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शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-10)

प्रवचन-दसवां 

न कोई लक्ष्य, न कोई प्रयास
( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)
पहला प्रश्नः
ओशो! झेन परम्परा है कि जब कोई भिक्षु अपनी शिक्षाएं देने बाहर जाता था तो उसके पूर्व उसे अपने सदगुरु के साथ दस वर्षों तक मठ में ठहरना होता था। एक बार एक भिक्षु ने मठ में दस वर्षों का समय पूरा कर लिया था। वह एक दिन भारी बरसात के दौरान अपने सदगुरु ‘नानइन’ से भेंट करने के लिए गया। उसका स्वागत करने के बाद नानइन ने उस से पूछा : ‘निसंदेह रूप से तुमने अपने जूते दालान में उतारे होंगे। तुमने अपने छाते के किस ओर जूते उतारे हैं’ एक क्षण के लिए भिक्षु हिचकिचाया और उसने महसूस किया कि वह प्रतिपल ध्यानपूर्ण नहीं था।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-09)

प्रवचन-नौवां

समर्पण संपूर्ण ही हो सकता है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा है कि हजारों वर्षों में पृथ्वी पर ऐसा सुअवसर नहीं आया, और आपने यह भी कहा है यह युग अन्य दूसरे युगों के समान ही है। एक ओर आपने कहा है कि एक पत्थर को भी समर्पण कर दो तो घटना घटित हो जाएगी। दूसरी ओर आपने यह भी कहा है कि इस पृथ्वी पर पैर जमाकर आगे बढ़ना बहुत खतरनाक है, जब तक कि तुम एक प्रामाणिक सदगुरु के मार्गदर्शन में नहीं चलते हो।
आपने कहा है कि समर्पण करो और शेष कार्य मैं करूंगा, और आपने यह भी कहा है कि आप कुछ भी नहीं करते। यहीं और अभी मौजूद हम लोगों के लिए, तथा पश्चिम के उन लोगों के लिए जो इन शब्दों को कभी पढ़ेंगें, क्या आप सदगुरु और शिष्य के मध्य घटने वाले रहस्मयी संबंध के बारे में हमें और अधिक बताने की कृपा करेंगें?


मैं स्वयं के वक्तव्यों का ही विरोध करता हूं और इसे जानते बूझते हुए ही करता हूं। सत्य इतना अनंत, इतना विराट और इतना असाधारण है कि वह किसी अपूर्ण, आंशिक और खण्डित वक्तव्य में समा ही नहीं सकता।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-08)

प्रवचन-आठवां 

केवल पका फल ही गिरता है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! मैं अनुभव करता हूं कि कठिनाइयों में धैर्य व सहनशीलता का दृष्टिकोण विकसित करने के कारण मैं जीवन को परिपूर्ण ढंग से नहीं जी पाता हूं। मैं जीवन से पलायन करने लगा हूं। जीवन का यह परित्याग, ध्यान में जीवंत बने रहने के मेरे प्रयास के विरूद्ध, एक बोझ की तरह प्रतीत हो रहा है। क्या इसका अर्थ यह है कि मैंने अपने अहंकार का दमन किया है और वास्तव में उससे मुक्त होने के लिए मुझे पुनः उसे पोषण देना चाहिए?


सबसे बड़ी समस्याओं में से यह एक है। यह बहुत विरोधाभासी दिखाई देगा, लेकिन यही सत्य है। इससे पहले कि तुम अहंकार को खो सको, तुम्हें उस तक पहुंचना चाहिए। केवल एक पका हुआ फल ही स्वयं भूमि पर नीचे गिर जाता है। उसका पकना ही सब कुछ है। अपरिपक्व या अधपके अहंकार को छोड़ा नहीं जा सकता है और न ही उसे नष्ट किया जा सकता है। यदि तुम अपरिपक्व अहंकार को मिटाने और नष्ट करने हेतु संघर्ष करते हो तो तुम्हारा प्रयास असफल होगा। वस्तुतः नष्ट करने की अपेक्षा वह अनेक नए सूक्ष्म उपायों से और अधिक मजबूत बन जाएगा।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-07)

प्रवचन-सातवां 

संबंधों का रहस्य

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! अपने जीवन साथियों जैसे पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के बारे में कब तक हमें धैर्य के संग उसका साथ निभाते हुए, संबंध में दृढ़ता से बने रहना चाहिए और कब हमें उस संबंध को निराश अथवा विध्वंसात्मक मानकर छोड़ देना चाहिए? क्या हमारे संबंध हमारे पिछले जन्मों से भी प्रभावित होते हैं?

संबंध अनेक रहस्यों में से एक हैं और क्योंकि वे दो व्यक्तियों के मध्य होते हैं, इसलिए वह दोनों पर निर्भर करते हैं। जब भी दो व्यक्ति मिलते हैं, एक नया संसार सृजित होता है। केवल उनके मिलन के द्वारा ही एक नवीन तथ्य सृजित हो जाता है, जो पहले वहां नहीं था, जो कभी भी अस्तित्व में नहीं था। और इस नई घटना के द्वारा दोनों व्यक्ति बदलकर, रूपांतरित हो जाते हैं।

किसी से संबंधित न होने पर तुम एक भिन्न व्यक्तित्व होते हो और किसी से संबंधित हो जाने पर तुम अचानक ही कुछ और हो जाते हो, जैसे कुछ नयापन घटित होता है। एक स्त्री जब प्रेमिका बनती है तो वह वही पहले वाली स्त्री नहीं रह जाती है।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-06)

प्रवचन-छट्ठवां 

दमन या रूपांतरण?

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)


पहला प्रश्नः

ओशो! दो भिक्षुओं के बारे में एक झेन कथा है, जो अपने मठ में वापस लौट रहे थे। मार्ग पर आगे बढ़ते हुए प्रौढ़ भिक्षु एक नदी के तट पर पंहुचा। वहां एक सुंदर युवा लड़की खड़ी थी, जो अकेले नदी पार करने से डर रही थी। इस प्रौढ़ भिक्षु ने उसकी ओर देखते ही, तेज़ी से अपनी दृष्टि दूसरी तरफ फेर ली और नदी पार करने लगा। जब वह दूसरे किनारे पंहुचा तो उसने मुड़कर वापस पीछे की ओर देखा और यह देखकर दंग रह गया कि युवा भिक्षु उस लड़की को अपने कंधों पर उठाकर नदी पार कर रहा है।
बाद में, दोनों भिक्षुओं ने साथ-साथ चुपचाप चलते हुए अपनी यात्रा जारी रखी। जब वे लोग अपने मठ के द्वार पर पंहुचे तो प्रौढ़ भिक्षु ने युवा भिक्षु से कहा : ‘वह उचित नहीं था और वह नियमों के विरुद्ध था। हम भिक्षु यह कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि हम लोग किसी स्त्री का स्पर्श करेंगे।’
युवा भिक्षु ने उत्तर दिया- ‘मैंने तो उस लड़की को नदी के तट पर ही छोड़ दिया था, लेकिन आप उसे अभी भी अपने साथ लिए हुए चल रहे हैं’
ओशो, क्या आप हमें भावों की अभिव्यक्ति अथवा भावों के दमन के बारे में कोई विकल्प बताने की कृपा करेंगे?

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-05)

प्रवचन-पांचवां

अहंकार को इसी क्षण छोड़ देना है

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आपने कहा कि अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है। क्या अहंकार को धीमे-धीमे अर्थात क्रमश: भी छोड़ा जा सकता है?

छोड़ना हमेशा क्षण में और हमेशा इस क्षण में ही होता है। इसके लिए कोई क्रमिक प्रक्रिया नहीं है और हो भी नहीं सकती। यह घटना क्षणिक होती है। तुम उसके लिए पहले से तैयार नहीं हो सकते, तुम उसके लिए कोई तैयारी नहीं कर सकते, क्योंकि तुम जो कुछ भी करते हो और मैं कहता हूं कि जो कुछ भी करोगे, वह अहंकार को और अधिक मजबूत बनाएगा।

कोई भी क्रमिक अथवा धीमी प्रक्रिया एक प्रयास ही होगा, वह तुम्हारे द्वारा किया गया प्रयास होगा। इसलिए इस प्रयास के द्वारा तुम और अधिक शक्तिशाली बनोगे। तुम प्रबल हो जाओगे। प्रत्येक धीमी और क्रमिक प्रक्रिया अहंकार की सहायता करती है। केवल ऐसा कुछ, जो बिल्कुल भी धीमा और क्रमिक न हो, जो एक प्रक्रिया के समान न हो बल्कि एक छलांग के समान हो, जिसका अतीत के साथ कोई सतत् प्रवाह न हो, कोई निरंतरता न हो है, केवल ऐसा कुछ ही काम कर सकता है, तभी अहंकार छूटता है।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-04)

प्रवचन-चौथा 

सभी आशाएं झूठी हैं

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

ओशो! आप हमें बताते रहे हैं कि अपने अहंकार को छोड़ना और श्वेत बादलों के साथ एक हो जाना कितना अधिक सरल है। आपने हमें यह भी बताया है कि हमारे लाखों जन्म हुए हैं और उनमें से अनेक में हम कृष्ण और क्राइस्ट जैसे बुद्धों के साथ रहे हैं, पर तब भी हम अपने अहंकारों को नहीं छोड़ पाए।
क्या आप हमारे अंदर झूठी आशाएं उत्पन्न कर रहे हैं?

सभी आशाएं झूठी हैं। आशा करना ही अपने आप में झूठ है, इसलिए यह प्रश्न झूठी आशाएं निर्मित करने का नहीं है। तुम जो भी आशा कर सकते हो, वह झूठी ही होगी। आशा तुम्हारे मिथ्या होने की स्थिति से आती है। यदि तुम वास्तविक और प्रामाणिक हो तो किसी भी आशा की कोई आवश्यकता ही नहीं है। तब तुम भविष्य के बारे में सोचते ही नहीं कि कल क्या घटित होगा? तुम वर्तमान के क्षण में इतने अधिक सच्चे और इतने अधिक प्रामाणिक होते हो कि भविष्य विलुप्त हो जाता है।
जब तुम अवास्तविक होते हो, तब भविष्य बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है, तब तुम भविष्य में ही जीते हो। तब तुम्हारी वास्तविकता यहीं और अभी नहीं होती, तुम्हारी वास्तविकता कहीं और तुमसे दूर, तुम्हारे सपनों में होती है।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-03)

प्रवचन-तीसरा

प्रसन्नचित्त रहो

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

 पहला प्रश्नः
ओशो! आपने हमें एक बार एक सौ वर्ष से भी अधिक आयु वाले एक वृद्ध व्यक्ति के बारे में एक कहानी सुनाते हुए यह बताया था कि एक दिन उसकी वर्षगांठ पर उससे यह पूछा गया था कि वह हमेशा इतना अधिक प्रसन्न क्यों रहता है? उसने उत्तर दिया- ‘प्रत्येक सुबह जब मैं जागता हूं तो मेरे पास यह चुनाव होता है कि मैं प्रसन्न रहूं अथवा अप्रसन्न, और मैं हमेशा प्रसन्न बने रहने का चुनाव करता हूं।’
ऐसा क्यों है कि हम प्रायः अप्रसन्न बने रहने का ही चुनाव करते हैं? ऐसा क्यों है कि हम प्रायः चुनाव के प्रति जागरूकता का अनुभव नहीं करते?


