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बुधवार, 30 सितंबर 2009

गलत उसूलों में ढाला मनुष्य आचरण---


ऐसी मनुष्‍यता जमीन पर कभी नहीं थी।
लेकिन आज तक जो मनुष्‍य को अब तक गलत उसूलों पर ढाला गया है।
इसलिए समाज ऊँचा नहीं उठ पाया।
समाज ऊंचा उठेगा उसी दिन,
जिस दिन हम मनुष्‍य की सहजता को स्‍वीकार कर लगें,
सरलता को, उसके व्‍यक्तित्‍व में जो भी है।
उसको स्‍वीकार कर लेंगे, उसको समझेंगे,
उस पर मेडि़टेट करेंगे,
उस पर ध्‍यान को विकसित करेंगे।
दुनिया में संयम की नहीं, ध्‍यान की जरूरत है।
आदमी को कंट्रोल की नहीं, मेडि़‍टेशन की जरूरत है।
आदमी को जागना सिखाना है।
और अगर हम जागना सिखा सकें,
तो एक दूसरी मनुष्‍यता पैदा हो जाएगी, मनुष्‍यता है।
वह गलत सिद्धांतों के कारण गलत है।





अनुपयोगी का महत्व—

जीवन में जो भी महत्‍वपूर्ण है,

वह परपजलेस, प्रयोजन मुक्‍त है।

जीवन में जो भी महत्‍वपूर्ण है।

उसकी बाजार में कोई कीमत नहीं है।

प्रेम की कोई कीमत नहीं है,

आनंद की कोई कीमत नहीं है,

प्रार्थना की कोई कीमत नहीं है।

परमात्‍मा की कोई कीमत नहीं है।

न ध्‍यान की कोई कीमत है,

लेकिन जिस जिंदगी में कोई अनुपयोगी,

नॉन-यूटिलिटेरियन मार्ग नहीं होता।

उस जिंदगी में सितारों की चमक भी खो जाती है।

उस जिंदगी में फूलों की सुगंध भी खो जाती है।

उस जिंदगी में पक्षियों के गीत भी खो जाते है।

उस जिंदगी में नदियों की दौड़ती हुई गति भी खो जाती है।

उस जिंदगी में कुछ नहीं बचता, सिर्फ बाजार बचता है।

उस जिंदगी में काम के सिवाय कुछ भी नहीं बचता।

उस जिंदगी में तनाव और परेशानी,

चिंताओं के सिवाय कुछ नहीं बचता।

मुक्ताचार--



मैं लोगों को नियम तोड़ कर
पशु-पक्षियों की भीति जीने को नहीं कह रह हूँ।
मैं लोगों को जाग कर बुद्धों की भांति जीने को कह रहा हूँ।
इस मुक्‍ताचार को उसी अर्थ में, मुक्‍ताचार नहीं कहां जा सकता है।
जिस अर्थ में पश्चिम में एक समाज निर्मित हो रहा है।
यह मुक्‍ताचार मुक्‍तों का आचरण है।

साधुता—‘’’बिन बाती बिन तेल’’

साधुता अकेले हो सकती है।
क्‍योंकि साधुता ऐसा दीया है,
जो बिन बाती बिन तेल जलता है।

