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सोमवार, 23 अगस्त 2010

पत्र-पाथेय-- ( 6 ) संन्‍यास नया जन्‍म है

प्रिय योग यशा,

प्रेम। नये जन्‍म पर मेरे शुभाशीष।
संन्‍यास नया जन्‍म है।
स्‍वंय में, स्‍वयं में स्‍वयं का।
वहीं मृत्‍यु भी है।
साधारण नहीं—महा मृत्यु।
उस सब की जो तू तक थी।
और जो तू अब है, वह भी प्रतिपल मरता रहेगा।
ताकि, नया जन्‍मे–-नया जन्‍मता ही रहे।
अब एक पल भी तू-तू नहीं रह सकेगी।
मिटना है प्रतिपल और होना है प्रतिपल।
यही है साधना।
नदी की भांति जीना है।
सरोवर की भांति नहीं।
सरोवर गृहस्‍थ है।
सरिता संन्‍यासी है।






रजनीश का प्रणाम
 (11-11-1970)
(प्रति : मा योग यशा, विश्रव्नीड़, आजोल, गुजरात)

पत्र-पाथेय--( 5 ) संन्‍यास जीवन का परम भोग है।

प्रिय योग प्रिया,

प्रेम, तेरे संन्‍यास से अत्‍यंत आनंदित हूं।
जिस जीवन (वृक्ष) में संन्‍यास के फूल न लगें, वह वृक्ष बांझ है।
क्‍योंकि, संन्‍यास ही परम जीवन-संगीत है।
संन्‍यास त्‍याग नहीं है।
वरन, वही जीवन का परम-भोग है।
निश्‍चय ही जो हीरे-मोती पा लेता है, उससे कंकड़-पत्‍थर छूट जाते है।
लेकिन, वह छोड़ना नहीं छूटना है।





रजनीश का प्रणाम
15-10-1970

(प्रति : मा योग प्रिया, विश्रव्नीड़, आजोल, गुजरात)

पत्र-पाथेय--( 4 ) संन्‍यास दायित्‍वों से भागने का नाम नहीं है।

प्रिय योग समाधि,

प्रेम। संन्‍यास गौरी-शंकर की यात्रा है।
चढ़ाई में कठिनाइयां तो है ही।
लेकिन दृढ़ संकल्‍प के मीठे फल भी है।
सब शांति और आनंद से झेलना।
लेकिन संकल्‍प नहीं छोड़ना।
मां की सेवा करना, पहले से भी ज्‍यादा।
संन्‍यास दायित्‍वों से भागने का नाम नहीं है।
परिवार नहीं छोड़ना है, वरन सारे संसार को ही परिवार बनाना है।
मां को भी संन्‍यास की दिशा में उन्‍मुख करना।
कहना उनसे : संसार की और बहुत देखा, अब प्रभु की और आंखे उठाओ।
और तेरी और से उन्‍हें कोई कष्‍ट न हो। इसका ध्‍यान रखना।
लेकिन इसका अर्थ झुकना या समझौता करना नहीं है।
संन्‍यास समझौता जानता ही नहीं है।
अडिग और अचल और अभय—यही संन्‍यास की आत्‍मा है।

                            रजनीश का प्रणाम
                             15-10-1970
(प्रति : मां योग समाधि, राजकोट, गुजरात)


पत्र-पाथेय--(3)सन्‍यासी बेटे का गौरव

प्रिय आनंद मूर्ति,

प्रेम, फौलाद के बनों—मिट्टी के होने से अब काम नहीं चलेगा।
संन्‍यासी होना प्रभु के सैनिक होना है।
माता-पिता की सेवा करो।
पहले से भी ज्‍यादा।
संन्‍यासी बेटे का आनंद उन्‍हें दो।
लेकिन, झुकना नहीं।
अपने संकल्‍प पर दृढ़ रहना।
इसी में परिवार को गौरव है।
जो बेटा संन्‍यास जैसे संकल्‍प में समझौता कर ले वह कुल के लिए कलंक है।
मैं आश्‍वस्‍त हूं तुम्‍हारे लिए।
इसी लिए तो तुम्‍हारे संन्‍यास का साक्षी बना हूं।
हंसों और सब झेलो।
हंसों और सब सुनो।
यही साधना है।
अंघिया  आएँगी और चली जाएंगी।

