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गुरुवार, 30 जून 2016

अमी झरत बिसगत कंवल--(प्रवचन--12)

नया मनुष्य—(प्रवचन—बारहवां)
दिनांक 22 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! मेरे आंसू स्वीकार करें। जा रही हूं आपकी नगरी से। कैसे जा रही हूं, आप ही जान सकते हैं। मेरे जीवन में दुख ही दुख था। कब और कैसे क्या हो गया, जो मैं सोच भी नहीं सकती थी; अंदर बाहर खुशी के फव्वारे फूटे रहे हैं! आपने मेरी झोली अपनी खुशियों से भर दी है, मगर हृदय में गहन उदासी है और जाने का सोचकर तो सांस रुकने लगी हैं। आप हर पल मेरे रोम-रोम में समाए हुए हैं। मुझे बल दें कि जब तक आपका बुलावा नहीं आता, मैं आपसे दूर रह सकूं।
2—मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं, क्या करना आवश्यक है?

3—भगवान! आपके प्रवचन में सुना कि एक जैन मुनि आपकी शैली में बोलने की कोशिश करते हैं तोते की भांति। पर यह मुनि ही नहीं, बहुत-बहुत से महानुभवों को यह करते देख रहे हैं। चुपके-चुपके वे आपकी किताबें पढ़ते हैं, फिर बाहर घोर विरोध भी करते हैं। और बुरा तो तब बहुत लगता है जब आपके विचारों को अपना अहंकार बताते हैं, छपवाते हैं--फिर इतराते हैं। ऐसे तथाकथित प्रतिभाशालियों के पाखंड को सहा नहीं जाता तो क्या करें?
4—भगवान! आपको सुनते-सुनते आंसू क्यों बहने लगते हैं?

पध घुंघरू बांध--(प्रवचन--02)

समाधि की अभिव्यक्तियां—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न-सार
1—न जाने वाली और आने-जाने वाली मस्ती क्या अलग-अलग हैं?
2—कभक्ति के मार्ग में साधु-संगति का इतना क्यों मूल्य है?
3—कई मनस्विद कहते हैं कि प्रेम मूलतः जैविक है, जो कि मनुष्य में दमन के कारण मानसिक हो जाता है।...?
4—भक्त की भाव-दशा के संबंध में कुछ कहें।
5—आप पूना पधारे, इसमें हमारी क्या पात्रता है? और आपके सामीप्य में मैं पूरा रूपांतरित नहीं हुआ, इसका पूरा का पूरा जिम्मा भी मेरा है। फिर भी जो आपने दिया है, वह बहुत है। मैं अनुगृहीत हूं।
6—क्या आप ईश्वर के होने का कोई प्रमाण दे सकते हैं?

बुधवार, 29 जून 2016

अमी झरत बिगसत कंवल--(प्रवचन--11)

एक राम सारै सब काम—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)
दिनांक 21 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
आदि अनादी मेरा सांई।
द्रष्टा न मुष्ट है अगम अगोचर, यह सब माया उनहीं माई।।
जो बनमाली सींचै मूल, सहजै पिवै डाल फल फूल।।
जो नरपति को गिरह बुलावै, सेना सकल सहज ही आवै।।
जो काई कर भान प्रकासै, तौ निस तारा सहजहि नासै।
गरुड़ पंख जो घर में लावै, सर्प जाति रहने नहिं पावै।।
दरिया सुमरै एक हि राम, एक राम सारै सब काम।।
आदि अंत मेरा है राम। उन बिन और सकल बेकाम।।

कहा करूं तेरा बेद पुरान।। जिन है सकल जगत भरमान।।
कहा करूं तेरी अनुभै-बानी। जिन तें मेरी सुद्धि भुलानी।।
कहा करूं ये मान बड़ाई। राम बिना सबही दुखदाई।।
कहा करूं तेरा सांख औ जोग। राम बिना सब बंदन रोग।।
कहा करूं इंद्रिन का सुक्ख। राम बिना देवा सब दुक्ख।।

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--01)

प्रेम की झील में नौका-विहार—(प्रवचन—पहला)

