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बुधवार, 31 मार्च 2010

द्रौपदी के मुकाबले विश्व इतिहास में दूसरी स्त्री नहीं


एक छोटे से मजाक से महाभारत पैदा हुआ। एक छोटे से व्‍यंग से द्रौपदी के कारण जो दुर्योधन के मन में तीर की तरह चूभ गया और द्रौपदी नग्‍न की गई। नग्‍न कि गई; हुई नहीं—यह दूसरी बात है। करने वाले ने कोई कोर-कसर न छोड़ी थी। करने वालों ने सारी ताकत लगा दी थी। लेकिन फल आया नहीं, किए हुए के अनुकूल नहीं आया फल—यह दूसरी बात हे।
      असल में, जो द्रौपदी को नग्न करना चाहते थे, उन्‍होंने क्‍या रख छोड़ा था। उनकी तरफ से कोई कोर  न थी। लेकिन हम सभी कर्म करने वालों को, अज्ञात भी बीच में उतर आता है। इसका कभी कोई पता नहीं है। वह जो कृष्‍ण की कथा है, वह अज्ञात के उतरने की कथा है। अज्ञात के हाथ है, जो हमें दिखाई नहीं पड़ते।
      हम ही नहीं है इस पृथ्‍वी पर। मैं अकेला नहीं हूं। मेरी अकेली आकांक्षा नहीं हे। अनंत आकांक्षा है। और अंनत की भी आंकाक्षा है। और उन सब के गणित पर अंतत: तय होता है कि क्‍या हुआ। अकेला दुर्योधन ही नहीं है नग्‍न करने में, द्रौपदी भी तो है जो नग्‍न की जा रही है। द्रौपदी की भी तो चेतना है, द्रौपदी का भी तो अस्‍तित्‍व है। और अन्‍याय होगा यह कि द्रौपदी वस्‍तु की तरह प्रयोग की जाए। उसके पास भी चेतना है और व्‍यक्‍ति है; उसके पास भी संकल्‍प है। साधारण स्‍त्री नहीं है द्रौपदी।
      सच तो यह है कि द्रौपदी के मुकाबले की स्‍त्री पूरे विश्‍व के इतिहास में दूसरी नहीं है। कठिन लगेगी बात। क्‍योंकि याद आती है सीता की, याद आती सावित्री की याद आती है सुलोचना की और बहुत यादें है। फिर भी मैं कहता हुं, द्रौपदी का कोई मुकाबला ही नहीं है। द्रौपदी बहुत ही अद्वितीय है। उसमें सीता की मिठास तो है ही, उसमें क्लियोपैट्रा का नमक भी है। उसमें क्लियोपैट्रा का सौंदर्य तो है ही, उस में गार्गी का तर्क भी है। असल में पूरे महाभारत की धुरी द्रौपदी है। यह सारा युद्ध उसके आस पास हुआ है।
      लेकिन चूंकि पुरूष कथाएं लिखते हे। इसलिए कथाओं में पुरूष-पात्र बहुत उभरकर दिखाई पड़ते है। असल में दुनिया की कोई महा कथा स्‍त्री की धुरी के बिना नहीं चलती है। सब महा कथाएं स्‍त्री की धुरी पर घटित होती है। वह बड़ी रामायण सीती की धुरी पर घटित हुई है। राम और रावण तो ट्राएंगल के दो छोर है, धुरी तो सीता है।
      ये कौरव और पांडव और यह सारा महाभारत और यह सारा युद्ध द्रौपदी की धुरी पर घटा हे। उस युग की और सारे युगों की सुंदर तम स्‍त्री है वह। नहीं आश्‍चर्य नहीं है कि दुर्योधन ने भी उसे चाहा हो। असल में उस युग में कौन पुरूष होगा जिसने उसे न चाहा हो। उसका अस्‍तित्‍व, उसके प्रति चाह पैदा करने वाला था। दुर्योधन ने भी उसे चाहा हे और वह चली गई अर्जुन के पास।
      और वह भी बड़े मजे की बात है कि द्रौपदी को पाँच भाइयों में बांटना पडा। कहानी बड़ी सरल हे। उतनी सरल घटना नहीं हो सकती। कहानी तो इतनी ही सरल है कि अर्जुन ने आकर बाहर से कहा कि मां देखो, हम क्‍या ले आए है। और मां ने कहा, जो भी ले आए हो वह पांचों भाई बांट लो। लेकिन इतनी सरल घटना हो नहीं सकती। क्‍योंकि जब बाद में मां को भी तो पता चला होगा। कि यह मामला वस्‍तु का नहीं, स्‍त्री का हे। यह कैसे बाटी जा सकती है। तो कौन सी कठिनाई थी कि कुंती कह देती कि भूल हुई। मुझे क्‍या पता था कि तूम पत्‍नी ले आए हो।
      लेकिन मैं जानता हूं कि जो संघर्ष दुर्योधन और अर्जुन के बीच होता, वह संघर्ष पाँच भाइयों के बीच भी हो सकता था। द्रौपदी ऐसी थी, वे पाँच भी कट-मर सकते थे उसके लिए। उसे बांट देना ही सुगमंतम राजनीति थी। वह घर भी कट सकता था। वह महायुद्ध जो पीछे कौरवों-पांडवों में हुआ, वह पांडवों-पांडवों में भी हो सकता था।
      इसलिए कहानी मेरे लिए इतनी सरल नहीं है। कहानी बहुत प्रतीकात्‍मक है और गहरी है। वह यह खबर देती है कि स्‍त्री वह ऐसा थी। कि पाँच भाई भी लड़ सकते थे। इतनी गुणी थी। साधारण नहीं थी। असाधारण थी। उसको नग्‍न करना आसान बात नहीं थी। आग से खेलना था। तो अकेला दुर्योधन नहीं है कि नग्‍न कर ले। द्रौपदी भी है।
      और ध्‍यान रहे, बहुत बातें है इसमें, जो खयाल में ले लेने जैसी है। जब तक कोई स्‍त्री स्‍वय नग्‍न न होना चाहे, तक इस जगत में कोई पुरूष किसी स्‍त्री को नग्‍न नहीं कर सकता है, नहीं कर पाता है। वस्‍त्र उतार भी ले, तो भी नग्‍न नहीं कर सकता है। नग्‍न होना बड़ी घटना है वस्‍त्र उतरने से निर्वस्‍त्र होने से नग्‍न होना बहुत भिन्न‍ घटना है। निर्वस्‍त्र करना बहुत कठिन बात नहीं है, कोई भी कर सकता है, लेकिन नग्‍न करना बहुत दूसरी बात है। नग्‍न तो कोई स्‍त्री तभी होती है, जब वह किसी के प्रति खुलती है स्‍वयं। अन्‍यथा नहीं होती; वह ढंकी ही रह जाती है। उसके वस्‍त्र छीने जा सकते है। लेकिन वस्‍त्र छीनना स्‍त्री को नग्‍न करना नहीं है।
      और बात यह भी है कि द्रौपदी जैसी स्‍त्री को नहीं पा सकता दुयोर्धन। उसके व्‍यंग्‍य तीखे पड़  गए उसके मन पर। बड़ा हारा हुआ है। हारे हुए व्‍यक्‍ति–जैसे कि क्रोध में आए हुई बिल्लियों खंभे नोचने लगती है। वैसा करने लगते है। और स्‍त्री के सामने जब भी पुरूष हारता है—और इससे बड़ी हार पुरूष को कभी नहीं होती। पुरूष से लड़ ले, हार जीत होती है। लेकिन पुरूष जब स्‍त्री से हारता है। किसी भी क्षण में तो इससे बड़ी हार नहीं होती है।      
      तो दुर्योधन उस दिन उसे नग्‍न करने का जितना आयोजन करके बैठा है, वह सारा आयोजन भी हारे हुए पुरूष मन का है। और उस तरफ जो स्‍त्री खड़ी है हंसने वाली,वह कोई साधारण स्‍त्री नहीं है। उसका भी अपना संकल्‍प है अपना विल है। उसकी भी अपनी सामर्थ्‍य है; उसकी भी अपनी श्रद्धा है; उसका भी अपना होना है। उसकी उस श्रद्धा में वह जो कथा है, वह कथा तो काव्‍य है कि कृष्‍ण उसकी साड़ी को बढ़ाए चले जाते है। लेकिन मतलब सिर्फ इतना है कि जिसके पास अपना संकल्‍प है, उसे परमात्‍मा का सारा संकल्‍प तत्‍काल उपलब्‍ध हाँ जाता है। तो अगर परमात्‍मा के हाथ उसे मिल जाते हे, तो कोई आश्‍चर्य नहीं।
      तो मैंने कहा,और मैं फिर कहता हूं, द्रौपदी नग्‍न की गई, लेकिन हुई नहीं। नग्‍न करना बहुत आसान है, उसका हो जाना बहुत और बात है। बीच में अज्ञात विधि आ गई, बीच में अज्ञात कारण आ गए। दुर्योधन ने जो चाहा, वह हुआ नहीं। कर्म का अधिकार था, फल का अधिकार नहीं था।
      यह द्रौपदी बहुत अनूठी है। यह पूरा युद्ध हो गया। भीष्‍म पड़े है शय्या पर—बाणों की शय्या पर—और कृष्‍ण कहते है पांडवों को कि पूछ लो धर्म का राज, और वह द्रौपदी हंसती है। उसकी हंसी पूरे महाभारत पर छाई हे। वह हंसती है कि इनसे पूछते है धर्म का रहस्‍य, जब में नग्‍न की जा रही थी, तब ये सिर झुकाए बैठे थे। उसका व्‍यंग गहरा है। वह स्‍त्री बहुत असाधारण हे।
      काश, हिंदुस्‍तान की स्‍त्रियों ने सीता को आदर्श न बना कर द्रौपदी को आदर्श बनाया होता तो हिंदुस्‍तान की स्‍त्री की शान और होती।
      लेकिन नही, द्रौपदी खो गई है। उसका कोई पता नहीं है। खो गई। एक तो पाँच पति यों की पत्‍नी है। इसलिए मन को पीड़ा होती है।  लेकिन एक पति की पत्‍नी होना भी कितना मुश्‍किल है, उसका पता नहीं है। और जो पाँच पति यों को निभा सकती हे, वह साधारण स्‍त्री नहीं है। असाधारण है, सुपर ह्मन हे। सीता भी अतिमानवीय है लेकिन टू ह्मन के अर्थों में। और द्रौपदी भी अतिमानवीय है, लेकिन सुपर ह्यूमन  के अर्थों में।
      पूरे भारत के इतिहास में द्रौपदी को सिर्फ एक आदमी न ही प्रशंसा दी है। और एक ऐसे आदमी ने जो बिलकुल अनपेक्षित है। पूरे भारत के इतिहास में डाक्‍टर राम मनोहर लोहिया को छोड़कर किसी आदमी ने द्रौपदी को सम्‍मान नहीं दिया है। हैरानी की बात है मेरा तो लोहिया से प्रेम इस बात से हो गया कि पाँच हजार साल के इतिहास में एक आदमी, जो द्रौपदी को सीता के ऊपर रखने को तैयार है।
ओशो--गीता—दर्शन  भाग-1, अध्‍याय-1(प्रवचन-14)
      


