समाज परिवर्तन के चौराहे पर-प्रवचन-छठवां
मेरे प्रिय आत्मन् ,
समाज
परिवर्तन के चौराहे पर--इस संबंध में थोड़ी-सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। आज सबसे
पहले यह आपसे कहना चाहूंगा कि समाज बाद में बदलता है, पहले
मनुष्य का मन बदल जाता है। और हमारा दुर्भाग्य है कि समाज तो परिवर्तन के करीब
पहुंच रहा है, लेकिन हमारा मन बदलने को बिलकुल भी राजी नहीं
है। समाज के बदलने का सूत्र ही यही है कि पहले मन बदल जाए, क्योंकि
समाज को बदलेगा कौन?
चेतना
बदलती है पहले,
व्यवस्था बदलती है बाद में। लेकिन हमारी चेतना बदलने को बिलकुल भी
तैयार नहीं है। और बड़ा आश्चर्य तो तब होता है कि वे लोग, जो
समाज को बदलने के लिए उत्सुक हैं, वे भी चेतना को बदलने के
लिए उत्सुक नहीं हैं। शायद उन्हें पता ही नहीं है कि चेतना के बिना बदले समाज कैसे
बदलेगा! और अगर चेतना के बिना बदले समाज बदल भी गया तो वह बदलाहट वैसी ही होगी,
जैसा आदमी न बदले और सिर्फ वस्त्र बदल जाएं, कपड़े
बदल जाएं। वह बदलाहट बहुत ऊपरी होगी और हमारे भीतर प्राणों की धारा पुरानी ही बनी
रहेगी।
इस
देश का मन समझना जरूरी है तभी उस मन को बदलने की बात भी हो सकती है; क्योंकि
जिसे बदलना हो उसे ठीक-से समझ लेना आवश्यक है। इस देश का मन अब तक कैसा था?
क्योंकि उस मन के कारण ही यह देश जैसा रहा, वैसा
रहा। यह देश अगर नहीं बदला पांच हजार वर्षों तक, अगर इस देश
में कोई क्रांति नहीं हुई, तो कारण इसकी चेतना में कुछ तत्व
थे जिनके कारण क्रांति असंभव हो गई। और वे तत्व अभी भी मौजूद हैं। इसलिए क्रांति
की बात सफल नहीं हो सकती जब तक वे तत्व भीतर से टूट न जाएं।
जैसे, इस देश का
मन-मानस, प्रतिभा--पूरे अतीत के इतिहास में, विचार पर नहीं विश्वास पर आधारित रही है। और जो देश, जो मन, जो चेतना विश्वास पर आधारित होती है, वह अनिवार्यरूपेण अंधी हो जाती है; उसके पास
सोच-विचार की क्षमता क्षीण हो जाती है। मनुष्य के जीवन का यह अनिवार्य वैज्ञानिक
अंग है कि हम जिन अंगों का उपयोग करते हैं वे विकसित होते हैं, जिन अंगों का उपयोग नहीं करते हैं वे पंगु हो जाते हैं। एक बच्चा पैदा हो
और उसके पैर हम बांध दें, बीस साल बाद उसके पैर खोलें तो
उसके पैर मर चुके होंगे; वह उन पैरों से कभी भी न चल सकेगा।
और यह भी हो सकता है कि बीस साल बाद हम उससे कहें कि इसीलिए तो हमने तेरे पैर
बांधे थे कि तू पैरों से चल ही नहीं सकता है। और तब वह भी हमारी बात पर भरोसा
करेगा; क्योंकि चल कर देखेगा और गिरेगा। अगर आंखें बंद रखी
जाएं बीस वर्षों तक तो आंखें रोशनी खो देंगी। हम जिस हिस्से का प्रयोग बंद कर
देंगे वह समाप्त हो जाएगा। जीवन का आधारभूत नियम है कि हम जिस हिस्से का जितना
प्रयोग करते हैं, वह उतना विकसित होता है।
यह
जिंदगी ऐसी है,
जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता है। वह जब तक पैडल चलाता है तब तक
साइकिल चलती है; पैडल रोक लेता है, तो
साइकिल भी रुक जाती है। ऐसा नहीं है कि आपने दो घंटे पैडल चला लिए तो अब कोई चलाने
की जरूरत नहीं है! पैडल चलाते ही रहना पड़ेंगे।
मनुष्य
की प्रतिभा विचार से विकसित होती है, विश्वास से कुंठित हो जाती है।
भारत का मन आज भी विश्वासी है। ऐसा नहीं है कि बूढ़ा आदमी विश्वासी है। जिसे हम
युवक कहते हैं, वह भी उतना ही विश्वासी है। और तब बहुत ही
निराशा भी प्रतीत होती है कि क्या हो सकेगा!
युवक
इतना विद्रोह करते हुए दिखाई पड़ते हैं, वह विद्रोह बहुत ऊपरी है। उस
विद्रोह में बहुत गहरे प्राण नहीं हैं, क्योंकि भीतर उस युवक
के मन में भी वही विश्वास की दुनिया अभी भी खड़ी हुई है।
मैं
एक इंजीनियर के घर का उदघाटन करने गया था। बड़े इंजीनियर हैं, जर्मनी से
शिक्षित हुए हैं, और पंजाब के एक बड़े नगर में उन्होंने एक
मकान बनाया है। मेरे लिए रुके थे कि मैं आऊं तो उनके मकान का उदघाटन कर दूं। मैं
गया, उनके मकान का फीता काट रहा था, तब
मैंने देखा कि मकान के सामने एक हंडी लटकी हुई है! हंडी के ऊपर आदमी के बाल हैं और
हंडी पर आदमी का चेहरा बना हुआ है! मैंने पूछा, यह क्या है?
उन्होंने
कहा कि मकान को नजर न लग जाए!
मैंने
कहा कि इंजीनियर होकर तुम जर्मनी से लौटे! मकान को भी नजर लगती है?
वे
कहने लगे कि नहीं,
मैं तो नहीं मानता हूं, लेकिन और सब लोग कहते
हैं तो मैंने सोचा हर्ज क्या है!
मैंने
कहा, हर्ज बहुत बड़ा है। क्योंकि जब जर्मनी से लौटा हुआ इंजीनियर भी मकान को नजर
लगने का इंतजाम करता हो बचाने का, तो पास-पड़ोस का ग्रामीण
आदमी क्या करेगा? उसे भरोसा मिलेगा कि ठीक है। तुम शिक्षित
होकर अशिक्षित मान्यताओं को बल दे रहे हो।
मैं
एक डाक्टर के घर में मेहमान था कलकत्ते में। सांझ को निकलता था, मुझे लेकर
जा रहे थे, उनकी लड़की को छींक आ गई। उन्होंने कहा, एक मिनट रुक जाएं!
मैंने
उनसे कहा, आप डाक्टर हो और भली-भांति जानते हो कि आपकी लड़की की छींक से मेरा कोई भी
लेना-देना नहीं है। और आपकी लड़की को छींक आए तो किसी के रुकने की कोई जरूरत नहीं
है। और भली-भांति जानते हो कि छींक के आने के कारण क्या हैं।
डाक्टर
ने कहा, भली-भांति जानता हूं कि छींक क्यों आती है। लेकिन रुकने में हर्ज क्या है?