सूत्र:

बसौ मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरत सांवरी सूरत, नैना बने बिसाल।
मोर मुकुट मकराकृति कुंडल, अरुण तिलक शोभे भाल।
अधर सुधारस मुरली राजति, उर वैजंति माल।
छुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बच्छल गोपाल।

हरि मोरे जीवन प्राण आधार।
और आसिरो नाहिं तुम बिन, तीनूं लोक मंझार।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै, निरखौ सब संसार।
मीरा कहै मैं दास रावरी, दीज्यौ मति विसार।


मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।
छाड़ि दई कुल की कानि, कहा करि है कोई।
संतन ढिंग बैठि बैठि लोकलाज खोई।
अंसुवन जल सींचि सींचि, प्रेम-बेलि बोई।
अब तो बेलि फैल गई, आनंद फल होई।
भगत देख राजी हुई, जगत देख रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोहि।

पद घुंघरू बांध--(मीरा बाई)

पद घुंघरू बाँध—(मीरा बाई)
ओशो
(ओशो द्वारा मीरा बाई के पदों पर दिये गये बीस अमृत प्रवचनों का अमुल्‍य संकलन)

प्रेम मीरा की इस झील में तुम्हें निमंत्रण देता हूं। मीरा नाव बन सकती है। मीरा के शब्द तुम्हें डूबने से बचा सकते हैं। उनके सहारे पर उस पार जा सकते हो।
मीरा तीर्थंकर है। उसका शास्त्र प्रेम का शास्त्र है। शायद शास्त्र कहना भी ठीक नहीं।
नारद ने भक्ति-सूत्र कहे; वह शास्त्र है। वहां तर्क है, व्यवस्था है, सूत्रबद्धता है। वहां भक्ति का दर्शन है।
मीरा स्वयं भक्ति है। इसलिए तुम रेखाबद्ध तर्क न पाओगे। रेखाबद्ध तर्क वहां नहीं है। वहां तो हृदय में कौंधती हुई बिजली है। जो अपने आशियाने जलाने को तैयार होंगे, उनका ही संबंध जुड़ पाएगा।

प्रेम से संबंध उन्हीं का जुड़ता है, जो सोच-विचार खोने को तैयार हों; जो सिर गंवाने को उत्सुक हों। उस मूल्य को जो नहीं चुका सकता, वह सोचे भक्ति के संबंध में, विचारे; लेकिन भक्त नहीं हो सकता।

मंगलवार, 28 जून 2016

अमी झरत बिगसत कंवल--(प्रवचन--10)

यह मशाल जलेगी—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक 20 मार्च 1979, श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! आपने एक प्रवचन में कहा है कि भारत अपने आध्यात्मिक मूल्यों में गिरता जा रहा है। कृपया बताएं कि आगे कोई आशा की किरण नजर आती है?
2—भगवान! आज के प्रवचन में अणुव्रत की आपने बात की। मेरा जन्म उसी परिवार से है, जो आचार्य तुलसी का अनुयायी है। बचपन से ही आचार्य तुलसी के उपदेशों ने कभी हृदय को नहीं हुआ। अभी उन्होंने अपना उत्तराधिकारी आचार्य मुनि नथमल को आचार्य महाप्रज्ञ नाम देकर बनाया है। वे ठीक आपकी स्टाइल में प्रवचन देते हैं मगर उन्होंने भी कभी हृदय को नहीं छुआ। और आपके प्रथम प्रवचन को सुनते ही आपके चरणों में समर्पित होने का भाव पूरा हो गया और समर्पण कर दिया।

3—मैं दुख से इतना परिचित हूं कि सुख का मुझे भरोसा ही नहीं आता। एक दुख गया कि दूसरा आया, बस ऐसे ही सिलसिला चलता रहता है। क्या कभी मैं सुख के दर्शन पा सकूंगा? मार्ग दिखाएं कि सुख पाने के लिए क्या करूं? मैं सब कुछ करने को तैयार हूं।
4—भगवान! मुझे वह इक नजर, इक जाविदानी सी नजर दे दे, बस एक नजर जो अमृत के पहचान ले।

