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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--34)

(अध्‍याय—चौतीसवां)

 शो पूना मे सोहन के घर पर ठहरे हुए हैं और रात के भोजन के बाद एक एयरकंडीशंड कमरे में आराम कर रहे हैं। मैं उनके चरणों के पास बैठी हुई हूं और अचानक उनके पांव दबाने की मेरी बडी प्रबल इच्‍छा जागती है। मैं उनसे पूछती हूं और वे हामी भर देते हैं। जैसे ही मैं उनके दाएं पांव के तलुए को दबाने लगती हूं? वे कहते हैं, हर शिष्य पैर से शुरु करता है

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--33)

(अध्‍याय—चौतीसवां)

मैं ओशो के साथ सोहन के घर ठहरी हुई हूं। ओशो हमारे साथ डाइनिंग टेबल पर बैठकर भोजन लेना पसंद करते हैं। सोहन सच ही बहुत बढ़िया खाना बनाती है। सुबह के प्रवचन के —बाद हम लोग 1015 बजे के करीब घर पहुंचते हैं। एक ही घंटे में सोहन बहुत सारे स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ भोजन तैयार कर लेती है। 11—30 बजे तक हम सभी लोग —बीच में फूलों से सजी बड़ी सी डाइनिंग टेबल के इर्द—गिर्द बैठ जाते हैं।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--32)

(अध्‍याय—बत्‍तीसवां)

 भारत—भर में भ्रमण करते हुए, ओशो जब भी पूना में होते हैं तो वे सोहन के घर रुकना पसंद करते हैं। मैं उनके साथ सोहन के घर पर रहने के सुअवसर को कभी खोना नहीं चाहती। सोहन, ओशो व उनके लोगों के प्रेम में दीवानी है। —जब ओशो. उसके घर में रुके होते हैं तो उसका घर तीर्थ बन जाता है। सैकड़ों लोग. रोज वहां आते हैं और वह सबका इतने प्रेम और स्नेह से स्वागत सत्कार करती है कि लोग अपने आनंद के आंसुओ को रोक नहीं पाते।

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

सुन भई साधो--(प्रवचन--14)

विराम है द्वार राम का—(प्रवचन—चौहदवां)

दिनांक: 14 मार्च1974श्री रजनीश आश्रमपूना

सूत्र:

घर घर दीपक बरै, लखै नहिं अंध है।
लखत लखत लखि परै, कटै जमफंद है।।
कहन सुनन कछु नाहिं, नहिं कछु करन है।
जीते—जी मरि रहै, बहुरि नहिं मरन है।।
जोगी पड़े वियोग, कहैं घर दूर है।
पासहि बसत हजूर, तू चढ़त खजूर है।।
बाह्मन दिच्छा देत सो, घर घर घालिहै
मूर सजीवन पास, तू पाहन पालिहै।।
ऐसन साहब कबीर, सलोना आप है।
नहीं जोग नहिं जाप, पुन्न नहिं पाप है।।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्याय--31)

(अध्‍याय—इक्‍कतीसवां)

माउंट आबू का ध्यान शिविर पूर्णिमा की रात को पूरा हुआ। दोपहर को मैं कुछ मित्रों से रात को नौका—विहार के लिए चलने की बात करती हूं। हम सब यह सुझाव लेकर ओशो के पास पहुंचते हैं। जब हम उनसे पूछते हैं, तो वे कहते हैं, हम सभी नावें रिजर्व कर लें और रात्रि ध्यान के बाद सभी लोग नौका—विहार के लिए चल सकते हैं।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्याय--30)

अध्‍याय—तीसवां

 माउंट आबू के एक शिविर के बाद, जहां ओशो ने पहली बार सक्रिय ध्‍यान विधि का प्रयोग करवाया, हम अहमदाबाद लौट आए हैं।
वे सक्रिय ध्यान के विषय में लोगों की राय जानने को उत्सुक हैं। मैं जब उन्हें यह बताती हूं कि कुछ मित्र कह रहे थे कि आप उनकें दिमाग के पेंच ढीले कर रहे हैं, तो वे हंसकर कहते हैं, 'नहीं, पेंच ढीले करने में मेरा कोई रस नहीं है, उन्हें तो वे लोग फिर कस लेंगे।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्याय--29)

