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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

अमीरों का गुरु—भाग--3 (ओशो)

(अमेरिका में तथा विश्‍व भ्रमण के दौरान ओशो ने जगह-जगह विश्‍व के पत्रकारों के साथ वार्तालाप किया। ये सभी वार्तालाप ‘’दि लास्‍ट टैस्टामैंट’’ शीर्षक से उपलब्‍ध है। इसके छह भाग है लेकि अभी केवल एक भाग ही प्रकाशित हुआ है।)
दि लास्‍ट टैस्‍टामैंट—ए बी सी नेटवर्क के साथ वार्तालाप—ओशो
प्रभु का राज्‍य पाने को कौन नहीं चाहेगा? जीसस ने कहा है, एक ऊँट तक सूई की आँख में से निकल जाये, लेकिन एक अमीर आदमी कभी स्‍वर्ग के द्वार में प्रवेश नहीं कर सकता। अब यह आदमी जिम्‍मेदार है सारी दूनिया में फैली हुई गरीबी के लिए। वह समृद्धि की भत्‍र्सना कर रहा है। वह उस सृजनात्‍मकता की निंदा कर रहा है। जिससे सारा विश्‍व समृद्ध किया जा सकता है।
      मैं सभी आयामों की समृद्धि के पक्ष में हूं, और मैं यह कभी नहीं कह सकता कि धन्‍य है गरीब। यही कार्ल मार्क्‍स ने कहा; ‘’धर्म लोगों की अफीम है। सुंदर शब्‍दों का प्रयोग करना आसान है, लेकिन यदि तुम उसमे छिपे हुए आशय को समझ सको तो ईसाई आज क्‍या कर रहे है, और पिछले हजार वर्षों में उन्‍होंने क्‍या किया?वे अनाथालय खोल लेंगे, वे संतति नियमन के विरोध में है। वे गर्भपात के विरोधी है।

सृजनात्‍मकता ही प्रेम है, धर्म है—कथा यात्रा (ओशो)

एक महान सम्राट अपने घोड़े पर बैठ कर हर दिन सुबह शहर में घूमता था। यह सुंदर अनुभव था कि कैसे शहर विकसित हो रहा है, कैसे उसकी राजधानी अधिक से अधिक सुंदर हो रही है।
      उसका सपना था कि उसे पृथ्‍वी की सबसे सुंदर जगह बनाया जाए। वह हमेशा अपने घोड़े को रोकता और एक बूढ़े व्‍यक्‍ति को देखता, वह एक सौ बीस साल का बूढ़ा रहा होगा जो बग़ीचे में काम करता रहता, बीज बोता, वृक्षों को पानी देता—ऐसे वृक्ष जिनको बड़ा होने में सैंकड़ो साल लगेंगे। ऐसे वृक्ष जो चार हजार साल जीते है।

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

कोई तो अमीरों का भी गुरु हो? भाग--2 (—ओशो)

(अमेरिका में तथा विश्‍व भ्रमण के दौरान ओशो ने जगह-जगह विश्‍व के पत्रकारों के साथ वार्तालाप किया। ये सभी वार्तालाप ‘’दि लास्‍ट टैस्टामैंट’’ शीर्षक से उपलब्‍ध है। इसके छह भाग है लेकि अभी केवल एक भाग ही प्रकाशित हुआ है।)
ये पत्रकार वार्ताएं जुलाई 1985 और जनवरी 1986 के बीच संपन्‍न हुई।
(इस अंक में प्रकाशित अंश ओशो के अमेरिका प्रवास से है)

प्रश्‍न—आपके लोग लाल रंग की विविध छाया के वस्‍त्र क्‍यों पहनते है? वे अलग-अलग तरह के लाल रंग के कपड़े और माला क्‍यों पहनते है?

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

कोई तो अमीरों का भी गुरु हो?—ओशो

(अमेरिका में तथा विश्‍व भ्रमण के दौरान ओशो ने जगह-जगह विश्‍व के पत्रकारों के साथ वार्तालाप किया। ये सभी वार्तालाप ‘’दि लास्‍ट टैस्टामैंट’’ शीर्षक से उपलब्‍ध है। इसके छह भाग है लेकि अभी केवल एक भाग ही प्रकाशित हुआ है।)
प्रश्न—ऐसी एक धारणा है कि आप और आपके धर्मावलंबी बहुत अमीर है। अगर यह सच है तो यह धन कहां से आता है?