साधुता अकेले नहीं हो सकती।

उसके लिए दूसरों का तेल और बाती

और सहारा सब कुछ चाहिए।

असाधुता एक सामाजिक संबंध है।

साधुता असंगता का नाम है।

वह कोई संबंध नहीं है,

वह कोई रिलेशनशिप नहीं है।

वह तुम्‍हारे अकेले होने का मजा है।

इसलिए साधु एकांत खोजता है, असाधु भीड़ खोजता है,

असाधु एकांत में भी चला जाए तो कल्‍पना से भीड़ में होता है।

साधु भीड़ में भी खड़ा रहे तो भी अकेला होता है।

क्‍योंकि एक सत्‍य उसे दिखाई पड़ गया है।

कि जो भी मेरे पास मेरे अकेलेपन में है,

वहीं मेरी संपदा है।

जो दूसरे की मौजूदगी से मुझमें होता है,

वही असत्‍य है, वही माया है।

वह वास्‍तविक नहीं है।

प्रेम और ध्यान—


मैं तो दो ही शब्‍दों पर जोर देता हूं, प्रेम और ध्‍यान।
क्‍योंकि मेरे लेखे अस्तित्‍व के मंदिर के दो ही विराट दरवाजे है,
एक का नाम प्रेम और दूसरे का नाम ध्‍यान,
चाहो तो प्रेम से प्रवेश कर जाओ।
चाहो तो ध्‍यान से प्रवेश कर जाओ।
हालांकि दोनों में से प्रवेश की शर्त एक ही है।
इसलिए तुम्‍हारी मौज।
फासला कुछ भी नहीं हैं।
शर्त एक ही है, अहंकार दोनों में छोड़ना होता है।
ध्‍यान में भी अहंकार को छोड़ना होता है,
प्रेम में भी अहंकार को छोड़ना होता है।
तो चाहो तो यूँ कह लो कि एक ही सिक्‍के के दो पहलू है।
एक तरफ प्रेम, एक तरफ ध्‍यान।

उपनिषद----

उपनिषद घर्म का विज्ञान है।
जैसे विज्ञान पदार्थ के भीतर
छिपे हुए सत्‍य को खोजता है।
जैसे विज्ञान पदार्थ को तोड़ता है,
अणु-अणु को तोड़ता है और उसके भीतर
छिपी हुई ऊर्जा का पता लगाता है,
नियम की खोज करता है।
किस नियम के आधार पर पदार्थ चल रहा है।
इसका अन्‍वेषण करता है।
वैसे ही उपनिषद चेतन के
अणु-अणु में प्रवेश करते है।
और चैतन्‍य का क्‍या नियम है,
और चैतन्‍य कैसे जगत में गतिमान है,
कैसे स्थिर है, कैसे छिपा है,
कैसे प्रकट है, इसकी खोज करते है।

परमात्मां से संबंध---

ध्‍यान रहे, इसे एक सुत्र, गहरा सुत्र समझ लें,
कि जो मैं हूं, जैसा मैं हूँ, जहां में हूँ,
उसी तरह के संबंध मेरे निर्मित हो सकते है।

अगर मैं मानता हूँ मैं शरीर हूँ,
तो मेरा संबंध केवल उनसे ही हो सकता है जो शरीर है।
अगर मैं मानता हूँ कि मैं मन हूं,
तो मेरा संबंध उनसे होंगे जो मानते है कि मैं मन हूं,
अगर मैं मानता हूं कि मैं चेतना हूं,
तो मेरा संबंध उनसे हो सकेंगे जो मानते है कि वे चैतन्‍य है।
अगर मैं परमात्‍मा से संबंध जोड़ना चाहता हूं,
तो मुझे परमात्‍मा कि तरह ही शून्‍य और निराकार हो जाना पड़ेगा,
जहां मैं कि कोई ध्‍वनि भी न उठती हो,
क्‍योंकि मैं आकार देता है।
वहां सब शून्‍य होगा तो ही मैं शून्‍य से जुड़ पाऊंगा।
निराकार भीतर मैं हो जाऊँ,
तो ही बाहर के निराकार के जुड़ पाऊँ गा।
जिससे जुड़ना हो,
वैसे ही हो जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं है।

जिसको खोजना हो,

वैसे ही बन जाने के सिवाय और कोई उपाय नहीं

आचरण नहीं—''आत्मा''

