बारहवां प्रवचन
माटी कहै कुम्हार सूं
मेरे
प्रिय आत्मन्!
एक
छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा। एक काल्पनिक घटना ही मालूम
होती है, एक सपने जैसी झूठी, एक किसी कवि ने सपना देखा हो ऐसा ही।
लेकिन
जिंदगी भी बहुत सपना है और जिंदगी भी बहुत कल्पना है और जिंदगी भी बहुत झूठ है।
एक
बहुत बड़ा मूर्तिकार था। उसकी मूर्तियों की इतनी प्रशंसा थी सारी पृथ्वी पर कि लोग
कहते थे कि वह जिस व्यक्ति की मूर्ति बनाता है, अगर उस
व्यक्ति को मूर्ति के पास ही श्वास बंद करके खड़ा कर दिया जाए, तो पहचानना मुश्किल है कि कौन मूल है कौन
मूर्ति है, कौन असली है कौन नकल है।
उस
मूर्तिकार की मृत्यु निकट आई। वह मूर्तिकार बहुत चिंतित हो उठा। मौत करीब थी वह
बहुत भयभीत हो उठा। लेकिन फिर उसे खयाल आया, क्यों
न मैं अपनी ही मूर्तियां बना कर मौत को धोखा दे दूं। उसने अपनी ही बारह मूर्तियां
बनाईं।