(अध्‍याय—उन्‍नतीसवां)  

जिन मित्रों ने बड़ौदा में विभिन्न स्थानों पर उनकी मीटिंगों का आयोजन किया है, वे बड़े विचित्र लोग हैं। अन्न शाम ओशो कहीं बोलने वाले हैं लेकिन ये लोग हमें उस जगह का नाम बताने को तैयार नहीं हैं। वे लोग ओशो को अकेले ही एक कार में अपने साथ ले जाना चाहते हैं। मैं बहुत नाराज हूं। किसी भी कीमत पर मैं उनके प्रवचन से चूकना नहीं चाहती।

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--28)

(अध्‍याय—अट्ठाईसवां)

ज ओशो बड़ौदा यूनिवर्सिटी में कॉलेज के विद्यार्थियों को संबोधित कर रहे हैं। हजारों विद्यार्थी उनको सुनने के लिए इकट्ठे हुए तैं। हॉल खचाखच भरा हुआ है और उसके सब दरवाजे खुले हुए हैं।
मैं अपना छोटा सा कैसेट रिकार्डर लिए पोडियम पर उनके पीछे—पीछे जाती हूं। जैसे ही हम पोडियम पर. पहुंचते हैं हॉल तालियों की गड़गड़ाहट गज उठता है। वातावरण में बहुत उत्साह है। वे ''युवक और यौन’’ विषय पर बोलने वाले हैं। वे हाथ जोड़कर सबको नमस्कार करते हैं और पद्मासन में बैठकर अपनी आंखें बंद कर लेते हैं।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--27)

(अध्‍याय—सत्‍ताईस्‍वां)

 , भोजन के बाद, मैं उनसे कहती हूं कि मैं अपना कमरा भीतर से बंद कर ले—क्योंकि मैं भी आराम करना चाहती हूं। ते कहते हैं, लोग आकर दरवाजा खटखटाने लगेंगे।मैं उनसे कहती हूं कि मैं अपार्टमेंट का मुख्य द्वार ही बंद कर रही हूं और साथ ही कॉल बेल भी बंद कर दूंगी। मैं उन्हें आश्वासन देती हूं कि उन्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं होगी। मुझे अपने इरादे पर बिलकुल अड़ा हुआ देखकर वे कहते हैं, ठीक है, ठीक है, जो चाहे वह कर।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--26)

(अध्‍याय—छब्‍बीस) 

इस बार, मैं ओशो के साथ अहमदाबाद आई हूं जहां वे गीता पर प्रवचन दे रहे हैं।
सुबह प्रवचन के बाद वे 11 —3० बजे भोजन लेते हैं और फिर कुछ घंटे के लिए आराम करते हैं। मैं बाहर दरवाजे के पास स्टूल पर पहरेदारी करने के लिए बैठ जाती हूं। गर्मियों के दिन हैं और मुझे भी नींद आने लगती है। मैं वहीं स्टूल पर बैठे—बैठे ही ऊंघने लगती हूं। स्वयं को जगाए रखने के लिए मैं एक किताब पढ़ने लगती हूं। किसी तरह मैं वहां बैठी रहती हूं और इस बात का ख्याल रखती हूं कि कोई किसी भी तरह उनके आराम में बाधा न डाले।

सुन भई साधो--(प्रवचन--13)

मन के जाल हजार—(प्रवचन—तैरहवां)

दिनांक: 13 मार्च1974श्री रजनीश आश्रमपूना
सूत्र:
चलत कत टेढ़ौ रे।
नऊं दुवार नरक धरि मूंदै, तू दुरगंधि कौ बेढ़ौ रे।।
जे जारै तौ होइ भसम तन, रहित किरम उहिं खाई।
सूकर स्वान काग को भाखिन, तामै कहा भलाई।।
फूटै नैन हिरदै नाहिं सूझै, मति एकै नहिं जानी।
माया मोह ममता सूं बांध्यो, बूड़ि मुवौ बिन पानी।।
बारू के घरवा मैं बैठो, चेतत नहिं अयांना
कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयांना।।

