छोटे पौधे आँधी के साथ डोलते रहते हैं और बच जाते हैं।
पर्वतों से जल की धाराएँ गिरती हैं- कोमल, अत्यंत कोमल जल की धाराएँ और उनके मार्ग में खड़े होते हैं विशाल पत्थर- कठोर शिलाखंड। लेकिन एक दिन पाया जाता है, जल तो अब भी बह रहा है लेकिन वे कठोर शिलाखंड टूट-टूटकर, रेत होकर एक दिन मालूम नहीं कहाँ खो गये हैं।

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

बोध कथा-06

बोध कथा -छठवी

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है।

संत औगास्टिनस एक सुबह सागर तट पर था। सूर्य निकल रहा था और वह अकेला ही घूमने निकल पड़ा था। अनेक रात्रियों के जागरण से उनकी आँखें थकी-मंदी थी। सत्य की खोज में वह करीब-करीब सब शांति खो चुका था। परमात्मा को पाने के विचार में ही दिवस और रात्रि कब बीत जाते थे, उसे पता ही नहीं पड़ता था। शास्त्र और शास्त्र, शब्द और शब्द, विचार और विचार- वह इनके ही बोझ के नीचे पूरी तरह दब गया था। लेकिन उस दिन

बोध कथा -05

बोध कथा -पांचवी

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

सत्य की खोज में सम्यक निरीक्षण से महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम तो करीब करीब सोये-सोये ही जीते हैं, इसलिए जागरूक निरीक्षण का जन्म ही नहीं हो पाता है। जो जगत हमारे बाहर है, उसके प्रति भी खुली हुई आँखें और निरीक्षण करता हुआ चित्त चाहिए और तभी उस जगत के निरीक्षण और दर्शन में भी हम समर्थ हो सकते हैं जो कि हमारे भीतर है।

मैं आपको एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में ले चलता हूँ। कुछ विद्यार्थी वहाँ इकट्ठे हैं और एक वृद्ध वैज्ञानिक उन्हें कुछ समझा रहा है। वह कह रहा है : ‘सत्य के वैज्ञानिक अनुसंधान में दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं-

बोध कथा-04

बोध कथा --चौथी 

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

प्रेम जिस द्वार के लिए कुंजी है। ज्ञान उसी द्वार के लिए ताला है।
और मैंने देखा है कि जीवन उनके पास रोता है जो कि ज्ञान से भरे हैं लेकिन प्रेम से खाली हैं।
एक चरवाहे को जंगल में पड़ा एक हीरा मिल गया था। उसकी चमक से प्रभावित हो उसने उसे उठा लिया था और अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। सूर्य की किरणों में चमकते उस बहुमूल्य हीरे को रास्ते से गुज़रते एक जौहरी ने देखा तो वह हैरान हो गया, क्योंकि इतना बड़ा हीरा तो उसने अपने जीवन भर में भी नहीं देखा था।
उस जौहरी ने चरवाहे से कहा : ‘क्या इस पत्थर को बेचोगे? मैं इसके दो पैसे दे सकता हूँ?'

वह चरवाहा बोला : ‘नहीं। पैसों की बात न करें। यह पत्थर मुझे बड़ा प्यारा है, मैं इसे पैसों में नहीं बेच सकूँगा। लेकिन, आपको पसंद आ गया है तो इसे आप ले लें। लेकिन एक वचन दे दें कि इसे सम्हालकर रखेंगे। यह पत्थर बड़ा प्यारा है!’

सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

बोध कथा-03

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

बोध कथा--तीसरी

एक वृद्ध मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं : ‘नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गयी है।’ यह उनकी रोज की ही कथा है।
एक दिन मैंने उनसे एक कहानी कही : ‘एक व्यक्ति के ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में बंदर की ग्रंथियाँ लगा दी गयीं थीं। फिर उसका विवाह हुआ। और फिर कालांतर में पत्नी प्रसव के लिए अस्पताल गई। पति प्रसूतिकक्ष के बाहर उत्सुकता से चक्कर लगा रहा था। और जैसे ही नर्स बाहर आई, उसने हाथ पकड़ लिए और कहा : ‘भगवान के लिए जल्दी बोलो। लड़का या लड़की?’

