कुल पेज दृश्य

बुधवार, 24 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-09)

(राजनीति से छुटकारा--नौवां प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
शिविर का अंतिम दिन है और इसलिए यहां से विदा होने के पूर्व कुछ थोड़ी सी जरूरी बातें आपसे कह देनी आवश्यक हैं। लेकिन इसके पहले कि मैं उन्हें कहूं, एक-दो प्रश्न और, जो महत्वपूर्ण हैं और छूट गए हैं, उनकी भी चर्चा कर लेनी उचित होगी। फिर भी कुछ प्रश्न छूट जाएंगे, तो मैं निवेदन करूंगा कि जिन प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं, जिनकी चर्चा की गई, यदि उनको ठीक से सुना गया होगा, तो जो प्रश्न छूट जाएं उनका भी विचार आपके भीतर पैदा हो सकता है।

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-08)

(अभाव का बोध--आठवां प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
बीते दो दिनों में सुबह की चर्चाओं में दो बिंदुओं पर हमने विचार कियाः अज्ञान का बोध और रहस्य का बोध।
अज्ञान का बोध न हो तो ज्ञान ही बाधा बन जाता है और रहस्य का बोध न हो तो व्यक्ति अपने में ही सीमित हो जाता है। और जो विराट ब्रह्म विस्तीर्ण है चारों ओर, उससे उसके संपर्क-सूत्र शिथिल हो जाते हैं, उससे उसकी जड़ें टूट जाती हैं। और जो व्यक्ति अपने में ही केंद्रित हो जाता है वह स्वभावतः पीड़ा और दुख में पड़ जाता है और चिंता में पड़ जाता है।
इन दो तत्वों के संबंध में विचार किया। मनुष्य सर्वसत्ता से इन दो दीवालों के कारण टूटा है। टूट की वजह से उसके भीतर कौन सी घटना घटी है और वह घटना कैसे विसर्जित होगी, उसकी चर्चा मैं आज करना चाहता हूं। क्यों मनुष्य अपने को ज्ञान से भरना चाहता है? क्यों मनुष्य प्रकृति के रहस्य से दूर हट गया और टूट गया? कोई सुनिश्चित कारण पीछे होंगे। अकारण यह नहीं हुआ है। उन कारणों पर थोड़ा सा विचार करेंगे, और कैसे वापस मनुष्य अपने थोथे अहंकार से मुक्त हो सकता है और जीवन से संबंधित, उसका भी।

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-07)

(शास्त्र, धर्म और मंदिर-सातवां प्रवचन)

किसी ने पूछा है कि मैं कहता हूंः शास्त्र-ग्रंथ और धर्म-मंदिर व्यर्थ हैं। यह कैसे? शास्त्र-ग्रंथों से तो तत्व का ज्ञान मिलता है और मंदिर की भगवान की मूर्ति देख कर सम्यक दर्शन की प्राप्ति होती है।
संभवतः मैंने जो इतनी बातें कहीं, जिन्होंने भी पूछा है उन्हें सुनाई नहीं पड़ी होंगी।
मैंने यह कहा कि पदार्थ का ज्ञान बाहर से मिल सकता है, क्योंकि पदार्थ बाहर है। जो बाहर है उसका ज्ञान बाहर से मिल सकता है। कोई आत्म-ज्ञान से गणित और इंजीनियरिंग और केमिस्ट्री और फिजिक्स का ज्ञान नहीं हो जाएगा और न ही भूगोल के रहस्यों का पता चल जाएगा। जो बाहर है उसे बाहर खोजना होगा।
विज्ञान उस काम को करता है, इसलिए विज्ञान के शास्त्र होते हैं। विज्ञान एक शास्त्र है। विज्ञान के शास्त्र होते हैं, बिना शास्त्रों के विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। केमिस्ट्री सीखनी हो, फिजिक्स या गणित सीखना हो, तो शास्त्र से सीखना पड़ेगा। क्योंकि विज्ञान के विषय भी बाहर हैं और उसका ज्ञान भी बाहर है।

सोमवार, 22 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-06)

(ध्यान--जागरण का द्वार-छठवां प्रवचन)

तने दिन की चर्चा में मैंने यह कहा कि अज्ञानी मनुष्य, अज्ञान से घिरा हुआ व्यक्ति जो भी करेगा वह गलत होगा। वह जो भी करेगा गलत होगा।
पूछा हैः यदि अज्ञान से घिरा हुआ व्यक्ति जो भी करेगा वह गलत होगा, तो ध्यान, जागरण, इसकी जो चेष्टा है वह भी उसकी गलत होगी। फिर तो कोई द्वार नहीं रहा, फिर तो कोई मार्ग नहीं रहा। इससे संबंधित और दो-तीन प्रश्न भी हैं इसलिए सबसे पहले इसी प्रश्न को मैं ले लेता हूं।

निश्चित ही, भीतर अज्ञान हो तो हम जो भी करेंगे वह ठीक नहीं हो सकता। सामान्यतया सोचा जाता है कि कर्म ठीक होते हैं या गलत होते हैं। एक आदमी मंदिर जाता है तो हम कहते हैं ठीक है; एक आदमी वेश्यागृह में जाता है तो हम कहते हैं गलत है। एक आदमी चोरी करता है तो हम कहते हैं बुरा है, पाप है; एक आदमी दान देता है तो हम कहते हैं शुभ है, पुण्य है। हम कर्मों को देखते और विचार करते हैं। मेरे देखे यह आमूलतः गलत है। कर्म न तो अच्छे हो सकते हैं और न बुरे; चेतना अच्छी होती है या बुरी। और चेतना यदि गलत हो तो चाहे कर्म ऊपर से कितना ही ठीक दिखाई पड़े, बुनियाद में, आधार में गलत होगा।

