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शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--151

दुःख से मुक्‍ति का मार्ग: तादात्‍म’‍य का विसर्जन—

(प्रवचन—पहला) अध्‍याय—13
सार—सूत्र:

 श्रीमद्भगवद्गीता अथ त्रयौदशोऽध्याय:

 श्री भगवानुवाच:
ड़दं शरीर कौन्तेय क्षेत्रीमित्यीभधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं पाहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्धिद:।। 1।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्ञनिं यतज्ज्ञानं मतं मम।। 2।।
तत्‍क्षेत्रं यच्च यादृक्‍च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्‍प्रभावश्च तत्‍समासेन मे श्रेृणु।। 3।।

उसके उपरांत श्रीकृष्‍ण भगवान बोले है अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसे कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्र ऐसा उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। और हे अर्जुन तू अब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी मेरे को ही जान।
और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का अर्थात विकार रहित प्रकृति का और पुरूष का जो तत्‍व से जानना है, वह ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। इसलिए वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है और जिस कारण से जो हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप में मेरे से मन।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--19)

फलाकांक्षामुक्त कर्म के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—उन्‍नीसवां)
 


दिनांक 4 अक्‍टूबर, 1970;
सांध्‍या, मनाली (कुल्लू्)

 "साधना-जगत में यज्ञों और "रिचुअल्स' का बहुत उल्लेख है। यज्ञ की बहुत विधियां भी हैं। होमात्मक यज्ञ की बात आती है। लेकिन गीता में जपयज्ञ और ज्ञानयज्ञ को विशेष स्थान दिया गया है। साथ ही आपने जप पर बात करते हुए अजपा जप के बारे में कहा था। तो गीता के जपयज्ञ, ज्ञानयज्ञ और अजपा जप पर भी प्रकाश डालने की कृपा करें।'

जीवन में "रिचुअल' की, क्रियाकांड की अपनी जगह है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह नब्बे प्रतिशत "रिचुअल' और क्रियाकांड से ज्यादा नहीं है। जीवन को जीने के लिए, जीवन से गुजरने के लिए बहुत कुछ जो अनावश्यक है आवश्यक मालूम होता है। आदमी का मन ऐसा है।

मनुष्यजाति के पूरे इतिहास में हजारों तरह के "रिचुअल', हजारों तरह के क्रियात्मक खेल विकसित हुए हैं। ये सारे-के-सारे खेल अगर गंभीरता से ले लिए जाएं, तो बीमारी बन जाते हैं। अगर ये सारे खेल की तरह लिए जाएं, तो उत्सव बन जाते हैं। जैसे, जब पहली बार अग्नि का आविष्कार हुआ--और सबसे बड़े आविष्कारों में अग्नि का आविष्कार है।

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--98

श्रद्धा: किसी के प्रति नहीं होती—(प्रवचन—अट्ठारहवां)


दिनांक  8 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:



1—आपके प्रति श्रद्धा रखने और स्वयं में श्रद्धा रखने में क्या विरोधाभास है?

2—बुद्ध को क्या प्रेरित करता है?

3—बच्चे पैदा करने का उचित समय कौन सा है?

4—केवल सेक्स, प्रेम और रोमांस के बारे में सोचना क्या गलत है?





 पहला प्रश्न—



आपके प्रवचनों एक प्रवचन में कहीं गई एक बात ने मुझे गहराई तक आंदोलित कर दिया है। यह बात है, आपने आप में श्रद्धा करने और आपमें श्रद्धा रखने में विरोधाभास में भीतर एक भाग है जो कहता है: यदि मैं अपने स्‍वयं के स्‍व में श्रद्धा करता हूं और अपने स्‍वयं के स्‍व का अनुसरण करता हूं, तो मैंने आपके समक्ष समर्पण कर दिया है और आपको हां कह दिया है। लेकिन मैं यह निश्‍चित नहीं कर पा रहा हूं कि क्‍या यह सब बस कोई तर्क द्वारा समझने का प्रयास है जिसे मैने अपने स्‍वयं के लिए निर्मित कर लिया है?’

