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सोमवार, 31 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-11


सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

ठहरो, विराम में आओ—प्रवचन-ग्याहरवां  
दिनांक 31 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह की ते काफी इस प्रकार है--
तंग छिदर नहीं विच तेरे, जिथे कख न इक समांवदा ए।
ढूंढ वेख जहां दी ठौर किथे, अनहुंदड़ा नजरी आंवदा ए।
जिवें ख्वाब दा खयाल होवे सुत्तियां नूं, तरहां तरहां दे रूप दिखांवदा ए।
बुल्लाशाह न तुझ थीं कुझ बाहर, तेरा भरम तैनूं भरमांवदा ए।
अर्थात, हे प्यारे, तू इतना तंग है कि तुझमें कोई छिद्र झरोखा नहीं, जिसमें एक तिनका भी नहीं समा सकता है।
ढूंढ कर देख कि इस जहान की ठौर कहां है? अनहोना नजर आ रहा है।
जिस प्रकार सोए हुओं को ख्वाब के खयाल होते हैं, ऐसे ही तरहत्तरह के रूप दिख रहे हैं।
बुल्लेशाह कहते हैं कि तुझसे कुछ भी बाहर नहीं है, किंतु तेरा भरम ही तुझे भरमा रहा है।
भगवान, निवेदन है कि बुल्लेशाह की इस काफी को हमें समझाएं।

 ऊषा,
मनुष्य एक अद्वितीय स्थिति है। और ध्यान रखना शब्द--स्थिति। एक जगत है मनुष्यों के नीचे पशुओं का। वे पूरे ही पैदा होते हैं; उन्हें जो होना है, वैसे ही पैदा होते हैं। और एक जगत है मनुष्य के ऊपर बुद्धों का। उन्हें जैसा होना है वे हो गए हैं, अब कुछ होने को नहीं बचा। और दोनों के मध्य में मनुष्य की चिंता का लोक है। उसे जो होना है अभी हुआ नहीं; जो नहीं होना है वह अभी है। इसलिए तनाव है, खिंचाव है।

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-10

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

समाधि की सुवास—प्रवचन-दसवां  
दिनांक 30 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
आपने उस दिन आद्य शंकराचार्य का निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया था, उस पर विस्तार से प्रकाश डालें--
तत्वं किमेकं शिवमद्वितीयं,
      किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति।
त्याज्यं सुखं किम् स्त्रियमेव,
      सम्यग देयं परमं किम् त्वभयं सदैव।।
एक तत्व क्या है? अद्वितीय शिवत्तत्व ही। सबसे उत्तम क्या है? सच्चरित्र। कौन सुख छोड़ना चाहिए? सब प्रकार से स्त्री का सुख ही। परम दान क्या है? सर्वदा अभय ही।

 सहजानंद,
मैं तो इस सूत्र से किसी भी भांति राजी नहीं हो सकता हूं। इसमें बुनियादी भ्रांतियां हैं। जैसे: "सबसे उत्तम क्या है?' शंकराचार्य कहते हैं: "सच्चरित्र।'
सबसे उत्तम है समाधि। सच्चरित्रता तो समाधि की सहज परिणति है, परिणाम है। समाधि है तो चरित्र अपने आप चला आता है, जैसे तुम्हारे पीछे तुम्हारी छाया चली आती है।

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-09

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

दरवाजा खुला रखना—प्रवचन-नौवां  
दिनांक 29 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
कल बुल्लेशाह की आपने अलफ काफी हमें पिलाई। उनकी बे काफी इस प्रकार है--
बन्ह अखीं अते कन्न दोवें, गोशे बैठ के बात विचारिए जी।
छड खाहिशां जग जहान कूड़ा, कहिआ आरफा दा हीए धारिए जी।
पैरी पहन जंजीर बेखाहिशी दी, इस नफस नूं कैद कर डारिए जी।
जा जान देवें जान रूप तेरा, बुल्लाशाह एह खुशी गुजारिए जी।
अर्थात आंख और कान दोनों बंद करके, होश में बैठ कर बात का विचार करो।
जगत की ख्वाहिशें छोड़ो, जगत झूठा है। ब्रह्मज्ञानी के कहे हुए को हृदय में धारण करो।
पैरों में बेख्वाहिशों की जंजीर पहन कर, इस क्षण को कैद कर डालो।
अगर अपनी जान जाने दो तो अपना रूप जानो। बुल्लेशाह कहते हैं कि यही खुशी है जिसमें गुजारा है।
भगवान, निवेदन है कि बुल्लेशाह की यह काफी भी हमें पिलाएं।