रविवार, 26 जून 2016

अमी झरत बिगसत कंवल--(प्रवचन--09)

मेरे सतगुर कला सिखाई—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 16 मार्च, 1079;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
जाके उर उपजी नहिं भाई। सो क्या जानै पीर पराई।।
ब्यावर जाने पीर की सार। बांझ सर क्या लखे बिकार।।
पतिव्रता पति को ब्रत जानै। बिभचारिन मिल कहा बखानै।।
हीरा पारख, जौहारि पावै। मूरख निरख के कहा बतावै।।
लागा घाव कराहै सोई। कोतगहार के दर्द न कोई।।
रामनाम मेरा प्रान—अधार। सोइ रामरस—पीवनहार।।
जन दरिया जानेगा सोई। प्रेम की भाल कलेजे पोई।।
जो धुनियां तौ मैं भी राम तुम्हारा।

अधम कमीन जाति मतिहीना तुम तौ हौ सिरताज हमारा।।
काया का जंत्र सब्द मन मुठिया सुषमन तांत चढ़ाई।।
गगन—मंडल में धुनुआं बैठा सतगुर कला सिखाई।।
पाप—पान हरि कुबुधि—कांकड़ा सहज सहज झड़ जाई।।
घुंडी गांठ रहन नहिं पावै इकरंगी होय आई।।
इकरंग हुआ भरा हरि चोला हरि कहै कहा दिलाऊं।।
मैं नाही केहनत का लोभी बकसो मौज भक्ति निज पाऊं।।
किरपा करि हरि बोले बानी तुम तौ हौ मन दास।।
दरिया कहै मेरे आतम भीतर मेली राम भक्ति—बिस्तास।।

शनिवार, 25 जून 2016

अमी झरत बिगसत कंवल--(प्रवचन--08)

सृजन की मधुर वेदना—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक १८ मार्च, १९७९;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! संतों के अनुसार वैराग्य के उदय होने पर ही परमात्मा की ओर यात्रा संभव है और आप कहते हैं कि संसार में रहकर धर्म साधना संभव है। इस विरोधाभास पर कुछ कहने की अनुकंपा करें।
2—भगवान! कभी झील में उठा कंवल देख आंदोलित हो उठता हूं, कभी अचानक कोयल की कूक सुन हृदय गदगद हो आता है, कभी बच्चे की मुसकान देख विमुग्ध हो जाता हूं। तब ऐसा लगता है जैसे सब कुछ थम गया; न विचार न कुछ। भगवान, लगता है ये क्षण कुछ कुछ संदेश लाते हैं, वह क्या होगा?

3—भगवान! यह शिकायत मत समझना, आपकी एक जिंदादिल भक्त की प्रेम—पुकार है।
आपसे दूर रहकर दिल पर क्या गुजरती है वह आप ही समझ सकेंगे।
दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुख सहते हैं,
हमने सुना था इस बस्ती में दिलवाले भी रहते हैं,
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं,
दुनिया वाले दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं।
बीत गया सावन का महीना मौसम ने नजरें बदलीं
लेकिन इन प्यासी आंखों से अब तक आंसू बहते हैं,
जिनके खातिर शहर भी छोड़ा जिनके लिए बदनाम हुए
आज वही हमने बेगाने से रहते हैं।

शुक्रवार, 24 जून 2016

अमी झरत बिगसत कंवल--(प्रवचन--07)

जागे सो सब से न्यारा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 17 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:  
सब जग सोता सुध नहिं पावै। बोलै सो सोता बरड़ावै।।
संसय मोह भरम की रैन। अंधधुंध होय सोते अन।।
तीर्थ-दान जग प्रतिमा-सेवा। यह सब सुपना लेवा-देवा।।
कहना सुनना हार औ जीत। पछा-पछा सुपनो विपरती।।
चार बरन औ आस्रम चार। सुपना अंतर सब ब्यौहार।।
षट दरसन आदि भेद-भाव। सपना अंतर सब दरसाव।।
राजा राना तप बलवंता। सुपना माहीं सब बरतंता।।
पीर औलिया सबै सयाना। ख्याब माहिं बरतै बिध नाना।।
काजी सैयद औ सुलतान। ख्याब माहिं सब करत पयाना।।

