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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

भारत एक सनातन यात्रा—रैदास -आकाश मेुं.ध्रुवतारा

रैदास—आकाश में ध्रुवतारा
      भारत का आकाश संतों के सितारों से भरा है। अनंत-अनंत सितारे है, यद्यपि ज्‍योति सबकी एक है। संत रैदास उन सब सितारों में ध्रुवतारा है। इसलिए कि शूद्र के घर में पैदा होकर भी काशी के पंडितों को भी मजबूर कर दिया स्‍वीकार करने को। महावीर का उल्‍लेख नहीं किया ब्राह्मणों ने अपने शास्‍त्रों में। बुद्ध की जड़ें काट डाली। बुद्ध के विचार को उखाड़ फेंका। लेकिन रैदास में कुछ बात है कि रैदास को नहीं उखाड़ सके और रैदास को स्‍वीकार भी स्‍वीकार भी करना पडा।
      ब्राह्मणों के द्वारा लिखी गई संतों की स्‍मृतियों में रैदास सदा स्‍मरण किए गए। चमार के घर में पैदा होकर भी ब्राह्मणों ने स्‍वीकार किया—वह भी काशी के ब्राह्मणों ने, रैदास की बात कुछ अनेरी है, अनूठे है।
      रैदास में कुछ रस है, कुछ सुगंध है—जो मदहोश कर दे। रैदास से बहती है कोई शराब, कि जिसने पी वही डोला। और रैदास अड्डा जमा कर बैठ काशी में,जहां की सबसे कम संभावना है; जहां का पंडित पाषाण हो चुका है। सदियों का पांडित्‍य व्‍यक्‍तियों के ह्रदयों को मार डालता है। उनकी आत्‍मा को जड़ कर देता है। रैदास वहां खिले, फूले। रैदास ने वहां हजारों भक्‍तों को इकट्ठा कर लिया। और छोटे-मोटे भक्‍त नहीं, मीरा जैसी अनुभूति को उपलब्‍ध महिला ने भी रैदास को गुरू माना। मीरा ने कहां है: गुरु मिल्‍या रैदास जी, कि मुझे गुरु मिल गया है रैदास जी। भटकती फिरती थी: बहुतों में तलाशा था, लेकिन रैदास को देखा कि झुक गई। चमार के सामने राज रानी झुके तो बात कुछ रही होगी। वह कमल कुछ अनूठा रहा होगा, बिना झुके न रहा जा सका होगा।
      रैदास कबीर के गुरूभाई हैं। रैदास और कबीर दोनों एक ही संत के शिष्‍य है। रामा नंद गंगोत्री है जिनसे कबीर और रैदास की धाराएं बही है। रैदास के गुरु है रामा नंद जैसे अद्भुत व्‍यक्‍ति: और रैदास की शिष्‍या है मीरा अद्भुत नारी। इन दोनों के बीच में रैदास की चमक अनूठी है।
      रामा नंद को लोग भूल ही गए होते अगर रैदास आरे कबीर न होते। रैदास का अगर एक भी वचन न बचता और सिर्फ मीरा का यह कथन बचता: गुरु मिल्‍या रैदास जी, तो काफी था। क्‍योंकि जिसको मीरा गुरु कहे, वह कुछ ऐसे-वैसे को गुरु न कह देगी। कबीर को भी मीरा न गुरु नहीं कहा है। रैदास को गुरु कहा।
      इसलिए रैदास को में कहता हूं,भारत के संतों से भरे आकाश में ध्रुवतारा है।

ओशो—(मन ही पूजा मन ही धूप, प्रवचन—1)

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

भारत एक सनातन यात्रा—(गोरख संतों में कोहिनूर थे)


