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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-07)

मैं अभी मरा नहीं हूं—(प्रवचन-सातवां)  


ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 27 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
एक भूतपूर्व सम्राट ने सद्‌गुरु गूडो से पूछा:
एक बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को मृत्यु के बाद क्या घटता है?
गूडो ने उत्तर दिया:

मैं इसे कैसे जान सकता हूं?
भूतपूर्व सम्राट ने कहा:
आपको इस वजह से जानना चाहिए- क्योंकि आप एक सद्‌गुरु हैं।
गूडो ने उत्तर दिया:

वह तो ठीक है श्रीमान्!
लेकिन मैं अभी मरा ही नहीं हूं।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-06)

जागरण—(प्रवचन-छठवां)  

ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 26 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
महान सदगुरु गीजान के सान्निध्य में
तीन वर्षों के कठोर प्रशिक्षण के बाद भी
कोश सतोरी प्राप्त करने में समर्थ न हो सका था।
सात दिनों के विशिष्ट अनुशासन सत्र के प्रारम्भ में ही
उसने सोचा कि अंतिम रूप से उसके लिए यह अवसर आ पहुंचा है,
वह मंदिर के द्वार की मीनार के ऊपर चढ़ गया।

और बुद्ध की प्रतिमा के सामने जाकर उसने यह प्रतिज्ञा की:
या तो मैं यहां अपने सपने को साकार करूंगा,
अथवा इस मीनार के नीचे गिरे, वे मेरे मृत शरीर को पाएंगे।

रविवार, 22 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-05)

मौन का सद्‌गुरु—(प्रवचन पांचवां)  



ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 25 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
वहां एक भिक्षु रहता था, जो अपने को 'मौन का सदगुरु' कहता था।
वास्तव में वह एक ढोंगी था, और उसके पास कोई प्रामाणिक समझ न थी।

अपने धोखा देने वाले निरर्थक ज़ेन का व्यापार करने के लिए-
उसने अपने पास सेवा के लिए दो वाक्पटु भिक्षुओं को,
लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए रख छोड़ा था।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

33-सांसों का एतबार (कविता)

सांसों का एतबार --(मेरी कविता)

कितनी सपनों को था देखा हमने,
  कितने तारे थे मेरे दामन में।।
    कितनी रुसवाईयां सही थी हमने,
      कितने बादों पर एतबार किया था।
        सांसों के कुछ हारों को गुथा हमने।
          रातों के तारों के छुपने से पहले,
            कितने आंसुओं की पिरोती थी माला!
              कितनी सिसकियाँ दबी घुटी सी,
             सिसक-सिसक कर कुछ कहना चाहा,
           सपनों को पलकों के जाने से पहले।
         कितनी सीने में दबी थी आहें।
      कोई तो जाकर उनसे कह दो।

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-04)

लुलियांग का जलप्रपात—प्रवचन-चौथा

ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 22 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)

सूत्र:

कनफ्यूशियस लुलियांग के विशाल जलप्रपात को देख रहा था।
वह दो सौ फीट की ऊंचाई से नीचे गिरता है,
और उसके झाग पंद्रह मील दूर तक पहुंचते हैं।.
मछली-घड़ियाल जैसे जीव भी उसके प्रवाह में जीवित नहीं रह पाते।
फिर भी कनफ्यूशियस  ने एक वृद्ध व्यक्ति को

उसके अन्दर जाते हुए देखा।
यह सोचते हुए कि वह वृद्ध व्यक्ति, किसी मुसीबत से पीड़ित होकर ही
अपने जीवन को समाप्त कर देने को इच्छूक है,

कनफ्यूशियस  ने अपने एक शिष्य को आदेश दिया:

कि वह किनारे-किनारे दौड़ते हुए वहां जाकर-
उसे बचाने का प्रयास करे।

रविवार, 15 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-03)

शून्यता और भिसु की नाक--(प्रवचन-तीसरा)
 ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 23 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
सूत्र:
सीको ने अपने एक भिक्षु से कहा:
क्या तुम शून्यता को झपटकर पकड़ सकते हो?
भिक्षु ने कहा: मैं प्रयास करूंगा,
और उसने अपनी हथेलियों को प्यालानुमा बनाकर हवा में
उसे मुट्ठियों में पकड़ने का प्रयास किया।
सीको ने कहा: ऐसा करना ठीक नहीं है,
तुमने वहां कोई भी चीज नहीं पाई।
भिक्षु ने कहा : आप ही ठीक हैं, प्यारे सदगुरु, पर कृपया हमें इससे
बेहतर उपाय करके बतालाइए।
तब सीको ने भिक्षु की नाक पकड़कर
उसे तेजी से झटका देकर अपनी ओर खींचा।
'आउच' की ध्वनि के साथ भिक्षु चीखते हुए बोला--आपने मुझ पर
चोट की?
सीको ने कहा: शून्यता को पकड़ने का यही एक रास्ता है।

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-02)

सद्‌गुरु और शिष्ट--प्रवचन-दूसरा


ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो
 (ज़ेन पर ओशो द्वारा दिनांक 22 फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
लीहन्ध हर समय व्यस्त नहीं रहता था।
यिन शेंग ने अवसर पाकर उससे गुहा रहस्यों को दिए जाने की मांग की:
मुंह मोड़कर लहित्थू ने उसे दूर हटा दिया होता, और उससे कुछ कहा ही
नहीं होता।
लेकिन यह ख्याल कर
कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में वह भी विकसित हो सकता है--
उसने कहा
मेरा ख्याल था कि तुम मेधावी और होशियार हो,
पर वास्तव में तुम अन्य सभी लोगों से भिन्न नहीं हो।
आज मैं तुम्हें बताऊंगा कि मैंने अपने सद्‌गुरु से क्या सीखा?

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

ऋतु आये फल होय-(प्रवचन-01)

ऋतु आये फल होय--The Gras grow by Itself--ओशो

ज़ेन : एक प्राकृतिक प्रवाह

(ज़ेन पर ओशो द्वारा फरवरी 1975 में अंग्रेजी में दिये गये अमृत प्रवचनों का हिन्दी में अनुवाद)
ज़ेन का महत्व क्या है?--(पहला प्रवचन)
प्रवचन : दिनांक 21 फरवरी 1975
सारसूत्र:
किसी व्यक्ति ने सद्‌गुरु बोकूजू से पूछा :
हमें कपड़े पहनने होते हैं और प्रतिदिन भोजन करना होता है,
इस सभी से हम कैसे बाहर आएं?