बुधवार, 24 मार्च 2010

भारत एक सनातन यात्रा--गायत्री मंत्र

गायत्री  मंत्र—

      हिंदुओं  का जो प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है, इस संबंध में समझना होगा कि संस्‍कृत, अरबी जैसी पुरानी भाषाएं बड़ी काव्‍य-भाषाएं है। उनमें एक शब्‍द के अनेक अर्थ होते है। वे गणित की भाषाएं नहीं हे। इसलिए तो उनमें इतना काव्‍य है। गणित की भाषा में एक बात का एक ही अर्थ होता  है। दो अर्थ हों तो भ्रम पैदा होता है। इसलिए गणित की भाषा तो बिलकुल चलती है सीमा बांधकर। एक शब्‍द का एक ही अर्थ होना चाहिए। संस्‍कृत, अरबी में तो एक-एक के अनेक अर्थ होते है।
      अब धी इसका अर्थ तो बुद्धि होता है। पहली सीढी। और धी से ही बनता है ध्‍यान—वह दूसरा अर्थ, वह दूसरी सीढी। अब यह बड़ी अजीब बात है। इतनी तरल है संस्‍कृत भाषा। बुद्धि में भी थोड़ी सह धी है। ध्‍यान में बहुत ज्‍यादा। ध्‍यान शब्‍द भी धी से ही बनता है। धी का ही विस्‍तार है। इसलिए गायत्री मंत्र को तुम कैसा समझोगे, यह तुम पर निर्भर है, उसका अर्थ कैसा करोगे।
      यह रहा गायत्री मंत्र:
      ओम भू भुव: स्‍व: तत्‍सवितुर् देवस्‍य वरेण्‍यं भगो: धी माहि: या: प्र चोदयात्।
     