 योग शुक्ला,

रविवार, 30 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-08

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

आपने आपनूं समझ पहले—प्रवचन-आठवां  
दिनांक 28 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
संत बुल्लेशाह ने आत्म-परिचय पर जोर देते हुए इस प्रकार गाया है--
आपने आपनूं समझ पहले, कि वस्त है तेरड़ा रूप प्यारे।
बाझ अपने आपदे सही कीते, रहियों विच विश्वास दे दुख भारे।
होर लख उपाओ न सुख होवे, पुछ वेख सियानने जग सारे।
सुख रूप अखेड़ चेतन है तू, बुल्लाशाह पुकार दे वेद सारे।
अर्थात हे प्यारे, पहले अपने आप को समझ कि तेरा यह रूप क्या है, किसलिए है?
बिना अपने आप की पहचान किए विश्वासों में जीना भारी दुख है।
और लाख उपाय करो, सुख न होगा, सारे जगत के सयाने लोगों से पूछ कर देख ले।
सुख-रूप तो केवल तेरा चैतन्य है, बुल्लेशाह कहते हैं कि समस्त वेद यही पुकारते हैं।
भगवान, बुल्लेशाह की इस काफी पर कुछ कहें।

विनोद भारती,

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-07

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

जीवन चुनौती है, खतरा है—प्रवचन-सातवां  
दिनांक 27 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
आपके कल के ओजस्वी प्रवचन से ऐसा स्पष्ट आभास हुआ कि आप भारत को उसकी अनंत क्षमताओं के प्रति जगा रहे हैं। भारत का यह परम सौभाग्य है कि उसे आप जैसा मार्गदर्शक उपलब्ध है, फिर भी वह आपकी बातों को अपनाता क्यों नहीं? और क्यों नहीं सर्वांगीण विकास के पथ पर अग्रसर होता? वरन आपका तिरस्कार और उपेक्षा क्यों करता है?
भगवान, निवेदन है कि कुछ कहें।

भारत भूषण,
भारत के दुर्भाग्य की कथा बहुत पुरानी है। भारत की जड़ें विषाक्त हो गई हैं। साधारण औषधियों से भारत की चिकित्सा नहीं हो सकती; शल्य-क्रिया करनी होगी। और मवाद जब भीतर गहरे पहुंच गया हो तो उसे निकालने में कष्ट भी होता है, पीड़ा भी होती है। इसीलिए मेरा तिरस्कार है, उपेक्षा है। मेरा सम्मान हो सकता है, समादर हो सकता है; लेकिन तब मुझे भारत की उन्हीं विषाक्त जड़ों को जल देना होगा, जो उसके दुर्भाग्य का कारण हैं। मेरे लिए तो आसान होगा यही कि उन्हीं जड़ों को जल दे दूं, लेकिन भारत के लिए उससे बड़ी और कोई बदकिस्मती नहीं हो सकती।
तो मैंने यही चुना कि अपमान मिले, तिरस्कार मिले, उपेक्षा मिले, लेकिन गलत जड़ों को काटना ही है। और मुझे फर्क नहीं पड़ता अपमान से, उपेक्षा से या तिरस्कार से। थोड़ी भी जड़ें काट सका, थोड़े भी संस्कार पोंछ सका, थोड़ी भी भारत के मन को स्वच्छता दे सका, स्वास्थ्य दे सका, तो सूर्योदय दूर नहीं।