बोकूजू ने उत्तर दिया :
हम कपड़े पहनें, हम भोजन करें।
प्रश्नकर्त्ता ने कहा :
मैं कुछ समझा नहीं।
बोकूजू ने उत्तर दिया :
यदि तुम नहीं समझे,
तो अपने कपड़े पहन लो,
और खाना खा लो।
 ज़ेन क्या है?
ज़ेन है एक बहुत असाधारण विकास।

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-16)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-सौलहवां

 ओ. के.। पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट में मैं कितनी पुस्तकों के बारे में चर्चा कर चुका हूं? हूंऽऽऽ...?
‘‘चालीस, ओशो।’’
चालीस?
‘‘हां, ओशो।’’
तुम्हें पता है कि मैं एक जिद्दी आदमी हूं। चाहे कुछ भी हो जाए मैं इसे पचास तक पूरा करके रहूंगा; वरना दूसरा पोस्ट-पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट प्रारंभ कर दूंगा। सच में मेरी जिद ने ही मुझे लाभ पहुंचाया है: दुनिया में जो हर प्रकार की बकवास भरी पड़ी है, उससे मुकाबला करने में मुझे इससे मदद मिली है। दुनिया में हर जगह हर किसी के चारों ओर यह जो अति सामान्य योग्यता वाला आदमी है, उसके विरुद्ध अपनी बुद्धिमत्ता को बचाए रखने में इसने मेरी काफी मदद की है। इसलिए मैं इस बात से बिलकुल भी दुखी नहीं हूं कि मैं जिद्दी हूं; असल में, मैं भगवान का शुक्रिया अदा करता हूं कि उसने मुझे इस तरह से बनाया है: पूरी तरह से जिद्दी।

रविवार, 8 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-15)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-पंद्रहवां

ओ. के.। आज की इस पोस्टस्क्रिप्ट में जिस पहली पुस्तक के बारे में मैं चर्चा करने जा रहा हूं, उसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगाकि मैं उसकी चर्चा करूंगा। वह है महात्मा गांधी की आत्मकथा: ‘माइ एक्सपेरिमेंट्‌स विद ट्रूथ’--सत्य के साथ मेरे प्रयोग।’ सत्य के उनके प्रयोगों के बारे में चर्चा करना सच में अदभुत है। यह सही समय है।
आशु, तुम अपना काम जारी रखो; वरना मैं महात्मा गांधी की निंदा करना शुरू कर दूंगा। काम जारी रखो ताकि मैं इस बेचारे के प्रति नरम रह सकूं। अब तक तो मैं कभी भी नरम नहीं रहा। महात्मा गांधी के प्रति थोड़ा नरम रहने में शायद तुम मेरी मदद कर सको। हालांकि मुझे पता है कि यह लगभग असंभव है।

लेकिन मैं निश्चित रूप से कुछ सुंदर बातें कह सकता हूं। एक: किसी ने भी अपनी आत्मकथा इतनी प्रामाणिकता के साथ, इतनी ईमानदारी के साथ नहीं लिखी है। यह अब तक कि लिखी गई सबसे अधिक प्रामाणिक आत्मकथाओं में से एक है।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-14)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-चौदहवां

मुझे पता चला है, देवगीत, सुबह तुम बहक कर आपे से बाहर हो गए थे। कभी-कभी बहक जाना एक अच्छा व्यायाम है, लेकिन आपे से बाहर होने का मैं समर्थन नहीं करता हूं। यह एक सामान्य बात है--जिसे गार्डन वैरायटी भी कह सकते हैं। बहको भीतर की ओर! यदि तुम्हें बहकना ही है, तो आपे से बाहर क्यों? स्वयं के भीतर क्यों नहीं? यदि तुम भीतर की ओर बहक जाओ तो ओशो दीवाने बन जाओे, और यह मूल्यवान है। तुम ओशो दीवाना होने के मार्ग पर हो, लेकिन तुम बहुत सावधानीपूर्वक चल रहे हो; कहना चाहिए वैज्ञानिक ढंग से, तर्कसंगत उपाय से।
मैं तुम्हें नोट्‌स भी नहीं लिखने देता हूं, बीच में ही बोल पड़ता हूं। क्षमा मांगने के बजाय मैं तुम पर चिल्लाता हूं, और जब तुम बीच में बोल भी नहीं रहे होते हो, तब भी मैं कहता हूं, ‘‘बीच में मत बोलो, देवगीत!’’ मैं जानता हूं कि इससे कोई भी बहक सकता है।

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-13)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-तेहरवां

आज की पहली पुस्तक है: इरविंग स्टोन की ‘लस्ट फॉर लाइफ’--‘जीवेषणा।’ यह विनसेंट वानगॉग के जीवन पर आधारित एक उपन्यास है। स्टोन ने  इतना अदभुत कार्य किया है कि मुझे याद नहीं आता कि किसी और ने इस तरह का कार्य किया हो। किसी ने भी किसी दूसरे व्यक्ति के बारे में इतनी अंतरंगता से नहीं लिखा है, जैसे कि वह अपने ही खुद के अस्तित्व के बारे में लिख रहा हो।
‘लस्ट फॉर लाइफ’ मात्र एक उपन्यास नहीं है, यह एक आध्यात्मिक पुस्तक है। मेरे अर्थ में यह आध्यात्मिक है, क्योंकि मेरी दृष्टि में कोई केवल तभी आध्यात्मिक हो सकता है जब जीवन के सभी आयाम एक साथ संयुक्त हों। यह पुस्तक इतनी खूबसूरती से लिखी गई है कि इरविंग स्टोन स्वयं कभी इससे बेहतर लिख पाएगा इसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है।
इस पुस्तक के बाद उसने कई और पुस्तकें लिखी हैं, और आज की मेरी दूसरी पुस्तक भी इरविंग स्टोन की ही है। मैं इसे दूसरी गिन रहा हूं, क्योंकि यह दूसरे दर्जे की है, ‘लस्ट फॉर लाइफ’ की गुणवत्ता की नहीं है। यह है ‘दि एगोनि एंड एक्सटेसी’--‘पीड़ा और आनंद’, यह भी उसी तरह की है--दूसरे व्यक्ति के जीवन पर आधारित।

