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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-11

त्‍वं—स्‍वरूप प्रत्‍यगात्‍मा–ग्‍यारहवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
दिनांक 13 जनवरी 1972 रात्रि:
माथेरान।

सूत्र :

                  सत्‍यं ज्ञानमनन्‍तमानन्‍द
                    सर्वोपाधिविनिर्मुक्‍तं
                कटकमुकुटाद्युपाधिरहित सुवर्ण
                धनवद्विज्ञानचिन्‍मात्रस्‍वभावात्‍मा
                  यदा भासते तदा त्‍वं पदार्थ:
                       प्रत्‍यगात्‍मुच्‍येते।
                    सत्‍यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म।
                      सत्‍यमाविनाशि।
                  अविनाशिनाम देशकाल
                 वस्‍तुनिमित्‍तेषु विनश्‍यत्‍सु
                 यत्र विनश्‍यति तदविनाशि


      सत्‍य, ज्ञान अनंत और आनंदरूप सर्व उपाधि से रहित और कड़ा,
          मुकुट आदि की उपाधि से रहित केवल सोना जैसा ज्ञान
              और चैतन्‍य रूप आत्‍मा जब भासमान होता है
                  तब उसे त्‍वम् नाम से पुकारा जाता है।

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-10

साक्षी, कूटस्थ और अंतर्यामी—दसवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 13 जनवरी 1972 प्रात:
माथेरान।

सूत्र :

            ज्ञातृज्ञानज्ञेयानामाविर्भावरिरोभाव
            ज्ञाता स्‍वयंमाविर्भावरिरोभावरहित:
            स्‍वयंज्‍योति: साक्षीत्‍युच्‍यते।।9।।
            ब्रह्मादिपिपीलिकापर्यन्‍तं सर्वप्राणि-
              बुद्धिष्‍ववाशिष्‍टतयोपलभ्‍यमान:
               सर्वप्राणिबुद्धिस्‍थो यदा तदा
                कूटस्‍थ इत्‍युच्‍यते।।10।।
                 कूटस्‍थोपहित भेदानाम्
            स्‍वरूपलाभहेतुर्मूत्‍वा मणिगणेसूत्रमिव
              सर्वक्षेत्रेष्‍वनुस्‍यूत्‍वेन सदा काशेते
            आत्‍मा तदाsन्‍तर्यामीत्‍युच्‍यते।।11।।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-09


अज्ञान की पाँच ग्रंथियां—नौवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 12 जनवरी रात्रि:
माथेरान।

सूत्र:

                  मन आदिश्‍च प्राणादिश्‍चेच्‍छादिश्‍च सत्‍वादिश्‍च
                    प्रण्‍यादिश्‍चैतेपंचवर्गा इत्‍येषां पंचवर्गाणां
           धर्मीभूतात्‍मज्ञानादृते न नश्‍यत्‍यात्‍मसन्‍निधौ नित्‍यत्‍वेन प्रतीयमान
               आत्‍मोपाधिर्यस्‍तल्‍लिंग शरीरं ह्रदयग्रंथिरित्‍युच्‍यते।।7।।
                तन्‍न यत्‍प्रकाशते चैतन्‍यं से क्षेत्रज्ञ इत्‍युच्‍यते।।8।।


                  मन आदि, प्राण आदि, इच्छा आदि,
                    कल आदि औन गुण्य आदि के
                 पांच समूहों को पंच वर्ग कहा जाता है।
        इता पांच वर्ग के स्‍वभाव वाला बन कर जीवात्‍मा बिना ज्ञान

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

केनोउपनिषद--प्रवचन--08

अनादि.....अनंत—आठवां प्रवचन
दिनांक 12 जुलाई 1973, प्रात:,
माउंट आबू राजस्थान।


             द्वितीय खंड
        यदि मन्यसे सुवेदेति दभ्रमेवापि
        नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम्।
        यदस्य त्वं यदस्य देवेष्यथ नु
        मीमांस्यमेव ते मन्ये विदितम्।।1।।

        नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।
       यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।।2।।


                        द्वितीय अध्याय


                             1
     तुम सोचते हो कि तुम ब्रह्म को भलीभांति जानते हो,
           तो तुम वास्तव में बहुत कम जानते हो,  
       क्योंकि ब्रह्म का जो रूप तुम जीवित प्राणियों में
     तथा देवताओं में समाया हुआ देखते हो वह एक मामूली बात है।
     इसलिए तुम्हें ब्रह्म के बारे में और आगे खोजबीन करनी चाहिए।

केनोउपनिषद--प्रवचन--07

ध्‍यान और आंतरिक आँख—सातवां—प्रवचन

दिनांक 11 जुलाई 1973संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।


प्रश्‍न सार :

*क्यों सदगुरुओं को ईश्वर की भांति पूजा जाता रहा है?

