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शनिवार, 31 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--16

गुरु है द्वार—प्रवचन—सोलहवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्‍न सार:

1—नानकदेव भी जाग्रतपुरूष थे, लेकिन उन्‍होंने स्‍वयं को भगवान नहीं कहा। आप........?

2—ध्‍यान के एक गहन अनुभव पर भगवान से मार्ग दर्शन की प्रार्थाना

3—अफसोस, दिल का हाल कोई पूछता नहीं। और सब कहते है तेरी सूरत बदल गई।
और सब कुछ लूटा के होश में आये तो क्‍या किया।  मैं क्‍या करूं...... ?

4—आप उत्‍तर न देंगे तो मैं पागल हो जाऊंगा

गीता दर्शन--(भाग-3) प्रवचन--063

अंतर्यात्रा का विज्ञान (अध्याय—6) प्रवचन—छठवां


शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्।। 11।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः
उपविश्यासने युग्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये।। 12।।

शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र है उपरोपरि जिसके, ऐसे अपने आसन को न अति ऊंचा और न अति नीचा स्थिर स्थापन करके, और उस आसन पर बैठकर
तथा मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं को वश में किया हुआ, अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।

अंतर-गुहा में प्रवेश के लिए, वह जो हृदय का अंतर- आकाश है, उसमें प्रवेश के लिए कृष्ण ने कुछ विधियों का संकेत अर्जुन को किया है।

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन--06

क्षांति—प्रवचन—छठवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; प्रातः 12 फरवरी, 1973

ओम शिष्य, भय संकल्प का हनन करता है और प्रयासों का स्थगन। यदि शील गुण का अभाव हो, तो यात्री के पांव लड़खड़ाते हैं और चट्टानी पथ पर कर्म के पत्थर उसके पांवों को लहूलुहान कर देते हैं।
ओ साधक, अपने पावों को दृढ़ कर। क्षांति (धैर्य) के सत्व में अपनी आत्मा को नहला, क्योंकि अब तू उसी के नाम के द्वार को पहुंच रहा है--बल और धैर्य का द्वार।
अपनी आंखों को बंद मत कर, और दोरजे (सुरक्षा के वज्र) से अपनी दृष्टि को मत हटा। काम के बाण उस व्यक्ति को बद्ध कर देते हैं, जो विराग को प्राप्त नहीं हुआ है।
कंपन से सावधान! भय की सांस के नीचे पड़ने से धैर्य की कुंजी में जंग लग जाता है और जंग लगी कुंजी ताले को नहीं खोल सकती।

शुक्रवार, 30 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग-2) प्रवचन--15

त्‍वरा से जीना ध्‍यान है—प्रवचन—पंद्रहवां
जिन सूत्र--(भाग-2)
सूत्र:

सीसं जहा सरीरस्‍स, जहा मूलस दुमस्‍स य।
सव्‍वस्‍स साधुधम्‍मस्‍स, तहा झाणं विधीयते।। 117।।

लवण व्‍व सलिजजोए, झाणे चितं विलीयए जस्‍स
तस्‍स सुहासुहडहणो, अप्‍पाउणलो पयासेइ।। 118।।

जस्‍सविज्‍जदि रागो, दोसो मोहो व जोग परिक्‍कमो
तस्‍स सुहासुहडहाणो, झाणमओ जायए अग्‍गी।। 119।।

पलियंकं बंधेउं, निसिद्धमणवयणकायवावारो
नासग्‍गनिमियनयणो, मन्‍दीकयसासनीसासो।। 120।।


गरहियनियदुच्‍चरिओ,  खामियसत्‍तो नियत्‍तियपमाओ
निच्‍चलचित्‍तो तास झाहि, जाव पुरओव्‍व पडिहाइ।। 121।।

थिरकयजोगाणं पुण, मुणीणझाने सुनिच्‍चलमणाणं
गामम्‍मि जणाइण्‍णे, सुण्‍णे रण्‍णे व ण विसेसो।। 122।।

गीता दर्शन-(भाग--3) प्रवचन--062

हृदय की अंतर-गुफा (अध्याय-6) प्रवचन—पांचवां

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु
साधुष्वपिपापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते।। 9।।

