प्रसादे सर्वदुःखानां
हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।
६५।।
उस
निर्मलता के
होने पर इसके
संपूर्ण
दुखों का अभाव
हो जाता है और
उस
प्रसन्नचित्त
वाले पुरुष की
बुद्धि शीघ्र
ही अच्छी
प्रकार स्थिर
हो जाती है।
विक्षेपरहित
चित्त में
शुद्ध
अंतःकरण फलित
होता है? या
शुद्ध
अंतःकरण विक्षेपरहित
चित्त बन जाता
है? कृष्ण
जो कह रहे हैं,
वह हमारी
साधारण साधना
की समझ के
बिलकुल विपरीत
है। साधारणतः
हम सोचते हैं
कि विक्षेप
अलग हों, तो
अंतःकरण
शुद्ध होगा।
कृष्ण कह रहे
हैं, अंतःकरण
शुद्ध हो, तो
विक्षेप अलग
हो जाते हैं।
यह बात
ठीक से न समझी
जाए, तो बड़ी भ्रांतियां
जन्मों-जन्मों
के व्यर्थ के
चक्कर में ले
जा सकती हैं।
ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और
क्या परिणाम,
इसे समझ
लेना ही विज्ञान
है। बाहर के
जगत में भी, भीतर के जगत
में भी। जो
कार्य-कारण की
व्यवस्था को
ठीक से नहीं
समझ पाता और
कार्यों को
कारण समझ लेता
है और कारणों
को कार्य बना
लेता है, वह
अपने हाथ से
ही, अपने
हाथ से ही
अपने को गलत
करता है। वह
अपने हाथ से
ही अपने को
अनबन करता है।