दिनांक 22 मार्च, 1979;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—भगवान! मेरे
आंसू स्वीकार करें। जा रही हूं आपकी नगरी से। कैसे जा रही हूं, आप ही जान सकते हैं। मेरे जीवन में दुख ही दुख था। कब और कैसे क्या हो गया,
जो मैं सोच भी नहीं सकती थी; अंदर बाहर खुशी
के फव्वारे फूटे रहे हैं! आपने मेरी झोली अपनी खुशियों से भर दी है, मगर हृदय में गहन उदासी है और जाने का सोचकर तो सांस रुकने लगी हैं। आप हर
पल मेरे रोम-रोम में समाए हुए हैं। मुझे बल दें कि जब तक आपका बुलावा नहीं आता,
मैं आपसे दूर रह सकूं।
2—मैं परमात्मा
को पाना चाहता हूं, क्या करना आवश्यक है?
3—भगवान! आपके
प्रवचन में सुना कि एक जैन मुनि आपकी शैली में बोलने की कोशिश करते हैं तोते की
भांति। पर यह मुनि ही नहीं, बहुत-बहुत से
महानुभवों को यह करते देख रहे हैं। चुपके-चुपके वे आपकी किताबें पढ़ते हैं, फिर बाहर घोर विरोध भी करते हैं। और बुरा तो तब बहुत लगता है जब आपके
विचारों को अपना अहंकार बताते हैं, छपवाते हैं--फिर इतराते
हैं। ऐसे तथाकथित प्रतिभाशालियों के पाखंड को सहा नहीं जाता तो क्या करें?
4—भगवान! आपको
सुनते-सुनते आंसू क्यों बहने लगते हैं?