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सोमवार, 30 जुलाई 2018

एस धम्मो संनतनो-(प्रवचन-039)

अश्रद्धा नहीं, आत्‍मश्रद्धा—प्रवचन—उन्तालिसवां


सूत्र:


अससद्धो अकतज्‍जू च संधिच्‍देदो च यो नरी।
हतावकसो वंतासो स वे उत्‍तम पोरिसो ।।88।।

गामे वे यदि वारज्‍जे निन्‍ने वा यदि वा थले।
वत्‍थरहंतो विहरंति तं भूमि रामणेय्यकं ।।89।।

रमणीयानि अरज्‍जानि यत्‍थ न रमते जनो।
वीतरागा रमिस्‍संति न ते कामगवेसिनो।।90।।


म्‍मपद के एक अत्यंत अनूठे सूत्र में आज प्रवेश होता है। सूत्र इतना अनूठा है कि बुद्ध के अतिरिक्त वैसा वक्तव्य कभी किसी दूसरे व्यक्ति ने न दिया है, न देगा।
बुद्ध की सारी विशिष्टता इस सूत्र में समाहित है—उनकी क्रांति, उनके देखने का अनूठा ढंग, उनकी बिलकुल नई पहुंच।

एस धम्मो संनतनो-(प्रवचन-038)

कछ खुला आकाश!—प्रवचन—अडतिसवां

पहला प्रश्‍न—

जब तक वासना है, कामना है, क्या तभी तक साधना है।


स्‍वभावत: रोग है तो औषधि है। स्वास्थ्य आया, औषधि व्यर्थ हुई। स्वास्थ्य में भी कोई औषधि लिए चला जाए तो घातक है। जो रोग को मिटाती है, वही रोग को फिर पैदा करेगी।
मार्ग की जरूरत है, मंजिल दूर है तब तक; मंजिल आ जाए फिर भी जो चलता चला जाए, तो जो चलना मंजिल के पास लाता था, वही फिर दूर ले जाएगा।
और प्रश्न महत्वपूर्ण है, क्योंकि अक्सर ऐसा ही होता है। बीमारी तो छूट जाती है, औषधि पकड़ जाती है। क्योंकि मन का तर्क कहता है, जिसने यहां तक पहुंचाया, उसे कैसे छोड़ दें? जो इतने दूर ले आया, उसे कैसे छोड़ दें? जिसके सहारे इतना कुछ पाया, कहीं उसके छोड़ने से वह खो न जाए।

रविवार, 22 जुलाई 2018

साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-02

दूसरा प्रवचन--अहंकार का विसर्जन

ध्यान के संबंध में दो-तीन बातें समझ लें और फिर हम ध्यान का प्रयोग करें।
पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है कि ध्यान का श्वास से बहुत गहरा संबंध है। साधारणतः देखा होगा, क्रोध में श्वास एक प्रकार से चलती है, शांति में दूसरे प्रकार से चलती है। कामवासना मन को पकड़ ले, तो श्वास की गति तत्काल बदल जाती है। और कभी अगर श्वास बहुत शांत, धीमी, गहरी चलती हो, तो मन बहुत अदभुत प्रकार के आनंद को अनुभव करता है।

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

शिव--सूत्र--(ओशो) प्रवचन--08

जिन जागा तिन मानिक पाइया(प्रवचनआठवां)

दिनांक 18 सितंबर,1974;
प्रात:काल, श्री ओशो आश्रम,पूना।
सूत्र:

त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेव्यम्
मग्‍न: स्वचित्ते प्रविशेत्
प्राणसमाचारे समदर्शनम्
शिवतुल्यो जायते

 तीनों अवस्थाओं में चौथी अवस्था का तेल की तरह सिंचन करना चाहिए ऐसा मग्‍न हुआ स्व—चित्त में प्रवेश करे। प्राणसमाचार (अर्थात सर्वत्र परमात्म—ऊर्जा का प्रस्‍फुरण है—ऐसा अनुभव कर) से समदर्शन को उपलब्ध होता है। और वह शिवतुल्य हो जाता है!