वह
हमारा जो भीतर गहरे में दबा हुआ मन है, वह समझौता खोज रहा है, कंप्रोमाइज खोज रहा है। अब ये डाक्टर का चेतन मन जानता है कि छींक का क्या
अर्थ है, लेकिन इसका अचेतन है, इसका
अनकांशस है जो समाज ने इसे दिया था। वह कहता है, रुक भी जाओ,
दोनों के बीच समझौता कर लो। जानते हैं कि छींक क्यों आई है, लेकिन फिर भी, न जानने के समय में जो विश्वास बनाया
था, वह भी काम कर रहा है; वह भी हटता
नहीं है।
विद्यार्थी
आंदोलन करेगा,
मोर्चे उठाएगा, हड़तालें करेगा, विरोध करेगा, कांच तोड़ेगा, बसें
जलाएगा--और परीक्षा के समय वह भी हनुमान जी के मंदिर के पास दिखाई पड़ेगा! परीक्षा
के वक्त वह भी हाथ जोड़ कर प्रार्थना करने लगेगा। परीक्षा के समय उसे भी परमात्मा
वापस सार्थक मालूम होने लगेगा।
हमारा
ऊपर का मन तो शिक्षित हुआ है, उसने थोड़ा-बहुत सोच-विचार शुरू किया है,
लेकिन भीतर का गहरा मन अब भी विश्वास में दबा है। उस गहरे मन को
बिना बदले हुए यह समाज परिवर्तित नहीं हो सकता है। क्यों? क्योंकि
विश्वास के अपने नियम हैं, विचार के अपने नियम हैं। विचार
में विद्रोह छिपा है सदा। विचार विद्रोही है। आप विचार करेंगे तो विद्रोही हो ही
जाएंगे। अगर विचार किया तो आपको बहुत चीजें गलत दिखाई पड़ने लगेंगी। और जो गलत
दिखाई पड़ने लगेगा उसके साथ खड़े रहना असंभव हो जाएगा।
इसलिए
दुनिया के सभी शोषक--चाहे वे राजनेता हों और चाहे धर्मगुरु हों--मनुष्य के मन को
विचार करने से रोकने का सारा इंतजाम करते हैं; क्योंकि विचार विद्रोह ले आएगा। आज
नहीं कल, विचार के पीछे विद्रोह की छाया आने ही वाली है।
इसलिए विचार को ही तोड़ दो, ताकि विद्रोह न आ सके। और विचार
की जगह विश्वास के बीज बोओ, क्योंकि विश्वास कभी विद्रोह
नहीं करता; विश्वास विद्रोह कर ही नहीं सकता। जितना बिलीविंग
माइंड है, जितना विश्वास करने वाला चित्त है, उतना अविद्रोही, प्रतिगामी, रिएक्शनरी,
पुराने को पकड़ कर रुका रहने वाला मन होता है।
हम
अब भी विश्वासी हैं,
इसलिए समाज बदलेगा नहीं। समाज के वस्त्र ही बदल पाएंगे, आत्मा नहीं। और आत्मा पुरानी हो और वस्त्र नए हो जाएं तो अत्यंत बेचैनी
शुरू हो जाती है, क्योंकि समाज का व्यक्तित्व तब सीजोफ्रेनिक
हो जाता है; समाज के व्यक्तित्व के दो हिस्से हो जाते हैं।
और जब विपरीत हिस्से एक ही साथ समाज में हो जाते हैं, तब
भीतर इनर टेंशन और एक आंतरिक तनाव और विरोध और द्वंद्व और तकलीफ शुरू हो जाती है।
यह
हमारी स्थिति है;
हम सीजोफ्रेनिक, खंड-खंड, विरोधी खंडों में बंट जाने के लिए तैयार खड़े हैं। पुराना मन अपने सूत्रों
के साथ काम कर रहा है, नए मन की पर्त ऊपर से बैठती जा रही
है। पुराने मन में मनु हैं, याज्ञवल्क्य हैं; नए मन में माक्र्स और फ्रायड हैं। और सब एक साथ हैं। और भारत का मन एक
अजीब तरह की खिचड़ी हो गया है, जिसमें सफाई नहीं है; जिसमें क्लैरिटी नहीं है; जिसमें स्पष्ट निर्णय नहीं
है; और जिसके पास स्पष्ट रेखाओं वाला व्यक्तित्व नहीं है,
जिसके भीतर सब है। जिसके पास बैलगाड़ी की दुनिया में पैदा किए गए
विश्वास हैं और जेट की दुनिया में पैदा किए गए विचार हैं। हजारों सदियों का फासला
एक ही साथ मौजूद है। हमारी सड़क जैसी हालत है हमारे मन की भी। उस पर बैलगाड़ी भी चल
रही है, उस पर कार भी चल रही है, उससे
भैंस भी गुजर रही है, उससे ऊंट भी निकल रहा है, उससे पैदल आदमी भी जा रहा है। ऊपर हवाई जहाज भी उड़ रहा है।
हजारों
सदियां एक साथ सूरत की सड़क पर देखी जा सकती हैं। ऐसा ही हमारा मन भी है। उसमें भी
हजारों सदियां हैं और हर सदी के दिए गए अलग-अलग विश्वास, विचार,
वे सब इकट्ठे हो गए हैं। इस चित्त को समझ लेना जरूरी है, अन्यथा बदलना मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए
पहली बात आपसे यह कहना चाहता हूं कि अगर समाज में परिवर्तन चाहिए--और चाहे बिना
कोई उपाय नहीं है--तो हमारे मन के विश्वास के आधार अलग कर देने होंगे; विचार
करना शुरू करना पड़ेगा।
विचार
करना कष्टपूर्ण है,
विश्वास करना सुविधापूर्ण है, कन्वीनिएंट है;
क्योंकि विश्वास करने में हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ विश्वास करना पड़ता है। विचार करने में हमें बहुत कुछ करना पड़ता है।
विचार करने में हमें ही निष्कर्ष तक पहुंचना पड़ता है। विचार में एक यात्रा है,
विश्वास में विश्राम है।
तो
भारत का मन विश्राम कर रहा है हजारों साल से; विश्वास की छाया में आंख बंद किए
पड़ा है। मान लिया है, इसलिए खोजने की जरूरत नहीं रही है।
इसीलिए भारत में साइंस पैदा नहीं हो सकी। हो सकती थी सबसे पहले। सारी पृथ्वी पर
सबसे पहले यह जमीन सभ्य हुई, सबसे पहले पृथ्वी पर इस जमीन ने
भाषा को जन्माया। सबसे पहले पृथ्वी पर इस जमीन को गणित का बोध आया।
जिनके
पास सारे सूत्र आ गए थे सबसे पहले, वे आज सबसे पीछे खड़े हैं--एक
मिरेकल है, एक चमत्कार है। गणित हमने खोजा। यह एक दो तीन चार
से नौ तक की जो गिनती है, यह सारी दुनिया में हमसे फैली है।
यह हमसे गई सारी दुनिया में। लेकिन आइंस्टीन हम पैदा नहीं करते, आइंस्टीन कोई और पैदा करता है। न्यूटन हम पैदा नहीं करते, वह कोई और पैदा करता है। सबसे पहले जिन्होंने गणित पैदा किया, गणित की ऊंचाइयां वे क्यों न छू सके? सबसे पहले
जिन्होंने भाषा पैदा की, वे विचार की ऊंचाइयां क्यों न छू
सके?
आज
से कोई पांच हजार साल पहले हमने सभ्यता को सबसे पहले जन्म दिया। लेकिन हमने नींव
भर कर छोड़ दी,
ऊपर का भवन नहीं बनाया। वह भवन किन्हीं और ने बना लिया है। आज हम
उन्हीं के सामने भीख मांगते हुए खड़े हैं।
दुनिया
की सारी भाषाएं करीब-करीब संस्कृत से जन्मी हैं। रूस की भाषा में कोई बीस प्रतिशत
शब्द संस्कृत के हैं। लिथियानियन में कोई पचहत्तर प्रतिशत शब्द संस्कृत के हैं।
ग्रीक या रोमन,
या अंग्रेजी, या जर्मन, सारी
भाषाएं संस्कृत से उधार हैं।
गणित
हमसे फैला और सारे जगत में गया। लेकिन विचार हम न कर पाए और हम विश्वास से घिरते
चले गए। विश्वास से जो हो गया उसे स्वीकार करके बैठ गया। फिर पांच हजार साल उसने
कोई यात्रा न की। वह अपनी संस्कृत की किताब लिए दोहराता रहा। बार-बार दोहराता रहा।
आवृत्ति और पाठ करता रहा। जो उसने पा लिया था उसका गुणगान करता रहा।