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-12)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-बारहवां

ओ. के., अब यह पोस्ट-पोस्टस्क्रिप्ट है। मेरी परेशानी समझना मुश्किल है। जहां तक मुझे याद है मैं हमेशा से पढ़ता ही रहा हूं और दिन हो कि रात हो मैंने पढ़ने के सिवाय और कुछ भी नहीं किया है, लगभग आधी शताब्दी मैं पढ़ता ही रहा हूं। इसलिए स्वभावतः, किसी पुस्तक का चुनाव करना करीब-करीब एक असंभव सा कार्य है। लेकिन मैंने इन सत्रों में यह काम जारी रखा है, इसलिए जिम्मेवारी तुम्हारी है।

पहली: मार्टिन बूबर... यदि मार्टिन बूबर को शामिल न करता तो मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाता। प्रायश्चित के रूप मैं उनकी दो पुस्तकें शामिल कर रहा हूं: पहली है, ‘टेल्स ऑफ हसीदिज्म।’ डी. टी. सुजुकी ने झेन के लिए जो किया है, वही बूबर ने हसीद धर्म के लिए किया है। दोनों ने साधकों के लिए अदभुत कार्य किया है, लेकिन सुजुकी बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए; पर अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि बूबर नहीं हो सके।

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-11)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-ग्यारहवीं

 ओ. के.। पोस्टस्क्रिप्ट में अब तक मैंने कितनी पुस्तकों के बारे में बताया होगा?
‘‘अब तक चालीस पुस्तकें पोस्टस्क्रिप्ट में हो गई हैं, ओशो।’’
ठीक है। मैं एक जिद्दी आदमी हूं।
 पहली: कॉलिन विलसन की दि आउटसाइडर।यह इस सदी की सबसे प्रभावशाली पुस्तकों में से एक है--लेकिन आदमी साधारण है। वह अदभुत क्षमतावानविद्वान है, और हां, यहां-वहां कुछ अंतर्दृष्टियां हैं--लेकिन पुस्तक सुंदर है।
जहां तक कॉलिन विलसन का सवाल है, वह खुद आउटसाइडर, बाहरी व्यक्ति नहीं है; वह एक सांसारिक आदमी है। मैं एक आउटसाइडर हूं, इसीलिए यह पुस्तक मुझे अच्छी लगती है। मुझे यह अच्छी लगती है क्योंकि--हालांकि वह जिस आयाम की बात करता है वह खुद उसको नहीं जानता है--उसका लेखन सत्य के बहुत, बहुत निकट है। लेकिन ध्यान रहे, भले ही तुम सत्य के निकट होओ तुम अभी भी हो असत्य ही। या तो तुम सत्य हो या असत्य, बीच में कुछ भी नहीं होता है।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-10)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-दसवां
ओ. के., मैंने पोस्टस्क्रिप्ट में कितनी किताबों के बारे में बात कर ली है--चालीस?
‘‘मेरे खयाल से, तीस, ओशो।’’
तीस? अच्छा है। कितनी राहत की बात है यह, क्योंकि बहुत सारी पुस्तकें अभी भी प्रतीक्षा कर रही हैं। जो राहत मुझे मिली है उसको तुम केवल तभी समझ सकते हो जब तुम्हें हजार में से एक पुस्तक को चुनना हो। और ठीक यही कार्य मैं कर रहा हूं। पोस्टस्क्रिप्ट जारी है...
 पहली पुस्तक, ज्यां पाल सार्त्र की बीइंग एंड नथिंगनेस। यह मैं पहले ही बता दूं कि यह आदमी मुझे पसंद नहीं है। मैं इसे इसलिए पसंद नहीं करता, क्योंकि यह आदमी अभिमान से भरा हुआ है। यह इस सदी के सबसे अभिमानी लोगों में से एक है।

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-09)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-नौवां

 अब मेरा समय है। मुझे नहीं लगता है कि किसी ने भी एक दंत-चिकित्सक की कुर्सी पर बैठ कर बोला होगा। यह मेरा विशेषाधिकार है। मैं देख रहा हूं कि संबुद्ध लोगों को भी मुझसे ईर्ष्या हो रही है।
पोस्टस्क्रिप्ट जारी है...
 आज की पहली पुस्तक: हास की दि डेस्टिनी ऑफ दि माइंड।मुझे पता नहीं कि उसके नाम का उच्चारण कैसे किया जाता है: एच-ए-ए-एस--मैं उसे हास कहूंगा। यह पुस्तक बहुत प्रसिद्ध नहीं है, इसका सीधा सा कारण यह है कि यह बहुत गहरी है। मुझे लगता है कि यह व्यक्ति हास जर्मन होना चाहिए; फिर भी उसने अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। वह कवि नहीं है, वह एक गणितज्ञ की तरह लिखता है। यही वह व्यक्ति है जिससे मैंने फिलोसियाशब्द पाया है।

रविवार, 1 दिसंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-08)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो 
सत्र--आठवां
एक साधक बनो--एक खोजी। पोस्टस्क्रिप्ट, पश्चलेख जारी है।
 पहली किताब है फ्रेड्रिक नीत्शे की: विल टु पॉवर। जब तक वह जीवित था, इसे प्रकाशित नहीं किया गया। यह उसके मरने के बाद प्रकाशित हुई, और इस बीच, पुस्तक के छपने से पहले ही, तुम्हारे बहुत से तथाकथित महान व्यक्ति इसकी पाडुंलिपी से चोरी कर चुके थे।
अल्फ्रेड एडलर महानतममनोवैज्ञानिकों में से एक था। मनोवैज्ञानिकों की त्रिमूर्ति में से वह एक था: फ्रायड, जुंग और एडलर। वह बस एक चोर है। एडलर ने अपना पूरा मनोविज्ञान फ्रेड्रिक नीत्शे से चुराया है।
एडलर कहता है: शक्ति पाने की आकांक्षामनुष्य की मौलिक प्रवृत्ति है। गजब! किसको वह धोखा देने की कोशिश कर रहा था? फिर भी लाखों मूर्ख धोखा खा गए। अभी भी एडलर को महान व्यक्ति माना जाता है। वह बस एक छोटा सा आदमी है, उसे भूल जाओ और क्षमा कर दो।