गोरख संतों में कोहिनूर थे

      महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन से बारह लोग है—मेरी दृष्‍टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे है? मैंने उन्‍हें सूची दी: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर,नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्‍ण, कृष्‍ण मूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखे बंद कर लीं, सोच में पड़ गए.....।
                सूची बनानी आसान भी नहीं है—क्‍योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है। किसे छोड़ो और किसे गिनों? वे प्‍यारे व्‍यक्‍ति थे—अति कोमल अति माधुर्यपूर्ण स्‍त्रैण.....। वृद्धावस्‍था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतम होते गये थे....। मैं उनके चेहरे पर आते जाते भाव पढ़ने लगा। उन्‍हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम जो स्‍वभावत: होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था। उन्‍होंने आंखे खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने। मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े। फिर मैंने बारह नाम ऐसे चुने है। जिनको कुछ मौलिक देन है। राम की कोई मौलिक देन नहीं है। कृष्‍ण की मौलिक देन है। इसलिए हिंदुओं ने भी उन्‍हें पूर्णावतार कहा है राम को नहीं कहां।
      उन्‍होंने फिर मुझसे पूछा: तो फिर ऐसा करें सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गई थी। मैंने उन्‍हें सात नाम दिये: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्‍होंने कहा आपने जो पाँच नाम छोड़ दिये, वे किस आधार पर।  मैंने कहां नागार्जुन बुद्ध में सम्‍माहित है। जो बुद्ध में बीज-रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते है। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते है। बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्‍योंकि बीज से फिर वृक्ष हो जाएगा। जहां बुद्ध पैदा होंगे वहां सैकडों नागार्जुन पैदा हो जाएंगे, लेकिन कोर्इ नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री है, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्‍ते पर आये हुए एक तीर्थ स्‍थल है—प्‍यारे है, अगर छोड़ना हो तो तीर्थ स्थल छोड़े जा सकते है। गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती है।
      ऐसे ही कृष्‍ण मूर्ति भी बुद्ध में समा जाते है। रामकृष्‍ण, कृष्‍ण में सरलता से लीन हो जाते है। मीरा, नानक, कबीर में लीन हो जाते है। जैसे कबीर की ही साखायें है। जैसे कबीर में जो इक्कठ्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरूष रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा सिक्‍ख धर्म क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आर्श्‍चय नहीं है। मीरा में कबीर का स्‍त्रैण रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध सारा सुवास, सारा संगीत,मीरा के पैरों में धुँघरू बन कर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है, नानक में कबीर का पुरूष रूप बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते है।
      इस तरह मैंने सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्‍सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्‍होंने कहा: और अगर पाँच की सूची बनाई जाए तो। मैंने कहां काम मेरे लिए कठिन हो गया है।    मैंने यह सूची उन्‍हें दी: कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख....। क्‍योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल है। गोरख नहीं छोड़े जा सकता। और शंकर तो कृष्‍ण में सरलता से लीन हो जाते है। कृष्‍ण के ही एक अंग की व्‍याख्‍या है, कृष्‍ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है।
                तब तो वे बोले: बस एक बार और....। अगर चार ही रखने हों।
      तो मैंने कहां:’’ कृष्‍ण, पतंजलि, बुद्ध, गोरख....। क्‍योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्‍न नहीं है। थोडे ही भिन्‍न है। जरा-सा ही भेद है। वह भी अभिव्‍यक्‍ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हाँ सकती है।
      वे कहने लगे एक बार और .....। अब तीन व्‍यक्‍ति चुनें।

तब मैंने कहां: अब असंभव है। अब इन चार में से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता। मैंने उन्‍हें कहां: जैसे चार दशाएं है, ऐसे ये चार व्‍यक्‍तित्‍व है। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम है, ऐसे ये चार आयाम है। जैसे परमात्‍मा की हमने चार भुजाओं सोची है, ऐसी ये चार भू जाएं है। ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक की चार भुजाएं है। अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसे है। यह मैं न कर सकूंगा। अभी तक में आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्‍या कम करता रहा। क्‍योंकि अभी तक जो अलग करना पडा वह वस्‍त्र था, अब अंग तोड़ने पड़ेंगे। अंग-भंग मैं न कर सकूंगा। ऐसी हिंसा आप न करवायें।
                वे कहने लगे: आपने महावीर को छोड़ दिया, गोरख को नहीं?
      गोरख को नहीं छोड़ सकता हूं, क्‍योंकि गोरख से इस देश में एक नया ही सूत्रपात हुआ है, महावीर से न कोई  नया नहीं हुआ है। वे अपूर्व पुरूष है। मगर जो सदियों से कहा गया था, उन्‍होंने उसकी पुनरूक्ति की है। वे किसी यात्रा का प्रांरभ नहीं है। वे किसी नया शृंखला की पहली कड़ी नहीं है, बल्‍कि अंतिम कड़ी है।