उत्‍तर—जो लोग मेरे साथ है वे अमीर है। सच तो यह है कि केवल अमीर, शिक्षित, बुद्धिमान, सुसंस्‍कृत ही समझ सकते है जो मैं कह रहा हूं। भिखारी मेरे पास कभी नहीं आ सकता। निर्धन मेरे पास कभी नहीं आ सकते है। फासला बहुत बड़ा है, उनके और मेरे बीच में। वे मुझे सुन सकते है परंतु समझ नहीं  सकते। इसलिए यह स्‍वाभाविक है मैं अमीरों का गुरु हूं।

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

एरिस्‍टोटल्‍स थियोरी ऑफ पोएट्री एंड फाइन आर्ट—(055)

एरिस्‍टोटल्‍स थियोरी ऑफ पोएट्री एंड फाइन आर्ट—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

’कविता और कला के संबंध में एरिस्‍टोटल का सिद्धांत।‘’ यह शीर्षक ही विरोधाभासी मालूम होता है। कविता और कला दोनों ही सूक्ष्‍म तत्‍व है। वायवीय है, उनका सिद्धांत कैसे हो सकता है। और वह भी एरिस्‍टोटल जैसे तर्कशास्‍त्री द्वारा।
      काव्‍य का शास्‍त्र लिखने की परंपरा नई नहीं है। और न ही केवल पश्‍चिम की है। भारत में भी कश्मीरी पंडित मम्‍मट ने काव्‍य शास्‍त्र लिखा था। वह संस्‍कृत भाषा में है। और बड़ा रसपूर्ण है, क्‍योंकि संक्षिप्‍त सूत्रों में गूंथा हुआ है। उसका पहला ही सूत्र है: ‘’रसों आत्‍मा काव्यत्व‘’ रस काव्‍य की आत्‍मा। इसकी तुलना में एरिस्‍टोटल का पोएटिक्‍स गंभीर है, लेकिन उसकी बारीक बुद्धि ने काव्‍य और नाटक की गहराई में प्रवेश कर उनके एक-एक पहलुओं को उजागर कर दिया है। उसकी यह कलाकारी अपने आप में एक सुंदर रचना शिल्‍प है। इस संबंध में हमें कुछ बातें ख्‍याल में लेनी चाहिए।

      एक तो एरिस्‍टोटल का समय, दूसरे ग्रीक सभ्‍यता और मानसिकता। तीसरे खुद एरिस्‍टोटल का व्‍यक्‍तित्‍व। यक ग्रंथ आज से 2400 बी. सी. अर्थात क्राइस्‍ट पूर्व समय में लिख गया था। ग्रीक सभ्‍यता उस समय अपने शिखर पर थी। सॉक्रेटिस, प्लेटों, और उसके बाद एरिस्‍टोटल—यह शिष्‍य परंपरा थी। सॉक्रेटिस रहस्यदर्शी था, प्लेटों दार्शनिक था।

भारतीय संसद मंद बुद्धि है—ओशो

संसद की छवि गर्व करने लायक नहीं है:
--अटल बिहारी वाजपेयी
(प्रधानमंत्री ने का कि जनमानस में सदन की जो तस्‍वीर उभर रही है। वह ऐसी नहीं है जिस पर सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते गर्व किया जा सके। वाजपेयी ने लोकसभा के मानसून सत्र के समापन संबोधन में (2001) यह बात कहीं।
ओशो-
      ‘’और क्‍योंकि मैंने अपने एक वक्‍तव्‍य में यह कहा कि भारतीय संसद करीब-करीब मंदबुद्धि है तो मुझे एक नोटिस थमा दिया गया, ‘’ आपने देश की महानतम संस्‍था का अपमान किया है..........

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

एनेलेक्‍टस ऑफ कन्फ्यूशियस-(054)

एनेलेक्‍टस ऑफ कन्फ्यूशियस—ओशो की प्रिय पुस्तकें

कन्फूशियस चीन के प्राचीन और प्रसिद्ध दार्शनिकों में से एक है। जैसा कि सभी प्राचीन पौर्वात्‍य व्‍यक्‍तियों के साथ हुआ है, इतिहास में उसके जन्‍म और मृत्‍यु की कोई सुनिश्‍चत तारीख दर्ज नहीं है। जो भी उपलब्‍ध है वह केवल अनुमान है। कन्‍फ्यूशियस का जीवन काल ईसा पूर्व 551-479 बताया जाता है। कुछ इतिहासविद् उससे सहमत है, कुछ नहीं। जो भी हो, उसके जैसे व्‍यक्‍तियों के वचन महत्‍वपूर्ण होते है, उनका इतिहास या भूगोल नहीं। उसके जीवन के संबंध में जो भी आंशिक जानकारी इधर-उधर उपलब्‍ध है उसे जोड़कर जो चित्र बनता है वह यह कि कन्‍फ्यूशियस सामान्‍य परिवार में पैदा हुआ, वह विवाहित था। जीते जी उसकी ख्‍याति एक विद्वान और सर्वज्ञ ऋषि के रूप में फैल चुकी थी। और वह लगातार उसका खंडन करता था। वह इसका इन्‍कार करता था कि वह उसके पास कोई विशेष ज्ञान है। उसके मुताबिक उसके पास जो असाधारण बात थी वह थी सत्तत सीखने की प्‍यास। सुदूर अतीत में जो दिव्‍य शास्‍ता थे उनके आगे वह स्‍वयं को नाकुछ मानता था।

      उसका काम सिर्फ इतना था कि प्राचीनतों के ज्ञान को वह हस्‍तांतरित करे। पुरातन में उसका विश्‍वास और निर्भरता अटूट थी।

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

दि बुक ऑफ ली तज़ु—(053)

दि बुक ऑफ ली तज़ु—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

कन्‍फ्यूशियन दर्शन के बाद, ताओ वाद की बहुत बड़ी दार्शनिक परंपरा है। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में ताओ दर्शन प्रौढ़ हुआ। और तभी से ताओ ग्रंथों में किसी ली तज़ु नाम के रहस्‍यदर्शी का उल्‍लेख पाया जाता है। जी तज़ु जो हवाओं पर सवार होकर यात्रा करता था। उसकी ऐतिहासिकता भी संदिग्‍ध है। पता नहीं उसका समय क्‍या था। कुछ सुत्रों के अनुसार वह ईसा पूर्व 600 में हुआ, और कुछ कहते है 400 में पैदा हुआ। ली तज़ु एक व्‍यक्‍ति भी है, और दर्शन भी। कहते है ली तज़ु पु-तिएन शहर में रहता था। और चालीस साल तक किसी ने उसकी दखल नहीं ली। और राज्‍य के उच्‍च पदस्‍थ और राजसी परिवार के लोग उसे सामान्‍य आदमी समझते थे। चेंग में सूखा पडा और ली तज़ु ने वेइ जाने का फैसला लिया।

      उसके नाम से जो किताब प्रचलित है वह कहानियों, निबंधों और कहावतों का संकलन है। किताब के आठ परिच्‍छेद है। उनमें से ‘’याँग चु’’ शीर्षक से जो परिच्‍छेद है वह सुखवाद का समर्थन करता है। बाकी सात परिच्‍छेदों का संकलन ताओ तेह किंग और च्‍वांग तज़ु के बाद सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण किताब बन गई है। चीनी विद्वानों के मुताबिक यह किताब 300 ईसवी में संकलित की गई थी। यह ताओ वाद का दूसरा सृजनात्‍मक काल था।

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

प्रेम को रिश्‍ता मत बनाओ—उर्मिला मातोंडकर

’प्रेम संबंध ऐसी फैटेंसी है जहां आप जिस तरह भी जीना चाहें जी तो सकते है मगर खुश होने के बावजूद आप अंतत: दुःखी ही होते है।‘’
प्रसिद्ध फिल्‍म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर

ओशो
      ‘’तथाकथित संबंध बहुत सुंदर और सतरंगी सपनों के साथ शुरू होते है। परंतु शीध्र ही वे अत्‍यंत दुःख और गहरे विषाद के साथ समाप्‍त होते है। इसीलिए नये मनुष्‍य के बारे में मेरी जो दृष्‍टि है उसमे बह दूसरों से जुड़ेगा तो सही परंतु किसी प्रकार का रिश्‍ता नहीं बनायेगा—भविष्‍य के लिए किसी तरह

ओशो के प्रवचन पेंटिंग्‍स है—एम एफ हुसैन

हर कोई ओशो के प्रवचनों में से कुछ चून लेता है। मुझे उनमें एक पेंटिंग्‍स बनती नजर आती है। बिना किसी बुश और कैनवास के।
      कलाकार के लिए ओशो कहते है कि सारे तकनीक छोड़ दो और शुन्‍य चित दशा में कला का सृजन करो। इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं। इस स्‍थिति में ही कला में वह अनगढ़, शक्‍तिशाली तत्‍व आ सकेगा जो कि वास्‍तविक सृजन का स्‍त्रोत है।
      इस बात को मैंने तब महसूस किया जब ओशो के प्रवचनों को चित्रित करने के लिए में बंबई गया था। सूफियों पर उनके प्रवचन चल रहे थे। अब सूफियों की रूहानी मोहब्‍बत पर ओशो जैसा आदमी बोल रहा हो तो यह मौका तो मैं छोड़ने वाला नहीं था। म्यूज़िशियन के लाइव म्‍यूजिक को पेंटिंग्‍स में उतारने का मेरा सिलसिला शुरू हो चुका था।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

मुल्‍ला नसरूद्दीन कौन था-(052)

मुल्‍ला नसरूद्दीन कौन था—(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

कई देश मुल्‍ला नसरूद्दीन को पैदा करने का दावा करते है। टिर्की में तो उसकी कब्र तक बनी हुई है। और हर साल वहां नसरूद्दीन उत्‍सव मनाया जाता है। उस उत्‍सव में मुल्‍ला जैसी पोशाक पहनकर लोग उसके क़िस्सों को अभिनीत करते है। एस्‍किशहर उसका जन्‍म गांव बताया जाता है।
      ग्रीन लोग नसरूद्दीन के क़िस्सों को अपनी लोककथा का हिस्‍सा बनाते है। मध्‍ययुग में नसरूदीन के क़िस्सों का उपयोग तानाशाह अधिकारियों का मजाक उड़ाने के लिए किया जाता था। उसके बाद मुल्‍ला नसरूदीन सोवियत यूनियन का लोक नायक बना। एक फिल्‍म में उसे देश के दुष्‍ट पूंजीवादी शासकों के ऊपर बाजी मारते हुए दिखाया गया था।

      मुल्‍ला मध्‍यपूर्व और उसके आसपास बसने वाली मनुष्‍य जाति के सामूहिक अवचेतन का हिस्‍सा बन गया। कभी वह बहुत बुद्धू बनकर सामने आता है तो कभी बहुत बुद्धिमान। उसके पास कई रहस्‍यों के भंडार है। सूफी दरवेश उसका उपयोग मनुष्‍य के मन के अजीबो गरीब पहलुओं को उजागर करने के लिए किया करते थे।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

ट्रैक्‍टेटस लॉजिको-(फिलोसफिकस)-051

ट्रैक्‍टेटस लॉजिको—फिलोसफिकस (ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

विटगेंस्‍टीन ऑस्‍टिया के वियना शहर में एक रईस खानदान में पैदा हुआ। उसके पिता उद्योगपति थे उनके पास धन का अंबार था। अंत: विटगेंस्‍टीन को उसके सात भाई-बहनों के साथ उच्‍च कोटि की शिक्षा मिली। उसकी मां और पिता दोनों ही संगीतज्ञ थे और अत्‍यंत सुसंस्‍कृत थे।
      इंजीनियरिंग तथा गणित को सीखने के लिए विटगेंस्‍टीन 1908 में इंग्‍लैड गया। वह बहुत ही मेधावी छात्र था और हर सिद्धांत का खुद प्रयोग करने में विश्‍वास रखता था। 1903 में बर्ट्रेंड रसेल की विख्‍यात किताब ‘’प्रिंसिपल ऑफ मैथेमेटिक्‍स’’ प्रकाशित हुई थी। तो विटगेंस्‍टीन सहज ही रसेल की और खिंचा चला आया। 1911 में वह केंब्रिज जाकर रहने लगा जो कि रसेल का ठिकाना था। विटगेंस्‍टीन रसेल का विद्यार्थी बन गया। सामान्‍यतया बर्ट्रेंड रसेल किसी विद्यार्थी से प्रभावित नहीं होता था—उसकी अपनी प्रतिभा इतनी बुलंद थी कि उसने सामने सभी बौने लगते थे।
लेकिन विटगेंस्‍टीन के संबंध में उसने लिखा है, ‘’विटगेंस्‍टीन को पढ़ाना मेरे जीवन के सर्वाधिक रोमांचकारी बौद्धिक अभियानों में एक रहा है। इसकी आग, कुशाग्र बुद्धि और बुद्धि की निर्मलता असाधारण थी। मैं जो कुछ सिखा सकता था वह उसके शीध्र ही आत्‍मसात कर लिया।‘’
      1912 तक रसेल को यह सुनिश्‍चित हो गया कि विटगेंस्‍टीन एक जीनियस है और उसकी प्रतिभा को गणित के दर्शन की दिशा में मोड़ना जरूरी है। विटगेंस्‍टीन गणित और तर्क के सवालों का अध्‍ययन करने में डूब गया लेकिन उसके लिए उसे केंब्रिज छोड़कर नार्वे जाकर एकांत में रहना पडा क्‍योंकि केंब्रिज के बुद्धिजीवी सिर्फ चर्चा करने में उत्‍सुक थे। उनकी बातचीत में कोई गहराई नहीं थी।

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

चंदाभ की आभा—(कथा यात्रा-017)

चंदाभ की आभा-(एस धम्मो सनंतनो)
राजगृह में चंदाभ नाम का एक ब्राह्मण रहता था। किसी पूर्व जन्‍म में भगवान कश्‍यप बुद्ध के चैत्‍य में चंदन लगाया करता था।
      कुछ और बड़ा कृत्‍य नहीं था पीछे। लेकिन बड़े भाव से चंदन लगाया होगा कश्‍यप बुद्ध के चैत्‍य में, उनकी मूर्ति पर। असली सवाल भाव का है। बड़ी श्रद्धा से लगाया होगा। तब से ही उसमें एक तरह की आभा आ गयी थी। जहां श्रद्धा है, वहां आभा है। जहां श्रद्धा है, वहां जादू है।
उस पुण्‍य के कारण, वह जो कश्‍यप बुद्ध के मंदिर में चंदन लगाने का जो पुण्‍य था, वह जो आनंद से इसने चंदन लगाया था, वह जो आनंद से नाचा होगा। पूजा की होगी, प्रार्थना की होगी। वह इसके भीतर आभा बन गयी थी। ज्‍योतिर्मय हो कर इसके भीतर जग गयी थी।
      कुछ पाखंडी ब्राह्मण उसे साथ लेकर नगर-नगर घूमते थे। क्‍योंकि वह बड़ा चमत्‍कारी आदमी था। उसकी नाभि से रोशनी निकलती थी। वे कपड़ा उघाड़ कर लोगों को उसकी नाभि दिखाते थे। नाभि देखकर लोग हैरान हो जाते थे। और उन्‍होंने इसमें एक धंधा बना रखा था। वे कहते थे। जो इसके शरीर को स्‍पर्श करता है, वह चाहे जो पाता है। और जब तक लोग बहुत धन दान न करते वह उसका शरीर स्‍पर्श नहीं करने देते थे। ऐसे वह काफी लोगों को लूट रहे थे।

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

आत्‍मा का अशरीरी रूप क्‍या होता है ?.............आपस में कोई डायलॉग की भी संभावना होती है ?भाग--3 (ओशो)

प्रश्न--परिचय नहीं हो सकता दो आत्‍माओं का? एक दूसरे की पहचान?
ओशो—परिचय की जहां तक बात है, दो प्रेतात्‍माएं भी अगर परिचित होना चाहें तो भी दो व्‍यक्‍तियों में प्रवेश करके ही परिचय हो सकती है। सीधी परिचय नहीं हो सकती। करीब-करीब ऐसी हालत है, जैसे हम बीस आदमी इस कमरे में सो जाएं। तो हम बीस रात भर यहीं रहेंगे। लेकिन परिचित नहीं हो सकते। हमारे जो परिचय है वह जागने के ही होंगे। जब हम जागेंगे तो फिर कंटी न्यू हो जायेंगे। लेकिन नींद में हम परिचित नहीं हो सकते। हमारा कोई संबंध नहीं हो सकता। हां, यह हो सकता है। कि एक आदमी जाग जाए, इसमें एक आदमी जाग जाए, वह सबको देख ले।

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

आत्‍मा का अशरीरी रूप क्‍या होता है ? वह स्‍थिर होती है या विचरण करती है ? अपनी परिचित दूसरी आत्‍माओं को पहचानती कैसे है ? और उस अवस्‍था में आपस में कोई डायलॉग की भी संभावना होती है ? (भाग--2) ओशो

दूसरी बात जब ये व्‍यक्‍तियों में प्रवेश कर जाएं तब ये वाणी का उपयोग कर सकते है। तब संवाद संभव है। इसलिए आज तक पृथ्‍वी पर कोई प्रेत या कोई देव प्रत्‍यक्ष और सीधा कुछ भी संवादित नहीं कर पाया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हुए है। संवाद हुए है। और देवलोक या प्रेतलोक के संबंध में, स्‍वर्ग और नरक के संबंध में जो भी हमारे पास सूचनाएं है वे काल्‍पनिक लोगों के द्वारा नहीं हे, वे इन लोको में रहने वाले लोगों के ही द्वारा है। लेकिन किसी के माध्‍यम से है।

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

आत्‍मा का अशरीरी रूप क्‍या होता है ? वह स्‍थिर होती है या विचरण करती है ? अपनी परिचित दूसरी आत्‍माओं को पहचानती कैसे है ? और उस अवस्‍था में आपस में कोई डायलॉग की भी संभावना होती है ?

ओशो—इस संबंध में दो बातें ख्‍याल में लेनी चाहिए। एक तो स्‍थिरता और गति दोनों ही वह नहीं होती। और इस लिए समझना बहुत कठिन होगा। हमें समझना आसान होता है कि गति न हो, तो स्‍थिरता होगी। स्‍थिरता न हो, तो गति होगी। क्‍योंकि हमारे ख्‍याल में गति और स्‍थिरता दो ही संभावनाएं है। और एक न हो तो दूसरा अनिवार्य है। हम यह भी समझते है कि ये दोनों एक दूसरे से विरोधी है।
      पहली तो बात गति और स्‍थिरता विरोधी नहीं है। गति और स्‍थिरता एक ही चीज की तारतम्‍यताएं है। जिसको हम स्‍थिरता कहते है। वह ऐसी गति है। जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते है वह भी ऐसी स्‍थिरता है जो हमारे ख्‍याल में नहीं आती। तो पहली तो बात गति और स्‍थिरता दो विरोधी चीजें नहीं है। बहुत तीव्र गति हो तो भी स्‍थिर मालूम होगी।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

दो जन्‍मों के बीच क्‍या है(भाग--2)—ओशो

एक्‍सीडेंट भी बिलकुल एक्‍सीडेंट नहीं है। उसकी बात करेंगे। कोई एक्‍सीडेंट बिलकुल एक्‍सीडेंट नहीं है। हमें लगता है, क्‍योंकि हमारी व्‍यवस्‍था के कुछ भीतर नहीं घटित होता। लेकिन कोई दुर्घटना सिर्फ दुर्घटना नहीं है। दुर्घटना भी सकारण है।
      छह महीने पहले मौत की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। तैयारी शुरू हो जाती है। जैसे रात नींद के एक घंटे पहले तैयारी शुरू हो जाती है। इसलिए सोने से पहले जो घंटे भी कर वक्‍त है, वह बहुत सजेस्‍टिबल है। उससे ज्‍यादा सजेस्‍टिबल कोई वक्‍त नहीं है। क्‍योंकि उस वक्‍त आपको शक होता है कि आप जागे हुए है। लेकिन आप पर नींद की छाया पड़नी शुरू हो जाती है। इसलिए सारे दुनिया के धर्मों ने सोने के वक्‍त घंटे भर और सुबह जागने के बाद घंटे भर प्रार्थना का समय तय किया है—संध्‍याकाल।