यह मनुष्य की सबसे अधिक जटिलतम समस्याओं में से एक है। इस पर बहुत गहनता से विचार करना होगा और यह सैद्धांतिक नहीं है, यह तुमसे संबंधित है। प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही आचरण कर रहा है, वह हमेशा गलत का ही चुनाव कर रहा है और हमेशा उदासी, निराशा और दुखी बने रहने का ही चुनाव कर रहा है। इसके पीछे निश्चित ही कोई गहरा कारण होगा और सच में इसके पीछे कई कारण हैं।

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-02)

प्रवचन-दूसरा

मन के पार का रहस्य

( अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

पहला प्रश्नः

प्यारे ओशो, आकाश में मँडराते हुये ये सुंदर, शुभ्र बादल और हमारा यह अद्भुत सौभाग्य कि आप हमारे बीच उपस्थित हो और हम आपके संग यहां हैं। किंतु ऐसा ‘क्यों’ है?

ऐसे ‘क्यों’ हमेशा ही उत्तररहित होते हैं। जब कभी आप ऐसा ‘क्यों’ पूछते हो, मन हमेशा सोचता है कि उसका कोई उत्तर होगा। लेकिन यह एक बहुत ही भ्रामक कल्पना है। ऐसे किसी ‘क्यों’ का कहीं कोई जबाब नहीं दिया गया है और न ही कभी दिये जाने की संभावना है। यह अस्तित्व बस ‘है’ और इसके बारे में कोई ‘क्यों’ संभव नहीं है। फिर भी यदि तुम पूछते हों और पूछने पर तुले ही हो तो शायद एक उत्तर निर्मित कर सकते हो लेकिन याद रहे कि वह एक निर्मित किया हुआ उत्तर होगा, वह कभी भी असली उत्तर नहीं होगा। ऐसा सवाल पूछना अपने आप में ही असंगत है।

यह इतने सारे वृक्ष हैं, आप नहीं पूछ सकते, ‘क्यों’?
यह आकाश बस ‘है’, आप नहीं पूछ सकते कि ‘क्यों’?
अस्तित्व विद्यमान है, नदियां बहती चली जाती हैं, बादल आकाश में मँडराते हैं, आप नहीं पूछ सकते कि ‘क्यों’?
मैं यह भलीभांति जानता हूँ कि मन पूछता चला जाता हैं कि ‘क्यों’? मन हमेशा उत्सुक रहता है। वह हर चीज के ‘क्यों’ के बारे में जानना चाहता है।

बुधवार, 28 नवंबर 2018

सफेद बादलों का मार्ग-(प्रवचन-01)

सफेद बादलों का मार्ग-(अनुवाद)-ओशो 

(10 से 24 मई 1974 तक श्री रजनीश आश्रम, पूना में सदगुरु ओशो द्वारा दी गई

मूल अंग्रेजी प्रवचनमाला ‘माई वे : दि वे ऑफ व्हाइट क्लाउड्स’ का हिंदी रूपांतर)

सफेद बादलों का मार्ग, प्रवचन-1

मेरा मार्गः शुभ्र मेघों का मार्ग

पहला प्रश्नः

प्यारे सदगुरु ओशो, आपका मार्ग सफेद बादलों का मार्ग क्यों कहलाता है?

देह त्यागने के ठीक पूर्व गौतम बुद्ध से किसी ने पूछा : ‘जब एक संबुद्ध व्यक्ति शरीर छोड़ता है तो वह कहां जाता है? क्या वह शेष बचता है या शून्य में विलीन हो जाता है’
यह सवाल जरा भी नया नहीं था। यह बड़ा प्राचीन प्रश्न है; जो बहुत बार पूछा जा चुका है। उस दिन भी जब बुद्ध से पूछा गया तो वे बोले : ‘जैसे कोई सफेद बादल देखते-देखते विलीन हो जाता है... !’

सहज समाधि भली-(प्रवचन-21)

इक्कीसवां समापन प्रवचन

सहजै सहजै सब गया

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

ओशो, आपने इस प्रवचनमाला का आरंभ संत कबीर के पदः सहज समाधि भली के विशद उदघाटन से शुरू किया था। इसलिए इस समापन के दिन हम आपसे प्रार्थना करेंगे कि कबीर के कुछ और पदों का अभिप्राय हमें समझाएंः
सहज सहज सब कोइ कहै, सहज न चीन्है कोइ।
जा सहजै साहब मिलै, सहज कहावै सोइ।।
सहजै सहजै सब गया, सुत वित काम निकाम।
एकमेक ह्वै मिली रह्या, दास कबीरा नाम।।
जो कछु आवै सहज में, सोइ मीठा जान।
कडुवा लागै नीम-सा, जामें ऐंचातान।
सहज मिलै सो दूध सम, मांगा मिलै सो पानि।
कह कबीर वह रक्त सम, जामें ऐंचातानि।।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-20)

बीसवां प्रवचन

साक्षित्व, समय-शून्यता और मन की मृत्यु

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

कहते हैं कि एक वृद्ध स्त्री थी भगवान बुद्ध के समय में। वह बुद्ध के ही गांव में जन्मी थी और उनके जन्म-दिन पर ही।
 लेकिन वह सदा ही बुद्ध के सामने आने से डरती रही तभी से जब कि वह छोटी सी थी। युवा हो गई, फिर भी डरती रही। और वृद्ध हो गई, फिर भी।
 लोग उसे समझाते भी कि बुद्ध परम पवित्र हैं, साधु हैं, सिद्ध हैं। उनसे भय का कोई भी कारण नहीं। उनका दर्शन मंगलदायी है, वरदान-स्वरूप है। लेकिन उस वृद्धा की कुछ भी समझ में नहीं आता। यदि वह कभी भूल से बुद्ध की राह में पड़ भी जाती थी, तो भाग खड़ी होती। अव्वल तो बुद्ध गांव में होते, तो वह किसी और गांव चली जाती।
 लेकिन एक दिन कुछ भूल हो गई। वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी कि अचानक बुद्ध सामने पड़ गए। भागने का समय ही नहीं मिला। और फिर वह बुद्ध को सामने ही पा इतनी भयभीत हो गई कि पैरों ने भागने से जवाब दे दिया।

 उसे तो लगा कि जैसे उसकी मृत्यु ही सामने आ गई है।
 भाग तो वह न सकी, पर आंखे उसने जरूर बंद कर लीं।
 पर यह क्या--! बंद आंखों में भी बुद्ध दिखाई पड़ रहे हैं! और गैरिक वस्त्रों में स्वर्ण सा दीप्त उनका चेहरा सामने है।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-19)

उन्नीसवां प्रवचन

दायित्व की गरिमा और आत्म-सृजन के लिए विद्रोह

दिनांक 08 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक बादशाह को ख्याल था कि उसने जो जाना और माना है, वह सब सही है। एक अर्थ में वह न्यायप्रिय भी था। उसकी तीन बेटियां थी।
एक दिन राजा ने अपनी सभी बेटियों को बुला कर कहाः मेरी सारी संपदा तुम्हारी होने वाली है। मुझसे ही तुम्हें जीवन मिला और मेरी इच्छा से ही तुम्हारा भविष्य और भाग्य निर्मित होगा।
दो राजकुमारियों ने तो यह बात मान ली; लेकिन तीसरी ने कहाः यद्यपि स्थिति का तकाजा है कि मैं कानून का पालन करूं, तो भी यह नहीं मान सकती कि मेरा भाग्य आपकी मरजी से बनेगा।

हम देखेंगे, यह कह कर राजा ने बागी बेटी को कैद में डाल दिया, जहां वह वर्षों कष्ट झेलती रही। इस बीच उसके हिस्से का धन भी बादशाह और वफादार बेटियों ने मिल कर खर्च कर दिया। और तब बादशाह ने स्वयं कहाः यह लड़की अपनी नहीं, मेरी मरजी से कैद काट रही है। इससे स्पष्ट है कि मेरी इच्छा ही उसकी नियति है।
और प्रजा भी राजा की राय से राजी थी।
बीच-बीच में राजा ने बंदी बेटी से अपनी मनवाने के बहुत उपाय किये, लेकिन सारी यातनाओं के बावजूद राजकुमारी ने विचार नहीं बदला। अंत में राजा ने राज्य के बाहर एक डरावने जंगल में उसको छुड़वा दिया, जहां हिंस्र पशुओं के साथ-साथ ऐसे खतरनाक आदमी भी थे, जिन्हें राज्य देश-निकाले की सजा दिया करता था।
 लेकिन जंगल में पहुंच कर राजकुमारी ने पाया कि गुफा घर है और पेड़ों के फल सोने के थाल वाले फलों जैसे ही हैं। फिर उस जंगल की आजाद जिंदगी का क्या कहना! और उस कुदरती राज्य में कोई भी तो उसके राजा-पिता की आज्ञा नहीं मानता था।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-18)

अठारहवां प्रवचन

आत्मिक विस्फोट की पात्रता

दिनांक 07 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

झेन साधक बनजान बाजार से गुजर रहा था। एक कसाई और एक ग्राहक की बातचीत उसके कानों में पड़ी।
ग्राहक ने कहाः मुझे सर्वश्रेष्ठ मांस का टुकड़ा ही देना।
कसाई बोलाः मेरी दुकान में सब कुछ सर्वश्रेष्ठ ही है। यहां कुछ भी नहीं है, जो सर्वश्रेष्ठ नहीं।
बस, इतना सुन कर बनजान ज्ञान को उनलब्ध हो गया।
ओशो, कृपा कर इस कथा का मर्म हमें बताएं।