*अराजकतापूर्ण श्वास से पुराने ढांचों के टूट जाने के बाद नया कैसे निर्मित होगा?

*क्या यह कहना कि प्रार्थना मूर्तिपूजा मंदिर और चर्च सब झूठ पर आधारित हैं निषेध नहीं   है?

पहला प्रश्न :

सुबह आपने कहा कि पूजा के द्वारा ब्रह्मको नहीं पाया जा सकता। वरन वह पूजा करने वाले के भीतर ही पाया जाता है। लेकिन सदगुरूओं को उनके शिष्‍यों ने सदा ही ईश्‍वर की भांति पूजा है। कृपया इसका महत्‍व समझायें।

केनोउपनिषद--प्रवचन--06

परमात्‍मा आस्‍तित्‍व है—छठवां—प्रवचन

दिनांक 11 जुलाई 1973प्रात:माउंट आबू राजस्थान।

सूत्र:

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षषि पश्यति

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 6।।

 यच्छोत्रेण न शृणोति येन श्रोतमिद श्रुतम्।
 तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 7।।

 यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राण: प्रणीयते।
  तदेव ब्रह्म त्वं विद्ध नेदं यदिदमुपासते।। 8।।

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-08


सुख—दुःख का स्‍वरूप—आठवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 12 जनवरी, 1972 प्रात:
माथेरान।

सूत्र:

                  सुखदुःख बुद्धयाश्रयोऽन्त: कर्ता यदा
                    तदा इष्ट विषये बुद्धि: सुखबुद्धि:
                     अनिष्ट विषये बुद्धिदु:खबुद्धि:।
                  शब्दस्पर्शरूपरसगधा: सुखदुःखहेतव:।
                        पुण्यपापकर्मानुसारी
                    भूत्वा प्राप्त शरीरसयोगमप्राप्त-
                  शरीरसयोगमिव कुर्वाणो यदा दृश्यते
                    तदोपहितजीव इत्युच्यते ।। 6 ।।


            सुख-दुख की दृष्टि-अंतर में रुचिकर वस्तु की जो इच्छा है
          यह सुख-बुद्धि है और अरूचिकर वस्तु की कल्पना दुख-बुद्धि है ।
      सुख को प्राप्त करने और दुख को त्यागने के लिए जीव जो क्रियाएं करता है,

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-07

पंच कोषों के पार—सातवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 11 जनवरी, रात्रि:
माथेरान।
सूत्र :
एतत्कोशद्वयसंसक्त मन आदि
चतुर्दशकरणैरात्मा शब्दादि विषय
संकल्पादिधर्मान् यदा करोति तदा
मनोमयकोष इत्युच्यते ।
एतत्कोशत्रयसंसक्त
तद्गतीवशेषज्ञो यदा भासते
तदा विज्ञानमयकोश इत्युव्यते ।
एतत्कोशचतुष्टयसंसक्त
स्वकारणाज्ञाने वटकणिकायामिव
वृक्षो यदा वर्तते तदा
आनंदमयकोष इत्युव्यते ।। 5 ।।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-06

पंच कोष—छठवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 11जनवरी, 1972;
माथेरान।

सूत्र :

                  अन्नकार्याणां कोशाना समूहोऽन्नमयकोश इत्‍युच्‍यते ।
                        प्राणादिचतुर्दशवायुभेदा अन्नमयकोशे
                      यदा वर्तन्ते तदा प्राणमयकोश इत्‍युच्‍यते ।


            अन्न से बनने वाले कोषों के समूह रूप शरीर को अन्नमय कोष कहते हैं ।
               प्राण आदि चौदह प्रकार के वायु इस अन्नमय कोष में संचार करते हैं,
                            तब उसे प्राणमय कोष कहते हैं ।

नुष्य का व्यक्तित्व बहुत पर्तों से बना है। और इन पर्तों का सम्यक बोध इन पर्तों को पार करने के लिए जरूरी है। जिसके पार हमें जाना हो उसे जान लेना जरूरी है, जिससे हमें मुक्त होना हो उसे पहचान लेना जरूरी है।

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-05

चेतना की धनी नींद और तुरिय—पाँचवाँ प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 10 जनवरी 1972 रात्रि:
माथेरान।

सूत्र:

                  चतुर्दशकरणोपरमाद्विशेष
                      विज्ञानभावद्यदा
                     शब्‍दादीन्‍नोपलभते
                   तदाssत्‍मल: सुषुप्‍तम्।
                  अवस्‍थात्रय भावाभावसाक्षी
               स्‍वयंभावरहितं नैरंतर्यं चैतन्‍यं यदा
             तदा तत्‍तुरीयचैतन्‍यमित्‍युच्‍यते ।। 4।।