      गोरख एक शृंखला की पहली कड़ी है। उनसे नए प्रकार के धर्म का जन्‍म हुआ, अविभाव हुआ। गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते थे, न नानक हो सकते थे। न दादू, ना वाजिद, न फरिद,  न मीरा, गोरख के बिना ये कोर्इ भी न हो सकते थे। इन सब के मौलिक आधार गोरख में है। फिर मंदिर बहुत ऊँचा उठा। मंदिर पर बड़े स्‍वर्ण कलश चढ़े.....। लेकिन नींव का पत्‍थर नींव का पत्‍थर है। और स्‍वर्ण कलश दूर से  दिखाई दे जाते है। लेकिन नीव के पत्‍थर से ज्‍यादा मूल्‍यवान नहीं हो सकते है। और नींव भित्‍तियों सारे शिखर...। शिखर की पूजा होती है, बुनियाद के पत्‍थरों को तो लोग भूल ही जाते है। ऐसे ही गोरख भी भूल गए थे।     
      लेकिन भारत की सारी संत-परंपरा गोरख की ऋणी है। जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जाएगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्‍यान की आधारशिला उखड जायेगी। जैसे कृष्‍ण के बिना प्रेम की अभिव्‍यक्‍ति को मार्ग न मिलेगा—ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्‍य को पाने के लिए विधियों की मनुष्‍य के भीतर अंतर खोज के लिए उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है। उन्‍होंने इतनी विधियां दी की अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाए तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक है। इतने द्वार तोड़े मनुष्‍य के अंतरतम में जाने के लिए, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गये।
      इसलिए हमारे पास एक शब्‍द चल पडा है—गोरख  को तो लोग भूल गए—गोरखधंधा शब्‍द चल पडा है। उन्‍होंने इतनी विधियों दीं की लोग उलझ गये की कौन ठीक और कौन गलत, कौन सी करे और कौन सी न करे। अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते है, क्‍या गोरख धंधे में उलझ गया है।
      गोरख के पास अपूर्व व्‍यक्‍तिव था, जैसे आइंस्‍टीन के पास व्‍यक्‍तित्‍व था। जगत के सत्‍य को खोजने के लिए जो पैने से पैने उपाय अल्बर्ट आइंस्‍टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिये थे। हां,अब उनका विकास हो सकता है, उन पर और धार रखी जा सकेगी। मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है। जो पीछे आयेंगे वे नंबर दो होंगे। वे अब प्रथम नहीं हो सकते। राह पहली तो आइंस्‍टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्‍का करनेवाले, मजबूत करने वाले मील के पत्‍थर लगाने वाले, सुंदर बनानेवाले, सुगम बनानेवाले बहुत लोंग आयेंगे। मगर आइंस्‍टीन की जगह अब कोर्इ भी नहीं ले सकता। ऐसी ही घटना अंतर जगत में गोरख के साथ घटी है।
      लेकिन गोरख को लोग भूल गये, गोरख जिस खादन के हीरे है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्‍चा होता है। अगर गोरख और कबीर बैठे हो तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे,गोरख से नहीं। क्‍यो गोरख तो खादन से निकला हीरा है और कबीर—जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की, जिन पर खूब छेनी चली है। जिनको खूब निखार दिया गया है।
      यह तो तुम्‍हें पता है ना कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है। उसने बच्‍चों को खेलने के लिए दे दिया था, समझकर की कोई रंगीन पत्‍थर है। गरीब आदमी था। उसके खेत से बहती एक छोटी से नदी की धार में कोहिनूर मिला था। महीनों उसके घर पडा रहा। कोहिनूर बच्‍चे खेलते रहे, फेंकते रहें इस कोने से उस कोने, आँगन में पडा रहा....।
      तुम पहचान न पाते कोहिनूर को उसका वज़न तीन गुना था आज को कोहिनूर से। उस पर धार रखी गई, निखार किये गये काटे गए, उस के पहलु उभारे गये, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्‍यादा हो गया। क्‍योंकि गोरख तो अभी गोलकोंड़ा की खादन से निकले कोहिनूर हीरे है। कबीर पर धार रखी गई है। जौहरी ने मेहनत करी है....कबीर पहचाने जा सकते है।
      गोरख का नाम भूल गए है। बुनियाद के पत्‍थर भूल जाते है।
ओशो—मरौ है जोगी मरौ, (प्रवचन-1)
     

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

भारत एक सनातन यात्रा—पंतजलि....


