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मंगलवार, 8 नवंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--036)

अंतश्चक्षु खोल—(प्रवचन—छत्‍तीसवां)

पहला प्रश्न :


मेरे व्यक्तित्व के दो हिस्से हैं; एक प्रतिदिन जमीन पर लेटकर आपको साष्टांग प्रणाम करता है और उससे सुखी होता है; और दूसरा प्राय: प्रतिदिन ही पूछ बैठता है कि तुम्हें क्या पता कि ये भगवान ही हैं! क्या दोनों मेरे अहंकार के हिस्से हैं और क्या श्रद्धा निर—अहंकार में ही जन्म लेती है?

न जहां तक है, वहां तक द्वंद्व भी रहेगा। मन बिना द्वंद्व के ठहर भी नही सकता; पलभर भी नहीं ठहर सकता। मन के होने का ढंग ही द्वंद्व है। वह उसके होने की बुनियादी शर्त है।
अगर तुम्हारे मन में प्रेम होगा तो साथ ही साथ कदम मिलाती घृणा भी होगी। जिस दिन घृणा विदा हो जाएगी, उसी दिन प्रेम भी विदा हो जाएगा।

एस धम्‍मों सनंतनो--(प्रवचन--035)

जीवन ही मार्ग है—(प्रवचन—पैतीसवां)  

सारसूत्र:

गतद्धिनो विसोकस्स विप्‍पमुतस्‍स सब्बाधिा।
सबगंथप्पहीनस्स परिलाहो न बिज्जति ।।81।।

उय्यज्‍जन्‍ति सतीमन्तो न निकेते रमति ते।
हंसा' व पल्‍ललं हित्वा ओकमोकं जहन्ति तो ।।82।।

ये सं सन्निचयो नत्थि ये परिज्जातभोजना ।
सुज्‍जतो अनिमित्तो व विमोक्खो यस्स गोचरो।
आकासे' व सकुन्तानं गति तेसं दुरन्नया ।।83।।


यस्सा'सवा परिक्सीणा आहारे व अनिस्सतो ।
सुज्‍जातो अनिमितो व विमोक्खो यस्स गोचरो।
आकासे'  व सकुन्तानं पदं तेस दुरन्नयं ।।84।।

सोमवार, 7 नवंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--034)

प्यासे को पानी की पहचान--(प्रवचन—चौतीसवां)

पहला प्रश्‍न—


क्‍या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है? क्या आप एक सदगुरू हैं? क्या आप परमात्मा को मुझ तक लाने में समर्थ है?

दीवानों की बस्ती में कोई समझदार आ गया! समझदारी से उठाए गए प्रश्नों का कोई मूल्य नहीं। नीचे लिखा है, सत्य का एक जिज्ञासु। न तो जिज्ञासा है, न खोज है; मान्यताओं से भरा हुआ मन होगा।
      जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि ईश्वर है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि धर्म है। जिज्ञासु को तो यह भी पता नहीं कि सदगुरु है। जिज्ञासु प्रश्न थोड़े ही पूछता है, जिज्ञासु अपनी प्यास जाहिर करता है।

      प्रश्न दो ढंग से उठते हैं : एक तो प्यास की भांति; तब उनका गुणधर्म और। और एक जानकारी से, बुद्धि भरी है कूडा—करकट से, उसमें से प्रश्न उठ आते हैं। पहला प्रश्न, 'क्या आपने धर्म को पूरी तरह पा लिया है?'

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--033)

एकला चलो रे—(प्रवचन—तैतीसवां)

सारसूत्र:

ये चखो सम्‍मदक्‍खाने धम्‍मे धम्‍मानुवत्‍तिनो ।
ते जना पारमेस्‍सन्‍ति मच्‍युधेय्यं सुदुत्‍तरं ।।77।।

कण्‍हं धम्‍मं विप्‍पहाय सुक्‍कं भविथ पंड़ितो ।
ओका अनौकं आगम्‍म विवेके यत्‍थ दूरमं ।।78।।

तत्रभिरतिमिच्‍छेय्य हित्‍वा कामे अकिंचनो ।
परियोदपेय्य अत्‍तनं चित्‍तक्‍लेसेहि पंड़िता ।।79।।

ये सं सम्‍बोधि-अड्गे सु समा चितं सुभावितं ।
आदान-परिनिस्‍सग्‍गे अनुपादाय ये रता।
रवीणासवा जुतीमंतो ते लोके परिनिब्‍बुता ।।80।।

रविवार, 6 नवंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--032)