परम ज्ञान की घटना किसी भी क्षण घट सकती है। कहावत है कि एक छोटा सा तिनका भी उंट को बिठा सकता है; लेकिन वह आखिरी तिनका होना चाहिए। ऊंट पर वजन को रखते जाओ, रखते जाओ, सहता जाएगा, एक सीमा तक। फिर आखिरी तिनका भी उसे बिठा देगा, जब वजन सीमा के पार हो जाएगा। बरतन में पानी को भरते जाओ, भरते जाओ, फिर एक सीमा है, उसके बाद एक बूंद भी ज्यादा, बरतन में न समा सकेगी। फिर एक बूंद भी बरतन के बाहर पानी को ले जाएगी। आखिरी बूंद आखिरी तिनका क्रांतिकारी सिद्ध होता है।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-17)

सत्रहवां प्रवचन

अहंकार के तीन रूप--शिकायत, उदासी और प्रसन्नता

दिनांक 06 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक बार राबिया बीमार थी।
सहानुभूति में दो फकीर देखने आए। एक थे हसन और दूसरे मलिक।
हसन ने कहाः राबिया, अल्लाह जो भी सजा दे, फकीर को कोई शिकायत नहीं होती। वह उसे चुपचाप सह लेता है।
फिर मलिक बोलेः राबिया, फकीर शिकायत तो मानता ही नहीं, बल्कि मिले हुए दंड में भी खुशी मानता है।
राबिया थोड़ी देर चुप रही।
फिर वह बोलीः मुझे माफ करना; लेकिन जब मैंने खुदा को जाना है, तब से मुझे दंड जैसी कोई प्रतीति नहीं होती। तो फिर कैसी शिकायत? क्या सहना? और किसकी खुशी?
ओशो, तीन फकीरों की इस परिचर्चा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-16)

सोलहवां प्रवचन

ब्राह्मणत्व का निखार--प्रामाणिकता की आग में

दिनांक ५ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक किशोर, ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा था। वह सत्य को जानना चाहता था। ब्रह्म के लिए उसकी जिज्ञासा थी। उसने ऋषि के चरणों में सिर रख कर कहा थाः ‘आचार्य, मैं सत्य को खोजने आया हूं। मुझ पर अनुकंपा करें और ब्रह्म-विद्या दें। मैं अंधा हूं और आंखें चाहता हूं।’
उस किशोर का नाम था--सत्यकाम।
ऋषि ने उससे पूछाः ‘वत्स, तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है?’
उस किशोर को अपने पिता का कोई ज्ञान न था, न ही गोत्र का पता था। वह अपनी मां के पास गया और उससे पूछ कर लौटा। और उसकी मां ने उससे जो कहा, उसने जाकर ऋषि को कहा।

वह बोलाः ‘भगवन, मुझे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। न ही मैं अपने पिता को जानता हूं। मेरी मां को भी मेरे पिता का ज्ञान नहीं है। उससे मैंने पूछा तो उसने कहा कि युवावस्था में वह अनेक भद्र पुरुषों के साथ रमती और उन्हें प्रसन्न करती रही। उसे पता नहीं है कि मैं किससे जन्मा हूं। मेरी मां का नाम जाबाली है। इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूं। ऐसा ही आपसे बताने को भी उसने कहा है।’

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-15)

पंद्रहवां प्रवचन

बुद्धपुरुष अर्थात जीवित मंदिर--मौन का

दिनांक 04 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक झेन गुरु थे--सोइची। जिस दिन से सोइची ने तोफुकु के मंदिर में शिक्षण देना शुरू किया, उसी दिन से मंदिर का रूपांतरण हो गया।
दिन आता, दिन जाता; रात आती, रात जाती; लेकिन तोफुकु का मंदिर सदा मौन ही खड़ा रहता। मंदिर एक गहन सन्नाटा ही हो गया। कहीं से कोई आवाज न उठती थी। सोइची ने सूत्रों का पाठ भी बंद करा दिया। यहां तक कि मंदिर के घंटे भी सदा सोए हुए रहते; क्योंकि सोइची के शिष्यों को सिवाय ध्यान के और कुछ नहीं करना था।
फिर बरसों तक ऐसा ही रहा। लोग भूल ही गए कि पड़ोस में मंदिर है। और सैकड़ों संन्यासी थे वहां; आत्मज्ञान के दीये जलते थे; और समाधि के फूल खिलते थे।

और अचानक एक दिन लोगों ने सुना कि मंदिर के घंटे बज रहे हैं और शास्त्रों के सूत्र पढ़े जा रहे हैं। लोग भागे मंदिर की तरफ। सोइची ने संसार छोड़ दिया था। उसके शव पर ही सूत्र पढ़े जा रहे थे, घंटे बज रहे थे।
ओशो, इस कथा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-14)

चौदहवां प्रवचन

एक साधे सब सधै

दिनांक 3 अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

याज्ञवल्क्य ने अपनी मित्र-स्त्री मैत्रेयी से कहाः ‘देखो, मैं गृहस्थाश्रम में ही पड़े रहना नहीं चाहता, मैं ऊपर उठना चाहता हूं। आओ, कात्यायिनी के साथ तुम्हारा निपटारा करा दूं।’
मैत्रेयी ने कहाः ‘भगवन, अगर यह सारी पृथ्वी वित्त से पूर्ण होकर मेरी हो जाए, तो क्या मैं उससे अमर हो जाऊंगी?’
याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘उस अवस्था में जैसे साधन-संपन्न लोग चैन से जीवन-निर्वाह करते हैं, वैसा तुम्हारा जीवन होगा। धन-धान्य से अमरता पाने की आशा नहीं हो सकती।’
मैत्रेयी ने कहाः ‘जिससे मैं अमर न हो सकूं, उसे लेकर मैं क्या करूंगी? भगवन, अमर होने का जो रहस्य आप जानते हों, उसका मुझे उपदेश कीजिए।’
याज्ञवल्क्य ने कहाः ‘तू तो मेरी प्रिय है, और बड़ा प्रिय वचन बोल रही है। आ, बैठ, तुझे मैं सब खोल कर समझाता हूं। ज्यों-ज्यों मैं बोलता जाऊं, मेरी बात ध्यान देकर सुनते जाना।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-13)

तेरहवां प्रवचन

आत्मघाती संदेह और आस्था का अमृत

दिनांक २ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा: 

नूरी बे अलबानिया का निवासी था--विचारवान और प्रतिष्ठित। अपने से बहुत छोटी उम्र की युवती से उसने विवाह किया।
एक संध्या वह समय से पहले घर लौटा, तो उसके वफादार नौकर ने आकर उसे कहाः ‘आपकी पत्नी, मेरी मालकिन, बहुत संदेहजनक ढंग से पेश आ रही हैं। उनके कमरे में एक बड़ा संदूक है--इतना बड़ा है कि एक आदमी उसमें समा जाए। पहले वह आपकी दादी के पास था और उसमें थोड़े से जड़ी के सामान थे। लेकिन अब उसमें शायद बहुत कुछ है। मैं आपका सबसे पुराना नौकर हूं, लेकिन मालकिन मुझे भी उस संदूक के भीतर झांकने नहीं देती हैं।’
नूरी बे अपनी पत्नी के कमरे में जा पहुंचा और देखा कि वह एक लकड़ी के संदूक के पास उदास बैठी है। ‘क्या मैं देख सकता हूं कि इस संदूक में क्या है?’ उसने पूछा।
पत्नी ने उत्तर दियाः ‘क्या एक नौकर के संदेह के कारण पूछते हो या इस कारण पूछते हो कि तुमको ही मुझ पर भरोसा नहीं रहा?’
नूरी बे ने कहाः ‘इन बातों में गए बगैर संदूक को खोलना क्या मुमकिन नहीं होगा?’
नहीं।’--पत्नी ने कहा।
‘क्या इसमें ताले लगे हैं?’

सहज समाधि भली-(प्रवचन-12)

बारहवां प्रवचन

विचार की बोतल और निर्विचार की मछली

दिनांक १ अगस्त, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

रीको ने एक बार अपने गुरु नानसेन से कहा कि बोतल वाली मछली की समस्या क्या है, कृपा कर मुझे समझा दें!
उसने कहाः ‘अगर कोई आदमी बोतल के भीतर मछली का एक बच्चा रख दे और बोतल के मुंह के द्वारा उसे भोजन देता रहे, तो मछली बढ़ते-बढ़ते इतनी बड़ी हो जाएगी कि बोतल के भीतर उसके बढ़ने की और जगह न रहेगी।
उस हालत में वह आदमी उस मछली को किस तरह बाहर निकाले कि मछली भी न मरे और बोतल भी न टूटे।
‘रीको!’ नानसेन चिल्लाया और जोर से उसने हाथों की ताली बजाई।
‘हां गुरुदेव!’ रीको चौंक कर बोला।
‘देखो,’ नानसेन ने कहाः ‘मछली बाहर निकल आई।’
ओशो, इस झेन पहेली को हमें भी समझाने की कृपा करें।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-11)

विचार नहीं--अनुभव ही नाव है

ग्यारहवां प्रवचन

दिनांक ३१ जुलाई, १९७४, प्रातः काल, श्री रजनीश आश्रम पूना,

कथा:

एक परंपरावादी दरवेश नैतिक प्रश्नों पर विचार करता हुआ नदी किनारे से जा रहा था। अचानक दूर से आती हुई "ऊ हू' की आवाज उसके कानों में पड़ी और उसकी विचार-धारा टूट गई। कहीं दूर कोई आदमी दरवेश-मंत्र का पाठ कर रहा था; लेकिन उच्चारण बहुत गलत था।
दरवेश ने सोचा कि एक जानकार के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं जाऊं और मंत्रपाठ की सही विधि उसे बता दूं। और वह नाव खेकर उस छोटे-से द्वीप पर पहुंचा, जहां एक दूसरा दरवेश अपने झोपड़े में सूत्र-पाठ कर रहा था। पास जाकर पहले दरवेश ने उसे सही पाठ बताया और दिल में नेक काम करने की खुशी भरकर अपनी नाव में लौट आया।
इस मंत्र की बड़ी महिमा थी और समझा जाता था कि इसके पाठ से आदमी पानी की लहरों पर भी चल सकता है। पहले दरवेश को, लेकिन इसका विश्वास भर था, अनुभव नहीं था।

दरवेश थोड़ी ही दूर गया होगा कि उसे मंत्र का गलत पाठ फिर सुनाई पड़ने लगा। और उस आदमी की भूल करने की जिद्द पर उसे क्रोध आया। तभी एक चकित करने वाला दृश्य सामने था। दूसरा दरवेश उसकी ओर भागा आ रहा था--पानी पर चलता हुआ। और पास आकर उसने कहा: "माफ करना भाई, शुद्ध मंत्रोच्चार की विधि एक बार फिर बताने की कृपा करो।'
ओशो, कृपापूर्वक इस बोध-कथा का मर्म हमें बताएं।