और जो पुरुष सुहृद, मित्र, बैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेषी और बंधुगणों में तथा धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव वाला है, वह अति श्रेष्ठ है।
कृष्ण के लिए समत्वबुद्धि समस्त योग का सार है। इसके पूर्व के सूत्रों में भी अलग-अलग द्वारों से समत्वबुद्धि के मंदिर में ही प्रवेश की योजना कृष्ण ने कही है। इस सूत्र में भी पुनः किसी और दिशा से वे समत्वबुद्धि की घोषणा करते हैं। बहुत-बहुत रूपों में समत्वबुद्धि की बात करने का प्रयोजन है।

प्रयोजन है, भिन्न-भिन्न, भांति-भांति प्रवृत्ति और प्रकृतियों के लोग हैं। समत्वबुद्धि का परिणाम तो एक ही होगा, लेकिन यात्रा भिन्न-भिन्न होगी। हो सकता है, कोई सुख और दुख के बीच समबुद्धि को साधे। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि सुख और दुख के प्रति किसी व्यक्ति की संवेदनशीलता ही बहुत कम हो।

गुरुवार, 29 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--14

जीवन तैयारी है, मृत्‍यु परीक्षा है—प्रवचन—चौदहवां
जिन सूत्र--(भाग--2) 
प्रश्‍नसार:

1—भगवान श्री की आंखों से निरंतर आशीर्वाद की वर्षा। उनके दृष्‍टि पात मित्र से शरीर में कंपन व अंतर्तम में बर्छी की चुभन। मृत्‍यु घटित होती—सी लगती है। फिर भी आत्‍यंतिक—मृत्‍यु क्‍यों नहीं?

2—भगवान श्री के सान्‍निध्‍य से भीतर प्रेम—प्रवाह प्रारंभ—हर व्‍यक्‍ति, हर वस्‍तु के प्रति। प्रेम पूरित होकर किसी से गले लगने को बढ़ने पर दूसरे द्वारा संकोच व अनुत्‍साह, प्रश्‍न कर्ता का पीछे हाट जाना। मार्गदर्शन की मांग।

3—तूने आटा लगाया और फंसाया। अब हम अकेले तड़प रहे है। जिम्‍मेवार कौन?

4—भगवान श्री,  तेरी रजा पूरी हो।

गीता दर्शन (भाग--3) प्रवचन--061

ज्ञान विजय है (अध्याय-6) प्रवचन—चौथा


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः।। 7।।

और हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी और सुख-दुखादिकों में तथा मान और अपमान में जिसके अंतःकरण की वृत्तियां अच्छी प्रकार शांत हैं अर्थात विकाररहित हैं, ऐसे स्वाधीन आत्मा वाले पुरुष के ज्ञान में सच्चिदानंदघन परमात्मा सम्यक प्रकार से स्थित है अर्थात उसके ज्ञान में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं।

सुख-दुख में, प्रीतिकर-अप्रीतिकर में, सफलता- असफलता में, जीवन के समस्त द्वंद्वों में जिसकी आंतरिक स्थिति डांवाडोल नहीं होती है; कितने ही तूफान बहते हों, जिसकी अंतस चेतना की ज्योति कंपती नहीं है; जो निर्विकार भाव से भीतर शांत ही बना रहता है--अनुद्विग्न, अनुत्तेजित--ऐसी चेतना के मंदिर में, परम सत्ता सदा ही विराजमान है, ऐसा कृष्ण ने अर्जुन से कहा। तीन बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन--05

प्रवेश द्वार—प्रवचन—पांचवां

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि 11 फरवरी 1973,

दान, प्रेम और करुणा की कुंजी पाकर तू दान के द्वार पर सुरक्षित खड़ा होगा। यही मार्ग का प्रवेश द्वार है।
ओ प्रसन्न तीर्थयात्री, देख जो द्वार तुझे दीख रहा है, वह ऊंचा और बड़ा है और प्रवेश के लिए आसान मालूम पड़ता है। और उससे होकर जो पथ जाता है, वह सीधा और चिकना तथा हरा-भरा है। अंधेरे वन की गहराइयों में यह प्रकाशित वन-पथ की तरह है--एक स्थान जो अमिताभ के स्वर्ग से प्रतिबिंबित होता है, वह चमकीले पंख वाले पक्षी, आशा के बुलबुल हरे लता-कुंजों में बैठकर निर्भय यात्रियों के लिए सफलता का गीत गाते हैं। वे बोधिसत्व के पांच सदगुणों को गाते हैं। जो बोधिशक्ति के पांच स्रोत हैं, और वे ज्ञान के सात चरणों को गाते हैं।