तू आप है अपनी रोशनाई—(प्रवचन—बत्‍तीसवां)

पहला प्रश्‍न—

मेरी समझ में कुछ नहीं आता। कभी लगता है कि पूछना क्या है, सब ठीक है; और कभी प्रश्न ही प्रश्न सामने होते हैं।

मझ की बहुत बात भी नहीं। समझने का बहुत सवाल भी नहीं। जो समझने में ही उलझा रहेगा, नासमझ ही बना रहेगा।
      जीवन कुछ जीने की बात है, स्वाद लेने की बात है। समझ का अर्थ ही होता है कि हम बिना स्वाद लिए समझने की चेष्टा में लगे हैं, बिना जीए समझने की चेष्टा में लगे हैं। बिना भोजन किए भूख न मिटेगी। समझने से कब किसकी भूख मिटी? और भूख मिट जाए तो समझने की चिंता कौन करता है!

      आदमी ने एक बड़ी बुनियादी भूल सीख ली है—वह है, जीवन को समझ के द्वारा भरने का। जीवन कभी समझ से भरता नहीं; धोखा पैदा होता है।
      प्रेम करो तो प्रेम को जानोगे। प्रार्थना करो तो प्रार्थना को जानोगे।
      अहंकार की सीढ़िया थोड़ी उतरो तो निरहंकार को जानोगे।
      डूबो, मिटो, तो परमात्मा का थोड़ा बोध पैदा होगा।

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--031)

तप्रज्ञ, सत्पुरुष है—(प्रवचन-इक्‍तीसवां)  

 सारसूत्र:

सब्‍बत्थ वे सप्‍परिसा चजान्ति न कामकामा लपयन्ति संतो
सुखेन फुठ्ठा अथवा दुखेन न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति ।।74।।

न अत्‍तहेतु न परस्स हेतु न पुत्‍तमिच्‍छे न धनं न रठ्ठं ।
नइच्‍छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो सीलवा पन्जवा धम्मिको सिया ।।75।।

अप्‍पका ते मनुस्‍सेयु ये जना पारगामिनो ।
अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति ।।76।।
क प्राचीन कथा है जंगल की राह से एक जौहरी गुजरता था। देखा उसने राह में, एक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चल रहा है। चकित हुआ! पूछा कुम्हार से, कितने पैसे लेगा इस पत्थर के? कुम्हार ने कहा, आठ आने मिल जाएं तो बहुत। लेकिन जौहरी को लोभ पकड़ा। उसने कहा, चार आने में दे—दे, पत्थर है, करेगा भी क्या?

एस धम्‍मो सनंतनो--ओशो (भाग--04)

एस धम्‍मो सनंतनो
भाग—4

ओशो




 एक ऐसी यात्रा पर तुम्‍हें ले चल रहा हूं, जिसकी शुरूआत तो है, लेकिन जिसका अंत नहीं। एक अंतहीन यात्रा है जीवन की; उस अनंत यात्रा का नाम परमात्‍मा है। उस अनंत यात्रा को खोज लेने की विधियों का धर्म है। एस धम्‍मो सनंतनो।


ओशो

शनिवार, 24 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--018)

विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक—
(प्रवचन—अट्ठारवांअध्‍याय—1—2
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। ६५।।
उस निर्मलता के होने पर इसके संपूर्ण दुखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र ही अच्छी प्रकार स्थिर हो जाती है।

विक्षेपरहित चित्त में शुद्ध अंतःकरण फलित होता है? या शुद्ध अंतःकरण विक्षेपरहित चित्त बन जाता है? कृष्ण जो कह रहे हैं, वह हमारी साधारण साधना की समझ के बिलकुल विपरीत है। साधारणतः हम सोचते हैं कि विक्षेप अलग हों, तो अंतःकरण शुद्ध होगा। कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध हो, तो विक्षेप अलग हो जाते हैं।
यह बात ठीक से न समझी जाए, तो बड़ी भ्रांतियां जन्मों-जन्मों के व्यर्थ के चक्कर में ले जा सकती हैं। ठीक से काज और इफेक्ट, क्या कारण बनता है और क्या परिणाम, इसे समझ लेना ही विज्ञान है। बाहर के जगत में भी, भीतर के जगत में भी। जो कार्य-कारण की व्यवस्था को ठीक से नहीं समझ पाता और कार्यों को कारण समझ लेता है और कारणों को कार्य बना लेता है, वह अपने हाथ से ही, अपने हाथ से ही अपने को गलत करता है। वह अपने हाथ से ही अपने को अनबन करता है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--017)

