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मंगलवार, 28 नवंबर 2017

संत तोता पुरी--की समाधी--पुरी

परम हंस तौता पुरी-(समाधि)

कभी-कभी इत्फाक भी चमत्कार से लगता है। हम (मैं ओर अदवीता) पूरी जगन्नाथ की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहे थे कि दो दिन पहले एक हीरा मन तोता न जाने कहां से आ गया ओर वह आने के बाद ऐसा व्यवहार करने लगा कि जैसे सालो से हमे जानता है। मैरे हाथ से खाये पेड पोधो पर किलकारी भरे मैं कम्पूटर पर कर करू तो अंदर आकर मेरे पास बैठ जाये।
कितना आनंद और उत्सव में सराबोर था, इस टेहनी से उस टहनी पर कुदता फांदता कितना मन को मोह रहा था। मैं पेड पोधो को पानी डालते उसे खुब नहलाया वह कैसे फंख खोल कर नहा रहा था। जैसे उसे वो सब चाहिए। तब हम पूरी की और चले गये वहां पहुचने पर बेटी बोधी उनमनी में कहा की वह तोता तो अपको चारो ओर ढूंढ रहा है ओर बहुत शौर मचा रहा है मैंने उसे सेब आदि खाने के दिये परंतु वह कुछ ढूढता सा प्रतित हो रहा है और मेरे नीचे चले जाने के बाद बहुत शौर मचा रहा है काम करने वाली भी कह रही थी की मेरे पास आ कुछ कहना चाहता था। ओर उसका भी दिल भर आया। कि शायद मम्मी-पापा को ढूंढ रहा है। ओर सच वह श्याम होते न होते उड गया। बेटी ने फोन किया की पापा वह तोता तो उड गया....शयद आपको ढूंढता रहा...ओर आप उपर नहीं आये तो चला गया।

बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

एक एक कदम--(प्रवचन-07)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

संतति नियमन-प्रवचन-सातवां

मेरे प्रिय आत्मन्,
संतति-नियमन या परिवार नियोजन पर मैं कुछ कहूं, उसके पहले दोत्तीन बातें मैं आपसे कहना चाहूंगा।
पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि आदमी एक ऐसा जानवर है जो इतिहास से कुछ भी सीखता नहीं। इतिहास लिखता है, इतिहास बनाता है, लेकिन इतिहास से कुछ सीखता नहीं है। और यह इसलिए सबसे पहले कहना चाहता हूं कि इतिहास की सारी खोजों ने जो सबसे बड़ी बात प्रमाणित की है, वह यह कि इस पृथ्वी पर बहुत-से प्राणियों की जातियां अपने को बढ़ा कर पूरी तरह नष्ट हो गईं। इस जमीन पर बहुत शक्तिशाली पशुओं का निवास था, लेकिन वे अपने को बढ़ा कर नष्ट हो गए।

एक एक कदम--(प्रवचन-06)

एक एक कदम (विविध)-ओशो
समाज परिवर्तन के चौराहे पर-प्रवचन-छठवां  

मेरे प्रिय आत्मन् ,
समाज परिवर्तन के चौराहे पर--इस संबंध में थोड़ी-सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। आज सबसे पहले यह आपसे कहना चाहूंगा कि समाज बाद में बदलता है, पहले मनुष्य का मन बदल जाता है। और हमारा दुर्भाग्य है कि समाज तो परिवर्तन के करीब पहुंच रहा है, लेकिन हमारा मन बदलने को बिलकुल भी राजी नहीं है। समाज के बदलने का सूत्र ही यही है कि पहले मन बदल जाए, क्योंकि समाज को बदलेगा कौन?
चेतना बदलती है पहले, व्यवस्था बदलती है बाद में। लेकिन हमारी चेतना बदलने को बिलकुल भी तैयार नहीं है। और बड़ा आश्चर्य तो तब होता है कि वे लोग, जो समाज को बदलने के लिए उत्सुक हैं, वे भी चेतना को बदलने के लिए उत्सुक नहीं हैं। शायद उन्हें पता ही नहीं है कि चेतना के बिना बदले समाज कैसे बदलेगा! और अगर चेतना के बिना बदले समाज बदल भी गया तो वह बदलाहट वैसी ही होगी, जैसा आदमी न बदले और सिर्फ वस्त्र बदल जाएं, कपड़े बदल जाएं। वह बदलाहट बहुत ऊपरी होगी और हमारे भीतर प्राणों की धारा पुरानी ही बनी रहेगी।