लेकिन
ध्यान रहे, जो हमने पाया है, उसे भी बचाना हो तो रोज नए को पाते
रहना होता है। जो हमने पा लिया है उसकी सुरक्षा के लिए भी रोज नए को पाने की जरूरत
पड़ती है। एक आदमी धन कमाता है, अगर उसने दस हजार रुपए पा लिए
हैं तो वह भली-भांति जानता है कि ये दस हजार भी न बचेंगे अगर ग्यारहवां हजार नहीं
पैदा किया जाता है। ये दस हजार भी बचाने हैं तो ग्यारहवां हजार पैदा होता रहना
चाहिए; नहीं तो ये दस हजार भी खो जाएंगे।
इस
जगत में या तो आगे जाओ या पीछे जाना पड़ता है; खड़े होने के लिए कोई उपाय नहीं है।
यहां ठहर कर खड़े नहीं हो सकते हैं। अगर अपनी ही जगह पर भी खड़ा रहना हो तो भी आगे
के लिए दौड़ते रहने की जरूरत पड़ती है। और अगर किसी ने सोचा कि जहां खड़े हैं वहीं
खड़े रहें तो आगे जाना बंद हो जाता है और पीछे जाना तत्काल शुरू हो जाता है;
क्योंकि जगत में दो ही गतियां हैं--बढ़ो या गिरो; रुक नहीं सकते।
एडिंग्टन
ने अपने संस्मरणों में एक बहुत अदभुत बात लिखी है। उसने लिखा है कि मैं सारी भाषा
में खोजबीन करके एक शब्द को बिलकुल झूठ पाया और वह शब्द है रेस्ट, विश्राम।
रेस्ट जैसी कोई स्थिति जगत में है ही नहीं, एक क्षण को भी
कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। या तो आगे जा रही है या पीछे जा रही है--जा रही है।
बुद्ध
तो कहते थे, है शब्द का प्रयोग ही गलत है। क्योंकि प्रत्येक चीज हो रही है, है की स्थिति में कोई चीज नहीं है।
हम
कहते हैं, नदी है। गलत कहते हैं; नदी हो रही है।
हम
कहते हैं, बूढ़ा है। गलत कहते हैं; बूढ़ा हो रहा है।
हम
कहते हैं, जवान है। गलत कहते हैं; जवान हो रहा है।
हर
चीज होने की हालत में है,
है की हालत में कोई भी चीज नहीं है। कोई चीज कहीं ठहरी हुई नहीं है,
सब चीजें हो रही हैं। लेकिन भारत विश्वास को पकड़ कर, होने की प्रक्रिया छोड़ कर, है की प्रक्रिया में
विश्राम करने लगा। हां, विश्वास एक जरूर ऐसी चीज है जो है।
एडिंग्टन अगर मुझे मिलता तो उससे मैं कहता कि तुम गलत कहते हो, एक चीज है जो रेस्ट में सदा रहती है, वह है बिलीफ।
वह कभी होती नहीं, वह जहां है वहीं रहती है।
विश्वास
जो है वह सदा ठहरा हुआ है। उसमें कोई गति नहीं, कोई कंपन नहीं, कोई आगे-पीछे कुछ भी नहीं है; वह जहां है वहीं है।
इसलिए विश्वास जगत में सबसे मरी हुई चीज है। क्योंकि जिंदगी का लक्षण है, होना; मृत्यु का लक्षण है, न
होने की स्थिति में हो जाना। विश्वास मरी हुई चीज है। लेकिन मरी हुई चीजें
कन्वीनिएंट होती हैं, सुविधापूर्ण होती हैं। अगर आपके घर में
दस आदमी जिंदा हैं तो बहुत तरह के उपद्रव होंगे, और अगर दस
आदमी मरे हुए हैं तो कोई उपद्रव नहीं होगा। मरघट पर कोई उपद्रव होते हैं? कोई उपद्रव नहीं होता।
जिंदगी
के साथ उपद्रव है,
मृत्यु के साथ कोई उपद्रव नहीं है।
हमें
शायद यह समझ में आ गया है कि विश्वास के साथ सुविधा से जी सकेंगे। नहीं, मैं आपसे
कहता हूं, विश्वास के साथ सुविधा से मर सकेंगे। जीना हो तो
जीना तो सुविधा के साथ नहीं हो सकता; जीना हो तो श्रम के साथ
होगा; जीना हो तो परिवर्तन के साथ होगा; जीना हो तो संघर्ष के साथ होगा।
विचार
के साथ विद्रोह है,
विश्वास के साथ संतोष है। विचार के साथ गति है, विश्वास के साथ मृत्यु है। विश्वास के साथ अतीत है, विचार
के साथ भविष्य है।
हमें
भारत के मन से विश्वास की जड़ें उखाड़ कर फेंक देनी पड़ें तो हम विचार का बीज बो सकते
हैं, अन्यथा नहीं संभव हो पाएगा। और अगर हमने विश्वास की जड़ें भीतर रहने दीं और
ऊपर से विचार के बीज बो दिए, तो वह जो भारत का गहरा विश्वासी
मन है, वह विचार पर भी विश्वास कर लेता है।
मेरे
पास भी विश्वासी इकट्ठे हो जाते हैं। वे मुझ पर ही विश्वास कर लेते हैं। अब मेरे
जैसा आदमी बिलकुल भरोसे का नहीं है। उस पर विश्वास करना ही नहीं चाहिए। लेकिन मेरे
पास भी कोई आ जाता है,
वह कहता है कि हम तो आपकी बात को बिलकुल मानते हैं। आप जो कहते हैं
बिलकुल ठीक है। हमारी बड़ी श्रद्धा आपके प्रति हो गई है।
तो
बड़ा खतरा है! मैं श्रद्धा उखाड़ने की कोशिश में लगा हूं, वे मुझ पर
ही श्रद्धा करने लगते हैं! वह जो उसके भीतर विश्वास वाला चित्त है, वह कहता है कि ठीक है, चलो दूसरा विश्वास छोड़ते हैं,
आपको ही पकड़ लेते हैं।
इसलिए
इस देश में विचार करने वाले लोग पैदा न हुए हों, ऐसा नहीं है। लेकिन यह देश
इतना गहरा विश्वास से भरा है कि विचार करने वाले लोगों को आत्मसात कर जाता है,
उनको पी जाता है।
बुद्ध
पैदा हुए। अब बुद्ध जैसा विचार करने वाला पृथ्वी पर मुश्किल से कभी कोई पैदा होता
है। हम बुद्ध को भी पी गए। बुद्ध ने कहा, कोई भगवान नहीं है। हमने कहा कि
तुम्हीं भगवान हो। बुद्ध ने कहा, कोई मूर्तियां मत बनाना,
किसी की पूजा मत करना, कोई पूज्य नहीं है।
हमने बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनाईं जितनी दुनिया में किसी आदमी की नहीं हैं।
बुद्ध के एक-एक मंदिर हैं ऐसे आज पृथ्वी पर जिनमें दस-दस हजार मूर्तियां हैं।
बुद्ध
की मूर्तियां इतनी बनीं,
इतनी बनीं, कि दुनिया पहली दफे बुद्ध की
मूर्तियों के द्वारा ही मूर्तियों से परिचित हुई। इसलिए जब हिंदुस्तान के बाहर
मूर्तियां गईं तो सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां गईं। इसलिए अरब में और ईरान में और
इराक में जब पहली दफे मूर्तियां गईं तो बुद्ध की गईं। उन्होंने पूछा, ये क्या है? तो लोगों ने कहा, ये
बुद्ध हैं। इसलिए उनके पास मूर्ति का जो शब्द है, वह है बुत।
बुत, बुद्ध का बिगड़ा हुआ रूप है। उन्होंने समझा कि यह बुत
है। बुद्ध ही उनके लिए मूर्ति का पर्यायवाची बन गया। बुत, बुद्ध
का बिगड़ा हुआ रूप है। बुतपरस्त का मतलब है, बुद्धपरस्त। और
बुद्ध ने कहा था, मेरी मूर्तियां मत बनाना!
यह
मुल्क बहुत अदभुत है। इसके अचेतन मन में विश्वास इतना गहरा है कि इसने कहा कि इतना
अच्छा आदमी पैदा हुआ बुद्ध,
जिसने हमें सिखाया मूर्तियां न बनाना, तो कम
से कम इसकी मूर्तियां तो बना ही दें! इसकी तो पूजा करें ही!
बुद्ध
ने कहा, किसी की शरण में मत जाना, क्योंकि जो किसी की भी शरण
में जाता है वह आत्मघाती है। हमने कहा, बुद्धं शरणं गच्छामि!