मन के अधोगमन और ऊर्ध्वगमन की सीढ़ियां—

(प्रवचन—सत्रहवांअध्‍याय—1—2
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। ६२।।
विषयों को चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है। और कामना में विघ्न पड़ने से
क्रोध उत्पन्न होता है।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। ६३।।

क्रोध से मोह उत्पन्न होता है। और मोह से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है। और स्मरणशक्ति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है। और बुद्धि के नाश होने से यह पुरुष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है।

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--016)

विषय-त्याग नहीं-- रस-विसर्जन मार्ग है—

(प्रवचन—सोलहवां) अध्‍याय—1—2

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।। ५६।।
तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है मन जिसका और सुखों की प्राप्ति में दूर हो गई है स्पृहा जिसकी, तथा नष्ट हो गए हैं--राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि कहा जाता है।

समाधिस्थ कौन है? स्थितधी कौन है? कौन है जिसकी प्रज्ञा थिर हुई? कौन है जो चंचल चित्त के पार हुआ? अर्जुन ने उसके लक्षण पूछे हैं। कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता...।
दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर सिर्फ वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख की चाह जहां है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के फूल चाहिए, उसे दुख के कांटों के लिए तैयार होना ही पड़ता है।
इसलिए पहली बात कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पृहा नहीं है, सुख की जिसे आकांक्षा नहीं है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--015)

मोह-मुक्ति, आत्मत्तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता—

(प्रवचन—पंद्रहवांअध्‍याय—1—2

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।। ५२।।
और हे अर्जुन, जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूप दलदल को बिलकुल तर जाएगी, तब तू सुनने योग्य और सुने हुए के वैराग्य को प्राप्त होगा।

 मोहरूपी कालिमा से जब बुद्धि जागेगी, तब वैराग्य फलित होता है। मोहरूपी कालिमा से! मनुष्य के आस-पास कौन-सा अंधकार है?
एक तो वह अंधकार है, जो दीयों के जलाने से मिट जाता है। धर्म से उस अंधकार का कोई भी संबंध नहीं है। वह हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है, नहीं हो तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। फिर धर्म किस अंधकार को मिटाने के लिए चेष्टारत है?
एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य के शरीर को नहीं घेरता, वरन मनुष्य की चेतना को घेर लेता है। एक और भी अंधकार है, जो मनुष्य की आत्मा के चारों तरफ घिर जाता है। उस अंधकार को कृष्ण कह रहे हैं, मोहरूपी कालिमा। तो अंधकार और मोह इन दो शब्दों को थोड़ा गहरे में समझना उपयोगी है।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--014)

फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद—
(प्रवचन—चौदहवां) अध्‍याय—1—2 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।। ४७।।
इससे तेरा कर्म करने मात्र में ही अधिकार होवे, फल में कभी नहीं, और तू कर्मों के फल की वासना वाला भी मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी प्रीति न होवे

 कर्मयोग का आधार-सूत्र: अधिकार है कर्म में, फल में नहीं; करने की स्वतंत्रता है, पाने की नहीं। क्योंकि करना एक व्यक्ति से निकलता है, और फल समष्टि से निकलता है। मैं जो करता हूं, वह मुझसे बहता है; लेकिन जो होता है, उसमें समस्त का हाथ है। करने की धारा तो व्यक्ति की है, लेकिन फल का सार समष्टि का है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, करने का अधिकार है तुम्हारा, फल की आकांक्षा अनधिकृत है।

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--013)

काम, द्वंद्व और शास्त्र से--निष्काम, निर्द्वंद्व और स्वानुभव की ओर—
(प्रवचन—तेरहवां)  अध्‍याय—1—2

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। ४२।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।। ४३।।
हे अर्जुन, जो सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने वाले, स्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वाले, इससे बढ़कर कुछ नहीं है--ऐसे कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौविधीयते।। ४४।।
उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वाले, तथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वाले, उन पुरुषों के अंतःकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है।

गीता दर्शन--(प्रवचन--012)

निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया
(प्रवचन—बारहवां)  अध्‍याय—1—2

एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।। ३९।।
हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।
अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। होंगे ही अनंत, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे हैं; जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी।
सांख्य की दृष्टि गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का मार्ग है। इसे थोड़ा समझ लें, तो फिर आगे दूसरे मार्ग समझना आसान हो जाएगा।

बुधवार, 14 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--011)