शनिवार, 30 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-07)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र--सातवां

ओ. के.। मैं तुम्हारी नोटबुक के खुलने की आवाज सुन रहा हूं। अब यह एक घंटे का समय मेरा है, और मेरे एक घंटे में साठ मिनट नहीं होते। वे कुछ भी हो सकते हैं--साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ... या संख्याओं के पार भी। यदि यह एक घंटा मेरा है तो इसे मेरे साथ संगति बिठानी होगी, इससे विपरीत नहीं हो पाएगा।
पोस्टस्क्रिप्ट, पश्चलेख जारी है।
आज का जो पहला नाम है: मलूक, इस नाम को पश्चिम में किसी ने सुना भी नहीं होगा। वे भारत के अत्यंय महत्वपूर्ण रहस्यदर्शियों में से एक हैं। उनका पूरा नाम है, मलूकदास, लेकिन वे अपने को केवल मलूक कहते हैं, जैसे कि वे कोई बच्चे हों--और वे सच में ही बच्चे थे, ‘बच्चे जैसे’ नहीं।

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-06)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-छठवां

अब पोस्टस्क्रिप्ट, पश्चलेख। पिछले सत्र में जब मैंने कहा था कि यह उन पचास पुस्तकों की श्रृंखला का अंत है, जिनको मुझे अपनी सूची में शामिल करना था, यह तो मैंने बस ऐसे ही कह दिया था। मेरा मतलब यह नहीं था कि मेरी प्रिय पुस्तकों का अंत हो गया है, बल्कि संख्या से था। मैंने इसलिए पचास चुनी थी, क्योंकि मुझे लगा कि वह एक सही संख्या होगी। फिर भी निर्णय तो लेना ही पड़ता है, और सभी निर्णय स्वैच्छिक होते हैं। लेकिन आदमी प्रस्ताव रखता है और परमात्मा निपटारा करता है--परमात्मा, जो कि है नहीं।

जब मैंने कहा था कि यह श्रृंखला का अंत है, तो वह भीड़ जो मुझे तंग कर रही थी--‘गीत गोविंद’ के जयदेव, ‘दि सीक्रेट्‌ डॉक्ट्रिन’ की मैडम ब्ला-ब्ला ब्लावट्‌स्की, और पूरी मंडली, उनमें बहुतों से तो मैं परिचित हूं लेकिन पहचानना भी नहीं चाहता, मेरी सूची में उन्हें

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-05)

मेरी प्रिय पुस्तकें--ओशो 

सत्र—पांचवां
अब काम शुरू होता है...
‘‘अथातो ब्रह्म जिज्ञासा--अब ब्रह्म की जिज्ञासा’’... इस तरह से बादरायण अपनी महान पुस्तक की शुरुआत करते हैं, शायद महानतम। बादरायण की पुस्तक प्रथम है जिस पर आज मैं बोलने जा रहा हूं। वे अपनी महान पुस्तक ‘ब्रह्मसूत्र’ का प्रारंभ इस वाक्य से करते हैं: ‘‘ब्रह्म की जिज्ञासा।’’ पूरब में सभी सूत्र हमेशा इसी तरह से शुरू होते हैं ‘‘अब... अथातो’’ कह कर, इससे अन्यथा कभी नहीं।

बादरायण उनमें से एक हैं जिन्हें गलत ही समझा जाता है, इसका सरल सा कारण यह है कि वे बहुत गंभीर हैं। रहस्यदर्शी को इतना गंभीर नहीं होना चाहिए, यह कोई अच्छा गुण नहीं है। लेकिन वे ऐसे ब्राह्मण हैं जो हजारों वर्ष पहले हुआ करते थे, ब्राह्मणों में उठना-बैठना, ब्राह्मणों से बातचीत, और ब्राह्मण संसार के सर्वाधिक गंभीर लोग हैं। क्या तुम्हें पता है कि भारत के पास लतीफे नहीं हैं? इतने बड़े देश के लिए क्या यह आश्चर्य नहीं है कि यहां कोई लतीफा नहीं है? बिना लतीफों के ही इतना लंबा इतिहास! ब्राह्मण मजाक नहीं कर सकते, क्योंकि मजाक अपवित्र मालूम होता है, और वे पवित्र लोग हैं।

मंगलवार, 26 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-04)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-चौथा
ओ. के.। नोट्‌स लिखने के लिए तैयार हो जाओ।
देवगीत जैसे लोग अगर न होते तो संसार से बहुत कुछ खो जाता। यदि प्लेटो ने नोट्‌स न लिखे होते तो सुकरात के बारे में हम कुछ भी नहीं जान पाते, न बुद्ध के बारे में, न ही बोधिधर्म के बारे में। जीसस के बारे में भी उनके शिष्यों के नोट्‌स के माध्यम से पता चलता है। कहा जाता है कि महावीर एक शब्द कभी नहीं बोले। मैं यह जानता हूं कि ऐसा क्यों कहा जाता है। ऐसा नहीं है कि वे एक शब्द भी नहीं बोले, लेकिन संसार से सीधे उनका संवाद कभी नहीं रहा। शिष्यों के नोट्‌स के माध्यम से ही जानकारी प्राप्त हुई।
ऐसा एक भी उदाहरण ज्ञात नहीं है जहां किसी संबुद्ध ने स्वयं कुछ लिखा हो। जैसा कि तुम जानते ही हो, संबुद्ध व्यक्ति होना मेरे लिए अंतिम घटना नहीं है। उससे भी पार एक ज्ञानातीत अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति न तो संबुद्ध होता है और न ही असंबुद्ध।

रविवार, 24 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-03)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र-तीसरा

अब मेरा काम शुरू होता है। यह कैसा मजाक है! सबसे बड़ा मजाक यह कि चीनी संत सोसान मेरी चेतना का द्वार खटखटा रहे थे। ये संत भी बड़े अजीब होते हैं। तुम कुछ नहीं कह सकते कि कब ये तुम्हारे दरवाजे खटखटाने लगें। तुम अपनी प्रेमिका के साथ प्रेम कर रहे हो और सोसान लगे दरवाजा खटखटाने। वे कभी भी आ जाते हैं--किसी भी समय--वे किसी शिष्टाचार में विश्वास नहीं करते। और वे मुझसे क्या कह रहे थे? वे कह रहे थे कि तुमने मेरी पुस्तक शामिल क्यों नहीं की?’
हे परमात्मा, यह सच है! मैंने उनकी पुस्तक को केवल इसलिए अपनी सूची में शामिल नहीं किया, क्योंकि उनकी पुस्तक में सभी कुछ समाहित है। अगर मैं उनकी पुस्तक शामिल करूं, तो फिर और किसी की जरूरत नहीं रहेगी, फिर किसी और पुस्तक की आवश्यकता ही नहीं रही। सोसान अपने आप में पर्याप्त हैं। 

शनिवार, 23 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-सत्र-02

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र--दूसरा
मैं क्षमा चाहता हूं, क्योंकि कुछ पुस्तकों का उल्लेख आज सुबह मुझे करना चाहिए था, लेकिन मैंने किया नहीं। जरथुस्त्र, मीरदाद, च्वांग्त्सु, लाओत्सु, जीसस और कृष्ण से मैं इतना अभिभूत हो गया था कि मैं कुछ ऐसी पुस्तकों को भूल ही गया जो कि कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। मुझे भरोसा नहीं आता कि खलील जिब्रान की ‘दि प्रोफेट’ को मैं कैसे भूल गया। अभी भी यह बात मुझे पीड़ा दे रही है। मैं निर्भार होना चाहता हूं--इसीलिए मैं कहता हूं मुझे दुख है, किंतु किसी व्यक्ति विशेष के प्रति नहीं।

कैसे मैं उस पुस्तक को भूल गया जो परम शिखर है: ‘दि बुक ऑफ दि सूफी़ज!’ शायद इसीलिए भूल गया क्योंकि इसमें कुछ है ही नहीं, बस खाली पन्ने। पिछले बारह सौ वर्षों से सूफियों ने इसे परम श्रद्धापूर्वक संजोया है, वे इसे खोलते हैं और पढ़ते हैं। किसी को भी आश्चर्य होता है कि वे पढ़ते क्या हैं। जब बहुत लंबे समय तक खाली पन्नों को देखो तो स्वयं पर ही लौट आने के लिए बाध्य हो जाते हो। यही असली अध्ययन है--असली काम।

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

मेरी प्रिय पुस्तकें-(सत्र-01)

मेरी प्रिय पुस्तकें-ओशो

सत्र--पहला 

अतिथि, आतिथेय, श्वेत गुलदाउदी... यही वे क्षण हैं, श्वेत गुलाबों जैसे, उस समय कोई न बोले:
न तो अतिथि,
न ही आतिथेय...
केवल मौन।
लेकिन मौन अपने ही ढंग से बोलता है, आनंद का, शांति का, सौंदर्य का और आशीषों का अपना ही गीत गाता है; अन्यथा न तो कभी कोई ‘ताओ तेह किंग’ घटित होती और न ही कोई ‘सरमन ऑन दि माउंट।’ इन्हें मैं वास्तविक काव्य मानता हूं जब कि इन्हें किसी काव्यात्मक ढंग से संकलित नहीं किया गया है। ये अजनबी हैं। इन्हें बाहर रखा गया है। एक तरह से यह सच भी है: इनका किसी रीति, किसी नियम, किसी मापदंड से कुछ लेना-देना नहीं है; ये उन सबके पार हैं, इसलिए इन्हें एक किनारे कर दिया गया है।

बुधवार, 20 नवंबर 2019

36-गूलाल-(ओशो)

36-गूलाल-भारत के संत

झरत दसहुं दिस मोती-ओशो

आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!
परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती।
ऐसे सब जगह वही मौजूद है। जाल फेंकने वाले में, जाल में..सब में वही मौजूद है। मगर उसकी यह मौजूदगी इतनी घनी है और इतनी सनातन है, इस मौजूदगी से तुम कभी अलग हुए नहीं, इसलिए इसकी प्रतीति नहीं होती।

35-दुल्हन-(ओशो)

35-दुल्हन-भारत के संत

प्रेम रस रंग औढ चदरियां-ओशो

मनुष्य तो बांस का एक टुकड़ा है--बस, बांस का! बांस की एक पोली पोंगरी । प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रगट होती है। संगीत छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर लेती हैं।
सारी बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है।
वीणा पड़ी रहेगी और छंद पैदा न होंगे। हृदय तो रहेगा, श्वास भी चलेगी, लेकिन प्रेम की रसधार न बहेगी। वृक्ष भी होंगे लेकिन फूल न खिलेंगे; जीवन में फल न आएंगे। परमात्मा से जुड़े बिना कोई परितृप्ति नहीं है। परमात्मा से जुड़े बिना लंबी-लंबी यात्रा है, बड़ी लंबी अथक यात्रा है; लेकिन मरुस्थल और मरुस्थल! मरूद्यानों का कोई पता नहीं चलता।

मंगलवार, 19 नवंबर 2019

34-यारि-(ओशो)

34-यारि-भारत के संत

विरहिनी मंदिर दियना बार-ओशो

एक बुद्धपुरुष का जन्म इस पृथ्वी पर परम उत्सव का क्षण है। बुद्धत्व मनुष्य की चेतना का कमल है। जैसे वसंत में फूल खिल जाते हैं, ऐसे ही वसंत की घड़ियां भी होती हैं पृथ्वी पर, जब बहुत फूल खिलते हैं, बहुत रंग के फूल खिलते हैं, रंग-रंग के फूल खिलते हैं। वैसे वसंत आने पृथ्वी पर कम हो गए, क्योंकि हमने बुलाना बंद कर दिया। वैसे वसंत अपने-आप नहीं आते, आमंत्रण से आते हैं। अतिथि बनाए हम उन्हें तो आते हैं। आतिथेय बनें हम उनके तो आते हैं।

प्रकृति का वसंत तो जड़ है, आता है, जाता है; लेकिन आत्मा के वसंत तो बुलाए जाते हैं तो आते हैं। हमने बुलाना ही बंद कर दिया। हमने प्रभु को पुकारना ही बंद कर दिया। पुकारते नहीं प्रभु को, आता नहीं प्रभु, तो फिर हम कहते हैं--प्रभु है कहां? प्रमाण क्या है उसका?

