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मंगलवार, 29 जनवरी 2013

ओशो: भगवान या आम आदमी ?

ए बी पी न्‍यूज का प्रश्न—
     18 जनवरी को सायं 9:30 अपने प्राइम स्‍लॉट पर प्रमुख न्‍यूज चैनल ए बी पी ने ओशो की पुण्‍य तिथि’—19 जनवरी—के अवसर पर एक विशेष कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया। इससे पहले कि हम इस कार्यक्रम की विषय वस्‍तु पर बात करें, यह स्‍पष्‍ट हो जाना जरूरी है कि ओशो की कोई पूण्‍य तिथि नहीं है। ओशो के लिए सभी तिथियां पुण्‍य है क्‍योंकि उनकी देशना के अनुसार इस अस्‍तित्‍व में पुण्‍य के अतिरिक्‍त और कुछ है ही नहीं। जन्‍म-मरण की तिथियां ओशो पर लागू नहीं होती। अपना शरीर छोड़ने के चालीस दिन पूर्व ही लिखवा दिया था—ओशो: जिसका न कभी जन्‍म हुआ न मृत्‍यु,जो केवल इस पृथ्‍वी ग्रह की यात्रा पर आये।

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

05--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

पोकर-कहानी

(दसघरा की दस कहानियां )

बढ़ी अम्माँ बैल गाड़ियों की लीक के किनारे बैठी हुई, को दूर से देखने पर ऐसी लग रही थी, जैसे कोई मूर्ति बैठी हो। उसका शरीर एक दम थिर था, वह बिना हलचल के शांत मौन मुद्रा लिए हुए। कितनी-कितनी देर तक बिना हीले-डुले, बिना अपनी मुद्रा बदले वह इसी तरह बैठी सामने वाले मार्ग की और निहारती रहती थी। उसकी आंखों में, उसके चेहरे की झुर्रियां में, दुख, पीड़ा और संताप की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। सालों से अम्माँ इसी तरह नितांत अकेली यहाँ आकर रोज बैठती थी। वह वहां बैठ कर दूर उन धुँधली आँखों से जाने क्या देखती रहती थी। मानों उसे कुछ दिखाई देता था या नहीं कहा नहीं जा सकता। परंतु उसके देखने मात्र से ऐसा लगता मानो क्षितिज का पोर-पोर निहार रही हो। अचानक दूर कहीं पर जब कोई आहट होती या किन्हीं बेलों के पैरो से उड़ती धूल उसे दिखाई दे जाती तब वह अपना दायां हाथ आँखों पर रख अपनी मुद्रा बदल लेती थी। तब अपने आप को सहज समेट कर तैयार हो जाती था। मानों वह आ रहा है जिसकी राह तक रही थी, वो आने वाला है। न ही कोई आने वाला था न ही आ रहा था। परंतु उसकी ये कोशिश सालो से बेकार जा रही थी। क्‍योंकि अब अम्‍मा की आँखें इतनी कमजोर ओर धुँधली हो गई थी, दूर का तो आप छोड़ो शायद वह पास का भी नहीं देख पाती होगी। वह अंदर और बाहर से एक समान हो गई थी। मानो कोई जीवित आदमी किसी मूर्ति का रूप ले कर यहां विराजमान हो गया है। वह मूर्ति अपनी जैसे अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने के लिए, आने वाले किसी कलाकार की राह तक रही हो।

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—112 (ओशो)

चौथी विधि:
     आधारहीन, शाश्‍वत, निश्‍चल आकाश में प्रविष्‍ट होओ।
     इस विधि में आकाश के, स्‍पेस के तीन गुण दिए गए है।
      1--आधारहीन: आकाश में कोई आधार नहीं हो सकता।
      2--शाश्‍वत: वह कभी समाप्‍त नहीं हो सकता।
      3--निश्‍चल: वह सदा ध्‍वनि-रहित व मौन रहता है।
      इस आकाश में प्रवेश करो। वह तुम्‍हारे भीतर ही है।
      लेकिन मन सदा आधार खोजता है। मेरे पास लोग आते है और मैं उनसे कहता हूं, आंखें बंद कर के मौन बैठो और कुछ भी मत करो। और वे कहते है, हमें कोई अवलंबन दो, सहारा दो। सहारे के लिए कोई मंत्र दो। क्‍योंकि हम खाली बैठ नहीं सकते है। खाली बैठना कठिन है। यदि मैं उन्‍हें कहता हूं कि मैं तुम्‍हें मंत्र दे दूं तो ठीक है। तब वह बहुत खुश होते है। वे उसे दोहराते रहते है। तब सरल है।