 जाग्रत, स्‍वप्‍न, सुषुप्‍ति—इन तीनों अवस्थाओं में भी चौथी तुरीय ऐसी ही पिरोई हुई है जैसे माला के मनकों में धागा। सोये हुए भी तुम्हारे भीतर कोई जागा हुआ है। स्‍वप्‍न देखते हुए भी तुम्हारे भीतर कोई देखनेवाला रूप के बाहर है। जागते, दिन के काम करते समय भी, दैनंदिन जागरण में भी, तुम्हारे भीतर कोई साक्षी मौजूद है।

बुधवार, 18 जुलाई 2018

मैं मृत्‍यु सिखाता हूं--(प्रवचन--01)

योजित मृत्यु अर्थात ध्यान और समाधि के प्रायोगिक रहस्य(प्रवचनपहला)


यह शरीर एक बीज है और जीवन चेतना और आत्मा का एक अंकुर भीतर है। जब वह अंकुर फूटता है तो मनुष्य का बीज होना समाप्त होता है और मनुष्य वृक्ष बनता है।
संकल्प हम करें तीव्रता से, टोटल, समग्र, कि मैं वापस लौटता हूं अपने भीतर। सिर्फ आधा घंटा भी कोई इस बात का संकल्प करे कि मैं वापस लौटना चाहता हूं, मैं मरना चाहता हूं? मैं डूबना चाहता हूं अपने भीतर, मैं अपनी सारी ऊर्जा को सिकोड़ लेना चाहता हूं, तो थोड़े ही दिनों में वह इस अनुभव के करीब पहुंचने लगेगा कि ऊर्जा सिकुड़ने लगी है भीतर। शरीर छूट जाएगा बाहर पड़ा हुआ। एक तीन महीने का थोड़ा गहरा प्रयोग, और आप शरीर अलग पड़ा है, इसे देख सकते हैं।

 मेरे प्रिय आत्मन्!

जीवन क्या है, मनुष्य इसे भी नहीं जानता है। और जीवन को ही हम न जान सकें, तो मृत्यु को जानने की तो कोई संभावना ही शेष नहीं रह जाती। जीवन ही अपरिचित और अज्ञात हो, तो मृत्यु परिचित और ज्ञात नहीं हो सकती है। सच तो यह है कि चूंकि हमें जीवन का पता नहीं, इसलिए ही मृत्यु घटित होती प्रतीत होती है। जो जीवन को जानते 'हैं, उनके लिए मृत्यु एक असंभव शब्द है, जो न कभी घटा, न घटता है, न घट सकता है।

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

माई डायमंड डे विद ओशो—मां प्रेम शुन्‍यों (अध्‍याय—18)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 
क्‍या हम दस हजार बुद्धों का उत्‍सव मना सकते है?


      आनन्‍दो तथा निर्वाणों ने ओशो के लिए उद्यान में वाक-वेबनने का निश्‍चय किया ताकि वे कुछ घूम-फिर सकें और अस्‍वस्‍थ होने के कारण जब प्रवचन देने के लिए न जा सकें तो उद्यान को देख सकें। वे मान गए यद्यपि उन्‍हें ज्ञात था कि वह एक दो बार से अधिक उसका उपयोग नहीं कर सकेंगे। इन दोनों का विचार ओशो के लिए एक चित्र कला कक्ष बनाने का था। वर्षों पहले वे बहुत चित्र बनाया करते थे। परंतु उन्‍हें फैल्‍ट पैन तथा स्‍याही की गंध ऐ एलर्जी हो गई थी। उनके बेड़ रूम के साथ वाले कमरे को चित्रकला-कक्ष बनाया गया। जहां वे चित्र बना सकें हम उनके लिए ऐसे एयर ब्रश,इंक और रंग ढूंढने में सफल हो गए थे जिनमें किसी प्रकार की कोई गंध नहीं आती थी। यह कमरा सफेद तथा हरे संगमरमर से बनाया गया और यह उन्‍हें इतना पसंद अया कि बहुत ही छोटी होने के बावजूद वे वहां नौ महीने सोए। वे इसे अपनी छोटी सी कुटिया कहते थे। परंतु उन्‍होंने इसमें एक ही बार पेंटिंग बनाई।

