अश्रद्धा नहीं, आत्मश्रद्धा—प्रवचन—उन्तालिसवां
अससद्धो अकतज्जू च संधिच्देदो च यो नरी।
हतावकसो वंतासो स वे उत्तम पोरिसो ।।88।।
गामे वे यदि वारज्जे निन्ने वा यदि वा थले।
वत्थरहंतो विहरंति तं भूमि रामणेय्यकं ।।89।।
रमणीयानि अरज्जानि यत्थ न रमते जनो।
वीतरागा रमिस्संति न ते कामगवेसिनो।।90।।
धम्मपद के एक अत्यंत
अनूठे सूत्र में आज प्रवेश होता है। सूत्र इतना अनूठा है कि बुद्ध के अतिरिक्त
वैसा वक्तव्य कभी किसी दूसरे व्यक्ति ने न दिया है, न देगा।
बुद्ध की सारी विशिष्टता इस सूत्र में समाहित है—उनकी क्रांति, उनके देखने का अनूठा
ढंग, उनकी बिलकुल नई पहुंच।