मैं आचरण नहीं सिखाता,
मैं तो सिर्फ एक बात ही सिखाता हूँ—ध्‍यान।

तुम निर्विचार होने लगो,
तुम शांत होने लगो,
तुम मौन होने लगो,
फिर शोष सब उससे आएगा।
फिर एक दिन ब्रह्रम्‍चर्य भी आएगा।
और एक दिन तुम्‍हारा भोजन में जो पागल रस है,
वह भी चला जाएगा।
वस्‍त्रों से तुम्‍हारा जो मोह है, वह भी छूट जाएगा।
मगर मैं कहता नहीं कि छोड़ो,
छूटना चाहिए—सहज, अपने आप।
तो‍ फिर कभी इस तरह की विक्षिप्‍तता नहीं आती।
नहीं तो आज नहीं कल तुम विमला देवी जैसी स्थिति में उलझ जाओगे।
करोड़ों लोग उलझे है, इसी तरह,
मैं इस उलझाव से तुम्‍हें मुक्‍त करना चाहता हूँ।
आचरण नहीं, आत्‍मा।

वासना से मैत्री---

मैं कोई स्‍वेच्‍छाचारी समाज की शिक्षा नहीं दे रहा हूँ।
मैं निश्चित ही चाहता कि तुम मुक्‍त हो ही तब सकोगे,
जब तुम वासना के प्रति सारा दुर्भाव छोड़ दो,
सारी निंदा छोड़ दो।
तुम वासना से मैत्री साधो।
क्‍योंकि वासना तुम्‍हारी है, तुम वासना हो।
दुर्भाव साधोगे, तो भीतर एक कलह शुरू हो जाएगी,
शांति निर्मित नहीं होगी।
लड़ों मत, लड़ोगे तो खंड़-खंड़ हो जाओगे,
दो टुकड़ो में बंट जाओगे।
और आदमी दो टुकड़ो में बंट गया है।
वह आदमी परमात्‍मा को कभी न जान पाएगा।
परमात्‍मा को वही जान पाता है जो एक हो गया है।

समाज—सेवक---

मैं समाज-सेवक पैदा नहीं करना चाहता।
मैं चाहता हूँ ऐसे लोग जो जीवंत है,
जो आनंद से भरे है,
और जिनके आनंद से अपने आप सेवा निकले,
उन्‍हें पता भी न चले की हम सेवा कर रहे है।
मैं तुमसे कोई कर्तव्‍य करने को नहीं कह रहा हूँ।
मैं तो चाहता हूँ, तुम्‍हारे जीवन में जो भी हो,
वह प्रेम से हो, कर्तव्‍य से नहीं।
कर्तव्‍य से जब भी कोई बात होती है,
तो चूक हो जाती है।
कर्तव्‍य का मतलब यह होता है,
करने की इच्‍छा नहीं है, कर रहे है—कर्तव्‍य है।
‘कर्तव्‍य है’ का अर्थ होता है,
चाहते तो नहीं  मजबूर है।                                                        प्रेम से जब तुम करते होतो कर्तव्‍य नहीं होता,
तब तुम्‍हारा आनंद होता है, तुम्‍हारा रस होता है।

सेवा नहीं, ध्यान चाहिए----

सेवा से कुछ भी नहीं होता
जागों। होश सम्‍हालों।
और तब तुम्‍हें दिखाई पड़ेगा कि आदमी दुःखी है,
इसलिए नहीं कि दुनियामें शिक्षा कम है, या दवाइयां कम है।
आदमी दुःखी है इसलिए कि दुनियां में ध्‍यान कम है।
लेकिन यह भी तुम्‍हें तभी पता चलेगा,
जब तुम्‍हारा ध्‍यान जगेगा और तुम्‍हारे दुःख विसर्जित हो जाएंगे--
तब तुम्‍हें पता चलेगा।
फिर तुम दूसरों में भी ध्‍यान को जगाने की कोशिश में लगना।
बस एक काम करने जैसा है कि लोगों का ध्‍यान जगे।
मनुष्‍य इतना परेशान है, क्‍योंकि मूर्च्छित है।
और मनुष्‍य मूर्च्छित होने के कारण दुःखी है।