      एक दिन उन्‍होंने मुझे अपनी छोटी सी कुटिया में बुलाया। वर्षा ऋतु थी। पानी जोरों से बरस रहा था। हाइकु ऐसे ही लिखे जाते है:ध्‍यान।

माई डायमंड डे विद ओशो—मां प्रेम शुन्‍यों (अध्‍याय—08)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 
अमरीका—क़ैद—(अध्‍याय—08)

      अक्‍टूबर 28, 1985।
      अलियर जैट शारटल उतरी कैरोलिया के हवाई-अड्डे पर उतरने वाला था और मैंने बाहर अंधेरे में देखा, हवाई अड्डा सूनसान पडा था। कुछ लम्‍बी, पतली झाड़ियां जैट द्वारा उड़ाई गई हवा में झूल रही थी।     जैसे ही जैट ने ज़मीन को छुआ और इंजन बंद हुआ। निरूपा ने हान्‍या को देखा। हास्‍या,जिसके हाथ हम शारलट में रहनेवाले थे निरूपा की अत्‍यंत युवा सास थी। वह तारकोल की विमान पट्टी पर अपने मित्र प्रसाद के साथ खड़ी थी। निरूपा ने उत्‍साहपूर्वक हान्‍या को पुकारा और ठीक उसी समय कई दिशाओं से आई हैंड्स आप की आवाज़ों ने मुझे किसी अन्‍या सच्‍चाई में पहुंचा दिया। एक पल के विचार थम गए। एक भयावह अंतराल और फिर मन ने कहा—नहीं, यह सत्‍य नहीं है। कुछ ही क्षणों में लगभग पंद्रह बंदूकधारी व्‍यक्‍तियों ने बंदूकों का निशाना हम पर साधे हुए विमान को चारों और से घेर लिया।
      यह वस्‍तुत: सत्‍य था—अँधेरा कौंधती बत्‍तियां, कर्कश ध्‍वनि करती ब्रेक्स, चीखें,आतंक, भय सब मेरे आस-पास बुना हुआ था। मैं खतरे के प्रति इतनी सजग थी की शांत रहने के अतिरिक्‍त और कुछ न कर सकती थी। छींकना भी मत मैंने स्‍वयं से कहा। ये लोग गोली मार देंगे। वे लोग भयभीत दिखाई दे रहे थे। और होते भी क्‍यों न।

माई डायमंड डे विद ओशो—मां प्रेम शुन्‍यों (अध्‍याय—04)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 
ऊर्जा दर्शन—(अध्‍याय—04)  

       ओशो 21 मार्च 1953 में बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हुए। उसी दिन से वे उन लोगों की खोज में है जो उन्‍हें समझ सकें। और बुद्धत्‍व को उपलब्‍ध हो सकें। उन्‍होंने उन सैंकड़ों सशस्त्रों की सहायता की है जो आत्‍म-बोध के मार्ग पर है।
      मैंने उन्‍हें कहते सूना है :
      मनुष्‍य की सत्‍य के लिए प्‍यास जन्‍मों-जन्‍मों तक चलती है। कई जन्‍मों के पश्‍चात वह उसे पाने में समर्थ होता है। और जो इसकी खोज करते है सोचते है कि इसकी प्राप्‍ति के बाद वे शान्ति का अनुभव करेंगे। लेकिन जो इसे पाने में सफल हो जाते है, पाते है उन्‍हें पता चलता है कि उनकी सफलता एक नई प्रसव-पीड़ा की शुरूआत है, बिना किसी पीड़ा-मुक्‍ति के। सत्‍य जब एक बार मिल जाता है, एक नई प्रसव-पीड़ा को जन्‍म देती है।
      वे फूल की बात करते है जिसे अपनी सुगन्‍ध बिखेरनी ही है—वे नीर भरे बादल की बात करते है जिसे बरसना ही है।

रविवार, 15 जुलाई 2018

मन ही पूजा मन ही धूप--(प्रवचन--01)

आग के फूल—(पहला प्रवचन)

सूत्र:

