कुल पेज दृश्य

शनिवार, 2 जनवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--36)

(अध्‍याय—छत्‍तीसवां)

 सुबह पूना से बंबई जाने वाली गाड़ी डेकन क्वीन' पर दो फर्स्ट क्लास की टिकटें बुक की गई हैं। मैं बहुत —उत्साहित हूं और गाड़ी में साढ़े—तीन घंटे तक ओशो के साथ बैठने की राह देख रही हूं। सोहन हमें गाड़ी में खाने के लिए कुछ नाश्ता बनाकर देना चाहती है, पर ओशो उसे कहते हैं कि वह इस सबकी चिंता में न पड़े।

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--35)

(अध्‍याय—पैतीसवां)

शो पूना में सोहन के घर ठहरे हुए हैं। दोपहर को कोई कहता है, 'आज पूर्णिमा है।मैं जानती हूं कि ओशो पूर्णिमा को नौका—विहार के लिए जाना पसंद करते हैं, इस बारे में मैं उनसे पूछती हूं। वे सहमत हो जोत हैं और सोहन के पति, बाफना जी को, जो कि बोट क्लब के. सदस्य हैं, कहते हैं कि एक बड़ी नाव बुक कर लें और अन्य मित्रों को भी आमंत्रित कर लें, क्योंकि ओशो आनंद व उत्सव के अवसरों को मित्रों के साथ बांटना पसंद करते हैं।

सुन भई साधो--(प्रवचन--15)

धर्म और संप्रदाय में भेद—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक: 15 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

साधो देखो जग बौराना।
सांची कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
हिंदू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहमाना
आपस में दोउ लड़े मरतु हैं, मरम कोई नहिं जाना।।
बहुत मिले मोहि नेमी धरमी, प्रात करै असनाना
आतम छोड़ि पखाने पूजैं, तिनका थोथा ग्याना।।
आसन मारि डिम्भ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ वर्त भुलाना।।
माला पहिरे टोपी पहिरे, छाप तिलक अनुमाना

साखी सबदै गावत भूलै, आतम खबर न जाना।।
घर घर मंत्र जो देत फिरत है, माया के अभिमाना
गुरुवा सहित सिष्य सब बूड़ें, अंतकाल पछिताना।।
बहुतक देखे पीर औलिया, पढ़ै किताब कुराना
करै मुरीद कबर बतलावै, उनहुं खुदा न जाना।।
हिंदू की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी।
वह करै जिबह वां झटका मारै, आग दोउ घर लागी।।
या विधि हंसी चलत है हमको, आप कहावै स्याना।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना।।

सुन भई साधो--(प्रवचन--16)

अभीप्सा की आग: अमृत की वर्षा--(प्रवचन--सोहलवां)

दिनांक: 16 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

मो को कहां ढूंढ़ो रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
ना मैं बकरी ना मैं भेड़ी, ना मैं छुरी गंड़ास में।।

नहिं खाल में नहिं पोंछ में, ना हड्डी ना मांस में।
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे कैलास में।।

ना तो कौनो क्रिया कर्म में, नहिं जोग बैराग में।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।।

मैं तो रहौं सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में।।