गुरुवार, 23 जून 2016

अमीत झरत बिगत कंवल--(प्रवचन--06)

अपने माझी बनो—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक 16 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
      प्रश्‍नसार:
1—भगवान! उपनिषद कहते हैं कि सत्य को खोजना खड्ग की धार पर चलने जैसा है। संत दरिया कहते हैं कि परमात्मा की खोज में पहले जलना ही जलना है। और आप कहते हैं कि गाते नाचते हुए प्रभु के मंदिर की और आओ। इन में कौन सा दृष्टिकोण सम्यक है?
2—वो नगमा बुलगुले रंगी नवा इक बार हो जाए।
कली की आंख खुल जाए चमन बेदार हो जाए।।
3—भगवान! आपको सुनता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी सुना है। देखता हूं तो लगता है कि पहले भी कभी देखा है। वैसे मैं पहली ही बार यहां आया हूं, पहली ही बार आपको सुना और देखा है। मुझे यह क्या हो रहा है?
4—आप कुछ कहते हैं, लोग कुछ और ही समझते हैं! यह कैसे रुकेगा?
5—आपका मूल संदेश क्या है?

बुधवार, 22 जून 2016

अमी झरत बिसगत कंवल--(प्रवचन--05)

जागे में फिर जागना—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक १५ मार्च, १९७९;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
तज बिकार आकार तज, निराकार को ध्यान।
निराकार में पैठकर, निराधार लौ लाय।।
प्रथम ध्यान अनुभौ करै, जासे उपजै ग्यान।
दरिया बहुत करत हैं, कथनी में गुजरान।।
पंछी उड़ै गगन में, खोज मंडै नहिं मांहिं।
दरिया जल में मीन गति, मारग दरसै नहिं।।
मन बुधि चित पहुंचै नहीं, सब्द सकै नहिं जाय।
दरिया धन वे साधवा, जहां रहे लौ लाय।।
किरकांटा किस काम का, पलट करे बहुत रंग।

शुक्रवार, 17 जून 2016

अमी झरत बिसगत कंवल–(प्रवचन–04)

संसार की नींव, संन्यास के कलश—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक 14 मार्च 1979;
श्री रजनीश, पूना
प्रश्‍नसार:
1—भगवान! खाओ, पियो और मौज उड़ाओ--चार्वाकों का यह प्रसिद्ध संसार-सूत्र है। नाचो, गाओ और उत्सव मनाओ--यह आपका संन्यास सूत्र है। संसार सूत्र और संन्यास सूत्र के इस भेद को कृपा कर के हमें समझाएं।
2—बंबई के एक गुजराती भाषा के पत्रकार और लेखक श्री कांति भट्ट ने कृष्णमूर्ति के प्रवचन में आए हुए बंबई के लोगों को बुद्धिमत्ता का अर्क कहा है। श्री कांति भट्ट आपसे भी बंबई में मिल चुके हैं और यहां आश्रम में भी आए थे। लेकिन उन्होंने आपके पास आने वाले लोगों को कभी बुद्धिमान नहीं कहा। आप इस बाबत कुछ कहने की कृपा करेंगे।
3—संतों की वीणा में इतना रस किस स्रोत से आता है? और संतों की वाणी से इतनी तृप्ति और आश्वासन क्यों मिलता है?