पतंजलि का योग-विज्ञान

      पतंजलि अत्‍यंत विरल व्‍यक्‍ति है। वे प्रबुद्ध है बुद्ध, कृष्‍ण और जीसस की भांति, महावीर, मोहम्‍मद और जरथुस्‍त्र की भांति,लेकिन एक ढंग से अलग है। बुद्ध, कृष्‍ण, महावीर, मोहम्‍मद, जरथुस्‍त्र—इनमें से किसी की दृष्‍टिकोण वैज्ञानिक नहीं है। वे महान धर्म प्रवर्तक है, उन्‍होंने मानव-मन और उसकी संरचना को  बिलकुल बदल दिया, लेकिन उनकी पहुंच वैज्ञानिक नहीं हे।
      पतंजलि बुद्ध पुरूषों की दुनिया में आइंस्टीनी है। अद्भुत घटना है। वे सरलता से आइंस्टीनी,बोर, मैक्‍स प्‍लांक या हेसनबर्ग की तरह नोबल पुरस्कार विजेता हो सकते थे। उनकी अभिवृति और दृष्‍टि वही है जो किसी परिशुद्ध वैज्ञानिक मन की होती है। कृष्‍ण कवि है। पतंजलि कवि नहीं है। पतंजलि नैतिक वादी भी नहीं है। जैसे महावीर है। पतंजलि बुनियादी तौर पर एक वैज्ञानिक है, जो नियमों की भाषा में ही सोचते-विचारते है। उन्‍होंने मनुष्‍य के अंतस जगत के निरपेक्ष नियमों का निगमन करके सत्‍य और मानवीय मानस की चरम कार्य-प्रणाली के विस्तार का अन्‍वेषण और प्रतिपादन किया है।
      योग कोई धर्म नहीं है, यह बात स्‍मरण रहे। योग हिंदू नहीं है, मुसलमान नहीं है। योग तो एक विशुद्ध विज्ञान है—गणित, फ़िज़िक्स और केमिस्‍ट्री की तरह है। फ़िज़िक्स न तो ईसाई है और न बौद्ध है। चाहे ईसाई द्वारा ही फ़िज़िक्स के नियमों की खोज की गई हो, लेकिन फिर भी इस विज्ञान को ईसाई नहीं कहा जा सकता है। ये संयोग मात्र है कि ईसाइयों ने फ़िज़िक्स के नियमों का अन्‍वेषण किया। भौतिकी विज्ञान तो मात्र विज्ञान है। और योग भी मात्र विज्ञान है। यह फिर एक संयोगपूर्ण घटना ही है कि हिंदुओं ने योग को खोजा। लेकिन इससे यह हिंदू तो न हुआ। यह तो विशुद्ध गणित हुआ आंतरिक का। इसलिए एक मुसलमान भी योगी हो सकता है, ईसाई भी योगी हो सकता है। इसी तरह एक जैन, एक बौद्ध भी योगी हो सकता है।
      योग तो शुद्ध विज्ञान है। और जहां तक योग-विज्ञान की बात है। पतंजलि इस क्षेत्र के सबसे बड़े नाम है। यह पुरूष विरल है। किसी अन्‍य की पतंजलि के साथ तुलना नहीं की जा सकती। मनुष्‍य के इतिहास में धर्म को पहली बार विज्ञान की अवस्‍था तक लाया गया। पतंजलि ने धर्म को मात्र नियमों का विज्ञान बना दिया,जहां विश्‍वास की जरूरत नहीं है।
      सब तथाकथित धर्मो को विश्‍वासों की जरूरत रहती है। धर्मों में परस्‍पर कोई विशेष अंतर नहीं है। अंतर है तो उनकी अलग-अलग धारणाओं में ही। एक मुसलमान के अपने विश्‍वास है, इसी तरह हिंदू और ईसाई के अपने-अपने विश्‍वास है। अंतर तो विश्‍वासों में ही है। जहां तक विश्‍वासों की बात है। योग इस विषय में कुछ नहीं कहता। योग तो तुम्‍हें किसी बात पर विश्‍वास करने को नहीं कहता। योग कहता है। अनुभव करो। जैसे विज्ञान कहता है। प्रयोग करो, योग कहता है: अनुभव करो। प्रयोग और अनुभव एक ही बात है, उनकी दशाएं अलग-अलग है।
      योग मृत्‍यु तथा नव जीवन दोनों ही है। तुम जैसे हो, उसे तो मरना होगा। और जब तक पुराना मरेगा नही, नए का जन्‍म नहीं हो सकता। नया तुममें ही तो छिपा है। तुम केवल उसके बीज हो। और बीज को गिरना ही होगा, धरती में पिघलने के लिए। बीज को तो मिटना ही होगा, केवल तभी तुममें से नया प्रकट होगा। तुम्‍हारी मृत्‍यु ही तुम्‍हारा नव जीवन बन पाएगी। योग दोनों है—मृत्‍यु भी और जन्‍म भी। जब तक तुम मरने को तैयार न होओ तब तक तुम्‍हारा नया जन्‍म नहीं हो सकता है। यह केवल विश्‍वास को बदलने की बात नहीं है।
      ये मौत कोई साधारण मोत नहीं है, इसे तो हम लाखों बार जीते और मरते है। वह हमारे अहंकार की मौत है। और जन्‍म भी कोई साधारण नहीं उस के लिए तुम ही मां और तुम ही पिता बनोगें इसे अध्‍यात्‍मिक जगत में अयोनि कहां जाता है, द्विज। योनि से तो हमारा जन्‍म हजारों लाखों बार हुआ है। जब तुम अयोनि जन्‍म जाते हो तब प्रकृति तुम्‍हारे सामने नत मस्‍तक हो जाती है। उस का खेल खत्‍म हो जाता है। वो हार जाती है तुम्‍हारे सामने, फिर वो तुम्‍हारी मालिक नही रहती तुम अपने स्‍वय के मालिक हो जाते हो। ये पतंजलि शब्‍दों से नहीं कहते मार्ग के एक-एक स्‍थान को चिन्‍हित करते चलते है। वो किसी भगवान आत्‍मा परमात्‍मा मैं विश्‍वास करने को भी नहीं कहते। वो तुम्‍हें वहां ले जा कर छोड़े देते है। बिना किसी प्रमाण के तुम्‍हें उस अभूतपूर्व घटना पर पहुंचा देते है। इस लिए पतंजलि वैज्ञानिक है। कोई धर्म गुरु नहीं वो विरल है अभूतपूर्व है बेजोड़ है। पाँच हजार सालों में उस उच्‍चाई को कोई छू भी नहीं पाया।
ओशो—(पतंजलि योग सूत्र-1, प्रवचन-1)