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-05)

अज्ञान का बोध, रहस्य का बोध-पांचवां प्रवचन

ज्ञान का बोध, इस संबंध में थोड़ी सी बात मैं आपसे कहना चाहता हूं।

जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, अज्ञान के बोध के बिना कोई व्यक्ति सत्य के अनुभव में प्रवेश न कभी किया है और न कर सकता है। इसके पहले कि अज्ञान छोड़ा जा सके, ज्ञान को छोड़ देना आवश्यक है। इसके पहले कि भीतर से अज्ञान का अंधकार मिटे, यह जो ज्ञान का झूठा प्रकाश है, इसे बुझा देना जरूरी है। क्योंकि इस झूठे प्रकाश की वजह से, जो वास्तविक प्रकाश है, उसे पाने की न तो आकांक्षा पैदा होती है, न उसकी तरफ दृष्टि जाती है। एक छोटी सी घटना इस संबंध में कहूंगा और फिर आज की चर्चा शुरू करूंगा।

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-04)

(नई संस्कृति का जन्म-प्रवचन-चौथा)

पूछा हैः क्या जीवन में किसी तरह के अनुशासन की, डिसिप्लिन की आवश्यकता नहीं है? और अगर अनुशासन न रहेगा तो अराजकता हो जाएगी। और न तो सभ्यता रहेगी, न कोई व्यवस्था रहेगी, बल्कि एक अराजकता, एक अनारकी पैदा हो जाएगी।

ठीक ही बात पूछी है। अब तक मनुष्य जिस भांति जिया है, और जैसी सभ्यता का उसने निर्माण किया है, जैसे समाज को बनाया, वह पूरा का पूरा समाज ही अनुशासन पर खड़ा है। और इसीलिए यह भय बिलकुल स्वाभाविक है कि यदि अनुशासन टूट जाए, तो समाज भी टूट जाए, सभ्यता भी टूट जाए, संस्कृति भी मिट जाए। अराजकता हो जाए। यह भय इसीलिए है, क्योंकि हमारे जीवन में जो भी नीति है, जो भी चरित्र है, वह सभी का सभी अनुशासन पर खड़ा है। और अनुशासन किस बात पर खड़ा हुआ है? अनुशासन किस बात पर निर्भर है? अनुशासन का, या डिसिप्लिन का अर्थ क्या है?

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-03)

(विवेक का अनुशासन-तीसरा 

बहुत से प्रश्न हैं। मनुष्य का मन ऐसा है कि उसमें प्रश्न लगते हैं, जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं। और हम यह भी सोचते हैं कि शायद प्रश्नों का कोई हल हो जाए, इसलिए उत्तर की खोज करते हैं। लेकिन उत्तर की खोज से प्रश्न का हल न कभी हुआ है, और न होगा। प्रश्न क्यों उठता है भीतर? जब तक इस बात की खोज न हो तब तक प्रश्न मिटता नहीं है। प्रश्न उठता है, मन की अशांति से और मन के अज्ञान से। उस अशांति को और उस अज्ञान को तो हम मिटाना नहीं चाहते, प्रश्न को हल करना चाहते हैं। तो ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि प्रश्न तो हल न हो, उत्तर सीखने में आ जाए। इसीलिए तो हमने बहुत से उत्तर सीख लिए। हमने प्रश्न पूछे और उत्तर मिल गया और उत्तर हमने सीख लिए। लेकिन उत्तर सीखने से भी प्रश्न समाप्त नहीं होता।

रविवार, 21 जुलाई 2019

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-02)

अज्ञान का घना अंधेरा-(दूसरा प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैंने आपको कहा, एक दर्पण मैं आपको भेंट करना चाहता हूं। लेकिन फिर मुझे याद आया कि उसमें तो थोड़ी भूल हो गई है। दर्पण तो आपके पास ही है, लेकिन उस पर बहुत धूल जमी हुई है। उस धूल को ही अलग किया जा सके तो दर्पण कहीं और से पाने की कोई जरूरत नहीं है और धूल कुछ ऐसी है, जिसे अलग कर देना बड़ी आसान बात है, कठिन नहीं।
सुना होगा आपने, सत्य को या आत्मा को या मोक्ष को पा लेना बहुत कठिन है। निश्चित ही, अगर सरल से सरल बात भी गलत ढंग से की जाए, तो कठिन हो जाती है। हम यदि सूरज के पास पहुंचना चाहते हों और पीठ करके चलते हों, तो पहुंचना कठिन हो जाएगा। लेकिन वह कठिनाई, जहां हम जाना चाहते हैं, उस लक्ष्य में नहीं, बल्कि

गिरह हमारा सुन्न में-(प्रवचन-01)

मन दर्पण कहलाए-(पहला प्रवचन)