सोमवार, 21 जनवरी 2013

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—110 (ओशो)

  दूसरी विधि:
     हे गरिमामयी, लीला करो। यह ब्रह्मांड एक रिक्‍त खोल है जिसमें तुम्‍हारा मन अनंत रूप से कौतुक करता है।
     यह दूसरी विधि लीला के आयाम पर आधारित है। इसे समझे। यदि तुम निष्क्रिय हो तब तो ठीक है कि तुम गहन रिक्तता में, आंतरिक गहराइयों में उतर जाओ। लेकिन तुम सारा दिन रिक् नहीं हो सकते और सारा दिन क्रिया शून् नहीं हो सकते। तुम्हें कुछ तो करना ही पड़ेगा। सक्रिय होना एक मूल आवश्यकता है। अन्यथा तुम जीवित नहीं रह सकते। जीवन का अर्थ ही है सक्रियता। तो तुम कुछ घंटों के लिए तो निष्क्रिय हो सकते हो। लेकिन चौबीस घंटे में बाकी समय तुम्हें सक्रिय रहना पड़ेगा।

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—111 (ओशो)

   तीसरी विधि:
            हे प्रिये, ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो। फिर दोनों को छोड़ दो ताकि तुम हो सको।
            ज्ञान और अज्ञान, अस्‍तित्‍व और अनस्‍तित्‍व पर ध्‍यान दो।
      जीवन के विधायक पहलू पर ध्‍यान करो और ध्‍यान को नकारात्‍मक पहलू पर ले जाओ, फिर दोनों को छोड़ दो क्‍योंकि तुम दोनों ही नहीं हो।
      फिर दोनों को छोड़ सको ताकि तुम हो सको।
      इसे इस तरह देखो: जन्‍म पर ध्‍यान दो। एक बच्‍चा पैदा हुआ, तुम पैदा हुए। फिर तुम बढ़ते हो, जवान होते हो—इसे पूरे विकास पर ध्‍यान दो। फिर तुम बूढ़े होते हो। और मर जाते हो। बिलकुल आरंभ से, उस क्षण की कल्‍पना करो जब तुम्‍हारे पिता और माता ने तुम्‍हें धारण किया था। और मां के गर्भ में तुमने प्रवेश किया था। बिलकुल पहला कोष्ठ। वहां से अंत तक देखो, जहां तुम्‍हारा शरीर चिता पर जल रहा है। और तुम्‍हारे संबंधी तुम्‍हारे चारों और खड़े है। फिर दोनों को छोड़ दो, वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। वह जो पैदा हुआ और वह जो मरा। फिर दोनों को छोड़ दो और भीतर देखो। वहां तुम हो, जो न कभी पैदा हुआ और न कभी मरा।

बुधवार, 16 जनवरी 2013

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—109 (ओशो)

पहली विधि:
     अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—सर्वथा रिक्‍त।
     अपने निष्‍क्रिय रूप को त्‍वचा की दीवारों का एक रिक्‍त कक्ष मानो—लेकिन भीतर सब कुछ रिक्‍त हो। यह सुंदरतम विधियों में से एक है। किसी भी ध्‍यानपूर्ण मुद्रा में, अकेले, शांत होकर बैठ जाओ। तुम्‍हारी रीढ़ की हड्डी सीधी रहे और पूरा शरीर विश्रांत, जैसे कि सारा शरीर रीढ़ की हड्डी पर टंगा हो। फिर अपनी आंखें बंद कर लो। कुछ क्षण के लिए विश्रांत, से विश्रांत अनुभव करते चले जाओ। लयवद्ध होने के लिए कुछ क्षण ऐसा करो। और फिर अचानक अनुभव करो कि तुम्‍हारा शरीर त्‍वचा की दीवारें मात्र है और भीतर कुछ भी नहीं है। घर खाली है, भीतर कोई नहीं है। एक बार तुम विचारों को गुजरते हुए देखोंगे, विचारों के मेघों को विचरते पाओगे। लेकिन ऐसा मत सोचो कि वे तुम्‍हारे है। तुम हो ही नहीं। बस ऐसा सोचो कि वे रिक्‍त आकाश में घूम हुए आधारहीन मेध है,  वे तुम्‍हारे नहीं है। वे किसी के भी नहीं है। उनकी कोई जड़ नहीं है।