अर्जुन का जीवन शिखर--युद्ध के ही माध्यम से—
(प्रवचन—ग्‍यारहवांअध्‍याय—1—2

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः
येषांत्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।। ३५।।
और जिनके लिए तू बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।। ३६।।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। ३७।।

तेरे बैरी तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे। फिर उससे अधिक दुख क्या होगा? इसलिए युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है। क्योंकि या तो मरकर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा, अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इससे हे अर्जुन, युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर खड़ा हो।

गीता दर्शन--(प्रवचन--010)

जीवन की परम धन्यता--स्वधर्म की पूर्णता में—
(प्रवचन—दसवां)  अध्‍याय—1—2

प्रश्न: भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक पर सुबह बात हुई--
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना।।
इसमें कहा गया है कि आदि में अप्रकट, अंत में अप्रकट और मध्य में प्रकट है जो, तो यह जो मैनिफेस्टेड है, प्रकट है, इसमें ही द्वैतता का अनुभव होता है। और जो अप्रकट है, उसमें अद्वैत का दर्शन किया जाता है। तो यह जो मध्य में मैनिफेस्टेड है, उसमें जो द्वैतता है, डुअलिज्म है, उसका परिहार करने के लिए आप कोई विशेष प्रक्रिया का सूचन देंगे?

अव्यक्त है प्रारंभ में, अव्यक्त है अंत में; मध्य में व्यक्त का जगत है।
जिब्रान ने कहीं कहा है, एक रात, अंधेरी अमावस की रात में, एक छोटे-से झोपड़े में बैठा था, मिट्टी का एक दीया जलाकर। टिमटिमाती थोड़ी-सी रोशनी थी। द्वार के बाहर भी अंधकार था। भवन के पीछे के द्वार के बाहर भी अंधकार था। सब ओर अंधकार था। केवल उस छोटे-से झोपड़े में उस दीए की थोड़ी-सी रोशनी थी।

सोमवार, 12 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--009)

आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन
(प्रवचन—नौवांअध्‍याय—1—2

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
चैनं क्लेदयन्त्यापोशोषयति मारुतः।। २३।।
हे अर्जुन, इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काट सकते हैं और इसको आग नहीं जला सकती है तथा इसको जल नहीं गीला कर सकता है और वायु नहीं सुखा सकता है।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।। २४।।
क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है तथा यह आत्मा निःसंदेह नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।। २५।।

गीता दर्शन--(प्रवचन--008)

मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा—
(प्रवचन—आठवांअध्‍याय—1—2

प्रश्न: भगवान श्री,
एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्
उभौ तौविजानीतो नायं हन्तिहन्यते।।
इस श्लोक के बारे में सुबह जो चर्चा हुई, उसमें आत्मा यदि हननकर्ता नहीं या हनन्य भी नहीं है, तो जनरल डायर या नाजियों के कनसनट्रेशन कैंप की घटनाएं कैसे जस्टिफाई हो सकती हैं! टोटल एक्सेप्टिबिलिटी में इनकी क्या उपादेयता है?


 न कोई मरता है और न कोई मारता है; जो है, उसके विनाश की कोई संभावना नहीं है। तब क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि हिंसा करने में कोई भी बुराई नहीं है? क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि जनरल डायर ने या आउश्वित्ज में जर्मनी में या हिरोशिमा में जो महान हिंसा हुई, वह निंदा योग्य नहीं है? स्वीकार योग्य है?

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--007)

भागना नहीं--जागना है—(प्रवचन—सातवां)

अध्‍याय—1—2

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।। १६।।
और हे अर्जुन, असत (वस्तु) का तो अस्तित्व नहीं है और सत का अभाव नहीं है। इस प्रकार, इन दोनों को हम तत्व-ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है।

क्या है सत्य, क्या है असत्य, उसके भेद को पहचान लेना ही ज्ञान है, प्रज्ञा है। किसे कहें है और किसे कहें नहीं है, इन दोनों की भेद-रेखा को खींच लेना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। क्या है स्वप्न और क्या है यथार्थ, इसके अंतर को समझ लेना ही मुक्ति का मार्ग है। कृष्ण ने इस वचन में कहा है, जो है, और सदा है, और जिसके न होने का कोई उपाय नहीं है, जिसके न होने की कोई संभावना ही नहीं है, वही सत है, वही रियल है। जो है, लेकिन कभी नहीं था और कभी फिर नहीं हो सकता है, जिसके न हो जाने की संभावना है, वही असत है, वही अनरियल है।