                        




रजनीश का प्रणाम
 (15-10-1970)

(प्रति : स्‍वामी आनंद मूर्ति, अहमदाबाद)

पत्र-पाथेय--(2)संघर्ष-संकल्‍प ओर संन्‍यास

प्रिय मधु,
      प्रेम। संघर्ष का शुभारंभ है।
      ओर, उसमें तुझे धक्‍का देकर मैं अत्‍यंत आनंदित हूं।
      सन्‍यास संसार को चुनौती है।
      वह स्‍वतंत्रता में जीना ही संन्‍यास है।
      असुरक्षा अब सदा तेरे साथ होगी, लेकिन वही जीवन का सत्‍य है।
      सुरक्षा कहीं है नहीं—सिवाय मृत्‍यु के।
      जीवन असुरक्षा है।
      और यही उसकी पुलक है—यही उसकी सौंदर्य है।
      सुरक्षा की खोज ही आत्‍मा घात है।
      वह अपने ही हाथों, जीते-जी मरना है।
      ऐसे मुर्दे चारों और है।
      उन्‍होंने ही संसार को मरघट बना दिया है।
      उनमें प्रतिष्‍ठित मुर्दे भी है।
      इस सबको जगाना है, हालांकि वे सब जागे हुओं को भी सुलाने की चेष्‍टा करते है।
      अब तो यह संघर्ष चलता ही  रहेगा।
      इसमें ही तेरे संपूर्ण संकल्‍प का जन्‍म होगा।      
      और मैं देख रहा हूं दूर—उस किनारे को जो कि तेरे संघर्ष की मंजिल है।

                              रजनीश के प्रणाम,
                               (25-10-1970)

पत्र-पाथेय-- (1)वे इक्‍कठे होंगे-जिनके लिए मैं आया हूं

 प्रिय मधु,
प्रेम । कम्यून की खबर ह्रदय को पुलकित करती है।
बीज अंकुरित हो रहा है।
शीघ्र ही असंख्‍य आत्‍माएं उसके वृक्ष तले विश्राम पाएंगी।
वे लोग जल्‍दी ही इकट्ठे होंगे—जिनके लिए कि मैं आया हूं।
और तू उन सब की आतिथेय होने वाली है।
इसलिए, तैयार हो—अर्थात स्‍वयं को पूर्णतया शून्‍य कर ले।
क्‍योंकि, यह शून्‍यता ही आतिथेय, होस्‍ट बन सकती हे।
और तू उस और चल पड़ी है—नाचती, गाती, आनंदमग्न।
जैसे सरिता सागर की और जाती है।
और मैं खुश हूं।
सागर निकट है—बस दौड़....ओर दौड़।
           

  


रजनीश का प्रणाम
(15-10-1970)

(प्रति: मां आनंद मधु, विश्रव्‍नीड़, आजोल, गुजरात)
(मां आनंद मधु ओशो की पहली संन्‍यासी थी, उनके पति इस कारण ओशो को छोड़ कर चले गये कि उनकी पत्‍नी को सन्‍यास पहले क्‍यों दिया। ओशो ने कहां में पहली सन्‍यासी औरत को ही बनाना चाहूँगा। ये श्री मोरारजी देसाई  की भानजी है, जो बुद्धत्‍व को प्राप्‍त कर अभी भी ऋषि केश में रहती है।)


सात शरीर और सात चक्र—(2)