हम बुद्ध की ही शरण में जाते हैं; क्योंकि तुमने हमें ज्ञान
दिया; तुमने हमें जगाया; अब हम
तुम्हारी शरण में आते हैं।
इसे
तोड़ना पड़े। इसलिए हम पच्चीस सदियों में...ऐसा नहीं कि हमने विचारक पैदा नहीं किए, हमने
विचारक पैदा किए, लेकिन विश्वास के सागर में विचार की बूंदें
खो गईं--गिरीं और खो गईं, गिरीं और खो गईं--और हम उनको
आत्मसात करते चले गए।
दूसरे
मुल्कों ने विचार को आत्मसात नहीं किया, दूसरे मुल्क विचार से लड़े और लड़ने
में उनको बदलना पड़ा। यूनान ने सुकरात को सूली पर चढ़ा दिया, हमने
बुद्ध की पूजा कर ली। अब यह मैं आपसे कहूंगा कि यूनान को बुद्ध अगर मिलते तो वे
उनको भी सूली पर चढ़ा देते; क्योंकि वे कहते कि गलत है यह बात,
हम विश्वासी हैं, तो हम विचार की बात न
मानेंगे। लेकिन यह विचार की यात्रा शुरू हो गई। अगर हमने बुद्ध से कहा होता कि हम
श्रद्धालु लोग हैं, हम तुम्हारी बात न मानेंगे, तो भी अच्छा होता; क्योंकि न मानने के लिए भी विचार
करना पड़ता है। हमने कहा, हम विश्वासी लोग हैं, आप जो कहते हो विश्वास के खिलाफ, हम इसको भी मान
लेंगे, हम आपकी भी पूजा करेंगे।
हमने
एक तीर्थंकर को गोली न मारी, हमने एक बुद्ध को सूली पर न चढ़ाया, क्योंकि हम उनको आत्मसात कर गए।
यूनान
ने सुकरात को जहर पिला दिया। जेरुसलम ने जीसस को सूली पर लटका दिया। लड़े वे बुरी
तरह। उन्होंने कहा,
हम विश्वासी हैं, हम तुम्हारी बात कैसे
मानेंगे! लेकिन इस लड़ने में उनको विचार में पड़ जाना पड़ा और यूनान में पहली दफा
विज्ञान का जन्म हो गया। सुकरात को यूनान अभी तक नहीं पचा पाया, लेकिन हम पचा गए सबको। यह हमारा दुर्भाग्य सिद्ध हुआ। बुद्ध जैसे आदमी को
भी हमने अवतार बना दिया कि तुम भी भगवान हो, तुम्हारी भी
पूजा करेंगे, बैठो मंदिर में, हमें
परेशान मत करो, हम जैसे हैं हम वैसे ही रहेंगे।
यह
हमारी जो प्रतिभा है विचार को पचा जाने की, इस प्रतिभा के प्रति जागना पड़ेगा।
यह बहुत महंगी पड़ गई है; इसे हटाना पड़ेगा, इसे मिटाना पड़ेगा, इसे जड़-मूल से उखाड़ना पड़ेगा।
लेकिन जो न्यस्त स्वार्थ हैं, वेस्टेड इंट्रेस्ट हैं,
उनके पक्ष में है यह बात। उनको यह बहुत रुचिकर है, यह बहुत हितकर है। नेता नहीं चाहता कि अनुयायी कभी भी सोचे, क्योंकि अगर अनुयायी सोचेगा तो नेता कहां होगा फिर! जिस दिन अनुयायी खुद
सोचेगा उस दिन नेता की कोई जगह नहीं रह जाती। असल में अनुयायी नहीं सोचता इसलिए
नेता को सोचने का मौका मिलता है, नेतृत्व मिलता है। जिस दिन
अनुयायी सोचेगा, उस दिन नेता से कहेगा, आप जाइए; जो काम आप हमारे लिए करते थे वह हमने खुद
ही करना शुरू कर दिया है। अगर धार्मिक सोचेगा तो धर्मगुरु का क्या होगा? इसलिए दुनिया में जो न्यस्त स्वार्थ हैं, वे न्यस्त
स्वार्थ विश्वास का शोषण कर रहे हैं।
मैं
एक कहानी निरंतर कहता रहा हूं। बहुत प्रीतिकर है मुझे। वह आपसे भी कहूं। सुना है
मैंने कि किसी गांव में एक छोटी-सी तेली की दुकान पर एक सुबह एक विचारक गया है। जब
वह तेल ले रहा है तब उसने देखा कि पीछे तेली का कोल्हू चल रहा है और बैल जो है
बिना किसी के हांके कोल्हू को चला रहा है। उस विचारक को बड़ी हैरानी हुई।
हम
गए होते, हमें कोई हैरानी न होती। हम देखते ही न। हमें पता भी न चलता कि यह क्या हो
रहा है! हम सवाल भी न उठाते। क्योंकि सवाल विश्वासी आदमी कभी भी नहीं उठाता।
विश्वासी आदमी के पास जवाब रेडीमेड रहते हैं, सवाल बिलकुल
नहीं रहते।
उस
विचारक ने कहा कि आश्चर्य,
यह बैल तुम कहां से ले आए? यह बैल हिंदुस्तानी
मालूम नहीं पड़ता। हिंदुस्तान में तो चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक को जब तक कोई
पीछे से हांके न, कोई चलता ही नहीं। यह बैल तुम्हें कहां मिल
गया? यह बैल तुमने कहां से खोज लिया? इसे
कोई चला नहीं रहा है और बैल कोल्हू चला रहा है!
उस
तेली ने कहा कि नहीं,
आपको पता नहीं है। चला रहे हैं हमीं इसे भी, लेकिन
तरकीबें जरा सूक्ष्म और परोक्ष हैं, इनडायरेक्ट हैं। उस
विचारक ने कहा कि मुझे जरा ज्ञान दो। क्या तरकीब है? उस
कोल्हू के चलाने वाले मालिक ने, उस तेली ने कहा, जरा ठीक से देखो, बैल की आंखों पर पट्टियां बंधी
हैं। बैल को दिखाई नहीं पड़ता कि कोई पीछे चला रहा है कि नहीं चला रहा है। आंख पर
पट्टियां बांध दी हैं।
जब
भी किसी से कोल्हू चलवाना हो, तब पहला नियम है--उसकी आंख पर पट्टी बांध दो।
विश्वास आंख पर पट्टी बांधना है। आंख मत खोलो! जो आंख खोलेगा वह नर्क जाएगा। जो
आंख बंद रखेगा उसके लिए स्वर्ग और बहिश्त में सब इंतजाम है। आंख पर पट्टी बांध दो।
डरा दो कि आंख खोली तो भटक जाओगे। आंख बंद रखो! इसलिए ग्रंथ कहते हैं कि संदेह
किया तो भटक जाओगे। विश्वास रखो!
विचारक
ने कहा, यह मैं समझ गया। लेकिन बैल कभी रुक कर भी तो पता लगा सकता है कि पीछे कोई
हांकने वाला है या नहीं?
उस
तेली ने कहा कि अगर बैल इतना ही समझदार होता तो पहली तो बात है आंख पर पट्टी न
बांधने देता। और दूसरी बात है, अगर बैल इतना ही समझदार होता तो बैल तेल बेचता,
हम कोल्हू चलाते! हमने काफी सोच-विचार किया है तभी बैल कोल्हू चला
रहा है और हम दुकान चला रहे हैं। हमने बैल के गले में घंटी बांध रखी है; जब तक बैल चलता रहता है, घंटी बजती रहती है, और मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। जैसे ही घंटी रुकी कि हमने छलांग लगाई
और बैल को हांका। बैल को पता नहीं चल पाता कि पीछे आदमी नहीं था! घंटी बंधी है!
विचारक
ने कहा, ठीक है, घंटी मुझे भी सुनाई पड़ रही है। एक आखिरी
सवाल और। तेरा बैल कभी खड़े होकर सिर हिला कर घंटी नहीं बजाता रहता?
उस
तेली ने कहा,
महाराज! जरा धीरे बोलो, कहीं बैल न सुन ले! और
आप दुबारा से कहीं और से तेल ले लेना। यह महंगा सौदा है। ऐसे आदमियों का आना-जाना
ठीक नहीं। हमारी दुकान बड़े मजे से चल रही है। कहां की फिजूल की बातें उठाते हो?
आदमी कैसे हो! कैसे बेकार के सवाल पूछते हो?
कुछ
हैं, जिनका स्वार्थ है कि आदमी अंधा रहे। कुछ हैं, जिनका
स्वार्थ है कि आदमी की आंख न खुल जाए। और मजा यह है कि जिन पर हम भरोसा करते हैं,
वे ही कुछ नेता, गुरु, मंदिर,
मस्जिद--वे ही--वे ही जिनके हम पैर पकड़े हैं, उनका
ही न्यस्त स्वार्थ है कि आदमी में विचार पैदा न हो। इसलिए वे विचार की हत्या करते
चले जाते हैं। वे जितनी हत्या करते हैं, उतने जोर से हम पैर
पकड़ते हैं; हम जितने जोर से पैर पकड़ते हैं, उतने जोर से हत्या हो जाती है। यह चलता रहा है। इसे तोड़ने की तैयारी भारत
को दिखानी पड़ेगी। जिस चौराहे पर हम खड़े हैं, अगर वहां से हम
विश्वास लेकर ही आगे बढ़े तो हमारा कोई भविष्य नहीं है। इस चौराहे से हमें विचार
लेकर आगे बढ़ना होगा।
निश्चित
ही विचार और विश्वास की प्रक्रियाएं बुनियादी रूप से अलग हैं। इसलिए प्रक्रियाओं
के भेद को समझ लेना चाहिए।
आइंस्टीन
से किसी ने मरने के कुछ दिन पहले पूछा कि आप एक विचारक में और एक विश्वासी में
क्या फर्क करते हैं?