जीवन-सत्य के संबंध में थोड़ी सी बातें न केवल हम विचार करेंगे, बल्कि कैसे सत्य के जीवन में प्रवेश किया जाए, कैसे हम स्वयं छलांग लगा सकते हैं और सत्य का स्वाद ले सकते हैं, इस संबंध में प्रयोग भी करेंगे। बात का तो कोई बहुत मूल्य नहीं है, विचारों की कोई बहुत कीमत नहीं है, क्योंकि विचार मनुष्य के सारे प्राणों को न तो छूते हैं और न समस्त प्राणों को डुबाने में समर्थ हैं। जीवन में जो भी अर्थपूर्ण है, उसे पूरे प्राणों से अनुभव करने की तैयारी करनी पड़ती है। जैसे हम किसी को प्रेम करते हैं तो बुद्धि भी डूब जाती है, हृदय भी। देह भी डूब जाती है, श्वास भी डूब जाती है। सारा प्राण और सारा व्यक्तित्व प्राण में डूब जाता है और प्रेम का अनुभव होता है।

शनिवार, 20 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-020

(सदा शुभ को--सुंदर को खोज-बीसवां)

प्यारी भारती,
प्रेम।
तेरा पत्र पाकर बहुत आनंदित हूं।
जीवन नये-नये अनुभवों का नाम है। जो नित-नये का अनुभव करने में समर्थ है, वही जीवित है।
इसलिए, परदेश को प्रेम से ले।
नये को सीख। अपरिचित को परिचित बना। अज्ञात को जान--पहचान।
निश्चय ही इसमें तुझे बदलना होगा।
पुरानी आदतें टूटेंगी, तो उन्हें टूटने दे।
और, स्वयं की बदलाहट से भयभीत न हो।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-019

(सीखो--प्रत्येक जगह को अपना घर बनाना-उन्नीसवां )

प्यारे सुनील,
प्रेम।
तेरा पत्र पाकर अति आनंदित हूं।
घर की याद स्वाभाविक है और तब तक सताती है, जब तक कि हम प्रत्येक जगह को अपना घर बनाना न सीख लें।
और, वह कला सीखने जैसी है।
अब जितने दिन तू वहां है, उतने दिन उस जगह को अपना ही घर मान कर रह।
सारी पृथ्वी हमारा घर है।
और, समस्त जीवन हमारा परिवार है।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-018

(संगीतपूर्ण व्यक्तित्व-अट्ठारवां) 

प्यारी डाली,
प्रेम।
तेरे पत्र आते हैं--तेरे प्राणों के गीतों से भरे।
उनकी ध्वनि और संगीत में जैसे तू स्वयं ही आ जाती है।
मैं देख पाता हूं कि नृत्य करती तू चली आ रही है और फिर मुझमें समा जाती है।
तेरी सूक्ष्म देह अनेक बार ऐसे मेरे निकट आती है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-017

(स्वतंत्रता का जीवन--प्रेम के आकाश में-सत्रहवां)

प्यारी नीलम,

प्यारे विन्दी,
तुम प्रेम के मंदिर में प्रवेश करोगे और मैं उपस्थित नहीं रह सकूंगा! इससे मन बहुत दुखता है।
लेकिन, मेरी शुभकामनाएं तो वहां होंगी ही।
और, हवाओं में तुम उनकी उपस्थिति अनुभव करोगे।
तुम्हारा जीवन प्रेम के आकाश में स्वतंत्रता का जीवन बने, यही प्रभु से मेरी कामना है।
क्योंकि, अक्सर प्रेम की आड़ में परतंत्रता आ जाती है और प्रेम मर जाता है।
प्रेम के फूल तो केवल स्वतंत्रता की क्यारियों में ही खिलते हैं।

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-016

(सब कुछ--स्वयं को भी देने वाला प्रेम प्रार्थना बन जाता है-सोहलवां)

प्यारी रोशन
प्रेम।
तेरा पत्र पाकर आनंदित हूं।
यह भी तुझे ज्ञात है कि उस दिन तू मिलने आई, तो चुप क्यों रह गई थी?
लेकिन, मौन भी बहुत कुछ कहता है।
और, शायद शब्द जो नहीं कह पाते हैं, वह मौन कह देता है।
प्रेम और विवाह के संबंध में तूने पूछा है।
प्रेम अपने में पूर्ण है।
वह और कुछ भी नहीं चाहता है।
विवाह "कुछ और" की भी चाह है।
लेकिन, पूर्ण प्रेम कहां है?
इस पृथ्वी पर कुछ भी पूर्ण नहीं है।
इसलिए, प्रेम, विवाह बनना चाहता है।
यह अस्वाभाविक भी नहीं है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-015

(जिज्ञासा जीवन की-पंद्रहवां)

मेरे प्रिय,
प्रेम।
तुम्हारे दो पत्र देर से आकर प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं, लेकिन बहुत था व्यस्त, इसलिए विलंब के लिए क्षमा मांगता हूं।
(पत्रः 8-10-68)

प्रश्न 1

"अवतार", "तीर्थंकर", "पैगंबर", जैसी अभिव्यक्तियां मनुष्य की असमर्थता की सूचक हैं। इतना निश्चित है कि कुछ चेतनाएं ऊर्ध्वगमन की यात्रा में उस जगह पहुंच जाती हैं, जहां उन्हें "मनुष्य" मात्र कहे जाना सार्थक नहीं रह जाता है। फिर कुछ तो कहना ही होगा। मनुष्यातीत अवस्थाएं हैं।
2ः धर्म की शिक्षा का अर्थ हैः ऐसा अवसर देना कि भीतर जो प्रसुप्त है, वह जाग सके। निश्चय ही मार्गदर्शकों की जरूरत होगी। लेकिन वे होंगे--मित्र। गुरु होने की चेष्टा में ही आरोपण प्रारंभ हो जाता है। मनुष्य को गुरुडम से बचाया जाना आवश्यक है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-014