दूसरा शरीर—स्‍वाधिष्‍ठान चक्र
      दूसरा शरीर हमारे दूसरे चक्र से संबंधित है, स्‍वाधिष्‍ठान चक्र से। स्‍वाधिष्‍ठान चक्र की भी दो संभावनाएँ है। मूलत: प्रकृति से जो संभावना मिलती है। वह है, भय, घृणा, क्रोध, हिंसा। ये सब स्‍वाधिष्‍ठान चक्र की प्रकृति से मिली हुई स्‍थिति है। अगर इन पर ही कोई अटक जाता है। तो इसकी जो दूसरी, इसके बिलकुल प्रतिकूल ट्रांसफॉर्मेशन की स्‍थिति है—प्रेम, करूणा, अभय, मैत्री, यह संभव नहीं हो पाती।

सात शरीर और सात चक्र—(1)

पहला शरीर—मूलाधार चक्र

     जैसे सात शरीर है, ऐसे ही सात चक्र भी है। और प्रत्‍येक एक चक्र मनुष्‍य के एक शरीर से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। भौतिक शरीर, फिजिकल बॉडी, इस शरीर का जो चक्र है वह मूलाधार है; वह पहला चक्र है। इस मूलाधार का भौतिक शरीर से केंद्रीय संबंध है; यह भौतिक शरीर का केंद्र हे। इस मूलाधार चक्र की दो संभावनाएं है। एक इसकी प्रकृतिक संभावना है, जो हमें जन्‍म से मिलती है। और एक साधना की संभावना है, जो साधना से उपलब्‍ध होती है।

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

जाति-स्‍मरण: गुप्त सूत्रों का रहस्‍य (3 )

 
एक स्‍त्री ने एक छोटी सी किताब लिखी है—एक छोटे बच्‍चे के साथ बच्‍चा होकर रहने की। उस स्‍त्री को उम्र तो सत्‍तर साल है। सत्‍तर सालक की स्‍त्री ने एक छोटे सा प्रयोग किया। एक पाच साल के बच्‍चे के साथ दोस्‍ती करने का। मुश्‍किल है बहुत, आसान मामला नहीं है। पाँच साल के बच्‍चे का बाप होना आसान है, मां होना आसान है, भाई होना आसान है, गुरु होना आसान है, दोस्‍त होना इतना आसान नहीं है। कोई मां-बाप दोस्‍त नहीं हो पाता। जिस दिन दुनिया में मां-बाप बच्‍चों के दोस्‍त हो सकेंगे उस दिन हम दुनिया को आमूल बदल देंगे। यह दुनियां बिलकुल दूसरी हो जायेगी। यह दुनिया इतनी कुरूप,इतनी बदशक्‍ल नहीं रह जायेगी। लेकिन दोस्‍ती का हाथ ही नहीं बढ़ पाता।

जाति-स्‍मरण: गुप्त सूत्रों का रहस्‍य (2 )

 
तो पहले तो स्‍मरण करना पड़ेगा जन्‍म तक, जन्‍म के दिन तक। लेकिन वह असली जन्‍म-दिन नहीं है। असली जन्‍म दिन तो उस दिन है। जिस दिन गर्भाधान शुरू हुआ था। जिस को हम जन्‍म दिन कहते है। वह जन्‍म के नौ महीने के बाद का दिन है। जिस दिन गर्भ में आत्‍मा प्रवेश करती है। उस दिन तक स्‍मृति को गर्भ तक ले जाना कठिन नही है। और न ही इसमें बहुत ही खतरा है। क्‍योंकि वह इसी जीवन की स्‍मृति है। और उसे ले जाने के लिए जैसा मैंने कहा, भविष्‍य से मन को मोड़ ले। और थोड़ा सा ध्‍यान कर पात है, उन्‍हें कोई कठिनाई नहीं है भविष्‍य को भूलने में। भविष्‍य में याद करने को है भी क्‍या। भविष्‍य है ही नहीं। उन्मुखता बदलनी है। भविष्‍य की तरफ न देखें। पीछे की तरफ देखें। और अपने मन में धीरे-धीरे क्रमश: संकल्‍प करते जाये। एक साल लोटे, दो साल लोटे, दस साल लोटे, बीस साल लोटे, पीछे लोटते ही जाएं। और वह बड़ा अजीब अनुभव होगा।

