कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

क्या मनुष्य एक रोग है?

मेरे प्रिय आत्मन्!
क्या मनुष्य एक रोग है? इ.ज मैन ए डि.जी.ज? इस संबंध में सबसे पहले जो बात मैं आपसे कहना चाहूं, मनुष्य अपने आप में तो रोग नहीं है, लेकिन मनुष्य जैसा हो गया है वैसा जरूर रोग हो गया है। अपने आप में तो इस जगत में सभी चीजें स्वस्थ हैं लेकिन जो भी स्वस्थ है उसे रुग्ण होने की संभावना है। जो भी स्वस्थ है वह बीमार हो सकता है। जीवित होने के साथ दोनों ही मार्ग खुले हुए हैं। सिर्फ मरा हुआ ही व्यक्ति बीमारी के भय के बाहर हो सकता है जिंदा व्यक्ति का अर्थ ही यही है कि वह बीमार हो सकता है इसकी पासिबिलिटी है, इसकी संभावना है। और मनुष्य बीमार हो गया है।

मनुष्य का पूरा इतिहास उसकी बीमारियों का इतिहास है। और मनुष्य की पूरी सभ्यता उसकी बीमारियों को छिपाने का प्रयास है। मनुष्य किसी भांति जी लेता है लेकिन जीने का नाम जिंदगी नहीं है। और हम किसी भांति जन्म से लेकर मृत्यु की यात्रा कर लेते हैं इसलिए अपने को जीवित समझ लेना काफी नहीं है।

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

राजनीति का सम्मान कम हो

अभी हुआ क्या है कि आज से पहले शिक्षा थी कम, काम था ज्यादा। भले आदमियों ने अनिवार्य शिक्षा कर दी। अनिवार्य शिक्षा करके शिक्षित तो ज्यादा पैदा कर रहे हैं और काम हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षित बढ़ता जा रहा है काम बिलकुल नहीं है। वह बिलकुल परेशानी में पड़ गया है।
उससे जब हम बातें करते हैं ऊंची तो उसे हम पर क्रोध आता है बजाए हमारी बातों को पसंद करने के। और जब हमारा नेता उसे समझाने जाता है तो उसका मन होता है इसकी गर्दन दबा दो।
कुछ भी नहीं होगा समझाने से। और वह गर्दन दबा रहा है जगह-जगह। और दस साल के भीतर हिंदुस्तान में नेता होना अपराधी होने के बराबर हो जाने वाला है।

एक चोर का तो जुलूस निकल सकेगा, नेता का नहीं निकलेगा।...क्योंकि नेता दुश्मन मालूम पड़ रहा है। खुद तो कब्जा करके बैठ गया है किसी जगह पर और दूसरों को त्याग इत्यादि के उपदेश दे रहा है। खुद तो मजे से बैठा है अपनी सीट को बिलकुल सिक्योर करके और दूसरों को कह रहा है, तुम त्याग करो देश के लिए। और खुद तो कोई त्याग कर नहीं रहा है। और कठिनाई इसकी भी होती है जो नेता है इसको हमने, इसके साथ भी हमारी भ्रांति हो गई है।

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)  

निःशब्द में ठहर जाएं

मेरे प्रिय आत्मन्!
जैसे कोई मछली पूछे कि सागर कहां है? ऐसे ही यह सवाल है आदमी का कि सत्य कहां है? मछली सागर में पैदा होती है सागर में जीती है और मरती है। शायद इसी कारण सागर से अपरिचित भी रह जाती है।
जो दूर है उसे जानना सदा आसान जो पास है उसे जानना सदा कठिन है। मछली सागर भर को नहीं जान पाती है। रात शायद आकाश के तारे भी उसे दिखाई पड़ते हैं और सुबह शायद ऊगता हुआ सूरज भी दिखाई पड़ता है। सिर्फ एक जो नहीं दिखाई पड़ता मछली को वह वही सागर है जिसमें वह पैदा होती है, जीती है और मरती है।
सत्य कहां है? कहीं दूर होता तो हम पा लेते, खोज लेते। कहीं चांद-तारों पर होता तो हम पहुंच जाते। दूरी बाधा न बन सकती। एवरेस्ट पर्वत पर तो हम चढ़ जाते हैं। और पैसिफिक महासागर में होता तो हम गहरे उतर जाते। लेकिन सत्य इतने भीतर है जितने कि हम भी अपने से निकट नहीं हैं। और यही सबसे बड़ी कठिनाई हो जाती है। जो पास है उसे खोजना मुश्किल ही हो जाता है। क्योंकि खोजने के लिए जगह चाहिए, स्पेस चाहिए जहां हम खोज सकें। इतना भी फासला नहीं है हमारे और सत्य के बीच। इसलिए सबसे बड़ी कठिनाई यही हो गई है कि जो हम हैं उसी को हम नहीं खोज पाते। यह कहना भी उचित नहीं है कि सत्य पास है क्योंकि पास भी दूरी का एक नाम है यही कहना उचित होगा कि हम जो हैं वही सत्य है। अन्यथा हो ही नहीं सकता।

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(ओशो)

युवा चित्त का जन्म

पुरानी संस्कृतियां और सभ्यताएं धीरे-धीरे सड़ जाती हैं। और जितनी पुरानी होती चली जाती हैं उतनी ही उनकी बीमारियां संघातक भी हो जाती हैं। उन अभागी सभ्यताओं में से एक है जिनका सब कुछ पुराना होते-होते मृतपाय हो गया है। यदि ऐसा कहा जाए कि जमीन पर हम अकेली मरी हुई सभ्यता हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। दूसरी सभ्यताएं पैदा हुईं मर गईं और उनकी जगह नई सभ्यताओं ने जन्म ले लिया। हमारी सभ्यता ने मरने की कला ही छोड़ दी और इसलिए नये जन्म लेने की क्षमता भी खो दी। जरूरी है कि बूढ़े चल बसें ताकि बच्चे पैदा हों और कभी किसी देश में ऐसा हुआ कि बूढ़ों ने मरना बंद कर दिया तो बच्चों का पैदा होना भी बंद हो जाएगा। हमारी सभ्यता के साथ ऐसा ही दुर्भाग्य हुआ है। हमने मरने से इनकार कर दिया। इस भ्रांति में कि अगर मरने से इंकार करेंगे तो शायद जीवन हमें बहुत परिपूर्णता में उपलब्ध हो जाएगा। हुआ उलटा। मरने से इनकार करके हमने जीने की क्षमता भी खो दी। हम मरे तो नहीं लेकिन मरे-मरे होकर जी रहे हैं।
और मरे-मरे जीने से मर जाना हजार गुना बेहतर है।

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा-(ओशो)

हिंदुस्तान क्रांति के चैराहे पर है

यह भी मैं मानता हूं कि सत्य बोलने से बड़ा धक्का दूसरा नहीं हो सकता। समाज इतना झूठ बोलता रहा, इतना झूठ पर जी रहा है कि आप बड़े से बड़े शाॅक जो पहुंचा सकते हैं वह यह कि चीज जैसी है वैसी सच-सच बोल दें।

प्रश्नः इसलिए कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि लोग मानते हैं कि जो कोई धक्का दे सकता है वे सत्यवती हैैं।

यह जरूरी नहीं है। यह जरूरी नहीं है। लेकिन फिर भी मेरा मानना यह है कि धक्का न देने वाले सत्य की बजाए धक्का देने वाला असत्य भी बेहतर होता है। क्योंकि धक्का चिंतन में ले जाता है। और चिंतन में बहुत देर तक असत्य नहीं टिक सकता। मेरी दृष्टि यह है कि चिंतन में, विचार में समाज जाना चाहिए। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि इनिशिअल धक्का अगर गलत भी था, और झूठ भी था, तो भी फर्क नहीं पड़ता। यानी वह सत्य जो हमें स्टैटिक बनाते हैं उन असत्यों से बदतर हैं जो कि हमें डाइनैमिक बनाते हैं। क्योंकि असत्य बहुत दिन नहीं टिक सकता, अगर चिंतन की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो। और इस देश में तकलीफ यह है कि चिंतन चलता ही नहीं।

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

दमन नहीं, समझ पैदा करें

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य के मन का एक अदभुत नियम है। उस नियम को न समझने के कारण मनुष्यता आज तक अत्यंत परेशानी में रही। वह नियम यह है कि मन को जिस ओर जाने से रोकें, मन उसी ओर जाना शुरू हो जाता है। मन को जिस बात का निषेध करें, मन उसी बात में आकर्षित हो जाता है। मन से जिस बात के लिए लड़ें, मन उसी बात से हारने के लिए मजबूर हो जाता है। लाॅ आॅफ रिवर्स इफेक्ट। मन के जगत में उलटे परिणामों का नाम है। इस नियम को बहुत समझना जरूरी है।
फ्रायड अपनी पत्नी के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। छोटा बेटा उसके साथ था। वे दोनों बगीचे में बैठ कर, घूम कर बातचीत करते रहे। और जब बगीचा बंद होने का समय आ गया, तो दोनों दरवाजे पर आए, तब उन्हें
खयाल आया कि उनका बेटा बहुत देर से उनके साथ नहीं है। फ्रायड की पत्नी तो घबड़ा गई। द्वार बंद हो रहा था, माली दरवाजे बंद कर रहे थे। बड़ा बगीचा था। बेटा कहां गया? वह घबड़ा कर कहने लगी, मैं कहां खोजंू?