एक एक कदम--(प्रवचन-05)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

विचार क्रांति की आवश्यकता-प्रवचन-पांचवां
मेरे प्रिय आत्मन् ,
एक आदमी परदेस गया, एक ऐसे देश में जहां की वह भाषा नहीं समझता है और न उसकी भाषा ही दूसरे लोग समझते हैं। उस देश की राजधानी में एक बहुत बड़े महल के सामने खड़े होकर उसने किसी से पूछा, यह भवन किसका है? उस आदमी ने कहा, कैवत्सन। उस आदमी का मतलब था: मैं आपकी भाषा नहीं समझा। लेकिन उस परदेसी ने समझा कि किसी 'कैवत्सन' नाम के आदमी का यह मकान है। उसके मन में बड़ीर् ईष्या पकड़ी उस आदमी के प्रति जिसका नाम कैवत्सन था। इतना बड़ा भवन था, इतना बहुमूल्य भवन था, हजारों नौकर-चाकर आते-जाते थे, सारे भवन पर संगमरमर था! उसके मन में बड़ीर् ईष्या हुई कैवत्सन के प्रति। और कैवत्सन कोई था ही नहीं! उस आदमी ने सिर्फ इतना कहा था कि मैं समझा नहीं कि आप क्या पूछते हैं।

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

एक एक कदम--(प्रवचन-04 )

एक एक कदम (विविध)-ओशो

संगठन और धर्म—प्रवचन-चौथा

सुबह मैंने आपकी बातें सुनीं। उस संबंध में पहली बात तो यह जान लेनी जरूरी है कि धर्म का कोई भी संगठन नहीं होता है; न हो सकता है। और धर्म के कोई भी संगठन बनाने का परिणाम धर्म को नष्ट करना ही होगा। धर्म नितांत वैयक्तिक बात है, एक-एक व्यक्ति के जीवन में घटित होती है; संगठन और भीड़ से उसका कोई भी संबंध नहीं है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि और तरह के संगठन नहीं हो सकते हैं। सामाजिक संगठन हो सकते हैं, शैक्षणिक संगठन हो सकते हैं, नैतिक-सांस्कृतिक संगठन हो सकते हैं, राजनैतिक संगठन हो सकते हैं। सिर्फ धार्मिक संगठन नहीं हो सकता है।
यह बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि अगर मेरे आस-पास इकट्ठे हुए मित्र कोई संगठन करना चाहते हैं, तो वह संगठन धार्मिक नहीं होगा। और उस संगठन में सम्मिलित हो जाने से कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो जाएगा। जैसे एक आदमी हिंदू होने से धार्मिक हो जाता है,

एक एक कदम--(प्रवचन-03)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

क्या भारत धार्मिक है?—प्रवचन—तीसरा
एक बहुत पुराने नगर में उतना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि उस चर्च में भीतर जाने में भी प्रार्थना करने वाले भयभीत होते थे। उसके किसी भी क्षण गिर पड़ने की संभावना थी। आकाश में बादल गरजते थे, तो चर्च के अस्थिपंजर कंप जाते थे। हवाएं चलती थीं, तो लगता था, चर्च अब गिरा, अब गिरा!
ऐसे चर्च में कौन प्रवेश करता, कौन प्रार्थना करता? धीरे-धीरे उपासक आने बंद हो गए। चर्च के संरक्षकों ने कभी दीवार का पलस्तर बदला, कभी खिड़की बदली, कभी द्वार रंगे। लेकिन न द्वार रंगने से, न पलस्तर बदलने से, न कभी यहां ठीक कर देने से, वहां ठीक कर देने से वह चर्च इस योग्य हुआ कि उसे जीवित माना जा सके। वह मुर्दा ही बना रहा। लेकिन जब सारे उपासक आने बंद हो गए, तब चर्च के संरक्षकों को भी सोचना पड़ा, क्या करें?