      वह परमात्‍मा सबका रक्षक है—ओम प्राणों से भी अधिक प्रिय है—भू:। दुखों को दूर करने वाला है—भुव:। और सुख रूप है—स्‍व:। सृष्‍टि का पैदा करनेवाला और चलाने वाला है, स्वप्रेरक—तत्‍सवितुर्।  और दिव्‍य गुणयुक्‍त परमात्‍मा के –देवस्‍य। उस प्रकार, तेज, ज्‍योति, झलक, प्रकट्य या अभिव्यक्ति का, जो हमें सर्वाधिक प्रिय है—वरेण्‍यं भवो:। धीमहि:--हम ध्‍यान करें।
      अब इसका तुम दो अर्थ कर सकते हो: धीमहि:--कि हम उसका विचार करें। यह छोटा अर्थ हुआ, खिड़की वाला आकाश। धीमहि:--हम उसका ध्यान करें: यह बड़ा अर्थ हुआ। खिड़की के बाहर पूरा आकाश।
      मैं तुमसे कहूंगा: पहले से शुरू करो, दूसरे पर जाओ। धीमहि: में दोनों है। धीमहि: तो एक लहर है। पहले शुरू होती है खिड़की के भीतर, क्‍योंकि तुम खिड़की के भीतर खड़े हो। इसलिए अगर तुम पंडितों से पुछोगे तो वह कहेंगे धीमहि: का अर्थ होता है विचार करें, सोचें।
अगर तुम ध्‍यानी से पुछोगे तो वह कहेगा धीमहि; अर्थ सीध है: ध्‍यान करें। हम उसके साथ एक रूप हो जाएं। अर्थात वह परमात्‍मा—या:, ध्‍यान लगाने की हमारी क्षमताओं को तीव्रता से प्रेरित करे—न धिया: प्र चोदयार्।
      अब यह तुम पर निर्भर है। इसका तुम फिर वहीं अर्थ कर सकते हो—न धिया: प्र चोदयात्—वह हमारी बुद्धि यों को प्रेरित करे। या तुम अर्थ कर सकते हो कि वह हमारी ध्‍यान को क्षमताओं को उकसा ये। मैं तुमसे कहूंगा, दूसरे पर ध्‍यान रखना। पहला बड़ा संकीर्ण अर्थ है, पूरा अर्थ नहीं।
      फिर ये जो वचन है, गायत्री मंत्र जैसे, ये संग्रहीत बचन है। इनके एक-एक शब्‍द में बड़े गहरे अर्थ भर है। यह जो मैंने तुम्‍हें अर्थ किया यह शब्‍द के अनुसार फिर इसका एक अर्थ होता है। भाव के अनुसार, जो मस्‍तिष्‍क से सो चेगा उसके लिए यह अर्थ कहा। जो ह्रदय से सो चेगा। उसके लिए दूसरा अर्थ कहता हे।
      वह जो ज्ञान का पथिक है, उसके लिए यह अर्थ कहा। वह जो प्रेम का पथिक है, उसके लिए दूसरा अर्थ। वह भी इतना ही सच है। और यहीं तो संस्‍कृत की खूबी है। यही अरबी लैटिन  और ग्रीक की खूबी है। जैसे की अर्थ बंधा हुआ नहीं है। ठोस नहीं, तरल है। सुनने वाले के साथ बदलेगा। सुनने वाले के अनुकूल हो जायेगा। जैसे तुम पानी ढालते, गिलास में ढाला तो गिलास के रूप का हो गया। लोटे में ढाला तो लोटे के रूप का गया। फर्श पर फैला दिया तो फर्श जैसा फैल गया। जैसे कोई रूप नहीं है। अरूप है, निराकार है।
      अब तूम  भाव का अर्थ समझो:
      मां की गोद में बालक की तरह मैं उस प्रभु  की गोद में बैठा हूं—ओम, मुझे उसकी असीम वात्सल्य प्राप्‍त हे—भू: मैं पूर्ण निरापद हूं—भुव:। मेरे भीतर रिमझिम-रिमझिम सुख की वर्षा हो रही है। और मैं आनंद में गदगद हूं—स्‍व:। उसके रुचिर प्रकाश से , उसके नूर से मेरा रोम-रोम पुलकित है तथा सृष्‍टि के अनंद सौंदर्य से मैं  परम मुग्‍ध हूं—तत्‍स् वितुर, देवस्‍य। उदय होता हुआ सूर्य, रंग बिरंगे फूल, टिमटिमाते तारे, रिमझिम वर्षा, कलकलनादिनी नदिया, ऊंचे पर्वत, हिमाच्‍छादित शिखर, झरझर करते झरने, घने जंगल, उमड़ते-घुमड़ते  बादल, अनंत लहराता सागर,--धीमहि:। ये सब उसका विस्‍तार है। हम इसके ध्‍यान में डूबे। यह सब परमात्‍मा है। उमड़ते-घुमड़ते बादल, झरने फूल, पत्‍ते, पक्षी, पशु—सब तरफ वहीं झाँक रहा है। इस सब तरफ झाँकते परमात्‍मा के ध्‍यान में हम डूबे; भाव में हम डूबे। अपने जीवन की डोर मैंने उस प्रभु के हाथ में सौंप दी—या: न धिया: प्रचोदयात्। अब में सब तुम्‍हारे हाथ में सौंपता हूं। प्रभु तुम जहां मुझे ले चलों में चलुंगा।
      भक्‍त ऐसा अर्थ करेगा।
      और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इनमें कोई भी एक अर्थ सच है। और कोई दूसरा अर्थ गलत है। ये सभी अर्थ सच है। तुम्‍हारी सीढ़ी पर, तुम जहां हो वैसा अर्थ कर लेना। लेकिन एक खयाल रखना, उससे ऊपर के अर्थ को भूल मत जाना, क्‍योंकि वहां जाना है। बढना है। यात्रा करनी है।
--ओशो  ( अष्‍टावक्र महा गीता—4, प्रवचन—9)
     