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

युवा शक्ति का संगठन

मेरे प्रिय आत्मन्!
दो ही दृष्टियों से तुम्हे यहां बुलाया है, एक तो श्री नरेंद्र ध्यान के ऊपर शोध करते हैं, रिसर्च करते हैं। मैं ध्यान के जो प्रयोग सारे देश में करवा रहा हूं, वे उस पर मनोविज्ञान की दृष्टि से, पीएचड़ी. की...बनाते हैं। वे एम. ए. हैं मनोविज्ञान में, मनोविज्ञान के शिक्षक हैं और चाहते हैं कि ध्यान के ऊपर वैज्ञानिक रूप से खोज की जा सके। उनकी खोज के लिए कुछ मित्रों को निरंतर अपने मन का निरीक्षण करके अपने मन की स्थिति से और ध्यान के द्वारा उनके मन में क्या परिवर्तन हो रहे हैं, उस सबकी सूचना उन्हें देनी जरूरी है। तभी वे उस रिसर्च को पूरा कर सकेंगे। तो तुम्हें एक तो इस कारण से बुलाया है क्योंकि वे पिछले दो वर्षों से अनेक लोगों से प्रार्थना करते हैं। हमारे मुल्क में पहले तो कोई किसी तरह की प्रश्नावली को भरने को राजी नहीं होता, क्योंकि वह सोचता है न मालूम...और अगर भरने को भी राजी होता है तो उसे सत्य-सत्य नहीं भरता।
अगर उसमें लिखा हुआ है कि आपको क्रोध कितनी बार आता है दिन में? तो वह यह भरने को राजी नहीं होगा कि दस बार मुझे क्रोध आता है। वह कहेगा, आता ही नहीं।

नये मनुष्य का धर्म-(प्रवचन-01)

नये मनुष्य का धर्म--(विविध)-ओशो  

पहला-प्रवचन

जीवन की कुंजी है मृत्यु

मेरे प्रिय आत्मन्!
नेहरू विद्यालय के भारतीय सप्ताह का उदघाटन करते हुए मैं अत्यंत आनंदित हूं। युवकों के हाथ में भविष्य है...विषय नई पीढ़ी का निर्मित करना है। ज्ञान के जो केंद्र हैं वे यदि नई पीढ़ी को ज्ञान के साथ ही साथ हृदय की और प्रेम की भी शिक्षा दे सकें तो शायद नये मनुष्य का निर्माण हो सके।
एक छोटी सी बात के संबंध में कह कर मैं अपनी चर्चा शुरू करूंगा।
बहुत पुरानी घटना है एक गुुरुकुल से तीन विद्यार्थी अपनी समस्त परीक्षाएं उतीर्ण करके वापस लौटते थे। लेकिन उनके गुुरु ने पिछले वर्ष बार-बार कहा था कि तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। उन्होंने बहुत बार पूछा कि वह कौन सी परीक्षा है? गुरु ने कहा, वह परीक्षा बिना बताए ही लिए जाने की है, उसे बताया नहीं जा सकता। और सारी परीक्षाएं तो बता कर ली जा सकती हैं, लेकिन जीवन की एक ऐसी परीक्षा भी है जो बिना बताए ही लेनी पड़ती है। समय पर तुम्हारी परीक्षा हो जाएगी, लेकिन स्मरण रहे, उस परीक्षा को बिना पास किए, बिना उत्तीर्ण हुए तुम उत्तीर्ण नहीं समझे जा सकोगे।

गुरुवार, 30 अगस्त 2018

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-11)

ग्यारहवां-प्रवचन-(ओशो)

मेरा भरोसा व्यक्ति पर है

प्रश्नः पंद्रह अगस्त के दिन मैंने कहा, उसी संदर्भ में पूरे हिंदुस्तान की स्थिति स्वरूप में है, उसके लिए कौन जिम्मेवार? हमारे नेता और हम?
उसके लिए हमारे नेता जिम्मेवार हैं। लेकिन हमारे नेताओं के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। अंततः की जिम्मेवारी हमारी ही है। क्योंकि हमारे नेता हमसे कुछ अलग और भिन्न नहीं हैं। और हमने उन्हें चुना है, तो यह हमारी मनोस्थिति के प्रमाण हैं। हमारी जिम्मेवारी में, दो-चार बातें बहुत बुनियादी हैं। जैसे एक तो हमारी कोई राजनीतिक चेतना, कोई पोलिटिकल कनसनट्रेट नहीं है। आजादी की लड़ाई भी जो हम संघर्ष कर रहे थे, वह भी हमें राजनीतिक रूप से चेतन नहीं कर पाया। और न करने का कारण था कि हिंदुस्तान की पूरी परम्परा धार्मिक चेतना की परम्परा है। उसके पास कोई राजनीतिक चेतना नहीं। स्वभावतः इसीलिए हम इतने दिन तक गुलाम भी रह सके। क्योंकि हमारे धार्मिक मन को हमारी राजनीतिक गुलामी से कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि हमने स्वतंत्रता के संबंध में भी कभी सोचा है, तो वो आतीक स्वतंत्रता की बात है। हमारा शरीर भी स्वतंत्र हो, हमारा सामान्य जीवन भी स्वतंत्र हो, उसके आगे हमारी कोई कामना नहीं थी। हमारी आत्मा मोक्ष जाए, तो आत्मा तो जंजीरों में भी मोक्ष जा सकती है और जेलखाने में भी मोक्ष जा सकती है। इसलिए भारत के पास जिसको पोलिटिकल कनसनट्रेट कहें, वह है ही नहीं।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(ओशो)

अध्यात्म बीमारी बन गया

भारत के दुर्भाग्य की कहानी तो लंबी है। लेकिन इस कहानी के बुनियादी सूत्र बहुत थोड़े, बहुत पंक्चुअल हैं। तीन सूत्रों पर मैं आपसे बात करना चाहूंगा। और एक छोटी सी कहानी से शुरू करूंगा।
सुना है मैंने एक ज्योतिषी, रात्रि के अंधेरे में, आकाश के तारों का अध्ययन करता हुआ, किसी गांव के पास से गुजरता था। आकाश को देख रहा था, इसलिए स्वभावतः जमीन को देखने की सुविधा न मिली। आकाश के तारों पर नजर थी, इसलिए पैर कहां मुड़ गए, यह पता न चला, और वह एक सूखे कुएं में गिर पड़ा। चिल्लाया बहुत, पास से किसी किसान की झोपड़ी से लोगों ने निकल कर उसे बचाया। किसान भी घर पर न था, उसकी बूढ़ी मां ही घर पर थी। किसी तरह उस ज्योतिषी को बाहर निकाला जा सका था। और जब वह बाहर निकल आया तो उसने स्वभावतः धन्यवाद दिया, और उस बूढ़ी औरत को कहा कि मां, अगर कभी ज्योतिष के संबंध में कुछ समझना हो, तो इस समय पृथ्वी पर तारों को मुझसे ज्यादा जानने वाला कोई भी नहीं, तुम आ जाना। उस बूढ़ी स्त्री ने कहाः क्षमा करो मुझे। जिसे अभी जमीन के गड्ढों का पता नहीं, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का भरोसा नहीं हो सकता।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(ओशो)

चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई

साधारणतः हम ऐसा ही सोचते हैं कि गुलामी के कारण हमारा चरित्र नष्ट हो गया है। गुलामी के कारण हमारा व्यक्तित्व नष्ट हुआ लेकिन...
प्रश्नः अभी जरा कठिनाई है कि गुलामी आई तभी से चरित्रहीन रहे,...?
इसको, इसको मैं कहना चाहता हूं। इसको ही मैं कहना चाहता हूं। चरित्रहीनता जो है, वह गुलामी के कारण नहीं आई, बल्कि चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई। और चरित्रहीन हम बने ऐसा कहना मुश्किल है, चरित्रहीन हम थे। बनने का तो मतलब यह होता है कि हम चरित्रवान थे। फिर हम चरित्रहीन बने। तो हमें कारण खोजने पडे. कि हम चरित्रवान कैसे थे? कब थे? और कैसे हम चरित्रहीन बने। मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि हम कभी चरित्रवान थे। हमारी चरित्रहीनता बड़ी पुरानी है।
और चरित्रहीनता का जो बुनियादी कारण है, वह हमारी संस्कृति में सदा से मौजूद है। उसकी वजह से गुरूवाणी का आनंद बिल्कुल स्वाभाविक था। और आज भी आ जाना बिल्कुल स्वाभाविक है। और अगर हम जो भी इंतजाम करेंगे चरित्रवान बनने के वे सफल होने वाले नहीं हैं। वे सफल इसलिए नहीं होंगे कि हम फिर वही इंतजाम करेंगे, जो हमने सदा से किया था। जैसे, एक तो चरित्र से हम जो मतलब लेते रहे इस देश में, वो मतलब भी बड़ा भ्र्रांत है।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(ओशो)

दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ेगी

मैं मानता ही ऐसा हूं कि पूंजीवाद का काम ही यह है कि इतनी संपत्ति पैदा कर जाए कि समाजवाद संभव हो सके।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
नहीं ऐसा नहीं है क्योंकि माक्र्स के ख्याल में ऐसा है, कि पूंजीवाद समाजवाद नहीं लाएगा। पूंजीवाद अपने अंतर्कलह पैदा करेगा। और अंतर्कलह समाजवाद लाएंगे। मेरी ऐसी धारणा नहीं है। माक्र्स का ख्याल यह है पूंजीवाद ऐसी स्थिति पैदा कर देगा कि अभी जो तीन वर्ग हैं समाज में, पूंजीपति का वर्ग, पूंजीहीन का वर्ग और मध्यम-वर्ग, पूंजीवाद का शोषण मध्यम-वर्ग को नष्ट कर देगा। मध्यमवर्ग का बड़ा हिस्सा सर्वाहारा हो जाएगा। छोटा सा हिस्सा पूंजीवादी हो जाएगा और समाज सीधा दो हिस्सों में कट जाएगा। जिस दिन समाज दो वर्गाें में सीधा कट जाएगा, उस दिन पूंजीवाद की अन्तर्कलह ही पूंजीवाद की मृत्यु बन जाएगी।

मेरी दृष्टि बिलकुल भिन्न है, मेरी समझ ऐसी है कि जैसे-जैसे पूंजीवाद विकसित होगा, मघ्यमवर्ग नष्ट नहीं होता, जैसे-जैसे पूंजीवाद विकसित होता, मजदूर का वर्ग नष्ट होता है। और अन्ततः एक ऐसी समाज स्थिति बनती है जहां, वह मध्यमवर्ग ही रह जाता, जिसके एक छोर पर धनी रहता है, दूसरे छोर पर निर्धन रहता है, लेकिन मध्यवर्ग अकेला वर्ग रह जाता है।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)
 