एक एक कदम--(प्रवचन-02)

एक एक कदम (विविध)-ओशो

जिज्ञासा साहस और अभीप्सा-प्रवचन-दूसरा  

अभी-अभी आपकी तरफ आने को घर से निकला। सूर्यमुखी के फूलों को सूर्य की ओर मुंह किए हुए देखा और स्मरण आया कि मनुष्य के जीवन का दुख यही है, मनुष्य की सारी पीड़ा, सारा संताप यही है कि वह अपना सूर्य की ओर मुंह नहीं कर पाता है। हम सारे लोग जीवन भर सत्य की ओर पीठ किए हुए खड़े रहते हैं। सूर्य की ओर जो भी पीठ करके खड़ा होगा उसकी खुद की छाया उसका अंधकार बन जाती है। जिसकी पीठ सूर्य की ओर होगी उसकी खुद की छाया उसके सामने पड़ेगी और उसका मार्ग अंधकारपूर्ण हो जाएगा। और जो सूर्य की ओर मुंह कर लेता है उसकी छाया उसके लिए विलीन हो जाती है तथा उसकी आंखें और उसका रास्ता आलोकित हो जाता है।

एक एक कदम--(प्रवचन-01)

एक एक कदम-ओशो

(विविध)
प्रवचन-पहला

कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से...उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।

शनिवार, 30 सितंबर 2017

दरिया कहे शब्द निरवाना-प्रवचन-09

सतगुरु करहु जहाज—(प्रवचन-नौवां)

दिनांक 29 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

पांच तत्त की कोठरी, तामें जाल जंजाल।
जीव तहां बासा करै, निपट नगीचे काल।।
दरिया तन से नहिं जुदा, सब किछु तन के माहिं।
जोग-जुगति सौं पाइये, बिना जुगति किछु नाहिं।।
दरिया दिल दरियाव है अगम अपार बेअंत।
सब महं तुम, तुम में सभे, जानि मरम कोइ संत।।
माला टोपी भेष नहिं, नहिं सोना सिंगार।
सदा भाव सतसंग है, जो कोई गहै करार।।
परआतम के पूजते, निर्मल नाम अधार।
पंडित पत्थल पूजते, भटके जम के द्वार।।
सुमिरन माला भेष नहिं, नाहीं मसि को अंक।
सत्त सुकृत दृढ़ लाइकै, तब तोरै गढ़ बंक।।
दरिया भवजल अगम अति, सतगुरु करहु जहाज।
तेहि पर हंस चढ़ाइकै, जाइ करहु सुखराज।।
कोठा महल अटारियां, सुन उ स्रवन बहु राग।
सतगुरु सबद चीन्हें बिना, ज्यों पंछिन महं काग।।
दरिया कहै सब्द निरबाना!

दरिया कहे शब्द निरवाना--प्रवचन-08

मिटो: देखो: जानो—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—भगवान, क्या संतोष रखकर जीना ठीक नहीं है?

2—भगवान, इटली के नए वामपक्ष (न्यू लेफ्ट) के अधिकांश नौजवान आपसे संबंधित होते जा रहे हैं। आप क्या इसे वामपक्ष विकास मानेंगे या अपने प्रयोग के सही बोध की विकृति?

3—नीति और धर्म में क्या भेद है?

4—भगवान, भक्त की चरम अवस्था के संबंध में कुछ कहें!

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

दरिया कहे शब्द निरवाना-प्रवचन-07

निर्वाण तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 27 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :

तीनी लोक के ऊपरे, अभय लोक बिस्तार
सत्त सुकृत परवाना पावै, पहुंचै जा करार।
जोतिहि ब्रह्मा, बिस्नु हहिं, संकर जोगी ध्यान।
सत्तपुरुष छपलोक महं, ताको सकल जहान।।
सोभा अगम अपार, हंसवंस सुख पावहीं।
कोइ ग्यानी करै विचार, प्रेमतत्तुर जा उर बसै।।
जो सत शब्द बिचारै कोई। अभय लोक सीधारै सोई।।
कहन सुनन किमिकरि बनि आवै। सत्तनाम निजु परवै पावै।।
लीजै निरखि भेद निजु सारा। समुझि परै तब उतरै पारा।।
कंचल डाहै पावक जाई। ऐसे तन कै डाहहु भाई।।
जो हीरा घन सहै घनोर। होहि हिरंबर बहुरि न फैरा।।।
गहै मूल तब निर्मल बानी। दरिया दिल बिच सुरति समानी।।
गहै मूल तब निर्मल बानी। दरिया दिल बिच सुरति समानी।।
पारस सब्द कहा समुझाई। सतगुरु मिलै त देहि दिखाई।।
सतगुरु सोइ जो सत्त चलावै। हंस बोधि छपलोक पठावै।।

गुरुवार, 28 सितंबर 2017

दरिया कहे शब्द निरवाना--प्रवचन-06

आज जी भर देख लो तुम चांद को—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक 26 जनवरी 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—भगवान, आपके प्रेम में बंध संन्यास ले लिया है। और अब भय लगता है कि पता नहीं क्या होगा?