शनिवार, 20 मार्च 2010

चार्वाक--भारत एक सनतन यात्रा


ईश्‍वर भी निश्‍चित ही चार्वाक और अष्‍टावक्र दोनों का जोड़ होगा। चार्वाक को में धर्म-विरोधी नहीं मानता। चार्वाक को मैं धर्म की सीढी मानता हूं। सभी नास्‍तिक को में आस्‍तिकता की सीढी मानता हूं। सभी नास्‍तिकता को में आस्‍तिकता की सीढी मानता हूं। तुमने धर्मों के बीच समन्‍वय करने की बातें तो सूनी होंगी—हिंदू और मुसलमान एक; ईसाई और बौद्ध एक। इस तरह की बात तो बहुत चलती हे। लेकिन असली समन्‍वय अगर कहीं करना है तो वह है नास्‍तिक आरे आस्‍तिक के बीच।
      यह भी कोई समन्‍वय है—हिंदू और मुसलमान एक, ये तो बातें एक ही कह रहें है। इनमें समन्‍वय क्‍या खाक करना , इनके शब्‍द अलग होंगे,इससे क्‍या फर्क पड़ता हे।
      मैं एक आदमी को जानता था, उसका नाम राम प्रसाद था। वह मुसलमान हो गया, उसका नाम खुदा बक्‍स हो गया। वह मेरे पास आया। मैंने कहा: पागल इसका मतलब वहीं होता है। राम प्रसाद, खुदा बख्श होकर कुछ हुआ नहीं। खुदा यानि राम, बख्श यानी प्रसाद। वह कहने लगा: यह मुझे कुछ खयाल न आया।
      भाषा के फर्क है, इनमें क्‍या समन्‍वय कर रहे हो। असली समन्‍वय अगर कही करना है तो नास्‍तिक और आस्‍तिक के बीच; पदार्थ और परमात्‍मा के बीच;चार्वाक और अष्‍टावक्र के बीच। मै तुम्‍हें उसी असली समन्‍वय की बात कर रहा हूं। जिस दिन नास्‍तिकता मंदिर की सीढी बन जाती है। उस दिन समन्‍वय हुआ। उस दिन तुमने जीवन को इक्ट्ठा करके देखा, उस दिन द्वैत मिटा।
      मैं तुम्‍हें परम अद्वैत की बात कहर रहा हूं। इसका मतलब क्‍या होता है। इसका मतलब होता है। आखिर चार्वाक भी है, तो परमात्‍मा का हिस्‍सा ही। तुम कहते हो सभी में परमात्‍मा है। फिर चार्वाक में नहीं है क्‍या? फिर चार्वाक में जो बोल रहा है वह परमात्‍मा नहीं है। तुम चार्वाक  का खंडन कर रहे हो। ये परमात्‍मा का ही खंडन नहीं है। अगर वास्‍तव में अद्वैत है। तो तुम कहोगे; चार्वाक की वाणी में भी प्रभु बोला। यही मैं तुमसे कहता हूं। और वाणी उसकी मधुर है; इसलिए चार्वाक ना पडा। चार्वाक का अर्थ होता है। मधुर वाणी वाला। उसका दूसरा नाम है: लोकायत। लोकायत का अर्थ होता है। जो लोक में प्रिय  हो। जो अनेक को प्रिय है। लाख तुम कहो ऊपर से कुछ, कोई जैन है। कोई बौद्ध है, कोई हिंदू हे। को मुसलमान है। यह सब ऊपरी बकवास है, भीतर गौर से देखो, चार्वाक को पाओगें। और तूम अगर इन धार्मिकों के सवर्ग की तलाश करो तो तुम पाओगें कि सब स्‍वर्ग की जो योजनाएं है, वह चार्वाक ने बनाई होगी। सर्वग में जो आनंद और रस की धारे बह रही है। वह चार्वाक की ही धारणाएं हे।
      सूख जीवेत, चार्वाक कहता हे: सुख से जीओ, इतना में जरूर कहूंगा कि चार्वाक सीढ़ी है। और जिस ढंग से चार्वाक कहता हे। उस ढंग से सुख से कोई जी नहीं सकता। क्योंकि चार्वाक ने ध्‍यान का कोई सुत्र नहीं दिया। चार्वाक सिर्फ भोग है, योग का कोई सुत्र नहीं है; अधूरा है। उतना ही अधूरा है जितने अधूरे योगी हे। उनमें योग तो है लेकिन भोग का सूत्र नहीं है। इस जगत में कोई भी पूरे को स्‍वीकार करने की हिम्‍मत करता नहीं मालूम पड़ता—आधे-आधे को। मैं दोनो को स्‍वीकार करता हूं। और मैं कहता हूं: चार्वाक का उपयोग करों और चार्वाक के उपयोग से तुम एक दिन अष्‍टावक्र के उपयोग में समर्थ हो पाओगें।
      जीवन के सुख को भोगों। उस सुख में तुम पाओगें, दुःख ही दुःख है। जैसे-जैसे भोगोगे वैसे-वैसे सुख का स्‍वाद बदलने लगेगा और दुःख की प्रतीति होने लगेगी। और जब एक दिन सारे जीवन के सभी सुख दुःख-रूप हो जाएंगे,उस दिन तुम जागने के लिए तत्‍पर हो जाओगे। इस दिन कौन तुम्‍हें रोक सकेगा। उस दिन तुम जाग ही जाओगे। कोई रोक नहीं रहा है। रुके इसलिए हो कि लगता है शायद थोड़ा और सो ले। कौन जाने.....एक पन्‍ना और उलट लें संसार का। इस कोने से और झांक लें। इस स्‍त्री से और मिल लें। उस शराब को और पी लें। कौन जाने कहीं सुख‍ छिपा हो, सब तरफ तलाश ले।
      मैं कहता भी नहीं कि तुम बीच से भागों। बीच से भागे, पहुंच न पाओगें,क्‍योंकि मन खिचता रहेगा। मन बार-बार कहता रहेगा। ध्‍यान करने बैठ जाओगे, लेकिन मन में प्रतिमा उठती रहेगी उसकी,  जिसे तुम  पीछे छोड़ आए हो। मन कहता रहेगा। क्‍या कर रहे हो मूर्ख बने बैठे हो। पत्‍ता नहीं सुख वहां होता है। तुम देख तो लेते, एक दफा खोज तो लेत।
      इसलिए मैं कहता हू: संसार को जाने ही लो, उघाड़ ही लो, जैसे कोई प्‍याज को छीलता चला जाए—तुम बीच में मत रूकना, छील ही डालना पूरा। हाथ में फिर कुछ भी नहीं लगता। हां, अगर पूरा न छिला तो प्‍याज बाकी रहती है। तब यह डर मन में बना रह सकता है, भय मन में बना रह सकता है: हो सकता है कोहिनूर छुपा ही हो। तुम छील ही डालों, तुम सब छिलके उतार दो। जब तक शून्‍य हाथ में लगे,छिलके ही छिलके गिर जाएं—संसार प्‍याज जैसा है। छिलके ही छिलके है। भीतर कुछ भी नहीं। छिलके के भीतर छिलका है। भीतर कुछ भी नहीं। जब भीतर कुछ भी नहीं पकड़ में आ जाएगा। फिर तुम्‍हें रोकने को कुछ भी नहीं। जब भीतर कुछ भी पकड में आ जाएगा, फिर तुम्‍हें रोकने को कुछ भी न बचा।
      चार्वाक की किताब पूरी पढ़ ही लो, क्‍योंकि कुरान, गीता,और बाईबिल उसी के बाद शुरू होते है। चार्वाक पूर्वार्ध है, अष्‍टावक्र उत्तरार्ध।
ओशो—(अष्‍टावक्र: महागीता-3, प्रवचन—10)
     





शुक्रवार, 19 मार्च 2010

ब्रह्म‍-विद्या विद्याओं में--सनातन यात्रा


ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते है, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते है, फ़िज़िक्स आप जिससे जानते है, केमिस्‍ट्री आप जिससे जानते है। उस तत्‍व को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म विद्या है। ज्ञान के स्‍त्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। भीतर जहां चेतना को केंद्र हे, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको; उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्‍यभिज्ञा, उसका पुनर् स्मरण ब्रह्म विद्या है।
      कृष्‍ण कहते है, विद्याओं में मैं ब्रह्म विद्या हूं।
      इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फ्रिक नहीं की। भारत के और विद्याओं में पिछडे जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं कि, ब्रह्म-विद्या की फिक्र की।
      लेकिन उसमें अड़चन है, क्‍योंकि ब्रह्म-विद्या जाने को कभी लाखों-करोड़ो में एक आदमी उत्‍सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या जानने को उत्‍सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्‍ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म-विद्या में उत्‍सुक थे। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई उत्‍सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्‍सुकता तो और विधवाओं में थी। लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है। और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्‍सुक ही न थे।
      इसलिए भारत ने बुद्ध को जान, महावीर को, कृष्‍ण को, पतंजलि को, कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना भारत ने। ये सारे, इनमें से कोई भी आस्तीन हो सकता है, इनमें से कोई भी प्‍लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी किसी भी विधा में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो श्रेष्‍ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में  उत्‍सुक था। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी तो परम विद्या में कोई उत्‍सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्‍सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है।
      पश्‍चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्‍योंकि पश्‍चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्‍सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्‍चिम ने सब बिद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्‍चिम को लग रहा है। कि वह आत्‍म-अज्ञान से भरा हुआ है। और पूरब ने आत्‍म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है। कि हमसे ज्‍यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है।
      हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव। उन्‍होंने दूसरी अति कर ली। उन्‍होंने आत्‍म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्‍म-अज्ञान से पीड़ित है और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हे।
      वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्‍कृति विकसित होती है। इसलिए  न तो पूरब और न पश्‍चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्‍योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है।
      कृष्‍ण कहते है। मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में।
      लेकिन यह बात आप ध्‍यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते है। और विद्याओं में जो श्रेष्‍ठ है, उसकी सुचना भर दे रहे है। वे यह नहीं कह रहे है कि सिर्फ अध्‍यात्‍म-विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है।
      यह भी सोचने जैसा है। कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो सकती है। जब दूसरी बिद्याएं भी हो। नहीं तो यह परम विद्या नहीं रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें और दीवालें न हों तो समझ लेना शिखर जमीन पर पडा हुआ लोगों के पैरो की ठोकर खाए गा। मंदिर का स्‍वर्ण-शिखर आकाश में उठता ही इसलिए है कि पत्‍थर की दीवालें उसे सम्‍हालती है। अध्‍यात्‍म-विद्या का शिखर भी तभी सम्‍हलता है, जब और सारी बिद्याएं दीवालें बन जाती है। और सम्‍हालती है।
      अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना लिया, पश्‍चिम ने मंदिर की दीवालें बना ली। जब तक हमारी शिखर पिश्चम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्‍कृति पैदा नहीं हो सकती। ये विरोध भास नहीं समन्‍वय को दोर है। हम यहां पर दीवालों का जिर्णधार करने में लगे है। कलस तो है पर दीवालें हमें पश्‍चिम से ही लेनी है।
--ओशो( गीता दर्शन, भाग—8, अध्‍याय-17, प्रवचन—10)

