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शनिवार, 31 मार्च 2018

जरथुस्‍थ--नाचता गाता मसीहा--प्रवचन-08


नये बुतों की बात—(आठवां—प्रवचन)

प्यारे ओशो,  

अभी भी कहीं लोग और सामान्यजन हैं लेकिन हमारे पास नहीं मेरे बंधुओ : यहां तो राज्य है..........
राज्य समस्त क्रूर दानवों में क्रूरतम है।
क्रूरतापूर्वक वह झूठ भी बोलता है; और यह झूठ उसके मुंह से रेगता हुआ बाहर आता है : 'मै  — राज्य — ही लोग हूं।
यह एक झूठ है। ये सर्जक थे जिन्होंने लोगों का सर्जन किया और उनके ऊपर एक भरोसा और एक प्रेम टांगा : इस प्रकार उन्होंने जीवन की सेवा की।
ये विध्वंसक हैं जो बहुतों के लिए जाल बिछाते हैं और उसे राज्य कहते हैं : ये उनके ऊपर तलवार और सैकड़ों इच्छाएं टलते हैं।

.......ऐसा जरूथुस्‍त्र ने कहा।

लोगों की भीड़, यद्यपि उनकी संख्या बहुत है, एक अकेले प्रामाणिक व्यक्ति से बहुत ज्‍यादा कमजोर है। भीड़ों ने अपने आप को बस एक भेड़ मान रखा है, मनुष्य नहीं।

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-06)

 असुत्ता मुनि--(प्रवचन-छठवां)

हम सब प्यासे हैं आनंद के लिए, शांति के लिए। और सच तो यह है कि जीवन भर जो हम दौड़ते हैं धन के, पद के, प्रतिष्ठा के पीछे, उस दौड़ में भी भाव यही रहता है कि शायद शांति, शायद संतृप्ति मिल जाए। वासनाओं में भी जो हम दौड़ते हैं, उस दौड़ में भी यही पीछे आकांक्षा होती है कि शायद जीवन की संतृप्ति उसमें मिल जाए, शायद जीवन आनंद को उपलब्ध हो जाए, शायद भीतर एक सौंदर्य और शांति और आनंद के लोक का उदघाटन हो जाए।
लेकिन एक ही निरंतर इच्छा में दौड़ने के बाद भी वह गंतव्य दूर रहता है, निरंतर वासनाओं के पीछे चल कर भी वह परम संतृप्ति उपलब्ध नहीं होती है!
लोग हैं, धार्मिक कहे जाने वाले लोग हैं, जो कहेंगे, वासनाएं बुरी हैं; जो कहेंगे, वासनाएं त्याज्य हैं; जो कहेंगे, समस्त वासनाओं को छोड़ देना है; जो कहेंगे, वासनाएं अधार्मिक हैं। मैं आपसे कहूं, कोई वासना अधार्मिक नहीं है, अगर हम उसे देख सकें, समझ सकें। समस्त वासनाओं के भीतर अंततः प्रभु को पाने की वासना छिपी है। एक व्यक्ति को धन देते चले जाएं और उससे कहें कि कितने धन पर वह तृप्त होगा? हम कितना भी धन दें, उसकी आकांक्षा तृप्त न होगी। कितना ही धन दें! सारे जगत का धन उसे दे दें...

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-05)

व्यक्ति है परमात्मा—(प्रवचन-पांचवां)