न की चाल समझ लें, तो सब समझ लिया। मन को पहचान लिया, तो कुछ और पहचानने को बचता नहीं। मन की चाल समझते ही चेतना अपने में लीन हो जाती है। जब तक नहीं समझा है, तभी तक मन का अनुसरण चलता है। मन के पीछे चलता है आदमी यही मानकर कि मन गुरु है—जो कहता है, ठीक कहता है; जो बताता है, ठीक बताता है।

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--62)

अतित से भविष्‍य की और—(अध्‍याय—बाष्‍ठवां)

आज हम ठहर कर देख सकते हैं कि कुछ वर्ष पूर्व ओशो जैसे मनीषी ने अपने कार्य की शुरुआत की, भारत भर में घूम—घूम कर प्रवचन दिये, नव—संन्यास आदोंलन से दुनिया को परिचित करवाया, आज के मानव के लिए बेहद उपयुक्त ध्यान विधियों का निर्माण किया, पूरी दुनिया के प्रतिभावान लोगों को अपने आसपास इकट्ठा किया, दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शक्ति संपन्न देश अमरीका में जाकर सवा सौ एकड़ जमीन पर अपनी तरह के अनूठे शहर का निर्माण किया, विश्व यात्राएं की,
अपने क्रांतिकारी विचारों से पूरी दुनिया में एक महाक्रांति पैदा कर दी, आज के अति आधुनिक, तार्किक, संदेह से भरे मन को धर्म, ध्यान, श्रद्धा, भक्ति और मोक्ष के पथ पर अग्रसर किया। और लगभग इक्कीस साल हुए मात्र अट्ठावन वर्ष की उम्र में देह से विदा भी हो गए।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--61)

उसकी अनुकंपा अपार है......(अध्‍याय—इक्‍ष्‍ठवां)

मारे देश में गुटखा और तंबाखू का खूब चलन है। पान की लाली रचाकर, हर कहीं उस लाली के निशान छोडना आम बात है। जिन लोगों को यह लत नहीं होती शायद वे कभी भी नहीं समझ पाते हैं कि आखिर क्यों कोई इस गुटखे या तंबाखू का ऐसा आदी हो जाता है। लेकिन जिन लोगों को इसकी लत लग जाती है वे कितनी ही कोशिश कर ले यह लत या तो उन्हें मौत तक ले जाती है या मौत आने पर यह लत उन्हें छोड देती है।

गुटखे या तंबाखू से कैंसर हो सकता है, यह बात संभवतया सभी जानते हैं। जिनको इसकी लत होती है वे भी अच्छे से जानते हैं कि यह छोटी सी पुड़िया उन्हें कैंसर जैसे खतरनाक रोग तक ले जा रही है।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--25)

अध्‍याय—(पच्‍चीसवां)

आज रात मुझे छोड्कर बाकी सब लोग बाहर भोजन पर गए हैं। ओशो अपने कमरे में आराम कर रहे हैं और मैं बराबर के कमरे में ही अपने बिस्तर पर लेटी हुई हूं तथा कुछ अस्वस्थ हूं। मेरे बाएं स्तन में कोई गांठ सी बनने लगी है, और जब मैंने अपने डॉक्टर को दिखाया तो उसने सलाह दी कि टाटा हॉस्पिटल में चेक कराऊं। उसे शक है कि यह गांठ कैंसर ही न हो। मैं भयभीत हूं। कैंसर से पीड़ित होने के बजाय मैं मर जाना चाहूंगी। मेरे एक करीब के मित्र का भी एक स्तन कैंसर का
ओपरेशन हाल ही में हुआ है। मैं अभी तक मानसिक रूप से चेक—अप के लिए जाने को तैयार नहीं हो पाई हूं।

सुन भई साधो--(प्रवचन--12)

धर्म कला है—मृत्यु की, अमृत की—(प्रवचन—बारहवां)

दिनांक: 12 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
जग सूं प्रीत न कीजिए,समझि मन मेरा।
स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा।।
एक कनक अरु कामिनी, जग में दोइ फंदा।
इन पै जो न बंधावई, ताका मैं बंदा।।
देह धरै इन मांहि बास, कहु कैसे छूटै
सीव भए ते ऊबरे, जीवत ते लूटै।।
एक एक सूं मिलि रह्या, तिनही सचु पाया।