देश धन के लिए बीमार हो गया

जब कोई सभ्यता सड़ती है, तो उसकी दुर्गंध, उसके व्यापारी वर्ग से सबसे ज्यादा आनी शुरू होती है। ये स्वाभाविक है। इसके पीछे कारण है। समाज का खून है धन, धन समाज की नसों में दौड़ता है, खून की तरह। और जब खून सड़ जाए, तो सारे समाज के शरीर पर फोड़े-फुंसियां और बीमारियां, प्रकट होनी शुरू हो जाती हैं। या अगर कभी ऐसा हो, कि किसी आदमी के पूरे शरीर पर फोड़े-फुंसियां और मवाद फैले लगे, तो जान लेना चाहिए कि भीतर खून सड़ गया होगा। व्यापारी समाज की रीढ़ है। और धन समाज का खून, और जब सभ्यता पुरानी होती चली जाती है, तो खून सड़ जाता है। और सारी दुर्गंध व्यापारी से निकलनी शुरू हो जाती है। भारत यी सभ्यता की सड़ांद, भारत की जो अर्थव्यवस्था है उससे पूरी तरह निकलनी शुरू हो गई है। और आज ही निकल रही है ऐसा नहीं है। सैकड़ो वर्षाें से निकल रही है। क्योंकि हमने नए को पैदा करने की क्षमता खो दी है। पुरानों को दफनाने की क्षमता भी खो दी है। न हम पुराने को मरघट तक पहुंचा सकते हैं, और न नए को जन्म देने के लिए प्रसव की पीड़ा, झेलने की हमारी हिम्मत है।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो) 

क्रांति का आधार सूत्र हैः विचार

हजारों लोग उस आदमी के पीछे थे। औरंगजेब ने अपने महल की खिड़की से झांक कर देखा और पूछा कौन मर गया? नीचे से लोगों ने कहा कौन पूछते हैं, भलीभांति पता होगा आपको, संगीत की मृत्यु हो गई। औरंगजेब हंसा और उसने कहाः बहुत अच्छा हुआ कि संगीत की मृत्यु हो गई। अब जरा मरे हुए संगीत को गहराई से गाड़ देना, ताकि वह वापस न निकल आए। यह घटना आपने सुनी होगी। आज ऐसा लगता है कि फिर दिल्ली में अरथी निकालनी चाहिए और जब आज के औरंगजेब पूछे बाहर झांक कर, तो कहना चाहिए कि विचार की मृत्यु हो गई। पक्का है कि आज के औरंगजेब भी यहीं कहेंगे कि थोड़ा ठीक से गाड़ देना, यह विचार कहीं निकल न आएं।
विचार की हत्या के प्रयास बहुत पुराने हैं। और इस देश में, इस देश में तो विचार को ठीक से जन्म ही नहीं मिल पाया। और जिस देश में विचार का जन्म न हो, उस देश में क्रांति की कोई भी उम्मीद नहीं है। क्योंकि क्रांति का मौलिक सूत्र है विचार। क्रांति का आधार सूत्र है विचार। विचार के खिलाफ क्यों हैं औरंगजेब? चाहे किसी जमाने के हों। और ऐसा ही नहीं है कि इस दुनिया के औरंगजेब ही, सारी दुनिया के औरंगजेब विचार के क्यों खिलाफ हैं? फिर चाहे वे चीन के औरंगजेब हों, चाहे रूस के, और चाहे भारत के, और चाहे अमेरिका के। औरंगजेब हमेशा ही विचार के खिलाफ क्यों है?

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

अहंकारी समाज सदा पीछे देखता है

एक काफिला रास्ता भटक गया था। आधी रात गए, एक रेगिस्तानी सराय में, उस काफिले को शरण मिली। बड़ा था काफिला, बहुत सौदागर थे। सौ ऊंटों पर लदा हुआ सामान था। थक गए थे, रात थक गए थे। शीघ्र उन्होंने खूटियां गाड़ कर ऊंटों को बांधा, विश्राम करने की तैयारी करने लगे, तभी पता चला कि एक ऊंट की खूंटी और रस्सी कहीं रास्ते में गिर गई। निन्यानबे ऊंट बंध गए, एक ऊंट अनबंधा रह गया। ऊंट को अनबंधा छोड़ना खतरनाक था। रात कहीं भटक सकता था। उन्होंने सराय के बूढ़े मालिक को जाकर काफिले के सरदार ने कहा, अगर एक खूंटी और रस्सी मिल जाए, तो बड़ी कृपा हो, हमारा एक ऊंट अनबंधा रह गया है। उस सराय के बूढ़े मालिक ने कहा, खूंटी और रस्सी की क्या जरूरत है, तुम तो खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो। वे लोग बहुत हैरान हुए, उन्होंने कहा, खूंटी हमारे पास होती तो, हम खुद ही गाड़ देते, कौन सी खूंटी दें? उस बूढ़े ने कहा झूठी खंूंटी गाड़ दो और झूठी रस्सी बांध दो। वह लोग कहने लगे आप भी पागलपन की बातें कर रहे हैं, झूठी खूंटी से कहीं ऊंट बांधे गए हैं?
झूठी रस्सी से कभी ऊंट बंधे हैं? उस बूढ़े ने कहा कि मैंने आदमियों और सबको झूठी खूंटियों से बंधा देखा है, ऊंट का क्या हिसाब है।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(ओशो)

किनारों से जंजीर भी छूट जाना जरूरी है

और कुछ लड़के एक मौजूदा आलम में इकट्ठे हुए। आधी रात गए तक उन्होंने शराब पी, फिर बाहर गए, चांद को देख कर मन में खयाल आया कि चलें नदी तक, नौका विहार करें। वे नदी पर गए, मछुए अपनी नावें बांध कर घर जा चुके थे। उन्होंने देखा एक बड़ी नाव थी, पतवारें खोली, नाव को खेना शुरू किया, नशे में धुत थे, चांदनी रात थी, मौज में थे, गीत गाने लगे। पतवार चलाने लगे। जोर से उन्होंने पतवार चलाईं, नाव खेई। पता नहीं कितनी देर तक नाव खेते रहे, कितनी दूर तक। जब सुबह की हवाएं बहने लगीं, और नशा कुछ उतरा तो खयाल आया। न मालूम कितनी दूर निकल आए वह। अब वापस लौट चलना चाहिए।
कहा किसी एक ने कि नाव को देख लो, कि वह किस दिशा में चले आए हैं। क्योंकि नशे में थे हम, हवाओं की दिशा का कोई हिसाब नहीं, कोई ठिकाना नहीं।
हम पूरब आए कि पश्चिम, हम अपने गांव से कितनी दूर हैं, कुछ पता नहीं। एक मित्र नाव से उतरा और जमीन पे खड़ा होकर हंसने लगा, दूसरे मित्रों ने पूछा हंस रहे हो क्या हुआ? तो उसने कहाः तुम भी उतरो।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

वैज्ञानिक चिंतन आना चाहिए

मैं तो अधिनायकशाही के पक्ष में ही नहीं हूं। वह सिर्फ मजाक में कही बात को...। कहा मैंने कुल इतना था कि जैसा लोकतंत्र चल रहा है, इस देश में इससे तो अच्छा होगा कि देश में तानाशाही हो जाए। वो तानाशाही भी इससे ज्यादा विनिवलेंट होगी। और ये सिर्फ मजाक में कहा कि इस लोकतंत्र से तो तानाशाही भी बेहतर हेागी। तानाशाही बेहतर होती है, यह मैंने कहा नहीं। लेकिन समझ यह लिया गया कि मैं तानाशाही को बेहतर मानता हूं। बिलकुल ही नासमझी है। मुझसे ज्यादा विरोध में तानाशाही के शायद ही कोई आदमी हो। और पाकिस्तान में असफल हो गई ऐसा नहीं। सारे इतिहास में, हमेशा असफल होती रही है। और कभी भी सफल नहीं होगी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
हां, हां, मेरी आप बात समझे न। दुनिया में परतंत्रता सफल नहीं हो सकती है, उसका चाहे कोई भी रूप हो। परतंत्रता को असफल होना ही पड़ेगा। क्योंकि मनुष्य की आत्मा किसी तरह की परतंत्रता को स्वीकार करने को राजी नहीं है।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(जगत बहुत यथार्थ है)

मेरे प्रिय आत्मन्!
रोम के एक चैराहे पर बारह भिखारी लेटे हुए थे। एक परदेसी यात्री उस चैराहे से गुजरता था। वे बारह भिखारी ही हाथ फैला कर भीख मांगने लगे। उस यात्री ने खड़े होकर कहा कि तुममें जो सबसे ज्यादा अलाल हो, उसी को मैं भीख दे सकता हूं। उन बारह भिखारियों में से ग्यारह भिखारी दौड़ कर उसके सामने खड़े हो गए। और प्रत्येक दावा करने लगा कि मुझसे ज्यादा अलाल और कोई भी नहीं है। भीख मुझे मिलनी चाहिए। लेकिन वह यात्री हंसा और उसने कहा कि तुम ग्यारह ही हार गए। बारहवां आदमी अपनी जगह ही लेटा हुआ था और वहीं से पुकार कर रहा था कि मैं अलाल हूं, भीख मुझे मिलनी चाहिए। वह रूपया जो उसे देना था, बारहवें आदमी को दे दिया उसने। वही अलाल सबसे ज्यादा था। उसने उठने की भी मेहनत नहीं ली थी।

मैं सोचता हूं यह घटना भारत के भी किसी गांव में घट सकती है, बंबई में या दिल्ली में। लेकिन एक फर्क पड़ेगा, यहां ग्यारह आदमी लेटे रहेंगे और एक आदमी उठेगा। और वह यात्री मुश्किल में पड़ जाएगा। एक आदमी को तो भीख देनी आसान है, ग्यारह आदमियों को भीख देनी बहुत मुश्किल हो जाएगी। यह फर्क क्यों पड़ेगा? यह फर्क इसलिए पड़ेगा कि भारत से ज्यादा अलाल, भारत से ज्यादा आलस्य से भरा हुआ मनुष्य खोजना पृथ्वी पे मुश्किल है।

नये भारत का जन्म-(प्रवचन-01)

नये भारत का जन्म-(राष्ट्रीय-सामाजिक) -ओशो 

पहला-प्रवचन-(झूठे शब्दों से सावधान) 