महावीर के जन्म-उत्सव पर थोड़ी सी बातें आपसे कहूंइससे मुझे आनंद होगा। आनंद इसलिए होगा कि आज मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए सिवाय महावीर के और कोई रास्ता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए महावीर के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।
ऐसा कभी कल्पना में भी संभव नहीं था कि मनुष्य खुद के विनाश के लिए इतना उत्सुक हो जाएगा। इतनी तीव्र आकांक्षा और प्यास उसे पैदा होगी कि वह अपने को समाप्त कर लेइसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विगत पचास वर्षों से मनुष्य अपने को समाप्त करने के सारे आयोजन कर रहा है! उसकी पूरी चेष्टा यह है कि एक-दूसरे को हम कैसे समाप्त कर देंकैसे विनष्ट कर दें! पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े हैं और दस करोड़ लोगों की उसमें हत्या की है। और ये युद्ध बहुत छोटे युद्ध थेजिस तीसरे महायुद्ध की हम तैयारी में हैंसंभव है वह अंतिम युद्ध होक्योंकि उसके बाद कोई मनुष्य जीवित न बचे। मनुष्य ही जीवित नहीं बचेगावरन कहा जा सकता है कि कोई प्राण जीवित नहीं बचेगा।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-04)

स्वरूप में प्रतिष्ठा-प्रवचन-चौथा) 

दिनांक 13-04-1965 से 14-04-1967 बम्बई, चौपाटी।


मेरे प्रिय आत्मन्,
मैं देश के कोने-कोने में गया हूं। हजारों आंखों, लाखों आंखों में देखने का मौका मिला है। जैसे मनुष्य को देखता हूं..ऊपर हंसने की, आनंद की, सुख की एक झलक दिखाई पड़ती है, पर पीछे घना दुख, बहुत दुख दिखाई पड़ता है। और इस दुख का परिणाम यह हुआ है, इस दुख का फलित यह हुआ है कि सारी पृथ्वी धीरे-धीरे दुख से भर गई है। यदि एक भी व्यक्ति दुखी है, परिणाम में अपने बाहर दुख को फेंकता है। व्यक्ति का दुख ही फैल कर सारे जगत का दुख हो जाता है। एक व्यक्ति के भीतर से जो दुख का धुआं उठता है, वह सारी समष्टि को दुख और पीड़ा से भर देता है। आज जो सारे जगत में दुख, पीड़ा और हिंसा मालूम होती है, वह जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, जो विनाश के प्रति इतनी आकांक्षा मालूम होती है, उसके पीछे एक ही कारण है, व्यक्ति की अंतरात्मा दुखी है।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-03)

आत्म-दर्शन की साधनाप्रवचन-तीसरा


मेरे प्रिय आत्मन् ,
भगवान महावीर के इस स्मृति दिवस पर थोड़ी सी बातें उनके जीवन के संबंध में कहूं, उससे मुझे आनंद होगा।
भगवान महावीर, जैसा हम उन्हें समझते हैं और जानते हैं, जो चित्र हमारी आंखों में और हमारे हृदय में उनका बन गया है, जिस भांति हम उनकी पूजा करते और आराधना करते हैं, जिस भांति हमने उन्हें भगवान के पद पर प्रतिष्ठित कर लिया है, उस चित्र में मुझे थोड़ी भूल दिखाई पड़ती है और महावीर के प्रति थोड़ा अन्याय दिखाई पड़ता है।
महावीर का पूरा उदघोष, उनके जीवन का संदेश एक बात में निहित है कि इस जगत में कोई भगवान नहीं है। उनका उदघोष इस बात में निहित है कि किसी की पूजा और किसी की प्रार्थना आनंद का और मुक्ति का मार्ग नहीं है। कोई आराधना, कोई प्रार्थना, कोई पूजा सत्य तक और आत्मा तक नहीं ले जाती है।

गुरुवार, 29 मार्च 2018

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-02)

अंतर्दृष्टि की पतवार-(दूसरा-प्रवचन)