(निर्विचार चैतन्य है--जीवनानुभूति का द्वार-चौहदवां)

मेरे प्रिय,
प्रेम।
तुम्हारा पत्र और तुम्हारे प्रश्न मिले हैं।
मैं मृत्यु के संबंध में जान-बूझ कर चुप रहा हूं।
क्योंकि मैं जीवन के संबंध में जिज्ञासा जगाना चाहता हूं।
मृत्यु के संबंध में जो सोच-विचार करते हैं, वे कहीं भी नहीं पहुचंते हैं।
क्योंकि, वस्तुतः मरे बिना मृत्यु कैसे जानी जा सकती है?
इसलिए, वैसे सोच-विचार का कुल परिणाम या तो यह स्वीकृति होती है कि आत्मा अमर है या यह कि जीवन की समाप्ति पूर्ण समाप्ति ही है और पीछे कुछ शेष नहीं रह जाता है।

मंगलवार, 16 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-013

(तीव्र अभीप्सा--सत्य के लिए, शांति के लिए, मुक्ति के लिए-तैरहवां)

प्यारी शिरीष,
प्रेम।    
तेरा पत्र पाकर अत्यंत आनंदित हुआ हूं।
सत्य के लिए, शांति के लिए, मुक्ति के लिए तेरी कितनी अभीप्सा है!
उस अभीप्सा को अनुभव करता हूं, तो लगता है कि मैं तेरे लिए जो कुछ भी कर सकूं, वह थोड़ा ही होगा।
फिर भी मैं सामथ्र्य भर तेरी सहायता करना चाहता हूं।
क्यों करना चाहता हूं?
शायद न करना मेरे वश में ही नहीं है।
परमात्मा का जो आदेश है, उसे ही करना होगा।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-012

(शांत मन में अंतर्दृष्ट का जागरण-बारहवां)

प्रिय सुशीला जी,
प्रेेम।             
आपका पत्र मिला है।
आपकी साधना और तत्संबंध में चिंतन से प्र्र्र्रसन्न हूं।
देश की वर्तमान स्थिति से चिंता होना स्वाभाविक है।
लेकिन, चिंता जितनी ज्यादा हो चिंतन उतना ही असंभव हो जाता है।
चिंता और चिंतन विरोधी दिशाएं हैं।
मन को शांत रखें तो जो करने योग्य हो, उसके प्रति अंतर्दृष्टि क्रमशः जाग्रत होने लगती है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-011

(सत्ता की, होने की, प्राणों की पूर्णानुभूति ही सत्य है-ग्याहरवां)

प्रिय सुशीला,
तुम्हारा पत्र। मैं बाहर था। परसों ही लौटा हूं। विश्वविद्यालय से मुक्ति ले ली है, इसलिए अब तो यात्रा ही जीवन है।
सत्य क्या है? सत्ता की, होने की, प्राणों की पूर्णानुभूति ही सत्य है।
‘होने’ की अनुभूति जितनी मूच्र्छित है, जीवन उतना ही असत्य है।
‘मैं’ हूं--इसे खूब गहरी प्रगाढ़ता से प्रतिक्षण अनुभव करो।
श्वास उससे भर जावे।
अंततः ‘मैं’ न बचे और ‘हूं’ ही शेष रहे।
उस क्षण ही ‘जो है’, उसे जाना और जिया जाता है।

सोमवार, 15 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-010

(हृदय की प्यास और पीड़ा से साधना का जन्म-दसवां)

मेरे प्रिय,
प्रेम।   
आपका पत्र मिले बहुत देर हो गई है। मैं इस बीच निरंतर प्रवास में था, इसलिए दो शब्द भी प्रत्युत्तर में नहीं लिख सका। वैसे मेरी प्रार्थनाएं तो सदा ही आपके साथ हैं।
मैं आपके हृदय की प्यास और पीड़ा को जान कर आनंदित होता हूं। क्योंकि, वही तो बीज है, जिससे कि साधना का जन्म होता है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-009

(विचार को छोड़ें और स्वयं में उतरें-दसवां)

मेरे प्रिय आत्मन्,
प्रेम।   
आपका पत्र मिला है।
ध्यान की साधना में यदि क्रमशः अमूच्र्छा, आत्मज्ञान और सजगता विकसित होती जावे, तो मानना चाहिए कि हम चित्त के सम्मोहन-घेरे से बाहर हो रहे हैं।
और, यदि इसके विपरीत मूच्र्छा और प्रमाद बढ़ता हो, तो निश्चित मानना चाहिए कि चित्त की निद्रा और गहरी हो रही है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-008

(बस निर्विचार चेतना को साधें-आठवां)

प्रिय सुशीला जी,
प्रेम।   
आपका पहला पत्र यथासमय मिल गया था। लेकिन, मैं सौराष्ट्र के दौरे पर चला गया, इसलिए उत्तर नहीं दे सका। आते ही आपका दूसरा पत्र मिला है। आपकी इच्छा है, तो मैं उधर आ सकूंगा। अक्तूबर के शिविर में आप इधर आ ही रही हैं, तभी उस संबंध में विचार कर लेंगे।
किसी को मुझसे किसी प्रकार की सहायता मिल सके, तो मैं कहीं भी आने को तैयार हूं।
अब तो यही मेरा आनंद है।
आपने अपने चित्त की जो दशा लिखी है, उससे बहुत प्रसन्नता होती है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-007

