पूर्णता एवं शून्यता का एक ही अर्थ है-
प्रवचन-अस्सीवां
प्रश्नसार:
1-यदि भीतर शून्य है तो इसे आत्मा क्यों कहते है?2-बुद्ध पुरूष निर्णय कैसे लेता है?
3-संत लोग शांत जगहों पर क्यों रहते है?
4-आप कैसे जानते है कि चेतना शाश्वत है?
5-मेरे बुद्धत्व से संसार में क्या फर्क पड़ेगा?
पहला प्रश्न :
आपने कहा कै हमारे भीतर वास्तव में कोई भी नहीं है। बस एक शून्य है? एक रिक्तता
है। परंतु फिर आप इसे प्राय: आत्मा अथवा केंद्र कह कर क्यों पुकारते हैं?
या अनात्मा, ना-कुछ या सब कुछ, विरोधाभासी लगते हैं, पर दोनों का एक ही अर्थ है। पूर्ण और शून्य का एक ही अर्थ है। शब्दकोश में वे विपरीत हैं पर जीवन में नहीं। इसे इस तरह समझो : यदि मैं कहूं कि मैं सबको प्रेम करता हूं या मैं कहूं कि मैं किसी को भी प्रेम नहीं करता तो इसका एक ही अर्थ होगा। यदि मैं किसी एक व्यक्ति को ही प्रेम करूं तभी अंतर पड़ेगा। यदि मैं सबको प्रेम करूं तो वह किसी को भी प्रेम न करने जैसा ही है। फिर कोई अंतर नहीं है। अंतर सदा मात्रा में होता है,