उस नर्स ने कहा : ‘इतने अधीर मत होइए। वह पंखे से नीचे उतर जाये, तब तो बताऊं?’

बोध कथा-02

बोध कथा-दुसरी

जीवन बहुत उलझा हुआ है लेकिन अक्सर जो उसे सुलझाने में लगते हैं वे उसे और भी उलझा लेते हैं।
जीवन निश्चय ही बड़ी समस्या है लेकिन उसके लिए प्रस्तावित समाधान उसे और भी बड़ी समस्या बना देते हैं।
क्यों? लेकिन एसा क्यों होता है?
एक विश्वविद्यालय में विधीशास्त्र के एक अध्यापक अपने जीवनभर वर्ष के पहले दिन की पढ़ाई तखते पर ‘चार’ और ‘दो’ के अंक लिखकर प्रारंभ करते थे। वे दोनों अंकों को लिखकर विद्यार्थियों से पूछते थे : ‘क्या हल है?’
निश्चय ही कोई विद्यार्थी शीघ्रता से कहता : ‘छः!’

मौन नाद-कमल में मणि-(प्रवचन-02)

OM MANI PADME HUM #01

Translation published in book- ओम मणि पद्मे हुम् (1988)

-ओशो, ओम मणि पद्मे हुम्, प्रवचन 1 (संस्करण :1988)

प्यारे ओशो,
क्या आप तिब्बती मंत्र ओम मणि पद्मे हुम पर कुछ कहने की कृपा करेंगे?
ओम मणि पद्मे हुम परम अनुभव की सुंदरतम अभिव्यक्तियों में से एक है। इसका अर्थ हैः मौन का नाद, कमल में मणि।
मौन का भी अपना नाद है, अपना संगीत है; यद्यपि बाहरी कान इसे सुन नहीं सकते। वैसे ही जैसे बाहरी आंखें इसे देख नहीं सकतीं।
हमें छह बाह्य ज्ञानेंद्रियां हैं। अतीत में मनुष्य जानता था कि उसे मात्र पांच बाह्य ज्ञानेंद्रियां हैं। छठी नई खोज है। यह तुम्हारे कान के भीतर है; इसीलिए लोग इसे पहचानने में चूक गए। यह संतुलन की ज्ञानेंद्रिय है। तुम जब उनींदे होते हो, या जब तुम किसी शराबी को चलते हुए देखते हो तो यह संतुलन की ही इंद्रिय है जो प्रभावित हुई होती है।

रविवार, 20 अक्तूबर 2019

बोध कथाएं-01

(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)

संकलनः अरविंद

बोध कथा-पहली 

मैं देखता हूं कि प्रभु का द्वार तो मनुष्य के अति निकट है लेकिन मनुष्य उससे बहुत दूर है। क्योंकि न तो वह उस द्वार की ओर देखता ही है और न ही उसे खटखटाता है।
और मैं देखता हूं कि आनंद का खजाना तो मनुष्य के पैरों के ही नीचे है लेकिन न तो वह उसे खोजता है और न ही खोदता है।

एक रात सुलतान महमूद घोड़े पर बैठकर अकेला सैर करने निकला था। राह में उसने देखा कि एक आदमी सिर झुकाए सोने के कणों के लिए मिट्टी छान रहा है।

समग्रता-पूरी त्वरा से जीओ-(प्रवचन-01)

ओशो के अंग्रेजी साहित्य से अनुवादित विभिन्न प्रवचनांश

(समग्रता से और पूरी त्वरा से जीओ)

दि ट्रार्नसमिसल आफ दा लेंप--30 

(The Transmission of the Lamp, Chapter #30, Chapter title: This chair is empty, 10 June 1986 am in Punta Del Este, Uruguay)

प्रवचन-पहला

समग्रता से और पूरी त्वरा से जीओ

समग्रता से जीओ, और पूरी त्वरा से जीओ, ताकि प्रत्येक क्षण स्वर्णिम हो उठे और तुम्हारा पूरा जीवन स्वर्णिम क्षणों की एक माला बन जाये।
ऐसा व्यक्ति कभी नहीं मरता क्योंकि उसके पास मिदास का स्पर्श होता हैः वह जो भी छूता है, स्वर्णिम हो उठता है।
सही अर्थ में एकमात्र जिम्मेदारी तुम्हारी अपनी सम्भावनाओं के प्रति, तुम्हारी अपनी बुद्विमत्ता और सजगता के प्रति है- और फिर उनके अनुसार व्यवहार करने के प्रति है।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-06)