बुधवार, 17 मार्च 2010

ब्रह्म‍-विद्या विद्याओं में--सनातन यात्रा


ब्रह्म-विद्या का अर्थ वह विद्या है, जिससे हम उसे जानते है, जो सब जानता है। गणित आप जिससे जानते है, फ़िज़िक्स आप जिससे जानते है, केमिस्‍ट्री आप जिससे जानते है। उस तत्‍व को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। जानने वाले को जान लेना ब्रह्म विद्या है। ज्ञान के स्‍त्रोत को ही जान लेना ब्रह्म विद्या है। भीतर जहां चेतना को केंद्र हे, जहां से मैं जानता हूं आपको, जहां से मैं देखता हूं आपको; उसे भी देख लेना, उसे भी जान लेना, उसे भी पहचान लेना, उसकी प्रत्‍यभिज्ञा, उसका पुनर् स्मरण ब्रह्म विद्या है।
      कृष्‍ण कहते है, विद्याओं में मैं ब्रह्म विद्या हूं।
      इसलिए भारत ने फिर बाकी विद्याओं की बहुत फ्रिक नहीं की। भारत के और विद्याओं में पिछडे जाने का बुनियादी कारण यही है। भारत ने फिर और विद्याओं की फिक्र नहीं कि, ब्रह्म-विद्या की फिक्र की।
      लेकिन उसमें अड़चन है, क्‍योंकि ब्रह्म-विद्या जाने को कभी लाखों-करोड़ो में एक आदमी उत्‍सुक होता है। पूरा देश ब्रह्म-विद्या जानने को उत्‍सुक नहीं होता। और भारत के जो श्रेष्‍ठतम मनीषी थे, वे ब्रह्म-विद्या में उत्‍सुक थे। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी कोई उत्‍सुकता ब्रह्म-विद्या में नहीं थी। उसकी उत्‍सुकता तो और विधवाओं में थी। लेकिन सामान्य जन और विद्याओं को विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है। और परम मनीषी उन विद्याओं में उत्‍सुक ही न थे।
      इसलिए भारत ने बुद्ध को जान, महावीर को, कृष्‍ण को, पतंजलि को, कपिल को, नागराजन को, वसु बंध को, शंकर को जाना भारत ने। ये सारे, इनमें से कोई भी आस्तीन हो सकता है, इनमें से कोई भी प्‍लांक हो सकता है। इनमें से कोई भी किसी भी विधा में प्रवेश कर सकता है। लेकिन भारत का जो श्रेष्‍ठतम मनीषी था, वह परम विद्या में  उत्‍सुक था। और भारत का जो सामान्य जन था। उसकी तो परम विद्या में कोई उत्‍सुकता ही नहीं थी। उसकी उत्‍सुकता दूसरी विद्याओं में है। लेकिन वह विकसित नहीं कर सकता। विकसित तो परम मनीषी करते है।
      पश्‍चिम में दूसरी विद्याओं को विकसित किया, क्‍योंकि पश्‍चिम के बड़े मनीषी और विद्याओं में उत्‍सुक थे। इसलिए एक अद्भुत घटना घटी। पश्‍चिम ने सब बिद्याएं विकसित कर लीं और आज पश्‍चिम को लग रहा है। कि वह आत्‍म-अज्ञान से भरा हुआ है। और पूरब ने आत्‍म-ज्ञान विकसित कर लिया और आज पूरब को लग रहा है। कि हमसे ज्‍यादा दीन और दरिद्र और भुखमरा दुनिया में कोई नहीं है।
      हमने एक अति कर ली, परम विद्या पर हमने सब लगा दिया दांव। उन्‍होंने दूसरी अति कर ली। उन्‍होंने आत्‍म विद्या को छोड़कर बाकी सब विद्याओं पर दांव लगा दिया। बड़ी उलटी बात है। वे आत्‍म-अज्ञान से पीड़ित है और हम शारीरिक दीनता और दरिद्रता से पीड़ित हे।
      वह जो परम विद्या है, इस परम विद्या और सारी विद्याओं का जब संतुलन हो, तो पूर्ण संस्‍कृति विकसित होती है। इसलिए  न तो पूरब और न पश्‍चिम ही पूर्ण है। फिर भी अगर चुनाव करना हो अगर तो परम विद्या ही चुनने जैसी है। सारी बिद्याएं छोड़ी जा सकती है। क्‍योंकि और सब पा कर कुछ भी पाने जैसा नहीं है।
      कृष्‍ण कहते है। मैं परम विद्या हूं सब विद्याओं में।
      लेकिन यह बात आप ध्‍यान रखना, और विद्याओं का वे निषेध नहीं करते है। और विद्याओं में जो श्रेष्‍ठ है, उसकी सुचना भर दे रहे है। वे यह नहीं कह रहे है कि सिर्फ अध्‍यात्‍म-विद्या को खोजना है, बाकी सब छोड़ देना है।
      यह भी सोचने जैसा है। कि अध्यात्म-विद्या परम विद्या तभी हो सकती है। जब दूसरी बिद्याएं भी हो। नहीं तो यह परम विद्या नहीं रह जाएगी। आप कोई मंदिर का अकेला सोने का शिखर बना लें और दीवालें न हों तो समझ लेना शिखर जमीन पर पडा हुआ लोगों के पैरो की ठोकर खाए गा। मंदिर का स्‍वर्ण-शिखर आकाश में उठता ही इसलिए है कि पत्‍थर की दीवालें उसे सम्‍हालती है। अध्‍यात्‍म-विद्या का शिखर भी तभी सम्‍हलता है, जब और सारी बिद्याएं दीवालें बन जाती है। और सम्‍हालती है।
      अब तक हम कहीं भी मंदिर नहीं बना पाए। हमने शिखर बना लिया, पश्‍चिम ने मंदिर की दीवालें बना ली। जब तक हमारी शिखर पिश्चम के मंदिर पर न चढ़े, तब तक दुनिया में पूर्ण संस्‍कृति पैदा नहीं हो सकती। ये विरोध भास नहीं समन्‍वय को दोर है। हम यहां पर दीवालों का जिर्णधार करने में लगे है। कलस तो है पर दीवालें हमें पश्‍चिम से ही लेनी है।
--ओशो( गीता दर्शन, भाग—8, अध्‍याय-17, प्रवचन—10)

रविवार, 14 मार्च 2010

नारी: पुरूष की दासता से मुक्ति --भारत एक.......