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

भारत एक सनातन यात्रा—क्रोध वरदान या अभिशाप


क्रोध वरदान या अभिशाप
              
      तुम्‍हारी पूरी जिंदगी एक वर्तुल में घूमता हुआ चाक है। इसलिए हिंदुओं ने जीवन को जीवन चक्र कहा।
      देखते है, भारत के ध्‍वज पर जो चक्र बना है, वह बौद्धों का चक्र है। बौद्धों ने जीवन आरा ऊपर आता है। फिर नीचे चला जाता है, फिर थोड़ी देर में उपर आ जाता है।
      तुम जरा चौबीस घंटे अपने जीवन का विश्‍लेषण करो। फिर पाओगें: क्रोध आता, पश्‍चाताप आता,फिर क्रोध आ जाता है। प्रेम होता है, घृणा होती, फिर प्रेम हो जाता है। मित्रता बनती, शत्रुता आती, फिर मित्रता। ऐसे ही चलते रहते, और घूमते रहते, जीवन का चाक, चाक का अर्थ है: जीवन में पुनरूक्‍ति हो रही है।
      कब जागोगे इस पुनरूक्‍ति से? कुछ तो करो, एक काम करो: अब तक बदलना चाहा, अब स्‍वीकार करो, स्‍वीकार होते ही एक नया आयाम खुलता है। ये तुमने कभी किया ही नहीं था। यह बिलकुल नया घटना तुम करोगे। और मैं नहीं कह रहा हूं कि लाचारी....। मैं कह रहा हूं, धन्य भाव से, प्रभु ने जा दिया है उसका प्रयोजन होगा क्रोध भी दिया है तो प्रयोजन होगा। तुम्‍हारे महात्‍मा तो समझाते रहे है कि क्रोध न हो, लेकिन परमात्‍मा नहीं समझता  है। फिर बच्‍चा आता है, फिर क्रोध के साथ आता है। अब कितनी सदियों से महात्‍मा समझाते रहे है। न तुम समझे न परमाता समझा। कोई समझते ही नहीं महात्‍माओं की। महात्‍मा मर कर सब स्‍वर्ग पहुंच गये होंगे। वहां भी  परमात्‍मा की खोपड़ी खाते होंगे कि अब  तो बन्‍द कर दो—क्रोध रखो ही मत आदमी में।
      लेकिन तुम जरा सोचो एक बच्‍चा अगर पैदा हो बिना क्रोध के,जी सकेगा? उसमें बल ही न होगा। उसमें रीढ़ न होगी। वह बिना रीढ़ का होगा। तुम एक धप्‍प लगा दोगे उसको, वह वैसा का वैसा मिटटी का लौंदा जैसा पडा रहेगा। जी सकेगा, उठ सकेगा,चल सकेगा, गोबर के गणेश जी होंगे। किसी काम के न सिद्ध होंगे।
      तुमने कभी खयाल किया, बच्‍चे में जितनी क्रोध की क्षमता होती है उतना ही प्राणवान होता है, उतना ही बलशाली होता है। और दुनिया में जो महानतम घटनाएं घटी है व्‍यक्‍तित्‍व की, वे सभी बड़ी ऊर्जा वाले लोग थे।
      तुमने महावीर की क्षमा देखी? महावीर के क्रोध की हमें कोई कथा नहीं बताई गयी। लेकिन मैं तुमसे यह कहता हूं कि अगर इतनी महा क्षमा पैदा हुई तो पैदा होगी कहां से? महा क्रोध रहा होगा। जैन डरते है, उसकी कोई बात करते नहीं। लेकिन यह मैं मान नहीं सकता कि महा क्षमा महा क्रोध के बिना हो कैसे सकती है। अगर इतना बड़ा ब्रह्मचर्य पैदा हुआ है तो महान काम वासना रही होगी, नहीं तो होगा कहां से? नपुंसक को कभी तुमने ब्रह्मचारी होते देखा है। और नपुंसक के ब्रह्मचर्य का क्‍या अर्थ होगा। सार भी क्‍या होगा?

ओशो—(अष्‍टावक्र महागीता-4, प्रवचन-5)

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

भारत एक सनातन यात्रा—कैलाश

कैलाश

      कैलाश हिमालय में नहीं है। जाते है लोग, सोचते है वहां होगा। कैलाश ह्रदय के उस शिखर का नाम है। ज्ञान के उस शिखर का नाम है, जहां से कभी भगवान च्‍युत नहीं होता। आपके भीतर का भगवान भी कभी च्‍युत नहीं होता जहां से।
      जिस दिन उस शिखर पर  हम पहुंच जाते है। भीतर के—सब घाटियों को छोड़कर, घाटियों की वासनाओं को छोड़ कर—उस दिन ऐसा नहीं हो ताकि हमें कुछ नया मिल जाता है। एकसा ही होता है कि जो हमारा सदा था, उसका आविष्‍कार, उसका उदघाटन हो जाता है। हम जानते है, हम कौन थे। और हम जानते है कि हम किस तरह च्‍युत होते रहे, किस तरह भटकते रहे। किस कीमत पर हमने अपने को गंवाया और क्षुद्र चीजों को इक्ट्ठा किया। कंकड़-पत्‍थर बीनें और आत्‍मा बेची।
--ओशो   (गीता दर्शन—भाग-3, अध्‍याय-7, प्रवचन—7)

भारत एक सनातन यात्रा—(विज्ञान भैरव तंत्र)