जाति-स्‍मरण: गुप्त सूत्रों का रहस्‍य (1 )


जाति-स्‍मरण अर्थात पिछले जन्‍मों की स्‍मृतियों में प्रवेश की विधि पर आपके द्वारा शिविर में चर्चा की है। आपने कहा है कि चित को भविष्‍य की दिशा से पूर्णत: तोड़ कर ध्‍यान की शक्‍ति को अतीत की और फोकस करके बहाना चाहिए। प्रक्रिया का क्रम आपने बताया। पहले पाँच वर्ष की स्‍मृति में, फिर तीन वर्ष की स्‍मृति में, फिर जन्‍म की स्‍मृति में, फिर गर्भाधान की स्‍मृति में लौटना, फिर पिछले जन्‍म की स्‍थिति में प्रवेश होता है। पूरे सूत्र क्‍या है? आगे के सुत्र का कुछ स्‍पष्‍टीकरण करने की कृपा कीजिएगा?
          पिछले जन्‍म की स्मृतियाँ प्रकृति की और से रोकी गई है। प्रयोजन है उनके रोकने का जीवन की व्‍यवस्‍था में जिसे हम रोज-रोज जानते है, जीते है, उसका भी अधिकतम हिस्‍सा भूल जाए, यह जरूरी है। इसलिए आप इस जीवन की भी जितनी स्मृतियाँ बनाते है। उतनी स्मृतियाँ याद नहीं रखते। जो आपको याद नहीं है, वह भी आपकी स्‍मृति से मिट नहीं  जाती। सिर्फ आपकी चेतना और उस स्‍मृति का संबंध छूट जाता है।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

बैताल पचीसी—अद्भुत अध्‍यात्‍म रहस्‍य कथाएं (2)

  
 किसी तरह नाक को अवरूद्ध कर के वृक्ष पर चढ़ा। हाथ-पैर कंप रहे थे । वृक्ष पर चढ़ना भी बहुत मुश्‍किल था। किसी तरह उस लाश की डोरी काटी। वह लाश जमीन पर धम्‍म से नीचे गिरी, न केवल गिरी , बल्‍कि खिलखिला कर हंसी। विक्रमादित्‍य के प्राण निकल गये होगें। सोचा था मुर्दा है, वह जिंदा मालूम होता है। और जिंदा भी अजीब हालत में। घबड़ाया हुआ नीचे आया। और उससे पूछा क्‍यों हंसे? क्‍या मामला है।
         बस, इतना कहना था कि लाश उड़ी वापस जाकर वृक्ष पर लटक गई थी। और लाश ने कहा कि शांत होना, तो ही तुम मुझे उस फकीर तक ले जा सकते हो। तुम बोले और चुक गये।

बैताल पचीसी—अद्भुत अध्‍यात्‍म रहस्‍य कथाएं( 1 )

 
तुमने बैताल पच्चीसी का नाम सुना होगा। तुम कभी सोच भी नहीं सकते कि वह भी कोई ज्ञानियों की बात हो सकती है। बैताल पच्चीसी। पर इस देश ने बड़े अनूठे प्रयोग किए है। इस देश ने ऐसी किताबें लिखी है, जिनको बहुत तलों पर पढ़ा जा सकता है। जिनमें पर्त दर पर्त अलग-अलग रहस्‍य और अर्थ है। जिनमें एक साथ दो, तीन, चार या पाँच अर्थ एक साथ दौड़ते रहते है। जैसे एक साथ पाँच रास्‍ते चल रहे हो। पैरेलल, समानांतर।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

उद्दालक और श्‍वेतकेतु—(कथा यात्रा-007)