बिनु देखे उपजै नहि आसा। जो दीसै सो होई बिनासा।।
बरन सहित जो जापै नामु। सो जोगी केवस निहकामु।।
परचै राम रवै जो कोई। पारसु परसै ना दुबिधा होई।।
सो मुनि मन की दुबिधा खाइ। बिनु द्वारे त्रैलोक समाई।।
मन का सुभाव सब कोई करै। करता होई सु अनभे रहै।।
फल कारण फूली बनराइ। फलु लागा तब फूल बिलाई।।
ग्‍यानै कारन कर अभ्‍यासू। ग्‍यान भया तहं करमैं नासू।।
घृत कारन दधि मथै सयान जीवन मुकत सदा निरवान।।
कहि रविदास परम बैराग। रिदै राम को न जपसि अभाग।।

भज गोंविंदम मुढ़मते (आदि शंक्राचार्य) प्रवचन--04

कदम कदम पर मंजिल—(प्रवचन—चौथा)
प्रश्न-सार

1—कहा जाता है कि शंकर हिंदू वेदांती थे और आपने कहा कि शंकर छिपे हुए बौद्ध हैं; इसे कृपया स्पष्ट करें।

2—शंकर और आप भजन करने को कहने के पहले हमें हर बार मूढ़ कह कर क्यों संबोधित करते हैं?

3—रेचन में केवल क्रोध,र् ईष्या, दुख आदि के नकारात्मक भाव ही बाहर आते हैं। क्यों?

4—कृपया डूबने तथा होश और बेहोशी की सीमा-रेखाओं को स्पष्ट करें।

5—क्या प्रार्थना की जगह भजन भी धन्यवाद ज्ञापन मात्र है?

शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

पिव पिव लागी प्‍यास-(दादू दयाल)-प्रवचन-08

जिज्ञासा-पूर्ति: चार--प्रवचन: आठवां,

दिनांक १८. ७. १९७५, प्रातःकाल,
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—प्रवचन कर रहे होते हैं, उस समय यदि आपका मुख निरखता हूं,तो शब्द सुनाई नहीं देते
2—महानिर्वाण को उपलब्ध हो जाने के बाद भी, ज्ञानी प्रकार हमारी सहायता करते हैं?
3— जन्मों-जन्मों से हमने दुख का अनुभव जाना है। लेकिन हमारी भूल नहीं दिख पाती?
4— क्या बुद्धपुरुष के होते हुए साधक को अपना स्वयं का समाधान खोजना अनिवार्य है?
5— ध्यान करते समय एक ओर शांति और आनंद का अनुभव होता है।
6— मुझे तो बड़े प्रयास, अभ्यास और श्रम से गुजरना पड़ रहा है, क्यों?
7— लेकिन जिस लौ के लगाम की बात संत कहते हैं, दादू कहते हैं, वह कहां उपलब्ध है?

बुधवार, 11 जुलाई 2018

धर्म और आनंद-(प्रश्नोंत्तर-विविध)-प्रवचन-10

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

दसवां—प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
अभी एक भजन आपने सुना। मैंने भी सुना। मेरे मन में खयाल आया, कौन से घूंघट के पट हैं जिनकी वजह से प्रीतम के दर्शन नहीं होते हैं? बहुत बार यह सुना होगा कि घूंघट के पट हम खोलें। तो वह जो प्यारा हमारे भीतर छिपा है उसका दर्शन हो सकेगा? लेकिन कौन से घूंघट के पट हैं जिन्हें खोलें? आंखों पर कौन सा पर्दा है? कौन सा पर्दा है जिससे हम सत्य को नहीं जान पाते हैं? और जो सत्य को नहीं जान पाता, जो जीवन में सत्य का अनुभव नहीं कर पाता, उसका जीवन दुख की एक कथा, चिंताओं और अशांतियों की कथा से ज्यादा नहीं हो सकता है। सत्य के बिना न तो कोई शांति है, न कोई आनंद है। और हमें सत्य का कोई भी पता नहीं है। सत्य तो दूर की बात है, हमें स्वयं का भी कोई पता नहीं है। हम क्यों हैं और क्या हैं, इसका भी कोई बोध नहीं है। ऐसी स्थिति में जीवन भटक जाता हो अंधेरे में, दुख में और पीड़ा में, तो यह कोई आश्चर्यजनक नहीं है।
इस सुबह मैं इस संबंध में ही थोड़ी सी आपसे बात करूं। कौनसा पर्दा है और उसे हम कैसे उठा सकते हैं?