विज्ञान भैरव तंत्र

     ए अद्भुत ग्रंथ है भारत मैं। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से अद्भुत ग्रंथ पृथ्‍वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान भैरव तंत्र। छोटी सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनियां में खोजनी मुश्किल है। कुछ एक सौ बारह सूत्र है। हर सुत्र में एक ही बात है। पहले सूत्र में जो बात कह दी है, वहीं एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात, और हर दो सूत्र में एक विधि हो जाती है।
      पार्वती पूछ रहीं है शंकर से,शांत कैसे हो जाऊँ? आनंद को कैसे उपलब्‍ध हो जाऊँ? अमृत कैसे मिलेगा?  और दो-दो पंक्‍तियों में शंकर उत्‍तर देते है। दो पंक्‍तियों में वे कहते है, बाहर जाती है श्‍वास, भीतर जाती है श्‍वास। दोनों के बीच में ठहर जा, अमृत को उपलब्‍ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्‍वास, भीतर आती है श्‍वास, दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को उपलब्‍ध हो जाएगा।
      पार्वती कहती है। समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। शंकर दो-दो में कहते चले जाते है। हर बार पार्वती कहती है। नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्‍तियां। और हर पंक्‍ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्‍ति का एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्‍वास, अंदर जाती श्‍वास। जन्‍म और मृत्‍यु, यह रहा जन्म यह रही मृत्‍यु। दोनों के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ और कहे।
      एक सौ बारह बार। पर एक ही बात दो विरोधों के बीच में ठहर जा। प्रतिकार-आसक्‍ति–विरक्‍ति, ठहर जा—अमृत की उपलब्धि। दो के बीच दो विपरीत के बीच जो ठहर जाए वह गोल्‍डन मीन, स्‍वर्ण सेतु को उपलब्‍ध हो जाता है।
      यह तीसरा सूत्र भी वहीं है। और आप भी अपने-अपने सूत्र खोज सकते है। कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्‍थ हो जाना। सम्‍मान-अपमान, ठहर जाओ—मुक्‍ति। दुख-सुख, रूक जाओ—प्रभु में प्रवेश। मित्र-शत्रु,ठहर जाओ—सच्चिदानंद में गति।
      कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना ओर दो के बीच में तटस्‍थ हो जाना। न इस तरफ  झुकना, न उस तरफ। समस्‍त योग का सार इतना ही है। दो के बीच में जो ठहर जाता,वह जो दो के बाहर है, उसको उपलब्‍ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्‍ठित हो जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत में च्‍युत हो जाती है।
--ओशो  (गीता-दर्शन भाग—5 अध्‍याय 10, प्रवचन-12)