2—क्या आपकी धारणा के भारत पर कुछ कहने की मेहरबानी करेंगे?

3—जीवन व्यर्थ क्यों मालूम होता है? आपके पास आने पर अर्थ की थोड़ी झलक मिलती है, पर वह खो-खो जाती है।

4—आपने मेरे हृदय में प्रभु-प्रेम की आग लगा दी है। अब मैं जल रहा हूं। भगवान, इस आग को शांत करें!

5—मैं संन्यास तो लेना चाहता हूं, पर अभी नहीं। सोच-विचार कर फिर आऊंगा। आपका आदेश क्या है?

दरिया कहे शब्द निरवाना--प्रवचन-03

भजन भरोसा एक बल—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 23 जनवरी 1979 ;
श्री रजनीश आश्रम, पूना

सारसूत्र :
बेवाह के मिलन सों, नैन भया खुसहाल।
दिल मन मस्त मतवल हुआ, गूंगा गहिर रसाल।।
भजन भरोसा एक बल, एक आस बिस्वास।
प्रीति प्रतीति इक नाम पर, सोइ संत बिबेकी दास।।
है खुसबोई पास में, जानि परै नहिं सोय।
भरम लगे भटकत फिरे, तिरथ बरत सब कोय।।
जंगम जोगी सेपड़ा पड़े काल के हाथ।
कह दरिया सोइ बाचिहै, सत्तनाम के साथ।।
बारिधि अगम अथाह जल, बोहित बिनु किमि पर।
कनहरिया गुरु ना मिला, बूड़त है मंजधार।

बुधवार, 27 सितंबर 2017

दरिया कहे शब्द निरवाना--प्रवचन-02

वसंत तो परमात्मा का स्वभाव है—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक 22 जनवरी, 1979;
श्री ओशो आश्रम, पूना

प्रश्‍नसार :

1—आपने संन्यासरूपी प्रसाद दिया है, वह पचा सकूंगी या नहीं?

2—मैं वृद्ध हो गया हूं, सोचता था कि अब मेरे लिए कोई उपाय नहीं है। लेकिन...भगवान, यह क्या हो रहा है? मैं कोई स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं?

3—भगवान,
प्रेम की चुनरी ओढ़ा दी है आपने।
खूब-खूब अनुग्रह से भर गयी हूं।
बहाने और भी होते जो जिंदगी के लिए
हम एक बार तेरी आरजू भी खो देते

4—एक मित्र का अनूठा बयान...।

5—वसंत तो परमात्‍मा का स्‍वभाव है।

दरिया कहे शब्द निरवाना--प्रवचन-01

अबरि के बार सम्हारी—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 21 जनवरी 1976;
श्री ओशो आश्रम, पूना

सारसूत्र :
भीतर मैल चहल कै लागी, ऊपर तन धोवै है।
अविगत मुरति महल कै भीतर, वाका पंथ न जोवे है।।
जगति बिना कोई भेद न पौवे, साध-सगति का गोवे हैं।।
कह दरिया कुटने बे गोदी, सीस पटकि का रोवे है।।
विहंगम, कौन दिसा उड़ि जैहौ।

नाम बिहूना सो परहीना, भरमि-भरमि भौर रहिहौ।।
गुरुनिन्दर वद संत के द्रोही, निन्दै जनम गंवैहौ।
परदारा परसंग परस्पर, कहहु कौन गुन लहिहौ।।
मद पी माति मदन तन व्यापेउ, अमृत तजि विष खैहौ।
समुझहु नहिं वा दिन की बातें, पल-पल घात लगैहौ।।
चरनकंवल बिनु सो नर बूड़ेउ, उभि चुभि थाह न पैहौ।
कहै दरिया सतनाम भजन बिनु, रोइ रोइ जनम गंवैहौ।।
बुधजन, चलहु अगम पथ भारी।

दरिया कहै शब्द निरबाना-( दरिया बिहारवाले)-ओशो

दरिया कहै शब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले)