अगर हम खाली आकाश को भी थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो खाली आकाश आपको खाली कर देगा। अगर आप फूलों के पास बैठ कर फूलों को थोड़ी देर देखते रहें, तो थोड़ी देर में फूलों की गंध और फूलों की बास आपके भीतर भर जाएगी। और अगर आप सूरज को थोड़ी देर तक बैठ कर देखते रहें, तो आप पाएंगे, सूरज का प्रकाश आपके भीतर भी प्रविष्ट हो गया है। और अगर आप सागर की लहरों के पास बैठ कर उन्हें बहुत देर तक अनुभव करते रहें, तो आप पाएंगे, सागर आपके भीतर लहरें लेने लगा है।
ऐसे ही जब कोई परम पुरुषों की स्मृति में डूबता है, ऐसे ही जब कोई परम पावन प्रतीक पुरुषों के स्मरण से भरता है, तो उसके भीतर कुछ परिवर्तित होने लगता है, कुछ बदलने लगता है, कुछ नई बात का उसके भीतर प्रारंभ हो जाता है। तो मैं इस आशा में महावीर पर थोड़ी सी चर्चा करूंगा कि इस थोड़ी सी देर के सान्निध्य में, इस थोड़ी सी देर के उनके स्मरण में, आपके भीतर कोई परिवर्तन प्रभावित हो, आपके भीतर कोई आंदोलन उठे, आपके भीतर कोई आकांक्षा सजग हो जाए, आपके भीतर कोई बीज अंकुरित होने लगे और आपके भीतर नए जीवन को, वास्तविक जीवन को पाने की आकांक्षा उत्पन्न हो जाए।

महावीर या महाविनास--(प्रवचन-01)


मानव गरिमा के उदघोषक-पहला प्रवचन

इस पुण्य स्मरण-दिवस पर मैं दुखी भी हूं और आनंदित भी हूं। दुखी इसलिए हूं कि महावीर का हम स्मरण करते हैं, लेकिन महावीर से हमें कोई प्रेम नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि धर्म-मंदिरों में हम प्रवेश करते हैं, लेकिन धर्म-मंदिरों पर हमारी कोई श्रद्धा नहीं है। दुखी इसलिए हूं कि हम सत्य की चर्चा करते हैं, लेकिन सत्य पर हमारी कोई निष्ठा नहीं है। और ऐसे लोग जो झूठे ही मंदिर में प्रवेश करते हों, और ऐसे लोग जो झूठा ही भगवान का स्मरण करते हों, उन लोगों से बुरे लोग हैं, जो भगवान का स्मरण नहीं करते और मंदिरों में प्रवेश नहीं करते। क्योंकि वे लोग जो स्पष्टतया धर्म के विरोध में खड़े हैं, कम से कम नैतिक रूप से ईमानदार हैं--उनकी बजाय, जो धर्म के पक्ष में तो नहीं हैं, लेकिन पक्ष में खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं।

महावीर या महाविनास-ओशो

महावीर या महाविनास-ओशो

(भगवान महावीर पर बोले ओशे के अमृत प्रवचनों संकलन)
दिनांक 13-04-1965 से 14-04-1967 बम्बई, चौपाटी।

महावीर की क्रांति इसी बात में है कि वे कहते हैं कोई हाथ ऐसा नहीं है जो तुम्हें आगे बढ़ाए। और किसी काल्पनिक हाथ की प्रतीक्षा में जीवन को व्यय मत कर देना। कोई सहारा नहीं है सिवाय उसके, जो तुम्हारे भीतर है और तुम हो। कोई और सुरक्षा नहीं है, कोई और हाथ नहीं है जो तुम्हें उठा लेगा, सिवाय उस शक्ति के जो तुम्हारे भीतर है, अगर तुम उसे उठा लो। महावीर ने समस्त सहारे तोड़ दिए। महावीर ने समस्त सहारों की धारणा तोड़ दी। और व्यक्ति को पहली दफा उसकी परम गरिमा में और महिमा में स्थापित किया है। और यह मान लिया है कि व्यक्ति अपने ही भीतर इतना समर्थ है, इतना शक्तिवान है कि यदि अपनी समस्त बिखरी हुई शक्तियों को इकट्ठा करे और अपने समस्त सोए हुए चैतन्य को जगाए, तो अपनी परिपूर्ण चेतन और जागरण की अवस्था में वह स्वयं परमात्मा हो जाता है।
ओशो