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--18)

अभिनय-से जीवन के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—अट्ठारहवां) 


दिनांक 4 अक्‍टूबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुन्लू)

 "भगवान श्री, श्रीकृष्ण कहते हैं कि निष्कामता और अनासक्ति से बंधनों का नाश होता है और परमपद की प्राप्ति होती है। कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए समझाएं कि किस साधना या उपासना से यह उपलब्धि होगी? सामान्यजन के लिए सीधे निष्काम व अनासक्त होना तो संभव नहीं दिखता।'
 बसे पहले तो अनासक्ति का अर्थ समझ लेना चाहिए। अनासक्ति थोड़े-से अभागे शब्दों में से एक है जिसका अर्थ नहीं समझा जा सका है। अनासक्ति से लोग समझ लेते हैं--विरक्ति। अनासक्ति विरक्ति नहीं है। विरक्ति भी एक प्रकार की आसक्ति है। विरक्ति विपरीत आसक्ति का नाम है। कोई आदमी काम में आसक्त है, वासना में आसक्त है। कोई आदमी काम के विपरीत ब्रह्मचर्य में आसक्त है। कोई आदमी धन में आसक्त है।
कोई आदमी धन के त्याग में आसक्त है। कोई आदमी शरीर के शृंगार में आसक्त है, कोई आदमी शरीर को कुरूप करने में आसक्त है। लेकिन शरीर को कुरूप करने वाला विरक्त मालूम पड़ेगा, धन का त्याग करने वाला विरक्त मालूम पड़ेगा, क्योंकि इनकी आसक्तियां "निगेटिव' हैं, नकारात्मक हैं।

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--97

साक्षी स्‍वप्रकाशित है—(प्रवचन—सत्रहवां)


दिनांक  7 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 
योग—सूत्र

(कैवल्‍यपाद)



      सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तह्मभो: पुरुषस्यपिम्णामित्वात्।। 18।।

मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।

न तत्‍स्‍वाभासं दृश्यत्यात्।। 19।।

मन स्व प्रकाशित नहीं है, क्योंकि स्वयं इसका प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।



एकसमये चोभयानवधारणमू।। 20।।

मन के लिए अपने आप को और किसी अन्य वस्तु को उसी समय में जानना असंभव है।



चित्तान्तरदृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्ग: स्मृतिसंकरश्च।। 21।।

यदि यह मान लिया जाए कि दूसरा मन पहले मन को प्रकाशित करता है, तो बोध के बोध की कल्पना करनी पड़ेगी, और इससे स्मृतियों का संशय उत्पन्न होगा।



चितेखतिसंक्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनमू।। 22।।

आत्म—बोध से अपनी स्वयं की प्रकृति का ज्ञान मिल जाता है, और जब चेतना इस रूप में आ जाती है तो यह एक स्थान से दूसरे स्थान को नहीं जाती।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--5) प्रवचन--150

आधुनिक मनुष्‍य की साधना(प्रवचनगयारहवां)


अध्‍याय—12

सूत्र—



तुल्यनिन्दास्तुतिमौंनी संतुष्‍टो थेन केनचित्।

अनिकेत: स्थिरमतिभक्‍तिमान्मे प्रियो नर:।। 19।।

ये त धर्म्‍यामृतमिदं यथोक्‍तं पर्युयासते।

श्रहधाना मत्यरमा भक्तास्‍तउतीव मे प्रिया:।। 20।।



तथा जो निंदा— स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है, एवं जिस—किस प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने मैं सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित ह्रै वह स्थिर बुद्धि वाला भक्‍तिमान पुरुष मेरे को प्रिय है।

और जो मेरे को परायण हुए श्रद्धायुक्‍त पुरुष इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते है, वे भक्त मेरे को अतिशय प्रिय हैं।

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--96

बिना तुम्‍हारे किसी निजी चुनाव के—(प्रवचन—सौलहवां)

     

दिनांक  6 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

 प्रश्‍नसार:

1—मैं आपके और रूडोल्फ स्टींनंरं के उपायों के बीच बंट गया हूं?
2—प्रकृति के सान्निध्य में ठीक लगता है, लोगों के साथ नहीं, यह विभाजन क्यों?
3—स्त्री के रूप मैं मेरे लिए संबोधि क्या है?
4—क्या हम वास्तव में अपने जीवन में घटित होने वाली चीजों को चुनते हैं?

 पहला प्रश्न:

ओशो, मेरा लालन पालन रूडोल्‍फ स्‍टीनर की शिक्षाओं के बीच हुआ है, किंतु अभी तक मैं उसके प्रति अपने मन के अवरोधो को नहीं तोड़ पाया हूं। यद्यपि मेरा विश्‍वास है कि पश्‍चिम को जो रास्‍ता उसने दिखाया, उचित ढंग से विचार करना खीखना अपने आपको माया से मुक्‍त करने की संभावना है। उसका कहना है कि ऐसा करके और ध्‍यान करके हम अपने अहंकारों को खोज और अपने मैं को पाने में समर्थ हो जाते है। उसके लिए केंद्रीय व्‍यक्‍ति क्राइस्‍ट है, जिनको वह जीसस से पूर्णत: भिन्‍न व्‍यक्‍तित्‍व के रूप में अलग कर देता है। आपके उपाय मुझको अलग प्रतीत होते है। क्‍या आप कृपा करके मुझको सलाह दे सकते है? एक प्रकार से मैं तो आपके और उस उपाय के बीच जो स्‍टीनर दिखाता है, बंट जाता है।

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--17)

स्वभाव की पूर्ण खिलावट के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सत्रहवां)


दिनांक 3 अक्‍टूबर, 1970;
संध्‍या, मनाली (कुल्लू्)

 "भगवान श्री, आपकी प्रवचन-धारा ज्यों-ज्यों बहने लगी है त्यों-त्यों आपके साथ, आपके वाक्-प्रवाह के साथ बहते-बहते हम दिक्कत में पड़ जाते हैं। तकलीफ यह है कि आपके द्वारा कथित उस तिनके की भांति हम लड़ते नहीं, बहने को हम भी हाथ-पांव पसारते हैं, मगर आपका जोश इतना है कि हम बह नहीं सकते।
सुबह आज श्री अरविंद के बारे में बातचीत हुई। "द वे आफ व्हाइट क्लॉउड' में एक जगह लिखा है--"समटाइम्स आइ टेक अवे द मैन, सब्जेक्ट, बट डू नाट टेक अवे द सरकामस्टांसेज, दैट इज आब्जेक्टसमटाइम्स आइ टेक अवे द सरकमस्टांसेज, बट डू नाट टेक अवे द मैन। समटाइम्स आइ टेक अवे बोथ, द मैन एंड द सरकमस्टांसेज, एंड समटाइम्स आइ टेक अवे नीदर द मैन नॉरसरकमस्टांसेज'

श्री अरविंद की बात करते-करते प्रश्न यह उठता है मन में, कई बार, कि आप जैसा पांडिचेरी के बारे में कहते हैं वैसा मैं भी मानता हूं, मगर जो "इंटरप्रेटीशन' मिला आपसे, उससे ऐसा महसूस हुआ कि अरविंद के साक्षात्कार के बारे में अन्य किसी भी से क्यों पूछा जाए?

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--95

यही है यह—(प्रवचन—पंद्रहवां)

दिनांक  5 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र (कैवल्‍यपाद)

      हेतुफलाश्रयालम्बुत्रैं संगृहीत्‍त्‍वादेषमभावे तदभाक:।। 11।।
प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं।

      अतीतानागतं स्वरूपतोऽख्यध्यभेदाद्धर्माणाम्।। 12।।
अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं।

      ते व्यक्तसूक्ष्‍मा गुणात्मान:।। 13।।
वे व्यक्त हों या अव्यक्त अतीत, वर्तमान और भविष्‍य सत, रज और तम गुणों की प्रकृति हैं।
     
परिणामैकत्‍वाद्वस्‍तुतत्‍वम्।। 14।।
किसी वस्‍तु का सारतत्‍व, इन्‍हीं तीन गुणों के अनुपातों के अनूठेपन में निहित होता है।


      वस्‍तुसाम्‍ये चित्रदात्‍तयोर्विभिक्‍त: पन्‍था:।। 15।।
भिन्‍न—भिन्‍न मनों के द्वारा एक ही वस्‍तु विभिन्‍न ढंगों से देखी जाती है।


तदुपरागापेक्षित्याच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्।। 17।।
वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--16)

सीखने की सहजता के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—सोलहवां)
 

दिनांक 3 अक्‍टूबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुल्लू)

"अरविंद को कृष्ण-दर्शन हुए। वे योगी लेले के संपर्क में भी तो आए थे। और पांडिचेरी को प्रयोग का निर्णय क्या भविष्य की पीढ़ियां ही नहीं करेंगी?
एलिसबेली के विषय में आपका क्या खयाल है, जब उसका कहना है कि उसे संदेश मिलते हैं। ये संदेश कौन देता है, कैसे देता है? क्या आपका भी ऐसे किसी मास्टर या गुरु से संबंध है?'