सोमवार, 26 नवंबर 2018

सहज समाधि भली-(प्रवचन-10)

दसवां प्रवचन

अनुग्रहपूर्ण रागशून्यता और मन का अतिक्रमण

दिनांक  30 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

सदगुरु जोशू ने एक बार अपने शिष्यों को यह चेतावनी दीः ‘जहां बुद्ध पुरुष हों वहां ज्यादा देर मत टिकना; और जहां बुद्ध पुरुष नहीं हों, वहां से तुरंत खिसक जाना।’ इसी महान गुरु ने दूसरी बार कहाः ‘यदि बुद्ध का नाम लेना तो पीछे ठीक से मुंह धो लेना।’
और यही जोशू प्रायः संध्या समय बुद्ध की प्रतिमा के सामने फूल चढ़ाते, सुगंध जलाते और सिर टेकते भी देख जाते थे।
ओशो, अंतर्विरोधों से भरे वचन और आचरण को स्पष्ट करने की कृपा करें।


अमृत भी अज्ञान में जहर बन सकता है। ज्ञानी जहर को भी अमृत बना लेता है। न तो अमृत में अमृत है और न जहर में जहर। ज्ञान या अज्ञान पर सब निर्भर करता है। जो जानते हैं, उनके लिए कारागृह भी मुक्त आकाश है; और जो नहीं जानते, उनके लिए मुक्त आकाश भी कारागृह है।
तुम कहां हो, यह सवाल नहीं है; तुम क्या हो, यही सवाल है। और तुम अगर अज्ञान से भरे हो, तो घर बदलने से कुछ भी न होगा। तुम जहां जाओगे, तुम्हारा कारागृह तुम्हारे साथ ही रहेगा।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन

जीवन-सूत्रः दर्पणवत, अव्याख्य, तथाता में जीना

दिनांक 29 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

कहीं एक मंदिर बन रहा था। तीन श्रमिक वहां धूप में बैठ कर पत्थर तोड़ रहे थे। एक राहगीर वहां से गुजर रहा था। बारी-बारी से उसने श्रमिकों से पूछाः ‘क्या कर रहे हो?’
एक से पूछा। वह बोलाः ‘पत्थर तोड़ रहा हूं।’ उसके कहने में बड़ी पीड़ा थी और स्वर भी भारी था।
दूसरे से पूछा। वह बोलाः ‘आजीविका कमा रहा हूं।’ वह दुखी तो नहीं था; लेकिन उसकी उदासी कम भारी नहीं थी।
अजनबी तब तीसरे श्रमिक के पास गया और उससे भी वही सवाल पूछा। वह व्यक्ति गीत गा रहा था, उसकी आंखों में चमक थी और वह आनंदमग्न था। गीत रोक कर उसने कहाः ‘मैं मंदिर बना रहा हूं।’ और फिर वह गीत गुनगुनाने लगा।
ओशो, जीवन और धर्म के संबंध में इशारे करने वाली अपनी इस प्रिय कहानी पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन

मिटना है द्वार--‘होने’ का

दिनांक 28 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक नदी दूर पहाड़ों से निकल कर यात्रा करती हुई, किसी मरुभूमि में जा फंसी। वहां उसकी धाराएं दहकते बालू में खोने लगीं। नदी घबड़ाई, क्योंकि उसकी जीवन-यात्रा ही समाप्त होने को आ गई।
तभी नेपथ्य से एक आवाज आईः ‘जैसे हवा रेगिस्तान पार करती है, वैसे ही नदी भी कर सकती है। बजाय इसके कि तुम बालू में सूख कर समाप्त हो जाओ, अच्छा होगा कि भाप बन कर तुम बन कर तुम भी हवा के साथ मरुस्थल के पार हो जाओ।’
यह सुन कर नदी बोलीः ‘हवा में घुल जाने पर मैं कैसे जानूंगी कि मैं ही हूं? मेरा तो रूप ही बदल जाएगा! फिर मेरी पहचान क्या रहेगी?’

नेपथ्य की आवाज ने कहाः ‘तुम्हारे स्वरूप को हवा सम्हाल लेगी और वर्षा के द्वारा उतार कर फिर तुम्हें नदी बना देगी।’
नदी ने वही किया। पहाड़ों पर फिर वर्षा हुई और फिर नदी नदी हो गई। और नदी सीख भी गई कि मेरा स्वरूप क्या है। नदी इधर सीखती रही और उधर बालू ने कहाः ‘हम जानते हैं, यही हम रोज होते देखते हैं; क्योंकि नदी-तट से पहाड़ों तक हम ही फैले हैं।’
इसलिए कहा जाता है कि ‘जीवन की नदी’ कैसे बहे, यह बात बालुओं में लिखी पड़ी है।
ओशो, कृपापूर्वक इस बोध-कथा का अर्थ समझाएं।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन

दुख-बोध से दुख-निरोध की ओर

दिनांक 27 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

ओशो, क्रांति-बीज में आपने कहा हैः
‘‘गौतम बुद्ध ने चार आर्य-सत्य कहे हैं--दुख, दुख का कारण, दुख-निरोध और दुख-निरोध का मार्ग। जीवन में दुख है। दुख का कारण है। इस दुख का निरोध भी हो सकता है। और दुख-निरोध का मार्ग है।’’
‘‘मैं पांचवां आर्य-सत्य भी देखता हूं। और यह पांचवां इन चारों के पूर्व है। वह न हो, तो ये चारों भी नहीं रह सकते हैं।
‘‘यह पांचवां या प्रथम आर्य-सत्य क्या है--वह है दुख के प्रति मूर्च्छा।’’
ओशो, इस पांचवें या प्रथम आर्य-सत्य की विशद व्याख्या करने की करुणा करें।


जो जानते हैं, उनके लिए यह जीवन दुख से ज्यादा नहीं है। जो नहीं जानते हैं, उनके लिए यह जीवन सुख की एक आशा है। जो नहीं जानते हैं, वे भी दुख भोगते हैं; लेकिन दुख को बिना देखे भोगते हैं। दुख भोगते हैं सुख की आशा में। और वही आशा उनकी आंखों पर धुंध बन जाती है।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

समग्रता ही है मार्ग

दिनांक 26 जुलाई, 1974; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा: 

एक शिष्य ने गुरु उमोन से कहा, ‘बुद्ध का प्रकाश समस्त विश्व को प्रकाशित करता है; बुद्ध की प्रज्ञा सारे जगत को आलोकित करती है।’
लेकिन वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि गुरु ने कहा, ‘आह! क्या तुम किसी दूसरे की पंक्तियां नहीं दुहरा रहे हो?’
शिष्य झिझका, तो उमोन ने उसकी आंखों में ध्यान से देखा। घबड़ा कर शिष्य ने कहा, ‘हां।’
उमोन बोला, ‘तब तुम मार्गच्युत हो गए।’
कुछ समय बाद एक दूसरे गुरु शिशिन ने अपने शिष्यों से पूछा, ‘किस बिंदु पर उमोन का शिष्य मार्गच्युत हुआ था?’
ओशो, इस रहस्य भरी परिचर्चा पर प्रकाश डालने की कृपा करें।

बुद्ध के अंतिम शब्द, जो उन्होंने इस पृथ्वी पर कहे, वे सदा स्मरण रखने जैसे हैं। वे तीन छोटे से शब्द हैं--‘अप्प दीपो भव’--अपना दीया स्वयं ही बनो; खुद के प्रकाश स्वयं ही बनो; बी ए लाइट अनटु दाई सेल्फ।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

उन्मुक्त जिज्ञासा, खुला हृदय और जीवन-रहस्य

कथा:

मरियम का बेटा जीसस एक दिन, अपने छुटपन में, तालाब के किनारे बैठ कर मिट्टी के पक्षी बना रहा था। दूसरे बच्चे, जो ऐसा नहीं कर सके, ईर्ष्या से भर कर अपने बड़े-बूढ़ों के पास जीसस की शिकायत ले गए। उस दिन शनिवार था; इसलिए बूढ़ों ने कहाः ‘सॅबथ के दिन ऐसा नहीं होने दिया जा सकता।’
फिर बड़े-बूढ़े तालाब पर पहुंच गए और उन्होंने जीसस से अपने पक्षी दिखाने की मांग की। जीसस ने अपने बनाए पक्षियों की ओर इशारा किया, और वे पक्षी उड़ गए।
बुजुर्गों में से एक बोलाः ‘उड़ने वाले पक्षी कोई कैसे बना सकता है; इसलिए सॅबथ का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है।’
दूसरे ने कहाः ‘मैं यह कला सीखना चाहता हूं।’
और तीसरा बोलाः ‘यह कोई कला नहीं, सिर्फ धोखा है।’
फिर एक दिन एक लड़का जोसेफ बढ़ई के कारखाने में बैठा था। जब लकड़ी का एक तख्त छोटा पड़ गया, तब उसने उसे तान कर लम्बा कर दिया।

यह बात भी जब लोगों ने सुनी, तब कुछ ने कहाः ‘यह चमत्कार है, इसलिए यह लड़का संत होगा।’
कुछ दूसरों ने कहाः ‘इस पर हमें भरोसा नहीं आता, इसलिए दुबारा, तिबारा करो।’
और तीसरा दल बोलाः ‘यह कभी सच नहीं हो सकता; इस बात को किताब से अलग रखो।’

सहज समाधि भली-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

साधक अर्थात सोया हुआ सिद्ध

दिनांक २४ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

एक शिष्य ने केम्बो से पूछाः ‘क्या सभी बुद्ध-पुरुष निर्वाण के एक ही मार्ग पर अग्रसर होते हैं और सभी युगों में?’
केम्बो ने अपनी छड़ी उठा कर हवा में शून्य की आकृति बनाते हुए कहाः ‘यह रहा वह मार्ग। यहीं से वह शुरू होता है।’
वह शिष्य फिर उमोन के पास गया और उनसे भी वही सवाल पूछा। दोपहरी थी और उमोन के हाथ में पंखा था। उसने सभी दिशाओं में पंखा हिला कर कहाः ‘वह मार्ग कहां नहीं है? उसका आरंभ कहां नहीं है?’
और फिर जब किसी ने ममोन से इसी घटना का राज पूछा, तब उसने कहाः ‘इसके पहले कि पहला कदम उठे, मंजिल आ जाती है। और इसके पूर्व कि जीभ हिले, वक्तव्य पूरा हो जाता है।’
ओशो, इस झेन परिचर्चा का अभिप्राय क्या है?