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
ऐसा ही एक स्कूल था तुम्हारे स्कूल जैसा। बहुत छोटे-छोटे बच्चे थे उस स्कूल में। ऐसी ही एक सुबह होगी, स्कूल खुला होगा और एक इंस्पेक्टर स्कूल के निरीक्षण के लिए आया। उसे स्कूल की बड़ी कक्षा में ले जाया गया। उसने उस स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों से कहा कि तुम्हारी कक्षा में जो तीन बच्चे सबसे ज्यादा आगे हैं, जो पहला हो, दूसरा हो, तीसरा हो, उन तीनों बच्चों को मैं एक के बाद एक बुलाऊंगा, वह आकर बोर्ड पर सवाल हल करे।
पहला बच्चा उठ कर आया और उसने सवाल हल किया। फिर दूसरा बच्चा भी उठ कर आया, उसने भी सवाल हल किया। फिर तीसरा बच्चा उठ कर आया, लेकिन उठते समय वह थोड़ा झिझका, डरा, बोर्ड के पास आकर भी ऐसा लगा जैसे भयभीत है।
फिर उसने बोर्ड पर सवाल शुरू किया। इंस्पेक्टर उसे देख कर थोड़ा हैरान हुआ। और उसे शक हुआ कि शायद यह तो पहला ही बच्चा है जो पहले भी आ चुका और अब फिर आ गया। उसने उस बच्चे को रोका और पूछा कि मुझे तुम्हारा चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ता है। लगता है तुमने पहली बार भी आकर सवाल हल किया था।

बुधवार, 29 अगस्त 2018

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-10)

दसवां-प्रवचन-(प्रेम ही परमात्मा है)

सागर के तट पर एक मेला भरा था। बड़े-बड़े विद्वान इकट्ठे थे उस सागर के किनारे। और स्वभावतः उनमें एक चर्चा चल पड़ी कि सागर की गहराई कितनी होगी? और जैसी कि मनुष्य की आदत है, वे सब सागर के किनारे बैठ कर विवाद करने लगे कि सागर की गहराई कितनी है? उन्होंने अपने शास्त्र खोल लिए। उन सबके शास्त्रों में गहराई की बहुत बातें थीं। कौन सही है, निर्णय करना बहुत मुश्किल हो गया। क्योंकि सागर की गहराई तो सिर्फ सागर में जाने से पता चल सकती है, शास्त्रों के विवाद में नहीं, शब्दों के जाल में नहीं। विवाद बढ़ता गया। और जितना विवाद बढ़ा, उतना निर्णय मुश्किल होता चला गया। असल में निर्णय लेना हो तो विवाद से बचना जरूरी है। निर्णय न लेना हो तो विवाद से ज्यादा सुगम और कोई रास्ता नहीं।
लेकिन भूल से उस मेले में दो नमक के पुतले भी पहुंच गए थे। उन्होंने उन विवाद करने वाले लोगों को कहा कि रुको, हम कूद कर पता लगा आते हैं कि सागर कितना गहरा है।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन की वीणा का संगीत)

मेरे प्रिय आत्मन्!
जैसे कोई बड़ा बगीचा हो, बहुत पौधे हों, लेकिन फूल एक भी न खिले, ऐसा ही मनुष्य का समाज हो गया है। मनुष्य बहुत हैं, लेकिन सौंदर्य के, सत्य के, प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते। पृथ्वी आदमियों से भरती चली जाती है, लेकिन दुर्गंध से भी, सुगंध से नहीं। घृणा से, क्रोध से, हिंसा से, लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं। कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। ऐसा मालूम पड़ता है कि सिवाय युद्ध लड़ने के हमने और कोई काम नहीं किया। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं। प्रतिवर्ष पांच युद्धों की लड़ाई। और अगर किसी एक संबंध में विकास हुआ है, तो वह यही कि हमने आदमियों को मारने की कला में अंतिम स्थिति पा ली है।
आज जमीन पर कोई पचास हजार उदजन बम तैयार हैं। यह आश्चर्य की बात है कि पचास हजार उदजन बम जरूरत से बहुत ज्यादा हैं, सात गुने हैं। तीन अरब आदमी हैं, तीन अरब आदमियों को मारने के लिए सात गुनी तैयारी हमने कर रखी है। पच्चीस अरब आदमी हों तो इतने बम उनको भी मार सकेंगे सुविधा से। लेकिन एक-एक आदमी को हमने सात-सात बार मारने का इंतजाम किया है कि कोई भूल-चूक से बच न जाए। वैसे एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, लेकिन शायद बच जाए तो दुबारा हम मार सकें। फिर भी बच जाए तो हमने सात बार मारने के इंतजाम कर रखे हैं। सरप्लस अरेंजमेंट है आदमी को मारने के लिए।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(रहस्य का द्वार)

एक फकीर को एक सम्राट ने फांसी दे दी थी। और उस देश का रिवाज था कि नदी के किनारे फांसी के तख्ते को खड़ा करके फांसी दे देते थे। और उस लटकते हुए आदमी को वहीं छोड़ कर लौट जाते थे। उसकी लाश नदी में गिर जाती और बह जाती। लेकिन कुछ भूल हो गई, और फकीर के गले में जो फंदा लगाया था वह बहुत मजबूत नहीं था, फकीर जिंदा ही फंदे से छूट कर नदी में गिर गया। पर किसी को पता न चला, फांसी लगाने वाले लौट चुके थे।
दस साल बाद उस फकीर को फिर फांसी की सजा दी गई। और जब उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ाया जा रहा था और सूली बांधी जा रही थी, तो उस फकीर ने कहा कि मित्रो, जरा एक बात का ध्यान रखना कि फंदा ठीक से लगाना। पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया था।
उन्होंने कहा, हम समझे नहीं, मतलब क्या है? कौन सी पिछली बार?
उसने कहा, यह फांसी दुबारा लग रही है। और मैं तैरना नहीं जानता हूं। तो पिछली बार मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। नदी में गिर गया, और नदी तैर कर मुझे पार करनी पड़ी, और तैरना मुझे मालूम नहीं है। फंदा जरा ठीक से लगाना, फिर वैसी मुसीबत न हो जाए।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(प्राणों की प्यास) 

शायद हम जीवन के बरामदे में ही जी लेते हैं और जीवन का भवन अपरिचित ही रह जाता है। हम अपने से बाहर ही जी लेते हैं, मंदिर में प्रवेश ही नहीं हो पाता है। मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि वह अपने से ही अपरिचित, अनजान, अजनबी जी लेता है। शायद सबसे कठिन ज्ञान भी वही है। और सब कुछ जान लेना बहुत सरल है। एक अपने को ही जान लेना बहुत कठिन पड़ जाता है। होना तो चाहिए सबसे ज्यादा सरल, अपने को जानना सबसे सुगम होना चाहिए। लेकिन सबसे कठिन हो जाता है।
कारण हैं कुछ। सबसे बड़ा कारण तो यही है कि हम यह मान कर ही चल पड़ते हैं कि जैसे हम स्वयं को जानते हैं। और जैसे कोई बीमार समझ ले कि स्वस्थ है, ऐसे ही हम अज्ञानी समझ लेते हैं कि ज्ञानी हैं। अपने को जानते ही हैं, इस भ्रांति से जीवन में अज्ञान के टूटने की संभावना ही समाप्त हो जाती है। सिर्फ वही आदमी अपने को जानने को निकलेगा, जो कम से कम इतना जानता हो कि मैं अपने को नहीं जानता हूं। परमात्मा की खोज तो बहुत दूर है। जिन्होंने अपनी ही खोज नहीं की, वे परमात्मा को कैसे खोज सकेंगे?
और अगर परमात्मा के द्वार पर भूले-भटके पहुंच भी गए और उसने पुछवा भेजा कि आप कौन हैं जो आए हैं? तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-06)

 छटवां-प्रवचन-(अमृत की उपलब्धि)

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुना है मैंने, एक पूर्णिमा की रात्रि कुछ मित्र एक शराबखाने में इकट्ठे हो गए। देर तक उन्होंने शराब पी। और जब वे नशे में नाचने लगे और उन्होंने आकाश में पूरे चांद को देखा, तो किसी ने कहा, अच्छा न हो कि हम नदी पर नौका-विहार को चलें? और वे नदी की तरफ चले। मांझी अपनी नौकाएं बांध कर जा चुके थे। वे एक नाव में सवार हो गए, उन्होंने पतवारें उठा लीं, उन्होंने पतवारें चलानी शुरू कर दीं। और वे बहुत रात गए तक पतवारें चलाते रहे, नाव को खेते रहे। और जब सुबह की ठंडी हवाएं आईं और उनका नशा उतरा, तो उन्होंने सोचा..हम न मालूम कितने दूर निकल आए हों और न मालूम किस दिशा में निकल आए हों, कोई नीचे उतर कर देख ले। एक व्यक्ति नीचे उतरा और हंसने लगा और उसने कहा कि आप भी नीचे उतर आएं। हम कहीं भी नहीं गए। हम रात भर वहीं खड़े रहे हैं!

