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शनिवार, 24 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--018)

विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक—
(प्रवचन—अट्ठारवांअध्‍याय—1—2
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। ६५।।
उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।

विक्षेपरहित चित्त में शुद्ध अंतःकरण फलित होता है? या शुद्ध अंतःकरण विक्षेपरहित चित्त बन जाता है? कृष्ण जो कह रहे हैं, वह हमारी साधारण साधना की समझ के बिलकुल विपरीत है। साधारणतः हम सोचते हैं कि विक्षेप अलग हों, तो अंतःकरण शुद्ध होगा। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध हो, तो विक्षेप अलग हो जाते हैं।
यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों-जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य-कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--017)

मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां—

(प्रवचन—सत्रहवांअध्‍याय—1—2
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। ६२।।
विषयों को चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। और कामना में विघ्न पड़ने से
क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। ६३।।

क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। और मोह से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है। और स्मरणशक्ति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है। और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है।

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--016)

विषय-त्याग नहीं-- रस-विसर्जन मार्ग है—

(प्रवचन—सोलहवां) अध्‍याय—1—2

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। ५६।।
तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई है स्पृहा जिसकी, तथा नष्ट हो गए हैं--राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि कहा जाता है।

समाधिस्थ कौन है? स्थितधी कौन है? कौन है जिसकी प्रज्ञा थिर हुई? कौन है जो चंचल चित्त के पार हुआ? अर्जुन ने उसके लक्षण पूछे हैं। कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता...।
दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर सिर्फ वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख की चाह जहां है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के फूल चाहिए, उसे दुख के कांटों के लिए तैयार होना ही पड़ता है।
इसलिए पहली बात कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पृहा नहीं है, सुख की जिसे आकांक्षा नहीं है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--015)

मोह-मुक्ति, आत्मत्तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता—

(प्रवचन—पंद्रहवांअध्‍याय—1—2

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। ५२।।
और हे अर्जुन, जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को बिलकुल तर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।

 मोहरूपी कालिमा से जब बुद्धि जागेगी, तब वैराग्य फलित होता है। मोहरूपी कालिमा से! मनुष्य के आस-पास कौन-सा अंधकार है?
एक तो वह अंधकार है, जो दीयों के जलाने से मिट जाता है। धर्म से उस अंधकार का कोई भी संबंध नहीं है। वह हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है, नहीं हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर धर्म किस अंधकार को मिटाने के लिए चेष्टारत है?
एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य के शरीर को नहीं घेरता, वरन मनुष्य की चेतना को घेर लेता है। एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य की आत्मा के चारों तरफ घिर जाता है। उस अंधकार को कृष्ण कह रहे हैं, मोहरूपी कालिमा। तो अंधकार और मोह इन दो शब्दों को थोड़ा गहरे में समझना उपयोगी है।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--014)

फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद—
(प्रवचन—चौदहवां) अध्‍याय—1—2 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। ४७।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में कभी नहीं, और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे

 कर्मयोग का आधार-सूत्र: अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--013)

काम, द्वंद्व और शास्त्र से--निष्काम, निर्द्वंद्व और स्वानुभव की ओर—
(प्रवचन—तेरहवां)  अध्‍याय—1—2

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। ४२।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।। ४३।।
हे अर्जुन, जो सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने वाले, स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले, इससे बढ़कर कुछ नहीं है--ऐसे कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौविधीयते।। ४४।।
उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले, तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वाले, उन पुरुषों के अंतःकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--012)

निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया
(प्रवचन—बारहवां)  अध्‍याय—1—2

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।
हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।
अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। होंगे ही अनंत, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे हैं; जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी।
सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लें, तो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा।

बुधवार, 14 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--011)

अर्जुन का जीवन शिखर--युद्ध के ही माध्यम से—
(प्रवचन—ग्‍यारहवांअध्‍याय—1—2

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः
येषांत्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।। ३५।।
और जिनके लिए तू बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।। ३६।।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। ३७।।

तेरे बैरी तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे। फिर उससे अधिक दुख क्या होगा? इसलिए युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है। क्योंकि या तो मरकर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा, अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इससे हे अर्जुन, युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर खड़ा हो।