(मैं आपको तट पर खड़ा पा रहा हूं-सातवां)

मेरे प्र्रिय,
प्रेम।   
आपका पत्र मिला है। उसे पाकर आनंदित हुआ हूं। उस दिन भी आपसे मिल कर अपार हर्ष हुआ था।
सत्य के लिए जैसी आपकी आकांक्षा और प्यास है, वह सौभाग्य से ही होती है।
वह हो, तो एक न एक दिन साधना के सागर में कूदना हो ही जाता है।
मैं आपको तट पर खड़ा पा रहा हूं--बस, एक छलांग की ही आवश्यकता है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-006

(आंख बंद है-चित्त-वृत्तियों के धुएं से-छठवां)

चिदात्मन्,
प्रेम।   
आपका अत्यंत प्रीति और सत्य के लिए प्यास से भरा पत्र मिला है। मैं आनंदित हुआ।
जहां इतनी प्यास होती है, वहां प्राप्ति भी दूर नहीं है।
प्यास हो, तो पथ बन जाता है।
सत्य तो निकट है और प्रकाश की भांति द्वार पर ही खड़ा है।
वह नहीं, समस्या हमारे पास आंख न होने की है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-005

(देखना भर आ जाए--वह तो मौजूद ही है-पांचवां)

प्रिय चिदात्मन्,
मैं आपके अत्यंत प्रीतिपूर्ण पत्र को पाकर आनंदित हुआ हूं। आपके जीवन की लौ निर्धूम होकर सत्य की ओर बढ़े यही मेरी कामना है।
प्रभु को पाने के लिए जीवन को एक प्रज्वलित अग्नि बनाना होता है।
सतत उस ओर ध्यान रहे।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-004

(जो छीना नहीं जा सकता है, वही केवल आत्म-धन है-चौथा)

प्रिय जया बहिन,

स्नेह।  
आपका पत्र मिला हैै। बहुत खुशी हुई। शांति और आनंद की नई गहराइयां छू रही हैं, यह जान कर कितनी प्रसन्नता होती है!
जीवन के यात्रा-पथ पर उन गहराइयों के अतिरिक्त और कुछ भी पाने योग्य नहीं है।
जब सब खो जाता है, तब भी वह संपदा साथ रहती है।
इसलिए वस्तुतः वही संपदा है।
और, जिनके पास सब-कुछ है, लेकिन वह नहीं है, वे समृद्धि में भी दरिद्र हैं।
समृद्धि में दरिद्र और दरिद्रता में समृद्ध होना, इसलिए ही, संभव हो जाता है।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-003

(मनुष्य धर्म के बिना नहीं जी सकता-तीसरा) 

प्रिय जया बहिन,
प्रणाम।
मैं आनंद में हूं। आपका पत्र मिले देर हुई। मैं बीच में बाहर था, इसलिए उत्तर में विलंब हुआ है। इंदौर और शाजापुर बोल कर लौटा हूं।
एक सत्य के दर्शन रोज-रोज हो रहे हैं कि मनुष्य धर्म के बिना नहीं जी सकता है।
धर्म के अभाव में उसमें कुछ खाली और रिक्त छूट जाता है।
यह रिक्तता पीड़ा देने लगती है, और फिर इसे भरने का मार्ग नहीं दीखता है।

रविवार, 14 जुलाई 2019

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-002

(धैर्य साधना का प्राण है-दूसरा)

प्रिय बहिन,
सत्य प्रत्येक क्षण, प्रत्येक घटना से प्रकट होता है। उसकी अभिव्यक्ति नित्य हो रही है।
केवल, देखने को आंख चाहिए, प्रकाश सदैव उपस्थित है।
एक पौधा वर्ष भर पहले रोपा था। अब उसमें फूल आने शुरू हुए हैं। एक वर्ष की प्रतीक्षा है, तब कहीं फल है।
ऐसा ही आत्मिक जीवन के संबंध में भी है।
प्रार्थना करो और प्रतीक्षा करो--बीज बोओ और फूलों के आने की राह देखो।
धैर्य साधना का प्राण है।
कुछ भी समय के पूर्व नहीं हो सकता है। प्रत्येक विकास समय लेता है।
और, वे धन्य हैं, जो धैर्य से बाट जोह सकते हैं।

अंतर्वीणा-(पत्र संकलन)-001

आनंद है भीतर-पहला)

प्रिय बहन, चिदात्मन्
प्रणाम।
मैं परसों दिल्ली से लौटा, तो आपका पत्र मिला है।
यह जान कर प्रसन्न हूं कि आपको आनंद और संतोष का अनुभव हो रहा है।
आनंद भीतर है।
उसकी खोज बाहर करते हैं, इससे वह नहीं मिलता है।
एक बार भीतर की यात्रा प्रारंभ हो जावे, तो फिर निरंतर आनंद के नये-नये स्रोत खुलते चले जाते हैं।
वह राज्य जो भीतर है--वहां न दुख है, न पीड़ा है, न मृत्यु है।
उस अमृत में पहुंच कर एक नया जन्म हो जाता है।
और, वहां जो दर्शन होता है, उससे सब ग्रंथियां कट जाती हैं।
इस मुक्त स्थिति को उपलब्ध कर लेना ही जीवन का लक्ष्य है।

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-07)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-सातवां)