गुरुवार, 16 जून 2016

अमी झरत बिसगत कंवल–(प्रवचन–03)

बिरहिन का घर बिरह में—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 13 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
दरिया हरि करिपा करी, बिरहा दिया पठाय।
यह बिरहा मेरे साध को सोता लिया जगाए।
दरिया बिरही साध का, तन पीला मन सूख।
रैन न आवै नींदड़ी, दिवस न लागै भूख।।
बिरहिन पिउ के कारने, ढूंढन बनखंड जाए।
निस बीती, पिउ ना मिला, दरद रही लिपटाय।।
बिरहिन का घर बिरह में, ता घट लोहु न मांस।
अपने साहब कारने, सिसकै सांसों सांस।

बुधवार, 15 जून 2016

अमीत झरत बीसगत कवंल--(प्रवचन--02)

कितना है जीवन अनमोल—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 12 मार्च, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्‍नसार—
1—भगवान! णमो णमो भगवान, फिर—फिर भूले को, चक्र में पड़े को शब्द की गूंज से, जागृति की चोट से, ज्ञानियों की व्याख्या से; विवेक स्मृति, सुरति, आत्म—स्मरण और जागृति की गूंज से फिर चौंका दिया भगवान! णमो णमो भगवान!
2—मानव जीवन की संतों ने इतनी महिमा क्यों गायी है?
3—जीवन सत्य है या असत्य?
4—भगवान! बलिहारी प्रभु आपकी
अंतर—ध्यान दिलाय।

मंगलवार, 14 जून 2016

अमी झरत बिसगत कंवल--(प्रवचन--01)

नमो नमो हरि गुरु नमो—(पहला—प्रवचन)
 
दिनांक 11 मार्च, 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र—
नमो नमो हरि गुरु नमो, नमो नमो सब संत।
जन दरिया बंदन करै, नमो नमो भगवंत।।
दरिया सतगुर सब्द सौं, मिट गई खैंचातान।
भरम अंधेरा मिट गया, परसा पद निरबान।।
सोता था बहु जन्म का, सतगुरु दिया जगाय।
जन दरिया गुर सब्द सौं, सब दुख गये बिलाय।।
रात बिना फीका लगै, सब किरिया सास्तर ग्यान।
दरिया दीपक कह करै, उदय भया निज भान।।

दरिया नरत्तन पायकर, कीया चाहै काज।
राव रंक दोनों तरैं, जो बैठैं नाम—जहाज।।
मुसलमान हिंदू कहा, पट दरसन रंक राव।
जन दरिया हरिनाम बिन, सब पर जम का दाव।।

अमी झरत बिगसत कंवल—(दरिया)

अमी झरत बिगसत कंवल—(दरिया दास )


(ओशो द्वारा संत दरिया वाणी पर दिये गये 14 प्रवचनों का अमृत संकलन)
11,मई 1979 tसे 24, मई  1979 पूना ओशो   
नमो नमो हरि गुरु नमो, नमो नमो सब संत। 
जन दरिया बंदन करै, नमो नमो भगवंत।।
दरिया कहते हैं: पहला नमन गुरु को। और गुरु को हरि कहते हैं। नमो नमो हरि गुरु नमो! यह दोनों अर्थों में सही है। पहला अर्थ कि गुरु भगवान है और दूसरा अर्थ कि भगवान ही गुरु है। गुरु से बोल जाता है, वह वही है जिसे तुम खोजने चले हो। वह तुम्हारे भीतर भी बैठा है उतना ही जितना गुरु के भीतर लेकिन तुम्हें अभी बोध नहीं, तुम्हें अभी उसकी पहचान नहीं। गुरु के दर्पण में अपनी छवि को देखकर पहचान हो जाएगी। गुरु तुमसे वही कहता है जो तुम्हारे भीतर बैठा फिर भी तुमसे कहना चाहता है। मगर तुम सुनते नहीं।

शुक्रवार, 10 जून 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--19)

पलटू फूला फूल--(प्रवचन--उन्‍नीसवां)
दिनांक 29 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र :

वृच्छा फरैं न आपको, नदी न अंचवै नीर।
परस्वारथ के कारने, संतन धरै सरीर।।
बड़े बड़ाई में भुले, छोटे हैं सिरदार।
पलटू मीठो कूप-जल, समुंद पड़ा है खार।।
हिरदे में तो कुटिल है, बोलै वचन रसाल।
पलटू वह केहि काम का, ज्यों नारुन-फल लाल।।
सब तीरथ में खोजिया, गहरी बुड़की मार।
पलटू जल के बीच में, किन पाया करतार।।

