अध्याय
10 : सूत्र 1
अद्वय
की स्वीकृति
यदि
बौद्धिक और एंद्रिक
आत्माओं को एक
ही
आलिंगन में
आबद्ध रखा जाए,
तो
उन्हें पृथक
होने से बचाया
जा सकता है।
जब
कोई अपनी
प्राणवायु को
अपनी ही
एकाग्रता
द्वारा
नमनीयता
की चरम सीमा
तक पहुंचा दे,
तो
वह व्यक्ति शिशुवत
कोमल हो जाता
है।
जब
वह कल्पना के
अतिशय
रहस्यमय
दृश्यों
को
झाड़-पोंछ कर
साफ कर लेता
है,
तो वह
निर्विकार हो
जाता है।
अद्वैत
की हम बात
सुनते हैं: एक
ही है सत्य।
लेकिन फिर भी, अद्वैत
की भी जो बात
करते हैं, वे
भी शरीर और
आत्मा को दो
हिस्सों में
बांट कर चलते
हैं। जो
अद्वैत का
विचार रखते
हैं, वे भी
अपने शरीर और
अपनी आत्मा के
बीच पृथकता मानते
हैं। और जब
शरीर और आत्मा
में भेद होगा,
तो जगत और
परमात्मा में
भेद अनिवार्य
हो जाता है।
भेद की जरा सी
स्वीकृति द्वैत
को निर्मित कर
देती है।