जीवन दर्शन-(विविध)  पहला-प्रवचन

जीवन में स्वयं के तथ्यों का साक्षात्कार

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं अपनी चर्चा को शुरू करना चाहूंगा।
जैसे आप आज यहां इकट्ठे हैं, ऐसे ही एक चर्च में एक रात बहुत से लोग इकट्ठे थे। एक साधु उस रात सत्य के ऊपर उन लोगों से बात करने को था। सत्य के संबंध में एक अजनबी साधु उस रात उन लोगों से बोलने को था। साधु आया, उसकी प्रतीक्षा में बहुत देर से लोग बैठे थे। लेकिन इसके पहले कि वह बोलना शुरू करता उसने एक प्रश्न, एक छोटा सा प्रश्न वहां बैठे हुए लोगों से पूछा।
उसने पूछा कि क्या आप लोगों में से किसी ने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है? जिन लोगों ने पढ़ा है वे हाथ ऊपर उठा दें। उस हाॅल में जितने लोग थे करीब-करीब सभी ने हाथ ऊपर उठा दिए, केवल एक बूढ़ा आदमी हाथ ऊपर नहीं उठाया। उन सभी लोगों ने स्वीकृति दी कि उन्होंने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है। वह साधु जोर से हंसने लगा और उसने कहाः मेरे मित्रो, तुम्हीं वे लोग हो जिनसे सत्य पर बोलना बहुत जरूरी है। क्योंकि ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय है ही नहीं। वैसा कोई अध्याय ही नहीं है।

शनिवार, 13 जुलाई 2019

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-06)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-छटवां)

अमृत की दशा-(प्रवचन--छटवां )

चित्त स्वतंत्र हो, कोई मानसिक दासता और गुलामी न हो; कोई बंधे हुए रास्ते, बंधे हुए विचार और चित्त के ऊपर किसी भांति के चौखटे और जकड़न न हों, यह पहली शर्त मैंने कही, सत्य को जिसे खोजना हो उसके लिए। निश्चित ही जो स्वतंत्र नहीं है, वह सत्य को नहीं पा सकेगा। और परतंत्रता हमारी बहुत गहरी है। मैं उस परतंत्रता की बातें नहीं कर रहा हूं, जो राजनैतिक होती है, सामाजिक होती है, या आर्थिक होती है। मैं उस परतंत्रता की बात कर रहा हूं, जो मानसिक होती है। और जो मानसिक रूप से परतंत्र है, वह और चाहे कुछ भी उपलब्ध कर ले, जीवन में आनंद को और कृतार्थता को, आलोक को अनुभव नहीं कर सकेगा। यह मैंने कल कहा।

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-05)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-पांचवां)

जीवन दर्शन-ओशो

तीसरा-प्रवचन-(जीवन में असुरक्षा का साक्षात्कार)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से मैं आज की चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
अभी सुबह ही थी और गांव के बच्चे स्कूल पहुंचे ही थे कि अनायास ही उस स्कूल के निरीक्षण को एक इंस्पेक्टर का आगमन हो गया। वह स्कूल की पहली कक्षा में गया और उसने जाकर कहाः इस कक्षा में जो तीन विद्यार्थी सर्वाधिक कुशल, बुद्धिमान हों उनमें से एक-एक क्रमशः मेरे पास आए और जो प्रश्न मैं दूं, बोर्ड पर उसे हल करे। एक विद्यार्थी चुपचाप उठ कर आगे आया, उसे जो प्रश्न दिया गया उसने बोर्ड पर हल किया और अपनी जगह जाकर वापस बैठ गया। फिर दूसरा विद्यार्थी उठ कर आया, उसे भी जो प्रश्न दिया गया उसने हल किया और चुपचाप अपनी जगह जाकर बैठ गया। लेकिन तीसरे विद्यार्थी के आने में थोड़ी देर लगी। और जब तीसरा विद्यार्थी आया भी तो वह बहुत झिझकते हुए आया, बोर्ड पर आकर खड़ा हो गया। उसे सवाल दिया गया, लेकिन तभी इंस्पेक्टर को खयाल आया कि यह तो पहला ही विद्यार्थी है जो फिर से आ गया है।तो उसने उस विद्यार्थी को कहाः जहां तक मैं समझता हूं तुम पहले विद्यार्थी हो जो फिर से आ गए। उस विद्यार्थी ने कहाः माफ करिए, हमारी कक्षा में जो तीसरे नंबर का होशियार लड़का है वह आज क्रिकेट का खेल देखने चला गया है, मैं उसकी जगह हूं। वह मुझसे कह गया है, मेरा कोई काम हो तो तुम कर देना।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-04)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-चौथा)

सुख और शांति
आठवां प्रवचन-(परिपूर्ण स्वीकृति)
 मेरे प्रिय आत्मन्!
इसके पहले कि मैं कुछ आपसे कहना शुरू करूं, एक छोटी सी कहानी आपसे कहूंगा।
मनुष्य की सत्य की खोज में जो सबसे बड़ी बाधा है, अक्सर तो उस बाधा की ओर हमारा ध्यान भी नहीं जाता, और फिर जो भी हम करते हैं वह सब मार्ग बनने की बजाय मार्ग में अवरोध हो जाता है। एक अंधे आदमी को यदि प्रकाश को जानने की कामना पैदा हो जाए, यदि आकांक्षा पैदा हो जाए कि मैं भी प्रकाश को और सूर्य को जानूं, तो वह क्या करे? क्या वह प्रकाश के संबंध में शास्त्र सुने? क्या वह प्रकाश के संबंध में सिद्धांतों को सीखे? क्या वह प्रकाश के संबंध में बहुत उहापोह और विचार में पड़ जाए? क्या वह प्रकाश की कोई फिलासफी, कोई तत्वदर्शन, अपने सिर से बांध ले? और क्या इस भांति उसे प्रकाश का दर्शन हो सकेगा? नहीं जिस अंधे को प्रकाश की खोज पैदा हुई हो, उसे प्रकाश के संबंध में नहीं, अपने अंधेपन के संबंध में, अपने अंधेपन को बदलने के संबंध में निर्णय लेने होंगे।