तंत्र अध्यात्म और काम

छठवां-प्रवचन (तंत्र-सपर्पण का मार्ग)

(Tanta Spituality And Six-का हिन्दी अनुवाद)
पहला प्रश्न: भगवान, विज्ञान-भैरव-तंत्र की जिन विधियों की हमने अब तक चर्चा की है क्या वे वास्तव में तंत्र का केंद्रीय विषय होने की अपेक्षा योग के विज्ञान से संबंधित हैं? और तंत्र का केंद्रीय विषय क्या है? इसे समझाने की कृपा करें।
यह प्रश्न बहुतों के मन में उठता है। जिन विधियों की हमने चर्चा की है उनका योग में भी प्रयोग होता है लेकिन कुछ भिन्न ढंग से। तुम एक ही विधि का प्रयोग बिल्कुल भिन्न दर्शन की पृष्ठ भूमि में भी कर सकते हो। उसका ढांचा उसकी पृष्ठभूमि अलग होती है विधि नहीं। योग का जीवन के प्रति भिन्न दृष्टिकोण है तंत्र से बिल्कुल विपरीत।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-05)

तंत्र, अध्यात्म और काम

पांचवां--प्रवचन-(तंत्र के माध्यम से परम संभोग)

(Tanta Spituality And Six-का हिन्दी अनुवाद)
इससे पहले कि मैं तुम्हारा प्रश्न लूं कुछ और बातें स्पष्ट हो जानी चाहिए क्योंकि उनसे तंत्र को समझने में और मदद मिलेगी। तंत्र कोई नैतिक धारणा नहीं है। न तो वह नीति है न अनीति--वह नीति से परे है। तंत्र विज्ञान है--विज्ञान वे दोनों ही नहीं। तुम्हारी नैतिकताएं और नैतिक आचरण संबंधी धारणाएं तंत्र के लिए अप्रासंगिक हैं। कोई किसी तरह का आचरण करे तंत्र का इससे कुछ संबंध नहीं। उसका आदर्शों से कुछ संबंध नहीं। उसका संबंध क्या है और तुम क्या हो, इससे है। इस फर्क को गहराई से समझ लेना जरूरी है।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-04)

तंत्र, अध्यात्म और काम-(ओशो) 

चौथा-प्रवचन-(तांत्रिक काम-क्रीडा की आध्यात्मिकता)

(Tanta Spituality And Six-का हिन्दी अनुवाद)
 सिगमंड फ्रायड ने कहीं कहा है कि मनुष्य जन्म-जात स्नायु-रोगी है। यह अर्द्ध सत्य है। मनुष्य स्नायु-रोगी नहीं पैदा होता, लेकिन स्नायुरोग-ग्रस्त मनुष्यता में जन्म लेता है; और चारों तरफ का सामाजिक प्रवेश प्रत्येक व्यक्ति को देर-अबेर सायुरोगी बना देता है। आदमी जब पैदा होता है वह प्राकृतिक वास्तवकि सामान्य होता है। लेकिन जैसे
ही नवजात शिशु इस समाज का हिस्सा हो जाता है उस पर स्नायुरोग का प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है।

सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन—(काम में समग्र समर्पण)

(Tantra Spiituality and Sex का हिन्दी अनुवाद)

तुम जो भी करो उसे ध्यान बनाते हुए समग्रस्ता से करो--काम को भी। यह समझना आसान है कि अकेले क्रोध कैसे किया जाए लेकिन तुम संभोग भी अकेले कर सकते हो। और उसके बाद जो तुम्हें मिलेगा उससे गुणात्मक भेद होगा।
जब तुम नितांत अकेले हो, अपना कमरा बंद कर लो और तुम इस तरह व्यवहार करो जैसे काम-क्रीड़ा में करते हो। अपने पूरे शरीर को हिलने-डुलने दो। कूदो, चीखो, चिल्ला- जो कुछ करने को मन हो रहा हो उसे करो। उसे समग्रस्ता से करो। सब कुछ भूल जाओ- समाज, वर्जनाएं आदि। अकेले ही काम-क्रीड़ा में रत हो जाओ; ध्यान
पूर्वक, लेकिन अपनी सारी कामुकता इसमें डाल दो।