      स्‍त्री पुरूष की छाया से ज्‍यादा आस्‍तित्‍व नहीं जुटा पाई है। इसीलिए जहां पुरूष होता है, स्‍त्री वहां है। लेकिन जहां छाया होती है वहां थोड़े ही पुरूष को होने की जरूरत है।
      स्‍त्री का विवाह हो, तो वह श्रीमती हो जाती हे। मैसेज हो जाती है, पुरूष के नाम की छाया रह जाती है। मैसेज फलानी हो जाती है। लेकिन इससे उल्‍टा नहीं होता कि स्‍त्री के नाम पर पुरूष जाता हो। अगर चंद्रकांत मेहता नाम है पुरूष का, तो स्‍त्री का कुछ भी नाम हो, वह श्रीमती चंद्रकांत मेहता हो जाती हे। लेकिन अगर स्‍त्री का नाम चंद्रकला मेहता है तो ऐसा नहीं होता कि पति श्रीमान चंद्रकला मेहता हो जाते हों। ऐसा नहीं होता, ऐसा होने की जरूरत नहीं पड़ती है। क्‍योंकि स्‍त्री छाया है। उसकी कोई अपना आस्‍तित्‍व थोडे ही है।
      शास्‍त्र कहते है, जब स्‍त्री बालपन में हो तो पिता उसकी रक्षा करे, जवान हो तो पति, बूढी हो जाए तो बेटा रक्षा करें। सब पुरूष उसकी रक्षा करे, क्‍योंकि उसका कोई अपना आस्‍तित्‍व नहीं है। रक्षितत्‍व तो ही वह है, अन्‍यथा नहीं है। जैन धर्म के हिसाब से नारी मोक्ष की अधिकारी नहीं है। उसे पुरूष की तरह जन्‍म लेना पड़ेगा। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर में एक तीर्थक स्‍त्री है। नाम था मल्ली बाई—उन्‍होंने उस का नाम बदल कर मल्ली नाथ कर दिया, क्‍योंकि वे कहते है कि नारी मोक्ष की उत्‍तराधिकारी नहीं है।
                दुनियां में मुशिकल से कोई धर्म होगा जिसने स्‍त्री को इज्‍जत दी हो। स्‍त्री मस्‍जिद में नहीं जा सकती। बस नारी का एक ही उपयोग है, जिसे स्‍वर्ग जाना हो वह नारी को छोड़ कर भाग जाए। पहली क्रांति नारी को इन तथा कथित धर्म गुरूओं के खिलाफ करनी होगी। सारी मनुष्‍य जाती अधूरी है। इसके भीतर कुछ कमी है। जो पूरी नहीं हो पाती, जीवन भर दौड़ कर भी प्रेम नहीं मिलता, प्रेम मिलता है समकक्ष से। और जब तक स्‍त्री पुरूष के समकक्ष नहीं होती तब तक स्‍त्री को प्रेम नहीं मिल सकता, वह तो दासी है। पति परमात्‍मा है, पूरब की हालत है दासी यों की और पश्चिम की  हालत तो और भी बदतर है। वहां औरत दिल बहलाने की वस्‍तु है जब चाह स्‍त्री बदली जा सकती है।
                यह पुरूष की दुनिया है, जिसमें गणित से सारा हिसाब लगा रखा है। इस दुनिया मैं स्‍त्री को कोई हाथ नहीं, अन्‍यथा यह दुनिया बहुत दुसरी होती। यहां गणित कम महत्‍व पूर्ण होता, ह्रदय ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होता। यह गणित से ज्यादा प्रेम का हिसाब होता। लेकिन वह नहीं हो सका, क्‍योंकि स्‍त्री के पास को आत्‍मा नहीं है। इसलिए स्‍त्री का कोई कंट्रिब्‍यूशन भी नहीं है इस संस्‍कृति के लिए, सभ्‍यता के लिए।
      और यह आदमी की बनाई हुई गणित की संस्‍कृति मरने के करीब पहुंच गई हे। अगर इस संस्‍कृति को बचाना है तो स्‍त्री को व्‍यक्‍तित्‍व देना जरूरी है। और स्‍त्री को व्‍यक्‍तित्‍व देने का अर्थ है: उसे पुरूष जैसा नहीं, स्‍त्री के ही अनुकूल क्‍या उचित हो सकता है। उसकी शिक्षा,
उसका प्रशिक्षण; उसके व्‍यक्‍तित्‍व का सारा उसका ही ढंग,ताकि एक नारी उपलब्‍ध हो सके। और वह नारी अगर उपलब्‍ध हो सकती है तो हम मनुष्‍य-जाति के जीवन में बहुत आनंद जोड़ सकते है। क्‍योंकि वह नारी न मालुम कितने अर्थों में जीवन का केन्‍द्र हे। 
      जोड़ ने लिखी है एक किताब और उस किताब में उसने लिखा है कि जब मैं पैदा हुआ, तो पश्‍चिम में होम स थे, घर थे। और अब जब मैं मरने के करीब हूं तो पश्चिम में सिर्फ हाउस ज रह गए है। होम बिलकुल नहीं। सिर्फ मकान रह गए है। घर कोई भी नहीं है।
      किसी ने जोड़ से पूछा कि तुम्‍हारा मतलब क्‍या है? होम और हाउस में फर्क क्‍या है।
      जोड ने कहा: कि जिस हाउस में एक नारी होती है उसको मैं होम कहता हूं और जिस हाउस में  नारी नहीं होती वह होटल हो जाता है, मकान हो जाता है।
      और पश्‍चिम में नारी खो गई है। पूरब में है ही नहीं। यह मत सोच लेना कि यहां है। यहां है ही नहीं। दसियों से घर नहीं बनते। लेकिन क्‍या किया जा सकता है।
      पहली बात, नारी को पुरूष से पृथक व्‍यक्‍तित्‍व उपलब्ध करना है। न उसे पुरूष का गुलाम रहना है और न पुरूष का अनुकरण करना है। नारी को अपने व्‍यक्‍तित्‍व की खोज  करनी है। और उसे स्‍पष्‍ट यह धोषणा कर देना है। कि हम स्‍त्री है और स्‍त्री ही रहेगी और स्‍त्री ही होना चाहेंगी। क्‍योंकि ध्‍यान रहे,हम जो होने को पैदा हुए है। जब वहीं हो जाते है, तभी हम आनंदित होते हे।  हम अन्यथा कुछ भी हो जाए आनंदित नहीं हो सकते। घास का फूल खिल जाए और फूल बन जाए तो आनंदित हो सकता है। अगर वह गुलाब को फूल बनाना चाहेगा तो मुश्‍किल शुरू हो जाएगी वह अपने स्वभाव से भटक जाएगा।
      आदमी अंतिम जगह आ गया है। पुरूष की सभ्यता कगार पर आ गई है। स्‍त्री का मुक्‍त होना जरूरी है। स्‍त्री के जीवन में क्रान्‍ति होनी जरूरी हे। ताकि स्‍त्री स्‍वयं को भी बचा सके और सभ्‍यता भी बचा सके। अगर स्‍त्री अपनी पूरी हार्दिकता, अपने पूरे प्रेम अपने पूरे संगीत, अपने पूरे काव्‍य, अपने व्‍यक्‍तित्‍व के पूरे फूलों को लेकर छा जाए तो इस जगत से युद्ध बंद हो सकते है। लेकिन जब तक पुरूष  हावी है दुनिया पर, तब तक युद्ध बंद नहीं हो सकते। वह पुरूष के भीतर युद्ध छिपा हुआ है।
      मां के पेट में जैसे ही बच्चा निर्मित होता है। तो चौबीस सेल मां से मिलते है और
चौबीस सेल पिता से मिलते है। पिता के सेल्‍स में दो तरह के सेल होते है। एक में चौबीस अरे एक में तेईस सेल होते है। अगर तेईस सेल वाला अणु मां के चौबीस सेल वाले अणु से मिलता है तो पुरूष का जन्‍म होता हे। पुरूष के हिस्‍से में सैंतालीस सेल होते है। और स्‍त्री के हिस्‍से में अड़तालीस सेल होते है। स्‍त्री की  जो व्‍यक्‍तित्‍व है यह सिमैट्रिकल है, पहली ही बुनियाद से। उसके दोनों तत्‍व बराबर है चौबीस-चौबीस।
      बायो लाजी कहती है कि स्‍त्री में जो सुघडता, जो सौंदर्य,जो अनुपात, जो परफोरशन है वह उन चौबीस-चौबीस के समान अनुपात होने के कारण है। और पुरूष में एक इनर टेंशन है। उसमें एक तरफ चौबीस अणु और दुसरी तरफ तेईस अणु है। उसका तराजू थोड़ा उपर नीचे होता रहता है। उसके भीतर एक बेचैनी जिंदगी भर उसे धेरे रहती है। वह कुछ उपद्रव करता ही रहेगा। इस टेंशन की वजह से वह कोई न कोई विवाद खड़े करता ही रहेगा। अगर पुरूष के हाथ में सभ्‍यता है पूरी की पूरी तो युद्ध कभी बंद नहीं हो सकते।
      यह जान कर आपको हैरानी होगी कि महावीर, बुद्ध, राम और कृष्‍ण को आपने दाढ़ी-मूंछ के नहीं देखा होगा। क्‍योंकि जैसे ही पुरूष को व्‍यक्‍तित्‍व धीरे-धीरे स्‍त्री के करीब आता है। वह जैसे हार्दिक होते है, वे स्‍त्री के करीब आने लगते है। मूर्ति कारों ने बहुत सोच कर यह बात निर्मित की है। उनका सारा व्‍यक्‍तित्‍व स्‍त्री के इतने करीब ओ गया होगा कि दाढ़ी-मूंछ बनानी उचित नहीं  मालूम पड़ी होगी। व्‍यक्‍तित्‍व इतना समानुपात हो क्या होगा।
--ओशो—नारी और क्रांति