नौका वहीं खड़ी थी जहां उन्होंने रात उसे पाया था। वे बहुत हैरान हुए, रात भर की मेहनत का क्या हुआ? नीचे उतर कर पता चला कि नौका की जंजीरें किनारे से बंधी थीं, वे छोड़ना भूल गए थे।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-05)

पांचवा-प्रवचन-(मनुष्य के अज्ञान का आधार)

आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है। और जो आश्चर्य की बात है वही मनुष्य के अज्ञान का भी आधार है। मनुष्य अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है।
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समझाना चाहूं।
मैंने सुना है, एक आदमी के घर में एक अंधेरी रात एक चोर घुस गया। उसकी पत्नी की नींद खुली और उसने अपने पति को कहा, मालूम होता है घर में कोई चोर घुस गया है। उस पति ने अपने बिस्तर पर से ही पड़े-पड़े पूछा, कौन है? उस चोर ने कहा, कोई भी नहीं। वह पति वापस सो गया। रात चोरी हो गई। सुबह उसकी पत्नी ने कहा कि चोरी हो गई और मैंने आपको कहा था! तो पति ने कहा, मैंने पूछा था, अपने ही कानों से सुना कि कोई भी नहीं है, इसलिए मैं वापस सो गया।

ऐसे घर में चोरी दुबारा होगी। स्वाभाविक है। जिस घर में चोर की कही गई बात..कि कोई भी नहीं है..मान ली गई हो, उस घर में चोरी दुबारा हो, यह बिल्कुल ही अनिवार्य है। पंद्रह-बीस दिन बाद चोर वापस घुसा। पत्नी ने कहा, अब पूछने की जरूरत नहीं है, सीधा चोर को पकड़ ही लें।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(तीन सूत्रः बहना, मिटना, सर्व-स्वीकार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। सबसे कठिन और सबसे जरूरी बात तो यह समझना है कि जैसा शब्द से मालूम पड़ता है तो ऐसा लगता है कि ध्यान भी कोई क्रिया होगी, कोई डूइंग होगी, कुछ करना पड़ेगा। मनुष्य के पास जो भी शब्द हैं वे सभी शब्द बहुत ऊंचाइयों पर जाकर अर्थपूर्ण नहीं रह जाते हैं। तो ध्यान से ऐसा ही लगता है कि कुछ करना पड़ेगा। जब कि वस्तुतः ध्यान कोई करने की बात नहीं है। ध्यान हो जाने की बात है। आप ध्यान में हो सकते हैं, ध्यान कर नहीं सकते।
इसे ऐसा समझिए कि जैसे हम प्रेम शब्द का उपयोग करते हैं तो उसमें भी यही भ्रांति होती है, समझ में आता है कि प्रेम भी करना पड़ेगा। आप प्रेम नहीं कर सकते हैं, प्रेम में हो सकते हैं। और होने और करने में बहुत फर्क है। अगर आप प्रेम करेंगे तो वह झूठा हो जाएगा। किए हुए प्रेम में सच्चाई कैसे होगी? किया हुआ प्रेम अभिनय और एक्टिंग हो जाएगा।

यही सबसे बड़ी कठिनाई भी है। क्योंकि जो चीज की जा सकती हो, हम कर सकते हैं। कठिनाई हो, पहाड़ हो, चढ़ना हो, मुश्किल पड़े, कर लेंगे। लेकिन जो चीज होने वाली है उसके लिए हम क्या करें?
जापान में एक बहुत बड़ा सम्राट हुआ।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(परमात्मा की खोज)

नीत्शे ने कहा है: गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर गया है। लेकिन जिसके लिए ईश्वर मर गया हो उसकी जिंदगी में पागलपन के सिवाय और कुछ भी बच नहीं सकता है। नीत्शे पागल होकर मरा। अब दूसरा डर है कि कहीं पूरी मनुष्यता पागल होकर न मरे! क्योंकि जो नीत्शे ने कहा था, वह करोड़ों लोगों ने स्वीकार कर लिया।
आज रूस के बीस करोड़ लोग समझते हैं..गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर चुका है। चीन के अस्सी करोड़ लोग रोज इस बात को गहराई से बढ़ाए चले जा रहे हैं..गॅाड इ.ज डेड, ईश्वर मर गया है। यूरोप और अमरीका की नई पीढ़ियां, भारत के जवान भी, ईश्वर मर गया है, इस बात से राजी होते जा रहे हैं। और मैं यह कहना चाहता हूं कि नीत्शे पागल होकर मरा, कहीं ऐसा न हो कि पूरी मनुष्यता को भी पागल होकर मरना पड़े। क्योंकि ईश्वर के बिना न तो नीत्शे जिंदा रह सकता है स्वस्थ होकर और न कोई और जिंदा रह सकता है।
असल में ईश्वर के मरने का मतलब ही यह होता है कि हमारे भीतर जो भी श्रेष्ठ है, जो भी सुंदर है, जो भी शुभ है, जो भी सत्य है, उसकी खोज मर गई। ईश्वर के मरने का यही मतलब होता है कि जिंदगी में रोशनी और प्रकाश की खोज मर गई।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(ध्यान में मिटने का भय)

रवींद्रनाथ ने एक गीत में कहा है कि मैं परमात्मा को खोजता था। कभी किसी दूर तारे पर उसकी एक झलक दिखाई पड़ी, लेकिन जब तक मैं उस तारे के पास पहुंचा, वह और आगे निकल चुका था। कभी किसी दूर ग्रह पर उसकी चमक का अनुभव हुआ, लेकिन जब तक मैंने वह यात्रा की, उसके कदम कहीं और जा चुके थे। ऐसा जन्मों-जन्मों तक उसे खोजता रहा, वह नहीं मिला। एक दिन लेकिन अनायास मैं उस जगह पहुंच गया जहां उसका भवन था, निवास था। द्वार पर ही लिखा था: परमात्मा यहीं रहते हैं। खुशी से भर गया मन कि जिसे खोजता था जन्मों से वह मिल गया अब। लेकिन जैसे ही उसकी सीढ़ी पर पैर रखा कि ख्याल आया..सुना है सदा से कि उससे मिलना हो तो मिटना पड़ता है। और तब भय भी समा गया मन में..चढूं सीढ़ी, न चढूं सीढ़ी? क्योंकि अगर वह सामने आ गया तो मिट जाऊंगा! अपने को बचाऊं या उसे पा लूं? फिर भी हिम्मत की और सीढ़ियां चढ़ कर उसके द्वार पर पहुंच गया, उसके द्वार की सांकल हाथ में ले ली। फिर मन डरने लगा..बजाऊं या न बजाऊं?

अगर उसने द्वार खोल ही दिया तो फिर क्या होगा? मैं तो मिट जाऊंगा। और तब प्राण इतने घबड़ा गए मिटने के ख्याल से कि सांकल धीरे से छोड़ दी कि कहीं भूल से आवाज न हो जाए, कहीं वह द्वार न खोल दे, पैर की जूतियां हाथ में ले लीं कि कहीं सीढ़ियों पर आवाज न हो जाए, कहीं वह द्वार न खोल दे, और फिर जो उस दिन से भागा हूं तो पीछे लौट कर नहीं देखा है।

धर्म साधना के सूत्र-(प्रवचन-01)

धर्म साधना के सूत्र-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(धर्म परम विज्ञान है)

प्रश्नः मैंने धर्मयुग में शायद, देर हो गई, एक आर्टिकल आपका पढ़ा था। उसमें आपने कहा कि आवागमन को न मानें, ऐसा मुझे लगा; कि कर्म और प्रारब्ध है, इसमें हमें नहीं पड़ना चाहिए। जब कि हिंदू धर्म में जो आवागमन है वह एक बेसिक बात है और जो आवागमन को नहीं मानता, हम समझें कि उसको हिंदू धर्म में फेथ नहीं है। इसके बारे में आपका क्या विचार है?
दो बातें हैं। एक तो आवागमन गलत है, ऐसा मैंने नहीं कहा है। आवागमन को मानना गलत है, ऐसा मैंने कहा है। और मानना सब भांति का गलत है। धर्म का संबंध मानने से है ही नहीं। धर्म का संबंध जानने से है। और जो मानता है, वह जानता नहीं है, इसीलिए मानना पड़ता है। और जो जानता है, उसे मानने की कोई जरूरत नहीं है। जानता ही है, तो मानने की कोई जरूरत नहीं है।

धर्म का मूल संबंध ज्ञान से है, विश्वास से नहीं।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-09)

नौवां-प्रवचन-(जीवन के तथ्यों से भागें नहीं)

कैसे विरोध में, कैसी जड़ता में ग्रस्त है उस संबंध में कल हमने थोड़ी सी बातें कीं। किन कारणों से मन की, मनुष्य की, पूरी संस्कृति की ये दुविधा है उस संबंध में थोड़ा सा विचार किया। दो-तीन बातें मैंने कल आपसे कहीं। पहली बात तो मैंने आपसे ये कही कि हम जब तक भी जीवन की समस्याओं को सीधा देखने में समर्थ नहीं होंगे और निरंतर पुराने समाधानों से, पुराने समाधानों, पुराने सिद्धांतों से अपने मन को जकड़े रहेंगे, तब तक कोई हल, कोई शांति, कोई आनंद या कोई सत्य का साक्षात असंभव है।
आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इसके पहले कि जीवन सत्य की खोज में निकले, अपने मन को समाधानों और शास्त्रों से मुक्त कर ले। उनका भार मनुष्य के चित्त को ऊध्र्वगामी होने से रोकता है, इस संबंध में थोड़ा सा मैंने आपसे कहा। इन समाधानों से अटके रहने के कारण दुविधा पैदा होती है। और दूसरी बात हम अत्यधिक आदर्शवाद से भरे हों तो जीवन में पाखंड को जन्म मिलता है।
हम वैसे दिखना और होना चाहते हैं, जैसे हम नहीं हैं। हम दूसरे लोगों का अनुसरण, दूसरे लोगों की अनुकृति बनना चाहते हैं और तब जीवन स्वयं की सृजनात्मकता, क्रिएटिविटी खो देता है। तब हम नकल होकर, कापियां होकर रह जाते हैं।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-08)

आठवां-प्रवचन-(खुद को खोने का साहस)

एक छोटी सी कहानी से मैं आज चर्चा शुरू करना चाहूंगा। अंतिम चर्चा है यह। पिछली तीन चर्चाओं में जो मैंने आपसे कहा है, जो भूमिका और जो पात्रता बनाने को कहा है, उस भूमिका के अंतिम तीन चरण आज मैं आपसे कहने को हूं, उसके पहले एक छोटी सी कहानी।
एक बहुत पुरानी कथा है। एक सम्राट का बड़ा वजीर मर गया था। उस राज्य का यह नियम था कि बड़े वजीर की खोज साधारण नहीं, बहुत कठिन थी। देश से सबसे बड़े बुद्धिमान आदमी को ही वजीर बनाया जाता था। ...... बुद्धिमान आदमी की खोज में बहुत सी परीक्षाएं हुईं, बहुत सी प्रतियोगिताएं हुईं, बहुत सी प्रतिस्पर्धाएं हुईं और फिर अंतिम रूप से तीन आदमी चुने गए, उन तीनों को राजधानी बुलाया गया। वे देश के सबसे बुद्धिमान लोग थे। फिर उनकी परीक्षा हुई और उसमें से एक व्यक्ति चुना गया। और वह देश का वजीर बना ।