सोमवार, 14 जनवरी 2013

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—108 (ओशो)

तीसरी विधि:
     यह चेतना ही प्रत्‍येक की मार्ग दर्शक सत्ता है, यही हो रहो।
            पहली बात, मार्गदर्शक तुम्‍हारे भीतर है, पर तुम उसका उपयोग नहीं करते। और इतने समय से, इतने जन्‍मों से तुमने उसका उपयोग नहीं किया है। कि तुम्‍हें पता ही नहीं है कि तुम्‍हारे भीतर कोई विवेक भी है। मैं कास्‍तानेद की पुस्‍तक पढ़ रहा था। उसका गुरु डान जुआन उसे एक सुंदर सा प्रयोग करने के लिए देता है। यह प्राचीनतम प्रयोगों में से एक है।
      एक अंधेरी रात में, पहाड़ी रास्‍ते पर कास्‍तानेद का गुरु कहता है, तू भीतरी मार्गदर्शक पर भरोसा करके दौड़ना शुरू कर दे। यह खतरनाक था। यह खतरनाक था। पहाड़ी रास्‍ता था। अंजान था। वृक्षों झाड़ियों से भरा था। खाइयां भी थी। वह कहीं भी गिर सकता था। वहां तो दिन में भी संभल-संभलकर चलना पड़ता था। और यह तो अंधेरी रात थी। उसे कुछ सुझाई नहीं पड़ता था। और उसका गुरू बोला, चल मत दौड़।

शनिवार, 12 जनवरी 2013

04--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

फूल वाला-कहानी  


(दसघरा की दस कहानियां)-

फजलू मियां की पान की दुकान मोहल्‍ले की नाक थी। उसी के सामने एक बड़ा सा खुला चौक पसरा पड़ा था। जो भविष्‍य के गावस्‍कर, कपि‍ल, सचिन, लाला अमरनाथ तैयार होने की नर्सरी का काम करता था। अब इस नर्सरी से चाहे सारा मोहल्‍ला परेशान क्‍यो न हो परन्‍तु मजाल क्‍या कोई उन्‍हें ड़ाटे-डप्‍टे या कुछ कहने की हिम्मत कर सकता था। ये मोहल्ले के लिए ही नहीं, पूरे देश के साथ भी गद्दारी समझी जाती। अरे भाई किसे पता है, कल कोई निकल जाये यहीं से सहवाग, गौतम गम्भीर, या धोनी जो दूर दराज मोहल्‍ले का नाम रौशन करेगा। तब आप उस पर ताली कैसे बजा सकेंगे आपको अपने पर तब शर्म नहीं आयेगी। पूरे मोहल्ले को एक आस थी, की एक दिन जरूर यहां से एक ऐसा खिलाड़ी निकलेगा की सारा देश जान जायेगा इसे गांव को इस मोहल्ले को। फिर इस गांव को ही नहीं पूरे देश को उस पर नाज होगा। उस महान विभूति के साथ इस मोहल्ले को भी अपने पर बहुत गर्व होगा। देखो आस उम्मीद तो रखनी ही पड़ेगी आपको। परन्‍तु इस आस उम्मीद के देखते-देखते ये तीसरी पीढ़ी चली गई। बड़े नवाब पटौदी से लेकर धोनी जी क्या अब तो विराट कोहली जी सम्हाल चुके है बाग डोर भारत की। पर मजाल है आज तक ये साध पूरी हुई हो। पर एक आस है भविष्‍य के इन दुलारो से आज नवाब रजवाड़ों से क्रिकेट निकल कर गली मोहल्‍ले में तो आ गई है। सो भविष्‍य के इन जुगनुओं से उम्‍मीद है एक दिन मोहल्‍ले का नाम चमकायेंगे। इसलिए वो कितना भी शोर मचाये, कैसा ही चौका-छक्‍का मारे, बीच में खुदा ना खासता आप आ गये और बाल ने आपकी मूंह पीठ या गाल तक की भी चुम्बन ले ली तो आपको केवल मुस्कराना है। किसी किस्‍म का कोई प्रतिरोध नहीं करना है। भले ही मोना लिसा जैसी आपकी मुस्‍कान न हो, आपकी हंसी की। इसके अलावा शाबाशी के लिए अगर आप ने ताली भी बजा दी तो ये हुई न सोने पे सुहागे वाली बात पूरी, ‘गुड़ शाँट .... बैल प्लेयड़ सर’ कह कर तो आप चार कदम और भी आगे चले गए। ये तो भला हो फटा-फट क्रिकेट का जो टेनिस के बाल से बच्‍चे खेलते है, वरना तो न किसी का सर होता न खिड़कियों पर कांच।