बढ़ा चल, क्योंकि तू कुंजी लाया है, तू सुरक्षित है।

बुधवार, 28 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--13

गुरु है मन का मीत—प्रवचन—तेरहवां
जिन सूत्र--(भाग--2) 
सूत्र:

जह कंटएण विद्धो, सव्‍वंगे वेयणद्दिओ होइ।
तह चेव उद्धियम्‍मि, निस्‍सल्‍लो निटवुओ होइ।।
एवमणुद्धियदोसो, माइल्‍लो तेणं दुक्‍खिओर होइ।
सो चेव चत्‍त दोसो, सुविसुद्धो निव्‍वुओ होई।। 113।।

णाणेण ज्‍झाणादो सव्‍वकम्‍मणिज्‍जरणं
णिज्‍जरणफलं मोक्‍खं, णाणब्‍भासं तदो कुज्‍जा।। 114।।

तेसिं तु तवोसुद्धो, निक्‍खंता जे महाकुल्‍ला
जं नेवन्‍ने वियाणंति,सिलोगं पवेज्‍जइ।। 115।।


नाणमयवायसहिओ, सीलुज्‍जलिओ तवो मओ अग्‍गी
संसारकरणवीयं, दहइ दवग्‍गीरणरासिं।। 116।।

गीता दर्शन--(भाग--3) प्रवचन--060

मालकियत की घोषणा—(अध्याय-6) प्रवचन—तीसरा


उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। 5।।

और यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा आपका संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुंचावे। क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है अर्थात और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है।

योग परम मंगल है। परम मंगल इस अर्थ में कि केवल योग के ही माध्यम से जीवन के सत्य की और जीवन के आनंद की उपलब्धि है। परम मंगल इस अर्थ में भी कि योग की दिशा में गति करता व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है। और योग के विपरीत दिशा में गति करने वाला व्यक्ति अपना ही शत्रु सिद्ध होता है।
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, उचित है, समझदारी है, बुद्धिमत्ता है इसी में कि व्यक्ति अपनी आत्मा का अधोगमन न करे, ऊर्ध्वगमन करे।
और ये दोनों बातें संभव हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

मंगलवार, 27 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--12

ज्ञान ही क्रांति—प्रवचन—बारहवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्‍नसार:

1—चित्‍त की दशा को आपने बाधा बताया। चित्‍त की दशा ही तो हमें आपके पास ले आयीं? बुद्धि को भी आपने बाधा बाताया। पर मैं आपके इर्द—गिर्द बुद्धिमान लोगों को भरे देखता हूं?

2—आचार्य रजनीश को सुनता था—निपट सीधा साफ। प्‍यारे भगवान को भी सुनता हूं—आड़े आते है, बुद्ध, महावीर जीसस, शंकर आदि। स्‍वयं सीधे प्रकट होने की बजाय आड़ लेकर आने के पीछे रहस्‍य क्‍या?

3—जैन—कुटुंब में जन्‍म। तीन वर्षो से भगवन श्री को पढ़ना। संन्‍यस्‍त भी। फिर पारे की तरह बिखरते जाना। जिन—सूत्र पर भगवान के प्रवचन अच्‍छे लगना। भोग में रस बहुत। परंपरा और संस्‍कार पांवों में बेड़ी की तरह। बहुचित और विक्षिप्‍त होते जाना, टूटते जाना। मार्ग दर्शन की मांग।

सोमवार, 26 मई 2014

गीता दर्शन--(भाग--3) प्रवचन--058


गीता दर्शन—(भाग-3)
ओशो


कृष्‍ण कोई व्‍यक्‍ति की बात नहीं है;
कृष्‍ण तो चैतन्‍य की एक घड़ी है,
चैतन्‍य की एक दशा है, परम भाव है।
जब भी कोई व्‍यक्‍ति परम को उपलब्‍ध हुआ।
और उसने फिर गीता पर कुछ कहा,
तब—तब गीता से पुरानी राख झड़ गई,
फिर गीता नया अंगारा हो गई।
ऐसे हमने गीता को जीविंत रखा है।
समय बदलता गया,
शब्‍दों के अर्थ बदलते गये,
लेकिन गीता को हम नया जीवन देते चले गए।
गीता आज भी जिंदा है।