शनिवार, 29 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-06

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

विज्ञान और धर्म के बीच सेतु—प्रवचन-छठवां  
दिनांक 26 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
पड़ोसी देशों द्वारा किए जाने वाले शस्त्र-संग्रह और उसके कारण बढ़ रहे तनाव के संदर्भ में देश की सुरक्षा की दृष्टि से श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा हाल ही एक भाषण में दी गई चेतावनी की आलोचना करते हुए महर्षि महेश योगी ने कहा है कि देश को इस प्रकार के भय और अनिश्चितता से छुड़वाने के लिए सरकार को उनके भावातीत ध्यान (टी.एम.) तथा टी.एम. सिद्धि कार्यक्रम का उपयोग करना चाहिए। अपनी ध्यान पद्धति को वैदिक ज्ञान का सार बताते हुए उन्होंने कहा है कि इसके प्रयोग द्वारा व्यक्ति अपने तनावों से मुक्त होकर अपनी चेतना को ऊपर उठाते हैं और समाज में सामंजस्य स्थापित करने में प्रभावशाली होते हैं। महर्षि महेश योगी के अनुसार उनकी ध्यान पद्धति अपनाने से सेना और शस्त्रों की जरूरत नहीं रह जाएगी और बहुत थोड़े-से खर्च में भारत की सुरक्षा हो सकेगी, उसकी समस्याएं हल हो सकेंगी तथा देश की चेतना में सत्व का उदय हो सकेगा।
भगवान, श्री महेश योगी द्वारा किए गए इस दावे में क्या कुछ सचाई है? साथ ही आप जिस ध्यान को समझाते हैं तथा उसका प्रयोग करा रहे हैं, क्या वही ध्यान ऊपर बताई गई बातों के संदर्भ में अधिक प्रभावशाली और कारगर सिद्ध नहीं होगा? निवेदन है कि इस विषय में कुछ कहें।

 सत्य वेदांत,

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-05

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

प्रेम एक इंद्रधनुष है—प्रवचन-पांंचवां
दिनांक 25 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
प्रेम क्या है? और क्या प्रेम कभी नष्ट भी हो सकता है या नहीं?

 राम किशोर,
प्रेम एक इंद्रधनुष है। उसमें सभी रंग हैं--निम्नतम से लेकर श्रेष्ठतम तक, काम से लेकर राम तक। प्रेम कोई एक-आयामी घटना नहीं है, बहु-आयामी है। मूलतः तीन आयाम समझ लेने जरूरी हैं।
पहला आयाम तो शरीर का है। शरीर का प्रेम नाममात्र को प्रेम है। प्रेम की भ्रांति ज्यादा प्रेम का अस्तित्व कम। एक प्रतिशत प्रेम, निन्यानबे प्रतिशत रसायनशास्त्र। एक प्रतिशत तुम, निन्यानबे प्रतिशत अचेतन प्रकृति। उसी तल पर पशु जीते हैं। उसी तल पर अधिकतम मनुष्य भी जीते हैं। और जिन्होंने प्रेम का पहला तल ही जाना, वे स्वभावतः प्रेम के दुश्मन हो जाएंगे। उस तरह के दुश्मनों ने ही धर्म को विकृत किया है। प्रेम की ऊंचाइयां जानी नहीं, प्रेम की क्षुद्रताओं को ही जाना--और तब प्रेम के विपरीत हो गए। और तब प्रेम से दुश्मनी कर ली। और तब प्रेम की तरफ पीठ करके भाग चले।

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-04

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

बुद्ध का शून्य: मीरा की वीणा—प्रवचन-चौथा
दिनांक 24 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, और इसलिए पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या यह अंधानुकरण अस्वस्थ नहीं है? और क्या उन्हें अपना मार्ग और गंतव्य स्वयं ही नहीं ढूंढना चाहिए? इस संदर्भ में आप हमें क्या मार्गदर्शन देंगे?