तो आइंस्टीन ने कहा, मैं थोड़ा-सा ही फर्क करता
हूं। अगर विचारक से सौ सवाल पूछो तो निन्यानबे सवालों के संबंध में कहेगा, मुझे मालूम नहीं है। और जिस एक सवाल के संबंध में उसे मालूम होगा, तो वह कहेगा कि मुझे मालूम है, लेकिन जितना मुझे
मालूम है उतना कह रहा हूं। यह उत्तर अंतिम नहीं है, अल्टीमेट
नहीं है। कल और भी मालूम हो सकता है और तब उत्तर बदल सकता है।
विचार
करने वाले के पास बंधे हुए अंतिम उत्तर नहीं हो सकते। विचार करने वाले के पास सभी
प्रश्नों के उत्तर नहीं हो सकते। जिंदगी बहुत जटिल है और जिंदगी बहुत गहरा रहस्य
है। और जिंदगी में बहुत कुछ अज्ञात और अनंत है। विचार करने वाले को दिखाई पड़ता है
कि अज्ञान बहुत बड़ा है,
ज्ञान बहुत छोटा है। जैसे अमावस की अंधेरी रात में एक हाथ में
मिट्टी का छोटा-सा दीया है। चारों तरफ घनघोर अंधेरा है और छोटा-सा मिट्टी का दीया
है, और वह ज्योति भी प्रतिपल बुझी-बुझी होती है। हवा के
झोंके आते हैं और ज्योति बुझने को होती है और अंधेरा बढ़ने को होता है। प्रतिपल
अंधेरा चारों तरफ से ज्योति को घेरे हुए है। मजा यह है कि उस ज्योति में सिवाय
अंधेरे के और कुछ भी दिखाई भी नहीं पड़ता है।
विचार
के पास अंतिम उत्तर नहीं हो सकते; विचार के पास ज्यादा से ज्यादा कामचलाऊ उत्तर
हो सकते हैं। और विचार के पास सभी उत्तर नहीं हो सकते। विश्वास के पास सभी उत्तर
हैं और कामचलाऊ नहीं हैं--अल्टीमेट हैं, आखिरी हैं। विश्वास
के लिए सब मालूम है, कुछ अज्ञात नहीं है, कोई रहस्य नहीं है। उसे परमात्मा का घर-ठिकाना भी पता है, स्वर्ग और नर्क की गहराई और लंबाई और चौड़ाई भी पता है। उसे सब पता है!
विश्वासी
परम ज्ञानी है और विचारक परम अज्ञानी है। इसलिए हमारे अहंकार को विश्वास में तो
मजा आता है, विचार में तकलीफ होती है; क्योंकि विश्वास करके हम
भी परम ज्ञानी हो जाते हैं; विश्वास करके हमारे पास भी सभी
उत्तर आ जाते हैं, हर चीज का उत्तर है। और विचार करके हमारे
जो बंधे-बंधाए उत्तर थे वे भी खिसक जाते हैं और धीरे-धीरे हाथ खाली हो जाता है।
लेकिन
ध्यान रहे, झूठे परम उत्तर, झूठे अंतिम उत्तर, सच्चे कामचलाऊ उत्तरों से भी बेकार हैं। उनका कोई मूल्य नहीं है। इसलिए
हिंदुस्तान को सब पता है और फिर भी कुछ पता नहीं है। परमात्मा का पता है, ब्रह्म का पता है, माया का पता है, गेहूं पैदा करना पता नहीं है। स्वर्ग-नर्क सब पता हैं, साइकिल का पंक्चर जोड़ना पता नहीं है। छोटी-छोटी चीजें पता नहीं हैं और
बड़ी-बड़ी सब चीजें पता हैं? शक होता है! क्योंकि बड़ी चीजें
तभी पता हो सकती हैं जब छोटी चीजों की सीढ़ियों से चढ़ा गया हो।
लेकिन
बड़ी चीजों के पता होने का सिर्फ एक ही कारण है कि उनकी जांच का कोई उपाय नहीं है, उनकी
प्रयोगशाला में कोई परीक्षा नहीं हो सकती कि तुम्हारा ब्रह्म कहां है? कि तुम्हारा स्वर्ग कहां है? उसकी चूंकि कोई जांच
नहीं हो सकती इसलिए मजे से पता है। और फिर जिसको जो पता है...।
मुसलमान
अपना पता रखे है,
हिंदू अपना, जैन अपना। महावीर के अनुयायी उस
समय में कहते थे, तीन नर्क हैं। बुद्ध के अनुयायी कहते थे,
सात नर्क हैं। और बुद्ध के अनुयायी महावीर के अनुयायियों से कहते थे
कि तुम्हारा तीर्थंकर जरा ज्यादा गहरे नहीं जा पाया है, अभी
तीन का ही पता लगा पाया है! मक्खली गोशाल के अनुयायी कहते थे, तुम दोनों के तीर्थंकर ज्यादा गहरे नहीं गए, सात सौ
नर्क हैं। हमारा गुरु सात सौ नर्कों तक का पता लगा कर आया है।
अब
यह मजा ऐसा है कि इसकी कोई जांचत्तौल नहीं हो सकती कि तीन हैं, कि सात
हैं, कि सात सौ हैं, कि सात हजार हैं।
यह बच्चों का खेल हो गया। कहानियां गढ़ना हो गया। ये कहानियां गढ़ी जा सकती हैं और
हजारों साल तक चल सकती हैं। लेकिन इनसे जिंदगी का कोई हित नहीं होता।
ज्ञान
भी सीढ़ियों से यात्रा करता है, और ज्ञान भी पहले जो क्षुद्रतम है उसे जानता है
तब विराटतम को जान पाता है। विचार की प्रक्रिया जो निकट है उसे जानने से शुरू होती
है, विश्वास की प्रक्रिया जो दूर है उसे मानने से शुरू होती
है। विचार की प्रक्रिया जो हाथ के पास है, उसे पहचानने से
शुरू होती है; विश्वास की प्रक्रिया जो अंतहीन, किसी दूर असीम कोने पर खड़ा है, उसे मानने से शुरू
होती है। उसकी जांच का कोई उपाय नहीं होता।
इसलिए
विश्वासी कौम एक्सपेरिमेंटल नहीं हो पाती, प्रयोगात्मक नहीं हो पाती; क्योंकि प्रयोग तो हाथ के पास किया जा सकता है; दूर
का प्रयोग नहीं किया जा सकता। विचार करने वाली कौम प्रयोगात्मक हो पाती है। प्रयोग
से विज्ञान का जन्म होता है। विज्ञान को हम जन्म नहीं दे पाए। और बिना विज्ञान के
इस देश का कोई भविष्य नहीं है।
लेकिन
एक बात ठीक से समझ लें,
जो बुनियादी सवाल उठेगा। साइंटिफिक माइंड, वैज्ञानिक
मन और विज्ञान के द्वारा शिक्षित हुआ मन, इन दोनों में बहुत
फर्क है। वैज्ञानिक मन अलग बात है और विज्ञान की शिक्षा लिया हुआ मन, बिलकुल अलग बात है। वह सिर्फ टेक्नीशियन है। एक आदमी एम.एससी. हो जाए और
पीएच.डी. हो जाए, एक आदमी विज्ञान की आखिरी उपाधि पा ले,
तो भी वैज्ञानिक नहीं हो जाता। सिर्फ उसके पास इनफर्मेशन होती है,
संग्रह होता है। लेकिन चित्त का वैज्ञानिक होना बहुत दूसरी बात है।
यह
हो सकता है कि यह आदमी फिर भी विश्वासी हो और विश्वास ही करता चला जाए; यह
विज्ञान की किताबों पर भी विश्वास कर ले। इसे जो पढ़ाया जाए वह मान ले कि
आर्किमिडीज ठीक है, न्यूटन ठीक है, आइंस्टीन
ठीक है। कल कहता था, कृष्ण ठीक हैं, महावीर
ठीक हैं, बुद्ध ठीक हैं। जिस तरह श्रद्धापूर्वक उन्हें
स्वीकार करता था उसी तरह श्रद्धापूर्वक आइंस्टीन को स्वीकार कर ले तो यह विज्ञान
का स्नातक हो जाएगा, लेकिन वैज्ञानिक न हो पाएगा।
इसलिए
हम हिंदुस्तान में एक बड़ी भूल में पड़ रहे हैं। हिंदुस्तान को साइंटिफिक माइंड की
जरूरत है और हम सोच रहे हैं कि हम यूनिवर्सिटीज से साइंस के ग्रेजुएट निकाल कर काम
पूरा कर लेंगे। वह पूरा नहीं होने वाला है। क्योंकि वह जो साइंस का ग्रेजुएट है वह
भी यूनिवर्सिटी से निकल कर घोड़े पर बैठ कर दूल्हा बन जाता है। वह भी बैंड-बाजा
बजवाता हुआ शादी करने चला जाता है। वह भी जन्मकुंडली दिखा कर तिथि निकलवा लेता है।
वह भी हाथ की रेखा दिखलवा कर पूछता है कि परीक्षा में पास होऊंगा कि नहीं? धन मिलेगा
कि नहीं?
तो
यह जो आदमी है,
यह स्नातक हो जाएगा, यह विज्ञान की परीक्षा
पास कर लेगा, लेकिन वैज्ञानिक? वैज्ञानिक
होना बहुत दूसरी बात है। और विज्ञान के स्नातकों से देश नहीं बदलेगा, वैज्ञानिक चित्त से देश बदलेगा। वैज्ञानिक चित्त का मतलब है, तर्क करने वाला चित्त, प्रश्न पूछने वाला
चित्त--जल्दी से उत्तर मान लेने वाला चित्त नहीं--जब तक पूछ सके पूछने वाला चित्त,
पूछता ही जाने वाला चित्त।
लेकिन
हमने हजारों साल से ऐसे चित्त की गर्दन काट दी है।
सुना
है मैंने कि जनक ने एक बहुत बड़ा आयोजन किया था; उस जमाने के सारे ज्ञानियों को
इकट्ठा किया था। उस दिन इस मुल्क के भाग्य का फैसला हो गया था। इस चौरस्ते पर उस
फैसले को फिर से बदलने की जरूरत आ गई है। जनक के जमाने के जितने ज्ञानी थे,
उसने इकट्ठे किए थे। उसने एक हजार गाएं अपने द्वार पर खड़ी कर रखी
थीं। उन गायों की सींगों पर सोना चढ़ा दिया था, हीरे जड़ दिए
थे, और कहा था कि जो सबसे ज्यादा ज्ञानी होगा वह इन गायों को
ले जाएगा। बड़े-बड़े ज्ञानी आए, बड़े-बड़े पंडित आए, विचारक आए, सभा में बड़ा विवाद हुआ। पीछे याज्ञवल्क्य
को खबर मिली, वह भी आया। वह अपने शिष्यों को लेकर आया था। वह
दरवाजे के भीतर घुसा और उसने शिष्यों से कहा कि जाओ, गायों
को तो पहले घर ले जाओ, निपटारा हम पीछे कर लेंगे। गाएं धूप
में खड़ी बहुत थक गई होंगी।
सारी
सभा घबड़ा गई। जनक भी कुछ बोल न सका। लेकिन कोई भी यह न समझा कि इस तरह दंभ की भाषा
बोलने वाला आदमी ज्ञानी नहीं हो सकता। याज्ञवल्क्य भीतर गया अकड़ता हुआ, उसने सबको
हरा दिया। तब एक स्त्री गार्गी खड़ी हुई। और गार्गी ने याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछने
शुरू किए। याज्ञवल्क्य उसके प्रश्नों से घबड़ाने लगा; क्योंकि
दंभ जो है वह सदा अज्ञान के ऊपर खड़ा होता है; प्रश्नों से
बहुत घबड़ाता है। श्रद्धा मांगता है।
गार्गी
पूछती ही चली गई। याज्ञवल्क्य ने आखिर में कहा कि जो भी है सब ब्रह्म है। गार्गी
ने पूछा कि मैं यह जानना चाहती हूं, ब्रह्म किस पर आधारित है? याज्ञवल्क्य ने कहा, गार्गी अब जबान बंद कर, अन्यथा तेरा सिर नीचे गिरा दिया जाएगा! और उस सभा के सारे लोग चुपचाप बैठे
सुनते रहे। और जनक भी चुपचाप सुनता रहा। उस स्त्री ने ठीक सवाल पूछा। उस स्त्री के
पास एक वैज्ञानिक बुद्धि थी। लेकिन याज्ञवल्क्य के पास एक विश्वासी बुद्धि थी और
उसने कहा कि तेरा सिर गिर जाएगा नीचे अगर और सवाल पूछेगी। यह अति प्रश्न हो गया।
यह सीमा के बाहर जाना है, ब्रह्म का आधार मत पूछ।
बस
जब हम कहते हैं,
अति प्रश्न हो गया, तभी वैज्ञानिक चित्त मर
जाता है। असल में वैज्ञानिक चित्त के लिए अति प्रश्न है ही नहीं। ऐसा कोई प्रश्न
नहीं है जो न पूछा जा सके। और अगर ऐसा कोई प्रश्न है जो नहीं पूछा जा सकता तो उसे
तो सबसे पहले पूछा जाना चाहिए, क्योंकि वह जरूर गहरे में
जिंदगी का प्रश्न होगा जो नहीं पूछा जा सकता।
गार्गी
चुप हो गई। वह सभा चुप हो गई। याज्ञवल्क्य गायों को घेर कर चला गया। उस दिन से
पांच हजार साल हो गए,
हमने अति प्रश्न नहीं पूछे। और जब अति प्रश्न नहीं पूछे तो हिम्मत
टूटती चली गई। फिर हमने प्रश्न ही पूछने बंद कर दिए। फिर हम जवाबों पर ठहर गए। अब
हमारे पास जवाब सब हैं, प्रश्न बिलकुल नहीं हैं। हर चीज का
उत्तर है, सवाल बिलकुल नहीं हैं। और गांव-गांव गुरु बैठे
हैं। नगर-नगर गुरु घूम रहे हैं। साधू हैं, संन्यासी हैं,
मुनि हैं, वे लोगों को समझा रहे हैं--श्रद्धा
रखो, श्रद्धा रखो, श्रद्धा रखो! वे
लोगों को सुला रहे हैं। अच्छा था कि जहर पिला देते। श्रद्धा से कम खतरनाक सिद्ध
होता। आदमी मर जाता तो ठीक था। आदमी जिंदा भी है और आत्मा मर गई है। वह प्रश्न
पूछने से जो तेजस्विता आती है, संघर्ष करने से विचार के जो
बल आता है, आग में गुजरने से प्रश्न की जो निखार आता है,
वह सब खो गया, सब मंदा हो गया।
इस
चौरस्ते पर मैं दोहरा कर--याज्ञवल्क्य कहीं सुनते हों तो उनसे कहना चाहता हूं कि
गार्गी अब अति प्रश्न पूछेगी। और याज्ञवल्क्य गाएं वापस लौटा जाओ। अब यह चलेगा
नहीं। अति प्रश्न पूछे जाएंगे। अति प्रश्न के पूछने से विज्ञान जन्मता है। लेकिन
हम कोई प्रश्न नहीं पूछते! विचार प्रश्न पूछता है, विश्वास उत्तर स्वीकार करता
है।
ध्यान
रहे, प्रश्न पूछ कर भी उत्तर मिलते हैं, लेकिन वे अपने
होते हैं। बिना प्रश्न पूछे भी उत्तर मिलते हैं, वे सदा
दूसरे के होते हैं। दूसरे का उत्तर कभी किसी देश की प्रतिभा को आगे नहीं बढ़ा पाता।
अपना उत्तर चाहिए। और अपना उत्तर उसी के पास होता है जिसके पास अपना प्रश्न हो।
जिसके पास अपना प्रश्न ही नहीं उसके पास अपना उत्तर कैसे हो सकता है? उसके पास बारोड, बासे, उधार
उत्तरों का संग्रह होता है, जिनके नीचे छाती दब जाती है और
आदमी डूब जाता है।
हिंदुस्तान
अपने रेडीमेड,
बासे उत्तरों में दब कर मर गया, डूब गया है।
हमारी प्रतिभा का निखार नहीं है। धार नहीं है हमारी प्रतिभा पर। यह धार पैदा करनी
पड़े। इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं: विश्वास नहीं, विचार;
श्रद्धा नहीं, संदेह; बिलीफ
नहीं, डाउट।
संदेह
जितने जोर से हमें पकड़ ले,
जीवन के सारे प्रश्नों को संदेह पकड़ ले, उतने
जोर से हम विचार में लग जाएंगे। मजा यह है कि संदेह पकड़ता है तो विचार करना ही
पड़ता है। बचने का उपाय नहीं; कोई एस्केप नहीं, भागने की सुविधा नहीं। अगर संदेह पकड़ेगा तो विचार करना ही पड़ेगा और अगर
संदेह नहीं पकड़ेगा तो विचार की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। अनावश्यक हैं विचार,
व्यर्थ का श्रम हैं।
हम
एक-एक बच्चे को श्रद्धा सिखा रहे हैं। बाप अपने बेटे से कह रहा है कि विश्वास रखो, क्योंकि
मैं जो कहता हूं वह ठीक ही होगा; क्योंकि मैं उम्र में बड़ा
हूं। मैं बाप हूं, मैं अनुभवी हूं। होंगे अनुभवी, जरूर हैं बाप, उम्र में बड़े हैं, लेकिन जिंदगी जो सबसे बड़ा पाठ सिखा सकती थी, उससे
चूक गए। वह यह था कि किसी पर श्रद्धा मत थोपना, अन्यथा उसके