गीता दर्शन--(प्रवचन--010)

जीवन की परम धन्यता--स्वधर्म की पूर्णता में—
(प्रवचन—दसवां)  अध्‍याय—1—2

प्रश्न: भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक पर सुबह बात हुई--
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना।।
इसमें कहा गया है कि आदि में अप्रकट, अंत में अप्रकट और मध्य में प्रकट है जो, तो यह जो मैनिफेस्टेड है, प्रकट है, इसमें ही द्वैतता का अनुभव होता है। और जो अप्रकट है, उसमें अद्वैत का दर्शन किया जाता है। तो यह जो मध्य में मैनिफेस्टेड है, उसमें जो द्वैतता है, डुअलिज्म है, उसका परिहार करने के लिए आप कोई विशेष प्रक्रिया का सूचन देंगे?

अव्यक्त है प्रारंभ में, अव्यक्त है अंत में; मध्य में व्यक्त का जगत है।
जिब्रान ने कहीं कहा है, एक रात, अंधेरी अमावस की रात में, एक छोटे-से झोपड़े में बैठा था, मिट्टी का एक दीया जलाकर। टिमटिमाती थोड़ी-सी रोशनी थी। द्वार के बाहर भी अंधकार था। भवन के पीछे के द्वार के बाहर भी अंधकार था। सब ओर अंधकार था। केवल उस छोटे-से झोपड़े में उस दीए की थोड़ी-सी रोशनी थी।

सोमवार, 12 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--009)

आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन
(प्रवचन—नौवांअध्‍याय—1—2

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
चैनं क्लेदयन्त्यापोशोषयति मारुतः।। २३।।
हे अर्जुन, इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल नहीं गीला कर सकता है और वायु नहीं सुखा सकता है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। २४।।
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसंदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।। २५।।

गीता दर्शन--(प्रवचन--008)

मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा—
(प्रवचन—आठवांअध्‍याय—1—2

प्रश्न: भगवान श्री,
एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्
उभौ तौविजानीतो नायं हन्तिहन्यते।।
इस श्लोक के बारे में सुबह जो चर्चा हुई, उसमें आत्मा यदि हननकर्ता नहीं या हनन्य भी नहीं है, तो जनरल डायर या नाजियों के कनसनट्रेशन कैंप की घटनाएं कैसे जस्टिफाई हो सकती हैं! टोटल एक्सेप्टिबिलिटी में इनकी क्या उपादेयता है?


 न कोई मरता है और न कोई मारता है; जो है, उसके विनाश की कोई संभावना नहीं है। तब क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि हिंसा करने में कोई भी बुराई नहीं है? क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि जनरल डायर ने या आउश्वित्ज में जर्मनी में या हिरोशिमा में जो महान हिंसा हुई, वह निंदा योग्य नहीं है? स्वीकार योग्य है?

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--007)

भागना नहीं--जागना है—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—1—2

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६।।
और हे अर्जुन, असत (वस्तु) का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है। इस प्रकार, इन दोनों को हम तत्व-ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

क्या है सत्य, क्या है असत्य, उसके भेद को पहचान लेना ही ज्ञान है, प्रज्ञा है। किसे कहें है और किसे कहें नहीं है, इन दोनों की भेद-रेखा को खींच लेना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्या है स्वप्न और क्या है यथार्थ, इसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग है। कृष्ण ने इस वचन में कहा है, जो है, और सदा है, और जिसके न होने का कोई उपाय नहीं है, जिसके न होने की कोई संभावना ही नहीं है, वही सत है, वही रियल है। जो है, लेकिन कभी नहीं था और कभी फिर नहीं हो सकता है, जिसके न हो जाने की संभावना है, वही असत है, वही अनरियल है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--006)



मृत्यु के पीछे अजन्मा, अमृत और सनातन का दर्शन—
(प्रवचन—छठवां)