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-12)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-ओशो

प्रवचन-बारहवां-( तर्क और तर्कातीत का संतुलन) 

 (The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो पश्चिम की युवा पीढ़ी विद्रोह क्यों कर रही है और
पश्चिम से इतने अधिक युवा लोग क्यों पूरब के धर्म और
दर्शन में उत्सुक होते जा रहे हैं क्या इस पर आप कुछ
कहेंगे? क्या आपके पास पश्चिम के लिए कोई विशेष संदेश है?
मन एक बहुत विरोधाभासी व्यवस्था है। मन ध्रुवीय विपरीतताओं में कार्य करता है। लेकिन हमारी सोच हमारी सोचने की तर्कयुक्त विधि सदा एक भाग को चुन लेती है और दूसरे को इनकार कर देती है। तो तर्क एक अ-विरोधाभासी तरीके से आगे बढ़ता है और मन विरोधाभासी तरीके से कार्य करता है। जीवन विपरीतताओं में कार्य करता है, और तर्क एक दिशा में कार्य करता है--विपरीतताओं में नहीं।

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-11)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-ग्याहरवां-(सम्यक प्रश्न) 

 (The Psychologe Of The Esoteric)- का हिन्दी रूपांतरण है)
सैद्धौतिंक प्रश्न मत पूछो। क्योंकि सिद्धांत हल कम करते हैं और उलझाते अधिक हैं। अगर कोई सिद्धांत न हों तो समस्याएं कम होंगी। ऐसा नहीं है कि सिद्धांत प्रश्नों या समस्याओं को हल करते हों बल्कि इसके विपरीत सिद्धांतों से प्रश्न उठ खड़े होते हैं। और दार्शनिक प्रश्न भी मत पूछो क्योंकि दार्शनिक प्रश्न बस प्रश्न जैसे प्रतीत होते हैं। वे प्रश्न हैं नहीं। यही कारण है कि कोई उत्तर संभव नहीं हो पाया है। अगर कोई प्रश्न वास्तव में एक प्रश्न है तो वह उत्तर देने योग्य है। अगर कोई प्रश्न झूठा है, बस एक भाषा शास्त्रीय संशय है तब इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता है। यही कारण है कि दर्शनशास्त्र उत्तर देता रहा है और किसी भी बात का उत्तर नहीं दिया जा सका है। दर्शनशास्त्री लोग

बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-10)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-दसवां-( सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् दिव्यता के झरोखे) 

 (The Psychologe Of The Esoteric)- का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो भारतीय दर्शन में परम सत्य की प्रकृति को सत्य
'
सत्यम् सौंदर्य सुंदरम: और शुभपन 'शिवम्' के रूप में
परिभाषित किया गया है। क्या ये भगवत्ता के लक्षण हैं?
ये भगवत्ता के गुण नहीं हैं। बल्कि हमारे द्वारा किए गए इसके अनुभव हैं। वे गुण जैसे कि वे हैं उस तरह भगवत्ता से संबद्ध नहीं हैं, वे हमारी अनुभूतियां हैं। भगवत्ता स्वयं में अज्ञेय है। या तो प्रत्येक गुण इसी का है या कोई गुण इसका नहीं है। लेकिन मानवीय मन का निर्माण जिस तरह से हुआ है यह भगवत्ता को तीन झरोखों के माध्यम से अनुभव कर सकता है तुम उसकी झलक या सौंदर्य के माध्यम से या सत्य के माध्यम से या शुभ के माध्यम से पा सकते हो। मनुष्य के मन के ये ही तीन आयाम हैं। ये हमारी सीमाएं हैं। ढांचा हमारे द्वारा दिया गया है भगवत्ता अपने आप में रूप के परे है।

सोमवार, 7 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-09)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-नौवां (ज्ञान का भ्रम)