सोमवार, 18 नवंबर 2019

33-सरहपा-तिलोमा-(ओशो)

33-सरहपा-तिलोमा-भारत के संत

सहज-योग-ओशो

वसंत आया हुआ है। द्वार पर दस्तक दे रहा है। लेकिन तुम द्वार बंद किये बैठे हो।
जिस अपूर्व व्यक्ति के साथ हम आज यात्रा शुरू करते हैं, इस पृथ्वी पर हुए अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तियों में वह एक है। चौरासी सिद्धों में जो प्रथम सिद्ध है, सरहपा उसके साथ हम अपनी यात्रा आज शुरू करते हैं।
सरहपा के तीन नाम हैं, कोई सरह की तरह उन्हें याद करता है, कोई सरहपाद की तरह, कोई सरहपा की तरह। ऐसा प्रतीत होता है सरहपा के गुरु ने उन्हें सरह पुकारा होगा, सरहपा के संगी-साथियों ने उन्हें सरहपा पुकारा होगा, सरहपा के शिष्यों ने उन्हें सरहपाद पुकारा होगा। मैंने चुना है कि उन्हें सरहपा पुकारूं, क्योंकि मैं जानता हूं तुम उनके संगी-साथी बन सकते हो। तुम उनके समसामयिक बन सकते हो। सिद्ध होना तुम्हारी क्षमता के भीतर है।

शनिवार, 16 नवंबर 2019

32-बाबा गोरखनाथ—(ओशो)

32-बाबा गोरखनाथ—भारत के संत

मरो हे जोगी मरो-ओशो

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं--मेरी दृष्टि में--जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये...।
सूची बनानी आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है! किसे छोड़ो, किसे गिनो?...वे प्यारे व्यक्ति थे--अति कोमल, अति माधुर्यपूर्ण, स्त्रैण...। वृद्धावस्था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए। वे सुंदर से सुंदरतर होते गये थे...। मैं उनके चेहरे पर आते-जाते भाव पढ़ने लगा। उन्हें अड़चन भी हुई थी। कुछ नाम, जो स्वभावतः होने चाहिए थे, नहीं थे। राम का नाम नहीं था! उन्होंने आंख खोली और मुझसे कहा: राम का नाम छोड़ दिया है आपने! मैंने कहा: मुझे बारह की ही सुविधा हो चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

31-वाजिद शाह-(ओशो)

31-वाजिद शाह-भारत के संत

कहे वाजिद पूकार-ओशो

वाजिद--यह नाम मुझे सदा से प्यारा रहा है--एक सीधे-सादे आदमी का नाम, गैर-पढ़े-लिखे आदमी का नाम; लेकिन जिसकी वाणी में प्रेम ऐसा भरा है जैसा कि मुश्किल से कभी औरों की वाणी में मिले। सरल आदमी की वाणी में ही ऐसा प्रेम हो सकता है; सहज आदमी की वाणी में ही ऐसी पुकार, ऐसी प्रार्थना हो सकती है। पंडित की वाणी में बारीकी होती है, सूक्ष्मता होती है, सिद्धांत होता है, तर्क-विचार होता है, लेकिन प्रेम नहीं। प्रेम तो सरल-चित्त हृदय में ही खिलने वाला फूल है।
वाजिद बहुत सीधे-सादे आदमी हैं। एक पठान थे, मुसलमान थे। जंगल में शिकार खेलने गए थे। धनुष पर बाण चढ़ाया; तीर छूटने को ही था, छूटा ही था, कि कुछ घटा--कुछ अपूर्व घटा। भागती हिरणी को देखकर ठिठक गए, हृदय में कुछ चोट लगी, और जीवन रूपांतरित हो गया। तोड़कर फेंक दिया तीर-कमान वहीं। चले थे मारने, लेकिन वह जो जीवन की छलांग देखी--वह जो सुंदर हिरणी में भागता हुआ, जागा हुआ चंचल जीवन देखा--वह

गुरुवार, 14 नवंबर 2019

30-संत चरण दास-(ओशो)

30-संत चरण दास-भारत के संत-ओशो

नहीं सांझ नहीं भोर-ओशो

चरणदास उन्नीस वर्ष के थे, तब यह तड़प उठी। बड़ी नई उम्र में तड़प उठी।
मेरे पास लोग आते है, वे पूछते हैः क्यों आप युवकों को भी संन्यास दे देते हैं? संन्यास तो वृद्धों के लिए है। शास्त्र तो कहते हैंः पचहत्तर साल के बाद। तो शास्त्र बेईमानों ने लिखे होंगे, जो संन्यास के खिलाफ हैं। तो शास्त्र उन्होंने लिखें होंगे, जो संसार के पक्ष में हैं। क्योंकि सौ में निन्यानबे मौके पर तो पचहत्तर साल के बाद तुम बचोगे ही नहीं। संन्यास कभी होगा ही नहीं; मौत ही होगी। और इस दुनिया में जहां जवान को मौत आ जाती हो, वहां संन्यास को पचहत्तर साल तक कैसे टाला जा सकता है?