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—107 (ओशो)

दूसरी विधि:
     यह चेतना ही प्रत्‍येक प्राणी के रूप में है। अन्‍य कुछ भी नहीं है।
     अतीत में वैज्ञानिक कहा करते थे कि केवल पदार्थ ही है और कुछ भी नहीं है। केवल पदार्थ के ही होने की धारणा पर बड़े-बड़े दर्शन के सिद्धांत पैदा हुए। लेकिन जिन लोगों की यह मान्‍यता थी कि केवल पदार्थ ही है वे भी सोचते थे कि चेतना जैसा भी कुछ है। तब वह क्‍या था? वे कहते थे कि चेतना पदार्थ का ही एक बाई-प्रोडेक्ट है, एक उप-उत्‍पाद है। वह परोक्ष रूप में, सूक्ष्‍म रूप में पदार्थ ही था।
      लेकिन इस आधी सदी ने एक महान चमत्‍कार होते देखा है। वैज्ञानिकों ने यह जानने का बहुत प्रयास किया कि पदार्थ क्‍या है। लेकिन जितना उन्‍होंने प्रयास किया उतना ही उन्‍हें लगा कि पदार्थ जैसा तो कुछ भी नहीं है। पदार्थ का विश्‍लेषण किया गया और पाया कि वहां कुछ नहीं है।

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

03--दसघरा गांव की दस कहानियां--(मनसा-मोहनी)

बाँझ -कहानी

(दसघरा की दस कहानियां)

घर क्‍या था, एक भुतिया बंगला ही समझो। घर बनता है परिवार से, बच्‍चों की किलकारीयों से, इतनी बड़ी हवेली नुमा मकान के अंदर रहने को जिसमें मात्र एक पाणी हो, उसे घर कहना कुछ अनुचित सा लगता है। रहने के नाम पर इस समय उस मकान में एक बूढ़ी अम्‍मा ही थी। कितने चाव से उस हवेली को उसके ताऊ ने बनवाया था। उसकी ऊंची अट्टालिकाएं, जाली दार मेहराब। बरांडा जो मकान की शोभा के साथ बरसात को कमरों में झाँकने भी नहीं देता था। उस बरामदे के मुहाने पर चारों और करीने से खड़े पाये प्रहरी जैसे दिखाई देते थे। वे पाये उसकी रक्षा ही नहीं करते थे अपितु कैसे उसकी शोभा और मजबूती ही बढ़ा रहे थे। बल्कि वे उसके चारों और प्रहरी से खड़े अति सुंदर लगते थे। किलेनुमा उसकी शानदार नक्काशी, शीशम और दार का बना लकड़ी के दरवाजे। जिसमें पीतल की कील, कुंडे, कड़े, और सांकल लगी थी। उस बड़े मुख्य गेट का तो बस क्या कहना वो तो उस हवेली के सर का ताज ही था। जब पचास साल पहले उसे खीमूं खाती बना रहा था तब, कैसे आस पास के दस गांव के लोग उसे देखने के लिए आए थे।

खीमूं खाती महीनों उस दरवाजे पर काम करता रहा, उस पर नक्काशी निकालता रहा फूल फूम्‍मन बनाता रहा। लाल शीशम की लकड़ी के बने वो दरवाजे, उस पर काम करते-करते खीमूं खाती के हाथ रह जाते थे। थक कर वह एक लम्‍बी सांस लेता और फिर रंदा चलाने लग जाता था। आराम करने के बहाने जब वह थक जाता तो कहता: ‘’देखना चौधरी अगर सौ साल तक भी इसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। ये लकड़ी नहीं है यह तो लोहा है, तूने भी किस जन्‍म का बेर मुझ से निकला है। इसे छिलते-छिलते तो मैं बूढ़ा ही जाऊँगा। और हां श्‍याम को दो सेर दूध और पाव भर घी जरूर ले कर जाऊँगा। वरना तो कल की नागा ही समझो।