ओशो


कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास (अध्याय-6) प्रवचन—पहला


श्रीमद्भगवद्गीता
अथ षष्ठोऽध्यायः

जिन सूत्र-(भाग--2) प्रवचन--11

समता ही सामायिक—प्रवचन—ग्‍यारहवां
             जिन सूत्र-(भाग--2) 
               सारसूत्र:
इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए।। 108।।

समभावो समाइयं, तणकंचणसत्‍तुमित्‍तविसओ त्‍ति
निरभिस्‍संगं चित्‍तं, उच्‍चियपवित्‍तिप्‍पहांण।। 109।।

वयणोच्‍चारणकिरियं, परिचत्‍ता वीयरायभावेण
जो झायदि अप्‍पाणं, परम समाही हवे तस्‍स।। 110।।

झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्‍वदोसाणं
तम्‍हा दु झाणमेव हि, सव्‍वउदिचारस्‍स पडिक्‍कमणं।। 111।।


णियभावं ण वि मुच्‍चइ, परभांव णेव गेण्‍हए केइं
जाणदि पस्‍सदि सव्‍वं, सोउहं इदि चिंतए णाणी।। 112।।

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लवट्स्‍की)-प्रवचन--04

सम्यक जीवन—प्रवचन-चौथा

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; प्रातः 11 फरवरी 1973,

शिक्षक अनेक हैं, लेकिन परम गुरु एक ही है--जिसे आलय या विश्वात्मा कहते हैं। उस परम सत्ता में ऐसे ही जी, जैसे उसकी किरण तुझमें जीती है। और प्राणी मात्र में ऐसे जी, जैसे वे परम सत्ता में जीते हैं।
मार्ग की देहली पर खड़ा होने के पूर्व, अंतिम द्वार को पार करने के पहले तुझे दोनों को एक में निमज्जित करना है और व्यक्ति-सत्ता को परम-सत्ता के लिए त्यागना है। और इस तरह दोनों के बीच में जो पथ है, जिसे अंतःकरण कहते हैं, उसे नष्ट कर डालना है।
तुझे धर्म को, उस कठोर नियम को उत्तर देना होगा, जो तुझसे तेरे पहले ही कदम पर पूछेगा:
उच्चाशी, क्या तूने सभी नियमों का पालन किया है?

रविवार, 25 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--10

दूख की स्‍वीकृति: महासुख की नींव—प्रवचन—दसवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्‍नसार:

1—प्रवचन में आप द्वारा एक हाथ से तो हम पर करारी चोट और दूसरे हाथ से सुगंध व फूल लुटाना। दोनों से एक—साथ गुजरने में आपको कठिनाई नहीं होती?

2—समता व आनंद के दीये का अधिक समय तक स्‍थित रहने के बावजूद भी कभी—कभी टिमटिमाने लगना। निर्माण की भूमिका अथवा किसी शिथिलता का परिमाण? अकंप सम्‍यकत्‍व व आनंद हेतु भगवान से मार्ग प्रकाशन की मांग।

3—हर प्रात: भगवान को देखने व सुनने के लिए आना, पर दोनों रस एक साथ न ले पाना। सुनने में आँख का बंद होना, देखने पर सुनने का काम होना। कैसे दोनों का साथ—साथ आस्‍वादन हो?


4—समर्पण व अंधानुकरण में अंतर क्‍या?

5—सिद्ध होकर आपको क्‍या मिला? क्‍या ईश्‍वर निश्‍चयपूर्वक है?

समाधि के सप्‍त द्वार-(ब्‍लावट्सकी) प्रवचन--03

सम्यक दर्शन—प्रवचन—तीसरा

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि 10 फरवरी 1973,

हे शिष्य, इसके पहले कि तू गुरु के साथ और प्रभु के साथ साक्षात्कार के योग्य हो सके, तुझे क्या कहा गया था?
अंतिम द्वार पर पहुंचने के पहले तुझे अपने मन से अपने शरीर को अलग करना सीखना है, छाया को मिटा डालना है और शाश्वत में जीना सीखना है। इसके लिए तुझे सर्व में जीना और श्वास लेना है, वैसे ही जैसे वह जिसे तू देखता है, तुझमें श्वास लेता है। और तुझे सर्व भूतों में स्वयं को और स्वयं में सर्व भूतों को देखना है।
तू अपने मन को अपनी इंद्रियों की क्रीड़ाभूमि नहीं बनने देगा।
तू अपनी सत्ता को परम सत्ता से भिन्न नहीं रखेगा, वरन समुद्र को बूंद और बूंद को समुद्र में डुबा देगा।
इस प्रकार तू प्राणिमात्र के साथ पूरी समरसता में जीएगा, सभी मनुष्यों के प्रति ऐसा प्रेम-भाव रखेगा, जैसे कि वे तेरे गुरु-भाई हैं--एक ही शिक्षक के शिष्य और एक ही प्यारी मां के पुत्र।

