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मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-03)

जीवन-क्रांति का प्रारंभः  -(प्रवचन-तीसरा)

भय के साक्षात्कार से

मेरे प्रिय आत्मन्!
"नये समाज की खोज', इस संबंध में तीन सूत्रों पर मैंने बात की है। आज चौथे सूत्र पर बात करूंगा और पीछे कुछ प्रश्नों के उत्तर।
मनुष्य का मन आज तक भय के ऊपर निर्मित किया गया है। सारी संस्कृति, सारा धर्म, जीवन के सारे मूल्य भय के ऊपर खड़े हुए हैं। जिसे हम भगवान कहते हैं, वह भी भगवान नहीं है, वह भी हमारे भय का ही भवन है। है कहीं कोई भगवान, लेकिन उसे पाने के लिए भय रास्ता नहीं है। उसे पाना हो तो भय से मुक्त हो जाना जरूरी है।
भय जीवन में जहर का असर करता है, विषाक्त कर देता है सब। लेकिन अब तक आदमी को डरा कर ही हमने ठीक करने की कोशिश की थी। आदमी तो ठीक नहीं हुआ, सिर्फ डर गया है।

नये समाज का जन्म-(प्रवचन-02)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-दूसरा)

सुख की नींव पर

मेरे प्रिय आत्मन्!
"नये समाज की खोज,' इस संबंध में तीसरे सूत्र के बाबत पहले कुछ कहूंगा। पीछे आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा।
आज तक मनुष्य-जाति क्षणिक का विरोध करती रही है और शाश्वत को आमंत्रण देती रही है, क्षुद्र का विरोध करती रही है और विराट को पुकारती रही है। और जीवन का आश्चर्य यह है कि जो विराट है वह क्षुद्र में मौजूद है और जो शाश्वत है वह क्षणिक में निवास करता है। क्षणिक के विरोध ने क्षणिक को भी नष्ट कर दिया है और शाश्वत को भी निकट नहीं आने दिया है।

सोमवार, 29 अप्रैल 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-01)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-पहला)

का आधार : नया मनुष्य

मेरे प्रिय आत्मन्!
"नये समाज की खोज' नयी खोज नहीं है, शायद इससे ज्यादा कोई पुरानी खोज न होगी। जब से आदमी है तब से नये की खोज कर रहा है। लेकिन हर बार खोजा जाता है नया, और जो मिलता है वह पुराना ही सिद्ध होता है। क्रांति होती है, परिवर्तन होता है, लेकिन फिर जो निकलता है वह पुराना ही निकलता है। शायद इससे बड़ा कोई आश्चर्यजनक, इससे बड़ी कोई अदभुत घटना नहीं है कि मनुष्य की अब तक की सारी क्रांतियां असफल हो गई हैं। समाज पुराना का पुराना है। सब तरह के उपाय किए गए हैं, और समाज नया नहीं हो पाता। समाज क्यों पुराना का पुराना रह जाता है? नये समाज की खोज पूरी क्यों नहीं हो पाती?

शनिवार, 27 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-08)

नये भारत की खोज-(आठवां प्रवचन)

अच्छे लोग और अहित

प्रश्नकर्ताः आप जो विस्फोटक बातें देश के जीवन और गांधी जी के संबंध में कह रहे हैं, उससे तो लोग आपसे दूर चले जाएंगे।
उत्तरः मैं इसके लिए जरा भी ध्यान नहीं रखता हूं कि लोग मेरे करीब आएंगे या मुझसे दूर जाएंगे। वह मेरा प्रयोजन भी नहीं है। जो ठीक है और सच है, उतना ही मैं कहना चाहता हूं। सत्य का क्या परिणाम होगा, इसकी मुझे जरा भी चिंता नहीं है। अगर वह सत्य है तो लोगों को उसके साथ आना पडेगा, चाहे वह आज दूर जाते हुए मालूम पडे। और लोग पास आएं इसलिए मैं असत्य नहीं बोल सकता हूं। फिर, सत्य जब भी बोला जाएगा, तभी प्राथमिक परिणाम उसका यही होगा कि लोग भागेंगे। क्योंकि हजारों वर्ष से जिस धारणा में वे पले हैं, उस पर चोट पडेगी। सत्य का हमेशा ही यही परिणाम हुआ है। सत्य हमेशा डेवेस्टेटिंग है, एक अर्थों में..कि वह जो हमारी धारणा है, उसको तो तोड डालो। और अगर धारणा तोडने से हम बचना चाहें, तो हम सत्य नहीं बोल सकते। जान कर मैं किसी को चोट नहीं पहुंचाना चाह रहा हूं, डेलिब्रेटलि मैं किसी को चोट पहुंचाना नहीं चाहता हूं।

नये भारत की खोज-(प्रवचन-07)

नये भारत की खोज-(सातवां प्रवचन)

६ मई १९६९, पूना)

...इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं, मैं पांच मील चल सकता हूं। होना चाहिए कि मैं एक घंटे में पांच मील चल सकता हूं। इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं, मैं पांच मील चल सकता हूं। मुझे अपनी शक्तियों का ज्ञान होना चाहिए। और मैं विश्वास करूं कि मैं पच्चीस मील चल सकता हूं, तो मरूंगा, झंझट में पडूंगा। जबरदस्ती कर लिया तो झंझट में पड़े, क्योंकि वह सीमा के बाहर हो जाएगा। और कम किया तो भी नुकसान में पड़ जाएंगे, क्योंकि वह सीमा के नीचे हो जाएगा।

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-06)

नये समाज की खोज-(प्रवचन-छठवां)

छठवां प्रवचन (६ मई १९६९, पूना, रात्रि)

हिंसक राजनीतिज्ञ

इन तीन दिनों की चर्चाओं के आधार पर बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या सारा अतीत ही गलत था, क्या सारा अतीत ही छोड़ देने योग्य है? क्या अतीत में कुछ भी अच्छा नहीं है?
इस संबंध में दोत्तीन बातें समझ लेनी चाहिए।
पहली बात, पिता मर जाते हैं, हम उन्हें इसलिए नहीं दफनाते हैं कि वे बुरे थे, इसलिए दफनाते हैं कि वे मर गए हैं। और कोई भी यह कहने नहीं आता कि पिता बहुत अच्छे थे, तो उन्हें दफनाना नहीं चाहिए, उनकी मरी हुई लाश को भी घर में रखना जरूरी है। अतीत का अर्थ है: जो मर गया, जो अब नहीं है। लेकिन मानसिक रूप से हम अतीत की लाशों को अपने सिर पर ढो रहे हैं। उन लाशों से दुर्गंध भी पैदा होती है, वे सड़ती भी हैं। और उन लाशों के बोझ के कारण नये का जन्म असंभव और कठिन हो जाता है। अगर किसी घर के लोग ऐसा तय कर लें कि जो भी मर जाएगा, उसकी लाश को हम घर में रखेंगे। तो उस घर में नये बच्चों का पैदा होना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

नये भारत की खोज-(प्रवचन-05)

नये भारत की खोज-(पांचवा-प्रवचन)

पांचवां प्रवचन (६ मई १९६९, पूना, प्रातः)