साधक और सिद्ध में रत्ती भर भी भेद नहीं है। भेद दिखाई पड़ रहा है--साधक की भ्रांति के कारण। साधक भी सिद्ध है; अभी उसे इसका पता नहीं चला है। सिद्ध भी साधक था, जब तक पता नहीं था। जैसे ही पता चला, सिद्ध हो गया। तो भेद आत्मा में नहीं है, सिर्फ प्रतीति में है। साधक भी सिद्ध है; सिर्फ उसे होश नहीं है; कौन है--इसका पता नहीं है।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

सहज स्वभाव--लोभ और भय से मुक्त

दिनांक २३ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

मरियम के बेटे ईसा एक गांव से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ लोग राह के किनारे एक दीवाल पर बहुत संतापग्रस्त होकर मुंह लटकाए हुए बैठे हैं।
ईसा ने उनसे पूछाः ‘यह हालत कैसे हुई तुम्हारी?’
उन्होंने कहाः ‘नरक के भय से हम ऐसे हो रहे हैं।’
थोड़ा आगे बढ़ने पर ईसा ने कुछ और लोगों को देखा, जो राह के किनारे तरह-तरह के आसनों और मुद्राओं में बैठे हैं। और वे भी बहुत-बहुत उदास हैं।
ईसा ने उनसे भी पूछाः ‘तुम्हारी तकलीफ क्या है?’
उन्होंने कहाः ‘स्वर्ग की आकांक्षा ने हमें ऐसा बना दिया है।’
उसी गांव में ईसा और आगे बढ़े; फिर कुछ लोग उन्हें मिले। उन्हें देख कर लगा कि जीवन में उन्होंने बहुत-कुछ झेला है; लेकिन वे आनंद-मग्न हैं।
पूछने पर उन्होंने बतायाः ‘हमने हकीकत देख ली; इसलिए और मंजिलें भूल गईं।’
ओशो, इस सूफी कहानी का अभिप्राय क्या है?
जीवन जीने का ढंग तीन प्रकार का हो सकता है। या तो तुम भय के कारण जीओ, तब जीवन एक
दुख होगा--एक पीड़ा, एक संताप। वैसे जीवन में आनंद के फूल खिलने का कोई उपाय नहीं, वैसे जीवन में शांति भी संभव नहीं; भयभीत--कंपता ही रहेगा। संतुलन बनाना भी कठिन होगा। और भयभीत चाहेगा कि पैदा ही न हुआ होता, तो अच्छा था।

सहज समाधि भली-(प्रवचन-02)

स्वीकार की आग

दूसरा प्रवचन

दिनांक २२ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, श्री रजनीश आश्रम, पूना

कथा:

जोशू ने नानसेन से पूछाः ‘मार्ग कौन है?’
नानसेन ने कहाः ‘दैनंदिन जीवन ही मार्ग है।’
जोशू ने फिर पूछाः ‘क्या उसका अध्ययन हो सकता है?’
नानसेन ने कहाः ‘यदि अध्ययन करने की कोशिश की, तो तुम उससे दूर भटक जाओगे।’
जोशू ने फिर पूछाः ‘यदि मैं अध्ययन नहीं करूं, तो कैसे जानूंगा कि यह मार्ग है?’
नानसेन ने उत्तर में कहाः ‘मार्ग दृष्ट जगत का हिस्सा नहीं है; न ही वह अदृष्ट जगत का हिस्सा है। पहचान भ्रम है और गैर-पहचान व्यर्थ। अगर तुम असंदिग्ध होकर सच्चे मार्ग पर पहुंचना चाहते हो तो आकाश की तरह अपने को उसकी पूरी उन्मुक्तता में, पूरी स्वतंत्रता में छोड़ दो। और उसे न शुभ कहो और न अशुभ।’
कहते हैं कि ये शब्द सुन कर जोशू ज्ञान को उपलब्ध हो गया।
ओशो, कृपापूर्वक इस परिसंवाद का मर्म हमें समझाएं।

यह छोटी सी परिचर्चा--जोशू और नानसेन के बीच--जीवन को बदलने वाली हो सकती है। तुम्हारे जीवन में भी एक अंगार--इस परिचर्चा से पड़ सकता है। तुम भी भभक कर जल सकते हो। और अति कठिनाई होती है

सहज समाधि भली-(प्रवचन-01)  

सहज समाधि भली-(झेन-सूूूूफी बोध कथाएं)  

पहला प्रवचन

दिनांक २१ जुलाई, १९७४; प्रातःकाल, से 10 अगस्त 1974 श्री रजनीश आश्रम, पूना
 साधो सहज समाधि भली।
गुरु प्रताप जा दिन से जागी, दिन-दिन अधिक चली।।
जहं-जहं डोलौं सो परिकरमा जो कछु करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत, पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम सुनौं सो सुमिरन, खावं पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड़ एक सम लेखौं, भाव मिटावौं दूजा।।
आंख न मूंदौं कान न रूंधौं, तनिक कष्ट नहिं धारौं।
खुले नैन पहिचानौं हंसि-हंसि, सुंदर रूप निहारौं।
शबद निरंतर से मन लागा, मलिन वासना त्यागी।

ऊठत बैठत कबहुं न छूटै, ऐसी तारी लागी।।
कह कबीर यह उनमनि रहनी, सो परगट करि गाई।
दुख सुख से कोई परे परमपद, तेहि पद रहा समाई।।

ओशो, संत कबीर के इन प्रसिद्ध पदों को हमारे लिए बोधगम्य बनाने की कृपा करें।
समाधि सहज ही होगी। असहज जो हो, वह समाधि नहीं है। प्रयास और प्रयत्न से जो हो, वह मन के
सपार न ले जायेगी, क्योंकि सभी प्रयास मन का है। और जिसे मन से पाया, वह मन के ऊपर नहीं हो
ससकता। जिसे तुम मेहनत करके पाओगे, वह तुमसे बड़ा नहीं होगा। जिस परमात्मा को "तुम' खोज लोगे, वह परमात्मा तुमसे छोटा होगा। परमात्मा को प्रयास से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। उसे तो अप्रयास में ही पाया जा सकता है।

रविवार, 25 नवंबर 2018

योग: नये आयाम-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-संन्यास की दिशा

मेरे प्रिय आत्मन्!

थोड़े से सवाल हैं, उनके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी उपयोगी हैं।
एक मित्र ने पूछा है कि कुछ साधक कुंडलिनी साधना का पूर्व से ही प्रयोग कर रहे हैं। उनको इस प्रयोग से बहुत गति मिल रही है। तो वे इसको आगे जारी रखें या न रखें? उन्हें कोई हानि तो नहीं होगी?

हानि का कोई सवाल नहीं है। यदि पहले से कुछ जारी रखा है और इससे गति मिल रही है, तो तीव्र गति से जारी रखें। लाभ ही होगा। परमात्मा के मार्ग पर ऐसे भी हानि नहीं है।

दूसरे मित्र ने पूछा है--और और भी दो-तीन मित्रों ने वही बात पूछी है--कि यह रोना, चिल्लाना, हंसना, नाचना कब तक जारी रहेगा?


यह तीन सप्ताह से तीन महीने तक जारी रह सकता है। जो ठीक से प्रयोग को कर लेंगे, तीन सप्ताह में रोना, हंसना, चिल्लाना विलीन हो लाएगा और पहले चरण से ठीक चौथे चरण में प्रवेश हो जाएगा, बीच के दो चरण अपने आप गिर जाएंगे। जो ठीक से नहीं करेंगे, धीमे-धीमे करेंगे, उन्हें तीन सप्ताह से लेकर तीन महीने तक का समय लग सकता है। लेकिन यह कोई सदा चलने वाली बात नहीं है, यह तो मन के विकार जब गिर जाएंगे तो अपने आप विलीन हो जाएगा। अब कितनी तीव्रता से आप विकारों को गिराते हैं,

योग: नये आयाम-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-सरल सत्य

मेरे प्रिय आत्मन्!
विगत वर्ष दुनिया के बायोलाजिस्टों की, जीवशास्त्रियों की एक कांफ्रेंस में ब्रिटिश बायोलाजिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष बादकुन ने एक वक्तव्य दिया था। उस वक्तव्य से ही मैं आज की थोड़ी सी बात शुरू करना चाहता हूं। उन्होंने उस वक्तव्य में बड़ी महत्वपूर्ण बात कही, जो एक वैज्ञानिक के मुंह से बड़ी अदभुत बात है। उन्होंने कहा कि मनुष्य के जीवन का विकास किन्हीं नई चीजों का संवर्धन नहीं है, नथिंग न्यू एडेड, वरन कुछ पुरानी बाधाओं का गिर जाना है, ओल्ड हिंडरेंसेस गॉन। मनुष्य के विकास में कुछ जुड़ा नहीं है, मनुष्य के भीतर जो छिपा है... कोई भी चीज प्रकट होती है, तो सिर्फ बीच की बाधाएं भर अलग होती हैं। पशुओं में और मनुष्य में विचार करें, तो मनुष्य के भीतर पशुओं से कुछ ज्यादा नहीं है, बल्कि कुछ कम है। पशु के ऊपर जो बाधाएं हैं, वे मनुष्य से गिर गई हैं; और पशु के भीतर जो छिपा है, वह मनुष्य में प्रकट हो गया है।

एक बीज में और फूल में, फूल में बीज से ज्यादा नहीं है, कुछ कम है। यह बहुत उलटा मालूम होता है, लेकिन यही सच है। बीज में जो बाधाएं थीं, वे गिर गई हैं और फूल प्रकट हो गया है। पौधों में पशुओं से कुछ ज्यादा है, बाधाएं ज्यादा हैं, हिंडरेंसेस ज्यादा हैं। वे गिर जाएं तो पौधे पशु हो जाएंगे। पशुओं की बाधाएं गिर जाएं तो पशु मनुष्य हो जाएंगे। मनुष्यों की बाधाएं गिर जाएं, फिर जो शेष रह जाता है, उसका नाम परमात्मा है।

योग: नये आयाम-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन-परम जीवन का सूत्र

मेरे प्रिय आत्मन्!