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

जीवन एक खुला रहस्य--

जीवन एक खुला रहस्‍य है--
ओपन सीक्रेट।
ध्‍यान रहे,
दोहरे शब्‍द उपयोग करता हूँ,
ओपन सीक्रेट—खुला रहस्‍य।
जीवन बिलकुल खुला है।
आँख के सामने है, चारों तरु।
कहीं भी छिपा नहीं है।
कोई पर्दा नहीं है।
फिर भी रहस्‍य है।

कमल की याद---

--

मैं तुम्‍हें कमल की याद दिलाना चाहता हूँ।

कीचड़ की निंदा में मत पेड़ो,
कमल की तलाश करो।,
और जिस कद तुम कीचड़ में कमल को पा लोगे,
उस दिन क्‍या कीचड़ को धन्‍यवाद न दोगे?
उस दिन क्‍या देह को धन्‍यवाद न दोगे?
उस दिन क्‍या इस पार्थिव जगत के प्रति अनुग्रह से न भरोगे?                      
जिस पार्थिव जगत में परमात्‍मा का अनुभव हो सकता है।
क्‍या उस पार्थिव जगत की निंदा की जा सकती है
मैं तुम्‍हें संसार के प्रति प्रेम से भरना चाहता हूँ।
मैं चाहता हूँ कि तुम्‍हारे ह्रदय में संसार के निषेद की
जो सदियों-सदियों पुरानी धारणाओं के संस्‍कार है।
वो आमूल मिट जाएं, उन्‍हें पोंछ डाला जाए।
वे ही तुम्‍हें रोक रहें है,
परमात्‍मा को देखने और जानने से
नाचों, तो तुम पाओगें उसे।
नृत्‍य में वह करीब से करीब होता है।
गुनगुनाओ, गाओ,
तो वह भी गुनगुनाएगा तुम्‍हारे भीतर,

गाएगा तुम्‍हारे भीतर।

ध्‍यान रहें,

परमात्‍मा के मंदिर में वे ही लोग प्रवेश करते है,

जो नाचते हुए प्रवेश करते है, जो हंसते हुए प्रवेश करते है।

जो आनंदित प्रवेश करते है।

रोते हुए लोगों ने परमात्‍मा के द्वार पर कभी मार्ग नहीं पाया है।

मेरा संदेश: उत्सहव, महोत्सभव—

मैं गीत सिखाता हूं,
मैं संगीत सिखाता हूं,
मेरा संदेश एक ही है:
उत्‍सव-महोत्‍सव।
और उत्‍सव-महोत्‍सव को
सिद्धांत नहीं बनाया जा सकता,
केवल जीवनचर्या हो सकती है यह।
तुम्‍हारा जीवन की कह सकेगा।
ओंठों से कहोगे,
बात थोथी और झूठी हो जाएगी।
प्राणों से कहनी होगी,
श्‍वासों से कहनी होगी,
और जहां आनंद है वहीं प्रेम है।
और जहां प्रेम है वहीं परमात्‍मा है।
मैं एक प्रेम का मंदिर बना रहा हूं।
तुम धन्य भागी हो, उस मंदिर के बनाने में।
तुम्‍हारे हाथों का सहारा है,
तुम ईटें चुन रहे हो उस मंदिर की।
तुम द्वार-दरवाजे बन रहे हो उस मंदिर के।।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

संगीत की साधना--

संगीत साधना है।
संगीत की साधना से
अपने आप काव्‍य का
आविर्भाव होता है।
काव्‍य है संगीत की अभिव्‍यक्ति।
काव्‍य है संगीत की देह
और जैसे ही संगीत का जन्‍म होता है।
वैसे ही सौंदर्य का बोध पैदा होता है।
संगीत की संवेदनशीलता में ही
जो अनुभव होता है अस्तित्‍व का
उस अनुभव का नाम सौंदर्य है।
काव्‍य है देह संगीत की,
तुम साधो एक संगीत,
फिर ये दोनों—देह और आत्‍मा,
अपने आप प्रकट होने शुरू होते है।