उद्दालक और श्‍वेतकेतु

उपनिषद में कथा है:- उद्दालक का बेटा श्‍वेतकेतु ज्ञान लेकर घर लौटा; विश्‍वविद्यालय से घर आया। बाप ने देखा, दूर गांव की पगडंडी से आते हुए। उसकी चाल में मस्‍ती कम और अकड़ ज्‍यादा थी। सुर्य पीछे से उग रहा था। अंबर में लाली फेल रही थी। पक्षी सुबह के गीत गा रहे थे। पर उद्दालक सालों बाद अपने बेटे को घर लोटते देख कर भी उदास हो गया। क्‍योंकि बाप ने सोचा था विनम्र होकर लौटेगा। वह बड़ा अकड़ा हुआ आ रहा था। अकड़ तो हजारों कोस दूर से ही खबर दे देती है अपनी। अकड़ तो अपनी तरंगें चारों तरफ फैला देती है। वह ऐसा नहीं आ रहा था की कुछ जान का आ रहा है। वह ऐसे आ रहा था जैसे मूढ़ता से भरा हुआ। ऊपर-ऊपर ज्ञान तो संग्रहीत कर लिया है। पंडित होकर आ रहा है। ज्ञानी होकर आ रहा है। विद्वान होकर आ रहा है। प्रज्ञावान होकर नहीं आ रहा। ज्ञानी हो कर नहीं आ रहा। कोई अपनी समझ की ज्‍योति नहीं जली है। अंधेरे शास्‍त्रों का बोझ लेकर आ रहा है। बाप दुःखी और उदास हो गया!

   बेटा आया, उद्दालक ने पूछा कि क्‍या–क्‍या तू सीख कर आया?

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

सोमरस

जो श्रेष्‍ठतम हे, उसे वेदों ने सोमरस कहा है। सदिया हो गई, न मालूम कितने लोग सोमरस की तलाश में रहे है। वैज्ञानिक हिमालय की खाइयों में,  पहाड़ियों में, सोमरस किस पौधे से पैदा होता था, उसकी अनथक अन्वेषण करते रहे है। अब तक कोई जान नहीं पाय कि सोमरस कैसे पैदा होता था? सोमरस क्‍या था?

सोमवार, 9 अगस्त 2010

मूर्तिपूजा-व्‍यक्‍तिपूजा:-- (कमजोरी व कायरता)

बुद्ध ने कहां था, अपने शिष्‍यों से कि मेरी मूर्ति मत बनाना। आज जमीन पर बुद्ध की जितनी मूर्तियां है। उतनी किसी दूसरे आदमी की नहीं। अकेले बुद्ध की इतनी मूर्तियां है, जितने किसी दूसरे आदमी की नहीं। उर्दू में तो बुत शब्‍द बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। एक-एक मंदिर में दस-दस हजार बुद्ध की मूर्तियां है।
      चीन में एक मंदिर है, दस हजार मूर्तियों वाला मंदिर। उसमें बुद्ध की दस हजार मूर्तियां हैं। और बुद्ध ने कहां की मेरी पूजा मत करना।

सत्यह शब्दों में नहीं—गुरु के चरणों में नहीं—



धर्म का सबसे बुनियादी प्रश्‍न ईश्‍वर नहीं है। धर्म का सबसे ज्‍यादा प्रश्‍न स्‍वयं का होना है।
      सत्‍य की यात्रा बाहर की तरफ नहीं है। सत्‍य की यात्रा भीतर की तरफ है। बाहर जो यात्रा चल रही है, खोज चल रही है, उससे सत्‍य कभी भी उपलब्‍ध नहीं होता। ज्‍यादा से ज्‍यादा काम-चलाऊ बातें ज्ञात हो सकती है।

रविवार, 8 अगस्त 2010

ओशो की विश्‍व यात्रा—2

बुद्ध की जन्‍म स्‍थली नेपाल में—

     3 जनवरी, 1986 को काठमांडू एयरपोर्ट पर नई दिल्‍ली से आने वाली पहली उड़ान का इंतजार बड़े जोश-खरोश से चल रहा था। विशिष्‍ट व्‍यक्‍तियों के स्‍वागत की नेपाली परंपरा के अनुसार पानी से भरे 108 कलश एयरपोर्ट के आगमन द्वार से पार्किग एरिया तक दो क़तारों में लगे हुए थे—और उनके पीछे सैकड़ों पूरबी पश्‍चिमी संन्यासियों का समूह नाच गा रहा था। रंग बिरंगी तख्‍तियां गर्व से घोषणा कर रही थी—‘’बुद्ध की धरती नए बुद्ध का स्‍वागत करती है।‘’