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-10

मंदिर की सीढ़ियां: प्रेम, प्रार्थना, परमात्मा—दसवां प्रवचन

दिनांक २० मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं:
1—भगवान, प्रेम मेंर् ईष्या क्यों है?
2—कमैं कौन हूं और मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है?
3—प्रभु से सीधे ही क्यों न जुड़ जाएं? गुरु को बीच में क्यों लें?
4—मैं तीन वर्ष से संन्यास लेना चाहता हूं, लेकिन नहीं ले पा रहा हूं। क्या कारण होगा?
5—भक्ति क्या एक प्रकार की कल्पना ही नहीं है?
6—इस प्रवचनमाला का शीर्षक वैराग्य-रूप और जीवन-निषेधक लगता है। प्रेम-पथ पर यह निषेध क्यों है?
7—आपकी बातों में नशा है, इससे मैं डरता हूं।

पहला प्रश्न: भगवान, प्रेम मेंर् ईष्या क्यों है?
प्रेम मेंर् ईष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है।र् ईष्या सूचक है प्रेम के अभाव की।

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-09

महामिलन का द्वार—महामृत्यु—नौवां प्रवचन

दिनांक १९ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
किस बिधि रीझत हौ प्रभू, का कहि टेरूं नाथ।
लहर मेहर जब ही करो, तब ही होउं सनाथ।।
भवजल नदी भयावनी, किस बिधि उतरूं पार।
साहिब मेरी अरज है, सुनिए बारंबार।।
तुम ठाकुर त्रैलोकपति, ये ठग बस करि देहु।
दयादास आधीन की, यह बिनती सुनि लेहु।।
नहिं संजम नहिं साधना, नहिं तीरथ ब्रत दान।
माव भरोसे रहत है, ज्यों बालक नादान।।
लाख चूक सुत से परै, सो कछु तजि नहि देह।
पोष चुचुक ले गोद में, दिन दिन ढूनो नेह।।
चकई कल में होत है, भान-उदय आनंद।
दयादास के दृगन वें, पल न टरो ब्रजचंद।।
तुमहीं सूं टेका लेगो, जैसे चंद्र चकोर।
अब कासूं झंखा करौं, मोहन नंदकिसोर।।
तातें तेरे नाम की, महिमा अपरंपार।
जैसे किनका अनल को, सघन बनौ दे जार।।

बुधवार, 28 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-08

करने से न करने की दशा—आठवां प्रवचन

दिनांक १८ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं
1—कल आपने कहा कि जिन्होंने खोजा वे खो देंगे। और आपकी एक प्रसिद्ध पुस्तक है: "जिन खोजा तिन पाइयां'। क्या सच है?
2—मन को सहारा न देना और जीवन के प्रति सहज होना--क्या दोनों एक साथ संभव हैं।
भोग, प्रेम, ध्यान, समझ, समर्पण, कुछ भी तो मेरे लिए सहयोगी नहीं हो रहा। अब आप ही जानें!
3—अकेला हूं, मैं हमसफर ढूंढता हूं...।
4—ध्यान में मुझे नाचना है या मेरे शरीर को?
5—क्या आप अपने शिष्यों के लिए ही हैं कि मुझे आपसे मिलने नहीं दिया जाता?
6—भगवान, क्या से क्या हो गई, कुछ न सकी जान।

पहला प्रश्न: कल आपने कहा, जिन्होंने खोजा वे खो देंगे। और आपकी एक प्रसिद्ध पुस्तक कहती है, जिन खोजा तिन पाइयां। क्या सच है? कृपया समझाएं।