उस अंतिम परीक्षा के संबंध में थोड़ी बातें मुझे कहनी हैं। उन तीनों ने भी नहीं सोचा होगा कि अंतिम परीक्षा बहुत कठिन होगी। वे तीनों ही डरे ह‏ुए काफी घबराए हुए थे। जबकि रात खत्म ह‏ुई तो उन्होंने कोशिश की कि अगर पता चल जाए कि परीक्षा क्या है, तो शायद हम तैयारी कर लें। जैसा सभी विद्यार्थी करते हैं, परीक्षा के पहले पता लगा लेना चाहते हैं कि तैयारी का कि परीक्षा क्या है? उन तीनों ने भी कोशिश की।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(समाज अनैतिक क्यों है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिनों की चर्चाओं के कारण बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। उनमें जो प्रश्न केंद्रीय हैं या जो प्रश्न बहुत-बह‏ुत लोगों ने पूछे हैं, उन पर आज अंतिम दिन मैं विचार कर सकूंगा। बहुत लोगों ने यह पूछा है कि देश में, समाज में समाज सुधारक हैं, साधु हैं, नेता हैं। वे सब तरह का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन समाज की नैतिकता सुधर नहीं रही; भ्रष्टाचार सुधर नहीं रहा, समाज का जीवन ऊपर नहीं उठ रहा। इसका क्या कारण है?
एक छोटी सी कहानी से मैं कारण समझाने की कोशिश करूं।
एक गांव में एक स्कूल में, सुबह ही सुबह स्कूल का निरीक्षण करने के लिए इंस्पेक्टर का आगमन हुआ। सुबह ही थी अभी। इंस्पेक्टर आया निरीक्षण को। स्कूल की जो सबसे बड़ी कक्षा थी उसमें वह गया। और उसने जाकर विद्यार्थियों से कहा कि मैं निरीक्षण करने आया हूं।
लेकिन समय मेरे पास ज्यादा नहीं। मैं ज्यादा लोगों से प्रश्न नहीं पूछ सकूंगा। तो कक्षा में जो तीन विद्यार्थी श्रेष्ठतम हों।।प्रथम, द्वितीय, तृतीय जो हों।।वे ही केवल तीन मेरे प्रश्न का उत्तर दे दें तो पर्याप्त होगा। उसने तख्ते पर प्रश्न लिखा और कहाः जो कक्षा में जो प्रथम विद्यार्थी हो, वह आगे आ जाए।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन के प्रेमी बनो, निंदक नहीं)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी बात की चर्चा आज मैं इस बात पर करना चाहता हूं। एक गांव था और उस गांव के द्वार पर ही अभी जब सुबह का सूरज निकलता है, एक बैलगाड़ी आकर रूकी। एक बूढ़ा उस गांव के बाहर बैठा हुआ है द्वार पर। उस बैलगाड़ी के मालिक ने गाड़ी रोक कर पूछा कि क्या इस गांव के संबंध में मुझे कुछ बता सकेंगे कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं उस गांव की तलाश में निकला हूं जहां के लोग अच्छे हों। क्योंकि मैं कोई नया गांव खोज रहा हूं।।बस जाने के लिए। इस गांव के लोग कैसे हैं क्या आप मुझे बता सकेंगे? मैं अच्छे लोगों की तलाश में निकला हूं, किसी अच्छे गांव की।

तो उस बूढ़े ने उस बैलगाड़ी के मालिक को नीचे से उपर तक देखा और कहा: इससे पहले कि मैं कुछ कहूं, एक प्रश्न का उत्तर चाहता हूं। मैं ये पूछना चाहता हूं कि उस गांव के लोग कैसे थे, जिसे तुम छोड़ कर आ गए हो?

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-05)

पांचवां-प्रवचन-(स्वयं को जानना कौन चाहता है?)

अब वह कर्म-योग को भी मानने वाले लोग ऐसा समझते हैं और इस मुल्क में ढेरों उनके व्याख्याकार हैं, वे करीब-करीब ऐसे व्याख्याकार हैं जिनका कहना यह है कि कर्म करते रहो, आसक्ति मत रखो तो कर्म-योग हो जाएगा। ये बिलकुल झूठी बात है। अब मेरा कहना ये है कि कर्म में आसक्ति रखना और अनासक्ति रखना आपके बस की बात नहीं है। अगर आपको आत्म-ज्ञान थोड़ा सा है तो कर्म में अनासक्ति होगी; अगर आत्म-अज्ञान है तो कर्म में आसक्ति होगी। यानी आसक्ति रखना और न रखना आपके हाथ में नहीं है। अगर आत्म-ज्ञान की स्थिति है तो कर्म में अनासक्ति होती है और अगर आत्म-अज्ञान की स्थिति है तो कर्म में आसक्ति होती है। आप आसक्ति को अनासक्ति में नहीं बदल सकते हैं, अज्ञान को ज्ञान में बदल सकते हैं। वह मेरा मामला तो वही का वह है, वह मैं कहीं से भी कोई बात हो। मामला मेरा वही का वह है। बात मैं वही, एक ही है।

सतपुरुषों ने कहा हैः अपने को जानो। नो दाई सेल्फ। लेकिन इतनी महत्वपूर्ण बात भी, इतनी जरूरी और तत्क्षण अनुभव में आए।।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(सुख की कामना दुख लाती है)

खोज, क्या जीवन में आप पाना चाहते हैं? खयाल आया उसी संबंध में थोड़ी आपसे बातें करूंगा तो उपयोगी होगा।
मेरे देखे, जो हम पाना चाहते हैं उसे छोड़ कर और हम सब पाने के उपाय करते हैं। इसलिए जीवन में दुख और पीड़ा फलित होते हैं। जो वस्तुतः हमारी आकांक्षा है, जो हमारे बहुत गहरे प्राणों की प्यास है, उसको ही भूल कर और हम सारी चीजें खोजते हैं। और इसलिए जीवन एक वंचना सिद्ध हो जाता है। श्रम तो बहुत करते हैं और परिणाम कुछ भी उपलब्ध नहीं होता; दौड़ते बहुत हैं लेकिन कहीं पहुंचते नहीं हैं। खोदते तो बहुत हैं; पहाड़ तोड़ डालते हैं, लेकिन पानी के कोई झरने उपलब्ध नहीं होते। जीवन का कोई स्रोत नहीं मिलता है। ऐसा निष्फल श्रम से भरा हुआ हमारा जीवन है। इस पर ही थोड़ा विचार करें। इस पर ही थोड़ा विचार आपसे मैं करना चाहता हूं।

क्या है हमारी खोज?

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(क्या आपका जीवन सफल है?)

यह प्रश्न उठता है कि आपसे पूछूं, आपको जीवन का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको जीवन में आनंद का अनुभव हुआ है? यह प्रश्न उठता है आपसे पूछूं, आपको अमृत का, आलोक का।।किसी प्रकार की दिव्य और अलौकिक शांति का कोई अनुभव हुआ है? ऐसे बहुत से प्रश्न उठते हैं। लेकिन मैं उनके पूछने की हिम्मत नहीं कर पाता, क्योंकि उनका उत्तर करीब-करीब मुझे ज्ञात है।
कोई आनंद मुझे नहीं दिखाई पड़ता, कोई आलोक, कोई शांति, कोई प्रकाश, कोई जीवन में दिव्यता का बोध, न ही कोई कृतज्ञता, कोई कृतार्थता, कोई सार्थकता।।नहीं मालूम होती। इसलिए डर लगता है किसी से पूछना अशोभन न हो जाए।
 लेकिन हर आदमी जो मुझे मिलता है उससे पहली बात यही पूछ लेने का मन होता है, उसे ये बातें मिली हैं या नहीं मिलीं? और अगर ये बातें नहीं मिली हैं, तो उसका जीवन करीब-करीब व्यर्थ चला गया है। अगर ये अनुभूतियां उसे नहीं हुई हैं तो वह स्मरण रखे, उसने जीवन के इस बहुमूल्य अवसर को अपने हाथों खो दिया है। जिस जीवन में प्रभु का परम साक्षात संभव हो सकता था, जिस जीवन में सौंदर्य की, सत्य की और सेवत्व की अनुभूति हो सकती थी, उस जीवन को उसने कौड़ियां, कंकड़-पत्थर इकट्ठा करने में व्यतीत कर दिया है।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(व्यक्ति की महिमा को लौटाना है)

मेरा सौभाग्य है कि थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। विचार जैसी कोई बात देने को मेरे पास नहीं है। और विचार का मैं कोई मूल्य भी नहीं मानता। वरन विचार के कारण ही मनुष्य पीड़ित है और दुखी। आपके मन पर इतने विचार इकट्ठे हैं, आपकी चेतना इतने विचारों से दबी है और पीड़ित है और परेशान है कि मैं भी उसमें थोड़े से विचार जोड़ दूं तो आपका भार और बढ़ जाएगा, उस भार से आपको मुक्ति नहीं होगी। इसलिए विचार कोई आपको देना नहीं चाहता हूं। वरन आकांक्षा तो यही है कि किसी भांति आपके सारे विचार छीन लूं।
अगर आपके सारे विचार छीने जा सकें तो आपमें ज्ञान का जन्म हो जाएगा। यह जान कर आपको आश्चर्य होगा कि विचार अज्ञान का लक्षण है, विचार ज्ञान का लक्षण नहीं है। एक अंधे आदमी को इस भवन के बाहर जाना हो तो वह विचार करेगा कि दरवाजा कहां है? और जिसके पास आंखें हैं वह विचार नहीं करता कि दरवाजा कहां है? दरवाजा उसे दिखाई पड़ता है।

धर्म की यात्रा-(प्रवचन-01)

धर्म की यात्रा-(विविध)-ओशो 

पहला-प्रवचन-(दूसरा कोई उत्तर नहीं दे सकता)