प्रेम मगन लौलीन मन, सो बहुरि न आया।।
कहै कबीर निहचल भया, निरभै पद पाया।
संसा ता दिन का गया, सतगुरु समझाया।।
बीर के वचनों के पूर्व कुछ बातें समझ लें।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--24)

(अध्‍याय—चौबीसवां)

ओशो बाथरूम में हैं। घर का रसोइया किसी हरे जूस से आधा भरा हुआ एक कप लेकर आता है। वह कहता है, यह नीम का जूस है और ओशो सुबह उठते ही यह पीते हैं।वह कप को मेज पर रखकर चला जाता है।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--60)

विरोधाभास का आभास क्‍यों?—(अध्‍याय—छाठवां)

शो के बारे में अक्सर यह भी कहा जाता है कि वे बहुत विरोधाभासी हैं। पहली तो बात यह समझने की है कि ओशो ने हर देश, हर जाति, हर विषय पर बोला है। शायद ही ऐसा कोई विषय होगा जिस पर ओशो नहीं बोले। धर्म, दर्शन, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, साहित्य, शिक्षा कुछ भी तो नहीं छोड़ा। एक ही व्यक्ति पूरब से लेकर पश्चिम तक, उत्तर से लेकर दक्षिण तक फैली सारी मानवता के हर आयाम पर लगातार बोलता है।
मनुष्य के शात इतिहास से लेकर अधुनातन विषयों पर वे सतत् बोले हैं। अब क्या विभिन्न विषय इतने विरोधाभासी स्वत: ही नहीं होते हैं? हर विषय पर अपने आप में एक अलग ही दुनिया है जब एक व्यक्ति उस पर बोलेगा तो उसके वचन एक—दूसरे के खिलाफ जाते तो दिखाई देंगे ही।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--59)

सेक्‍स पर ओशो का नजरिया—(अध्‍याय—उन्‍नष्‍ठवां)

सेक्स, सेक्स, सेक्स.. .इस शब्द में कैसा जादू है कि पढ़ते, सुनते कहीं न कहीं चोट जरूर पड़ती है। क्या कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो इस शब्द को सिर्फ शब्द की तरह सुन ले या पढ़ ले? पश्चिम ने इस विषय पर फ्रायड के बाद विचार शुरू किया। और पूरब में भारत ने चेतना की इतनी ऊंचाइयां छुई हैं कि जीवन के हर आयाम को पूर्ण स्वीकार किया है। यहां पर चार्वाक भी महर्षि कहलाए। वात्सायन और कोक भी ऋषि तुल्य माने गये। शायद इस पृथ्वी पर सेक्स के बारे में विस्तार से चर्चा सबसे पहले भारत में ही हुई है.. .हजारों वर्ष पूर्व।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

सुन भई साधो--(प्रवचन--11)

अंतयात्र्रा के मूल सूत्र—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

दिनांक: 11 मार्च, 1974;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
तेरा जन एकाध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ विवर्जित, हरिपद चीन्है सोई।।
राजस तामस सातिग तीन्यू, ये सब तेरी माया
चौथे पद को जे जन चीन्हैं, तिनहि परमपद पाया।।
अस्तुति निंदा आसा छाड़ै, तजै मान अभिमाना
लोहा कंचन सम करि देखै, ते मूरति भगवाना।।
च्यंतै तो माधो च्यंतामणि, हरिपद रमै उदासा
त्रिस्ना अरु अभिमान रहित हवै, कहै कबीर सो दासा।।
तिब्बत के एक आश्रम में कोई हजार साल पहले एक छोटी सी घटना घटी। उससे ही हम कबीर में प्रवेश शुरु करें। बड़ा आश्रम था यह, और इस आश्रम ने एक छोटा नया आश्रम भी दूर तिब्बत के सीमांत पर प्रारंभ किया था।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--58)

ओशो मेरी नजर में—(अध्‍याय—अठावनवां)

शो के साथ एक युग जीया है, लौटकर देखूं तो यूं लगता है कि पता नहीं कितने सालों से, सदियों से, युगों से ओशो के साथ हूं। जिस पल ओशो मिले वहां से लेकर इस पल तक सिवाय ओशो के कुछ भी तो जीवन में नहीं हुआ है। हर पल, हर समय ओशो हर श्वास में बने रहे हैं।