अध्‍याय—1—2

प्रश्न: भगवान श्री, लक्ष्य के साथ क्रियाएं बनती हैं और निश्चित परिणाम की इच्छा रहती है। अगर हर समय चित्त निरहंकार या निर्विचार रहा, तो क्रियाएं कैसे होंगी? निर्विचार मन कुछ व्यक्त कैसे कर सकता है? सब निरंतर निर्विचार रहने से निष्क्रिय हो जाएं, तो समाज कैसे चल सकता है? समाज नष्ट नहीं हो जाएगा?
  निरहंकार होने से कोई निष्क्रिय नहीं होता है; न ही निर्विचार होने से कोई निष्क्रिय होता है। निरहंकार होने से सिर्फ कर्ता का भाव चला जाता है। लेकिन कर्म परमात्मा को समर्पित होकर पूर्ण गति से प्रवाहित होते हैं। नदी बहती है, कोई अहंकार नहीं है। हवाएं चलती हैं, कोई अहंकार नहीं है। फूल खिलते हैं, कोई अहंकार नहीं है। ठीक ऐसे ही सहज, निरहंकारी जीवन से सब कुछ होता है, सिर्फ भीतर कर्ता का भाव संगृहीत नहीं होता है।

इसलिए सुबह जो मैंने कहा कि अर्जुन का अहंकार ही पूरे समय उसकी पीड़ा और उसका संताप बना है। इसका यह अर्थ नहीं कि वह अहंकार छोड़ दे, तो कर्म छूट जाएगा।

गीता दर्शन--( प्रवचन--005)


अर्जुन का पलायन-- अहंकार की ही—(प्रवचन—पांचवां)
अध्याय १-२
दूसरी अति

अहो बत महत्पापं कर्तुंव्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।। ४५।।

अहो! शोक है कि हम लोग (बुद्धिमान होकर भी) महान पाप करने को तैयार हुए हैं, जो कि राज्य और सुख के लोभ से अपने कुल को मारने के लिए उद्यत हुए हैं।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।। ४६।।
यदि मुझ शस्त्ररहित, न सामना करने वाले को, शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मारें, तो वह मरना भी मेरे लिए
अति कल्याणकारक होगा।

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।। ४७।।

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--004)

दलीलों के पीछे छिपाममत्‍व और हिंसा—

अध्‍याय (1—2) ओशो—प्रवचन—चौथा


प्रश्न :

भगवान श्री, आज सुबह आपने बताया कि गीता अध्यात्म—शास्त्र नहीं है, मानस—शास्त्र है। मगर आपने यह भी बताया कि राम में रावण का अंश होता है और रावण में राम का होता है। वैसे ही गीता में भी क्या ऐसा नहीं हो सकता कि शास्त्र में भी अध्यात्म का कुछ अंश आ गया हो?

मैं अध्यात्म को ऐसी अनुभूति कहता हूं, जो अभिव्यक्त नहीं हो सकती। इशारे दिए जा सकते हैं, लेकिन इशारे अभिव्यक्तिया नहीं हैं। चांद को अंगुली से बताया जा सकता है, लेकिन अंगुली चांद नहीं है।
गीता को जब मैंने कहा कि मनोविज्ञान है, तो मेरा अर्थ ऐसा नहीं है, जैसे कि फ्रायड का मनोविज्ञान है। फ्रायड का मनोविज्ञान मन पर समाप्त हो जाता है; उसका कोई इशारा मन के पार नहीं है। मन ही इति है, उसके आगे और कोई अस्तित्व नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो इशारा आगे के लिए करता है। लेकिन इशारा आगे की स्थिति नहीं है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--003)

विषाद और संताप से आत्‍म—क्रांति की और

(अध्‍याय-01-02) प्रवचन—तीसरा



            गाण्डीव स्रंसते हस्तात्त्वफ्चैव परिदह्यते।
            न च शक्‍नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन: ।।30।।
            निमित्तानि च पश्यामि वियरीतानि केशव।
            न च श्रेयोsनुयश्यामि हत्‍वा स्वजनमाहवे ।।31।।
            न कांक्षे विजयं कृष्‍ण न च राज्यं सुखानि च ।
            कीं नो राज्येन गोविन्द कीं भोगैजीवितेन वा ।।32।।

तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है। और ऋचा थी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित—सा हो रहा है। इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। और हे केशव! लक्षणों को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को मारकर कल्याण भी नहीं देखता। हे कृष्ण ! मैं विजय को नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता। हे गोविंद! हमें राज्‍य से क्‍या प्रयोजन। अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--002)


अध्याय १-२ (दूसरा प्रवचन)
अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।। २३।।
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।। २४।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।। २५।।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृनथ पितामहान।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।। २६।।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।। २७।।
कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्।। २८।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।। २९।।

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--030)

मंथन कर, मंथन कर—(प्रवचन—तीसवां)

 पहला प्रश्न :

      होश हो तो दूसरा सदा कल्याणकारी है। क्या ऐसा ही आप बुद्ध पुरुष कहते हैं?
होश हो तो दूसरा न तो कल्याणकारी है और न अकल्याणकारी; होश हो तो तुम सभी जगह से अपने कल्याण को खींच लेते हो। होश न हो तो तुम सभी जगह से अपने अकल्याण को खींच लेते हो। बोध हो तो तुम जहां होते हो, वहीं स्वर्ग निर्मित होने लगता है—तुम्हारे बोध के कारण। बोध न हो तो तुम जहां होओगे, वहां नर्क की दुर्गंध उठने लगेगी—तुम्हारे ही कारण।
      ऐसा समझो कि मूर्च्छित—मूर्च्छित जीना नर्क का निर्माण है; जागकर जीना स्वर्ग का। जागते हुए किसी ने कभी कोई दुख नहीं पाया। सोते हुए कभी किसी ने कोई सुख नही पाया।
सोते हुए ज्यादा से ज्यादा सुख की आशा हो सकती है, सुख कभी मिलता नहीं। सुख की आशा में तुम बहुत दुख उठा सकते हो भला, लेकिन सुख कभी मिलता नहीं। जागकर जो मिलता है, उसी का नाम सुख है।

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--029)

कल्याण मित्र की खोज—(प्रवचन—उन्‍नतीसवां)

 सारसूत्र:

निधीनं' व पवत्तारं यं पस्से व वज्जदास्सिनं।
निग्‍गव्‍हवादि मेधावि तादिसं पंडित भजो।
तादिसं भजमानस्स सेय्यो होति न पापिको ।।70।।

न भजे पापके मित्ते न भजे पुरिसधमे।
भजेथ मित्ते कल्याणे भजेथ पुरिसधमे ।।71।।

धम्मपीती' सुखं सेति विपसन्नेन चेतसा ।
अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पंडितो ।।72।।

उदकं हि नयंति नेत्तिका उसुकारा नमयति तेजनं ।
दारु नमयंति तच्छका अत्तानं दमयंति पंडिता ।।73।।

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--028)

जागरण और आत्मक्रांति—(प्रवचन—अट्ठाइसवां)
 

 पहला प्रश्न :

      लोभ और लाभ का रास्ता ईर्ष्या और घृणा से, भय और दुश्चिंता से पटा पड़ा है; वह जीवन में जहर घोलकर रख देता है, ऐसा मेरे लंबे जीवन का अनुभव है। फिर भी क्या कारण है कि किसी न किसी रूप में लाभ की दृष्टि बनी ही रहती है?

 लोभ से जीवन में दुख आया, लोभ से जीवन में जहर मिला, लोभ से जीवन में विपदाएं आयीं, कष्ट—चिंताएं आयीं, अगर ऐसा समझकर लोभ। को छोड़ा तो लोभ को नहीं छोड़ा। क्योंकि यह समझ ही लोभ की है।
      जहां अमृत की आकांक्षा की थी, वहां जहर पाया—हानि हुई, लाभ न हुआ। जहा सुख चाहा था, वहा दुख मिला—हानि हुई, लाभ न हुआ। सोचा था चैन और सुख और शाति का जीवन होगा, दुश्चिंता से पट गया—हानि हुई, लाभ न हुआ। लोभ में हानि पाई इसलिए लोभ से छूटने चले, यह तो फिर लोभ के हाथ में ही पड़ जाना हुआ। हानि दिखाई पड़ती है लोभ की दृष्टि को।