तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision—(सरहा के गीत)-भाग-पहला
(आठवां—प्रवचन) प्रेम के प्रति सच्चे रहो
दिनांक-28 मार्च 1977 ओशो आश्रम पूना।)
सुत्र:
पहला प्रश्न: ओशो, मैं एक
मेढक हूं: मैं जानता हूं कि मैं एक मेढक हूं, क्योंकि मैं
धुंधले, गहरे पानी में तैरना और चिपचिपी कीचड़ में
उछलना-कूदना पसंद करता हूं। और यह मधु क्या होता है? यदि एक
मेढक अस्तित्व की एक अनादृत दशा में हो सके, क्या वह एक
मधुमक्खी बन जाएगा?
निश्चय ही! मधुमक्खी बन जाना हर किसी की संभावना
है। हर कोई मधुमक्खी हो जाने में विकसित हो सकता है। एक अनावृत, जीवंत,
स्वस्फूर्त जीवन, क्षण-क्षण वाला जीवन,
इसका द्वार है, इसकी कुंजी है। यदि कोई ऐसा जी
सके कि वह जीना अतीत से न हो, तब वह मधुमक्खी है, और तब चारों तरफ मधु ही मधु है।
मैं जानता हूं कि किसी मेढक को यह बात समझा पाना
कठिन है। प्रश्न सही है: ‘और यह मधु क्या होता है?’ मेढक ने इसके विषय में कभी
जाना नहीं होता। और वह ठीक उसी पौधे की जड़ के समीप रहता है, जहां
कि फूल खिलते हैं, और मक्कियाँ मधु एकत्रित करती है, पर वह कभी उस आयाम में गया ही नहीं है।