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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—100 (ओशो)

पहली विधि:
     वस्‍तुओं और विषयों का गुणधर्म ज्ञानी वे अज्ञानी के लिए समान ही होता है। ज्ञानी की महानता यह है कि वह आत्‍मगत भाव में बना रहता है। वस्‍तुओं में नहीं खोता।
     यह बड़ी प्‍यारी विधि है। तुम इसे वैसे ही शुरू कर सकते हो जैसे तुम हो; पहले कोई शर्त पूरी नहीं करनी है। बहुत सरल विधि है: तुम व्‍यक्‍तियों से, वस्‍तुओं से, घटनाओं से घिरे हो—हर क्षण तुम्‍हारे चारों और कुछ न कुछ है। वस्‍तुएं है, घटनाएं है, व्‍यक्‍ति है—लेकिन क्‍योंकि तुम सचेत नही हो, इसलिए तुम भर नहीं हो। सब कुछ मौजूद है लेकिन तुम गहरी नींद में सोए हो। वस्‍तुएं तुम्‍हारे चारों तरफ मौजूद है, लोग तुम्‍हारे चारों तरफ घूम रहे है। घटनाएं तुम्‍हारे चारों तरफ घट रही है। लेकिन तुम वहां नहीं हो। या, तुम सोए हुए हो।

रविवार, 30 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—99 (ओशो)

दूसरी विधि—
स्‍वयं को सभी दिशाओं में परिव्‍याप्‍त होता हुआ महसूस करो—सुदूर, समीप।
     तंत्र और योग दोनों मानते है कि संकीर्णता ही समस्‍या है। क्‍योंकि तुमने स्‍वयं को इतना संकीर्ण कर लिया है इसीलिए तुम सदा ही बंधन अनुभव करते हो। बंधन कही और से नहीं आ रहा है। बंधन तुम्‍हारे संकीर्ण मन से आ रहा है। और वह संकीर्ण से संकीर्णतर होता चला जाता है। और तुम सीमित होते चले जाते हो।
      वह सीमित होना तुम्‍हें बंधन की अनुभूति देता है। तुम्‍हारे पास अनंत आत्‍मा है। और अंनत अस्‍तित्‍व है, पर वह अनंत आत्‍मा बंदी अनुभव करती है। तो तुम कुछ भी करो, तुम्‍हें सब और सीमाएं नजर आती है। तुम कहीं भी जाओ एक बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां से आगे नहीं जाया जा सकता। सब आरे एक सीमा-रेखा है। उड़ने के लिए कोई खुला आकाश नहीं है।

गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—98 (ओशो)

       किसी सरल मुद्रा में दोनों कांखों के मध्‍य–क्षेत्र (वक्षस्‍थल) में धीरे-धीरे शांति व्‍याप्‍त होने दो।
     यह बड़ी सरल विधि है। परंतु चमत्‍कारिक ढंग से कार्य करती है। इसे करके देखो। और कोई भी कर सकता है। इसमे कोई खतरा नहीं है। पहली बात तो यह है कि किसी भी आरामदेह मुद्रा में बैठ जाओ, जो भी मुद्रा तुम्‍हारे लिए आसान हो। किसी विशेष मुद्रा या आसन में बैठने की कोशिश मत करो। बुद्ध एक विशेष मुद्रा में बैठते है। वह उनके लिए आसान है। वह तुम्‍हारे लिए भी आसान बन सकती है। अगर कुछ समय तुम उसका अभ्‍यास करो, लेकिन शुरू-शुरू में यक तुम्‍हारे लिए आसान न होगी। पर इसका अभ्‍यास करने की कोई जरूरत नहीं है। किसी भी ऐसी मुद्रा से शुरू करो जो अभी तुम्‍हारे लिए आसान हो। मुद्रा के लिए संघर्ष मत करो। तुम आराम से एक कुर्सी पर बैठ सकते हो। बस एक ही बात का ध्‍यान रखना है कि तुम्‍हारा शरीर एक विश्रांत अवस्‍था में होना चाहिए।

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—97 (ओशो)