नीति: काव्यँपूर्ण आचरण—

काव्‍य पैदा होता है
तुम्‍हारे भीतर संगीत के अनुभव से
तुम्‍हारा समस्‍त आचरण काव्‍यपूर्ण हो जाता है।
काव्‍यपूर्ण आचरण से मैं नैतिक आचरण कहता हूँ--
यह मेरी परिभाषा।
तुम मुझसे पूछो कि नीति क्‍या है?
तो मैं कहूंगा: काव्‍यपूर्ण आचरण
ऐसा आचरण जिसमें कविता हो।
मेरी नीति की परिभाषा सौंदर्य-शास्‍त्र परक है।
सौंदर्य कसौटी है।
नीति मैं उसको नहीं कहता
जो तुमने जबर्दस्‍ती थोप ली है।
नीति मैं उसको कहता हूँ
जो तुम्‍हारे भीतर के संगीत के सुनने से
तुम्‍हारे जीवन में अवतरित होनी शुरू हुई है।
आई है, लाई नहीं गई है।
आरोपित नहीं है, स्‍वत: स्‍फूर्त है, स्‍फुरणा हुई है।

सौंदर्य: परमात्मा का निकटतम द्वार--

सौंदर्य परमात्‍मा का निकटतम द्वार है।
जो सत्‍य को खोजने निकलते है,
वे लंबी यात्रा पर निकले है।
उनकी यात्रा ऐसी है, जैसे कोई अपने हाथ को
सिर के पीछे से घुमा कर कान पकड़े।
जो सौंदर्य को खोजते है, उन्‍हें सीधा-सीधा मिल जाता है।
क्‍योंकि सौंदर्य अभी मौजूद है-
इन हरे वृक्षों में, पक्षियों की चहचहाहट में,
इस कोयल की आवज में, --सौंदर्य अभी मौजूद है।
सत्‍य को तो खोजना पड़े।
और सत्‍य तो कुछ बौद्धिक बात मालूम होती है, हार्दिक नहीं।
सत्‍य का अर्थ होता है—गणित बिठाना होगा, तर्क करना होगा।

और सौंदर्य तो ऐसा ही बरसा पड़ रहा है।

न तर्क बिठाना, न गणित करना है--

सौंदर्य चारों तरफ उपस्थित है।

धर्म को सत्‍य से अत्‍यधिक जोर देने का परिणाम यह हुआ।

कि धर्म दार्शनिक होकर रह गया, विचार होकर रह गया।

मैं भी तुमसे चाहता हूँ कि तुम सौंदर्य को परखना शुरू करो।

सौंदर्य को, संगीत को, काव्‍य को--

प्रसादपूर्ण जीवन---

मैं धर्म को जीने की कला कहता हूँ।
धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है।
धर्म का मंदिर और मस्जिद से कुछ लेना देना नहीं है।
धर्म तो है जीवन की कला।
जीवन को ऐसे जिया जा सकता है--
ऐसे कलात्‍मक ढंग से, प्रसाद पूर्ण ढंग से।
कि तुम्‍हारे जीवन में जार पंखुडि़यों वाला कमल खिले।
कि तुम्‍हारे जीवन में समाधि लगे,
कि तुम्‍हारे जीवन में भी ऐसे गीत उठे जैसे कोयल के,
कि तुम्हारे भीतर भी ह्रदय में ऐसी-ऐसी भाव-भंगिमाएँ जगें।
जो भाव-भंगिमाएँ अगर प्रकट हो जाएं,
तो मीरा का नृत्‍य पैदा होता है, चैतन्‍य के भजन बनते है।