इस दुनिया में जहां बच्चे भी मर जाते हों, इस दुनिया में जहां जन्म के बाद बस, एक ही बात निश्चित हैमृत्यु, वहां संन्यास को एक क्षण भी कैसे टाला जा सकता है? इस दुनिया में जो मौत से घिरी है जिस दिन तुम्हें मौत दिख जाएगी, जिस दिन इससे पहचान हो जाएगी, जिस दिन तुम देख लोगेः सब राख ही राख है, उसी दिन संन्यास घटेगा। फिर क्षणभर भी रुकना संभव नहीं। फिर स्थगित नहीं किया जा सकता।

बुधवार, 13 नवंबर 2019

29-मीरा बाई-(ओशो)

29-मीरा बाई-भारत के संत

पद धूंधरू बांध मीरा नाची रे-ओशो

आओ, प्रेम की एक झील में नौका-विहार करें। और ऐसी झील मनुष्य के इतिहास में दूसरी नहीं है, जैसी झील मीरा है। मानसरोवर भी उतना स्वच्छ नहीं।
और हंसों की ही गति हो सकेगी मीरा की इस झील में। हंस बनो, तो ही उतर सकोगे इस झील में। हंस न बने तो न उतर पाओगे।
हंस बनने का अर्थ है: मोतियों की पहचान आंख में हो, मोती की आकांक्षा हृदय में हो। हंसा तो मोती चुगे!

28-अष्ठावक्र –(ओशो)

28-अष्ठावक्र –भारत के संत

अष्ठावक्र महागीता-ओशो

एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं।
मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है!
सबसे बड़ी बात तो यह है कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा।

कृष्ण की गीता का बहुत प्रभाव पड़ा। पहला कारण: कृष्ण की गीता समन्वय है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की चिंता है। समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाये तो कृष्ण राजी हैं।

27-संत रैैदास-(ओशो)

27-संत रैदास-भारत के संत-ओशो

मन ही पूजा मन ही धूप-रैदास

दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?
मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं!

सोमवार, 11 नवंबर 2019

26-भगवान महावीर-(ओशो)

26-भगवान महावीर-भारत के संत

महावीर मेंरी दृष्टि में-ओशो प्रवचन-01

 महावीर से प्रेम

मैं महावीर का अनुयायी तो नहीं हूं, प्रेमी हूं। वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का या लाओत्से का। और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता है।
और दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं, साधारणतः। या तो कोई अनुयायी होता है, और या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है, न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है--प्रेम, जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते। अनुयायी को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी यह कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता हो, वह प्रेम ही नहीं है।

25-भगवान कृष्ण-(ओशो)

25-भगवान कृष्ण-भारत के संत

कृष्णस्मृति-ओशो

पूर्णता का नाम कृष्ण
जीवन एक विशाल कैनवास है, जिसमें क्षण-क्षण भावों की कूची से अनेकानेक रंग मिल-जुल कर सुख-दुख के चित्र उभारते हैं। मनुष्य सदियों से चिर आनंद की खोज में अपने पल-पल उन चित्रों की बेहतरी के लिए जुटाता है। ये चित्र हजारों वर्षों से मानव-संस्कृति के अंग बन चुके हैं। किसी एक के नाम का उच्चारण करते ही प्रतिकृति हंसती-मुस्काती उदित हो उठती है।
आदिकाल से मनुष्य किसी चित्र को अपने मन में बसाकर कभी पूजा, तो कभी आराधना, तो कभी चिंतन-मनन से गुजरता हुआ ध्यान की अवस्था तक पहुंचता रहा है। इतिहास में, पुराणों में ऐसे कई चित्र हैं, जो सदियों से मानव संस्कृति को प्रभावित करते रहे हैं। महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध, राम ने मानव-जाति को गहरे छुआ है। इन सबकी बातें अलग-अलग हैं। कृष्ण ने इन सबके रूपों-गुणों को अपने आपमें समाहित किया है। कृष्ण एक ऐसा नाम है, जिसने जीवन को पूर्णता दी। एक ओर नाचना-गाना, रास-लीला तो दूसरी ओर युद्ध और राजनीति,

शनिवार, 9 नवंबर 2019

24-भगवान गौतमबुद्ध-(ओशो)

भगवान गौतम बुद्ध-भारत के संत

एस धम्मों सनंतनो-भाग-01 -ओशो

गौतम बुद्ध ऐसे हैं जैसे हिमाच्छादित हिमालय। पर्वत तो और भी हैं, हिमाच्छादित पर्वत और भी हैं, पर हिमालय अतुलनीय है। उसकी कोई उपमा नहीं है। हिमालय बस हिमालय जैसा है। गौतम बुद्ध बस गौतम बुद्ध जैसे। पूरी मनुष्य-जाति के इतिहास में वैसा महिमापूर्ण नाम दूसरा नहीं। गौतम बुद्ध ने जितने हृदयों की वीणा को बजाया है, उतना किसी और ने नहीं। गौतम बुद्ध के माध्यम से जितने लोग जागे और जितने लोगों ने परम-भगवत्ता उपलब्ध की है, उतनी किसी और के माध्यम से नहीं।
गौतम बुद्ध की वाणी अनूठी है। और विशेषकर उन्हें, जो सोच-विचार, चिंतन-मनन, विमर्श के आदी हैं।
हृदय से भरे हुए लोग सुगमता से परमात्मा की तरफ चले जाते हैं। लेकिन हृदय से भरे हुए लोग कहां हैं? और हृदय से भरने का कोई उपाय भी तो नहीं है। हो तो हो, न हो तो न हो। ऐसी आकस्मिक, नैसर्गिक बात पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। बुद्ध ने उनको चेताया जिनको चेताना सर्वाधिक कठिन है--विचार से भरे लोग, बुद्धिवादी, चिंतन-मननशील।

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

23-गुरू नानन देव-(ओशो)

गुरू नानन देव-भारत के संत

इक ओंकार सतिनाम –ओशो

एक अंधेरी रात। भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट। बीच-बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके। गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।
रात देर तक वे गाते रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।
नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू।

नानक ने कहा, सुनो मां! अभी पपीहा भी चुप नहीं हुआ। अपने प्यारे की पुकार कर रहा है, तो मैं कैसे चुप हो जाऊं? इस पपीहे से मेरी होड़ लगी है। जब तक यह गाता रहेगा, पुकारता रहेगा, मैं भी पुकारता रहूंगा। और इसका प्यारा तो बहुत पास है, मेरा प्यारा बहुत दूर है। जन्मों-जन्मों गाता रहूं तो ही उस तक पहुंच सकूंगा। रात और दिन का हिसाब नहीं रखा जा सकता है। नानक ने फिर गाना शुरू कर दिया।

22-आदि शंकरा चार्य-(ओशो)