शनिवार, 24 मई 2014

जिनसूत्र-(भाग--2) प्रवचन--09

प्रेम का आखिरी विस्‍तार: अहिंसा—प्रवचन—नौवां
जिनसूत्र-(भाग--2)
सूत्र:

सव्वेसिमासमाणं, हिदयं गब्भोसव्वसत्थाणं
सव्वेसिं वदगुणाणं, पिंडो सारो अहिंसा हु।। 102।।

न सो परिग्‍गहो तुत्‍तो, नायपुत्‍तेण ताइणा
मुच्‍छा परिग्‍गहो बुत्‍तो, इइ बुतंमेहसिणा।। 103।।

मरदुजियदुजीवो, अयदाचारस्‍स णिच्‍छिदा हिंसा।
पयदस्‍स णत्‍थि बंधो, हिंसामत्‍तेण समिदीसु ।। 104।।


आहच्‍च हिंसा समितस्‍स जा तू, सा दव्‍वतो होति ण भावतो उ।
भावेण हिंसा तु असंजतस्‍सा, जो वा वि सत्‍त ण सदा वधेति।।
संपति तस्‍ससेव जदा भविज्‍जा, सा दव्‍वहिंसा खलु भावतो य।
अज्‍झत्‍थ सुद्धस्‍स जदाहोज्‍जा, वधेण जोगो दुहतो वउहिंसा ।। 105।।

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--057

काम-क्रोध से मुक्ति (अध्याय—5) प्रवचन—उन्‍नतिसवां



लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।। 25।।

और नाश हो गए हैं सब पाप जिनके, तथा ज्ञान करके निवृत्त हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में है रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान के ध्यान में चित्त जिनका, ऐसे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत परब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

पाप से हो गए हैं जो मुक्त, चित्त की वासनाएं जिनकी शांत हुईं, जो स्वयं में एक शांत झील बन गए हैं, वे शांत ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं।
अर्जुन तो चाहता था केवल पलायन। नहीं सोचा था उसने कि कृष्ण उसे एक अंतर-क्रांति में ले जाने के लिए उत्सुक हो जाएंगे। उलझ गया बेचारा। सोचा था, सहारा मिलेगा भागने में। नहीं सोचा था कि किसी आत्मक्रांति से गुजरना पड़ेगा। उसकी मर्जी जिज्ञासा शुरू करने की इतनी ही थी, इस युद्ध से कैसे बच जाऊं। कोई नए जीवन को उपलब्ध करने की आकांक्षा नहीं है।

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन--02

प्रथम दर्शन--प्रवचन--दूसरा

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि 10 फरवरी, 1973

वह देख, ईश्वरीय प्रज्ञा के मुमुक्षु, तू अपनी आंखों के सामने क्या देख रहा है?
पदार्थ के समुद्र पर अंधकार का आवरण पड़ा है और उसके भीतर ही मैं संघर्षरत हूं। मेरी दृष्टि की छाया में वह गहराता है, और आपके हिलते हाथ की छाया में वह विच्छिन्न हो जाता है। सांप के फैलते केंचुल की तरह एक छाया गतिवान होती है यह बढ़ती है, फूलती-फैलती है, और अंधकार में विलीन हो जाती है।
यह मार्ग के बाहर तेरी ही छाया है--तेरे ही पापों के अंधकार से बनी है।
हां, प्रभु मैं तेरे मार्ग को देखता हूं। इसका आधार दलदल में है और इसका शिखर निर्वाण के दिव्य व गौरवमय प्रकाश से मंडित है। और अब मैं ज्ञान के कठिन और कंटकाकीर्ण पथ पर निरंतर संकीर्ण होते जाते द्वारों को भी देखता हूं।
लानू (शिष्य) तू ठीक देखता है। ये द्वार मुमुक्षु को नदी के पार दूसरे किनारे पर निर्वाण में पहुंचा देते हैं। प्रत्येक द्वार की एक स्वर्ण-कुंजी है, जो उसे खोलती है। ये कुंजियां हैं: