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सोमवार, 31 अगस्त 2015

अंतयार्त्रा--(ध्‍यान शिविर)--प्रवचन--07

ह्रदय—वीणा के सूत्र—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 5 फरवरी, 1968; सुबह।
ध्‍यान शिविर आजोल।
विचार का, थिंकिग का केंद्र मस्तिष्क है; और भाव का, फीलिंग का केंद्र हृदय है; और संकल्प का, विलिंग का केंद्र नाभि है। विचार, चिंतन, मनन मस्तिष्क से होता है। भावना, अनुभव, प्रेम, घृणा और क्रोध हृदय से होते हैं। संकल्प नाभि से होते हैं। विचार के केंद्र के संबंध में कल थोड़ी सी बातें हमने कीं।
पहले दिन मैंने आपको कहा था कि विचार के तंतु बहुत कसे हुए हैं, उन्हें शिथिल करना है। विचार पर अत्यधिक तनाव और बल है। मस्तिष्क अत्यंत तीव्रता से खिंचा हुआ है। विचार की वीणा के तार इतने खिंचे हुए हैं कि उनसे संगीत पैदा नहीं होता, तार ही टूट जाते हैं, मनुष्य विक्षिप्त हो जाता है और मनुष्य विक्षिप्त हो गया है। यह विचार की वीणा के तार थोड़े शिथिल करने अत्यंत जरूरी हो गए हैं, ताकि वे सम—स्थिति में आ सकें और संगीत उत्पन्न हो सके।

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--37

स्‍वीकार रूपांतरण है—(प्रवचन—सैतीसवां)

सूत्र:
     
57—तीव्र कामना की मनोदशा में अनुद्विग्‍न रहो।
      58—यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र—कृति
            जैसा भासता है। सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो।
      59—प्रिय, न सुख में और न दुःख में, बल्‍कि दोनों के
            मध्‍य में अवधान को स्‍थिर करो।
      60—विषय और वासना जैसे दूसरों में है वैसे ही मुझमें है।
इस भांति स्‍वीकार करके उन्‍हें रूपांतरित होने दो।

जो मूलभूत मन है वह दर्पण की भांति है; वह शुद्ध है। वह शुद्ध ही रहता है। उस पर धूल जमा हो सकती है, लेकिन उससे दर्पण की शुद्धता नष्ट नहीं होती। धूल शुद्धता को मिटा नहीं सकती, लेकिन वह शुद्धता को आच्छादित कर सकती है। सामान्य मन की यही अवस्था है—वह धूल से ढंका है। लेकिन धूल में दबा हुआ मौलिक मन भी शुद्ध ही रहता है।

रविवार, 30 अगस्त 2015

नाम सुमिर मन बावरे--प्रवचन--03

पंडित, काह करै पंडिताई—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 3 अगस्‍त, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

हमारा देखि करै नहिं '
जो कोई देखि हमारा करिहै, अंत फजहिति।।
जम हम चले चलै नहिं, करी सो करै न सोई।
मानै कहा कहे जो चलिहै! सिद्ध काज सब होई।।
हम तो देह धरे जग नाचब, भेद न पाई कोई।
हम आहन मतसंगो—बासी! सूरति रही समोई।।
कहा पूकारि विचारि लेह ग्रीन! बृथा सब्द नहिं सोई।
जगजीबनदास सहज मन सुमिरन, विरले यहि जग कोई।।

      कलि की रीति सनह रे भाई।
माया यह सब है भाई की, आपूनि सब केह गाई।।
भूले फूले फिरत आय! पर केहके हाथ न आई।
जो है जहां तहां ही है सो, अंतकाल चाले पछिताई।।
जहं कहुं होय नामरस चरचा, तहां आइकै और चलाई।

शनिवार, 29 अगस्त 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--12)

श्रद्धा और सत्‍य का मिथुन—(प्रवचन—बाहरवां)

प्यारे ओशो!

ऐतरेय ब्राह्मण में यह सूत्र आता है :
श्रद्धा पत्नी सत्यं यजमान:।
श्रद्धा सत्यं तदित्युत्तमं मिथुनम्।
श्रद्धया सत्येन मिमुने न स्वर्गाल्लोकार जयतीति।।

अर्थात् (जीवन—यज्ञ में) श्रद्धा पत्नी है और सत्य यजमान। श्रद्धा और सत्य की उत्तम जोड़ी है।
श्रद्धा और सत्य की जोड़ी से मनुष्य दिव्य लोकों को प्राप्त करता है। प्यारे ओशो! इस सूत्र का आशय समझाने की अनुकंपा करें।

नंद मैत्रेय! यह सूत्र अत्यंत अर्थगर्भित है। संदेह से सत्य नहीं पाया जा सकता। संदेह से सत्य अकस्मात् मिल भी जाए तो भी तुम चूक जाओगे।

अंतर्यात्रा (ध्‍यान--शिविर)--(प्रवचन--06)

विश्‍वास—मात्र से छुटकारा—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; रात्रि
ध्‍यान शिविर, आजोल।
विचार की श्रृंखलाओं में मनुष्य एक कैदी की भांति बंधा है। विचार के इस कारागृह में, इस कारागृह की नींव में कौन से पत्थर लगे हैं, उन पत्थरों में एक पत्थर के संबंध में दोपहर हमने बात की। दूसरे और उतने ही महत्वपूर्ण पत्थर के संबंध में अभी रात हमें बात करनी है। अगर बुनियाद के ये दो पत्थर हट जाएं—सीखे हुए ज्ञान को ज्ञान समझने की भूल समाप्त हो जाए और दूसरा और पत्थर जिसकी मैं अभी बात करूंगा, वह हट जाए तो मनुष्य विचारों के जाल से अत्यंत सरलता से ऊपर उठ सकता है।
दूसरा कौन सा पत्थर है? कौन से दूसरे आधार पर मनुष्य के मन में विचारों का भवन और विचारों का जाल गूंथा गया और खड़ा किया गया है, शायद आपको खयाल में भी न हो। यह खयाल भी न हो कि हम इतने अंतर—विरोधी, सेल्फ—कंट्राडिक्टरी विचारों से कैसे भर गए हैं!

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--11)

स्‍वस्‍थ हो जाना उपनिषद् है—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

प्‍यारे ओशो!

तैत्‍तरीयोपनिषद में एक कथा है कि गुरु ने शिष्‍य से नाराज होकर
उसे अपने द्वारा सिखाई गयी विद्या त्‍याग देने को कहा।
तो एवमस्‍तु कहकर शिष्‍य ने विद्या को वमन कर दिया,
जिसे देवताओ ने तीतर का रूप धारण कर एकत्र कर लिया।
      वहीं तैत्‍तरीयोपनिषद् कहलाया।

प्‍यारे ओशो! इस उच्‍छिष्‍ट ज्ञान के संबंध में समझाने की कृपा करें।

जिनस्वरूप! इस संबंध में बहुत—सी बातें विचारणीय हैं। पहली तो बात यह है कि गुरु नाराज नहीं होता। दिखाए भला, अभिनय भला करे, नाराज नहीं होता।

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--36

आत्‍म—स्‍मरण और विधायक दृष्‍टि—(प्रवचन—छत्‍तीसवां)

प्रश्‍न—सार:

1—आत्‍म--स्‍मरणमानव मन को कैसे रूपांतरित करता है?
2—विधायक पर जोर क्‍या समग्र स्‍वीकार के विपरीत नहीं है?
3—इस मायावी जगत में गुरु की क्‍या भूमिका और सार्थकता है?


पहला प्रश्न :

आत्म—सरण अल्प— स्मरण की साधना मनुष्य के मन को कैसे रूपांतरित कर सकती है?

नुष्‍य अपने में केंद्रित नहीं है, वह अपने केंद्र पर नहीं है। वह जन्म तो लेता है केंद्रित की तरह; लेकिन समाज, परिवार, संस्कृति, सब उसे केंद्र से च्युत कर देते हैं, बाहर कर देते हैं। वे यह काम जाने— अनजाने बहुत तरकीब से करते हैं।

अंतर्यात्रा--(ध्‍यान शिविर)--प्रवचन--05

ज्ञान के भ्रम से छुटकारा—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; दोपहर
ध्‍यान शिविर आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य के मन की दशा— मधुमक्खियों के छेड़े गए छत्ते की भांति मनुष्य के मन की दशा है। विचार और विचार और विचार और विचारों की यह भिनभिनाहट मक्खियों की तरह मनुष्य के मन को घेरे रहती है। इन विचारों में घिरा हुआ मनुष्य अशांति में, तनाव में और चिंता में जीता है। जीवन को जानने और पहचानने के लिए मन चाहिए एक झील की भांति शांत, जिस पर कोई लहर न उठती हो। जीवन से परिचित होने के लिए मन चाहिए एक दर्पण की भांति निर्मल, जिस पर कोई धूल न जमी हो।
और हमारे पास मन है एक मधुमक्खियों के छत्ते की भांति। न तो वह दर्पण है, न वह एक शांत झील है। और ऐसे मन को लेकर अगर हम सोचते हों कि हम कुछ जान सकेंगे, हम कुछ पा सकेंगे या हम कुछ हो सकेंगे तो हम बड़ी भूल में हैं।

बुधवार, 26 अगस्त 2015

नाम सुमिर मन बावरे--प्रवचन--02

कीचड़ में खिले कमल—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 2 अगस्‍त,1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
 प्रश्नसार:

1—संन्यास लेने पर गहरे ध्यान में प्रवेश और लोगों—द्वारा पागल समझा जाना।
2—विरह की असह्य पीड़ा से साधक की तड़पन।
3—'शेष प्रश्न क्या है?
4—मेरे जीवन में क्यों कष्ट हैं?
5—संसार की कीचड़ से कैसे मुक्त हुआ जाए?
6—भगवान की बातें सुनकर प्रेम और मस्ती का नशा चढ़ जाना।

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--10)

शील मुक्‍ति है, चरित्र—बंधन—(प्रवचन—दसवां)


प्यारे ओशो!

संस्कृत में एक सुभाषित है कि यदि शील अर्थात शुद्ध चरित्र न हो
तो मनुष्य के सत्य, तप, जप, ज्ञान, सर्व विद्या और

कला सब निष्फल होते हैं—
सत्यं तपो जपो ज्ञानं सर्वा विद्या: कला अपि।
नरस्य निष्फल? संति यस्य शील न विद्यते।।

प्यारे ओशो! निवेदन है कि इस सूक्ति पर कुछ कहें।
नंद किरण! सुभाषित शब्द तो बहुत प्यारा है। संभवत: दुनिया की किसी और भाषा में वैसा शब्द नहीं। उस शब्द से बहुत—सी बातों की ध्वनि उठती है—खिले हुए फूलों की, बजती हुई

अंतर्यात्रा--(ध्‍यान-शिविर)--प्रवचन--04

मन—साक्षात्‍कार के सूत्र—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 4 फरवरी, 1968; सुबह।
ध्‍यान साधना शिविर, आजोल।

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य का मन, उसका मस्तिष्क एक रुग्ण घाव की तरह निर्मित हो गया है। वह एक स्वस्थ केंद्र नहीं है, एक अस्वस्थ फोड़े की भांति हो गया है। और इसीलिए हमारा सारा ध्यान मस्तिष्क के आस—पास ही घूमता रहता है। शायद आपको यह खयाल न आया हो कि शरीर का जो अंग रुग्ण हो जाता है, उसी अंग के आस— पास हमारा ध्यान घूमने लगता है। अगर पैर में दर्द हो तो ही पैर का पता चलना शुरू होता है और पैर में दर्द न हो तो पैर का कोई भी पता नहीं चलता। हाथ में फोड़ा हो तो उस फोड़े का पता चलता है। फोड़ा न हो तो हाथ का कोई पता नहीं चलता है। हमारा मस्तिष्क जरूर किसी न किसी रूप में रुग्ण हो गया है, क्योंकि चौबीस घंटे हमें मस्तिष्क का ही पता चलता है और किसी चीज का कोई पता नहीं चलता।

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--35

स्‍वप्‍न नहीं,स्‍वप्‍नदर्शी सच है—(प्रवचन—पैंतीसवां)

सूत्र:
     
53—हे कमलाक्षी, हे सुभगे, गाते हुए, देखते हुए,
स्‍वाद लेते हुए या बोध बना रहे कि मैं हूं।
और शाश्‍वत आविर्भूत होता है।
54—जहां—जहां, जिस किसी कृत्‍य में संतोष मिलता हो,
      उसे वास्‍वतिक करो।
55—जब नींद अभी नहीं आयी हो और बाह्म जागरण
      विदा हो गया हो, उस मध्‍य बिंदु पर बोधपूर्ण
      रहने से आत्‍मा प्रकाशित होती है।
56—भ्रांतियां छलती है, रंग सीमित करते है,
विभाज्‍य भी अविभाज्‍य है।

अंतर्यात्रा--(ध्‍यान शिविर)--प्रवचन--03

नाभि—यात्रा : सम्‍यक आहार—श्रम—निंद्रा—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक, 3 फरवरी; 1968; रात्रि।
साधना—शिविर—आजोल।
नुष्य का जीवन कैसे आत्म—केंद्रित हो, कैसे वह स्वयं का अनुभव कर सके, कैसे आत्म—उपलब्धि हो सके, इस दिशा में आज दिन की दो चर्चाओं में थोड़ी सी बात हुई है। कुछ बातें और पूछी गई हैं। उन्हें समझने के लिए मैं तीन सूत्रों पर और अभी आपसे बात करूंगा। जो प्रश्न आज की चर्चा से संबंधित नहीं हैं, उनकी कल और परसों आपसे बात करूंगा। जो प्रश्न आज की चर्चा से संबंधित हैं, उन्हें मैं तीन सूत्रों में बांट कर आपसे बात करता हूं।
पहली बात मनुष्य स्वनिष्ठ, आत्म—केंद्रित या नाभि के केंद्र से जीवन की प्रक्रिया को कैसे शुरू करे? तीन और सूत्र महत्वपूर्ण हैं, जिनके माध्यम से नाभि पर सोई हुई ऊर्जा जाग सकती है और नाभि के द्वार से मनुष्य शरीर से भिन्न जो चेतना है, उसके अनुभव को उपलब्ध हो सकता है। उनमें तीन सूत्रों को पहले आपसे कहूं फिर उनकी आपसे बात करूं।

तंत्र--सूत्र--(भाग--3)--प्रवचन--34

तांत्रिक संभोग और समाधि—(प्रवचन—चौतीसवां)

प्रश्‍नसार:

1—क्‍या आप भोग सिखाते है?
2—ध्‍यान में सहयोग की दृष्‍टि से संभोग में
      कितनी बार उतरना चाहिए?
3—क्‍या आर्गाज्‍म से ध्‍यान की ऊर्जा क्षीण नहीं होती?
4—आपने कहा कि काम—कृत्‍य धीमें, पर समग्र
      और अनियंत्रित होना चाहिए। कृपया इन दोनों
      बातों पर प्रकाश डालें।

      तुम्‍हारे प्रश्नों को लेने के पूर्व कुछ अन्य बातो को स्पष्ट करना जरूरी है, क्योंकि उनसे तुम्हें तंत्र के अर्थ और अभिप्राय को समझने में मदद मिलेगी।

नाम सुमिर मन बावरा--(प्रवचन--01)

तुमसों मन लागो है मोर—(प्रवचन—पहला)

दिनांक,। अगस्‍त,।978;
श्री रजनीश आश्रम पूना।

सूत्र—
     
तुमसों मन लागो हे मोरा।
हम तुम बैठे रही अटरिया, भला बना है जोरा।।
सत की सेज बिछाय सूति रहि, सुख आनन्द धनेरा।
करता हरता तुमहीं आहहु, करौं मैं कौन निहोरा।। 
रहचो अजान अब जानि परयो है, जब चितयो एक कोरा।
आवागमन निवारह साईं, आदि—अंत का आहिऊं चोरा।
जगजीवन बिनती करि मांगे, देखत दरस सदा रहो तोरा।।
अब निर्वाह किये बनि आइहि लाय प्रीति नहिं तोरिया डोरा।।

      मन महं जाइ फकीरी करना।
रहे एकंत तंत लें लागा, राग निर्त नहिं सुनना।।
कथा चारचा पढै—सुनै नहि, नाहि बहुत बक बोलना।
ना थिर रहे जहां तह धावै, यह मन अहै हिंडोलना।।

सोमवार, 24 अगस्त 2015

अंतर्यात्रा-ध्‍यान शिविर-(प्रवचन--02)

मस्‍तिष्‍क से ह्रदय, ह्रदय से नाभि की और—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 3 फरवरी, 1968, दोपहर
साधना—शिविर--आजोल।

सुबह की बैठक में शरीर का वास्तविक केंद्र क्या है, इस संबंध में हमने थोड़ी सी बातें कीं।
न तो मस्तिष्क और न हृदय, बल्कि ' नाभि ' मनुष्य के जीवन का सर्वाधिक केंद्रीय और मूलभूत आधार है।
इस संबंध में कुछ और प्रश्न पूछे गए हैं, उनके संबंध में मैं थोड़ी बात करूंगा।

 मस्तिष्क के आधार पर निर्मित जो मनुष्य है, उसकी जीवन—दिशा और धारा गलत चली गई है। पिछले पांच हजार वर्षों में हमने केवल मस्तिष्क को ही, बुद्धि को ही दीक्षित और शिक्षित किया है। परिणाम बहुत घातक उपलब्ध हुए हैं। परिणाम ये उपलब्ध हुए हैं कि करीब—करीब सारे मनुष्य ही विक्षिप्तता के किनारे खड़े हो गए हैं।

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--09)

ऋत् है स्‍वभाव में जीना—(प्रवचन—नौंवां)

प्यारे ओशो!

ऋतस्‍य यथा प्रेत।

अर्थात् प्राकृत नियमों के अनुसार जीओ।
यह सूत्र ऋग्वेद का है।

 प्यारे ओशो! हमें इसका अभिप्रेत अर्थ समझाने की कृपा करें।

नंद मैत्रेय! यह सूत्र अपूर्व है। इस सूत्र में धर्म का सारा सार—निचोड़ है। जैसे हजारों गुलाब के फूलों से कोई इत्र निचोड़े, ऐसा हजारों प्रबुद्ध पुरुषों की सारी अनुभूति इस एक सूत्र में समायी हुई है। इस सूत्र को समझा तो सब समझा। कुछ समझने को फिर शेष नहीं रह जाता।

रविवार, 23 अगस्त 2015

अंतर्यात्रा-ध्‍यान शिविर--(प्रवचन--01)

अंतर्यात्रा (ओशो)

(साधना—शिविर, आजोल में हुए 8 प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरोएवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

साधना की पहली सीढ़ी: शरीर --(प्रवचन--पहला)
( दिनांक 3 फरवरी, 1968; सुबह, आजोल)
मेरे प्रिय आत्मन्!
साधना—शिविर की इस पहली बैठक में, साधक के लिए जो पहला चरण है, उस संबंध में ही मैं आपसे बात करना चाहूंगा।
साधक के लिए पहली सीढ़ी क्या है? विचारक के लिए सीढ़ियां अलग होती हैं, प्रेमी के लिए सीढ़ियां अलग होती हैं। साधक के लिए अलग ही यात्रा करनी होती है।
साधक के लिए पहली सीढ़ी क्या है?
साधक के लिए पहली सीढ़ी शरीर है। लेकिन शरीर के संबंध में न तो कोई ध्यान है, न शरीर के संबंध में कोई विचार है। और थोड़े समय से नहीं, हजारों वर्षों से शरीर उपेक्षित है। यह उपेक्षा दो प्रकार की है। एक तो उन लोगों ने शरीर की उपेक्षा की है, जिन्हें हम भोगी कहते हैं—जों जीवन में खाने—पीने और कपड़े पहनने के अतिरिक्त और किसी अनुभव को नहीं जानते। उन्होंने शरीर की उपेक्षा की है, शरीर का अपव्यय, शरीर को व्यर्थ खोया है, शरीर की वीणा को खराब किया है।

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--33

संभोग से ब्रह्मचर्य की यात्रा—(प्रवचन—तैतीसवां)

सूत्र—

48—काम—आलिंगन के आरंभ में उसकी आरंभिक
      अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए
अंत में उसके अंगारे से बचो।
49—ऐसे काम—आलिंगन में जब तुम्‍हारी इंद्रियां पत्‍तों
      की भांति कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश करो।
50—काम आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्‍मरण
      करके भी रूपांतरण होगा।
51—बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो
      हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन हो जाओ।
52—भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी
      का स्‍वाद ही बन जाओ,और उसमें भर जाओ।