(ओशो)
 21जनवरी, 1979 से Jan 31 जनवरी, 1979 तक ओशाो आश्रम पूना।
 रिया जैसे व्यक्ति के शब्द दरिया के भीतर जन्म गए शून्य से उत्पन्न होते हैं।
वे उसके शून्य की तरंगें हैं। वे उसके भीतर हो रहे अनाहत नाद में डूबे हुए आते हैं। और जैसे कोई बगीचे से गुजरे, चाहे फूलों को न भी छुए और चाहे वृक्षों को आलिंगन न भी करे, लेकिन हवा में तैरते हुए पराग के कण, फूलों की गंध के कण उसके वस्त्रों को सुवासित कर देते हैं। कुछ दिखायी नहीं पड़ता कि कहीं फूल छुए, कि कही कोई पराग वस्त्रों पर गिरी, अनदेखी ही, अदृश्य ही उसके वस्त्र सुवासित हो जाते हैं। गुलाब की झाड़ियों के पास से निकलते हो तो गुलाब की कुछ गंध तुम्हें घेरे हुए दूर तक पीछा करती है। ऐसे ही शब्द जब किसी के भीतर खिले फूलों के पास से गुजर कर आते हैं तो उन फूलों की थोड़ी गंध ले आते हैं। मगर गंध बड़ी भनी है। गंध अनाक्रामक है। गंध बड़ी सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। जो हृदय को बिलकुल खोलकर सुनेंगे, शायद उनके नासापुटों को भर दे; शायद उनके प्राण में उमंग बनकर नाचे; शायद उनके भीतर की वीणा के तार छू जाएं; शायद उनके भीतर

गुरुवार, 14 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-05)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)
 

पांचवां-प्रवचन-(ओशो)

भारत किस ओर?

मेरे प्रिय आत्मन्!
विदर इंडिया? भारत किस ओर? यह सवाल भारत के लिए बहुत नया है। कोई दस हजार वर्षों से भारत की दिशा सदा निश्चित रही है, उसे सोचना नहीं पड़ा है। दस हजार सालों से भारत एक अपरिवर्तित, अनचेंजिंग सोसाइटी रहा है। जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता रहा। एक स्टैग्नेंट, ठहरा हुआ समाज रहा है। जैसे कोई तालाब होता है, ठहरा हुआ, चारों तरफ से बंद, तो हम तालाब से नहीं पूछते किस ओर? उसकी कोई गति नहीं होती। नदी से पूछते हैं, किस ओर? उसकी गति होती है। भारत की जिंदगी और भारत का मनुष्य आज तक एक तालाब की भांति रहा है। उसके आस-पास यह सवाल कभी नहीं उठा, किस ओर?

बुधवार, 13 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-04)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक) 

चौथा-प्रवचन-(ओशो)

खोज की दृष्टि
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं)
यह सवाल एकदम जरूरी और महत्वपूर्ण है। यह बात ठीक है कि एक इंजीनियर के पास रोटी न हो, कपड़ा न हो, खोज की सुविधा न हो, काम न हो, तो वह क्या करे? लेकिन अगर पूरे देश के पास ही रोटी न हो, रोजी न हो, कपड़ा न हो, तो देश क्या करे? और इंजीनियर को कहां से रोटी, रोजी और कपड़ा दे?
जब हम यह बात कहते हैं कि अगर मेरे पास रोटी-रोजी-कपड़ा नहीं तो मैं कैसे कुछ करूं। तो हमें यह भी जानना चाहिए, इस पूरे मुल्क के पास भी रोजी-रोटी-कपड़ा नहीं है। ये आपको कहां से दे?

सोमवार, 11 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-03)

भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक) 

तीसरा-प्रवचन-(ओशो)

भारत की समस्याएं..कारण और निदान

मेरे प्रिय आत्मन्!
यह देश शायद अपने इतिहास के सबसे ज्यादा संकटपूर्ण समय से गुजर रहा है। संकट तो आदमी पर हमेशा रहे हैं। ऐसा तो कोई भी क्षण नहीं है जो क्राइसिस का, संकट का क्षण न हो। लेकिन जैसा संकट आज है, ठीक वैसा संकट मनुष्य के इतिहास में कभी भी नहीं था। इस संकट की कुछ नई खूबियां हैं, पहले हम उन्हें समझ लें तो आसानी होगी।
मनुष्य पर अतीत में जितने संकट थे, वे उसके अज्ञान के कारण थे। जिंदगी में बहुत कुछ था जो हमें पता नहीं था और हम परेशानी में थे। वह परेशानी एक तरह की मजबूरी थी, विवशता थी। नये संकट की खूबी यह है कि यह अज्ञान के कारण पैदा नहीं हुआ है, ज्यादा ज्ञान के कारण पैदा हुआ है।