 मृत्युंजय देसाई,
यह प्रश्न तो महत्वपूर्ण है, लेकिन उत्तर शायद तुम्हें चोट पहुंचाए। क्योंकि इस प्रश्न के भीतर और बहुत-से प्रश्न छिपे हैं, शायद तुम्हें उनका बोध भी न हो।
सबसे महत्वपूर्ण बात तो विचारणीय यह है, जैसा तुम कहते हो कि भारत के लोग सदियों से गुलाम और गरीब रहने के कारण भयानक हीनता के भाव से पीड़ित हैं, पूछना यह चाहिए कि सदियों से भारत के लोग गुलाम और गरीब क्यों हैं? इनकी गुलामी और गरीबी का कारण कहां है? इनकी गुलामी और गरीबी की बुनियाद कहां है? जड़ें कहां हैं? यूं ही तो गुलाम और गरीब नहीं हैं। कोई दिन दो-चार दिन के लिए, माह दो माह के लिए, वर्ष दो वर्ष के लिए जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है; लेकिन दो हजार वर्षों तक कोई जबरदस्ती गुलाम बनाया जा सकता है?

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-03

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

जीवन एक तिलिस्म है—प्रवचन-तीसरा
दिनांक 23 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
हाजार बोछोर धोरे
कोतो नोदी-प्रांतर,
बेरिए गेलाम।
ए चौलार माने तोबू
बोझा गेलो ना!
आमि हारिए गेलाम।
आमि हारिए गेलाम।
अर्थात हजारों वर्षों की यात्रा में मैंने कितने ही नदी और वन-प्रांतर पार किए, लेकिन फिर भी इस चलने का अर्थ अब तक नहीं समझ पाया। अब तो मैं हार गया, हार ही गया!
भगवान, एक बंगला गीत का यह अंश मेरे भीतर अक्सर गूंज उठता है। मैं भी अपनी वासनाओं से हारा हुआ हूं। वासनाओं की व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं?

 अनिल भारती,
जीवन का जो अर्थ खोजने चलेगा वह निश्चित ही हारेगा, असफल होगा। जीवन का अर्थ खोजने का अर्थ होगा कि जीवन रहस्य नहीं है, एक गणित है। जीवन फिर एक पहेली है, जो सुलझाई जा सकती है। और जीवन एक पहेली नहीं है। पहेली और रहस्य का यही भेद है: जो सुलझाया न जा सके, जान-जान कर भी जो अनजाना रह जाए, कितना ही ज्ञात हो फिर भी अज्ञात शेष रहे।

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-02

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

स्वयं का बोध मुक्ति है—प्रवचन-दूसरा
दिनांक 22 जनवरी, सन् 1981 ओशो आश्रम पूना।

पहला प्रश्न: भगवान,
आद्य शंकराचार्य की एक प्रश्नोत्तरी इस प्रकार है--
कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः
      क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।
शल्यं परं किम् निजमूर्खतेव
      के के हयुपास्या गुरुदेववृद्धाः।।
किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही। किसमें सर्वथा भय नहीं है? मोक्ष में। सबसे बड़ा कांटा कौन है? अपनी मूर्खता ही। कौन-कौन उपासना के योग्य हैं? गुरु, देवता और वृद्ध।
भगवान, इन प्रश्नों पर आप क्या कहते हैं?

अभयानंद, यह सूत्र प्यारा है--सोचने योग्य। ध्याने योग्य।
कस्याऽस्ति नाशे मनसो हि मोक्षः।
"किसके नाश में मोक्ष है? मन के नाश में ही।'
मन ही बंधन है। और बंधन भी ऐसा, जो केवल हमारी प्रतीति में है। नाश करने को वस्तुतः कुछ भी नहीं है, सिर्फ आंख खोल कर देखने की बात है और मन नष्ट हो जाता है। आंख बंद है तो मन है; आंख खुली कि मन गया।

बुधवार, 26 जुलाई 2017

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-01

सांच-सांच सो सांच-(प्रशनोंत्तर)-ओशो, 

पहला प्रश्न: भगवान,
आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक आपने चुना है: सांच सांच सो सांच।
भगवान, निवेदन है कि दरिया साहब के इस पद को हमें समझाने की अनुकंपा करें--
कंचन कंचन ही सदा, कांच कांच सो कांच।
दरिया झूठ सो झूठ है, सांच सांच सो सांच।।