शनिवार, 13 मार्च 2010

प्रसन्न ता और उदासी—का सदुपयोग शिवनेत्र के लिए

कभी जब चित बहुत प्रसन्‍न हो तो द्वार-दरवाजे बंद करके अपने कमरे में लेट जाए, कम से कम वस्‍त्र हो या नग्‍न होकर लेटे तो और भी बेहतर होगा। और एक मिनट तक अपने माथे पर हाथ रखकर दोनों आंखों के बीच में एक मिनट तक रगड़ते रहे। चित्‍त अगर प्रसन्‍न हो, तो माथे पर रगड़ते ही सारी प्रसन्‍नता माथे पर इक्कठी हो जाएगी।
      ध्‍यान रहे जब आदमी उदास होता है। तो अक्‍सर माथे पर हाथ रखता है। माथे पर हाथ रखने से उदासी बिखरती है। और प्रसन्‍नता इकट्ठी होती है। हालांकि प्रसन्नता में कोई नहीं रखता,उसका खयाल नहीं है।
      जब आदमी उदास होता है, दुःख होता है चिंतित होता है, तो माथे पर हाथ रखता है। उससे चिंता बिखर जाती हे। उस समय जो इकट्ठा है वह बिखर जाता है। निगेटिव कुछ होगा तो माथे पर हाथ रखने से बिखर जाता है। पाजीटिव कुछ होगा तो माथे पर हाथ रखने से इक्कठ्ठा हो जाता है।
 इस लिए मैंने कहा: जब प्रसन्‍न क्षण हो मन को कोई,लेट जाएं, माथे पर एक क्षण रगड़ लें जोर से हाथ से, अपने ही हाथ से। वह जगह बीच में जो है, वह बहुत कीमती जगह है। शरीर में शायद सर्वाधिक कीमती जगह है। वह अध्‍यात्‍म का सारा राज छिपा है। थर्ड आई, कोई कहता है उसे कोई शिवनेत्र, उसे कोई भी कुछ नाम देता हो, पर वहां राज छिपा है। उस पर हाथ रगड़ लें। उस पर हाथ रगड़ने के बाद जब आपको लगे कि प्रसन्‍नता सारे शरीर से दौड़ने लगी है उस तरफ, आँख बंद ही रखें, और सोचें कि मेरा सिर कहां हे। खयाल करें आप आँख बंद करके कि मेरा सर कहां है।
       आपको बराबर पता चल जाएगा कि सिर कहां है। सब को पता है, अपना सिर कहां है। फिर एक क्षण के लिए सोचें कि मेरा सिर जो है, वह छ: इंच लंबा हो गया। आप कहेंगे, कैसे सोचेंगे।
       यह बिलकुल सरल है, और एक दो दिन में आपको अनुभव में आ जाएगा कि माथा छ: इंच लंबा हो गया। आँख बंद किए। फिर वापिस लौट आएं, नार्मल हो जाएं, अपनी खोपड़ी के अंदर वापिस आ जाएं। फिर छ: इंच पीछे लोटे, फिर वापस लोटे, पाँच सात बार करें।
      जब आपको यह पक्‍का हो जाए कि यह होने लगा, तब सोचें कि पूरा शरीर मेरा जो है। वह कमरे के बराबर बड़ा हो गया है। सिर्फ सोचना, जस्ट ए थाट, एंड दि थिंग हैपेंस। क्‍योंकि जैसे ही वह तीसरे नेत्र के पास शक्‍ति आती हे। आप जो भी सोचें, वह हो जाता हे। इसलिए इस तरफ शक्‍ति लाकर कभी भी कुछ भूलकर गलत नहीं सोच लेना, वरना ........
      इस लिए इस तीसरे नेत्र के संबंध में बहुत लोगों को नहीं कहा जाता है। क्‍योंकि इससे बहुत संबंधित द्वार हैं। यह करीब-करीब वैसी ही जगह है, जैसा पश्‍चिम का विज्ञान ऐटमिक एनर्जी के पास जाकर झंझट में पड़ गया है। वैसाही पूरब को योग इस बिंदु के पास आकर झंझट मैं पड़ गया था। और पूरब के मनीषी यों ने खोजा हजारों वर्षों तक, और फिर छिपाया इसको। क्‍योंकि आम आदमी के हाथ में पडा तो खतरा शुरू हो जाएगा।
      अभी पश्‍चिम में वहीं हालत है। आइंस्टीन रोते-रोते मरा है, कि किसी तरह एटमिकएनर्जी के सीक्रेट खो जाए तो अच्‍छा हो। नहीं तो आदमी मर जाएगा।
      पूरब भी एक दफा इस जगह आ गया था दूसरे बिंदु से, और उसने सीक्रेट खोज लिया था। और उससे बहुत उपद्रव संभव हो गए थे, और शुरू हो गए थे तो,उन्‍हें भुला देना पडा। पर यह छोटा-सा सूत्र मैं कहता हूं, इससे कोई बहुत ज्‍यादा खतरे नहीं हो सकते है। क्‍योंकि और गहरे सूत्र है, जो खतरे ला सकते है।
--ओशो,(गीता दर्शन भाग-4,अघ्‍याय-8, प्रवचन—01) 