आत्मघाती आदर्शवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीते दो दिनों में भारत की समस्याएं और हमारी प्रतिभा, इस संबंध में कुछ बातें मैंने कहीं। पहले दिन पहले सूत्र पर मैंने यह कहा कि भारत की प्रतिभा अविकसित रह गई है, पलायन, एस्केपिज्म के कारण।
जीवन से बचना और भागना हमने सीखा है, जीवन को जीना नहीं। और जो भागते हैं, वे कभी भी जीवन की समस्याओं को हल नहीं कर सकते।
भागना कोई हल नहीं है। समस्याओं से पीठ फेर लेना और आंख बंद कर लेना कोई समाधान नहीं है। समस्याओं को ही इनकार कर देना, झूठा कह देना, माया कह देना, समस्याओं से आंख बंद कर लेना तो है, लेकिन इस भांति समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। मन को राहत मिलती है कि समस्याएं हैं ही नहीं, लेकिन समस्याएं जीवित रहती

नये भारत की खोज-(प्रवचन-04)

नये भारत की खोज-(चौथा प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है, सुबह मैंने कहा, सब आदमी नकली हैं, उन मित्र ने पूछा है कि नकली कौन है? असली कौन है? हम कैसे पहचानें?
पहली तो बात यह है, दूसरे के संबंध में सोचें ही मत कि वह असली है या नकली है। सिर्फ नकली आदमी ही दूसरे के संबंध में इस तरह की बातें सोचता है। अपने संबंध में सोचें कि मैं नकली हूं या असली? और अपने संबंध में सोचना ही संभव है और जानना संभव है।
इसलिए पहली बात है, हमारा चिंतन निरंतर दूसरे की तरफ लगा होता है, कौन दूसरा कैसा है? नकली आदमी का एक लक्षण यह भी है, स्वयं के संबंध में नहीं सोचना और दूसरों के संबंध में सोचना। असली सवाल यह है कि मैं कैसा आदमी हूं? और इसे जान लेना बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि सुबह से सांझ तक, जन्म से लेकर मरने तक मैं अपने साथ जी रहा हूं। और अपने आपको भलीभांति जानता हूं। न केवल में दूसरों को धोखा दे रहा हूं, अपने को भी धोखा दे रहा हूं। मेरी जो असली शक्ल है, वह मैंने छिपा रखी है। और जो मेरी शक्ल नहीं है, वह मैं दिखा रहा हूं, वह मैंने बना रखी है। दिन भर में हजार बार हमारे चेहरे बदल जाते हैं। असली आदमी तो वही

नये भारत की खोज-(प्रवचन-03)

नये भारत की खोज-(तीसरा प्रवचन) 

तीसरा प्रवचन (५ मई १९६९, पूना, प्रातः)

आत्मघाती परंपरावाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से आज की बात मैं शुरू करना चाहूंगा। वह कहानी तो आपने सुनी होगी, लेकिन अधूरी सुनी होगी। अधूरी ही बताई गई है अब तक। पूरा बताना खतरनाक भी हो सकता है। इसलिए पूरी कहानी कभी बताई ही नहीं गई। और अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा घातक होते हैं। असत्य सीधा असत्य होता है, दिखाई पड़ जाता है। आधे सत्य सत्य दिखाई पड़ते हैं और सत्य होते नहीं। क्योंकि सत्य कभी आधा नहीं हो सकता है। या तो होता है या नहीं होता है। और बहुत से अधूरे सत्य मनुष्य को बताए गए हैं, इसलिए मनुष्य असत्य से मुक्त नहीं हो पाता है। असत्य से मुक्त हो जाना तो बहुत आसान है। अधूरे सत्यों से मुक्त होना बहुत कठिन हैं। क्योंकि वे सत्य होने का भ्रम देते हैं और सत्य होते भी नहीं हैं। ऐसी ही यह आधी कहानी भी बताई गई है।

गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

नये भारत की खोज-(प्रवचन-02)

नये भारत की खोज-(दूसरा) 

दूसरा प्रवचन (४ मई १९६९ पूना, रात्रि)

वैज्ञानिक चिंतन की हवा

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न पूछे गए हैं।
एक मित्र ने पूछा है: पश्चिम से पढ़ कर आए हुए युवक विज्ञान और तकनीक की नई से नई शिक्षा लेकर आए हुए युवक भी भारत में आकर विवाह करते हैं तो दहेज मांगते हैं। तो उनकी वैज्ञानिक शिक्षा का क्या परिणाम हुआ?
पहली तो बात यह है, जब तक कोई समाज अरेंज-मैरीज, बिना प्रेम के और सामाजिक व्यवस्था से विवाह करना चाहेगा, तब तक वह समाज दहेज से मुक्त नहीं हो सकता। दहेज से मुक्त होने का एक ही उपाय है कि युवकों और युवतियों के बीच मां-बाप खड़े न हों, अन्यथा दहेज से नहीं बचा जा सकता। प्रेम के अतिरिक्त विवाह का और कोई भी कारण होगा, तो दहेज किसी न किसी रूप में जारी रहेगा।

नये भारत की खोज-(प्रवचन-01)

नये भारत की खोज-ओशो

पहला प्रवचन (४ मई १९६९ पूना, प्रातः)

आत्मघाती पलायनवाद

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक अंधेरी रात में आकाश तारों से भरा था और एक ज्योतिषी आकाश की तरफ आंखें उठा कर तारों का अध्ययन कर रहा था। वह रास्ते पर चल भी रहा था और तारों का अध्ययन भी कर रहा था। रास्ता कब भटक गया, उसे पता नहीं, क्योंकि जिसकी आंख आकाश पर लगी हो, उसे जमीन के रास्तों के भटक जाने का पता नहीं चलता। पैर तो जमीन पर चलते हैं, और अगर आंखें आकाश को देखती हों तो पैर कहां चले जाएंगे, इसे पहले से निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह रास्ते से भटक गया और रास्ते के किनारे एक कुएं में गिर पड़ा। जब कुएं में गिरा, तब उसे पता चला। आंखें तारे देखती रहीं और पैर कुएं में चले गए। वह बहुत चिल्लाया, अंधेरी रात थी, गांव दूर था। पास के एक खेत से एक बूढ़ी औरत ने आकर बामुश्किल उसे कुएं के बाहर निकाला। उस ज्योतिषी ने उस बुढ़िया के पैर छुए और कहा, मां, तूने मेरा जीवन बचाया, शायद तुझे पता नहीं मैं कौन हूं। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। और अगर तुझे आकाश के तारों के संबंध में कुछ भी समझना हो तो तू मेरे पास आ जाना। सारी दुनिया से बड़े-बड़े ज्योतिषी मेरे पास सीखने आते हैं। उनसे मैं बहुत रुपया फीस में लेता हूं, तुझे मैं मुफ्त में बता सकूंगा।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-23)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-23) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-33

ब्रह्म के दो रूप

अभी विगत पंद्रह वर्षों की गहन खोज ने विज्ञान को एक नयी धारणा दी है- ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’ की, फैलते हुए विश्व की। सदा से ऐसा समझा जाता था कि विश्व जैसा है, वैसा है। नया विज्ञान कहता है, विश्व उतना ही नहीं है जितना है- रोज फैल रहा है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भरता चला जाए और गुब्बारा बड़ा होता चला जाए! यह जो विस्तार है जगत का, यह उतना नहीं है, जितना कल था। यह निरंतर फैल रहा है।  ये जो तारे रात हमें दिखायी पड़ते हैं, ये एक-दूसरे से प्रतिपल दूर जा रहे हैं- ‘एक्सपैंडिंग युनिवर्स’, फैलता हुआ विश्व! इसके दो अर्थ हुए : कि एक क्षण ऐसा भी रहा होगा, जब यह विश्व इतना सिकुड़ा रहा होगा कि शून्य केंद्र पर रहा होगा- आप पीछे लौटें! समय में जितने पीछे लौटेंगे, विश्व छोटा होता जाएगा, सिकुड़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा जरूर रहा होगा, जब यह सारा विश्व बिंदु पर सिकुड़ा रहा होगा- फिर फैलता चला गया, आज भी फैल रहा है परिधि बड़ी होती चली जाती है रोज!

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-22)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-22) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-32

जागते- जागते -- चार खंडों में

1..परमात्मा की चाह नहीं हो सकती

मन मांगता रहता है संसार को, वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ, शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए, आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए। हमारा जीवन आग की लपट है, वासनाएं जलती हैं उन लपटों में- आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला इऋधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। इन लपटों में जलते हुए कभी-कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी होता है।  हताशा में, बेचैनी में कभी-कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के साथ कभी-कभी प्रार्थना करने का मन भी हो जाता है। दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंदकर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के एकांत कोने में डूब जाने का ख्याल भी उठता है।  लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-21)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-21) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-31

भगवत-प्रेम

जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं- एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं, सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत!  एक ह्लह्ल17प्रतिशतह्लह्लोंच चित्रकार सींजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह पूरी पहाड़ी अद्भुत है। सींजां ने पूछा, इसके अद्भुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तुम रहोगे यहां तो पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर रोज एक आदमी से ज्यादा नहीं मरता। सींजां ने जल्दी से पूछा, आज मरनेवाला आदमी मर गया या नहीं नहीं, तो मैं भागूं।  आदमी अपने को बचाने के लिए बहुत आतुर है। अगर मैं हूं, लाख में एक, तो आप कहेंगे बिल्कुल ठीक- छोड़ा अपने को! आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, ख्याल रखना। लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलींध होता है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-20)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-20) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-30

मृत्यु और परलोक

इस जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है, ‘इग्नोरेंस इज़ डेथ’। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कहीं है ही नहीं। हम नहीं जानते इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असंभव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंभव घटना है जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं, लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है।  हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है और अमृत ही, अमृत्व ही शेष रह जाता है- ‘इम्मारलिटी’ ही शेष रह जाती है।  कभी आपने ख्याल किया कि आपने किसी आदमी को मरते देखा आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मैं कहता हूं कि नहीं देखा! आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहींदेखा। मरने की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं होगी। जो हम देखते हैं वह केवल जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है, मरने की नहीं।  जैसे बटन दबाया हमने, बिजली का बल्ब बुझ गया।

बुधवार, 24 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-19)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-19) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-29

जो बोएंगे बीज वही काटेंगे फसल

 किसे हम कहें कि अपना मित्र है और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है। एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुःख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुःख के बीज बोनेवाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुःख का बीज बोते हैं। निश्चित ही बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है, इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य - कि फल जहर के और विष के उपलींध हुए हैं!  लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है। हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं जहां की हम यात्रा करते हैं।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-18)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-18) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-28

यह मन क्या है

एक आकाश, एक स्पेस बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं- जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं। जहां पक्षी उड़ते, शून्य जन्मते और पृथ्वियां विलुप्त होती हैं- यह आकाश हमारे बाहर है। किंतु यह आकाश जो बाहर फैला है, यही अकेला आकाश नहीं है- ‘दिस स्पेस इस नाट द ओनली स्पेस’- एक और भी आकाश है, वह हमारे भीतर है। जो आकाश हमारे बाहर है वह असीम है।  वैज्ञानिक कहते हैं, उसकी सीमा का कोई पता नहीं लगता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है- ‘मल्टी डायमेंशनल इनफिनिटी’ है। बाहर के आकाश में चलना, उठना होता है, भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियाएं होती हैं, भीतर के आकाश में चैतन्य है।  जो बाहर के ही आकाश में खोजता रहेगा वह कभी भी जीवन से मुलाकात न कर पाएगा।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-17)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-17) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-27

मैं मृत्यु सिखाता हूं

मैं प्रकाश की बात नहीं करता हूं, वह कोई प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न वस्तुतः आंख का है। वह है, तो प्रकाश है। वह नहीं है, तो प्रकाश नहीं है। क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते हैं, वही हम जानते हैं। इसलिए विचारणीय सत्ता नहीं, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जाग्रत होता है।  कोई पूछता था- आत्मा है या नहीं है मैंने कहा- आपके पास उसे देखने की आंख है, तो है, अन्यथा नहीं ही है। साधारणतः हम केवल पदार्थ को ही देखते हैं। इंद्रियों से केवल वही ग्रहण होता है। देह के माध्यम से जो भी जाना जाता है वह देह से अन्य हो भी कैसे सकता है देह, देह को ही देखती है औैर देख सकती है। अदेही उससे अस्पर्शित रह जाता है। आत्मा उसकी ग्रहण-सीमा में नहीं आती है। वह पदार्थ से अन्य है।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-16)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-16) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-26

अहिंसा का अर्थ

मैं उन दिनों का स्मरण करता हूं जब चित्त पर घना अंधकार था और स्वयं के भीतर कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता था। तब की एक बात ख्याल में है। वह यह कि उन दिनों किसी के प्रति कोई प्रेम प्रतीत नहीं होता था। दूसरे तो दूर, स्वयं के प्रति भी कोई प्रेम नहीं था।  फिर, जब समाधि को जाना तो साथ ही यह भी जाना कि जैसे भीतर सोए हुए प्रेम से अनंत झरने अनायास ही सहज और सक्रिय हो गए हैं। यह प्रेम विशेष रूप से किसी के प्रति नहीं था। यह तो बस था, और सहज ही प्रवाहित हो रहा था। जैसे दीए से प्रकाश बहता है और फूलों से सुगंध, ऐसे ही वह भी बह रहा था। बोध के उस अद्भुत क्षण में जाना था कि वह तो स्वभाव का प्रकाश है। वह किसी के प्रति नहीं होता है। वह तो स्वयं की स्फुरणा है।  इस अनुभूति के पूर्व प्रेम को मैं राग मानता था। अब जाना कि प्रेम और राग तो भिन्न हैं। राग तो प्रेम का अभाव है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-15)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-15) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-25

नीति, भय और प्रेम

मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है, जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुःखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है, वह हृदय में कांटों की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है उसका जीवन जीवन भी तो नहीं मालूम होता है। जहां शांति न हो, संगीत न हो, शक्ति न हो, आनंद न हो- वहां जीवन भी क्या होगा आनंदरिक्त, अर्थशून्य अराजकता को जीवन कैसे कहें जीवन नहीं, बस एक दुःस्वप्न ही उसे कहा जा सकता है- एक मूर्च्छा, एक बेहोशी और पीड़ाओं की एक लंबी श्रृंखला। निश्चय ही यह जीवन नहीं- बस एक लंबी बीमारी है जिसकी परिसमाप्ति मृत्यु में हो जाती है। हम जी भी नहीं पाते, और मर जाते हैं।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-14)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-14) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-24

प्रेम ही प्रभु है

मैं मनुष्य को रोज विकृति से विकृति की ओर जाते देख रहा हूं, उसके भीतर कोई आधार टूट गया है। कोई बहुत अनिवार्य जीवन-स्नायु जैसे नष्ट हो गए हैं और हम संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहे हैं।  इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से समष्टि तक फैल गए हैं, परिवार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। जिसे हम संस्कृति कहें, वह संगीत कहीं भी सुनाई नहीं पड़ता है।  मनुष्य के अंतस के तार सुव्यवस्थित हों तो वह संगीत भी हो सकता है। अन्यथा उससे बेसुरा कोई वाद्य नहीं है।  फिर जैसे झील में एक जगह पत्थर के गिरने से लहर-वृत्त दूर कूल-किनारों तक फैल जाते हैं, वैसे ही मनुष्य के चित्त में उठी हुई संस्कृति या विकृति की लहरें भी सारी मनुष्यता के अंतस्थल में आंदोलन उत्पन्न करती हैं।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-13)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-13) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-23

मांगो और मिलेगा

मैं यह क्या देख रहा हूं यह कैसी निराशा तुम्हारी आंखों में है और क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि जब आंखें निराश होती हैं, तब हृदय की वह अग्नि बुझ जाती है और वे सारी अभीप्साएं सो जाती हैं, जिनके कारण मनुष्य मनुष्य है।  निराशा पाप है, क्योंकि जीवन उसकी धारा में निश्चय ही ऊर्ध्वगमन खो देता है।  निराशा पाप ही नहीं, आत्मघात भी है क्योंकि जो श्रेष्ठतर जीवन को पाने में संलग्न नहीं है, उसके चरण अनायास ही मृत्यु की ओर बढ़ जाते हैं।  यह शाश्वत नियम है कि जो ऊपर नहीं उठता, वह नीचे गिर जाता है, और जो आगे नहीं बढ़ता, वह पीछे धकेल दिया जाता है।  मैं जब किसी को पतन में जाते देखता हूं तो जानता हूं कि उसने पर्वत शिखरों की ओर उठना बंद कर दिया होगा। पतन की प्रक्रिया विधेयात्मक नहीं है। घाटियों में जाना, पर्वतों पर न जाने का ही दूसरा पहलू है। वह उसकी ही निषेध-छाया है।  और जब तुम्हारी आंखों में मैं निराशा देखता हूं तो

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-12)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-12) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-22

आनंद की दिशा

यह क्या हो गया है मनुष्य को यह क्या हो गया है मैं आश्चर्य में हूं कि इतनी आत्मविपन्नता, इतनी अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बावजूद भी हम कैसे जी रहे हैं!  मैं मनुष्य की आत्मा को खोजता हूं तो केवल अंधकार ही हाथ आता है और मनुष्य के जीवन में झांकता हूं तो सिवाय मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है।  जीवन है, लेकिन जीने का भाव नहीं। जीवन है, लेकिन एक बोझ की भांति। वह सौंदर्य, समृद्धि और शांति नहीं है। और आनंद न हो, आलोक न हो तो निश्चय ही जीवन नाम-मात्र को ही जीवन रह जाता है।  क्या हम जीवन को जीना ही तो नहीं भूल गए हैं पशु, पक्षी और पौधे भी हमसे ज्यादा सघनता, समृद्धि और संगीत में जीते हुए मालूम होते हैं। लेकिन शायद कोई कहे कि मनुष्य की समृद्धि तो दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती जा रही है-

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-11)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-11) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-21

अहिंसा क्या है

मैं अहिंसा पर बहुत विचार करता था। जो कुछ उस संबंध में सुनता था, उससे तृप्ति नहीं होती थी। वे बातें बहुत ऊपरी होती थीं। बुद्धि तो उनसे प्रभावित होती थी, पर अंतस अछूता रह जाता था। धीरे-धीरे इसका कारण भी दिखा। जिस अहिंसा के संबंध में सुनता था, वह नकारात्मक थी। नकार बुद्धि से ज्यादा गहरे नहीं जा सकता है। जीवन को छूने के लिए कुछ विधायक चाहिए। अहिंसा, हिंसा को छोड़ना ही हो, तो वह जीवनस्पर्श नहीं हो सकती है। वह किसी को छोड़ना नहीं, किसी की उपलिंध होनी चाहिए। वह त्याग नहीं, प्राप्ति हो, तभी सार्थक है।  अहिंसा शींद की नकारात्मकता ने बहुत भ्रांति को जन्म दिया है। वह शींद तो नकारात्मक है, पर अनुभूति नकारात्मक नहीं है।

सोमवार, 22 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-10)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-10) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-20

जीवन की अदृश्य जड़ें

किस संबंध में आपसे बातें करूं- जीवन के संबंध में शायद यही उचित होगा, क्योंकि जीवित होते हुए भी जीवन से हमारा संबंध नहीं है। यह तथ्य कितना विरोधाभासी है क्या जीवित होते हुए भी यह हो सकता है कि जीवन से हमारा संबंध न हो यह हो सकता है! न केवल हो ही सकता है, बल्कि ऐसा ही है। जीवित होते हुए भी, जीवन भूला हुआ है। शायद हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का विस्मरण ही हो गया है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-09)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-9) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-19

समाधि योग

सत्य की खोज की दो दिशाएं हैं- एक विचार की, एक दर्शन की। विचार-मार्ग चक्रीय है। उसमें गति तो बहुत होती है, पर गंतव्य कभी भी नहीं आता। वह दिशा भ्रामक और मिथ्या है। जो उसमें पड़ते हैं, वे मतों में ही उलझकर रह जाते हैं। मत और सत्य भिन्न बातें हैं। मत बौद्धिक धारणा है, जबकि सत्य समग्र प्राणों की अनुभूति में बदल जाते हैं। तार्किक हवाओं के रुख पर उनकी स्थिति निर्भर करती है, उनमें कोई थिरता नहीं होती। सत्य परिवर्तित नहीं होता है। उसकी उपलिंध शाश्वत और सनातन में प्रतिष्ठा देती है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-08)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-8) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-18

जीवन-संपदा का अधिकार

मैं क्या देखता हूं देखता हूं कि मनुष्य सोया हुआ है। आप सोए हुए हैं। प्रत्येक मनुष्य सोया हुआ है। रात्रि ही नहीं, दिवस भी निद्रा में ही बीत रहे हैं। निद्रा तो निद्रा ही है, किंतु यह तथाकथित जागरण भी निद्रा ही है। आंखों के खुल जाने-मात्र से नींद नहीं टूटती। उसके लिए तो अंतस का खुलना आवश्यक है। वास्तविक जागरण का द्वार अंतस है। जिसका अंतस सोया हो, वह जागकर भी जागा हुआ नहीं होता, और जिसका अंतस जागता है वह सोकर भी सोता नहीं है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-07)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-7) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-17

शिक्षा का लक्ष्य

मैं आपकी आंखों में देखता हूं और उनमें घिरे विषाद और निराशा को देखकर मेरा हृदय रोने लगता है। मनुष्य ने स्वयं अपने साथ यह क्या कर लिया है वह क्या होने की क्षमता लेकर पैदा होता है और क्या होकर समाप्त हो जाता है! जिसकी अंतरात्मा दिव्यता की ऊंचाइयां छूती, उसे पशुता की घाटियों में भटकते देखकर ऐसा लगता है जैसे किसी फूलों के पौधे में फूल न लगकर पत्थर लग गए हों और जैसे किसी दीये से प्रकाश की जगह अंधकार निकलता हो।
ऐसा ही हुआ है मनुष्य के साथ। इसके कारण ही हम उस सात्विक फ्रुल्लता का अनुभव नहीं करते हैं जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, और हमारे प्राण तमस के भार से भारी हो गए हैं।

शनिवार, 20 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-06)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-6) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-16

जीएं और जानें

मैं मनुष्य को जड़ता में डूबा हुआ देखता हूं। उसका जीवन बिल्कुल यांत्रिक बन गया है। गुरजिएफ ने ठीक ही उसके लिए मानव-यंत्र का प्रयोग किया है। हम जो भी कर रहे हैं, वह कर नहीं रहे हैं, हमसे हो रहा है। हमारे कर्म सचेतन और सजग नहीं हैं। वे कर्म न होकर केवल प्रतिक्रियाएं हैं।
मनुष्य से प्रेम होता है, क्रोध होता है, वासनाएं प्रवाहित होती हैं। पर ये सब उसके कर्म नहीं हैं, अचेतन और यांत्रिक प्रवाह हैं। वह इन्हें करता नहीं है, ये उससे होते हैं। वह इनका कर्ता नहीं है, वरन उसके द्वारा किया जाना है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-05)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-5) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-15

विचार के जन्म के लिएः विचारों से मुक्ति

विचार-शक्ति के संबंध में आप जानना चाहते हैं निश्चय ही विचार से बड़ी और कोई शक्ति नहीं। विचार व्यक्तित्व का प्राण है। उसके केंद्र पर ही जीवन का प्रवाह घूमता है। मनुष्य में वही सब प्रकट होता है, जिसके बीज वह विचार की भूमि में बोता है। विचार की सचेतना ही मनुष्य को अन्य पशुओं से पृथक भी करती है। लेकिन यह स्मरण रहे कि विचारों से घिरे होने और विचार की शक्ति में बड़ा भेद है- भेद ही नहीं, विरोध भी है।
विचारों से जो जितना घिरा होता है, वह विचार करने से उतना ही असमर्थ और अशक्त हो जाता है। विचारों की भीड़ चित्त को अंततः विक्षिप्त करती है। विक्षिप्तता विचारों की अराजक भीड़ ही तो है!

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-04)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-4) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-14

मनुष्य का विज्ञान

मैं सुनता हूं कि मनुष्य का मार्ग खो गया है। यह सत्य है। मनुष्य का मार्ग उसी दिन खो गया, जिस दिन उसने स्वयं को खोजने से भी ज्यादा मूल्यवान किन्हीं और खोजों को मान लिया।
मनुष्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण और सार्थक वस्तु मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उसकी पहली खोज वह स्वयं ही हो सकता है। खुद को जाने बिना उसका सारा जानना अंततः घातक ही होगा।
अज्ञान के हाथों में कोई भी ज्ञान सृजनात्मक नहीं हो सकता, और ज्ञान के हाथों में अज्ञान भी सृजनात्मक हो जाता है।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-03)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-3) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-13

विज्ञान की अग्नि में धर्म और विश्वास

मैं स्मरण करता हूं मनुष्य के इतिहास की सबसे पहली घटना को। कहा जाता है कि जब आदम और ईव स्वर्ग के राज्य से बाहर निकाले गए तो आदम ने द्वार से निकलते हुए जो सबसे पहले शब्द ईव से कहे थे, वे थे- ‘हम एक बहुत बड़ी क्रांंत से गुजर रहे हैं।’ पता नहीं पहले आदमी ने कभी यह कहा था या नहीं, लेकिन न भी कहा हो तो भी उसके मन में तो ये भाव रहे ही होंगे। एक बिल्कुल ही अज्ञात जगत में वह प्रवेश कर रहा था। जो परिचित था वह छूट रहा था, और जो बिल्कुल ही परिचित नहीं था, उस अनजाने और अजनबी जगत में उसे जाना पड़ रहा था। अज्ञात सागर में नौका खोलते समय ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। ये भाव प्रत्येक युग में आदमी को अनुभव होते रहे हैं, क्योंकि जीवन का विकास तो निरंतर अज्ञात से अज्ञात में ही है।

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-02)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-2) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-12

धर्म क्या है

मैं धर्म पर क्या कहूं जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो हैं, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां हैं। शब्द सत्य की ओर जाने के भले ही संकेत हों, पर वे सत्य नहीं हैं। शब्दों से संप्रदाय बनते हैं, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें हैं।

क्रांति सूत्र-(प्रवचन-01)

क्रांति सूत्र (-प्रवचन-अंश-1) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में अनुक्रम-11

मैं कौन हूं

एक रात्रि की बात है। पूर्णिमा थी, मैं नदी-तट पर था, अकेला आकाश को देखता था। दूर-दूर तक सन्नाटा था। फिर किसी के पैरों की आहट पीछे सुनाई पड़ी। लौटकर देखा, एक युवा साधु खड़े थे। उनसे बैठने को कहा। बैठे, तो देखा कि वे रो रहे हैं। आंखों से झर-झर आंसू गिर रहे हैं। उन्हें मैंने निकट ले लिया। थोड़ी देर तक उनके कंधे पर हाथ रखे मैं मौन बैठा रहा। न कुछ कहने को था, न कहने की स्थिति ही थी, किंतु प्रेम से भरे मौन ने उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे कितना समय बीता कुछ याद नहीं। फिर अंततः उन्होंने कहा, ‘मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूं। कहिए क्या ईश्वर है या कि मैं मृगतृष्णा में पड़ा हूं।’
मैं क्या कहता उन्हें और निकट ले लिया। प्रेम के अतिरिक्त तो किसी और परमात्मा को मैं जानता नहीं हूं।

क्रांति सूत्र-(ओशो)

क्रांति सूत्र (23 अध्याय, 22 वां 4 खंड में)

क्रांति सूत्र (1) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-11, मैं कौन हूं
क्रांति सूत्र (2) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-12, धर्म क्या है
क्रांति सूत्र (3) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-13, विज्ञान की अग्नि में धर्म और विश्वास
क्रांति सूत्र (4) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-14, मनुष्य का विज्ञान
क्रांति सूत्र (5) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-15, विचार के जन्म के लिएः विचारों से मुक्ति
क्रांति सूत्र (6) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-16, जीएं और जानें
क्रांति सूत्र (7) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-17, शिक्षा का लक्ष्य
क्रांति सूत्र (8) मैं कहता आंखन देखी, संस्करण 2006 में-18, जीवन-संपदा का अधिकार

उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-21)

उपनिषद का मार्ग-(इक्कीसवां प्रवचन)

भारत : एक अनूठी संपदा

(Note: Translated only first question from Talk #21 of Osho Upanishad given on 8 September 1986 pm in Mumbai. This is compiled in Mera Swarnim Bharat.)
प्रश्न- प्यारे ओशो!
भारत में आपके पास होना, दुनिया में और कहीं भी आपके सान्निध्य में होने से अधिक प्रभावमय है। प्रवचन के समय आपके चरणों में बैठना ऐसा लगता है जैसे संसार के केन्द्र में, हृदय-स्थल में स्थित हों। कभी-कभी तो बस होटल के कमरे में बैठे-बैठे ही आंख बंद कर लेने पर मुझे महसूस होता है कि मेरा हृदय आपके हृदय के साथ धड़क रहा है।
सुबह जागने पर जब आसपास से आ रही आवाजों को सुनती हूं, तो वे किसी भी और स्थान की अपेक्षा, मेरे भीतर अधिक गहराई तक प्रवेश कर जाती हैं। ऐसा अनुभव होता है कि यहां पर ध्यान बड़ी सहजता से, बिना किसी प्रयास के, नैसर्गिक रूप से घटित हो रहा है।
क्या भारत में आपके कार्य करने की शैली भिन्न है, अथवा यहां कोई ‘प्राकृतिक बुद्ध क्षेत्र’ जैसा कुछ है?
लतीफा! भारत केवल एक भूगोल या इतिहास का अंग ही नहीं है। यह सिर्फ एक देश, एक राष्ट्र, एक जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं है। यह कुछ और भी है-एक प्रतीक, एक काव्य, कुछ अदृश्य सा-किंतु फिर भी जिसे छुआ जा सके! कुछ विशेष ऊर्जा-तरंगों से स्पंदित है यह जगह, जिसका दावा कोई और देश नहीं कर सकता।

उपनिषद का मार्ग-(प्रवचन-01)

उपनिषद का मार्ग  (पहला प्रवचन)

रहस्य स्कूल- चमत्कार से एक भेंट

(केवल प्रथम प्रवचन 16.8.1986 बंबई, अंग्रेजी से अनुवादित)

प्यारे भगवान,
क्या आप कृपया समझाने की अनुकंपा करेंगे कि रहस्य-स्कूल का ठीक-ठीक कार्य क्या है?
मेरे प्रिय आत्मन्,
तुम सौभाग्यशाली हो कि तुम आज यहां हो, क्योंकि हम गुरु-शिष्य के बीच वार्ता की एक नयी शृंखला का प्रारंभ कर रहे हैं।
यह एक नई पुस्तक का जन्म ही नहीं है, यह एक नये आयाम की घोषणा भी है। आज, इस क्षण, सायं सात बजे, शनिवार, सोलह अगस्त सन उन्नीस सौ छियासी- एक दिन इस क्षण को एक ऐतिहासिक क्षण की भांति स्मरण किया जाएगा, और तुम सौभाग्यशाली हो क्योंकि तुम इसमें सहभागी हो। तुम इसे निर्मित कर रहे हो, बिना तुम्हारे यह संभव नहीं।
पुस्तकें लिखी जा सकती हैं, यंत्र को बोलकर लिखवाई जा सकती हैं, लेकिन जिसकी शुरुआत मैं करने जा रहा हूं वह एक भिन्न ही बात है। यह एक उपनिषद है।

अमृृृत कण-(धर्म)-09

धर्म-ओशो 

मैं आपको देखता हूं तो दुख अनुभव करता हूं, क्योंकि किसी भी भांति बिना सोचे विचारे, मूर्छित रूप से जिए जाना जीवन नहीं, वरन धीमी आत्महत्या है। क्या आपने कभी सोचा कि आप अपने जीवन के साथ क्या कर रहे हैं? क्या आप सचेतन रूप से जी रहे हैं? क्योंकि यदि हम अचेतन रूप से बहे जा रहे हैं और जीवन के अचेतन सृजन में नहीं लगे है, तो सिवाय मृत्यु की प्रतीक्षा के हम और क्या कर रहे हैं? जीवन तो उसी का है जो उसका सृजन करता है।  आत्मसृजन जहां नहीं, वहां आत्मघत है। मित्र, जन्म को ही जीवन मत मान लेना। यह इसलिए कहता हूं कि अधिक लोग ऐसा ही मान लेते हैं। जन्म तो प्रच्छन्न मृत्यु है। वह तो आरंभ है और मृत्यु उसका ही चरम विकास और अंत। वह जीवन नहीं, जीवन को पाने का एक अवसर भर है। लेकिन जो उस पर ही रुक जाता है, वह जीवन पर नहीं पहुंच पाता। जन्म तो जीवन के अनगढ़ पत्थर को हमारे हाथों में सौंप देता है। उसे मूर्ति बनाना हमारे हाथों में है। यहां कलाकार और कलाकृति और कला और कला के उपकरण सभी हम ही हैं। जीवन के इस अनगढ़ पत्थर को मूर्ति बनाने की अभीप्सा धर्म है।  धर्म जीवन से भिन्न नहीं है जो धर्म

अमृृृत कण-(स्वतंत्रता)-08

स्वतंत्रता-ओशो

मैं ऐसे गुलामों को जानता हूं, जो मानते हैं कि वे स्वतंत्र है। और उनकी संख्या थोड़ी नहीं है, वरन सारी पृथ्वी ही उनसे भर गई है। और चूंकि अधिक लोग उनके ही जैसे हैं, इसलिए उन्हें स्वयं की धारणा को ठीक मान लेने की भी सुविधा है, लेकिन मेरा हृदय उनके लिए आंसू बहाता है, क्योंकि गुलाम होते हुए भी उन्होंने अपने आपको स्वतंत्र मान रखा है। और इस भांति स्वयं ही अपने स्वतंत्र होने की प्राथमिक संभावना को ही समाप्त कर दिया है। धर्मों के नाम से संप्रदायों में कैद व्यक्ति ऐसी ही स्थिति में है।  इस भांति की परतंत्रता में निश्चय ही सुविधा है और सुरक्षा है। सुविधा है, स्वयं विचार करने के श्रम से बचने की और सुरक्षा है, सबके साथ होने की। और इसलिए ही जो कारागृह है, उन्हें नष्ट करने की तो बात ही दूर, कैदी गण ही उसकी रक्षा के लिए सदा प्राण देने को तत्पर रहते हैं! मनुष्य भी कैसा अदभुत है, वह चाहे तो अपने कारागृहों को ही मोक्ष भी मान सकता है! लेकिन इससे बदतर गुलामी कोई दूसरी नहीं हो सकती है।  स्वतंत्रता पाने के लिए सबसे पहले तो यही आवश्यक है कि हम जाने कि हमारा चित्त किसी गहरी दासता में है, क्योंकि जो यही नहीं जानता, वह स्वतंत्रता के लिए अभीप्सा भी अनुभव नहीं कर सकता।

अमृृृत कण-(आत्म-विश्वास)-07

आत्म विश्वास-ओशो 

आत्म-विश्वास का अभाव ही समस्त अंधविश्वासों का जनम है। जो स्वयं में विश्वास नहीं करता, वह किसी और में विश्वास करके अपने अभाव की पूर्ति कर लेता है। यह पूर्ति बहुत आत्मघती है क्योंकि इस भांति व्यक्ति स्वयं के विकास और पूर्णता की दिशा से वंचित हो जाता है। जिसे स्वयं पर विश्वास नहीं, उसे सिवाय अनुकरण और किसी पर निर्भर होने के और उपाय ही क्या है?  पर निर्भरता हीनता लाती है और किसी की शरण पकड़ने से दीनता पैदा होती है। चित्त धीरे-धीरे एक भांति की दासता में बंध जाता है और दास चित्त कभी भी प्रौढ़ नहीं हो सकता। प्रौढ़ता आती है- स्वयं के पैरों पर खड़े होने से स्वयं की आंखों से देखने से और स्वयं के अनुभवों की कठोर चट्टान पर जीवन निर्मित करने से। स्वयं के अतिरिक्त स्वयं के सृजन का और कोई द्वार नहीं है।  मैं किसी और मैं श्रद्धा करने को नहीं कहता हूं। दूसरों में श्रद्धा करने के कारण ही सब भांति के पाखंड पैदा हुए है। वस्तुतः किसी को किसी का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रत्येक किसी दूसरे जैसा नहीं, वरन स्वयं ही होने को पैदा हुआ है।

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

अमृृृत कण-(अज्ञान)-06

अज्ञान-ओशो

पाप क्या है? अज्ञान ही पाप है। शेष सारे पाप तो उसकी ही छायाएं हैं। इसलिए मैं कहूंगा कि छायाओं से नहीं, वरन उससे ही लड़ो जो कि उनका मूल है और आधार है। जो छायाओं से लड़ता है, वह निश्चय ही भटक जाता है। छायाओं से लड़कर जीत तो असंभव ही है। बस हार ही हो सकती है।  कन्फ्न्युसियस ने कभी कहा थाः अज्ञान ही मन की रात्रि है। इस रात्रि में फिर न मालूम कितने पापों की प्रति छायाएं खड़ी हो जाती हैं। रात्रि के साथ ही उनकी सत्ता है और रात्रि के साथ ही उनकी मृत्यु है। जो जानता है, वह उनसे वही वरन उनकी जन्मदात्री रात्रि से ही लड़ता है। और लड़ना भी रात्रि से लड़ने का कोई उपाय नहीं। उस प्रकाश की संभावना भी प्रत्येक के भीतर ही है। जो मन अज्ञान के कारण रात्रि है, वही मन प्रज्ञा के प्रकाश से दिवस भी बन जाता है।  स्व विवेक को प्र वलित कर निश्चय ही समस्त अंधकार नष्ट किया जा सकता है। किंतु जो आलोक भीतर है उसे हम बाहर खोजते हैं और इसलिए उपलब्ध नहीं कर

अमृृृत कण-(अप्रमाद)-05

अप्रमाद-ओशो

मैं मृत्यु के तथ्य को अनुभव करने से अप्रमाद को उपलब्ध हुआ हुआ। जीवन में भविष्य में एक भी क्षण का भरोसा नहीं। जो क्षण हाथ में है, वही है। वही निश्चित है और उसके अतिरिक्त शेष सब अनिश्चित। वर्तमान के क्षण के सिवाय और किसी की कोई भी सत्ता नहीं है। न अतीत है, न भविष्य है। जब है और जो है, वह वर्तमान है।  जीवन वर्तमान में है- अभी और यही। इसलिए वर्तमान के जीवन को भविष्य में जीने के लिए आंखें रहते स्थगित नहीं किया जा सकता। और न ही उसे अतीत की मृत स्मृतियां में डूबकर ही गंवाया जा सकता है। जो क्षण हाथ में है उसके कार्य को आने वाले क्षण पर छोड़ने से बड़ी और क्या भूल हो सकती है? ऐसी भूल ही प्रमाद है। जीवन में स्थगन की प्रवृत्ति ही प्रमाद है। प्रत्येक क्षण को उसकी पूर्णता में जी लेना अप्रमाद है।  प्रमाद मृत्यु के क्षण तक स्थगित ही करता रहता है और अंततः पाया जाता है कि जीवन बिना जिए ही चुक गया है। मृत्यु यह देखने को भी तो नहीं ठहरती है कि आप अभी जी भी पाए थे या नहीं? किंतु अधिकतर लोगों की प्रमाद निद्रा मृत्यु के पहले नहीं टूटती है। वे तो मरकर ही जानते हैं कि जीवन जा चुका है।

अमृृृत कण-(अपरिग्रह)-04

अपरिग्रह-ओशो

अपरिग्रह यानी आत्मनिष्ठा। परिग्रह का विश्वास वस्तुओं में है, अपरिग्रह का स्वयं में। अपरिग्रह का मूलभूत संबंध संग्रह से नहीं, संग्रह की वृत्ति से है। जो उसका संबंध संग्रह से ही मान लेता है, वह संग्रह के त्याग में ही अपरिग्रही की उपलब्धि देखता है, जब कि संग्रह का आग्रहपूर्ण त्याग भी वस्तुओं में ही विश्वास है। वह परिवर्तन बहुत ऊपरी है और व्यक्ति का अंतस्तल उससे अछूता ही रह जाता है।  संग्रह नहीं, संग्रह की विक्षिप्त वृत्ति विचारणीय है। स्वयं की आंतरिक रिक्तता और खालीपन को भरने के लिए ही व्यक्ति संग्रह की दौड़ में पड़ता है। रिक्तता से भय पैदा होता है और उसे किसी भी भांति धन से, यश से, पद से, पुण्य से या ज्ञान से भर लेने से सुरक्षा मालूम होने लगती है।  यह रिक्तता की दौड़ से भी भरी जा सकती है। लेकिन ऐसे रिक्तता भरती नहीं केवल भूली रहती है और मृत्यु का आघत सारी वंचना को नष्ट कर देता है। इसलिए ही मृत्यु की कल्पना भी भयभीत करती है। वह भय मृत्यु का नहीं है, क्योंकि भय उसके संबंध में ही हो सकता है जिसे कि हम जानते हों और जिससे परिचित हो।

अमृृृत कण-(अहंकार)-03

अहंकार-ओशो

मैं अपने से पूछता थाः आत्मा और परमात्मा के बची में कौन सी दीवार है? बहुत खोजा लेकिन कोई भी उत्तर नहीं पाया। फिर थककर बैठ गया तब अचानक दिखा कि मैं ही तो दीवार हूं! अहंकार ही स्वयं और सत्य के बीच एकमात्र दूरी हैं।  अहंकार दबाया जा सकता है और विनम्रता ओढ़ी जा सकती है। वह कोई बहुत कठिन बात भी नहीं, लेकिन तब अहंकार और भी गहरा और सूक्ष्म होकर चित्त को पकड़ लेता है। यह पकड़ क्रमशः अचेतन होती जाती है और स्वयं व्यक्ति को भी उसका बोध नहीं रह जाता। किंतु स्मरण रहे कि ज्ञात शत्रुओं से अज्ञात शत्रु ज्यादा घतक होता है। यह दमित अहंकार विनम्रता से ही प्रकट होने लगता है।  अहंकार को विसर्जन करने का मार्ग दमन नहीं, संघर्ष नहीं, वरन उसकी समस्त अभिव्यक्तियों और उसके समस्त मार्गों का सूक्ष्मतम अवलोकन और बोध है।

अमृृृत कण-(अहिंसा)-02

अहिंसा-(अमृतकण)-ओशो 

अहिंसा ऐसे हृदय में वास करती है, जो इतना बड़ा हो कि सारी दुनिया के फूल उसमें समा जावें, लेकिन जिसमें इतनी सी भी जगह न हो कि एक छोटा सा कांटा भी वहां निवास बना सके।  अहिंसा है निरहंकार जीवन। अहंकार में ही सारी हिंसा छिपी है। अहं केंद्रित जीवन ही हिंसक जीवन है। अहं जहां जितना घनीभूत है, वहां न अहं के प्रति उतना ही विरोध ही और शोषण भी होगा। इसलिए मेरी दृष्टि में अहिंसा मूलतः अहंकार के विसर्जन से ही फलित होती है। अहं क्षीण होता है तो प्रेम विकसित होता है। अहं शून्य होता है तो प्रेम पूर्ण हो जाता है।  अहं शोषण है, तो प्रेम सेवा है। और जैसे ही अहं का केंद्र टूटता है तो प्रेम की अपूर्व ऊर्जा का विस्फोट होता है। जैसे पदार्थ के अणु-विस्फोट से अनंत शक्ति पैदा होती है, ऐसे ही अहं के टूटने से भी होती है। उस शक्ति का नाम ही प्रेम है। वही अहिंसा है। अहिंसा की शक्ति अमाप है। वह व्यक्ति के माध्यम से स्वयं परमात्मा का प्रवाह है।  अहिंसा जहां है, वहीं अभय है। क्योंकि जहां प्रेम है, वहां भय कैसा? हिंसा के पीछे तो भय सदा ही उपस्थित है। हिंसा तो भय से कभी मुक्त हो ही नहीं सकती और इसलिए हिंसा कभी दुख से भी मुक्त नहीं हो सकते हैं।

अमृृृत कण-(सत्य)-01



जीवन तो अंधकार है, लेकिन जिनके पास सत्य का दीपक है, वे सदा प्रकाश में ही जीते हैं। जिनके भीतर प्रकाश है, उनके लिए बाहर का अंधकार रह ही नहीं जाता। बाहर अंधकार की मात्रा उतनी ही होती है, जितना कि वह भीतर होता है। वस्तुतः बाहर वही अनुभव होता है, जो कि हमारे भीतर उपस्थित होता है। बाट अनुभव भीतर की उपस्थितियों के ही प्रक्षेपण हैं। यह कारण है कि इस एक ही जगत से भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न जगतों में रहने में समर्थ हो जाते हैं।  इस एक ही जगत में उतने ही जगत हैं जितने कि व्यक्ति हैं। और किसे किस जगत में रहना है, यह स्वयं उसके सिवाय और किसी पर निर्भर नहीं। हम स्वयं ही उस जगत को बनाते हैं, जिसमें हमें रहना है। हम स्वयं ही अपने स्वर्ग या अपने नर्क हैं।  अंधकार या आलोक जिससे भी जीवन पथ पर साक्षात होता है, उसका उदगम कहीं बाहर नहीं, वरन हमारे भीतर होता है। क्या कभी अपने सोचा है कि सूर्य अंधकार से परिचित नहीं है? उसकी अभी तक अंधकार से भेंट ही नहीं हो सकी हैजेम्स लावेल ने कहा हैः ‘सत्य को हमेशा सूली पर लटकाए जाते देखा और असत्य को हमेशा सिंहासन पाते! मैं कहता हूं कि यह बात तो सत्य है, किंतु आधी सत्य है, क्योंकि सत्य सूली पर लटका हुआ भी

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-07)

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-सातवां 

एक फकीर के पास तीन युवक आए और उन्होंने कहा कि हम अपने को जानना चाहते हैं। उस फकीर ने कहा कि इसके पहले कि तुम अपने को जानने की यात्रा पर निकलो, एक छोटा सा काम कर लाओ। उसने एक-एक कबूतर उन तीनों युवकों को दे दिया और कहा, ऐसी जगह में जाकर कबूतर की गर्दन मरोड़ डालना जहां कोई देखने वाला न हो।
पहला युवक रास्ते पर गया--दोपहर थी, रास्ता सुनसान था, लोग अपने घरों में सोये थे--देखा कोई भी नहीं है, गर्दन मरोड़ कर, भीतर आकर गुरु के सामने रख दिया। कोई भी नहीं था, उसने कहा, रास्ता सुनसान है, लोग घरों में सोये हैं, किसी ने देखा नहीं, कोई देखने वाला नहीं था।

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-06)

आठ पहर यूं झूमते-(प्रवचन-छठवां)

फूल किसी से पूछते नहीं--कैसे खिलें। तारे किसी से पूछते नहीं--कैसे जलें। आदमी को पूछना पड़ता है कि कैसे वह वही हो जाए, जो होने को पैदा हुआ है। सहज तो होना चाहिए परमात्मा में होना। लेकिन आदमी कुछ अदभुत है, जिसमें होना चाहिए उससे चूक जाता है और जहां नहीं होना चाहिए वहां हो जाता है। कहीं कोई भूल है। और भूल भी बहुत सीधी है: आदमी होने को स्वतंत्र है, इसलिए भटकने को भी स्वतंत्र है। शायद यह भी हो सकता है कि बिना भटके पता ही न चले। बिना भटके पता ही न चले कि क्या है हमारे भीतर। शायद भटकना भी मनुष्य की प्रौढ़ता का हिस्सा हो।
मैं एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। फिर हम समाधि के प्रयोग के लिए बैठें।

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-05)

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-पांचवां 

मेरे प्रिय आत्मन्!
बोलते समय, बोलने के पहले मुझे यह सोच उठता है हमेशा, किसान सोच लेता है कि जिस जमीन पर हम बीज फेंक रहे हैं उस जमीन पर बीज अंकुरित होंगे या नहीं? बोलने के पहले मुझे भी लगता है, जिनसे कह रहा हूं वे सुन भी सकेंगे या नहीं? उनके हृदय तक बात पहुंचेगी या नहीं पहुंचेगी? उनके भीतर कोई बीज अंकुरित हो सकेगा या नहीं हो सकेगा? और जब इस तरह सोचता हूं तो बहुत निराशा मालूम होती है। निराशा इसलिए मालूम होती है कि विचार केवल उनके हृदय में बीज बन पाते हैं जिनके पास प्यास हो और केवल उनके हृदय सुनने में समर्थ हो पाते हैं जिनके भीतर गहरी अभीप्सा हो। अन्यथा हम सुनते हुए मालूम होते हैं, लेकिन सुन नहीं पाते। अन्यथा हमारे हृदय पर विचार जाते हुए मालूम पड़ते हैं, लेकिन पहुंच नहीं पाते और उनमें कभी अंकुरण नहीं होता है।

आठो पहर यूं झूमिये-(प्रवचन-04)

आठ पहर यूं झूमते-प्रवचन-चौथा 

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं सोचता था किस संबंध में आपसे बात करूं, यह स्मरण आया कि आपके संबंध में ही थोड़ी सी बातें कर लेना उपयोग का होगा। परमात्मा के संबंध में बहुत बातें हमने सुनी हैं और आत्मा के संबंध में भी बहुत विचार जाने हैं। लेकिन उनका कोई भी मूल्य नहीं है। अगर हम उस स्थिति को न समझ पाएं जिसमें कि हम मौजूदा होते हैं। आज जैसी मनुष्य की दशा है, जैसी जड़ता और जैसा मरा हुआ आज मनुष्य हो गया है, ऐसे मनुष्य का कोई संबंध परमात्मा से या आत्मा से नहीं हो सकता है।
परमात्मा से संबंध की पहली शर्त है, प्राथमिक सीढ़ी है कि हम अपने भीतर से सारी जड़ता को दूर कर दें। और जो-जो तत्व हमें जड़ बनाते हों, उनसे मुक्त हो जाएं। और जो-जो अनुभूतियां हमें ज्यादा चैतन्य बनाती हों, उनके करीब पहुंच जाएं।