रविवार, 10 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-02)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)  

दूसरा-प्रवचन-(ओशो)

नये के लिए पुराने को गिराना आवश्यक

मेरे प्रिय आत्मन्!
सुना है मैंने, एक गांव में बहुत पुराना चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था कि आज गिरेगा या कल, कहना मुश्किल था। हवाएं जोर से चलती थीं तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। आकाश में बादल आते थे तो गांव के लोग डरते थे कि चर्च गिर जाएगा। उस चर्च में प्रार्थना करने वाले लोगों ने प्रार्थना करनी बंद कर दी थी। चर्च के संरक्षक, चर्च के ट्रस्टियों ने एक बैठक बुलाई, क्योंकि चर्च में लोगों ने आना बंद कर दिया था। और तब विचार करना जरूरी हो गया था कि चर्च नया बनाया जाए। वे ट्रस्टी भी चर्च के बाहर ही मिले। उन्होंने अपनी बैठक में चार प्रस्ताव पास किए थे। वे मैं आपसे कहना चाहता हूं।

उन्होंने पहला प्रस्ताव किया कि बहुत दुख की बात है कि पुराना चर्च हमें बदलना पड़ेगा। उन्होंने पहला प्रस्ताव पास किया बहुत दुख के साथ कि पुराना चर्च हमें गिराना पड़ेगा। पुराने को गिराते समय मन को सदा ही दुख होता है। क्योंकि मन पुराना ही है। और पुराने के साथ पुराने मन को भी मरना पड़ता है।

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

भारत का भविष्य-(प्रवचन-01)  

भारत का भविष्य-(राष्ट्रीय-सामाजिक)  

पहला-प्रवचन-(ओशो)

भारत को जवान चित्त की आवश्यकता

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात शुरु करना चाहूंगा।
सुना है मैंने कि चीन में एक बहुत बड़ा विचारक लाओत्सु पैदा हुआ। लाओत्सु के संबंध में कहा जाता है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। यह बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है। लाओत्सु के संबंध में यह बड़ी हैरानी की बात कही जाती रही है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ। इस पर भरोसा आना मुश्किल है। मुझे भी भरोसा नहीं है। और मैं भी नहीं मानता कि कोई आदमी बूढ़ा पैदा हो सकता है। लेकिन जब मैं इस हमारे भारत के लोगों को देखता हूं तो मुझे लाओत्सु की कहानी पर भरोसा आना शुरू हो जाता है। ऐसा मालूम होता है कि हमारे देश में तो सारे लोग बूढ़े ही पैदा होते हैं।

मुझे कहा गया है कि युवक और भारत के भविष्य के संबंध में थोड़ी बातें आपसे कहूं। तो पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा...देख कर लाओत्सु की कहानी सच मालुम पड़ने लगती है। इस देश में जैसे हम सब बूढ़े ही पैदा होते हैं। बूढ़े आदमी से मतलब सिर्फ उस आदमी का नहीं है जिसकी उम्र ज्यादा हो जाए, क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि आदमी का शरीर बूढ़ा हो और आत्मा जवान हो।

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-30

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तीसवां प्रवचन
देख कबीरा रोया

एक आदमी को परमात्मा का वरदान था कि जब भी वह चले, उसकी छाया न बने, उसकी छाप न पड़े। वह सूरज की रोशनी में चलता तो उसकी छाया नहीं बनती थी। जिस गांव में वह था, लोगों ने उसका साथ छोड़ दिया। उसके परिवार के लोगों ने उसको घर से बाहर कर दिया। उसके मित्र और प्रियजन उसको देख कर डरने और भयभीत होने लगे। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बन गई कि उसे गांव के बाहर जाने के लिए मजबूर हो जाना पड़ा। वह बहुत हैरान हुआ, तो उसने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैंने केवल छाया खो दी है, और लोग मुझसे इतने भयभीत हो गए हैं, लेकिन लोग तो आत्मा भी खो देते हैं, और तब भी उनसे कोई भयभीत नहीं होता है।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-28