शुक्रवार, 12 मार्च 2010

नालंदा विश्वनविद्यालय—भारत एक सनातन यात्रा

 बड़ा विश्‍वविद्यालय था, नालंदा। दस हजार विद्यार्थी थे। चीन और लंका और कंबोदिया और जापन और दूर-दूर से लोग, मध्‍य एशिया और इजिप्‍त, सब तरफ से विद्यार्थी आते थे। पैदल यात्रा थी। जो चल पड़ा,वह लोट कर भी आएगा घर वापस, इसका पक्‍का न था। लोग रो लेते अरे गांव के बाहर जाकर विदा कर आते कि गया यह आदमी, अब क्‍या लोटेगा, घने जंगल थे, पहाड़-पर्वत थे, भंयकर खाई या थी। डाकू थे। जंगली जानवर थे। और फिर जो गया है ऐसी खोज में वह कहीं लौटता है यह खोज ही ऐसी है।
      नालंदा जैसी जगह में, जहां ज्ञानी यों का वास था, वहां वर्षों लग जाते। जवान आते लोग और बूढे हो जाते। और जब तक गुरु कह न दे कि हां,पुरी हो गई बात....
      तीन विद्यार्थी आखिरी परीक्षा पार कर लिए थे। लेकिन गुरु जाने के लिए नहीं कह रहा था। आखिर एक दिन एक ने पूछा कि हम सुनते है कि आखिरी परीक्षा भी हमारी हो गयीं , लेकिन लगता है हुई नहीं, क्‍योंकि हत से जाने के लिए नहीं कहां गया। बीस वर्ष हो गए हमें आए, घर के लोग जीवित हैं या नहीं; जिनको पीछे छोड़ आए है। वे बचे भी या नहीं; मां-बाप बूढे है। अब हम जाएं अगर हमारी परीक्षा पूरी हो गयी हो।
      तो गुरु ने कहा, आज सांझ तुम जा सकते हो।
      लेकिन आखिरी परीक्षा शेष रह गयी थी। पर आखिरी परीक्षा ऐसी थी कि वह ली नहीं जा सकती थी; वह तो एक तरह की कसौटी थी, जिसमें से गुजरना पड़ता था।
      सांझ को तीनों विद्यार्थी विदा हुए। दूर नगर है, जहां रात जाकर टिकेंगे। सांझ होने लगी, सूरज ढल गया। एक झाड़ी के पास आए। गुरु झाड़ी में छिपा बैठा है। उसने झाड़ी के बाहर कांटे बिछा दिए है। छोटी-सी पगडंडी है। कांटे बिछे हुए है। एक विद्यार्थी पगडंडी से नीचे उतर कर, कांटों को पार करके आगे बढ़ गया। दूसरे विद्यार्थी ने छलांग लगा ली। तीसरा रूक गया और कांटों को बीन कर झाड़ी में डालने लगा।
      उन दो ने कहा,  यह क्‍या कर रहे हो, जल्‍दी ही रात हो जाएगी। दूर हमें जाना है; जंगल है, बीहड़ है, खतरा है। ये कांटे-वांटे बीनने में मत समय खराब करो।
      पर उस तीसरे विद्यार्थी ने कहा कि सूरज डूब गया है। रात होने के करीब है। हमारे बाद जो भी आएगा, उसे दिखाई नहीं देगा कि कांटे है रास्‍ते में। हम ही आखरी है इस पगडंडी पर आज की रात, जिनको कि दिखाई पड़ रहा है। बस, अब ढला सूरज,तब ढला। रात उतर रही है। इन्‍हें बीनना ही पड़ेगा। तुम चलो, में थोड़े पीछे हो लुंगा।
      और तभी वे चौके कि झाड़ी से गुरु बाहर आ गया उसने कहा,दो जो चले गए है। वापस लौट आएं। वह परीक्षा में असफल हो गए है। अभी उन्‍हें कुछ वर्ष और रूकना पड़ेगा। और तीसरा जो रूक गया हे। कांटे बीनने, वह उत्‍तीर्ण हो गया है। वह अब जा सकता हे।
      क्‍योंकि अंतिम परीक्षा शब्‍दों की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो प्रेम की है। अंतिम परीक्षा पांडित्‍य की नहीं है; अंतिम परीक्षा तो करूणा की है।
      गुरु के चरणों में बैठकर लोग सीखते थे, वर्षो लग जाते थे। अजीब-अजीब परीक्षाएं थी। लेकिन खोज ही लेते थे उन चरणों को, जहां घूँघट उठ जाते हे।
      देर लगती थी, कठिनाई होती थी। लेकिन कठिनाई की भी अपनी खूबी है। कठिनाई भी निखारती है; भीतर की राख को अलग करके झाड़ देती है। कुडा-करकट को जला देती है।
--ओशो, (गीता दर्शन, भाग-8, अध्याय,18, प्रवचन-19)
      उपसंहार—
      शिक्षाऐं जो कहानी के माध्‍यमसे दी जाती थी। हम आज उससे क्‍यों प्रभावित नहीं होते। वो केवल किताबी बातें रह गई है। हमारे जीवन में अमल की वस्‍तु नहीं रही। क्‍योंकि जो कहानी हम आज पढ़ हरे है। वो हजारों साल पहले की हालात में कही गई है। हम इतने चाल बाज है सोचते है वो सतयुग, की बातें भला आज कैसे हो सकती है, और बचा ले जाते है, इस दृश्य से अपने आपको बिना, बदले बिना पीड़ा के....शब्‍द केवल शब्‍द रह जाते है वो जीवित नहीं हो पाते है।
      अगर हम जीवन के पथ पर जुड़ी छोटी बड़ी घटनाओं को देखे तो आज भी वो हमें प्रकृति का अभूतपूर्व करिश्मा कहिए वो कहीं आस पास जरूर दिखाई दे जाएगा मगर शर्त यह है कि हम उसे क्‍या दिखाना चाहते हे। पर हम बेहोश गुजर जाते है, उस घटनाओं के पास से वो हमें छू तक नहीं पाती, क्‍योंकि हम जाग्रति नहीं है एक नींद में जी रहे है। वो सारी घारनाएं हमें वो सब देखने नहीं देती, या फिर हम उसे देखने समझने और अवलोकन करने प्रखरता नहीं रखते,.....कोई एक बात तो सत्‍य है। इसे हम इंकार नहीं कर सकते है।
      मेरा गांव एक पहाड़ी पर बसा है। उस के आस पास तो खेती की जमीन है पर गांव एक ऊंची  पहाड़ी पर  क्‍या सोच समझ कर बसाया ये उन बसाने वालों की प्रस्‍थिति को जाने बिना अनुमान गलत ही होगा। बचपन में मैंने वहां एक ऐसा चरित्र देखा जो नियम से रास्‍ते के पत्थरों को जो ठोर बन जाते थे निकलता था। मेरे बाल मन पर वो चरित्र एक आदर्श बन कर अंकित हो गया। और वैसी अनेक घटनाएं ही मुझे आज इस  स्‍थान तक ले आई जहां में सही गुरु को पहचान सका, क्‍योंकि हम सही गुरू को पहचान नहीं सकते। मन से उसे चुनते है। जो हमें अच्‍छा लगता है। जिसकी बातें चिकनी चुपड़ी लालच भरी जीवन में आशीर्वाद से लदी हो। वो उस मन के किसी काम का नहीं, पत्‍थर जब तक छैनी से प्रेम नहीं करेगा तब तक उससे मूर्ति निर्मित नहीं हो सकती। वो चरित्र, क्‍यों छू गया...जो आज भी मुझे अलादीन किय रहता है। उस पर मैंने एक कहानी लिखी है जिसमें मैंने उस चरित्र को जीवित करने की कोशिश की है... जो मेरे ब्लाक पर कहानी  (शब्‍द मंजूषा)  ‘’भोला’’ http://shabdmanjusha.blogspot.com के नाम से है।
      दत्तात्रेय ने 24गुरू किये... कूता, वेश्‍या, आदि भी वो. सीख पाय,यानि सीखना हो तो प्रकृति हमें उचित अवसर देती ही रहती है।

मनसा आनंद मानस