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-07

धर्म है कछुआ बनने की कला—सातवां प्रवचन

दिनांक १७ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:
दया कह्यो गुरुदेव ने, कूरम को व्रत लेहि।
सब इंद्रिन कूं रोकि करि; सुरति स्वांस में देहि।।
बिन रसना बिन माल कर, अंतर सुमिरन होय।
दया दया गुरुदेव की, बिरला जानै कोय।।
हृदय कमल में सुरति धरि, अजप जपै जो कोय।
तिमल ज्ञान प्रगटै वहां, कलमख डारै खोय।।
जहां काल अरु ज्वाल नहिं, सीत उस्न नहिं बीर।
दया परसि निज धाम कूं, पायो भेद गंभीर।।
पिय को रूप अनूप लखि, कोटि भान उंजियार।
दया सकल दुख मिटि गयो, प्रगट भयो सुखसार।।
अनंत भान उंजियार तहं, प्रगटी अदभुत जोत।
चकचौंधी सी लगति है, मनसा सीतल होत।।
बिन दामिन उंजियार अति, बिन घन परत फुहार।
मगन भयो मनुवां तहां, दया निहार-निहार।।
जग परिनामो है मृषा, तनरूपी भ्रम कूप।
तू चेतन सरूप है, अदभुत आनंद-रूप।।

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-06

वादक, मैं हूं मुरली तेरीछठवां प्रवचन

छठवां प्रवचन
दिनांक १६ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं
1—शिविर में पहुंचकर भी भेद क्यों दीखता है? संन्यस्त होते ही क्या फासला मिट जाता है? क्या आशीर्वाद केवल संन्यासियों के लिए ही है?
2—परमपद की प्राप्ति के लिए गैरिक वस्त्र और माला और गुरु कहां तक सहयोगी हैं?
3—कितने ढंग से आप वही-वही बात कहे जा रहे हैं! क्या सत्य को इतने शब्दों की आवश्यकता है?
4—चरित्र और व्यक्तित्व में क्या भेद है?
5—मैं शंकालु हूं और श्रद्धा सधती नहीं। कृपया मार्ग बताएं।
यह न सोचा था तेरी महफिल में दिल रह जाएगा
हम यह समझे थे चले आएंगे दम भर देख कर।

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-05

यह जीवन--एक सरायपांचवां प्रवचन

दिनांक १५ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:

दयाकुंअर या जग्त में, नहीं रह्यो थिर कोय।
जैसो वास सराय को, तैसो यह जग होय।
जैसो मोती ओस को, तैसो यह संसार।
विनसि जाय छिन एक में, दया प्रभु उर धार।।
तात मात तुमरे गए, तुम भी भये तयार।
आज काल्ह में तुम चलौ, दया होहु हुसियार।।
बड़ो पेट है काल को, नेक न कहूं अधाय।
राजा राना छत्रपति, सब कूं लीले जाय।।
बिनसत बादर बात बसि, नभ में नाना भांति।
इमि नर दीसत कालबस, तऊ न उपजै सांति।।

कार्ल माक्र्स का प्रसिद्ध वचन है कि धर्म अफीम का नशा है। कार्ल माक्र्स को धर्म का कुछ भी पता न होगा, क्योंकि धर्म को छोड़ कर सब अफीम का नशा है। धन की दौड़, पद की दौड़--नशा है। धर्म के एकमात्र नशे से जागने का उपाय।

मंगलवार, 27 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-04

भक्ति यानी क्या?चौथा प्रवचन

दिनांक १४ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं

1—आपकी शिक्षा सम्यक शिक्षा है। लेकिन शासक क्या इसे सम्यक शिक्षा मानेंगे?
2—न संसार में रस आता है और न जीवन रसपूर्ण है। फिर भी मृत्यु का भय क्यों बना रहता है?
3—कुछ दिन पहले आपने अष्टावक्र के साक्षी-भाव की डुंडी पीटी, फिर दया की भक्ति का साज छेड़ दिया। इन दोनों के बीच लीहत्जू महज सफेद मेघों पर चढ़कर घूमा किए। आज भक्ति, कल साक्षी...क्या यह संभव है?
4—लोग पीते हैं, लड़खड़ाते हैं
एक हम हैं कि तेरी महफिल में
प्यासे आते हैं और प्यासे जाते हैं...?