इन चौहह इंद्रियों के शांत बन जाने पर जिस अवस्था में विशेष ज्ञान नहीं
होने के शब्‍दादि विषयों को ग्रहण नहीं करते हैं, उस समय की आत्मा की
     अवस्था को सुषुप्‍ति कहा जाता है। इन तीनों अवस्थाओं की
      उत्पात और लय को जानने वाला और स्‍वयं उत्पत्ति और
        लय के निरंतर परे रहने वाला ऐसा जो नित्‍य साक्षी
           चैतन्‍य है, वही तुरीय चैतन्‍य है और उसकी
                   अवस्था का नाम तुरीय है।

केनोउपनिषद--प्रवचन--05

यह तुम्‍हारा स्‍वरूप है—पांचवां—प्रवचन

दिनांक 10 जुलाई 1973संध्या,  
माउंट आबू राजस्थान।

प्रश्‍न सार :


*बुद्धि के उपयोग का सर्वोत्तम मार्ग क्या है?

*सक्रिय ध्यान के प्रारंभिक दिनों में होने वाली पीड़ा से कैसे पार पाएं?

*सक्रिय ध्यान का पांचवां चरण क्या है?

*यदि सक्रिय ध्यान के दौरान गहन शांति उतरने लगे तो क्या गतिविधियां बंद हो जाने दें?


पहला प्रश्न :

आपने कहा कि बौद्धिक समझ तथा ज्ञान से किसी को लाभ नहीं हुआ है, और उपनिषद कहते है कि किसी भी चीज का निषेध मत करो। यदि बुद्धि है और हमें उसका निषेध नहीं करना है तो फिर  कौन—सा सर्वाधिक उत्‍तम मार्ग है जिससे उसका उपयोग किया जाये?

केनोउपनिषद--प्रवचन--04

अज्ञेय आत्‍मा—चौथा प्रवचन

दिनांक 1० जुलाई 1973प्रात:,माउंट आबू राजस्थान।
सूत्र:
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नौ मनो न विद्मो न                                  विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि।                               इति शुश्रुम पूवेंषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे।।३।।
           
            यद्वाचानष्णुदितं येन वागष्णुद्यते
            तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।
           
            यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।
            तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।।

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

केनोउपनिषद--प्रवचन--03

समर्पण से रूपातरण—तीसरा प्रवचन

दिनांक 9 जुलाई 1973संध्या

 प्रश्‍न सार :


*आध्यात्मिक साधना में गुरु की क्या भूमिका है?

*सक्रिय ध्यान में घटने वाले आतंरिक स्त्री—पुरुष के मिलन को समझाने की कृपा करें?

*भोगों में लिप्त हुए बिना शरीर का समग्र स्वीकार कैसे हो?


पहला प्रश्‍न:
     
      आपने कहा कि जब गुरु की उपस्‍थिति उसकी अनुपस्‍थिति जैसी होती है और जब शिष्‍य भी अनुपस्‍थिति की अवस्‍था में आ जाता है। तभी परमात्‍मा का काम शुरू होता हे। यदि दोनों ही अनुपस्‍थिति की अवस्‍था में होते है, तो कृपया समझाएं की आध्‍यात्‍मिक साधना में गुरु की भूमिका होती है?

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

केनोउपनिषद--प्रवचन--02


यौन के आधारभूत द्वैत का अतिक्रमण—दूसरा प्रवचन




प्रथम खंड

     
      अँ केनेषितं पतति प्रेषितं मन: केन प्राण: प्रथम: प्रैति युक्‍ति:।
      केनेषितां वाचमिमां वदंति चक्षु: श्रोत्रं क उ देवो युनीक्‍ति।। १।।
      श्रोत्रस्य श्रोत्र मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राण:।
      चक्षुषश्चक्षुरतिमुव्यधीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति। 1२।।


                  केनोपनिषद प्रथम अध्‍याय


किसकी इच्छा पर और किसके द्वारा उत्पे्ररित होकर मन अपने विषयों पर नीचे उतरता है? किसके द्वारा उत्‍प्रेरित होकर मुख्य प्राण संचारित होता है? किसके द्वारा उत्‍प्रेरित होकर मनुष्य यह वाणी बोलते हैं? कौन—सा देव आंखों तथा कानों को निर्दोंषित करता है?


वह आत्मा कान का भी कान है मन का भी मन? है वाणी की भी वाणी है, प्राण का भी प्राण है, और आंख की भी आंख है। और ज्ञानीजन अपनी आत्मा को इन ज्ञानेंद्रियों से अलग कर ज्ञानेंद्रियों से ऊपर उठ जाते हैं और अमरता को उपलब्ध होते हैं।