अंतरिक्ष को अपना ही आनंद-शरीर मानो।
     यह दूसरी विधि पहली विधि से ही संबंधित है। आकाश को अपना ही आनंद-शरीर समझो। एक पहाड़ी पर बैठकर, जब तुम्‍हारे चारों और अनंत आकाश हो, तुम इसे कर सकते हो। अनुभव करो कि समस्‍त आकाश तुम्‍हारे आनंद-शरीर से भर गया है।
            सात शरीर होते है। आनंद-शरीर तुम्‍हारी आत्‍मा के चारों और है। इसलिए तो जैसे-जैसे तुम भीतर जाते हो तुम आनंदित अनुभव करते हो। क्‍योंकि तुम आनंद-शरीर के निकट पहुंच रहे हो। आनंद की पर्त पर पहूंच रहे हो। आनंद-शरीर तुम्‍हारी आत्‍मा के चारों और है। भीतर से बाहर की तरफ जाते हुए यह पहला और बाहर से भीतर की और जाते हुए यह अंतिम शरीर है। तुम्‍हारी मूल सत्‍ता, तुम्‍हारी आत्‍मा के चारों और आनंद की एक पर्त है, इसे आनंद शरीर कहते है।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—96 (ओशो)

  यह विधि एकांत से संबंधित है:
     किसी ऐसे स्‍थान पर वास करों जो अंतहीन रूप से विस्‍तीर्ण हो, वृक्षों, पहाड़ियों, प्राणियों से रहित हो। तब मन के भारों का अंत हो जाता है।
     इससे पहले कि हम इस विधि में प्रवेश करे, एकांत के विषय में कुछ बातें समझ लेने जैसी है। एक: अकेले होना मौलिक है। आधारभूत है। तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व का यही स्‍वभाव है। मां के गर्भ में तुम अकेले थे, पूरी तरह अकेले थे।
      और मनोवैज्ञानिक कहते है कि निर्वाण की, बुद्धत्‍व की, मुक्‍ति की यह स्‍वर्ग की आकांशा मां के गर्भ की गहन स्‍मृति है। पूर्ण एकांत को और उसके आनंद को तुमने जाना है। तुम अकेले थे, तुम परमात्‍मा थे वहां और कोई न था। जीवन सुंदर था। हिंदू उसे सतयुग कहते है। तुम्‍हें कोई परेशान करने वाला नहीं था। न ही कोई बाधा डाल रहा था। अकेले तुम ही मालिक थे। कोई संघर्ष नहीं था, पूर्ण शांति थे, मौन था, कोई भाषा नहीं थी। तुम अपने अंतरात्‍मा में थे। तुम्‍हें पता नहीं था। लेकिन वह स्‍मृति तुम्‍हारे गहन में, तुम्‍हारे अचेतन में अंकित है।

बुधवार, 19 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—95 (ओशो)

दूसरी विधि:
     अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्‍हारे स्‍तनों में प्रवेश करके सूक्ष्‍म रूप धारण कर रहे है।
     इससे पहले कि इस विधि में प्रवेश करूं, कुछ महत्‍वपूर्ण बातें।
      शिव पार्वती से, देवी से, अपनी संगिनी से बात कर रहे है। इसलिए यह विधि विशेषत: स्‍त्रियों के लिए है। कुछ बातें समझने जैसी है। एक: पुरूष देह और स्‍त्री देह एक जैसी है; लेकिन फिर भी उनमें कई भेद है। और उनका भेद है। और उनका भेद एक दूसरे का परिपूरक है। पुरूष देह में जो नकारात्‍मक है, स्‍त्री देह में वही सकारात्‍मक होगा; और स्‍त्री देह जो सकारात्‍मक है, वह पुरूष देह में नकारात्‍मक होगा।

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—94 (ओशो)

पहली विधि:
     अपने शरीर, अस्‍थियों मांस और रक्‍त को ब्रह्मांडीय सार से भरा हुआ अनुभव करो।
सरल प्रयोगों से शुरू करो, सात दिन के लिए एक सरल सा प्रयोग करो। अपने खून अपनी हड्डी
अपने मांस, अपने शरीर को उदासी से भरा अनुभव करो। तुम्‍हारे शरीर का रोआं-रोआं उदास हो जाए। एक काली रात तुम्‍हारे चारों और छा जाए, बोझिल और विषादयुक्‍त हो जाओ। जैसे कि‍ प्रकाश की एक किरण भी दिखाई न पड़ती हो कोई आशा न बचे, घनी उदासी हो, जैसे कि तुम मरने वाले हो। तुममें जीवन नहीं है। तुम बस मरने की प्रतीक्षा कर रहे हो। जैसे कि मृत्‍यु आ गई हो। या धीरे-धीरे आ रही है।