योग का आठवां सूत्र। सातवें सूत्र मैं मैंने आपसे कहा, चेतन जीवन के दो रूप हैं--स्व चेतन, सेल्फ कांशस और स्व अचेतन, सेल्फ अनकांशस।
आठवां सूत्र हैः स्व चेतना से योग का प्रारंभ होता है और स्व के विसर्जन से अंत। स्व चेतन होना मार्ग है, स्वयं से मुक्त हो जाना मंजिल है। स्वयं के प्रति होश से भरना साधना है और अंततः होश ही रह जाए, स्वयं खो जाए, यह सिद्धि है।
स्वयं को जो नहीं जानते, वे तो पिछड़े ही हुए हैं; जो स्वयं पर ही अटक जाते हैं, वे भी पिछड़ जाते हैं। जैसे सीढ़ी पर चढ़ कर कोई अगर सीढ़ी पर ही रुक जाए, तो चढ़ना व्यर्थ हो जाता है। सीढ़ी चढ़नी भी पड़ती है और छोड़नी भी पड़ती है। मार्ग पर चल कर कोई मार्ग पर ही रुक जाए, तो भी मंजिल पर नहीं पहुंच पाता। मार्ग पर चलना भी पड़ता है और मार्ग छोड़ना भी पड़ता है, तब मंजिल पर पहुंचता है। मार्ग मंजिल तक ले जा सकता है, अगर मार्ग को छोड़ने की तैयारी हो। और मार्ग ही मंजिल में बाधा बन जाएगा, अगर पकड़ लेने का आग्रह हो।

स्वयं के प्रति होश से भरना सहयोगी है स्वयं के विसर्जन के लिए। लेकिन अगर स्वयं को ही पकड़ लिया जाए, तो जो सहयोगी है वही अवरोध हो जाता है।
इस सूत्र को समझना बहुत--शायद सर्वाधिक--महत्वपूर्ण है। स्वयं को पाने की तो हमारी उत्कट आकांक्षा होती है, लेकिन स्वयं को खोना कठिन बात है। इसलिए बहुत से साधक योग के सातवें सूत्र तक आते हैं,

योग: नये आयाम-(प्रवचन-03) 

तीसरा प्रवचन--प्रेम का केंद्र

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक सूत्र मैंने आपसे कहाः जीवन ऊर्जा है और ऊर्जा के दो आयाम हैं--अस्तित्व और अनस्तित्व। और फिर दूसरे सूत्र में कहा कि अस्तित्व के भी दो आयाम हैं--अचेतन और चेतन। सातवें सूत्र में चेतन के भी दो आयाम हैं--स्व चेतन, सेल्फ कांशस और स्व अचेतन, सेल्फ अनकांशस। ऐसी चेतना जिसे पता है अपने होने का और ऐसी चेतना जिसे पता नहीं है अपने होने का।
जीवन को यदि हम एक विराट वृक्ष की तरह समझें, तो जीवन-ऊर्जा एक है--वृक्ष की पींड़। फिर दो शाखाएं टूट जाती हैं--अस्तित्व और अनस्तित्व की, एक्झिस्टेंस और नॉन-एक्झिस्टेंस की। अनस्तित्व को हमने छोड़ दिया, उसकी बात नहीं की, क्योंकि उसका योग से कोई संबंध नहीं है। फिर अस्तित्व की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है--चेतन और अचेतन। अचेतन की शाखा को हमने अभी चर्चा के बाहर छोड़ दिया, उससे भी योग का कोई संबंध नहीं है। फिर चेतन की शाखा भी दो हिस्सों में टूट जाती है--स्व चेतन और स्व अचेतन।
सातवें सूत्र में इस भेद को समझने की कोशिश सबसे ज्यादा उपयोगी है। अब तक जो मैंने कहा है, वह आज जो सातवां सूत्र आपसे कहूंगा, उसके समझने के लिए भूमिका थी। सातवें सूत्र से योग की साधना प्रक्रिया शुरू होती है। इसलिए इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।

योग: नये आयाम-(प्रवचन-02) 

दूसरा प्रवचन-घर--मंदिर

योग के संबंध में चार सूत्रों की बात मैंने कल की। आज पांचवें सूत्र पर आपसे बात करना चाहूंगा।
योग का पांचवां सूत्र हैः जो अणु में है, वह विराट में भी है। जो क्षुद्र में है, वह विराट में भी है। जो सूक्ष्म से सूक्ष्म में है, वह बड़े से बड़े में भी है। जो बूंद में है, वही सागर में है।
इस सूत्र को सदा से योग ने घोषणा की थी, लेकिन विज्ञान ने अभी-अभी इसको भी समर्थन दिया है। सोचा भी नहीं था कि अणु के भीतर इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति मिल सकेगी, अत्यल्प के भीतर इतना छिपा होगा, ना-कुछ के भीतर सब कुछ का विस्फोट हो सकेगा। अणु के विभाजन ने योग की इस अंतर्दृष्टि को वैज्ञानिक सिद्ध कर दिया है। परमाणु तो दिखाई भी नहीं पड़ता आंख से। लेकिन न दिखाई पड़ने वाले परमाणु में, अदृश्य में विराट शक्ति का संग्रह है। वह विस्फोट हो सकता है। व्यक्ति के भीतर आत्मा का अणु तो दिखाई नहीं पड़ता है, लेकिन उसमें विराट ऊर्जा छिपी है और परमात्मा का विस्फोट हो सकता है। योग की घोषणा कि क्षुद्रतम में विराटतम मौजूद है, कण-कण में परमात्मा मौजूद है, यही अर्थ रखती है।

योग ने क्यों जोर दिया होगा इस सूत्र पर?
एक तो इसलिए कि वह सत्य है। और दूसरा इसलिए कि एक बार यह स्मरण आ जाए कि अणु में परम छिपा है, तो व्यक्ति को अपनी आत्म-शक्ति का स्मरण करने का मार्ग बन जाता है। व्यक्ति को क्षुद्र अनुभव करने का कोई भी कारण नहीं है। क्षुद्रतम को भी क्षुद्र अनुभव करने का कोई कारण नहीं है।

योग: नये आयाम-(प्रवचन-01) 

योग: नये आयाम-(योग) 

पहला प्रवचन

जगत--एक परिवार

योग एक विज्ञान है, कोई शास्त्र नहीं है। योग का इस्लाम, हिंदू, जैन या ईसाई से कोई संबंध नहीं है।
लेकिन चाहे जीसस, चाहे मोहम्मद, चाहे पतंजलि, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, कोई भी व्यक्ति जो सत्य को उपलब्ध हुआ है, बिना योग से गुजरे हुए उपलब्ध नहीं होता। योग के अतिरिक्त जीवन के परम सत्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जिन्हें हम धर्म कहते हैं वे विश्वासों के साथी हैं। योग विश्वासों का नहीं है, जीवन सत्य की दिशा में किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों की सूत्रवत प्रणाली है।
इसलिए पहली बात मैं आपसे कहना चाहूंगा वह यह कि योग विज्ञान है, विश्वास नहीं। योग की अनुभूति के लिए किसी तरह की श्रद्धा आवश्यक नहीं है। योग के प्रयोग के लिए किसी तरह के अंधेपन की कोई जरूरत नहीं है। नास्तिक भी योग के प्रयोग में उसी तरह प्रवेश पा सकता है जैसे आस्तिक। योग नास्तिक-आस्तिक की भी चिंता नहीं करता है।

विज्ञान आपकी धारणाओं पर निर्भर नहीं होता; विपरीत, विज्ञान के कारण आपको अपनी धारणाएं परिवर्तित करनी पड़ती हैं। कोई विज्ञान आपसे किसी प्रकार के बिलीफ, किसी तरह की मान्यता की अपेक्षा नहीं करता है। विज्ञान सिर्फ प्रयोग की, एक्सपेरिमेंट की अपेक्षा करता है।

शनिवार, 24 नवंबर 2018

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन

संन्यासः परम मुक्त जीवन

संन्यास का जो गहरे से गहरा अर्थ हैः पहले तो यह कि जो व्यक्ति संसार को घर मानता है वह गृहस्थी है और जो व्यक्ति संसार को सिर्फ एक पड़ाव मानता है वह संन्यासी है। संसार मुकाम है, बीच का पड़ाव; अंतिम मंजिल नहीं है। ऐसा जिसे दिखाई पड़ना शुरू हो गया वह संन्यासी है। तब वह संसार से गुजरता है, लेकिन वैसे ही जैसे तुम किसी रास्ते से गुजरते हो। गुजरते हो रास्ते से, बिल्कुल ठीक; लेकिन रास्ते को निवास स्थान नहीं बना लेते। उसी रास्ते से वह आदमी भी गुजर सकता है जिसके लिए रास्ता मंजिल हो गया, जिसके लिए रास्ता मंजिल मालूम पड़ता है।
एक ही संसार से हम गुजरते हैं। और जिस व्यक्ति को लगता है कि संसार ही अंत है वह गृहस्थी है। गृहस्थ से मेरा अर्थ हैः संसार को जिसने घर समझा। संन्यास से मेरा अर्थ है कि संसार को जिसने घर नहीं समझा, सिर्फ मार्ग समझा, राह समझी बीच की, जिसे गुजार देनी है, जिससे गुजर जाना है।

निश्चित ही दोनों की दृष्टि में और दोनों के व्यवहार में बहुत फर्क पड़ जाएंगे। जिस रास्ते से तुम्हें गुजर जाना है उसमें तुम आसक्त नहीं बनोगे। वहां तुम्हें रुकना नहीं है, वहां तुम आसक्ति की जड़ें नहीं फैलाओगे। जहां से पार हो जाना है वहां तुम दर्शक से ज्यादा नहीं रहोगे।

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन

धर्म, सम्राट बनाने की कला है

मेरे प्रिय आत्मन्!

मनुष्य के जीवन में इतना दुख है, इतनी पीड़ा, इतना तनाव कि ऐसा मालूम पड़ता है कि शायद पशु भी हमसे ज्यादा आनंद में होंगे, ज्यादा शांति में होंगे। समुद्र और पृथ्वी भी शायद हमसे ज्यादा प्रफुल्लित हैं। रद्दी से रद्दी जमीन में भी फूल खिलते हैं। गंदे से गंदे सागर में भी लहरें आती हैं--खुशी की, आनंद की। लेकिन मनुष्य के जीवन में न फूल खिलते हैं, न आनंद की कोई लहरें आती हैं।
मनुष्य के जीवन को क्या हो गया है? यह मनुष्य की इतनी अशांति और दुख की दशा क्यों है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो होने को पैदा हुआ है वही नहीं हो पाता है, जो पाने को पैदा हुआ है वही नहीं उपलब्ध कर पाता है, इसीलिए मनुष्य इतना दुखी है?

अगर कोई बीज वृक्ष न बन पाए तो दुखी होगा। अगर कोई सरिता सागर से न मिल पाए तो दुखी होगी। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मनुष्य जो वृक्ष बनने को है वह नहीं बन पाता है और जिस सागर से मिलने के लिए मनुष्य की आत्मा बेचैन है, उस सागर से भी नहीं मिल पाती है, इसीलिए मनुष्य दुख में हो?
धर्म मनुष्य को उस वृक्ष बनाने की कला का नाम है।

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

साक्षी हो जाना ध्यान है

प्रश्नः ...

जहां पर ध्यान करने पर आवाज निकलती है, आपने बताया था कल ही कि वहां ध्यान करो। लेकिन कंपन ज्यादा होने से वहां पर एकाग्रता टिकती नहीं...

नहीं; पहली तो यह बात आपके ख्याल में नहीं आई कि एकाग्रता ध्यान नहीं है। मैंने कभी एकाग्रता करने को नहीं कहा। ध्यान बहुत अलग बात है। साधारणतः तो यही समझा जाता है कि एकाग्रता ध्यान है। एकाग्रता ध्यान नहीं है। क्योंकि एकाग्रता में तनाव है। एकाग्रता का मतलब यह है कि सब जगह से छोड़ कर एक जगह मन को जबरदस्ती रोकना। एकाग्रता सदा जबरदस्ती है; उसमें कोएर्शन है। क्योंकि मन तो भागता है और आप कहते हैं नहीं भागने देंगे। तो आप और मन के बीच एक लड़ाई शुरू हो जाती है। और जहां लड़ाई है वहां ध्यान कभी भी नहीं होगा। क्योंकि लड़ाई ही तो उपद्रव है हमारे पूरे व्यक्तित्व की, कि वहां पूरे वक्त कांफ्लिक्ट है, द्वंद्व है, संघर्ष है।

तो मन को ऐसी अवस्था में छोड़ना है जहां कोई कांफ्लिक्ट ही नहीं है। तब तो ध्यान में आप जा सकते हैं। मन को छोड़ना है निर्द्वंद्व। अगर द्वंद्व किया तो कभी ध्यान में नहीं जा सकते। और अगर द्वंद्व किया, द्वंद्व किया तो परेशानी बढ़ जाने वाली है। क्योंकि हारेंगे, दुखी होंगे। जोर से द्वंद्व करेंगे--हारेंगे, दुखी होंगे, और चित्त विक्षिप्त होता चला जाएगा। बजाय इसके कि आनंदित हो, प्रफुल्लित हो--और उदास, और हारा हुआ, फ्रस्ट्रेटेड हो जाएगा।

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन

आनंद का सृजन

प्रश्न:

एक मित्र पूछ रहे हैं कि जिंदगी ऐसे ही बीती चली जाती है। अब थकान लगने लगी, कुछ मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। तो ऐसी जिंदगी से क्या फायदा है?

पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि जो हमें मिल गया है, उसका हमें पता नहीं चलता। जिंदगी खुद इतनी बड़ी चीज है जो हमें मुफ्त मिल गई है। लेकिन उसके लिए हमारे मन में कोई धन्यवाद ही नहीं है। हम कहते हैं, और कुछ मिलना चाहिए। अगर और कुछ भी मिल जाएगा तो उसके लिए हमारे मन में धन्यवाद बंद हो जाएगा। हम कहेंगे, और कुछ मिलना चाहिए।

जिंदगी इतनी बड़ी चीज है जो हमें मिली है। और जिंदगी इतनी असंभव चीज है जो हमें मिली है। कोई दो अरब सूरज हैं। दो अरब सूरजों पर इतनी ही अरब पृथ्वियां हैं उन सूरजों पर। और इस एक छोटी सी पृथ्वी पर अभी जीवन है। यह न होता तब तो बड़ा सहज था मामला। यह है, यह बहुत ही आश्चर्यजनक है। इस पृथ्वी पर भी करोड़ों प्रकार की योनियां हैं। उनमें भी अकेले मनुष्य को थोड़ा सा बोध है। बोधपूर्ण जीवन अकेले मनुष्य के पास है। यह इतनी बड़ी घटना हैः जीवन का होना और चेतना का होना। लेकिन हम कहते हैं कि जीवन बेकार मालूम पड़ता है, क्योंकि कुछ और मिलता नहीं।

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

असंग-भाव की साधना

प्रश्नः

असंग रहने के लिए आपने कहा--इसे जरा विस्तार से समझाएं। जो काम पर काम करते हुए काम का नुकसान होता हो, गलत होता हो या कोई काम न करता हो, कोई काम ठीक समय पर न देता हो और उससे नुकसान या वायदाखिलाफी होती हो, ऐसे लोगों पर शंका जाती है। उस समय कैसे रहना चाहिए? असंग का अर्थ तो मैं यही समझा हूं कि उस काम से या तो खामोशी, मौन कर लिया जाए या कुछ कहा ही न जाए।
दूसरा हैः ध्यान में बैठने में मन में यह भाव आता रहता है कि सजग, मौन होना है। क्या यह भाव आना चाहिए या नहीं? न आने के दूसरे विचार कभी-कभी आ जाते हैं।
तीसराः कुछ विचार ऐसे आते हैं जो दूसरों के नहीं--जैसे अपने काम के संबंध में ही होते हैं कि ऐसा होना चाहिए तो ठीक रहेगा, अथवा फलां का काम कैसे ठीक हो सकता है।

चौथाः क्या जितनी देर ध्यान में बैठना है उसमें हर समय लंबी श्वास छोड़नी चाहिए अथवा नेचरल जैसे चलती है चलने देना चाहिए।
मैं हर रोज सुबह लगभग तीन घंटे बैठता हूं। एक घंटा बैठ कर, एक घंटा लेट कर, एक घंटा सिद्धासन से। इसमें काफी टाइम बिना विचार के जाता है, पर विचार सर्वथा नहीं जाता है। जरा सजगता से चूकता हूं तो विचार आ जाता है। प्रयत्न यही रहता है कि सजग, मौन रहूं। आप तो पारदर्शी हैं, दूसरे की आत्मा को जानते हैं, बातें भी कर लेते हैं--जैसे गांधी जी की आत्मा से। क्या मेरी आत्मा से ध्यान पर, उसे कोई डायरेक्शन पहले से दे सकते हैं।

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन

व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज-(विविध) 

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन जितना दिखाई पड़ता है, उतना ही नहीं है; बहुत कुछ है जो दिखाई नहीं पड़ता। सच तो यह है कि जो दिखाई पड़ता है, वह उसके समक्ष कुछ भी नहीं है जो दिखाई नहीं पड़ता है। एक वृक्ष को हम देखें। आकाश में फैली हुई शाखाएं दिखाई पड़ती हैं, हवाओं में नाचते हुए पत्ते दिखाई पड़ते हैं, सूरज की किरणों में मुस्कुराते हुए फूल दिखाई पड़ते हैं। लेकिन वे जड़ें नहीं दिखाई पड़ती हैं जिनके बिना यह वृक्ष बिलकुल नहीं हो सकेगा। वे जड़ें पृथ्वी के नीचे छिपी हुई हैं। और अगर कोई उन जड़ों को भूल जाए, तो वृक्ष के प्राण उसी क्षण क्षीण होने शुरू हो जाएंगे। जो दिखाई पड़ता है वृक्ष, वह उस वृक्ष के ऊपर निर्भर है जो जमीन के नीचे छिपा है और दिखाई नहीं पड़ता है।
मनुष्य का जीवन भी जो दिखाई पड़ता है वह आकाश में फैले हुए पत्तों की तरह है, लेकिन जो नहीं दिखाई पड़ता परमात्मा, वह जड़ की तरह भीतर छिपा हुआ है। लेकिन उस परमात्मा से अगर हमारे संबंध छूटने शुरू हो जाएं, तो हमारे जीवन के पत्ते, फूल, शाखाएं सब कुम्हलानी शुरू हो जाती हैं।

गुरुवार, 22 नवंबर 2018

सत्य की प्यास-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-अभय

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की खोज में पिछले तीन दिनों से कौन सी भूमिकाएं आवश्यक हैं, कौन सी शर्त पूरी करनी होगी, स्वतंत्रता, सरलता और शून्यता की तीन सीढ़ियों पर मैंने आपसे बात की। इस संबंध में बहुत से प्रश्न उठे हैं, कुछ प्रश्नों पर भी मैंने अपना विचार आपको कहा। अभी भी बहुत से प्रश्न बाकी हैं, उनमें से कुछ पर अभी आपसे चर्चा करूंगा।
मनुष्य का चित्त स्वतंत्र न हो, तो सत्य को कभी भी नहीं जान सकता है। इस संबंध में ही बहुत से प्रश्न आए हैं।
हमारी सोचने की जो गुलाम पद्धति है, सोचने का जो परतंत्र रास्ता है, हर चीज के लिए दूसरे की तरफ देखने की जो आदत है, उसके कारण ही ये सारे प्रश्न उठते हैं। मनुष्य साधारणतः उधार विचारों पर जीता है। बारोड, दूसरों से लिए हुए विचारों पर जीता है। उसके अपने कोई विचार नहीं होते, उसकी अपनी कोई मौलिक चिंतना नहीं होती।

यदि मैं आपसे कहूं कि कभी अपने विचारों पर ध्यान करें और देखें कि कोई एकाध विचार भी आपने अपने जीवन में जाना है और जीआ है? कोई एकाध विचार भी आपका अपना है? शायद आपको पता चले कि एक भी विचार मेरा अपना नहीं। और जिसके सब विचार उधार हों, अगर उसकी आत्मा दरिद्र रह जाए, तो इसमें कसूर किसका है?

सत्य की प्यास-(प्रवचन-05)

पांचवां प्रवचन-शून्यता

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की खोज में स्वतंत्रता और सरलता के दो अनिवार्य भूमिकाओं के बाबत थोड़ी सी बातें मैंने कही हैं और आज शून्यता के संबंध में कुछ कहूंगा।
चित्त सरल हो, स्वतंत्र हो और शून्य हो तो ही उसे जाना जा सकता है जो जीवन का गूढ़तम रहस्य है। चाहे उसे परमात्मा कहें, चाहे कोई और नाम दें। शून्यता की दिशा में सबसे पहला चरण हैः न जानने की भाव-दशा, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग। हम सभी जानते हुए मालूम होते हैं। हम सभी को यह भ्रम है कि हम जीवन को जानते हैं। जन्म ले लेने से कोई जीवन को जानता नहीं। और न ही श्वास ले लेने से कोई जीवन को जान लेता है। लेकिन जन्म के कारण श्वास चलती है इस वजह से, भूख लगती है, प्यास लगती है इस वजह से यदि हम सोच लेते हों कि हमने जीवन को जान लिया है तो हम भ्रांति में हैं।

जीवन को हम जानते नहीं हैं, एकदम अपरिचित हैं। और जो जीवन से अपरिचित है उसे नाममात्र को ही जीवित कहा जा सकता है वह वस्तुतः जीवित नहीं है।
सबसे पहली बात, यह जो जानने का भ्रम है हमें, यह जो इल्युजन ऑफ नालेज है। यह जो भ्रांति है कि हम जानते हैं, यह भ्रांति न छूटे तो चित्त शून्य नहीं हो सकता। क्योंकि चित्त भर गया है ज्ञान से, जानने के भ्रम से। सच यह है कि जीवन है अज्ञात, अननोन। उसके ओर-छोर का हमें कोई बोध नहीं। जीवन के केंद्र का हमें कोई बोध नहीं। जीवन के अर्थ और अभिप्राय का हमें कोई बोध नहीं। कुछ अनुमान हैं जिनके आधार पर ज्ञान का भ्रम पैदा होता है। क्यों हम पैदा हुए हैं? क्यों जीते हैं? क्यों है यह सत्ता? क्यों है यह सारा, सारा विस्तार?

सत्य की प्यास-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

आत्म-विस्मरण नहीं, आत्म-स्मरण

मेरे प्रिय आत्मन्!
बहुत से प्रश्न मेरे सामने हैं, अभी तीन प्रश्न रखे गए हैं, इन तीन पर मैं पहले अपना विचार आपके सामने रखूं और फिर और प्रश्नों को लूंगा। सबसे पहले सबसे अंतिम प्रश्न लेता हूं तीसरा।

वैज्ञानिक अपने काम में खुद को डूबा देता है, उसे जो शांति मिलती है, क्या वह वही है जिस शांति की मैं बात कर रहा हूं?

नहीं, वह शांति बिल्कुल वही नहीं है। कवि भी अपने काव्य के निर्माण में खुद को डूबा देता है; नृत्यकार भी नाचता है तो भूल जाता है; संगीतज्ञ भी संगीत में डूब जाता है, लेकिन यह डूबना स्वयं को जानना नहीं है। और यह शांति वस्तुतः शांति नहीं है बल्कि केवल जीवन के दुख का विस्मरण है। यह एक मूर्च्छा है, ज्ञान नहीं।

मनुष्य अपने दुख को, अपनी अशांति को दो प्रकार से छुटकारा पा सकता है। एक तो प्रकार यह है कि वह अपनी अशांति को भूलने के लिए स्वयं को कहीं डूबा दे, कहीं तन्मय कर दे, कहीं लग जाए। इस तरह अशांति भूल जाती है मिटती नहीं। फॉरगेटफुलनेस, भूल जाना मिटना नहीं है। किसी काम में आदमी डूब जाए तो भूल जाता है। अगर बहुत जोर से डूब जाए तो बिल्कुल भूल जाता है। लेकिन भूल जाना मिट जाना नहीं है। काम एक नशे का काम करता है, इंटाक्सिकेंट का काम करता है। मूर्च्छा ला देता है।
एक छोटी सी घटना सुनाऊं। उससे मेरी बात समझ में सके।

सत्य की प्यास-(प्रवचन-03)

तीसरा प्रवचन-सरलता

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की खोज में या परमात्मा की खोज में स्वतंत्रता पहली शर्त है, इस संबंध में कल मैंने आपसे थोड़ी बातें कहीं। लेकिन स्वतंत्रता, स्वतंत्रता चिल्लाने से कुछ भी हल नहीं होता है। और सत्य की खोज में चले हुए लोग स्वतंत्रता की बातें करते हुए भी प्रतीत होते हों तो भी अपने ही हाथों से अपने ऊपर बंधन निर्मित करते चले जाते हैं।
एक तो ऐसी गुलामी होती है जो दूसरे हमारे ऊपर थोप देते हैं; एक ऐसी भी गुलामी होती है जिसे हम खुद अपने ऊपर थोप लेते हैं। वह गुलामी बहुत खतरनाक नहीं होती जो दूसरे हमारे ऊपर थोप दें; खतरनाक तो वही गुलामी होती है जिसे हम अपने हाथों से निर्मित करते हैं। क्योंकि जिसे हम खुद बनाते हैं उसे मिटाने में डर लगने लगता है, मिटाने में मोह होने लगता है और भय लगने लगता है।

जो परतंत्रता आत्मिक रूप से मनुष्य के ऊपर है वह खुद उसे निर्मित करता है। और इस बात को बिना जाने यदि हम स्वतंत्र होने की कोई तलाश करते हों, इस बात को बिना जाने कि परतंत्रता की कड़ियां खुद हमारी बनाई हुई हैं, तो बड़ी कठिनाई हो जाती है।
एक छोटी सी कहानी से कल की बात को आज से जोड़ना चाहूंगा और फिर आज की बात आपसे कहूंगा।
रोम में एक बहुत अदभुत लोहार हुआ, उस लोहार की प्रसिद्धि उसके देश के बाहर भी दूर-दूर तक फैल गई थी। वह जो भी चीजें बनाता था वे सच में ही इतनी कुशलता के प्रमाण थीं कि उसकी ख्याति, उसका नाम दूर-दूर तक फैल जाए इसमें कोई आश्चर्य न था।

सत्य की प्यास-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

प्रार्थना का अर्थ

मेरे प्रिय आत्मन्!
सत्य की खोज में स्वतंत्रता से बड़ी और कोई भूमिका नहीं है। जिसका मन परतंत्र है, जिसका मन गुलाम है, वह सत्य के दर्शन को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। और मन की गुलामी बहुत प्रकार की है। मन की दासता बहुत प्रकार की है। हमें ख्याल भी नहीं है कि मन कितने प्रकार से परतंत्र है। कितने-कितने रूपों में परतंत्रता की जड़ियों में मन बंधा है। इसका हमें ख्याल भी नहीं है। सुबह मैंने थोड़ी सी बातें इस संबंध में कही हैं एक बात को स्पष्ट करके, जो प्रश्न आए हैं उनके उत्तर दूंगा। सबसे पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि मन की गुलामी क्या है। हो सकता है, और ऐसा बताया गया है हजारों वर्षों से, जिस बात को मैं मन की गुलामी कहता हूं उसी बात को बहुत से लोग ज्ञान समझते रहे हैं और बताते रहे हैं।
तो जब मैं कहता हूं ज्ञान को छोड़ दें, तो बहुत से प्रश्न आए हैं कि ज्ञान को छोड़ देंगे तब क्या होगा? तब तो हमारा सहारा छूट जाएगा। तब तो हम भटक जाएंगे, तब तो मार्ग खो जाएगा।

असल में जिस ज्ञान को मैं छोड़ने को कह रहा हूं अगर वह ज्ञान ही होता तो मैं भी उसे छोड़ने को क्यों कहता। वह ज्ञान नहीं है। न केवल वह ज्ञान नहीं है बल्कि वही परतंत्रता है। और मनुष्य के मन में जिस भांति का प्रचार कर दिया जाए उसी भांति की परतंत्रता पैदा की जा सकती है।

बुधवार, 21 नवंबर 2018

सत्य की प्यास-(प्रवचन-01) 

सत्य की प्यास-(विविध) 

पहला प्रवचन

स्वतंत्रता--विचार की, विवेक की

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।
बहुत वर्षों पहले की बात है, एक बूढ़ा व्यक्ति अंधा हो गया, उसकी आंखें चली गईं। उसकी उम्र सत्तर को पार कर चुकी थी। उसके आठ लड़के थे, आठ लड़कों की बहुएं थीं, पत्नी थी। उसके मित्रों ने, उसके परिवार के लोगों ने समझाया, आंखों का इलाज करवा लें। लेकिन उस बूढ़े आदमी ने कहा कि अब मेरी आंखों का उपयोग भी क्या, बूढ़ा हो गया हूं। फिर मेरे आठ लड़के हैं, उनकी सोलह आंखें हैं; मेरी आठ बहुएं हैं, उनकी सोलह आंखें हैं; मेरी पत्नी है; ऐसा मेरे घर में चौंतीस आंखें हैं। क्या चौंतीस आंखों से मेरा काम नहीं चल सकेगा? और मेरी दो आंखें न भी हुईं तो फर्क क्या पड़ता है!

बात ठीक ही थी। घर में चौंतीस आंखें थीं, दो आंखें न हुईं तो कौन सा फर्क पड़ेगा? उसे बूढ़े ने जिद्द की और अपनी आंखों का उपचार नहीं करवाया। लेकिन पंद्रह दिन ही बीते होंगे कि उस बड़े भवन में आग लग गई जिसका वह निवासी था। वे बत्तीस, चौंतीस आंखें आग लगते ही घर के बाहर हो गईं। और उन चौंतीस आंखों में से किसी को भी यह ख्याल न आया कि एक बूढ़ा आदमी भी घर के भीतर है जिसके पास आंखें नहीं हैं। जब वे बाहर पहुंच गए, आग के बाहर हो गए--लड़के और बहुएं और पत्नी, तब उन्हें स्मरण आया कि घर का वृद्ध व्यक्ति घर में छूट गया है। लेकिन तब कुछ भी करना संभव न था। लौटने की कोई गुंजाइश न थी।

समुंद समाना बूंद में-(प्रवचन-07)

सातवां प्रवचन-(धर्म जीवन की कला है)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी अंतिम चर्चा शुरू करना चाहता हूं। एक पूरे चांद की रात में, एक गांव में कुछ मित्रों ने आधी रात तक शराबघर में इकट्ठा होकर शराब पी ली। वे जब नशे में बिल्कुल डूब गए, तब उन्हें ख्याल आया कि पूर्णिमा की रात है, चलें नदी पर नौका-विहार करें।
वे नदी पर गए। मछुए अपनी नौकाएं बांध कर कभी के घर जा चुके थे। वे एक बड़ी नौका में सवार हो गए, उन्होंने पतवारें उठा लीं और नौका को खेना शुरू कर दिया। फिर वे तेजी से--नशे में--ताकत से नौका को खेते रहे, खेते रहे, खेते रहे। और फिर बाद में सुबह होने के करीब आ गई, उन्होंने आधी रात तक नौका चलाई, सुबह की ठंडी हवाओं ने उनके होश को थोड़ा वापस लौटाया और उन्हें ख्याल आया--हम न मालूम कितनी दूर निकल आए होंगे, अपने गांव से न मालूम कितनी दूरी पर आ गए होंगे, और न मालूम किस दिशा में आ गए हैं। अब उचित है कि हम वापस लौट चलें, सुबह होने के करीब है, और हमें वापस लौट जाना चाहिए।

उन्होंने सोचा कि एक आदमी उतर कर देख ले कि हम कहां पहुंच गए हैं--उत्तर में, दक्षिण में, कितने दूर हैं, किस गांव में हैं--किस तरह वापस लौटें?