 योग मुक्ता,
सत्य शाश्वत है, सनातन है, समयातीत है। जो बदलता है वह स्वप्न है। जो नहीं बदलता वही सत्य है। उस अपरिवर्तनीय को पा लेना ही धर्म है। परिवर्तित होते संसार के साथ जो अपने मोह को लगाता है, सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं पाता है। यह अपरिहार्य है। जो बदल रहा है उसे तुम लाख चेष्टा करो तो भी ठहरा न सकोगे। उसका स्वभाव बदलना है। और तुम उसके मोह में पड़ोगे तो चाहोगे कि ठहर जाए, रुक जाए--और वह ठहरने वाला नहीं, रुकने वाला नहीं। वह तो गया, अब गया, अब गया--गया ही हुआ है। सुबह हुई कि सांझ हो गई। सुबह में ही सांझ छिपी है। जन्म हुआ कि मृत्यु हो गई। मृत्यु के दूत किन्हीं भैंसों पर सवार होकर नहीं आते, जन्म पर सवार होकर आते हैं। जन्म के साथ ही मृत्यु प्रवेश कर गई। अब तुम लाख उपाय करो तो भी मृत्यु से बचा नहीं जा सकता है।

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
जरा-सी चिनगारी काफी है!—दसवां प्रवचन
२० जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए
ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए
मेरे जीवन के पादप को फूल नहीं मिल पाया
मैं हूं ऐसी लहर कि जिसको कूल नहीं कूल पाया
 कहते हैं देवत्व छिपा है पत्थर के प्राणों में
पर मेरे अंतर्मन का सौंदर्य नहीं खिल पाया
ऐसी चोट करो हे शिल्पी! मूर्ति प्रगट हो जाए
मुक्त बनें प्रच्छन्न कलाएं, सब नंदन हो जाए
 मैं वह वीणा हूं जो अब तक पड़ी रही अनगाई
नहीं सजी प्राणों की महफिल नहीं चली पुरवाई
नहीं खिला जीवन का मधुवन कोयल कुहुक न पाई
जला न दीपक, बजी न अब तक प्राणों की शहनाई
ऐसी तान सुना दो भगवन, प्राणों में भिद जाए
हृत्तंत्री के तार छेड़ दो, बस गायन हो जाए,
ऐसी भक्ति भरो प्राणों में, सब कीर्तन हो जाए
ऐसा उत्सव दो जीवन को, सब नर्तन हो जाए

योग प्रीतम! मैं वही कर रहा हूं, इसीलिए तो इतना विरोध है। मनुष्य सदियों से रोने का आदी रहा है। आंसुओं का पाठ उसे सिखाया गया है। धर्म का अर्थ ही उदासीनता धर्म का अर्थ ही उदासी, ऐसा जहर उसके प्राणों में भरा गया है। यह कुछ तुम्हारा कसूर नहीं। इस पीड़ा में तुम अकेले नहीं हो, सारी मनुष्य जाति इसी संताप से घिरी है। और कठिनाई तो तब बहुत जटिल हो जाती है। जब हम कांटों को फूल समझ लें। तो चुभते भी हैं, फिर भी उन्हें छोड़ते नहीं। चुभता है, छाती भिदती है, प्राण रोते हैं, मगर शूल शूल दिखाई नहीं पड़ता। आंखें-संस्कारों से भरी हैं, वे उसमें फूल ही देखे चली जाती है। तुम्हारे जीवन को विकृत किया गया है।

सोमवार, 24 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

जो है, उसमें पूरे के पूरे लीन होना समाधि है—नौवां प्रवचन
१९ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
गुमनाम मंजिल दूर है सबेरा
कोई संगी न साथी मैं हूं अकेला
दुनिया की रीत क्या है? भला ऐसी चीज क्या है?
जिसके बिना यह नाव चलती नहीं।
उल्फत का गीत क्या है? जीवन संगीत क्या है?
जिसके बिना यह रात ढलती नहीं!
नदिया की धार कहे, एहसास जीने का मरता नहीं
अपनी अग्नि में जले, ऐसे तो प्यार कोई करता नहीं!
आप ही कहें, क्या कोई रास्ता नहीं?