रविंद का कृष्ण-दर्शन जेल की दीवालों में, सींकचों में, जेलर में, स्वयं में है। अगर कृष्ण का दर्शन है, तो किसको पता लगता है कि कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं? अगर पहचानने वाला पीछे बच जाता है, तो "प्रोजेक्शन' है, तो प्रक्षेपण है। अगर कोई कहता है, मुझ कृष्ण के दर्शन हुए, तो कम-से-कम मैं कृष्ण नहीं हूं, इतना पक्का है। जिसे दर्शन होंगे, वह तो भिन्न हो जाता है।

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--15)

अनंत सागर-रूप चेतना के प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—पंद्रहवां)
दिनांक 2 अक्‍टूबर, 1970;
सांध्‍या, मनाली (कुल्लू)

"भगवान श्री, श्री अरविंद के कृष्ण-दर्शन के बारे में कुछ कहने को बाकी रह गया था। आपने अहमदाबाद में बताया था कि वह बहुत हद तक मानसिक प्रक्षेपण हो सकता है। तो अरविंद का कृष्ण-दर्शन क्या मानसिक प्रक्षेपण है या "मिस्टिक' अनुभूति है?
एक दूसरा प्रश्न भी है--अर्जुन यदि सिर्फ निमित्त मात्र हैं, तो वे यंत्रमात्र रह जाते हैं। उनकी "इंडिविजुअलिटी' का क्या होगा?'

कृष्ण-दर्शन, या क्राइस्ट का दर्शन, या बुद्ध या महावीर का दो प्रकार से संभव है। एक, जिसको "मेंटल प्रोजेक्शन' कहें, मानसिक प्रक्षेपण कहें; जबकि वस्तुतः कोई सामने नहीं होता लेकिन हमारे मन की वृत्ति ही आकार लेती है। जबकि वस्तुतः हमारा विचार ही आकर लेता है। जबकि वस्तुतः हम ही बाहर भी रूप के निर्माता होते हैं। मानसिक प्रक्षेपण, "मेंटल प्रोजेक्शन' से मतलब यह है कि वस्तुतः उस प्रक्षेपण, उस रूप, उस आकृति के पीछे कोई भी नहीं होता। मन की यह भी क्षमता है। मन की यह भी शक्ति है। जैसे रात हम स्वप्न देखते हैं, ऐसे ही हम खुली आंख से भी सपने देख सकते हैं। तो एक तो यह संभावना है।

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--94

सभी कुछ परस्‍पर निर्भर है—(प्रवचन—चौदहवां)


दिनांक  4 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍न—सार:

1—आप कहते हैं, 'पूरब में हम कृपया इसका अभिप्राय समझाएं?

2—आप संसार में उपदेश देने क्यों नहीं जाते?

3—कपटी घड़ियाल की चेतना के बारे में कुछ कहिए?

4—परस्पर निर्भरता और पूर्ण स्वार्थ में क्या संबंध है?

5—समर्पण के लिए किस भांति कार्य करूं?

6—क्या परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चों को जन्म देते हैं?

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--14)

अकर्म के पूर्ण प्रतीक कृष्ण—(प्रवचन—चौदहवां)


दिनांक 2 अक्‍टूबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुल्लू)


"आपने कहा है कि श्रीकृष्ण के मार्ग में कोई साधना नहीं है। केवल "सेल्फ रिमेंबरिंग', पुनरात्मस्मरण है। लेकिन, आप सात शरीरों की साधना की बात करते हैं। तो सात शरीरों के संदर्भ में कृष्ण की साधना की रूपरेखा क्या होगी, कृपया इसे स्पष्ट करें।'

कृष्ण के विचार-दर्शन में साधना की कोई जगह ही नहीं है। इसलिए सात शरीरों का भी कोई उपाय नहीं है। साधना के मार्ग पर जो मील के पत्थर मिलते हैं, वे उपासना के मार्ग पर नहीं मिलते हैं। साधना मनुष्य को जिस भांति विभाजित करती है, उस तरह उपासना नहीं करती। साधना सीढ़ियां बनाती है, इसलिए आदमी के व्यक्तित्व को सात हिस्सों में तोड़ती है। फिर एक-एक सीढ़ी चढ़ने की व्यवस्था करती है। लेकिन उपासना आदमी के व्यक्तित्व को तोड़ती ही नहीं। कोई खंड नहीं बनाती। मनुष्य का जैसा अखंड व्यक्तित्व है, उस पूरे को ही उपासना में लीन कर देती है।

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--93

      मौलिक मन पर लौटना(प्रवचनतैरहवां)


दिनांक  3 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

योग—सूत्र:
(कैवल्‍यपाद)


      तत्र ध्यानजमनाशयम्‍ ।। 6।।
केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।

      कंर्माशुल्काकृष्णं योगिनस्तिबिधमितरेषामू।। 7।।
योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध, लेकिन अन्य सभी कर्म त्रि—आयामी होते हैं—शुद्ध, अशुद्ध और मिश्रित।

      ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्बासनानामू।। 8।।
जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थियां सहायक होती हैं तो इन कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।’'

जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्‍वात्।। 9।।
क्योंकि स्मृति और संस्कार समान रूप में ठहरते हैं, इसलिए कारण और प्रभाव का नियम जारी रहता है, भले ही वर्ण, स्थान समय में उनमें अंतर हो।

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--149

सामूहिक शक्‍तिपात ध्यान(प्रवचनदसवां)

अध्याय—12
सूत्र:

जीवन उतना ही नहीं है, जितना आप उसे जानते हैं। आपको जीवन की सतह का भी पूरा पता नहीं है, उसकी गहराइयों का, अनंत गहराइयों का तो आपको स्वप्न भी नहीं आया है। लेकिन आपने मान रखा है कि आप जैसे हैं, वह होने का अंत है।
अगर ऐसा आपने मान रखा है कि आप जैसे हैं, वही होने का अंत है, तो फिर आपके जीवन में आनंद की कोई संभावना नहीं है। फिर आप नरक में ही जीएंगे और नरक में ही समाप्त होंगे।
जीवन बहुत ज्यादा है। लेकिन उस ज्यादा जीवन को जानने के लिए ज्यादा खुला हृदय चाहिए। जीवन अनंत है। पर उस अनंत को देखने के लिए बंद आंखें काम न देंगी। जीवन विराट है और अभी और यहीं जीवन की गहराई मौजूद है। लेकिन आप अपने द्वार बंद किए बैठे हैं। और अगर कोई आपके द्वार भी खटखटाए, तो आप भयभीत हो जाते हैं। और भी मजबूती से द्वार बंद कर लेते हैं।

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--92

एकांत अंतिम उपलब्‍धि है(प्रवचनबारहवां)


      

दिनांक  2 मई  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:



1—क्या शिष्य अपने सदगुरु से कुछ चुराता है?



2—क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता है?



3—जीवन क्या है? काम— भोग में संलग्न होना, धन कमाना, सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करना, व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना, और क्या यह सब खोजी की खोज को बहुत लंबा नहीं बना देगा?



4—क्या कोई शिष्य हुए बिना आपकी आत्मा से अंतरंग हो सकता है?

कृष्‍ण--स्‍मृति--(प्रवचन--13)

अचिंत्य-धारा के प्रतीकबिंदु कृष्ण—(प्रवचन—तेरहवां) 

दिनांक 2 अक्‍टूबर, 1970;
प्रात:, मनाली (कुल्लू)

"एक चर्चा में आपने कहा है कि श्रीकृष्ण की आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है, क्योंकि कुछ मरता नहीं। तो कृष्ण-दर्शन को संभावितता की हद में लाने के लिए कौन-सी "प्रासेस' से गुजरना पड़ेगा? और साथ ही यह बताएं कि कृष्ण-मूर्ति पर ध्यान, कृष्ण-नाम का जप और कृष्ण-नाम के संकीर्तन से क्या उपासना की पूर्णता की ओर जाया जा सकता है?'

विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम मिट नहीं जाता। और विश्व अस्तित्व में कुछ भी एकदम नया पैदा भी नहीं होता है। रूप बदलते हैं, आकृतियां बदलती हैं, आकार बदलते हैं, लेकिन अस्तित्व गहनतम रहस्यों में जो है, वह सदा वैसा ही है। व्यक्ति आते हैं, खो जाते हैं, लहरें उठती हैं सागर पर, विलीन हो जाती हैं, लेकिन जो लहर में छिपा था, जो लहर में था, वह कभी विलीन नहीं होता।