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

भारत एक सनातन यात्रा—गंगा-

गंगा—एक जीवंत नदी है
      गंगा के प्रतीक को भी समझने जैसा है। गंगा के साथ हिंदू मन बड़े गहरे में जुड़ा है। गंगा को हम भारत से हटा लें, तो भारत को भारत कहना मुशिकल हो जाए । सब बचा रहे, गंगा हट जाए, भारत को भारत कहना मुशिकल हो जाए। गंगा को हटा ले तो भारत का साहित्‍य अधूरा पड़ जाए। गंगा को हम हटा ले तो हमारे तीर्थ ही खो जाए, हमारे सारे तीर्थ की भावना खो जाए।
      गंगा के साथ भारत के प्राण बड़े पुराने दिनों से कमिटेड़ है। बड़े गहरे से जुडे है। गंगा जैसे हमारी आत्‍मा का प्रतीक हो गई है। मुल्‍क की भी अगर कोई आत्‍मा होती हो और उसके प्रतीक होते हो तो, गंगा ही हमारा प्रतीक है। पर क्‍या कारण होगा गंगा के इस गहरे प्रतीक बन जाने का कि हजारों-हजारों वर्ष पहले कृष्‍ण भी कहते है। नदियों में मैं गंगा हूं।
      गंगा कोई नदियों में विशेष विशाल उस अर्थ में नहीं है। गंगा से बड़ी नदिया है। गंगा से लंबी नदिया है। गंगा से विशाल नदिया पृथ्‍वी पर है। गंगा कोई लंबाई में, विशालता में, चौड़ाई में किसी दृष्‍टि से बहुत बड़ी गंगा नहीं है। कोई बहुत बड़ी नदी नहीं है। ब्रह्मपुत्र  है, और अमेजान है, और ह्व्‍गांहो हो है। और सैकड़ों नदिया है। जिसके सामने गंगा फीकी पड़ जाए।
      पर गंगा के पास कुछ और है, जो पृथ्‍वी पर किसी भी नदी के पास नहीं है। और उस कुछ के कारण भारतीय मन ने गंगा के साथ ताल-मेल बना लिया है। एक तो बहुत मजे की बात है। कि पूरी पृथ्‍वी पर गंगा सबसे ज्‍यादा जीवंत नदी है, अलाइव। सारी नदियों का पानी आप बोतल में भर कर रख दें, सभी नदियों का पानी सड़ जाएगा। गंगा भर का नहीं सड़ेगा। केमिकली गंगा बहुत विशिष्‍ट है। उसका पानी डिटरिओरेट नहीं होता, सड़ता नहीं, वर्षों रखा रहे। बंद बोतल में भी वह अपनी पवित्रता, अपनी स्‍वच्‍छता कायम रखता है।
      ऐसा किसी नदी का पानी पूरी पृथ्‍वी पर नहीं है। सभी नदियों के पानी इस अर्थों में कमजोर है। गंगा का पानी इस अर्थ में विशेष मालूम पड़ता है। उसका विशेष केमिकल गुण मालूम पड़ता है।
      गंगा में इतनी लाशें हम फेंकते है। गंगा में हमने हजारों-हजारों वर्षों से लाशें बहाई है। अकेले गंगा के पानी में, सब कुछ लीन हो जाता है, हड्डी भी। दुनिया की किसी नदी में वैसी क्षमता नहीं है। हड्डी भी पिघलकर लीन हो जाती है। और बह जाती है और गंगा को अपवित्र नहीं कर पाती। गंगा सभी को आत्‍म सात कर लेती है। हड्डी को भी। कोई भी दूसरे पानी में लाश को  हम डालेंगे, पानी सड़ेगा। पानी कमजोर और लाश मजबूत पड़ती है। गंगा में लाश को हम डालते है, लाश ही बिखर जाती है। मिल जाती है अपने तत्‍वों में। गंगा अछूती बहती रहती है। उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
      गंगा के पानी की बड़ी केमिकल परीक्षाएं हुई है वैज्ञानिक। और अब तो यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो गया है कि उसका पानी असाधारण है।
      यह क्‍यों है असाधारण, यह भी थोड़ी हैरानी की बात है, क्‍योंकि जहां से गंगा निकलती है वहां से बहुत नदियों निकलती है। गंगा जिन पहाड़ों से गुजरती है वहां से कई नदियों गुजरती है। तो गंगा में जो खनिज और जो तत्‍व मिलते है वे और नदियों में भी मिलते है। फिर गंगा में कोई गंगा का ही पानी तो नहीं होता, गंगोत्री से तो बहुत छोटी-सी धारा निकलती है। फिर और तो सब दूसरी नदियों का पानी ही गंगा में आता है। विराट धारा तो दूसरी नदियों के पानी की ही होती है।    
      लेकिन यह बड़े मजे की बात है कि जो नदी गंगा में नहीं मिली, उस वक्‍त उसके पानी का गुणधर्म और होता है। और गंगा में मिल जाने के बाद उसी पानी का गुण धर्म और हो जाता है। क्‍या होगा कारण? केमिकली तो कुछ पता नहीं चल पाता। वैज्ञानिक रूप से इतना तो पता चलाता है कि विशेषता है और उसके पानी में खनिज और कैमिकल्स का भेद है। विज्ञान इतना कहा सकता है। लेकिन एक और भेद है वह भेद विज्ञान के खयाल में आज नहीं तो कल आना शुरू हो जाएगा। और वह भेद है, गंगा के पास लाखों-लाखों लोगों का जीवन की परम अवस्‍था को पाना।
      यह मैं आपसे कहना चाहूंगा कि पानी जब भी कोई व्‍यक्‍ति, अपवित्र व्‍यक्‍ति पानी के पास बैठता है—अंदर जाने की तो बात अलग—पानी के पास भी बैठता है, तो पानी प्रभावित होता है। और पानी उस व्‍यक्‍ति की तरंगों से आच्‍छादित हो जाता है। और पानी उस व्‍यक्‍ति की तरंगों को अपने में ले लेता है।
      इसलिए दुनिया के बहुत से धर्मों ने पानी का उपयोग किया है। ईसाइयत ने बप्‍तिस्‍मा, बेप्‍टिज्‍म के लिए पानी का उपयोग किया है।
      जीसस को जिस व्‍यक्‍ति ने बप्‍तिस्‍मा दिया, जान दि बैपटिस्ट ने, उस आदमी का नाम ही पड़ गया थ जान बप्‍तिस्‍मा वाला। वह जॉर्डन नदी में—और जॉर्डन यहूदियों के लिए वैसी ही नदी रही, जैसी हिंदुओं के  लिए गंगा। वह जॉर्डन नदी में गले तक आदमी को डूबा देता, खुद भी पानी में डुबकर खड़ा हो जाता, फिर उसके सिर पर हाथ रखता और प्रभु से प्रार्थना करता उसके इनीशिएशन की, उसकी दीक्षा की।
      पानी में क्‍यों खड़ा होता था जान? और पानी में दूसरे व्‍यक्‍ति को खड़ा करके क्‍या कुछ एक  व्‍यक्‍ति की तरंगें और एक व्‍यक्‍ति के प्रभाव ओ एक व्‍यक्‍ति की आंतरिक दशा का आंदोलन दूसरे तक पहुंचना आसान है।
      आसान है। पानी बहुत शीध्रता से चार्ज्‍ड हो जाता है। पानी बहुत शीध्रता से व्‍यक्‍तित्‍व से अनुप्राणित हो जाता है। पानी पर छाप बन जाती है।    
      लाखों-लाखों वर्ष से भारत के मनीषी गंगा के किनारे बैठकर प्रभु को पाने की चेष्‍टा करते रहे है। और जब भी कोई एक व्‍यक्‍ति ने गंगा के किनारे प्रभु को पाया है, तो गंगा उस उपलब्‍धि से वंचित नहीं रही है। गंगा भी आच्‍छादित हो जाती है। गंगा का किनारा, गंगा की रेत के कण-कण, गंगा का पानी, सब, इन लाखों वर्षों से एक विशेष रूप से स्‍प्रिचुअली चार्ज्ड, आध्‍यात्‍मिक रूप से तरंगायित हो गया है।
      इसलिए हमने गंगा के किनारे तीर्थ बनाए।
      गंगा साधारण नदी नहीं है। एक अध्यात्मिक यात्रा है और एक अध्‍यात्‍मिक प्रयोग। लाखों वर्षों तक लाखों लोगों को उसके निकट मुक्‍ति को पाना,परमात्‍मा के दर्शन को उपलब्‍ध होना,आत्‍म-साक्षात्‍कार को पाना, लाखों का उसके किनारे आकर अंतिम घटना को उपलब्‍ध होना,वे सारे लोग अपनी  जीवन-ऊर्जा को गंगा के पानी पर उसके किनारों पर छोड़ गए है।
ओशो—गीता दर्शन—भाग-5, (अध्‍याय-10, प्रवचन-12)