ओशो से संन्यास दीक्षित हुआ, ओशो के सान्निध्य में ध्यान किये, ओशो के अनगिनत प्रवचन सामने बैठ कर सुनें। सालों तक देश भर में घूमते हुए लाखों मित्रों के साथ ओशो संदेश का आनंद लिया, ध्यान का आनंद लिया। अनगिनत मित्रों को ओशो के संन्यास में, ध्यान की राह पर दीक्षित होते देखा, न जाने कितने रूपांतरण अपनी आंखों के सामने से गुजरे......मेरे व्यक्ति—गत जीवन से लेकर लाखों मित्रों के जीवन में होने वाले परिवर्तनों, रूपांतरण को देखते, महसूस करते स्वाभाविक ही ओशो के प्रति प्रेम, श्रद्धा और उनकी महानता अधिक से अधिक होती चली गई।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--57)

ध्‍यान के लिए स्‍थल, जगह, आश्रम, केंद्र......कम्‍यून—(अध्‍याय—सत्‍तावनवां)

पूरे देश में ध्यान शिविर लेते—लेते मुझे यह तो बहुत ही स्पष्ट हो गया कि शिविर के दौरान तीन दिन निश्चित ही मित्र पूरी त्वरा और लगन से ध्यान करते हैं लेकिन सभी मित्रों के लिए अपने—अपने घर पर नियमित ध्यान जारी रखना मुश्किल ही होता है। मैंने देखा कि अधिकांश मित्रों को कोई न कोई वजह से ध्यान ना चाहकर भी रोकना पड़ता है। मुझे लगा कि यदि देश की चारों दिशाओं में, हर तरफ ऐसी कोई जगह हो, जहां जाकर मित्र ध्यान कर सकें तो बहुत ही शुभ हो सकता है।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--56)

सौंदर्य की पारखी नजर—(अध्‍याय—छप्‍पनवां)

शो सौंदर्य के बड़े गहरे पारखी हैं। वे हर चीज को इतना सुंदर से सुंदर बना देते हैं कि कोई सोच भी नहीं सकता। वे जीवन में सत्यम, शिवम, सुंदरम के पक्षधर रहे हैं। हर चीज में सौंदर्य हो। किसी बहाने रेल्वे स्टेशन का जिक्र करते इशारा करते हैं कि रेल्वे स्टेशन भी कितने सुंदर बनाये जा सकते हैं।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

सुन भई साधो--(प्रवचन--10)

मन मस्त हुआ तब क्यों बोले—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक: 20 नवंबर, 1974;
श्री ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
मस्त हुआ तब क्यों बोले।
हीरा पायो गांठ गठियायो, बारबार बाको क्यों खोले।
हलकी थी तब चढ़ी तराजू, पूरी भई तब क्यों तोले।।
सुरत कलारी भई मतवारी, मदवा पी गई बिन तोले।
हंसा पाये मानसरोवर, तालत्तलैया क्यों डोले।।
तेरा साहब है घर मांही, बाहर नैना क्यों खोले।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहब मिल गए तिल ओले।।
बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसके बाद वे दो सप्ताह तक चुप रहे। कथाएं कहती हैं कि सारा अस्तित्व खिन्न हो गया, उदास हो गया। और देवताओं ने आकर उनके चरणों में प्रार्थना की कि आप बोलें, चुप न हो जाए; क्योंकि बहुत—बहुत समय में कभी मुश्किल से कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। और करोड़ों आत्माएं भटकती हैं प्रकाश के लिए।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--23)

(अध्‍याय—तैइसवां)

म अहमदाबाद में एक बड़े कट्टर जैन परिवार में ठहरे हुए हैं। ओशो प्रवचन में जाने के पहले शाम 6 बजे ही भोजन कर लेते हैं। आजकल वे देर रात गए तक पढ़ते रहते हैं, इसलिए मैं उनसे कहती हूं 'ओशो आप इतनी जल्दी भोजन ले रहे हैं, रात को आपको भूख लगेगी।वे बस मुस्कुरा भर देते हैं।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--22)

(अध्‍याय—बाईसवां)