तंत्र-पदार्थवाद*अध्यासत्मंवाद---



इंद्रधनुष प्रतीक है पृथ्‍वी को आकाश से जोड़ देने का।
मैं पृथ्‍वी के भी प्रेम में हूँ और आकाश के भी प्रेम में।
मैं पदार्थ के भी प्रेम में हूँ और परमात्‍मा के भी प्रेम में।
मैं प्रेम के सेतु से परमात्‍मा और पदार्थ को जोड़ देना चाहता हॅूं।
मैं पदार्थवादी ही नहीं हूँ, मैं अध्‍यात्‍मवादी ही नहीं हूं,
मैं दोनों एक साथ हूं, अगर तुम समझ सको पदार्थवाद*अध्‍यात्‍मवाद।
तो तुम तंत्र को समझ लोगे।
और जो तंत्र को समझेगा,
वही मुझे समझ सकता है।

ध्या‍न: परम संवेदना--

मैं चाहता हूं कि तुम्‍हारा जीवन
संवेदनशील हो, गहन संवेदना से भरा हो।
और इसी सारी संवेदना के बीच में
ध्‍यान की संवेदना पैदा होती है।
ध्‍यान परम संवेदना का नाम है।
जब तुम्‍हारी सारी इंद्रियाँ अपनी समग्रता में,
अपनी परिपूर्णता में सक्रिय होती है।
जागरूक होती है, तो उन्‍ही सबके बीच में
एक नया फूल खिलता है,
जिसका तुम्‍हें अब तक कोई भी पता नहीं था।
मगर उसी भूमिका में वह फूल खिलता है—वह है ध्‍यान।
ध्‍यान का अर्थ है: जीवन के गहनतम की संवेदना।
जीवन में जो रहस्‍यपूर्ण है, उसकी संवेदना।
जो आंखों से नहीं दिखार्इ पड़ता, वह भी दिखाई पड़ने लगे: तो ध्‍यान।
जो कान से नहीं सुनाई पड़ता, वह भी सुनाई पड़ने लगे : तो ध्‍यान।
जो हाथ से नहीं छुआ जा सकता, उसका भी स्‍पर्श होने लगे: तो ध्‍यान।
ध्‍यान तुम्‍हारी सारी संवेदनाओं का सार-निचोड़ है।

घर्म विज्ञान है—




घर्म प्रयोग है, विचार नहीं। घर्म प्रक्रिया है, चिंतना नहीं।
घर्म विज्ञान है, दर्शन नहीं। घर्म फिलासफी नहीं है, साइंस है।
निश्चित ही प्रयोगशाला कोई बाहरी प्रयोगशाला नहीं है।
       कि जहां आप जाएं और
टेस्‍ट–टयूब और सामान जुटा कर प्रयोग करने लगें।
       आप ही प्रयोगशाला बनेंगे।
आपके भीतर ही सारा का सारा प्रयोग फलित होने बाला है।

आनंद से जीओ--

मेरा संदेश छोटा सा है, आनंद से जीओ।


और जीवन के समस्‍त रंग को जीओ,

सारे स्‍वरों को जाओ।

कुछ भी निषेध नहीं करना है।

जो भी परमात्‍मा का है, शुभ है।

जो भी उसने दिया है, अर्थपूर्ण है।

उसमें से किसी भी चीज का इनकार करना,

परमात्‍मा को ही इनकार करना है, नास्तिकता है।

और तब एक अपूर्व क्रांति घटती है। जब तुम सबको स्‍वीकार कर लेते है।

और आनंद से जीने लगते है,

तुम्‍हारे भीतर रूपांतरण की प्रक्रिया शुरू होती है।

तुम्‍हारे भीतर की रसायन बदलती है—क्रोध करूणा बन जाता है।

काम राम बन जाता है।

तुम्‍हारे भीतर कांटे फूलों कि तरह खिलने लगते