विचार का जन्म नहीं हो पाएगा। उस पर श्रद्धा थोप रहा है। बाप थोप रहा है, मां थोप रही है। उन्हें सुविधा है, क्योंकि बच्चों
के सवाल तकलीफ में डालते हैं। अति प्रश्न हो जाते हैं। अगर उत्तर दो तो वे और गहरी
बातें पूछेंगे। इसलिए बाप पहले ही सचेत हो जाता है कि ऐसी बातें न पूछ ले जिनके
उत्तर मुझे पता नहीं हैं। इसलिए वह पहले ही डंडा उठा लेता है कि बस अब आगे मत
पूछना। यहीं बात खत्म करो। हम सब जानते हैं और तुम भी जान लोगे जब उम्र आएगी,
अनुभव आएगा। बच्चे प्रश्न पूछते आते हैं, बूढ़े
उत्तर लिए हुए मर जाते हैं। सब बच्चे फिर से प्रश्न उठाना चाहते हैं, वे ही जो दुनिया में पहली दफे बच्चों ने उठाए होंगे, लेकिन हम उनकी गर्दन दबा देते हैं।
और
हमारी शिक्षा उन्हें संदेह नहीं सिखाती, हमारी शिक्षा सिर्फ उन्हें उत्तर
सिखाती है। गुरु भी डंडा लिए उनको उत्तर ठोक-ठोककर सिखाता रहता है। पूरी हमारी
शिक्षा की व्यवस्था उत्तर सिखाने की व्यवस्था है। हम कंप्यूटर की तरह आदमी को फीड
कर देते हैं। हर चीज का उत्तर बता देते हैं। टिम्बकटू कहां है? बता देते हैं, यह रहा। अफ्रीका कहां है? यह रहा। पानी कैसे बनता है? ऐसे बनता है। सब उत्तर
दे देते हैं। और बीस-पच्चीस वर्ष की इस अत्यंत अमानवीय शिक्षा के भीतर से गुजर कर--जिसमें
मां-बाप, भाई, परिवार, शिक्षक सब सम्मिलित हैं--बच्चे की प्रतिभा प्रश्न पूछना बंद कर देती है।
फिर वह प्रश्न पूछती ही नहीं, फिर वह उत्तर बांध कर बैठ जाती
है। और वह आदमी मर गया।
सच
बात यह है कि हम मर बहुत पहले जाते हैं, दफनाए बहुत बाद में जाते हैं। बड़ा
फासला होता है मरने और दफनाने में। बहुत कम सौभाग्यशाली लोग हैं जो उसी दिन मरते
हैं जिस दिन दफनाए जाते हैं। कोई तीस साल में मर जाता है, कोई
पच्चीस साल में। दफनाया जाता है, कोई सत्तर साल में दफनाया
जाता है, कोई अस्सी साल में।
अभी
अमरीका के हिप्पियों ने एक छोटा-सा नारा दिया है, वह नारा मुझे बहुत प्रीतिकर
लगा। वह नारा बहुत अजीब है। उन्होंने नारा दिया है कि तीस साल के ऊपर के आदमी का
भरोसा मत करना, क्योंकि तीस साल के ऊपर के आदमी के जिंदा
होने का ही सबूत नहीं है; वह आमतौर से मर गया होता है।
इसमें
सचाई है। यह बात एकदम झूठ नहीं मालूम पड़ती है, इसमें सचाई है। मार ही डालते हैं
हम। यह हमें प्रक्रिया बदलनी पड़े। एक-एक घर में प्रश्न को जगाना पड़े। सब सहयोगी हो
सकते हैं प्रश्नों को जगाने में। और अगर बच्चों के प्रश्न जगाए जाएं और उनको संदेह
दिया जाए और शिक्षा के द्वार पर वे बड़े प्रश्न पूछते हुए पहुंचें और शिक्षा के
मंदिर से लौटते वक्त और बड़े प्रश्न लेकर लौटें, तो मुल्क का
सारा मन जो सो गया है वह जग सकता है। वह आज जग सकता है, कोई
कारण नहीं है।
लेकिन
उसमें बड़ी तकलीफें हैं। क्या होगा उनका जो विश्वास पर ही जी रहे हैं? और विश्वास
पर बहुत कुछ जी रहा है। क्या होगा उनका जो विश्वास पर ही टिके हैं? और विश्वास पर बहुत कुछ टिका है। क्या होगा उनका जिनका विश्वास ही सारा
शोषण है?
उन
सबको बड़ी बेचैनी छा जाती है। उन सबको बड़ी कठिनाई हो जाती है। इसलिए वे संदेह उठाने
वाले लोगों से भयभीत हैं,
वे घबड़ाए हुए हैं। वे चाहते हैं कि संदेह मत उठाओ, क्योंकि संदेह बगावत ले आ सकता है। इसलिए वे चाहते हैं, लोगों को संतोष सिखाओ ताकि संतोष बगावत को मार दे।
अभी
रासायनिक बड़ी खोजें हुई हैं। एल.एस.डी. है, मैस्कलिन है, और तरह के ड्रग्स खोजे गए हैं, और कुछ ऐसी केमिकल
व्यवस्था भी कल्पना में आ गई है जिससे मनुष्य के भीतर से असंतोष को दूर किया जा
सकता है। बहुत दूर नहीं है वह दिन कि हम गांव के पानी की झील में ऐसे केमिकल्स डाल
दें कि सारे गांव के लोग अपने-अपने नल से पानी पीते रहें, उन्हें
पता भी न चले और उनके भीतर से असंतोष समाप्त हो जाए।
जब
मैं अभी रासायनिक क्रांति पर एक किताब पढ़ रहा था और जब मुझे यह पता चला कि इस तरह
के द्रव्य खोज लिए गए हैं जो आदमी के भीतर से अशांति को, असंतोष को,
विद्रोह को छीन सकते हैं, तो मेरा मन हुआ कि
उस लेखक को एक पत्र लिखूं कि तुमने अब खोजे ये, यह बड़ी
पुरानी खोज है, भारत ने पांच हजार साल पहले खोज ली है।
लेकिन
हमने आध्यात्मिक तरकीबें खोजी थीं, भौतिक तरकीबें नहीं। हम किसी आदमी
को कोई इंजेक्शन देकर संतोष नहीं लाना चाहते, हमने संतोष की
और भी अच्छी व्यवस्था खोजी थी। हम संतोष ही पिलाते थे बचपन से। हमने इस देश को
संतुष्ट ही रखा। हमने उस बिंदु तक न जाने दिया जहां असंतोष शुरू होता है। क्योंकि
जहां असंतोष शुरू होता है तो फिर बायलिंग प्वाइंट बहुत दूर नहीं रहता। फिर उबलने
का बिंदु भी पास आएगा और क्रांति होगी। असंतोष है आग--अगर बढ़ती चली जाए तो एक
बिंदु पर एवोपरेशन, पानी भाप बनेगा, छलांग
लगेगी, क्रांति हो जाएगी।
इसलिए
हम संतोष सिखाते रहे हैं। हम कहते हैं, संतोष सबसे बड़ा धर्म है। संतोष से
बड़ा अधर्म नहीं हो सकता। क्योंकि धर्म का मतलब अगर गति है, अगर
धर्म का मतलब विकास है, अगर धर्म का मतलब प्रगति है, अगर धर्म का मतलब रोज आगे जाना है, तो संतोष धर्म
नहीं हो सकता, असंतोष धर्म होगा।
हम
सिखाते हैं कि संतोष जिसे मिल गया उसे सब मिल गया। नहीं, बात उलटी
है। संतोष जिसे मिल गया उसे सब नहीं मिल जाता। हां, सब जिसे
मिल जाए उसे संतोष जरूर मिल सकता है। लेकिन हम संतोष को पहले पिला देते हैं और तब
सब यात्रा बंद हो जाती है। डबरा बन जाता है।
एक
नदी अगर संतुष्ट हो जाए तो तालाब बन जाएगी, सागर नहीं बन सकती। कैसे बनेगी
सागर? नदी संतुष्ट हो जाए तो जाए कहां? पहाड़ों को तोड़े क्यों? लड़े क्यों पत्थरों से?
मार्ग क्यों बनाए? अनजान, अपरिचित खाइयों-खड्डों में भटके क्यों? सागर का क्या
भरोसा है? सागर होगा ही, इसका क्या पता
है? सागर है बहुत दूर। गंगा है गंगोत्री में, सागर है बहुत दूर। इतना लंबा फासला; कोई मार्ग बना
नहीं; पक्के सीमेंट रोड नहीं; पत्थर
तोड़ने हैं; रास्ता बनाना है अनजान अपरिचित को; जिसका ठिकाना नहीं कहां है, वहां जाना है; कौन जाए?