भगवान स्वरूप! वह मंजिल तो जरूर गुमनाम है, लेकिन दूर नहीं। निकट से भी निकट है। निकट कहें, इतनी भी दूर नहीं। तुम ही हो मंजिल, तुम ही हो यात्री। मार्ग भी तुम्हीं, मंजिल भी तुम्हीं। मार्ग पर चलना भी तुम्हें है। तुम्हारे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। कहीं दूर नहीं जाना, अपने में ही डूब जाना है। देर जाने की धारणा में भटकाव है। और मन सदा दूर ही जाना चाहता है। मन की उत्सुकता दूरी में है। जितनी दूर हो चीज कोई, उतनी लुभावनी--दूर के ढोल सुहावने--उतना खींचती मन को, चाहे हाथ कुछ लगे न लगे।

रविवार, 23 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन--08

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रेम ही धर्म है—आठवां प्रवचन
१८ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम पूना

पहला प्रश्न: भगवान, जैन धर्म में अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद(सह-अस्तित्व) आदि सिद्धांतों का विशेष स्थान  है। लेकिन आज एक समाचार-पत्र में आपके संबंध में एक जैनमुनि, श्री भद्रगुप्त विजय जी का वक्तव्य पढ़ तो आश्चर्य हुआ। ये मुनिश्री आपके कच्छ-प्रवेश के विरोध में लोगों को सब कुछ बलिदान कर देने के लिए आह्वान कर रहे हैं, संगठित कर रहे हैं। अपरिग्रह माननेवालों को कच्छ प्रदेश पर परिग्रह क्यों? और उनके अनेकांतवाद में आपकी जीवनदृष्टि का विरोध क्यों क्या मुनिश्री का लोगों को इस तरह भड़काना शोभा देता है?

चैतन्य कीर्ति! जिन-धर्म और जैन धर्म में बुनियादी भेद है। वैसे ही जैसे बुद्ध-धर्म में और बौद्ध धर्म में। इस आधारभूत भेद को सबसे पहले समझ लेना जरूरी है।
जिन-धर्म से अर्थ है: महावीर, आदिनाथ, नेमिनाथ, मल्लिनाथ, उनका धर्म जो जीते हुए थे, जिन्होंने स्वयं को जाना था। उस आत्मबोध से जो गंगाएं बहीं, आत्मबोध के उन हिमशिखरों से जो सरिताएं उतनी, वह स्वच्छ बोध: जिन-धर्म। बुद्ध ने जो जाना, जागकर जो पहचाना, जीया और कहा, वह बुद्ध-धर्म।

शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

बोध क्रांति हैसातवां प्रवचन
१७ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम; पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
खामोश नजर टूटे दिल से हम अपनी कहानी कहते हैं:
बहते हैं आंसू बहते हैं!
कल तक इन सूनी आंखों में शबनम थी चांद-सितारे थे
ख्वाबों की गमकती कलियां थीं दिलकश रंगीन नजारे थे
पर अब हमको मालूम नहीं हम किस दुनिया में रहते हैं।
कृपा कर पता बताएं।

दीपक शर्मा! जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक ढंग तो है नींद का। वहां मीठे सपने हैं। पर सपने ही सपने हैं, जो टूटेंगे ही टूटेंगे। आज नहीं कल, कल नहीं परसों, देर-अबेर की बात है। और जब टूटेंगे तो गहन उदासी छोड़ जाएंगे। जब टूटेंगे तो पतझड़ छा जाएगा। जीवन हाथ से गया सपनों में और मौत द्वार पर खड़ी हो जाएगी। एक और भी जीवन को जीने का ढंग है। वही वास्तविक ढंग है। वह है: जाग कर जीना। सपनों से मुक्त होकर जीना। फिर आनंद की वर्षा है। फिर अमृत की बूंदाबांदी है। फिर फूल खिलते हैं और खिलते ही चले जाते हैं। हाथ ही नहीं भरते, प्राणों का आकाश भी फूलों से भर जाता है।

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रार्थना अंतिम पुरस्कार है—छठवां प्रवचन
१६ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
चमक-चमक कर हजार आफताब डूब गये
हम अपनी शामे-अलम को सहर बना न सके
कृपया, अब बताइये क्या करें?