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—93 (ओशो)

 दूसरा सूत्र:
 अपने वर्तमान रूप का कोई भी अंग असीमित रूप से विस्‍तृत जानो।
     एक दूसरे द्वारा से यह वही विधि है। मौलिक सार तो वहीं है कि सीमाओं को गिरा दो, मन सीमाएं खड़ी करता है। यदि तुम सोचो मत तो तुम असीम में गति कर जाते हो। या, एक दूसरे द्वार से, तुम असीम के साथ प्रयोग कर सकते हो और मन के पार हो जाओगे। मन असीम के साथ, अपरिभाषित, अनादि,अनंत के साथ नहीं रहा सकता। इसलिए यदि तुम सीमा-रहित के साथ कोई प्रयोग करो तो मन मिट जाएगा।

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—92 (ओशो)

 चित को ऐसी अव्‍याख्‍य सूक्ष्‍मता में अपने ह्रदय के ऊपर, नीचे और भीतर रखो।
     तीन बातें। पहली,यदि ज्ञान महत्‍वपूर्ण है तो मस्‍तिष्‍क केंद्र होगा। यदि बच्‍चों जैसी निर्दोषिता महत्‍वपूर्ण है तो ह्रदय केंद्र होगा। बच्‍चा ह्रदय में जीता है। हम मस्‍तिष्‍क में जीते है। बच्‍चा अनुभव करता है। हम विचार करते है। जब हम कहते है कि हम अनुभव कर रहे है। तब भी हम विचार करते है। कि हम अनुभव कर रहे है। सोचना हमारे लिए महत्‍वपूर्ण हो जाता है। और अनुभव गौण हो जाता है। विचार विज्ञान का ढंग है। और अनुभव धर्म का।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—91 (ओशो)

  दूसरी विधि:
     ‘’हे दयामयी, अपने रूप के बहुत ऊपर और बहुत नीचे, आकाशीय उपस्‍थिति में प्रवेश करो।‘’
      यह दूसरी विधि तभी प्रयोग की जा सकती है, जब तुमने पहली विधि पूरी कर ली है। यह प्रयोग अलग से भी किया जा सकता है। लेकिन तब यह बहुत कठिन होगा। इसलिए पहली विधि पूरी करके ही इसे करना अच्‍छा है। और तब यह विधि बहुत सरल भी हो जायेगी।
      जब भी ऐसा होता है—कि तुम हलके-फुलके अनुभव करते हो, जमीन से उठते हुए अनुभव करते हो,मानों तुम उड़ सकते हो—तभी अचानक तुम्‍हें बोध होगा कि तुम्‍हारा शरीर को चारों और एक नीली आभा मंडल घेरे है।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—90 (ओशो)

   आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है। और वहां ब्रह्मांड व्‍याप जाता है।
     विधि में प्रवेश के पहले कुछ भूमिका की बातें समझ लेनी है। पहली बात कि आँख के बाबत कुछ समझना जरूरी है। क्‍योंकि पूरी विधि इस पर निर्भर करती है।
      पहली बात यह है कि बाहर तुम जो भी हो या जो दिखाई पड़ते हो वह झूठ हो सकता है। लेकिन तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। तुम झूठी आंखें नहीं बना सकते हो। तुम झूठा चेहरा बना सकते हो। लेकिन झूठी आंखें नहीं बना सकते। वह असंभव है। जब तक कि तुम गुरजिएफ की तरह परम निष्‍णात हीन हो जाओ। जब तक तुम अपनी सारी शक्‍तियों के मालिक न हो जाओ। तुम अपनी आंखों को नहीं झुठला सकते। सामान्‍य आदमी यह नहीं कर सकता है। आंखों को झुठलाना असंभव है।

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—89 (ओशो)

 हे प्रिये, इस क्षण में मन, ज्ञान, प्राण, रूप, सब को समाविष्‍ट होने दो।
     यह विधि थोड़ी कठिन है। लेकिन अगर तुम इसे प्रयोग कर सको तो यह विधि बहुत अद्भुत और सुंदर है। ध्‍यान में बैठो तो कोई विभाजन मत करो;ध्‍यान में बैठे हुए सब को—तुम्‍हारे शरीर, तुम्‍हारे मन, तुम्‍हारे प्राण, तुम्‍हारे विचार, तुम्‍हारे ज्ञान—सब को समाविष्‍ट कर लो। सब को समेट लो, सब को सम्‍मिलित कर लो। कोई विभाजन मत करो, उन्‍हें खंडों में मत बांटो।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—88 (ओशो)