 (The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)
किसी सिद्धांत की शिक्षा देना अर्थहीन है। मैं कोई दर्शनशास्त्री नहीं हूं मेरा मन दर्शनशास्त्र का विरोधी है। क्योंकि दर्शनशास्त्र कहीं नहीं ले गया है और न कहीं ले जा सकता है। वह मन जो सोच-विचार करता है और वह मन जो प्रश्न उठाता है जान नहीं सकता है।
बहुत से सिद्धांत हैं और अन्य बहुत से सिद्धांतों के लिए अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन सिद्धांत एक कल्पना है एक मानवीय कपोल-कल्पना। कोई खोज नहीं, बल्कि एक आविष्कार। आदमी का मन बहुत सी व्यवस्थाएं और सिद्धांत निर्मित करने में समर्थ है, लेकिन सत्य को सिद्धांतों के द्वारा जान पाना असंभव है। और जौ मन जानकारी से भरा हुआ है वह ऐसा मन है जो अज्ञानी ही बना रहेगा।
जिस पल जानना बंद हो जाता है तभी ज्ञान का आगमन होता है। अज्ञात के होने के लिए जाने हुए को मिट जाना चाहिए। और सत्य और वास्तविकता अज्ञात है। यहां पर दो संभावनाएं हैं या तो तुम इसके बारे में विचार कर सकते हो या हम अस्तित्वगत रूप से इसमें प्रवेश कर सकते हैं। सोच विचार करना उस के आस पास, उसके चारों ओर होता है, लेकिन यह कभी वास्तविकता नहीं होता। कोई युगों तक सोच-विचार करता रह सकता है। जितना अधिक तुम विचार करते हो उतना ही दूर तुम चले जाते हो। वह जो है यहीं और अभी है। और इसके बारे में विचार करना इससे संपर्क खो देना है।

रविवार, 6 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-08)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-आठवां (बनाना और होना)

 (The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो कृपया हमें सात शरीरों के तनावों और विश्रांतियों
के बारे में कुछ बताइए।

सारे तनाव का मूल-स्रोत कुछ और हो जाने की चाहत है। व्यक्ति सदा कुछ और होने की कोशिश कर रहा है। कोई भी जैसा वह है उसके साथ विश्राम में नहीं है। होना स्वीकृत नहीं है, होने से इनकार किया गया है और कुछ और बन जाने को, होने के आदर्श के रूप में ले लिया गया है। इसलिए मूलभूत तनाव सदा ही जो तुम हो और जैसे तुम हो जाना चाहते हो, के बीच है।

शनिवार, 5 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-07)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-सातवां-(सात शरीरों का अतिक्रमण

(The Psychologe Of The Esoteric)-का हिन्दी रूपांतरण है)

ओशो आपने कहा कि हमारे सात शरीर हैं : एक भाव
शरीर एक मनस शरीर तथा कुछ और शरीर। कभी-कभी
भारतीय भाषा को पाश्चात्य मनोविज्ञान की शब्दावली के
साथ समायोजित कर पाना कठिन हो जाता है। पश्चिमी
विचारधारा में हमारे पास इसके लिए कोई सिद्धांत नहीं हैं
लेकिन आपने कल जिन शरीरों के बारे में बताया उनमें से
कुछ शरीरों को मैंने पहचाना है और उनको अनुभव किया है।
हम अपनी भाषा में इन विभिन्न शरीरों के नामों का
अनुवाद कैसे कर सकते हैं? आत्मिक शरीर के बारे में
कोई समस्या नहीं है; लेकिन भाव शरीर सूक्ष्म शरीर...?

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-06)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(ओशो)

प्रवचन—छट्टवां—(सपनों का मनोविज्ञान) 

(The Psychology of The Esoteric)--का हिन्दी रूपांतरण है)

 ओशो स्वप्नों के विभिन्न प्रकार क्या हैं?
स्वप्नों के अनेक प्रकार होते हैं। हमारे सात शरीर हैं और प्रत्येक शरीर के अपने स्वप्न होते हैं। भौतिक शरीर अपने स्वप्न निर्मित करता है। अगर तुम्हारा पेट गड़बड़ है तो एक विशेष प्रकार का स्वप्न निर्मित होगा। अगर तुम अस्वस्थ हो, अगर तुम ज्वरग्रस्त हो तो भौतिक शरीर अपनी तरह से स्वप्न निर्मित करेगा। एक बात निश्चित है कि स्वप्न किसी स्थ्याता से किसी डिस-ईजृ से निर्मित होता है।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-05)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो

प्रवचन-पांचवां-(गुहा के खेल विकास में अवरोध)

(The Psychology of The Esoteric)--का हिन्दी रूपांतरण है)

 ओशो क्या शरीर और मन पदार्थ और चेतना भौतिक और आध्यात्मिकता के बीच कोई विभाजन है? आध्यात्मिक चेतना को उपलब्ध करने के लिए कोई शरीर और मन का अतिक्रमण कैसे कर सकता है?
पहली बात तो यह समझ लेनी है कि शरीर और मन के बीच का विभाजन आत्यंतिक रूप से झूठ है। अगर तुम इस विभाजन से आरंभ करते हो तो कहीं नहीं पहुंचोगे; क्योंकि झूठा आरंभ कहीं नहीं ले जाता है। इससे कुछ नहीं आ सकता है क्योंकि प्रत्येक कदम के विकसित होने का अपना गणित है। दूसरा कदम पहले से आएगा, और तीसरा दूसरे से, और ऐसा ही होता चला जाएगा। यह एक तार्किक श्रृंखला है। इसलिए जिस पल तुम पहला कदम उठाते हो तुमने एक प्रकार से सब-कुछ चुन लिया है।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-04)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान--ओशो
  

प्रवचन-चौथा-( कुंडलिनी:योग उदगम की ओर वापसी) 

(The Psychology of The Esoteric)--का हिन्दी रूपांतरण है)

 पहला प्रश्न--ओशो कुंडलिनी क्या है? कुंडलिनी योग क्या है और
कुंडलिनी योग पश्चिम की सहायता कैसे कर सकता है?
और कुंडलिनी जागरण की आपकी विधियां परंपरागत
नियंत्रित विधियों के स्थान पर अराजक क्यों हैं?

अस्तित्व ऊर्जा है ऊर्जा अनेक ढंगों और अनेक रूपों में गति है। जहां तक मनुष्य के अस्तित्व का प्रश्न है कुंडलिनी उनमें से एक है। कुंडलिनी मनुष्य के मनस और मनुष्य के शरीर की केंद्रीभूत ऊर्जा है।
ऊर्जा या तो अप्रकट रह सकती है या प्रकट। यह बीज में रह सकती है, या यह प्रकट रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। प्रत्येक ऊर्जा या तो बीज में है या प्रकट रूप में है। कुंडलिनी का अभिप्राय है तुम्हारी समग्र क्षमता, तुम्हारी संपूर्ण संभावना। लेकिन यह बीज नहीं है यह संभावना है। यह साकार हो सकती है लेकिन यह साकार नहीं है। कुंडलिनी पर कार्य करने की विधियां तुम्हारी क्षमता को साकार करने की विधियां हैं।

तंत्र-अध्यात्म और काम-(प्रवचन-02)

     तंत्र, अध्यात्म और काम-ओशो
     दूसरा प्रवचन—(का अंश, तांत्रिक प्रेम)

(Tantra Spiituality and Sex का हिन्दी अनुवाद)

 शिव देवी से कहते हैं:?
''जब प्रेम किया जा रहा हो प्रिय देवी, प्रेम में शाश्वत जीवन की भांति प्रवेश करो।''
 शिव प्रेम से शुरू करते हैं। पहली विधि प्रेम से संबंधित है क्योंकि प्रेम ही वह निकटतम अनुभव है जिसमें तुम विश्राम पूर्ण, रिलैक्स होते हो। अगर तुम प्रेम नहीं कर सकते तो तुम्हारा विश्रामपूर्ण होना असंभव है। अगर तुम विश्रामपूर्ण हो सको तुम्हारा जीवन एक प्रेममय जीवन होगा।
तनाव से भरा व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता। क्यों? तनाव से भरा व्यक्ति हमेशा किसी उद्देश्य के लिए जीता है। वह धन कमा सकता है लेकिन प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं प्रेम कोई वस्तु नहीं। तुम उसका संग्रह नहीं कर सकते; तुम उसे बैंक में जमा-पूंजी नहीं बना सकते, तुम उससे अपने अहंकार को मजबूत नहीं कर सकते।