बहुत से प्रश्न आए हैं, बहुत से प्रश्न आए हैं। प्रश्नों का पैदा होना बड़ी अर्थपूर्ण बात है। प्रश्न पैदा होने लगें तो विचार और खोज का कारण हो जाते हैं। दुर्भाग्य तो उन्हीं लोगों का है जिनके भीतर प्रश्न पैदा ही नहीं होते, और उतना ही दुर्भाग्य नहीं है। कुछ लोग तो ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर इकट्ठे हो गए हैं, और प्रश्नों की अब कोई जरूरत नहीं रही। बहुत लोग ऐसे हैं जिनके भीतर उत्तर तो बहुत हैं, प्रश्न बिल्कुल नहीं हैं। और होना यह चाहिए कि उत्तर तो बिलकुल न हों, और प्रश्न रह जाएं।
लेकिन प्रश्नों का उत्तर दूं उसके पहले आपको यह कह दूं कि मेरा उत्तर, आपका उत्तर नहीं हो सकता है। इसलिए कोई इस आशा में न हो कि मैं जो उत्तर दूंगा, वह आपका उत्तर बन सकता है। प्रश्न आपका है तो उत्तर आपको खोजना होगा। प्रश्न आपका हो और उत्तर मेरा हो; तो आपके भीतर द्वंद्व, कांफ्लिक्ट पैदा होगी, आपके भीतर समाधान नहीं आएगा।

जीवन दर्शन-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(जीवन में प्रेम का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
एक राजमहल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। सुबह से भीड़ का इकट्ठा होना शुरू हुआ था, अब दोपहर आ गई थी। और लोग बढ़ते ही गए थे। जो भी आकर खड़ा हो गया था, वह वापस नहीं लौटा था। सारे नगर में उत्सुकता थी, कुतूहल था कि राजमहल के द्वार पर क्या हो रहा है? वहां एक बड़ी अघटनीय घटना घट गई थी। सुबह ही सुबह एक भिखारी ने अपना भिक्षा पात्र राजा के सामने फैलाया था। भिखारी तो बहुत होते हैं, लेकिन भिखारी का कोई चुनाव नहीं होता, कोई शर्त नहीं होती। उस भिखारी की शर्त भी थी।
उसने राजा से कहा थाः मैं भिक्षा एक ही शर्त पर लेना स्वीकार करता हूं, और वह शर्त यह है कि मेरा भिक्षापात्र यदि पूरा भर सको तो ठीक है, अन्यथा मैं दूसरे द्वार पर चला जाऊंगा। स्वभावतः राजा को यह बात सुन कर बहुत हंसी आ गई थी। राजा के पास क्या कमी थी जो एक भिखारी के पात्र को न भर सके। और उसने अत्यंत अभिमान से भर कर उस भिक्षु को कहा था--जब ऐसी ही शर्त है तो तेरे भिक्षापात्र को अन्न से न भरूंगा।

जीवन दर्शन-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(जीवन में स्वयं के प्रश्नों का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा हैः आपके कथनानुसार सब धर्मशास्त्र, धार्मिक पुस्तकें व्यर्थ हैं, जिनमें बुद्ध, महावीर वगैरह के विचार व्यक्त होते हैं। तो आपके विचारों की अभिव्यक्ति जिन पुस्तकों से है उन्हें भी व्यर्थ क्यों न माना जाए? मानव अपने अनुभवों से ही क्यों न आगे बढ़े, आपको सुनने की भी क्या आवश्यकता है?
बहुत ही ठीक प्रश्न है। जरूरी है उस संबंध में पूछना और जानना। लेकिन किसी गलतफहमी पर खड़ा हुआ है। मैंने कब कहा कि किताबें व्यर्थ हैं? मैंने कहाः शास्त्र व्यर्थ हैं। किताब और शास्त्र में फर्क है। शास्त्र हम उस किताब को कहते हैं जिस पर विचार नहीं करते और श्रद्धा करते हैं। श्रद्धा और विश्वास अंधे हैं। और विश्वास के अंधेपन के कारण किताबें शास्त्र बन जाती हैं, आप्तवचन बन जाती हैं, आॅथेरिटी बन जाती हैं। फिर उन पर चिंतन नहीं किया जाता, फिर उन्हें केवल स्वीकार किया जाता है। फिर उन पर विचार नहीं किया जाता, उन पर विवेक नहीं किया जाता, अंधानुकरण किया जाता है।

जीवन दर्शन-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-(जीवन में अहंकार का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।
एक वृद्ध लेकिन कुंआरी महिला ने अकेलेपन से घबड़ा कर, एकाकीपन से ऊब कर एक तोते को खरीद लिया था। तोता बहुत बातूनी था। बहुत चतुर और बुद्धिमान था। उसे शास्त्रों के संुदर-संुदर श्लोक याद थे, सुभाषित कंठस्थ थे। भजन वह तोता कह पाता था। वह वृद्धा उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उसके अकेलेपन में एक साथी मिल गया। लेकिन थोड़े दिनों ही बाद उस तोते में एक खराबी भी दिखाई पड़ी। जब घर में कोई भी न होता था और उसकी मालकिन अकेली होती, तब तो वह भजन और कीर्तन करता, सुभाषित बोलता, सुमधुर वाणी और शब्दों का प्रयोग करता। लेकिन जब घर में कोई मेहमान आ जाते, तो वह तोता एकदम बदल जाता था।
वह फिल्मी गाने गाने लगता और सीटियां बजाने लगता। और कभी-कभी अश्लील गालियां भी बकने लगता। वह महिला बहुत घबड़ाई। लेकिन उस तोते से उसे प्रेम भी हो गया था। और अकेले में वह उसका बड़ा साथी था। लेकिन जब भी घर में कोई आता तो वह कुछ ऐसी अभद्र बातें करता कि वह महिला बड़ी संकोच और परेशानी में पड़ जाती।

जीवन दर्शन-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा-(जीवन में शुभ का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं। सभी प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सभी के उत्तर तो आज संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ शेष रह जाएंगे, जिनकी कल सुबह मैं आपसे बात करूंगा।
सबसे पहले एक मित्र ने पूछा है कि परमात्मा की अनुभूति, उसका प्रसाद, उसका आनंद किन्हीं-किन्हीं क्षणों में अचानक मिल जाता है और फिर-फिर खो जाता है। फिर बहुत प्रयास करने पर भी वह झलक दिखाई नहीं पड़ती, तो हम क्या करें?
मनुष्य के जीवन में निश्चित ही कभी-कभी अनायास ही कोई आनंद का स्रोत खुल जाता है, कोई अंतर्नाद सुनाई पड़ने लगता है, कोई स्वर-संगीत प्राणों को घेर लेता है। सभी के जीवन में ऐसे कुछ क्षण स्मृति में होंगे। फिर हमारा मन करता है उस अनुभूति को और पाने के लिए और तब, तब जैसे उस अनुभूति के द्वार बंद हो जाते हैं। इसमें दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

जीवन दर्शन-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(जीवन में असुरक्षा का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
अभी सुबह ही थी और गांव के बच्चे स्कूल पहुंचे ही थे कि अनायास ही उस स्कूल के निरीक्षण को एक इंस्पेक्टर का आगमन हो गया। वह स्कूल की पहली कक्षा में गया और उसने जाकर कहाः इस कक्षा में जो तीन विद्यार्थी सर्वाधिक कुशल, बुद्धिमान हों उनमें से एक-एक क्रमशः मेरे पास आए और जो प्रश्न मैं दूं, बोर्ड पर उसे हल करे। एक विद्यार्थी चुपचाप उठ कर आगे आया, उसे जो प्रश्न दिया गया उसने बोर्ड पर हल किया और अपनी जगह जाकर वापस बैठ गया। फिर दूसरा विद्यार्थी उठ कर आया, उसे भी जो प्रश्न दिया गया उसने हल किया और चुपचाप अपनी जगह जाकर बैठ गया। लेकिन तीसरे विद्यार्थी के आने में थोड़ी देर लगी। और जब तीसरा विद्यार्थी आया भी तो वह बहुत झिझकते हुए आया, बोर्ड पर आकर खड़ा हो गया। उसे सवाल दिया गया, लेकिन तभी इंस्पेक्टर को खयाल आया कि यह तो पहला ही विद्यार्थी है जो फिर से आ गया है।
तो उसने उस विद्यार्थी को कहाः जहां तक मैं समझता हूं तुम पहले विद्यार्थी हो जो फिर से आ गए। उस विद्यार्थी ने कहाः माफ करिए, हमारी कक्षा में जो तीसरे नंबर का होशियार लड़का है वह आज क्रिकेट का खेल देखने चला गया है, मैं उसकी जगह हूं। वह मुझसे कह गया है, मेरा कोई काम हो तो तुम कर देना।

जीवन दर्शन-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(बीज में वृक्ष का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न कल की चर्चा के संबंध में इधर मेरे पास आए हैं। सबसे पहले एक मित्र ने पूछा हैः जीवन में सत्य को पाने की क्या जरूरत है? जीवन इतना छोटा है कि उसमें सत्य को पाने का श्रम क्यों उठाया जाए? बस पिक्चर देख कर और संगीत सुन कर जब बहुत ही आनंद उपलब्ध होता है, तो ऐसे ही जीवन को बिता देने में क्या भूल है?
महत्वपूर्ण प्रश्न है। अनेक लोगों के मन में यह विचार उठता है कि सत्य को पाने की जरूरत क्या है? और यह प्रश्न इसीलिए उठता है कि उन्हें इस बात का पता नहीं है कि सत्य और आनंद दो बातें नहीं हैं। सत्य उपलब्ध हो तो ही जीवन में आनंद उपलब्ध होता है। परमात्मा उपलब्ध हो तो ही जीवन में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद, परमात्मा या सत्य एक ही बात को कहने के अलग-अलग तरीके हैं। तो इसको इस भांति न सोचें कि सत्य की क्या जरूरत है? इस भांति सोचें कि आनंद की क्या जरूरत है?