5—प्रभु को न पाया तो हर्ज क्या है?

6—भक्ति--प्रेम की निर्धूम ज्योतिशिखा

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-03


पूर्ण प्यास एक निमंत्रण हैप्रवचन तीसरा

दिनांक १३ मार्च, १९७७; रजनीश आश्रम, पूना
सारसूत्र:

प्रेम मगन जो साधजन, तिन गति कही न जात।
रोय-रोय गावत-हंसत, दया अटपटी बात।।
हरि-रस माते जे रहैं, तिनको मतो अगाथ।
त्रिभुवन की संपति दया, तृनसम् जानत साथ।।
कहूं धरत पग परत कहूं, उमगि गात सब देह।
दया मगन हरिरूप में, दिन-दिन अधिक सनेह।।
हंसि गावत रोवत उठत, गिरि-गिर परत अधीर।
पै हरिरस चसको दया, सहै कठिन तन पीर।।
विरह-ज्वाल उपजी हिए, राम-सनेही आय।
मनमोहन मोहन सरल, तुम देखन दा चाय।।
काग उड़ावत कर थके, नैन निहारत बाट।
प्रेम-सिंधु में मन परयो, ना निकसन को घाट।।

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-02


संसार--एक अनिवार्य यात्रादूसरा प्रवचन

दिनांक १२ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

जिज्ञासाएं

1—प्यास जगती नहीं, द्वार खुलते नहीं।
2—भगवान श्री, चारों ओर आप ही आप हैं। इस आनंद-स्रोत में डूब गई हूं। लेकिन आप कहते हैं कि इससे भी मुक्त होना है। ऐसा आनंद जान-बूझ कर क्यों गंवाएं?
3—साक्षी-भाव साधने में कठिनाई है। क्या साक्षी-भाव के अतिरिक्त परमात्मा तक जाने का और कोई उपाय नहीं?

पहला प्रश्न: प्यास नहीं जगती, द्वार नहीं खुलते।

प्यास को कोई जगा भी नहीं सकता। जल तो खोजा जा सकता है, प्यास को जगाने का कोई उपाय नहीं है। प्यास हो तो हो, न हो तो प्रतीक्षा करनी पड़े। जबरदस्ती प्यास को पैदा करने की कोई भी संभावना नहीं है। और जरूरत भी नहीं है। जब समय होगा, प्राण पके होंगे, प्यास जगेगी। और अच्छा है कि समय के पहले कुछ भी न हो।
मन तुम्हारा लोभी है।

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-प्रवचन-01


 पहला -प्रवचन--प्रभु की दिशा में पहला कदम
दिनांक ११ मार्च, १९७७; श्री रजनीश आश्रम, पूना

हरि भजते लागे नहीं, काल-ज्याल दुख-झाल।
तातें राम संभालिए, दया छोड़ जगजाल।।१।।
जे जन हरि सुमिरन विमुख, तासूं मुखहू न बोल।
रामरूप में जो पडयो तासों अंतर खोल।।२।।
राम नाम के लेव ही, पातक झुरैं अनेक।
रे नर हरि के नाम को, राखो मन में टेक।।३।।
नारायन के नाम बिन, नर नर नर जा चित्त।
दीन भये विललात हैं, माया-बसि न थित्त।।४।।

प्रभु की दिशा में पहला कदम

जब तक न स्वयं ही तार सजें कुछ गाने को
कुछ नई तान सुरताल नया बन जाने को
छेड़े कोई भी लाख बार पर तारों पर
झनकार नहीं कोई होगी
जब तक न मधु पी करके दीवाना हो
मन में रह-रह कुछ उठता नहीं तराना हो
छेड़े कोई भी लाख बार पर भौंरों में
गुंजार नहीं कोई होगी