पलटू जहवां दो अमल, रैयत होय उजाड़।
इक घर में दस देवता, क्योंकर बसै बजार।।
हिंदू पूजै देवखरा, मुसलमान महजीद।
पलटू पूजै बोलता, जो खाय दीद बरदीद।।
चारि बरन को मेटिकै, भक्ति चलाया मूल।
गुरु गोविंद के बाग में, पलटू फूला फूल।।

गुरुवार, 9 जून 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--18)

कस्मै देवाय हविषा विधेम—(प्रवचन—अट्ठारवां)
दिनांक 28 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार

।--कविता को एक नई विधा, एक नया आयाम देने वाले श्री गिरजाकुमार माथुर, मेरे गांव अशोकनगर के निवासी हैं। इन दिनों भी वहीं रहते हैं। आप में उनकी रुचि है। कुछ किताबें भी पढ़ी हैं, टेप-प्रवचन में भी रुचि दिखाते हैं। कहते हैं--एक बार साक्षात्कार की उत्सुकता तो है, परंतु उनका व्यक्तित्व विवादास्पद होने के कारण घबड़ाता हूं। उचित समझें तो कुछ कहने की कृपा करें।

2—जीवन इतना उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है? सभी कुछ अस्तव्यस्त है।
इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?


3—कोई दस हजार वर्ष पहले वेद के ऋषियों ने एक प्रश्न पूछा था--कस्मै देवाय हविषा विधेम? हम किस देव की स्तुति व उपासना करें? क्या यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक नहीं है? क्या इस पर पुनः कुछ कहने की अनुकंपा करेंगे?

बुधवार, 8 जून 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--17)

कारज धीरे होत है—(प्रवचन—सत्ररहवां)
दिनांक 27 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :

सोई सिपाही मरद है, जग में पलटूदास।
मन मारै सिर गिरि पड़ै, तन की करै न आस।।
ना मैं किया न करि सकौं, साहिब करता मोर।
करत करावत आपु है, पलटू पलटू सोर।।
पलटू हरिजन मिलन को, चलि जइए इक धाप।
हरिजन आए घर महैं, तो आए हरि आप।।
वृच्छा बड़ परस्वारथी, फरैं और के काज।
भवसागर के तरन को, पलटू संत जहाज।।

पलटू तीरथ को चला, बीच मां मिलिगे संत।
एक मुक्ति के खोजते, मिलि गई मुक्ति अनंत।।
पलटू मन मूआ नहीं, चले जगत को त्याग।
ऊपर धोए क्या भया, भीतर रहिगा दाग।।
सीस नवावै संत को, सीस बखानौ सोय।

मंगलवार, 7 जून 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--16)

एस धम्मो सनंतनो—(प्रवचन—सोलहवां)
दिनांक 26 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार :

1—मैं निपट अज्ञानी! जब भी आंख बंद की, महा-अंधकार ही दिखता है। क्या कभी प्रकाश की किरण भी पा सकूंगा?

2—आप कहते हैं कि कवि ऋषि के निकट है, लेकिन बड़ा आश्चर्य होता है कि इतने संवेदनशील हृदय वाले कवि-कलाकार भी, जो कि जीवन में सत्यम् शिवम् सुंदरम् की तलाश में निकले हैं, वे भी यहां आने से कतराते हैं! आप कहते हैं कि ध्यान संवेदनशीलता को और गहरा करता है। फिर इन कवि-कलाकारों का भय क्या है? क्या ध्यान और सृजन साथ-साथ संभव नहीं हैं?

3—मैं जब भी पूना आता था, पूज्य दद्दाजी का अनंत स्नेह मुझ पर बरसता था। वे चले गए। और आप भी जब प्रवचन और दर्शन से उठ कर वापस जाते हैं तो हृदय में टीस सी उठती है कि कहीं अगर इस सदगुरु का साथ छूट गया तो फिर हमारा क्या होगा? ऐसे बुद्ध सदगुरु तो सदियों में मिलते हैं। हम संन्यासियों पर फिर यह अमृत-वर्षा कौन करेगा?