  प्रत्‍येक वस्‍तु ज्ञान के द्वारा ही देखी जाती है। ज्ञान के द्वारा ही आत्‍मा क्षेत्र में प्रकाशित होती है। उस एक को ज्ञाता और ज्ञेय की भांति देखो।
     जब भी तुम कुछ जानते हो, तुम उसे ज्ञान के द्वारा, जानने के द्वारा जानते हो। ज्ञान की क्षमता के द्वारा ही कोई विषय तुम्‍हारे मन में पहुंचता है। तुम एक फूल को देखते हो; तुम जानते हो कि यह गुलाब का फूल है। गुलाब का फूल बाहर है और तुम भीतर हो। तुमसे कोई चीज गुलाब तक पहुँचती है। तुमसे कोई चीज फूल तक आती है। तुम्‍हारे भीतर से कोई उर्जा गति करती है। गुलाब तक आती है, उसका रूप रंग और गंध ग्रहण करती है और लौट कर तुम्‍हें खबर देती है कि यह गुलाब का फूल है। सब ज्ञान, तुम जो भी जानते हो, जानने की क्षमता के द्वारा तुम पर प्रकट होता है। जानना तुम्‍हारी क्षमता है; सारा ज्ञान इसी क्षमता के द्वारा अर्जित किया जाता है।

सोमवार, 26 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—87 (ओशो)

   मैं हूं, यह मेरा है। यह-यह है। हे प्रिये, भाव में भी असीमत: उतरो।
     मैं हूं। तुम इस भाव में कभी गहरे नहीं उतरते हो कि मैं हूं। है प्रिये, ऐसे भाव में भी असीमत: उतरो।
      मैं तुम्‍हें एक झेन कथा कहता हूं। तीन मित्र एक रास्‍ते से गुजर रहे थे संध्‍या उतर रही थी। और सूरज डूब रहा था। तभी उन्‍होंने एक साधु को नजदीक की पहाड़ी पर खड़ा देखा। वे लोग आपस में विचार करने लगे कि साधु क्‍या कर रहा है। एक ने कहा: यह जरूर अपने मित्रों की प्रतीक्षा कर रहा है। वह अपने झोंपड़े से घूमने के लिए निकला होगा और उसके संगी-साथी पीछे छूट गए होंगे। वह उनकी राह देख रहा है।

बुधवार, 21 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—86 (ओशो)

भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज की चिंतना करता हूं जो दृष्‍टि के परे है, जो पकड़ के परे है। जो अनस्‍तित्‍व के, न होने के परे है—मैं।
     ‘’भाव करो कि मैं किसी ऐसी चीज कीं चिंतना करता हूं जो दृष्‍टि के परे है।‘’ जिसे देखा नहीं जा सकता। लेकिन क्‍या तुम किसी ऐसी चीज की कल्‍पना कर सकते हो जो देखी न जा सके। कल्‍पना तो सदा उसकी होती है जो देखी जा सके। तुम उसकी कल्‍पना कैसे कर सकते हो, उसका अनुमान कैसे कर सकते हो। जो देखी ही न जा सके। तुम उसकी ही कल्‍पना कर सकते हो जिसे तुम देख सकते हो। तुम उस चीज का स्‍वप्‍न भी नहीं देख सकते जो दृश्य न हो।

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—85 (ओशो)

अनासक्‍ति—संबंधी दूसरी विधि:


‘ना-कुछ का विचार करने से सीमित आत्‍मा असीम हो जाती है।’

मैं यहीं कह रहा था। अगर तुम्‍हारे अवधान का कोई विषय नहीं है, कोई लक्ष्‍य नहीं है, तो तुम कहीं नहीं हो, या तुम सब कहीं हो। और तब तुम स्‍वतंत्र हो तुम स्‍वतंत्रता ही हो गए हो।

यह दूसरा सूत्र कहता है: ‘ना कुछ का विचार करने से सीमित आत्‍मा असीम हो जाती है।’