अब्दुल कदीर!
चांदत्तारे तो ऊगेंगे, डूबेंगे; सूरज ऊगेगा, डूबेगा; इससे तुम्हारे अंतरात्मा की अंधकार नहीं मिट सकता है। बाहर का कोई प्रकाश भीतर के अंधकार को मिटाने में असमर्थ है। वह भरोसा ही छोड़ दो। वह भरोसा रखोगे तो भटकोगे। और वही हम सबका भरोसा है। वहीं हम चूक रहे हैं। बाहर ही धन खोजते हैं कि भीतर की निर्धनता मिट जाए। बाहर ही पद खोजते हज कि भीतर की दीनता मिट जाए। और बाहर की रोशनी पर ही आंखें टिकाते हैं कि भीतर का अंधेरा कट जाए। यह नहीं हो सकता। जो बाहर है बाहर है, जो भीतर है भीतर है। दोनों का कोई तालमेल नहीं। दोनों एक-दूसरे का रास्ता नहीं काटते।

बुधवार, 19 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

धर्म क्रांति है, अभ्यास नहीं—पांचवां प्रवचन
१५ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
ढूंढता हुआ तुम्हें पहुंचा कहां-कहां
न स्वर्ग ही कुछ बोलता न नर्क द्वार खोलता
हर आंख में मैं आंख डाल तसवीर तेरी टटोलता
पहुंच गया कहां-कहां
सांसों के फासले हैं या कि दूरियां ही दूरियां
न तुम ही कुछ हो बोलते मुख से जुबां न खोलते
चलता है कब तलक मुझे यूं सबके दिल टटोलते
तुम कहां और मैं कहां
ढूंढता हुआ तुम्हें पहुंच गया कहां-कहां
जमीं से मिल सका न पता आसमां लगा सका
ढूंढा नहीं किधर-किधर तुम्हें मगर न पा सका
अब ढूंढता हुआ कि पता तुम्हारा मिल गया
तस्वीर तुम्हारी मेरे दृग में
जैसे कस्तूरी रहती है मृग में

पार्थ प्रीतम कुंडू! यह कबीर का प्रसिद्ध वचन है: कस्तूरी कुंडल बसै, लेकिन इसमें भी बात पूरी समाती नहीं; इसमें भी कुछ छूट जाता है। कबीर भी कहे तो, पर कह नहीं पाए। क्योंकि कस्तूरी और मृग में फासला है। कस्तूरी को मृग से अलग किया जा सकता है--किया जाता है। ऐसे ही तो कस्तूरी मिलती है। लेकिन तुमको तुमसे अलग किया जा सकता नहीं। तुममें उतना भी फासला नहीं है अपने से, जितना कस्तूरी में और मृग में होता है। कस्तूरी मृग में होती है, लेकिन मृग ही नहीं। और तुम जिसे खोज रहे हो, वह तुम ही हो। उतनी दूरी भी नहीं है। खोजनेवाला ही खोज का लक्ष्य है।
इससे मुश्किल है।

मंगलवार, 18 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रार्थना या ध्यान?—चौथा प्रवचन
१४ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान,
तमसो मा ज्योतिर्गमय
असतो मा सदगमय
मृत्योर्माऽमृतं गमय
उपनिषद की इस प्रार्थना में मनुष्य की विकसित चेतना के अनुरूप क्या कुछ जोड़ा जा सकता है?

नरेंद्र बोधिसत्व, यह प्रार्थना अपूर्व है! पृथ्वी के किसी शास्त्र में, किसी समय में, किसी काल में इतनी अपूर्व प्रार्थना को जन्म नहीं मिला। इसमें पूरब की पूरी मनीषा सन्निहित है। जैसे हजारों गुलाब से बूंद भर इत्र निकले, ऐसी यह प्रार्थना है। प्रार्थना ही नहीं है,समस्त उपनिषदों का सार है। इसमें कुछ भी जोड़ना कठिन है। लेकिन फिर भी मनुष्य निरंतर गतिमान है, यह अजस्र धारा है मनुष्य की चेतना की, जिसका कोई पारावार नहीं है। यह रोज नित नये आयाम छूती है, नित नये आकाश। बहुत बार ऐसा लगता है, आ गया पड़ाव और फिर आगे और भी उज्ज्वलत्तर शिखर दिखायी पड़ने लगते हैं। लगता है ऐसे कि आ गयी मंजिल, लेकिन हर मंजिल बस सराय ही सिद्ध होती है। और यह शुभ भी है। नहीं तो मनुष्य जीए ही कैसे? विकास है तो जीवन है। निरंतर विकास है तो निरंतर गति है। गत्यात्मकता जीवन है। इस लिए इस प्रार्थना में यूं तो कुछ जोड़ा नहीं जा सकता, ऐसे बिलकुल भरी-पूरी है, और फिर भी कुछ जोड़ा जा सकता है।