 दोपहर का समय है। ओशो बालकनी में एक कुर्सी पर बठॅ हैं। वसंत का मौसम है। पास ही एक बड़ा सा आम का वृक्ष है, और एक कोयल लगातार अक रही है। उसका मधुर गान मौन को और भी गहरा रहा है।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--21)

(अध्‍याय—इक्‍कीसवां)

 सुबह नहाने के बाद, ओशो नाश्ते में चाय व टोस्ट लेना पसंद करते हैं। वे सोफे पर बैठे हुए हैं और एक छोटी सी मेज उनके सामने रखी है। उन्होंने सफेद लुंगी पहनी हुई है और शरीर के ऊपर के हिस्से पर कुछ नहीं पहना है। ऊपर वे शाल तभी लपेटते हैं, जब कहीं बाहर जाते हैं। इस क्षण वे इतने तरोताजा व सुंदर लग रहे हैं—जैसे कोई पूरा खिला हुआ खूबसूरत गुलाब का फूल हो।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--55)

सुपारी किलर—(अध्‍याय—पच्‍चपनवां)

शो की दुनिया अजीब दुनिया है। ओशो कहते भी हैं कि सभी तरह के मस्त—मौला लोग तुम मेरे पास पाओगे। ओशो के साथ आने वाले लोग एक तरह से सम में हट कर जीने वाले होते हैं। हिसाबी—किताबी, सफलता, महत्वाकांक्षी, अहंकार के पीछे दौड़ने वालों को ओशो की बातें कम ही समझ आती हैं। भूले— भटके इस तरह का कोई व्यक्ति ओशो के पास आ भी जाता है तो उसे वापस जाने में देर नहीं लगती।
ओशो के साथ तो सिर्फ जुआरियों की बात बनती है, पियक्कड़ों का मेल ओशो से खूब बैठता है। सारे संसार के सभी समाजों में जो मिस फिट होते हैं वे ओशो के साथ पूरी तरह से फिट बैठ जाते हैं। ओशो की दुनिया तो दीवानों की दुनिया है, परवानों का संसार है। अब सालों तक ऐसे दीवानों—परवानों के साथ रहना कोई आसान काम नहीं है।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--54)

आलू बैंगन, बैंगन आलू—(अध्‍याय—चौवनवां)

      भारत एक विशाल देश है। यहां बोली—चाली, रहन—सहन, खान—पान हर तरह की इतनी विविधता है कि जब आप इन सबका अनुभव करते हैं तो पता चलता है कि इस विविधता के अपने मजे हैं और अपनी चुनौतियां भी। हर तरह के मौसम और जलवायु का तो अपना अनुभव है ही लेकिन खान—पान पर एक अनूठा अनुभव यहां आपके लिए।

गुजरात के मित्रों ने जामनगर में शिविर किया। पहले दिन मैंने पूछा, 'दोपहर के भोजन में क्या बना है। तो बोले 'बैगन आलू की सब्जी।रात को बोले, 'आलू बैंगन की सब्जी।मेरे को यह समझ में ना आए कि इन दोनों सब्जियों में फर्क क्या है तो मैंने आयोजकों से पूछा, 'इसमें फर्क क्या होता है?' तो बोले, 'बैगन आलू में बैगन ज्यादा आलू कम, और आलू बैंगन में आलू ज्यादा बैगन कम।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--53)

पहलगांव में आफत—(अध्‍याय—त्ररेपनवां)

जाने कितनी बार मित्रों की लापरवाही और बेपरवाही के कड़वे अनुभव मुझे हुए हैं। मुझे यह देखकर आश्चर्य होता कि कैसे लोग छोटी—छोटी बातों को लेकर इतने लापरवाह हो सकते हैं और किसी दूसरे को बडी परेशानी में फंसा देते हैं। ऐसा ही एक बार का अनुभव सुनाता हूं।

श्रीनगर के एक मित्र ने ध्यान शिविर आयोजित किया। चंदनवाडी के पास ही पहलगांव में शिविर होना था। मैं गुजरात में राजकोट में शिविर ले रहा था, वहां शिविर समापन के बाद मुंबई से दिल्ली होते हुए श्रीनगर पहुंचा। वहां एयरपोर्ट पर कोई भी लेने नहीं आया। अब मुझे यह समझ नहीं आया कि मैं सीधे पहलगांव जाऊं या जहां स्वामी जी श्रीनगर में रहते हैं वहां जाऊं?