आदि शंकरा चार्य-भारत के संत

भजगोविंद मुढ़मते-ओशो  

धर्म व्याकरण के सूत्रों में नहीं है, वह तो परमात्मा के भजन में है। और भजन, जो तुम करते हो, उसमें नहीं है। जब भजन भी खो जाता है, जब तुम ही बचते हो; कोई शब्द आस-पास नहीं रह जाते, एक शून्य तुम्हें घेर लेता है। तुम कुछ बोलते भी नहीं, क्योंकि परमात्मा से क्या बोलना है! तुम्हारे बिना कहे वह जानता है। तुम्हारे कहने से उसके जानने में कुछ बढ़ती न हो जाएगी। तुम कहोगे भी क्या? तुम जो कहोगे वह रोना ही होगा। और रोना ही अगर कहना है तो रोकर ही कहना उचित है, क्योंकि जो तुम्हारे आंसू कह देंगे, वह तुम्हारी वाणी न कह पाएगी। अगर अपना अहोभाव प्रकट करना हो, तो बोल कर कैसे प्रकट करोगे? शब्द छोटे पड़ जाते हैं। अहोभाव बड़ा विराट है, शब्दों में समाता नहीं, उसे तो नाच कर ही कहना उचित होगा। अगर कुछ कहने को न हो, तो अच्छा है चुप रह जाना, ताकि वह बोले और तुम सुन सको।

भजन--कीर्तन, गीत और नाच है। वे भाव को प्रकट करने के उपाय हैं।
बिना कहे तुम भजन हो जाओ, तुम गीत हो जाओ, इस तरफ शंकर का इशारा है। ये पद बड़े सरल हैं, सूत्र बड़े सीधे हैं--और शंकर जैसे मेधावी पुरुष ने लिखे हैं।

बुधवार, 6 नवंबर 2019

जीवन के विभिन्न आयाम-(प्रवचन-10)

जीवन के विभिन्न आयामों पर ओशो का नजरिया-(प्रवचन-दसवां)

Misc. English discourses
जीवन के विभिन्न आयामों पर ओशो का नजरिया
अध्याय-10
प्रेमः
यह प्रेम कोई बंधन नहीं निर्मित कर सकता। और यह प्रेम ही हृदय को सम्पूर्ण आकाश के प्रति, सारी हवाओं के प्रति खोल देना है।
ईर्ष्या बहुत जटिल है। उसमें कई उपादान सम्मिलित हैं। कायरता उनमें से एक है; अहंकारी ढंग दूसरा है; एकाधिकारत्व की आकांक्षा- प्रेम की अनुभूति नहीं बल्कि पकड़ की; प्रतिस्पर्धात्मक प्रवृत्ति; हीन होने का एक गहरे में बैठा भय।

बहुत सारी बातें ईर्ष्या में सम्मिलित हैं।
खतरे मोल लेना असली मनुष्य के मूल आधारों में से एक होना चाहिये।
जिस पल तुम देखो कि चीजें स्थिर होने लगीं, उन्हें बिखरा दो।

मंगलवार, 5 नवंबर 2019

संसार क्यों है?-(प्रवचन-09)

संसार क्यों है? ताकि मुक्ति फलित हो सके!-(प्रवचन-नौंवां)

(पतंजलि योग सूत्र से अनुवादित- ‘कष्ट, दुख और शांति’ में भी प्रकाशित)

published in a book titled- "Kasht, Dukh aur Shanti" from- "Yoga: The Alpha and the Omega", Vol 5, Chapter #1, Chapter title: The bridegroom is waiting for you,1 July 1975 am in Buddha Hall
वैज्ञानिक मानस सोचा करता था कि अव्यक्तिगत ज्ञान की, विषयगत ज्ञान की संभावना है। असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यही ठीक-ठीक अर्थ हुआ करता था। ‘अव्यक्तिगत ज्ञान’ का अर्थ है कि ज्ञाता अर्थात जानने वाला केवल दर्शक बना रह सकता है। जानने की प्रक्रिया में उसका सहभागी होना जरूरी नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह जानने की प्रक्रिया में सहभागी होता है तो वह सहभागिता ही ज्ञान को अवैज्ञानिक बना देती है। वैज्ञानिक ज्ञाता को मात्र द्रष्टा बने रहना चाहिए, अलग-थलग बने रहना चाहिए, किसी भी तरह उससे जुड़ना नहीं चाहिए जिसे कि वह जानता है।

21-ऋषि नारद-(ओशो)

ऋषि नारद-भारत के संत

भक्ति सूत्र--ओशो

जीवन है ऊर्जा -- ऊर्जा का सागर। समय के किनारे पर अथक, अंतहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं: न कोई प्रारंभ है, न कोई अंत; बस मध्य है, बीच है। मनुष्य भी उसमें एक छोटी तरंग है; एक छोटा बीज है -- अनंत संभावनाओं का।
तरंग की आकांक्षा स्वाभाविक है कि सागर हो जाए और बीज की आकांक्षा स्वाभाविक है कि वृक्ष हो जाए। बीज जब तक फूलों में खिले न, तब तक तृप्ति संभव नहीं है।

मनुष्य कामना है परमात्मा होने की। उससे पहले पड़ाव बहुत हैं, मंजिल नहीं है। रात्रि-विश्राम हो सकता है। राह में बहुत जगहें मिल जाएंगी, लेकिन कहीं घर मत बना लेना। घर तो परमात्मा ही हो सकता है।
परमात्मा का अर्थ है: तुम जो हो सकते हो, उसकी पूर्णता।

20-ऋषि शांडिल्य-(ओशो)

ऋषि शांडिल्य-भारत के संत

( अथातो भक्ति जिज्ञासा)--ओशो

इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति। और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव होता है--रसो वै सः--उस रस को जगा लेने की कीमियां है भक्ति।
शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं। अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है।

शांडिल्य के सूत्र दर्शनशास्त्र के सूत्र नहीं हैं, प्रेमशास्त्र के सूत्र हैं। इसलिए पहले सूत्र में ही शांडिल्य ने अपनी यात्रा का सारा संकेत दे दिया--मैं किस तरफ जा रहा हूं।