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

दो जन्‍मों के बीच क्‍या है—ओशो

प्रश्‍न’--   आत्‍मा जब शरीर छोड़ देती है और दूसरा शरीर धारण नहीं करती है, उस बीच के समयातित अंतराल में जो घटित होता है उसका, तथा जहां वह विचरण करती है उस वातावरण के वर्णन की कोई संभावना हो सकती है? और इसके साथ जिस प्रसंग में आपने आत्‍मा का अपनी मर्जी से जन्‍म लेने की स्‍वतंत्रता का जिक्र किया है, तो क्‍या उसे जब चाहे शरीर छोड़ने अथवा न छोड़ने की भी स्‍वतंत्रता है?

ओशो—पहली तो बात शरीर छोड़ने के बाद और नया शरीर ग्रहण करने के पहले जो अंतराल का क्षण है, अंतराल का काल है, उसके संबंध में दो-तीन बातें समझें तो ही प्रश्‍न समझ में आ सकें।
      एक तो कि उस क्षण जो भी अनुभव होते है वह स्‍वप्‍नवत है। ड्रीम लाइफ है। इसलिए जब होते है तब तो बिलकुल वास्‍तविक होते है, लेकि जब आप याद करते है तब सपने जैसे हो जाते है। स्‍वप्‍नवत इसलिए है वे अनुभव कि इंद्रियों का उपयोग नहीं होता। आपके यथार्थ का जो बोध है, यथार्थ की जो आपकी प्रतीति है, वह इंद्रियों के माध्‍यम से है, शरीर के माध्‍यम से नहीं।

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

लस्‍ट फॉर लाइफ-(विंसेंट वैनगो)-050

लस्‍ट फॉर लाइफ—विंसेंट वैनगो-(ओशो की प्रिय पुस्‍तकें)

यह कहानी है उत्‍तप्‍त भावोन्‍मेष की, सृजन के विवश करनेवाले विस्‍फोट की; प्रसिद्ध डच चित्रकार विंसेंट बैन गो की जो अपनी ही प्रतिभा की आग में जीवन भर जलता रहा और अंतत: उसी में  जलकर भस्‍मसात हो गया।
     अजीब किस्‍मत लेकिन पैदा हुआ यह प्रतिभाशाली, बदसूरत कलाकार। हॉलैंड के प्रतिष्‍ठित वैनगो परिवार में जन्‍मा वैनगो बंधु योरोप के उच्‍च वर्गीय, ख्‍यातिलब्‍ध चित्रों के सौदागर और प्रदर्शक थे। पूरे योरोप में उनकी अपनी आर्ट गैलरीज थी। छह भाईयों में से दो धर्मोपदेशक थे। उनमें से एक धर्मोपदेशक भाई की संतान थी विंसेंट और थियो। थियो विंसेंट से दो साल छोटा था। थियो समाजिक रस्मों रिवाज के मुताबिक चलने वाला, अपने व्‍यवसाय में सफल आर्ट डीलर था। विंसेंट उससे ठीक उलटा। समाज के तौर तरीके, शिष्‍टाचार उसे कभी रास नहीं आते थे। संभ्रांत व्‍यक्‍तियों दंभ और नकलीपन से बुरी तरह बौखला जाता था। और उसी समय प्रतिक्रिया करता।

      घर से बुज़ुर्गों ने उसके लिए धर्मोपदेशक का रास्‍ता चुना। विंसेंट को समाज के गरीब तबके से बहुत हमदर्दी थी। उसने सोचा इस काम में वह उन लोगों की मदद कर सकेगा। विंसेंट का प्रशिक्षण शुरू हुआ। वह दिन रात धर्मग्रंथों का अध्‍ययन करने लगा। लेकिन उसकी एक बहुत बड़ी कमजोरी थी। वह व्‍याख्‍यान नहीं दे पाता था। किसी प्रकार का शाब्‍दिक संप्रेषण उसके लिए संभव नहीं था।