सोमवार, 21 दिसंबर 2015

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--20)

(अध्‍याय—बीसवां)

स अपार्टमेंट में एक ही साझा बाथरूम है, और उसमें भी गर्म पानी नहीं आता। मैं सुबह जल्दी उठकर पानी गर्म करती हूं और ओशो के लिए दो बाल्टियां भरकर बाथरूम में रख देती हूं।
वे अपने कमरे से बाहर आते हैं, अपना मुंह धोकर नेपकिन से सुखाने लगते हैं। मैं उनका दांतों का ब्रश निकालकर उस पर पेस्ट लगाती हूं और उन्हें दे देती हूं। वे मुस्कुराकर मेरी ओर देखते हैं व मेरे इस छोटे से काम के लिए मुझे धन्यवाद देते हैं। ब्रश को वे इतनी कोमलता और प्रेम से पकड़ते हैं, जैसे कि वह प्राणवान हो, और फिर धीरे—धीरे अपने दांतों पर ब्रश करने लगते हैं।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--19)

(अध्‍याय—उन्‍नीसवां)

 हमदाबाद में ओशो के ठहरने की व्यवस्था एक खाली अपार्टमेंट में की गयी है, जो अतिथियों के लिए ही है। यह पहली मंजिल पर चपकभाई के अपार्टमेंट के सामने ही है। इसमें दो बैडरूम हैं। जिनमें से एक एयरकंडीशंड है और उसमें बड़ा आरामदायक बिस्तर लगा है। दूसरे बैडरूम में फर्श पर गद्दे लगे हुए हैं। यह जगह मुझे पसन्द आती है। कमरों के साथ बड़ी खुली—खुली बालकनी भी हैं। ओशो को एयरकंडीशंड कमरा ज्यादा आरामदेह लगता है और वे जल्दी सो जाते हैं।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--18)

(अध्‍याय—अट्ठारहवां)

 इंडियन एयरलाइंस की हड़ताल समाप्त हो गई है और हम प्लेन द्वारा ही उदयपुर से अहमदाबाद जाते हैं। प्लेन में यात्रा करने का यह मेरा पहला अनुभव है। ओशो प्लेन में चढ़ जाते हैं और मैं भी उनके पीछे—पीछे चल देती हूं। जब वे खिड़की के पास की सीट पर बैठ जाते हैं तो मैं भी उनके साथ बैठ जाती हूं। मैं उनसे कहती हूं मैं पहली बार प्लेन से सफर कर रही हूं इसलिए मुझे डर लग रहा है।इसी बीच एक एयर होस्टेस एक ट्रे लेकर आती है।

रविवार, 20 दिसंबर 2015

सुन भई साधो--(प्रवचन--09)

रस गगन गुफा में गजर झरै—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक: 19 नवंबर 1974;
श्री ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
रस गगन गुफा में अगर झरै
बिन बाजा झनकार उठे जहां, समुझि परै जब ध्यान धरै।।
बिना ताल जहं कंवल फुलाने, तेहि चढ़ि हंसा केलि करै
बिन चंदा उजियारी दरसै, जहं तहं हंसा नजर परै।।
दसवें द्वार तारी लागी, अलख पुरुष जाको ध्यान धरै
काल कराल निकट नहिं आवै, काम—क्रोध—मद—लोभ जरै।।
जुगत—जुगत की तृषा बुझानी कर्म—कर्म अध—व्याधि टरै
कहै कबीर सुनो भाई साधो, अमर होय कबहूंमरै।।
धर्म है अमृत की खोज।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--52)

चंदनगढ़ में लोग मरते नहीं, मारे जाते है—(अध्‍याय—बावनवां)