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

अट्ठाईसवां प्रवचन
अनिवार्य संतति-नियमन

प्रश्न: आप तीसरी बार यहां आए हैं। आपकी दो बातों का हम पर असर रहा--एक तो आप बुद्धिनिष्ठा की हिमायत करते हैं और दूसरी विचारनिष्ठा की बात करते हैं आप। गुरु को मानने के लिए आप मना करते हैं।

मैं तो इतना कह रहा हूं कि जो खबरें मेरे बाबत पहुंचाई जाती हैं, वे इतनी तोड़ते-मरोड़ते हैं, इतनी बिगड़ कर पहुंचाई जाती हैं--जब आप मुझे कहते हैं तो मुझे हैरानी हो जाती है। वह जो पत्रकारों से नारगोल में बात हुई थी, उनसे सिर्फ मजाक में मैंने कहा; उनसे सिर्फ मजाक में मैंने यह कहा कि जिसको तुम लोकतंत्र कह रहे हो, इस लोकतंत्र से तो बेहतर हो कि पचास साल के लिए कोई तानाशाह बैठ जाए। यह सिर्फ मजाक में कहा। और उनकी बेवकूफी की सीमा नहीं है, जिसको उन्होंने कहा कि मैं पचास साल के लिए देश में तानाशाही चाहता हूं। मैं जो कह रहा हूं, उनमें से ही किसी ने कहा कि आज जो बातें कहते हैं, इससे तो आपको कोई गोली मार दे तो क्या हो? मैंने तो सिर्फ मजाक में कहा कि बहुत अच्छा हो जाएगा, फिर गांधी से मेरा मुकाबला हो जाए। उन सबने छाप दिया कि मैं गांधी से मुकाबला करना चाहता हूं।

रविवार, 3 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-27

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सत्ताईसवां प्रवचन
गांधी पर पुनर्विचार

मेरे प्रिय आत्मन्!
डॉ. राममनोहर लोहिया मरणशय्या पर पड़े थे। मृत्यु और जीवन के बीच झूलती उनकी चेतना जब भी होश में आती तो वह बार-बार एक ही बात दोहराते। बेहोशी में, मरते क्षणों में वे बार-बार यह कहते सुने गए। मेरा देश सड़ गया है, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है। यह कहते हुए उनकी मृत्यु हुई। पता नहीं उस मरते हुए आदमी की बात आप तक पहुंची है या नहीं पहुंची। लेकिन राममनोहर लोहिया जैसे विचारशील व्यक्ति को यह कहते हुए मरना पड़े कि मेरा देश सड़ गया, मेरे देश की आत्मा सड़ गई है, तो कुछ विचारणीय है।
क्यों सड़ गई है देश की आत्मा? किसी देश की आत्मा सड़ कैसे जाती है? जिस देश में विचार बंद हो जाता है उस देश की आत्मा सड़ जाती है। जीवन का प्रवाह है, विचार का प्रवाह है।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-25

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

पच्चीसवां प्रवचन
समाजवाद: परिपक्व पूंजीवाद का परिणाम

प्रश्न: आपने अभी-अभी ऐसा कहा था कि हमारे यहां अभी सोशलिज्म की जरूरत नहीं है। अभी जो कैपिटलिज्म है, वह यहां फ्लरिश होना चाहिए। उसके बारे में क्या आप कुछ विस्तार से प्रकाश डालेंगे?

हां, मेरी ऐसी दृष्टि है कि समाजवाद पूंजीवाद की परिपक्व अवस्था का फल है। और समाजवाद यदि अहिंसात्मक और लोकतांत्रिक ढंग से लाना हो तो पूंजीवाद परिपक्व हो, इसकी पूरी चेष्टा की जानी चाहिए। पूंजीवाद की परिपक्वता का अर्थ है, एक औद्योगिक क्रांति--कि देश का जीवन भूमि से बंधा न रह जाए, और देश का जीवन आदिम उपकरणों से बंधा न रह जाए। आधुनिकतम यंत्रीकरण हो तो संपत्ति पैदा हो सकती है। और संपत्ति जब अतिरिक्त मात्रा में पैदा होती है, तभी उसका वितरण भी हो सकता है, और विभाजन भी हो सकता है।

शनिवार, 2 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-24

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

चौबीसवां प्रवचन
राष्ट्रभाषा: अ-लोकतांत्रिक

प्रश्न: परमात्मा तक जाने के लिए क्या विश्वास के द्वारा ही जाया जा सकता है?