संतोष
कर ले गंगा तो गंगोत्री ही रह जाए, फिर गंगा न बन पाए। मालूम है,
गंगोत्री पर गंगा बहुत बड़ी नहीं है। हो भी नहीं सकती। वह तो सागर से
मिलते समय बड़ी होती है।
अमेजान
नदी दुनिया की सबसे बड़ी नदी है। अमेजान नदी में दुनिया का सबसे ज्यादा पानी है।
लेकिन अमेजान नदी जहां से निकलती है वह जगह सब भारतीयों को घुमाने जैसी है। और
कहीं उन्हें ले जाने की जरूरत नहीं है। सब भारतीयों को अमेजान नदी के उदगम स्रोत
पर जरूर ले जाकर खड़ा कर देने जैसा है। वहां, जहां से अमेजान निकलती है, वहां से सिर्फ एक-एक बूंद टपकती है। और एक-एक बूंद के टपकने में भी दो
बूंद के बीच में बीस सेकेंड का फासला है। एक बूंद गिरती है, फिर
बीस सेकेंड बाद दूसरी बूंद गिरती है। यह अमेजान नदी का उदगम स्रोत है!
कितना
सौभाग्य होता इस नदी का कि यहीं तृप्त हो जाती और संतुष्ट हो जाती। तो यह एक बूंद
ही रह जाती! शायद बूंद भी न रह जाती। लेकिन यह अमेजान सागर बन जाती है। यात्रा
करती है असंतोष की--और आगे,
और आगे, और आगे, भागी
चली जाती है।
भारत
की प्रतिभा बूंद रह गई है,
सागर नहीं बन पाई है। संतोष पकड़ गया है। जो है, चुपचाप स्वीकार कर लो। हमारे सारे शिक्षक समझा रहे हैं, आवश्यकताएं कम करो। हमारे सारे शिक्षक समझा रहे हैं, सिकुड़ो, सिकुड़ो, सिकुड़ो,
बिलकुल बूंद रह जाओ। हमारे शिक्षक समझा रहे हैं, सब सिकोड़ो। जीवन कहता है, फैलो; जीवन कहता है, विस्तार करो; जीवन
कहता है, जाओ दूर को और अनंत को। और हमारे शिक्षक कहते हैं,
सिकुड़ो, सीमा छोटी करो, और
छोटी करो; जितनी भी है, बड़ी है--और
सिकुड़ो, और सिकुड़ो, और मर जाओ, कब्र में समा जाओ तो परम स्थिति को उपलब्ध हो जाओगे।
जिंदगी
है विस्तार। जिंदगी का सूत्र है, विस्तार। यहां सब बड़ा होता है। एक बीज बो दें
तो एक वृक्ष पैदा होता है। छोटा-सा बीज इतना बड़ा वृक्ष बन जाता है कि हजार
बैलगाड़ियां उसके नीचे विश्राम करें। और एक छोटा-सा बीज बो दें तो उस वृक्ष पर
अरबों बीज पैदा होते हैं। कितना फैलाव कर लिया एक बीज ने? एक
छोटा-सा बीज फैल कर अरब बीज हो गया! अरब बीज बो दें, फैलता
चला जाएगा, फैलता चला जाएगा। जीवन विस्तार है।
मेरी
दृष्टि में ब्रह्म का एक ही अर्थ है, उस शब्द का भी वही अर्थ है। ब्रह्म
शब्द का अर्थ है फैलाव, विस्तार; जो
फैलता ही चला जाता है; जो रुकता ही नहीं, जो रुकता ही नहीं, जो अंतहीन फैलाव है। ब्रह्म शब्द
का भी मतलब यही है। ब्रह्म का मतलब होता है, दि एक्सपैंडिंग।
अभी
आइंस्टीन के बाद यह पता चला है कि विश्व जो है, ब्रह्मांड जो है, वह फैल रहा है, वह एक्सपैंड कर रहा है। वह ठहरा हुआ
नहीं है। सब तारे अरबों-खरबों मील प्रति सेकेंड के हिसाब से फैलते चले जा रहे हैं,
जैसे कोई हवा का फुग्गा हो रबर का, और उसमें
हम हवा भरते जाएं और वह फैलता चला जाए। ऐसा हमारा यह विश्व ठहरा हुआ नहीं है,
यह फैलता चला जा रहा है; इसकी सीमाएं रोज बड़ी
हो रही हैं। यह अंतहीन फैलाव है।
जिसे
पहली दफे ब्रह्म शब्द सूझा होगा, वह आदमी अदभुत रहा होगा, क्योंकि
ब्रह्म का मतलब होता है फैलना--फैलते ही चले जाना; फैलते ही
चले जाना। लेकिन कितना अदभुत है, जिन लोगों ने ब्रह्म शब्द
खोजा, उन्हीं लोगों ने सिकोड़ने की फिलासफी खोजी। वे कहते हैं,
सिकुड़ते चले जाओ--अपरिग्रह, अनासक्ति, त्याग, वैराग्य--सिकुड़ो, छोड़ो,
जो है उससे भागो और सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ,
जब तक बिलकुल मर न जाओ तब तक सिकुड़ते चले जाओ।
संतोष
इसका आधार बना,
सिकुड़ना इसका क्रम बना, और भारत की आत्मा
सिकुड़ गई और संतुष्ट हो गई। अब जरूरत है कि फैलाओ इसे। इस चौराहे पर फैलने का
निर्णय लेना पड़ेगा। छोड़ो संतोष, लाओ नए असंतोष, नए डिसकंटेंट। दूर को जीतने की, दूर को पाने की,
दूर को उपलब्ध करने की आकांक्षा को जगाओ, अभीप्सा
को जगाओ, कि जो भी पाने योग्य है पाकर रहेंगे; जो नहीं पाने योग्य है उसको भी पाकर रहेंगे; तो इस
मुल्क की प्रतिभा में प्राण आएं, तो इसके भीतर से कुछ जगे।
क्योंकि जब भी कुछ जगता है तब फैलना चाहता है। और जब फैलना नहीं चाहते आप तो सोने
के सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाता। सो जाता है सब।
अभीप्सा
जगानी है--डिसकंटेंट,
असंतोष। कहीं अगस्तीन ने एक शब्द लिखा है, वह
मुझे प्रीतिकर हो गया। लिखा है उसने, डिवाइन डिसकंटेंट। लिखा
है, धार्मिक असंतोष; लिखा है, पवित्र असंतोष। सच में असंतोष से ज्यादा पवित्र और कुछ भी नहीं है,
क्योंकि असंतोष गति है, विकास है, परिवर्तन है, क्रांति है।
इसलिए
आज की चर्चा में यह दूसरा सूत्र दोहरा दूं और बात पूरी करूं। विश्वास नहीं, चाहिए
विचार। अंधापन नहीं, चाहिए संदेह। अंधे विश्वासों की
शृंखलाएं नहीं, चाहिए वैज्ञानिक चिंतन। संतोष नहीं, चाहिए असंतोष। अगति नहीं, चाहिए गति, चाहिए अभीप्सा--अनंत को जीत लेने की, फैल जाने की।
काश
भारत के मन में अनंत की यह अभीप्सा जाग जाए तो हम अपनी सोई हुई आत्मा को पुनः जगा
सकते हैं। और ध्यान रहे,
जागा हुआ भारत ही निर्णय ले सकेगा कि इस चौराहे से कहां जाए;
सोया हुआ भारत तो इसी चौराहे पर अफीम खाकर सोया रहेगा। अफीम के हमने
अच्छे-अच्छे नाम रखे हैं। किसी अफीम की पुड़िया पर लिखा है राम-नाम। किसी अफीम की
पुड़िया पर लिखा है भगवत-भजन। किसी अफीम की पुड़िया पर कुछ और, किसी अफीम की पुड़िया पर कुछ और। अफीम की पुड़िएं तैयार हैं। भक्तगण अफीम की
पुड़िएं लेकर चौरस्ते पर सो रहे हैं। और आप पूछते हैं कि समाज परिवर्तन के चौराहे
पर? और समाज अफीम खाकर सोया हुआ है! कौन परिवर्तन? कैसा चौराहा? कहां जाना है? झंझट
में मत पड़ो--अफीम लो, सो जाओ। सोने से ज्यादा सरल, सुविधापूर्ण और कुछ भी नहीं है।
इस
संबंध में जो भी प्रश्न हों वह आप लिख देंगे, कल सुबह हम उनकी बात कर सकें।
मेरी
बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में
सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम
स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें