पहली सतोरी नदी तीर
अपने बचपन के दिनों में मैं प्रात: काल जल्दी नदी पर जाया करता था। यह एक छोटा सा गांव का। नदी बहुत अधिक सुस्त थी। जैसे कि यह जरा भी प्रवाहित न हो रही हो। प्रति: काल जब सूर्योदय न हुआ हो। तुम देख ही नहीं सकते कि नदी प्रवाहित हो रही है या नहीं,यह इतनी मंद और शांत हुआ करती थी। और प्रात: काल मैं जब वहां कोई न हो,स्नान करने वाले अभी तक न आए हों। वह आत्यंतिक रूप से शांत रहती थी। प्रात: काल जब पक्षी भी अभी गा रहे हो—ऊषा पूर्व, कोई ध्वनि नहीं, बस एक सन्नाटा व्याप्त रहता है। और नदी पर इधर से उधर तक आम के वृक्षों के सुगंध फैली रहती है।
मैं नदी के दूरस्थ कोने तक बस बैठने के लिए,बस वहां होने के लिए जाया करता था। कुछ करने की अवश्यकता नहीं थी, वहां होना ही पर्याप्त था; वहां होना ही इतना सुंदर अनुभव था। मैं स्नान कर लेता, मैं तैर लेता और जब सूर्य उदय होता तो मैं दूसरे किनारे पर रेत के विराट विस्तार में चला जाता और वहां घुप में स्वय को सुखाता और वहां लेटा रहता। और जब कभी-कभी सो भी जाता।
जब मैं लौट कर आता,तो मेरी मां पूछा करती, सुबह के पूरे समय तुम क्या करते हो?
मैं कहता: कुछ भी नहीं,क्योंकि वास्तव में मैं कुछ भी नहीं करता था।