(दसघरा की दस कहानियां )
सेन्ट्रल पार्क में जो अंग्रेजों के जमाने का एक मात्र पुराना लैंम्प था। अब उसकी रोशनी-रोशनी न रह कर मात्र जुगनू की चमक भर रह गई थी। परंतु वह अपनी ऐतिहासिकता और कलात्मकता के कारण ही अब देखने की वस्तु बन गया था। उसको देख कर अँग्रेजों की याद आये बिन आपको नहीं रहेगी। जो युग लैंम्प पोस्ट उसने जीया था, वह भले ही आज जुगनू प्रकाश बन कर रह गया हो। लेकिन जिस जमाने में ये लगा था। ये इस गांव मोहल्ले के लिए तो ईद का चाँद था। है तो बेचारा आज भी ईद का ही चाँद। क्योंकि दोनों देखने भर के लिए सुंदर होते है परंतु मार्ग कम ही किसी को दिखा पाते है। यही हाल बेचारा लैंम्प पोस्ट था, मात्र मन का भ्रम बना रहता था कि हम प्रकाश में जा रहे है। अब ये भी एक अंग्रेजी राज की तरह इतिहास बन गया है। परंतु अंग्रेजों की कारीगरी गजब भी...सालों बाद भी न गला, न गिरा.....मध्यम ही सही जलता तो है। आस पास के लोगों को आने जाने में सुविधा और साहस देता है। सालों इस ने इस वीरान रास्ते पर लोगों को भय मुक्त किया। इस लिए लोग आज भी इसे आदर सम्मान की नजरों से देखते है। परंतु अब सरकार ने एक आधुनिक तरह की ऊंची लाईट लगा दी थी। जिसकी रोशनी पूरे पार्क को ही नहीं आस पास की सड़क तक को रोशन कर रही थी। वैसे तो स्ट्रीट लाईट सालों बाद भी जलती थी। परंतु उस विशाल रोशनी के आगे उस बेचारी की क्या बिसात, यूं कि आप सूरज के आगे दीप जलाये रहो। ये सब उन दुकान चलाने वाले के लिए प्रतीकात्मक के साथ सुविधा जनक भी बन गये थे। आज भी उसी के आस पास हाट बाजार लगता था। छोटी-छोटी दुकानों की रौनक श्याम के समय देखते ही बनती थी। उधर से आने जाने वाले ज्यादातर राहगीर वही से दैनिक इस्तेमाल का सामान खरीदते थे। फल-सब्जी वाला, एक पान वाला, एक पुराने कपड़े जो हर कपड़े 25रू दाम बोलता था। आज कल जामुन के पेड़ के पास जो कोना था, उस के पास एक जूतों वाला भी बैठने लगा है। जो जूते और चपल का ढेर लगा कर आने-जाने वालों को आवाज मार-मार कर रिझाने की कोशिश करता है। हर जूते का दाम पचास रूपये.....लुट का माल है भाइयों लुट लो। पास ही झनकूँ चाय वाला था।