धर्म और आनंद-(प्रशनोंत्तर-विविध)-प्रवचन-06

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

छठवांप्रवचन-हर वासना अनंत के लिए है
मैं जिस घर में पैदा हुआ हूं बचपन से मुझे कुछ बातें समझाई गई, सिखाई गई हैं, वे बातें मेरे चित्त में बैठ गई हैं। वे मेरे इतने अबोधपन में सिखाई गई हैं मुझे कि उनके बाबत मेरे मन में कोई विरोध पैदा नहीं हुआ। मैंने उनको सीख लिया। उन्हीं को मैं कहता हूं मेरी श्रद्धा है। यह बिल्कुल संयोग की बात है कि मैं जैन घर था; यह संयोग की बात है कि मैं मुसलमान घर में होता। और यह संयोग की बात है कि मैं नास्तिक घर में हो सकता था; जहां मुझे सिखाया जाता कि कोई ईश्वर नहीं है।
आखिर सोवियत रूस में उन्नीस सौ सत्रह के बाद चालीस वर्षों में उन्होंने पूरे बीस करोड़ लोगों को यह सिखा दिया कि न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है। चालीस वर्ष के सतत प्रचार में बीस करोड़ लोगों के दिमाग में यह बात बिठा दी कि न कोई आत्मा है, न कोई परमात्मा है।

धर्म और आनंद-(प्रशनोंत्तर-विविध)-प्रवचन-05

धर्म और आनंद-(प्रशनोत्तर-विविध)-ओशो

पांचवां—प्रवचन-मिथ्या साधना पहुंचाते नहीं

अपूर्ण से अपूर्ण हम हों लेकिन पूर्ण तक उन्मुक्त होने की एक अनिवार्य प्यास सबके साथ जुड़ी है। हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन में भी जो हम दौड़ते हैं..धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही होता है कि शायद शांति, शायद समृद्धि मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए। लेकिन निरंतर एक-एक इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संपत्ति उपलब्ध नहीं होती है।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-08

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

आठवां प्रवचन-विध्वंस: सृजन का प्रारंभ

यह सवाल नहीं है। पहली बात तो यह कि मैं निपट एक व्यक्ति की भांति, जो मुझे ठीक लगता है वह में कहूं। न तो मेरी कोई संस्था है, न कोई संगठन। हां, कोई संगठन बना कर मेरी बात उसे ठीक लगती है और लोगों तक पहुंचाए, तो वैसा संगठन जीवन जागृति केंद्र है। वह उसका संगठन है, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है और वे लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन मैं उस संगठन का हिस्सा नहीं हूं और उस संगठन का मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है, इसलिए वह संगठन रोज मुश्किल में है। क्योंकि कल मैंने कुछ कहा था, वह संगठन के लोगों को ठीक लगता था। आज कुछ कहता हूं, नहीं ठीक लगता है। वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। मेरी तो उनसे कोई शर्त नहीं है, उनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूं, इसलिए जितनी प्रवृत्तियां चलती हैं, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है, उनके द्वारा चलती हैं।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-07

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सातवां-प्रवचन-तोडने का एक उपक्रम
जो ठीक है और सच है वह मुझे कहना ही पड़ेगा। इसकी मुझे जरा भी परवाह नहीं। आखिर जो सत्य है, लोगों को उसके साथ आना पड़ेगा--चाहे वे आज दूर जाते हुए मालूम पड़ें। और लोग पास हैं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता। क्योंकि सच जब भी बोला जाएगा, तब भी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग दूर भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्षों की धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पड़ेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डिवास्टेंटिंग है। एक अर्थ है कि वह जो हमारी धारणा है उसको तो तोड़ डालेगा। और अगर धारणा तोड़ने से हम बचना चाहें तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं। डेलिब्रेटली मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन सत्य जितनी चोट पहुंचाता है उसमें मैं असमर्थ हूं, उतनी चोट पहुंचेगी। उसको बचा भी नहीं सकता हूं। फिर मैं कोई राजनीतिक नेता नहीं हूं कि मैं इसकी फिक्र करूं कि लोग मेरे पास आएं, कि मैं इसकी फिक्र करूं कि पब्लिक ओपिनियन क्या है?