अगर तुम सोच विचार नहीं कर रहे हो तो तुम असीम हो। विचार तुम्‍हें सीमा देता है। और सीमाएं अनेक तरह की है। तुम हिंदू हो, यह एक सीमा है। हिंदू होना किसी विचार से, किसी व्‍यवस्‍था से, किसी ढंग ढांचे से बंधा होना है। तुम ईसाई हो, यह भी एक सीमा है। धार्मिक आदमी कभी भी हिंदू या ईसाई नहीं हो सकता। और अगर कोई आदमी हिंदू या ईसाई है तो वह धार्मिक नहीं है। असंभव है। क्‍योंकि ये सब बिचार है। धार्मिक आदमी का अर्थ है कि वह विचार से नहीं बंधा है। वह किसी विचार से सीमित नहीं है। वह किसी व्‍यवस्‍था से, किसी ढंग-ढांचे से नहीं बंधा है। वह मन की सीमा में नहीं जीता है—वह असीम में जीता है।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

न और न छौर—(कविता)

न कोई  है न छौर है उसका,
केवल एक गति भर है,
जो एक सम्‍मोहन बन कर छाई है।
हर और जहां-तहां,
चर-अचर, उस बिंदू के छोर तक।
बन कर एक उदासी
जो आभा की तरह चमकती है,
और एक गहन तमस का बनती है उन्‍माद।
ये कोई प्रलाप के बादल नहीं है ‘’प्रिय’’,

रविवार, 4 नवंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—84 (ओशो)

अनासक्‍ति—संबंधी पहली विधि:
शरीर के प्रति आसक्‍ति को दूर हटाओं और यह भाव करो कि मैं सर्वत्र हूं। जो सर्वत्र है वह आनंदित है।
     बहुत सी बातें समझने जैसी है। शरीर के प्रति आसक्‍ति को दूर हटाओं।
      शरीर के प्रति हमारी आसक्‍ति प्रगाढ़ है। वह अनिवार्य है; वह स्‍वाभाविक है। तुम अनेक-अनेक जन्‍मों से शरीर में रहते आए है; आदि काल से ही तुम शरीर में हो। शरीर बदलते रहे है। लेकिन तुम सदा शरीर में रहे हो। तुम सदा सशरीर रहे हो।

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—83 (ओशो)

(कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं। विमर्श करो। सौंदर्य में विलीन हो जाओ।)
     कामना के पहले और जानने के पहले मैं कैसे कह सकता हूं कि मैं हूं?
            एक कामना पैदा होती है और कामना के साथ यह भाव पैदा होता है कि मैं हूं। एक विचार उठता है और विचार के साथ यह भाव उठता है कि मैं हूं। इसे अपने अनुभव में ही देखो; कामना के पहले और जानने के पहले अहंकार नहीं है।

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—82 (ओशो)

अनुभव करो: मेरा विचार,मैं-पन, आंतरिक इंद्रियाँ—मुझ
     यह बहुत ही सरल विधि है और अति सुंदर भी।
      पहली बात यह है कि विचार नहीं करना है, अनुभव करना है। विचार करना और अनुभव करना दो भिन्‍न-भिन्‍न आयाम है। और हम बुद्धि से इतनी ग्रस्‍त हो गए है कि जब हम यह भी कहते है कि हम अनुभव करते है तो भी हम अनुभव नही करते,सोच-विचार ही करते है। तुम्‍हारा भाव-पक्ष, तुम्‍हारा ह्रदय-पक्ष, बिलकुल बंद हो गया है। मुर्दा हो गया है। जब तुम कहते हो कि, मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। तो भी वह भाव नहीं होता, विचार ही होता है।

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

छोटी कथा--(कथा यात्रा)

एक बार किसी छोटे शहर में एक आगंतुक ने अनेक लोगों से वहां के नगर-प्रमुख के संबंध में पूछताछ की: आपके महापौर कैसे आदमी है?
            पुरोहित ने कहा: वह किसी काम का नहीं
            पेट्रोल-डिपो के मिस्त्री ने कहा: वह बिलकुल निकम्मा है।
            नाई ने कहा: मैंने अपने जीवन में उस दुष् को कभी वोट नहीं दिया।
            तब वह आगंतुक खुद महापौर से मिला। जो की बहुत बदनाम व्यक्ति था।
            उसने पूछा: आपको अपने काम के लिए क्या तनख्खाह मिलती है?’
            महापौर ने कहां: भगवान का नाम लो। मैं इसके लिए कोई तनख्खाह लूंगा मैं तो बस सेवा भाव से यह पद सम्हाल रखा है। इसे लोगे के प्रेम की खातिर स्वीकार किया हुआ है।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र