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—106 (ओशो)

पहली विधि:
हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो। अंत: आत्‍मचिंता को त्‍यागकर प्रत्‍येक प्राणी हो जाओ।
     हर मनुष्‍य की चेतना को अपनी ही चेतना जानो।
      वास्‍तव में ऐसा ही है, पर ऐसा लगता नहीं। अपनी चेतना को तुम अपनी चेतना ही समझते हो। और दूसरों की चेतना को तुम कभी अनुभव नहीं करते। अधिक से अधिक तुम यही सोचते हो कि दूसरे भी चेतन है। ऐसा तुम इसीलिए सोचते हो क्‍योंकि जब तुम चेतन हो तो तुम्‍हारे ही जैसे दूसरे प्राणी भी चेतन होने चाहिए। यह एक तार्किक निष्कर्ष है; तुम्‍हें लगता नहीं कि वे चेतन है। यह ऐसे ही है जैसे जब तुम्‍हें सिर में दर्द होता है तो तुम्‍हें उसका पता चलता है, तुम्‍हें उसका अनुभव होता है। लेकिन यदि किसी दूसरे के सिर में दर्द है तो तुम केवल सोचते हो, दूसरे के सिर-दर्द को तुम अनुभव नहीं कर सकते। तुम केवल सोचते हो कि वह जो कह रहा है सच ही होना चाहिए। और उसे तुम्‍हारे सिर-दर्द जैसा ही कुछ हो रहा होगा। लेकिन तुम उसे अनुभव नहीं कर सकते।

बुधवार, 9 जनवरी 2013

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—105 (ओशो)

चौथी विधि   
            सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।
     सत्‍य में रूप अविभक्‍त है।
      वे विभक्‍ति दिखाई पड़ते है, लेकिन हर रूप दूसरे रूपों के साथ संबंधित है। वह दूसरों के साथ अस्‍तित्‍व में है—बल्‍कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्‍तित्‍व में है—बल्‍कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्‍तित्‍व में है। हमारी वास्‍तविकता एक सह सही अस्‍तित्‍व है। वास्‍तव में यह एक पारस्‍परिक वास्‍तविकता है। पारस्‍परिक आत्मीय ता है। उदाहरण के लिए, जरा सोचो कि तुम इस पृथ्‍वी पर अकेले हो। तुम क्‍या होओगे? पूरी मनुष्‍यता समाप्‍त हो गई हो, तीसरे विश्‍वयुद्ध के बाद तुम्‍हीं अकेले बचे हो—संसार में अकेले, इस विशाल पृथ्‍वी पर अकेले। तुम कौन होओगे?

सोमवार, 7 जनवरी 2013

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—104 (ओशो)

तीसरी विधि:
     हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।
     जो कुछ भी हम देखते है सीमित है, जो कुछ भी हम अनुभव करते है सीमित है। सभी आभास सीमित है। लेकिन यदि तुम जाग जाओ तो हर सीमित चीज असीम में विलीन हो रही है। आकाश की और देखो। तुम केवल उसका सीमित भाग देख पाओगे। इसलिए नहीं कि आकाश सीमित है, बल्‍कि इसलिए कि तुम्‍हारी आंखें सीमित है। तुम्‍हारा अवधान सीमित है। लेकिन यदि तुम पहचान सको कि यह सीमा अवधान के कारण है, आंखों के कारण है, आकाश के सीमित होने के कारण नहीं है तो फिर तुम देखोगें कि सीमाएं असीम में विलीन हो रही है। जो कुछ भी हम देखते है वह हमारी दृष्‍टि के कारण ही सीमित हो जाता है। वरना तो अस्‍तित्‍व असीम है। वरना तो सब चीजें एक दूसरे में विलीन हो रही है। हर चीज अपनी सीमाएं खो रही है। हर क्षण लहरें महासागर में विलीन हो रही है। और न किसी को कोई अंत है, न आदि। सभी कुछ शेष सब कुछ भी है।