शनिवार, 7 जुलाई 2018

कोपलें फिर फूट आईं--(प्रवचन--02)

आत्मिक विकास एकमात्र विकास  --(दूसरा प्रवचन:)

१ अगस्त, १९८६, ४. ०० अपराहन, सुमिला, जुहू, बंबई

प्रश्न: भगवान श्री, आपको समझने में आज की सरकारें और चर्च तो क्या बुद्धिजीवी भी जिस जड़ता का परिचय दे रहे हैं वह घबराने वाली है। ऐसा क्यों हुआ कि मनुष्य-जाति अपने श्रेष्ठतम फूल के साथ यह दुर्व्यवहार हुआ करे? क्या उसकी आत्मा मरी हुई है? आपके साथ पिछले दस महीनों से जो दुर्व्यवहार हुआ है, वह क्या एक किस्म का अंतर्राष्ट्रीय तल का एपारथाइड नहीं है जो साउथ अफ्रीका के एपारथाइड से भी बदतर है? क्या इस पर कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?
मैं एक बात इन दस महीनों में गहराई से अनुभव किया हूं और वह है, हर आदमी के चेहरे पर चढ़ा हुआ झूठा चेहरा। मैं सोचता था कुछ लोग हैं जो नाटक मंडलियों में हैं, लेकिन जो देखा है तो प्रतीत हुआ कि हर आदमी एक झूठे चेहरे के भीतर छिपा है। ये महीने कीमती थे और आदमी को देखने के लिए जरूरी थे; यह समझने को भी कि जिस आदमी के लिए मैं जीवन भर लड़ता रहा हूं, वह आदमी लड़ने के योग्य नहीं है। एक सड़ी-गली लाश है, एक अस्थिपंजर है। मुखौटे सुंदर हैं, आत्माएं बड़ी कुरूप हैं।

बुधवार, 4 जुलाई 2018

कहै वाजिद पुकार--(प्रवचन--08)

कुछ और ही मुकाम मेरी बंदगी का है—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 सितम्‍बर, 1976;   श्री रजनीश आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार:

1— आपने इतने ऊंचे, इतने अकल्पनीय शिखर दिखा दिए हैं कि उससे अपनी बौनी और लंगड़ी सामर्थ्य प्रगट हो गई। एक ओर उनके दिखने का आनंद है, तो दूसरी ओर तड़पने के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखता! आप ही सम्हालिएगा! घुटन और छटपटाहट के क्षणों में अनुभव में आइएगा! आपकी अमृत की वर्षा करने वाली आंखें, मेरे अंतस में सदा कौंधती रहें।
आपकी आंखों का आकाश
सजल, श्यामल, सुंदर—सा पाश।
खोया मेरा मन खग नादान
सुध—बुध भूल, भटक अनजान!
2—विरह—अवस्‍था में भक्‍त दुःखी होता है या सुखी?
3—भक्‍त कि चाह क्‍या है—पुण्‍य, या ज्ञान, या स्‍वर्ग?

सोमवार, 2 जुलाई 2018

असंभव क्रांति-(प्रवचन-08)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67 सुबह  

(अति-प्राचीन प्रवचन)
प्रवचन-आठवां-(सृजन का सूत्र)
मेरे प्रिय आत्मन्,
मनुष्य एक तिमंजिला मकान है। उसकी एक मंजिल तो भूमि के ऊपर है, बाकी दो मंजिल जमीन के नीचे। उसकी पहली मंजिल में, जो भूमि के ऊपर है, थोड़ा प्रकाश है। उसकी दूसरी मंजिल में, जो जमीन के नीचे दबी है और भी कम प्रकाश है। और उसकी तीसरी मंजिल में जो बिलकुल भूगर्भ में छिपी है, पूर्ण अंधकार है, वहां कोई प्रकाश नहीं है।
इस तीन मंजिल के मकान में--जो कि मनुष्य है, अधिक लोग ऊपर की मंजिल में ही जीवन को व्यतीत कर देते हैं। उन्हें नीचे की दो मंजिलों का न तो कोई पता होता है, न खयाल होता है। ऊपर की मंजिल बहुत छोटी है। नीचे की दो मंजिलें बहुत बड़ी हैं। और जो अंतिम अंधेरा भवन है नीचे, वही सबसे बड़ा है--वही आधार है सारे जीवन का।