मेरी समझ ऐसी है कि परमात्मा और विश्वास का कोई संबंध ही नहीं है। और जो भी विश्वास करता है, उसको मैं आस्तिक नहीं कहता। विश्वास का मतलब है कि जिसे हम नहीं जानते हैं, उसे मानते हैं। और मेरा कहना है कि जिसे हम नहीं जानते, उसे मानने से बड़ा पाप नहीं हो सकता। अगर कोई ईश्वर को इनकार करता है और कहता है कि मुझे अविश्वास है, तो भी मैं कह रहा हूं कि वह गलत बात कह रहा है। क्योंकि जब तक उसने खोज न लिया हो, समस्त को खोज न लिया हो और ऐसा पा न लिया हो कि ईश्वर नहीं है, तब तक ऐसा कहना ठीक नहीं कि विश्वास है। और एक आदमी कहता है, मुझे विश्वास है, हालांकि मैंने जाना नहीं, देखा नहीं, लेकिन विश्वास करता हूं।

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-23

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

तेईसवां प्रवचन
गांधी की रुग्ण-दृष्टि

मेरे प्रिय आत्मन्!
जॉर्ज बर्नार्डशा ने एक छोटी सी किताब लिखी है। वह किताब सूक्तियों की मैक्सिम्स की किताब है। उसमें पहली सूक्ति उसने बहुत अदभुत लिखी है। पहला सूत्र उसने लिखा है: द फर्स्ट गोल्डन रूल इज़ दैट देअर आर नो गोल्डन रूल्स। पहला स्वर्ण-सूत्र यह है कि जगत में स्वर्ण-सूत्र हैं ही नहीं।
यह मुझे इसलिए स्मरण आता है कि जब मैं सोचते बैठता हूं, गांधी-विचार पर बोलने के लिए, तो पहली बात तो मैं यह कहना चाहता हूं कि गांधी-विचार जैसी कोई विचार-दृष्टि है ही नहीं। गांधी-विचार जैसी कोई चीज नहीं है। "गांधी-विश्वास' जैसी चीज है, "गांधी-विचार' जैसी चीज नहीं है। गांधी के विश्वास हैं कुछ, लेकिन गांधी के पास कोई वैज्ञानिक दृष्टि और कोई वैज्ञानिक विचार नहीं है। गांधी के विश्वासों को ही हम अगर गांधी-विचार कहें, तो बात दूसरी है। क्योंकि विचार का पहला लक्षण है--संदेह। विचार शुरू होता है संदेह से। विचार की यात्रा ही चलती है डाउट, संदेह से। और गांधी संदेह करने को जरा भी राजी नहीं हैं।

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-22

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बाईसवां प्रवचन
विचार-क्रांति की भूमिका

प्रश्न: पिछली बार जब अहमदाबाद आए थे तो आपको सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे। तथा आपकी विचारधारा समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। उनमें से कुछ लोगों का कहना है कि आपके विचार कम्युनिस्ट विचारधारा से बहुत मेल खाते हैं और उसके बहुत समीप हैं। कृपया इस संबंध में आप अधिक प्रकाश डालें।

पहली बात तो यह है कि मेरी दृष्टि में कोई भी विचारशील आदमी किसी न किसी रूप में कम्युनिज्म के निकट होगा ही। यह असंभव है, इससे उलटा होना। और अगर हो तो यह तो वह आदमी विचारशील न होगा, या बेईमान होगा।
उसके कुछ कारण हैं।
जैसे, यह बात अब स्वीकार करनी असंभव है कि दुनिया में किसी तरह की आर्थिक असमानता चलनी चाहिए। यह बात भी स्वीकार करनी असंभव है कि दुनिया किसी तरह के वर्गों में विभक्त रहे। प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी रूप में जीवन में विकास का समान अवसर मिले, इसके लिए भी अब कोई विरोध नहीं होता। और मेरी समझ में, आज ही नहीं, मैं तो बुद्ध को, महावीर को, क्राइस्ट को, सबको कम्युनिस्ट कहता हूं। उन्हें कोई पता नहीं था।