ओशो की विश्‍व यात्रा—1

29 अक्‍तूबर 1985 को जब अमरीका की सरकार ने बिना किसी अपराध और बिना किसी वारंट के ओशो को गिरफ्तार कर लिया-–तो प्रताड़ना से भरे उन बाहर दिनों में—एक बात स्‍पष्‍ट हो गई कि रोनाल्ड रीगन और उसकी सरकार ओशो की क्रांतिकारी आवाज को बंद करने के लिए किसी भी हद को पार कर सकती है। ऐसी स्‍थिति में ओशो के मित्रों ने उनसे प्रार्थना की अमरीका में रहकर पाखंडों के खिलाफ अपनी लड़ाई जानी रखने की बजाएं भारत लौट चलें। जहां वे शारीरिक रूप से अधिक सुरक्षित रह सकेंगे।
     14 नवंबर, अमरीका की धरती ने ओशो को अंतिम प्रणाम किया। जैट स्‍टार 731 पर सवार होकर ओशो नई दिल्‍ली की और रवाना हो गए।
     लेकिन ओशो के लिए यह यात्रा अपनी जन्‍मभूमि पर वापस लौटने की यात्रा नहीं थी। वरन, यह शुरूआत थी उस ऐतिहासिक विश्‍व यात्रा की, जिसमें 46,000 मील का आकाश नाप कर उन्‍होंने विश्‍व के उन सब बड़े-बड़े देशों का पर्दाफाश किया जो लोकतांत्रिक होने का दावा करते है। एक निहत्‍था,कोमल-सा-व्‍यक्‍ति सिर्फ अपने हवाई जहाज पर बैठा-बैठा ही बड़े से बड़े बम बनाने वाली सरकारों को कंप कँपाता रहा—और हंसता रहा। चलो चल हम भी उस यात्रा पर.......

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

संत भर्तृहरि—

   
 भर्तृहरि ने घर छोड़ा। देखा लिया सब। पत्‍नी का प्रेम, उसका छलावा, अपने ही हाथों आपने छोटे भाई विक्रमादित्‍य की हत्‍या का आदेश। मन उस राज पाठ से वैभव से थक गया। उस भोग में केवल पीड़ा और छलावा ही मिला। सब कुछ को खूब देख परख कर छोड़ा। बहुत कम लोग इतने पककर छोड़ते है इस संसार को जितना भर्तृहरि ने छोड़ा है। अनूठा आदमी रहा होगा भर्तृहरि। खूब भोगा। ठीक-ठीक उपनिषद के सूत्र को पूरा किया: ‘’तेन त्‍यक्‍तेन भुंजीथा:।‘’ खूब भोगा। एक-एक बूंद निचोड़ ली संसार की। लेकिन तब पाया कि कुछ भी नहीं है। अपने ही सपने है, शून्‍य में भटकना है।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

संत झुन्‍नून—

मिश्र में एक अद्भुत फकीर हुआ है झुन्‍नून। एक युवक ने आकर उससे पूछा, मैं भी सत्‍संग का आकांक्षी हूं। मुझे भी चरणों में जगह दो। झुन्‍नून ने उसकी तरफ देखा—दिखाई पड़ी होगी बही बुद्ध की कलछी वाली बात जो दाल में रहकर भी उसका स्‍वाद नहीं ले पाती। उसने कहा, तू एक काम कर। खीसे में से एक पत्‍थर निकाला और कहा, जा बाजार में, सब्‍जी मंडी में चला जा, और दुकानदारों से पूछना कि इसके कितने दाम मिल सकते है।