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-03)

सत्य की पहली किरण-प्रवचन-तीसरा)

पहला-प्रवचन-(मनुष्य एक यंत्र है)

 एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा शुरू करना चाहूंगा।
अंधेरी रात थी, और कोई आधी रात गए एक रेगिस्तानी सराय में सौ ऊंटों का एक बड़ा काफिला आकर ठहरा। यात्री थके हुए थे और ऊंट भी थके हुए थे। काफिले के मालिक ने खूंटियां गड़वाईं और ऊंटों के लिए रस्सियां बंधवाईं, ताकि वे रात भर विश्राम कर सकें। लेकिन खूंटियां गाड़ते समय पता चला, ऊंट सौ थे, एक खूंटी कहीं खो गई थी। खूंटियां निन्यानबे थीं। एक ऊंट को खुला छोड़ना कठिन था। रात उसके भटक जाने की संभावना थी।
उन्होंने सराय के मालिक को जाकर कहा कि यदि एक खूंटी और रस्सी मिल जाए, तो बड़ी कृपा हो। हमारी एक खूंटी और रस्सी खो गई है। सराय के मालिक ने कहाः खूंटियां और रस्सियां तो हमारे पास नहीं हैं। लेकिन तुम ऐसा करो, खूंटी गाड़ दो और रस्सी बांध दो और ऊंट को कहो कि सो जाए।

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-02)

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-दूसरा)

जीवन क्रांति की दिशा-(विविध)
 पहला-प्रवचन-(जीवन के प्रति अहोभाव)
मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं एक नये बनते हुए मंदिर के पास से निकलता था। मंदिर की दीवालें बन गई थीं। शिखर निर्मित हो रहा था। मंदिर की मूर्ति भी निर्मित हो रही थी। सैकड़ों मजदूर पत्थर तोड़ने में लगे थे। मैंने पत्थर तोड़ते एक मजदूर से पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने बहुत गुस्से से मुझे देखा और कहा: क्या आपके पास आंखें नहीं हैं? क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। कोई क्रोध होगा उसके मन में, कोई निराशा होगी। और पत्थर तोड़ना कोई आनंद का काम भी नहीं हो सकता है।

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-01)

सत्य की पहली किरण-(प्रवचन-पहला)
जीवन क्रांति की दिशा-(शून्य समाधि)
 दूसरा प्रवचन--जीवन में रहस्य-भाव
मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन ही परमात्मा है। जीवन के अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं। जीवन को जीने की कला जो जान लेते हैं वे प्रभु के मंदिर के निकट पहुंच जाते हैं। और जो जीवन से भागते हैं वे जीवन से तो वंचित होते ही हैं, परमात्मा से भी वंचित हो जाते हैं। इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। पहला सूत्र मैंने कल आपसे कहा है: जीवन के प्रति अहोभाव, जीवन के प्रति आनंद और अनुग्रह की भावना।

लेकिन आज तक ठीक इससे उलटी बात समझाई गई है। आज तक यही समझाया गया है..जीवन से पलायन, एस्केप, जीवन की तरफ पीठ फेर लेनी, जीवन से दूर हट जाना, जीवन से मुक्त होने की कामना। आज तक यही सिखाया गया है। और इसके दुष्परिणाम हुए हैं। इसके कारण ही पृथ्वी एक नरक और दुख का स्थान बन गई है। जो पृथ्वी स्वर्ग बन सकती थी वह नरक बन गई है।

नारी और क्रांति-(प्रवचन-06)

नारी और क्रांति--(छठवां प्रवचन)

और नाराजगी में देवताओं ने उस आदमी को अभिशाप दिया कि आज से तेरी छाया खो जाएगी। धूप में भी चलेगा तो तेरी छाया नहीं बनेगी। वह आदमी अपने मन में बहुत हंसा कि छाया से मेरा क्या बिगड़ जाएगा। और देवता कैसे नासमझ हैं, अभिशाप भी दे रहे हैं तो छाया के खोने का दे रहे हैं। वह समझ ही न सका कि छाया के खोने से क्या नुकसान हो सकता है? आप भी नहीं समझ सकेंगे कि छाया के खोने से क्या नुकसान है? लेकिन जैसे ही वह आदमी अपने गांव में आया उसे पता चला कि बहुत नुकसान हो गया, जिस आदमी ने भी देखा कि धूप में उसकी छाया नहीं बन रही है वही आदमी उससे भयभीत हो गया।

नारी और क्रांति-(प्रवचन-05)

नारी और क्रांति--(पांचवां प्रवचन)