असंभव क्रांति-(प्रवचन-07)

असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 20-10-67 रात्री  
 
(अति-प्राचीन प्रवचन)
प्रवचन-सातवां-(सत्य का संगीत)

एक मित्र ने पूछा है कि मैं शास्त्रों को जला डालने के लिए कहता हूं। और मेरी बातों से कहीं थोड़े कम समझ लोग भ्रांत होकर भटक न जाएं?

लोग भटकेंगे या नहीं, लेकिन जिन्होंने प्रश्न पूछा है, वे मेरी बात सुनकर जरूर भटक गए हैं। मैंने कब कहा कि शास्त्रों को जला डालें। मैंने सिर्फ अपनी किताबों को--अगर वे किसी दिन शास्त्र बन जाएं तो जला डालने को कहा है। मेरी किताबें हैं, उनको जला डालने के लिए मैं कह सकता हूं। लेकिन दूसरों की किताबें जला डालने को मैं क्यों कहूंगा।
और फिर मैंने कहा शास्त्रों को जला डालें--किताबों को जलाने के लिए मैंने कभी कहा नहीं है। अगर इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती है तो फिर मैं और जो कह रहा हूं, वह क्या समझ में आता होगा?

रविवार, 1 जुलाई 2018

अमृत की दशा-(प्रवचन-05)

 प्रवचन--पांचवां 

मैं विचार में हूं--किस संबंध में आपसे बातें करूं। और बातें इतनी ज्यादा हैं और दुनिया इतनी बातों से भरी है कि संकोच होना बहुत स्वाभाविक है। बहुत विचार हैं, बहुत उपदेश हैं, सत्य के संबंध में बहुत से सिद्धांत हैं। यह डर लगता है कि कहीं मेरी बातें भी उस बोझ को और न बढ़ा दें, जो कि मनुष्य के ऊपर वैसे ही काफी है। बहुत संकोच अनुभव होता है। कुछ भी कहते समय डर लगता है कि कहीं वह बात आपके मन में बैठ न जाए। बहुत डर लगता है कि कहीं मेरी बात को आप पकड़ न लें। बहुत डर लगता है कि कहीं वह बात आपको प्रिय न लगने लगे; कहीं वह आपके मन में स्थान न बना ले।
चूंकि मनुष्य विचारों और सिद्धांतों के कारण ही पीड़ित और परेशान है। उपदेशों के कारण ही मनुष्य के जीवन में सत्य का आगमन नहीं हो पाता है। दूसरों के द्वारा कही गई और दी गई बातें ही उस सत्य के बीच में बाधा बन जाती हैं जो हमारे पास है और निरंतर है।

अनंत की पुकार—(अहमदाबाद)-प्रवचन-07

सातवां प्रवचन -ध्यान-केंद्र के बहुआयाम

अहमदाबाद -अंतरगंवार्ताएं.....

वह जगह तो किसी भी कीमत पर छोड़ने जैसी नहीं है। हम तो अगर पचास लाख रुपया भी खर्च करें, तो वैसी जगह नहीं बना सकेंगे। दस एकड़ का कंपाउंड है। उसकी जो दीवाल है बनी हुई नौ फीट ऊंची, अपन बनाएं तो पांच लाख रुपये की तो सिर्फ उसकी कंपाउंड वॉल बनेगी। नौ फीट ऊंची पत्थर की दीवाल है। और वह करीब-करीब पंद्रह लाख में मिले तो बिल्कुल मुफ्त है। लेकिन यह सब तो उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्व पूर्ण यह है कि वह  बंबई में होते हुए उसके भीतर जाते से ही आपको लगे नहीं कि बंबई में हैं..माथेरान में हैं। इतने बड़े दरख्त हैं, और इतनी शांत जगह है।