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—23

भट्टाचार्य की भूत से भेट
      मेरे गांव मैं एक आश्रम था, जहां कबीर के एक बहुत प्रसिद्ध अनुयायी साहिब दास रहते थे। वे मुझसे काफी पहले हुए थे। लेकिन वे ध्‍यान करने वालों के लिए एक बड़ा आश्रम एक बड़ा सा मंदिर और बहुत सह गुफाएं छोड़ कर गए थे। वे बहुत सुंदर गुफाएं थी। क्‍योंकि उनका आश्रम नदी के बहुत निकट था। नदी के किनारे छोटी-छोटी पहाड़ियों में उन्‍होंने उन गुफाएं को बनाया था। और उन गुफाओं के भीतर पानी के छोटे-छोटे तालाब बने हुए थे।  तुम गुफा के भीतर जा सकते थे, एक गुफा से दूसरी गुफा में जा सकते थे। यद्यपि कुछ गुफाएं बंद हो चुकी थी। या तो उनमें पूरी तरह पानी भर गया था या उनकी छत ढह चुकी थी। लेकिन उनको देखना ही अपने आप में सुदंर अनुभव था।
      और उन गुफाओं में बैठ जाना....वे इतनी शांत थीं—वहां पर हवा का झोंका तक नहीं आता था। उन्‍होंने उन गुफाओं को ठीक उस अनुपात में बनाया था कि एक व्‍यक्‍ति उन गुफाओं में बिना आक्‍सीजन की कमी के रह सकता था, क्‍योंकि वहां बाहर से हवा नहीं आती थी। लेकिन इस गुफा का आकार तुमको कम से कम ती माह के लिए आक्‍सीजन दे पाने के लिए पर्याप्‍त था। इसलिए लोगों को उन गुफाओं में ध्‍यान करने के लिए भेजा जाता था।

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—22

मेरा पुस्‍तक प्रेम
      मेरे पिता जी वर्ष में कम से कम तीन या चार बार बंबई जाया करते थे। और वे सभी बच्‍चों से पूछा करते थे, तुम अपने लिए क्‍या पसंद करोगे। और वे मुझसे भी पूछा करते यदि तुमको किसी वस्‍तु की आवश्‍यकता हो तो में उसको लिखा सकता हूं और बंबई से ला सकता हूं।
      मैंने कहा कभी कुछ लाने के लिए नहीं कहां। एक बार मैंने कहा, मैं केवल यह चाहता हूं कि आप और अधिक मानवीय, पिता पन से कम भरे हुए अधिक मैत्रीपूर्ण,कम अधिनायक वादी, अधिक लोकतांत्रिक, होकर वापस लौटिए। जब लौट कर आएं तो मेरे लिए अधिक स्‍वतंत्रता लेकर आइएगा।
      उन्‍होंने कहा: लेकिन बाजार में यह वस्‍तुएं उपलब्‍ध नहीं है।

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—21

मुझे सुझाव दे--आदेश नहीं
    मेरे बचपन में मेरे माता पिता के साथ यह प्रतिदिन की समस्‍या थी। मैंने उनसे बार-बार कहा, एक बार आप लोगों को समझ लेनी चाहिए कि यदि आप चाहते है कि मैं कुछ करू, तो मुझको वह करने के लिए कहें मत, क्‍योंकि यदि आप कहेंगे कि मुझको इसे करना पड़ेगा, तो मैं ठीक उलटा कर देने वाला हूं—चाहे जो भी हो।      
      मेरे पिता ने कहा: तुम ठीक उलटा कर ड़ालोगे।
      मैंने कहा: बिलकुल सही—ठीक उलटा। मैं किसी भी दंड के लिए तैयार हूं, लेकिन वास्‍तव में इस स्‍थिति के लिए आप उत्‍तरदायी है, मैं नही; क्‍योंकि मैंने आरंभ से ही इस बात को स्‍पष्‍ट कर दिया है कि यदि आप वास्‍तव में कोई बात मुझसे करवाना चाहते है तो उसे करने के लिए मुझसे मत कहिए। उसे मुझे स्‍वयं ही खोजने दें।