मेरे प्रिय आत्मन्!
"नारी और क्रांति' इस संबंध में बोलने का सोचता हूं, तो पहले यही खयाल आता है कि नारी कहां है?नारी का कोई अस्तित्व ही नहीं है, मां का अस्तित्व है, बहन का अस्तित्व है, बेटी का अस्तित्व है, पत्नी का अस्तित्व है, नारी का कोई भी अस्तित्व नहीं है। नारी जैसा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। नारी की अपनी कोई अलग पहचान नहीं है। नारी का अस्तित्व उतना ही है जिस मात्रा में वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष का संबंध ही उसका अस्तित्व है उसकी अपनी कोई आत्मा नहीं है।
यह बहुत आश्चर्यजनक है, लेकिन यह कड़वा सत्य है कि नारी का अस्तित्व उसी मात्रा और उसी अनुपात में होता है, जिस अनुपात में वह पुरुष से संबंधित होती है। पुरुष से संबंधित नहीं हो, तो ऐसी नारी का कोई अस्तित्व नहीं है। और नारी का अस्तित्व ही न हो, तो क्रांति की क्या बात करनी है?

बुधवार, 10 जुलाई 2019

नारी और क्रांति-(प्रवचन-04)

नारी और क्रांति--(चौथा प्रवचन

एक आश्चर्यजनक भूल हो गई है। मनुष्य की पूरी सभ्यता, संस्कृति, उसी भूल के ऊपर खड़ी है। और इसीलिए हजारों साल के श्रम के बाद भी न तो एक ऐसा समाज बन पाया जो सुख और शांति के केंद्र पर निर्मित हो और न हम ऐसे मनुष्य को जन्म दे पाए जो कि जीवन की धन्यता को और आनंद को अनुभव कर सके। एक अत्यंत उदास, हारा हुआ, दुखी मनुष्य पैदा हुआ है और एक ऐसा समाज पैदा हुआ है जो प्रतिपल युद्धों से, संघर्षों से और विनाश से गुजरता रहा है। कोई तीन हजार वर्ष के इतिहास में आदमी ने पंद्रह हजार युद्ध लड़े। तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध! प्रतिवर्ष पांच युद्धों का संघर्ष चलता रहा है!

नारी और क्रांति-(प्रवचन-03)

नारी और क्रांति--(तीसरा प्रवचन)

प्रिय बहनों!
मैं अत्यंत आनंदित हूं। अपने हृदय की थोड़ी सी बातें आपसे कह सकूंगा। जीवन में बहुत लोग इतनी नासमझी, इतने अज्ञान, इतने भूल भरे ढंग से जीते हैं कि न तो उन्हें जीवन के आनंद का अनुभव हो पाता और न वे उस संगीत से परिचित हो पाते हैं जो उनकी हृदय की वीणा पर बज सकता था; और न वे उन फूलों की सुगंध को ही उपलब्ध होते हैं जो कि उनके प्राणों को सुभाषित कर सकती थी। बहुत कम लोग, बहुत थोड़े से लोग, करोड़ों और अरबों लोगों में कोई एकाध जीवन के अर्थ और अभिप्राय को उपलब्ध होता है।

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

नारी और क्रांति-(प्रवचन-02)

नारी और क्रांति-(दूसरा प्रवचन)

मैं थोड़े विचार में पड़ गया हूं, क्योंकि मुझे कहा गया कि विशेष रूप से स्त्रियों के जीवन के संबंध में कुछ कहूं।
जैसा मैं देखता हूं, स्त्री और पुरुष का आधारभूत जीवन भिन्न-भिन्न नहीं है। मनुष्य के जीवन की जो समस्याएं हैं, वे पुरुष और स्त्री की दोनों की समस्याएं हैं। और जब हम इस भांति सोचने लगते हैं कि स्त्रियों के जीवन के लिए कुछ विशिष्ट दिशा होगी, तभी भूल शुरू हो जाती है।
जीवन की जो मौलिक समस्या है अशांति की, दुख की, पीड़ा की, वह स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग नहीं है। पहले तो मैं उस मौलिक समस्या के संबंध में थोड़ी सी बात आपसे कहूं जो सभी की है। और फिर कुछ प्रश्न पूछे हुए हैं जो शायद स्त्रियों के लिए ही विशेष अर्थ के होंगे, उनकी भी बात करूंगा।

नारी और क्रांति-(प्रवचन-01)

नारी और क्रांति--(पहला प्रवचन

नारीः दीनता से विद्रोह

मेरे प्रिय आत्मन्!
इस देश की जिंदगी में बहुत से दुर्भाग्य गुजरे हैं। और बड़े से बड़े जिस दुर्भाग्य का हम विचार करना चाहें वह यह है कि हम हजारों वर्षों से विश्वास करने वाले लोग हैं। हमने कभी सोचा नहीं है, हमने कभी विचारा नहीं है, हम अंधे की तरह मानते रहे हैं। और हमारा अंधे की तरह मानना ही हमारे जीवन का सूर्यास्त बन गया। हमें समझाया ही यही गया है कि जो मान लेता है वह जान लेता है।
इससे ज्यादा कोई झूठी बात नहीं हो सकती। मानने से कोई कभी जानने तक नहीं पहुंचता। और जिसे जानना हो उसे न मानने से शुरू करना पड़ता है। संदेह के अतिरिक्त सत्य की कोई खोज नहीं है। संदेह मिटता है, लेकिन सत्य को पाकर मिटता है। और जो पहले से ही संदेह करना बंद कर देते हैं वे अंधे ही रह जाते हैं, वे सत्य तक कभी भी नहीं पहुंचते हैं।