राजस्थान में एक जगह है, चंदनगढ़। वहां के विद्यालय के एक मास्टर साहब ने पुणे आकर मेरे से ध्यान शिविर की तारीख ली, मैंने उन्हें तारीख दे दी। नियत दिन जब ध्यान साधना शिविर प्रारंभ होना था, मैं दोपहर एक बजे चंदनगढ़ रेल से पहुंच गया। वहां स्टेशन तो खाली पड़ा था, गाड़ी जा चुकी थी, बियाबान सन्नाटा। दूर—दूर तक कोई आदमजात तक नजर न आए, सुनसान जगह, स्टेशन पर कोई आदमी भी नहीं, कोई लेने भी नहीं आया। मैं स्टेशन मास्टर के कमरे में गया तो वहां भी कोई भी नहीं, खाली पड़े आफिस में पूरी गति से पंखा चल रहा था, और उसके नीचे पडे रजिस्टर के पन्ने खड़—खड़ करते आवाज कर रहे थे।
बाहर आकर देखा तो दूर तक सुनसान आदमी तो दूर कोई कुत्ता तक भी दिखाई नहीं दे रहा था।

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--51)

बस में सफर.......या अंतिम सफर—(अध्‍याय--इक्‍यावनवां)

क बार मैं हरियाणा में रोहतक में शिविर पूरा कर बस से पानीपत जा रहा था। दोपहर का समय रहा होगा। टूटी—फूटी सड़क पर हिचकोले खाती बस चली जा रही थी। कोई नींद निकाल रहा था, कोई उबासिया तान रहा था, कोई बस से बाहर देख रहा था.......कोई कुछ, कोई कुछ। मैं सब नजारा देखता यात्रा का आनंद ले रहा था। हमारे देश में बसों में यात्रा करना अपने आपमें एक अनूठा अनुभव होता है। सच कहूं कोई चाहे तो सिर्फ बस यात्राओं पर ऐसी रोचक किताब लिख सकता है कि पढ़ने वाले हंस—हंस कर लोटपोट हो जाएं।
क्या नहीं होता है चलती बस में......एक बार मुझे याद आता है, एक भीड़ भरी बस में राजस्थान की यह बात है......

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--50)

नहीं चमत्‍कार नहीं......पर है तो....(पचासवां)

ओशो का नजरिया इतना मौलिक और अनूठा होता है कि किसी भी विषय पर जब वे अपनी दृष्टि डालते हैं तो हम चकित रह जाते हैं कि अरे वाह, इस बात को इस तरह से भी देखा जा सकता है। प्रत्येक विषय की तह तक जाकर इतनी विपरीत दिशाओं से सत्य को समझाते कि उस विषय का कोई भी बिंदु अनदेखा नहीं रह जाता।

एक बार जब किसी ने पूछा कि कैसे ओशो एक कार एक्सीडेंट में बाल—बाल बच गए और ठीक प्रवचन देने आने के पूर्व लाओत्सु कक्ष की छत गिरने से भी वे बच गए। प्रश्नकर्ता ने कहा कि कैसे चमत्कार हुए।

शनिवार, 19 दिसंबर 2015

सुन भई साधो--(प्रवचन--08)

सुनो भाई साधो—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक: 18 नवंबर, 1974;
श्री ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
संतों जागत नींद न कीजै
काल न खाय कलप नहि व्यापै, देह जरा नहि छीजै।।
उलट गंग समुद्र ही सौखे, ससिंसूरहि ग्रासै
नवग्रह मारि रोगिया बैठे, जल, मंह बिंब प्रगासै।।
बिनु चरनन को दहं दिसि धावै, बिनु लोचन जग सूझै
ससै उलटि सिंह कंह ग्रासै, ई अचरज को बूझै।।
औंधे घड़ नहीं जल बूड़ै, सूधे सों जल भरिया।
जिहि कारन नल भींन भींन करु, परसादे तरिया।।
पैठि गुफा मंह सब जग देखै, बाहर किकुछसूझै
उलिटा बान पारिघिहि लागै, सुरा होय सो बुझै।।
गायन कहे कवहूं नहिं गावै, अनबोला नित गावै
नट वट बाजा पेखनि पेखै, अनहद होत बढ़ावै।।
कथनी बदलनी निजुके जोहै, सभ अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि बेधै, ई पुरखन की बानी।।
बिना पियावे अमृत अंचवै, नदिय नीर भरि राखै
कहहिं कबीर सो जुग—जुग जीवै, राम सुधारस चाखै।।
संतो जागत नींद न कीजै!