जीवन दर्शन-(प्रवचन-01)

जीवन दर्शन-(विविध)

पहला-प्रवचन

जीवन में स्वयं के तथ्यों का साक्षात्कार

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।
जैसे आप आज यहां इकट्ठे हैं, ऐसे ही एक चर्च में एक रात बहुत से लोग इकट्ठे थे। एक साधु उस रात सत्य के ऊपर उन लोगों से बात करने को था। सत्य के संबंध में एक अजनबी साधु उस रात उन लोगों से बोलने को था। साधु आया, उसकी प्रतीक्षा में बहुत देर से लोग बैठे थे। लेकिन इसके पहले कि वह बोलना शुरू करता उसने एक प्रश्न, एक छोटा सा प्रश्न वहां बैठे हुए लोगों से पूछा।
उसने पूछा कि क्या आप लोगों में से किसी ने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा है वे हाथ ऊपर उठा दें। उस हाॅल में जितने लोग थे करीब-करीब सभी ने हाथ ऊपर उठा दिए, केवल एक बूढ़ा आदमी हाथ ऊपर नहीं उठाया। उन सभी लोगों ने स्वीकृति दी कि उन्होंने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है। वह साधु जोर से हंसने लगा और उसने कहाः मेरे मित्रो, तुम्हीं वे लोग हो जिनसे सत्य पर बोलना बहुत जरूरी है। क्योंकि ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं। वैसा कोई अध्याय ही नहीं है।

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर) प्रवचन-07

सातवां-प्रवचन-(जीवन ही है प्रभु)

मेरे प्रिय आत्मन्!
‘जीवन ही है प्रभु’ इस संबंध में और बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं।
एक मित्र ने पूछा है: बुराई को मिटाने के लिए, अशुभ को मिटाने के लिए, पाप को मिटाने के लिए विधायक मार्ग क्या है? पाजिटिव रास्ता क्या है? क्या ध्यान और आत्मलीनता में जाने से बुराई मिट सकेगी? ध्यान और आत्मलीनता तो एक तरह का पलायन, एस्केप है, जिंदगी से भागना है। ऐसा कोई मार्ग, विधायक, सृजनात्मक, जो भागना न सिखाता हो, जीना सिखाता हो, उस संबंध में कुछ कहें?
पहली तो बात यह है कि ध्यान पलायन नहीं है और आत्मलीनता पलायन नहीं है। बल्कि जो आत्मा से बच कर और सब तरफ भाग रहे हैं, वे पलायन में हैं। जो मेरे निकटतम है उसे जानने से बचने की कोशिश एस्केप है। हम अपने से ही बचने के लिए भाग रहे हैं।
और मजा यह है कि भागने वालों की यह भीड़, अगर कोई अपने को जानने जाता है तो उससे कहते हैं, तुम जिंदगी से भागते हो। जिंदगी अपने अतिरिक्त और कहां से प्रारंभ हो सकती है? जिंदगी का पहला कदम तो आत्मज्ञान ही होगा। मेरी जिंदगी दूसरे से शुरू नहीं हो सकती। मेरी जिंदगी मुझसे शुरू होगी। गंगा निकलेगी तो गंगोत्री से। वह किसी और नदी के उदगम से नहीं निकल सकती है। उसे गंगोत्री से ही निकलना होगा।

जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर) प्रवचन-06

छठवां-प्रवचन-(ध्यान अविरोध है)

मेरे प्रिय आत्मन्!
ध्यान की आधारशिला अक्रिया है, क्रिया नहीं है। लेकिन शब्द ‘ध्यान’ से लगता है कि कोई क्रिया करनी होगी। ध्यान से लगता है कुछ करना होगा। जब कि जब तक हम कुछ करते हैं, तब तक ध्यान में न हो सकेंगे। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं तब जो होता है, वही ध्यान है। ध्यान हमारा न करना है। लेकिन मनुष्य-जाति को एक बड़ा गहरा भ्रम है कि हम कुछ करेंगे तो ही होगा। हम कुछ न करेंगे तो कुछ न होगा।
बीज को कुछ करना नहीं पड़ता टूटने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता अंकुर बनने के लिए, और बीज को कुछ करना नहीं पड़ता फूल बन जाने के लिए; होता है। हम भी बच्चे से जवान हो जाते हैं, कुछ करना नहीं पड़ता है। जन्म होता है, जीवन होता है, मृत्यु होती है, हमारे करने से नहीं; होता है। जीवन में बहुत कुछ है जो हो रहा है अपने से। और अगर हम कुछ करेंगे तो बाधा पड़ेगी होने में..गति नहीं आएगी।

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-04)

चौथा-प्रवचन-(झूठी प्यासों से मुक्ति)

मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। उन सब प्रश्नों के जो सार प्रश्न हैं, उन पर मैं विचार करूंगा।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या तर्क के सहारे ही सत्य को नहीं पाया जा सकता है?
तर्क अपने आप में तो बिल्कुल व्यर्थ है, अपने आप में बिल्कुल ही व्यर्थ है। तर्क अपने आप में बूढ़े हो गए बच्चों का खेल है, उससे ज्यादा नहीं। हां, तर्क के साथ प्रयोग मिल जाए, तो विज्ञान का जन्म हो जाता है। और तर्क के साथ योग मिल जाए, तो धर्म का जन्म हो जाता है। तर्क अपने आप में शून्य की भांति है। शून्य का अपने में कोई मूल्य नहीं है। एक के ऊपर रख दें, तो दस बन जाता है, नौ के बराबर मूल्य हो जाता है। अपने में कोई भी मूल्य नहीं, अंक पर बैठ कर मूल्यवान हो जाता है। तर्क का अपने में कोई मूल्य नहीं। प्रयोग के ऊपर बैठ जाए तो विज्ञान बन जाता है, योग के ऊपर बैठ जाए, तो धर्म बन जाता है। अपने आप में कोरा खोल है, शब्दों का जाल है।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़े महानगर में एक आदमी ने गांव में आकर विज्ञापन करवाया। डूंडी पिटवाई। एक ऐसा घोड़ा प्रदर्शित किया जाएगा आज संध्या, जैसा घोड़ा न कभी हुआ और न कभी देखा गया है। उस घोड़े की खूबी यह है कि घोड़े का मुंह वहां है, जहां उसकी पूंछ होनी चाहिए पूंछ वहां है, जहां उसका मुंह होना चाहिए।

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-03)

तीसरा-प्रवचन-(जीवन ऊर्जा का रूपांतरण

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैंने सुना है, एक माली वृद्ध हो गया था। कितना वृद्ध हो गया था, यह उसे खुद भी पता नहीं था, क्योंकि जिंदगी भर जो बीजों को फूल बनाने में लगा रहा हो, उसे अपनी उम्र नापने का मौका नहीं मिलता है।
उम्र का पता सिर्फ उन्हें चलता है, जो सिर्फ उम्र गिनते हैं और कुछ भी नहीं करते हैं। और मैंने सुना है कि मौत कई बार उस माली के पास आकर वापस लौट गई थी, क्योंकि जब भी मौत आई थी, वह अपने काम में इतना लीन था कि उसके काम को तोड़ देने की हिम्मत मौत भी नहीं जुटा पाई।
जिंदगी को तोड़ देने की हिम्मत जुटाना तो बहुत आसान है। किसी सृजन हो रहे काम को बीच में तोड़ देने की हिम्मत जुटाना बहुत मुश्किल है।
वह बहुत बूढ़ा हो गया था। उसने पौधों की जिंदगी के संबंध में बहुत राज जान लिए थे। उसने नये फूल पैदा किए थे। उसने ऐसे फूल पैदा किए थे, जो वर्षों टिकते। उसने पौधों को सम्हालने, ताजा करने, जिंदा करने, लंबे वर्षों तक जीवित रखने की बहुत सी रासायनिक विद्याएं खोज ली थीं।

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-02)

दूसरा-प्रवचन-(जीवन ऊर्जा के प्रति सजगता)

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन क्रांति के सूत्रों के संबंध में पहले सूत्र पर कल हमने बात की। एक पूछती हुई चेतना, एक जिज्ञासा से भरा हुआ मन, एक ऐसा व्यक्तित्व जो जो है वहीं ठहर नहीं गया बल्कि वह होना चाहता है जो होने के लिए पैदा हुआ है। एक तो ऐसा बीज है जो बीज होकर ही नष्ट हो जाता है और एक ऐसा बीज है जो फूल के खिलने तक की यात्रा करता है, सूरज का साक्षात्कार करता है और अपनी सुगंध से दिग्दिगंत को भर जाता है।
मनुष्य भी दो प्रकार के हैं। एक वे जो जन्म के साथ ही समाप्त हो जाते हैं; जीते हैं, लेकिन वह जीना उनकी यात्रा नहीं है। वह जीना केवल श्वास लेना है। वह जीना केवल मरने की प्रतीक्षा करना है। उस जीवन का एक ही अर्थ हो सकता है, उम्र। उस जीवन का एक ही अर्थ है, समय को बिता देना।
जन्म और मृत्यु के बीच के काल को बिता देने को बहुत लोग जीवन समझ लेते हैं, एक तो ऐसे लोग हैं। एक वे लोग हैं, जो जन्म को एक बीज मानते हैं और उस बीज के साथ श्रम करते हैं कि जीवन का पौधा विकसित हो सके। जो जिज्ञासा करते हैं, वे दूसरे तरह के मनुष्य होने का पहला कदम उठाते हैं।

जीवन क्रांति के सूत्र-(प्रवचन-01)

जीवन क्रांति के सूत्र-(विविध)

पहला-प्रवचन-(जीवन क्या है?)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अंधेरी रात छोटा सा गांव और एक फकीर की झोपड़ी के द्वार पर कोई जोर से दस्तक दे रहा है। आमतौर से आपके घर पर कोई द्वार ठोके तो आप पूछेंगेः कौन है? बुलाने वाला कौन है? लेकिन उस फकीर ने उलटी बात पूछी। उस फकीर ने पूछाः किसको बुला रहे हैं? किसको बुलाया जा रहा है? वह फकीर अपनी झोपड़ी के भीतर है बाहर कोई द्वार ठोकता है। वह फकीर भीतर से पूछता हैः किसको बुला रहे हैं? आमतौर से ऐसा नहीं पूछा जाता, पूछा जाता हैः कौन बुला रहा हैै। उस बाहर से द्वार पीटने वाले आदमी ने कहाः मैं बायजीद को बुलाता हूं, बायजीद घर में है? और फिर भीतर से वह फकीर जोर से हंसने लगा, हंसता ही चला गया। वह बाहर का आदमी बेचैन हो गया। उसने कहाः हंसने से कुछ भी न होगा, मैं पूछता हूंः बायजीद भीतर है? उस फकीर ने कहाः बायजीद को खोजने निकले हो तो बहुत मुश्किल है, मैं खुद बायजीद को पचास साल से खोज रहा हूं, अभी तक खोज नहीं पाया। ऐसे लोग मुझको ही बायजीद समझते हैं, इसलिए मैं हंसता हूं कि तुम भी किस आदमी को खोजने निकल पड़े हो जो अपने को ही अभी नहीं खोज पाया है?