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रेम बड़ा दांव हैतीसरा प्रवचन
१३ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, मैं कौन हूं, क्या हूं, कुछ पता नहीं। आपसे अपना पता पूछने आया हूं।

नारायण शंकर! यह पता तुम्हें कोई और नहीं दे सकता। न मैं, न कोई और। यह तो तुम्हें खुद ही अपने भीतर खोदना होगा। बाहर पूछते फिरोगे, भटकाव ही हाथ लगेगा। बहुत मिल जाएंगे पता देनेवाले। जगह-जगह बैठे हैं पता देनेवाले। बिना खोजे मिल जाते हैं। तलाश में ही बैठे हैं कि कोई मिल जाए पूछनेवाला। सलाह देने को लोग इतने उत्सुक हैं, ज्ञान थोपने को एक-दूसरे के ऊपर इतने आतुर हैं कि जिसका हिसाब नहीं। क्योंकि अहंकार को इससे ज्यादा मजा और किसी बात में नहीं आता।
जब भी तुम दूसरे को ज्ञान की बातें देने लगते हो, तो दो बातें सिद्ध हो जाती हैं--दूसरा अज्ञानी है और तुम ज्ञानी हो; दूसरा नहीं जानता और तुम जानते हो। और यह मजा कौन नहीं लेना चाहता। इसलिए मुश्किल है तुम्हें वह आदमी मिलना जो तुम्हें सलाह न दे, ज्ञान न दे। हालांकि कोई किसी से ज्ञान लेता नहीं। और ज्ञान कुछ ऐसी बात है भी नहीं कि काई और दे दे। अच्छा ही है कि लोग लेते नहीं। जो दूसरे से ले लिया, कचरा है।

सोमवार, 17 जुलाई 2017

साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02


साहिब मिले साहिब भये-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
ये फूल लपटें ला सकते हैं—दूसरा प्रवचन
१२ जुलाई १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

पहला प्रश्न: भगवान, आपकी मधुशाला में ढाली जानेवाली शराब पी-पीकर मखमूर हो गया हूं। भगवान, प्यार करने वालों पर दुनिया तो जलती है मगर अपनी मधुशाला के दूसरे पियक्कड़ भी प्रेम के इतने विरोध में हैं--खासकर पचास प्रतिशत भारतीय, जो कि आज दस-बारह वर्षों से आपके साथ हैं। प्रभु, हमारे विदेशी मित्र तो प्यार करनेवालों को देखकर खुश होते हैं, मगर भारतीय सिर्फ जलते ही नहीं बल्कि अपराधजनक दृष्टि से देखते हैं और घंटों व्यंग्यपूर्ण बातचीत करते रहते हैं। यह जमात प्रेम का बस एक ही मतलब जानती है--"काम'। ऐसा क्यों, प्रभु? क्या प्रेम कर कोई और आयाम नहीं है, खासकर नर-नारी के संबंध में?

स्वभाव! भारतीय चित्त सदियों से कलुषित हैं। प्रेम के प्रति निंदा की एक गहन अवधारणा हजारों वर्षों से कूट-कूटकर भारतीय मन में भरी गयी है। वह भारतीय खून का हिस्सा हो गयी है। उसे ही हम संस्कृति कहते हैं, धर्म कहते हैं और बड़े-बड़े सुंदर शब्दों में छिपाते हैं। लेकिन सारे आवरणों के भीतर प्रेम का निषेध है। और प्रेम का निषेध मूलतः जीवन के ही निषेध का एक अंग है।