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मंगलवार, 31 मार्च 2015

मैं कहता अांखन देखी--(प्रवचन--32)

जागते—जागते.....(प्रवचनबत्‍तीसवां)

'अमृत—वाणी'
से संकलित सुधा—बिंदु 1970—71

 1—परमात्मा की चाह नहीं हो सकती

 न मांगता रहता है संसार को, वासनाएं दौड़ती रहती हैं वस्तुओं की तरफ, शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए, आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए। हमारा जीवन आग की लपट है, वासनाएं जलती हैं उन लपटों में— आकांक्षाएं इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन जलता है इच्छा का, और सब धुआं— धुआं हो जाता है। इन लपटों में जलते हुए कभी—कभी मन थकता भी है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी होता है।

हताशा में, बेचैनी में कभी—कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते—दौड़ते इच्छाओं के साथ कभी—कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। दौड़ते—दौड़ते वासनाओं के साथ कभी—कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंदकर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है।

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--31)

भगवतप्रेम(प्रवचनइक्कतीसवां) 

'अमृत—वाणी' से संकलित
सुधा—बिंदु 1970—1971

 गत में तीन प्रकार के प्रेम हैं—एक : वस्तुओं का प्रेम, जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर हम वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं। दूसरा : व्यक्तियों का प्रेम। कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं सिर्फ इसलिए कि आपको अपने बचाने की सुविधा रहे कि मैं तो लाख में एक हूं ही। नहीं, इस तरह बचाना मत!
एक फ्रेंच चित्रकार सींजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। यह पूरी पहाड़ी अंदभुत है। सींजां ने पूछा, इसके अदभुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण?

गीता दर्शन--(भाग--7) -ओशो

गीता—दर्शन—(भाग सात)--ओशो


(ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय चौदह 'गुणत्रय—विभाग—योग', अध्याय पंद्रह 'पुरुषोत्तम—योग' एवं अध्याय सोलह 'दैव— असुर—संपद—विभाग—योग' पर दिए गए पच्चीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

भूमिका: (मणि—कांचन संयोग) 

णि—काचन संयोग शायद इसे ही कहते होंगे। ग्रंथों में ग्रंथ गीता और व्याख्याताओं में व्याख्याता ओशो। व्याख्या भी सिर्फ एक विद्वान की नहीं, सिद्ध की! इसलिए गीता—दर्शन के इन अध्यायों को. पढ़ना जैसे समुद्र और उसके भीतर बहती गंगा की धारा में एक साथ दोहरा अवगाहन करना है। इस अवगाहन में सिर्फ गीता के उपदेश—रत्न नहीं मिलते, न सिर्फ ओशो का प्रसिद्ध उक्ति—सौंदर्य, गीता के माध्यम से ओशो की उद्भट प्रतिभा और प्रज्ञा संसार के लगभग हर प्रमुख धर्म और उसकी विभूतियों को जोड्ने वाले सूत्र को आपके हाथ में थमा देती है। वह सूत्र आध्यात्मिक अनुभूति का है, साधना का है, साक्षित्व का है, वहां आप चाहे जिस राह से पहुंचें।

मन ही पूजा मन ही धूप--(प्रवचन--02)

जीवन एक रहस्‍य है—(प्रवचन—दूसरा)

प्रश्न—सार:

1— ओशो,
मैंने उन्‍हें देखा था खिले फूल की तरह
अस्‍तित्‍व की हवा के संग डोलत हुए
आनंद की सुगंध लुटाते हुए सदा
सब के दिलों में प्रेम का रस घोलत हुए
लवलीन हो गए थे वे परमात्‍मा—भाव में
था उनमें वही ज्‍योति—रूप व्‍यक्‍त हो उठा
सारल्‍य में समा गया बुद्धत्‍व दौड़ कर
ऐसा लगा भगवान स्‍वयं भक्‍त हो उठा
लेकिन वे भक्‍ति में निमग्‍न एक नृत्‍य–गीत थे
यो मोद भरे छलकते हुए हसीन मौन थे
वे जोड़ ही गए है महोत्‍सव में बहुत कुछ
मैं कैसे कहूं स्‍वामी देवतीर्थ भारती कौन थे।

2—ओशो,
      दशहरे के दिन मेरी बेटी की शादी तय हुई थी। सब तैयारियां हो चुकी थी। कार्ड बांट दिए गए थे और लड़के ने तीन दिन पहले दूसरी लड़की से शादी कर ली। मैंने तो इस दुर्भाग्‍य के पीछे सौभाग्‍य ही देखा। मगर मेरी बेटी के लिए इसमें कौन सा रहस्‍य छिपा है?

सोमवार, 30 मार्च 2015

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--30)

मृत्यु और परलोक(प्रवचनतीसवां)

'अमृत—वाणी' से संकलित
सुधा—बिंदु 19701971

स जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है, 'इग्रोरेन्स इज़ डेथ'। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है? अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कही है ही नही। हम नहीं जानते इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असम्भव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असम्भव घटना है जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं, लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है।

हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम यह जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है और अमृत ही, अमृत्व ही शेष रह जाता है— 'इम्मारलिटी' ही शेष रह जाती है।

शनिवार, 28 मार्च 2015

मैं कहता अांखन देखी--(प्रवचन--29)

जो बोएंगे बीज वही काटेंगे फसल(प्रवचनउन्नतीसवां)

'अमृत वाणी' से संकलित
सुधा—बिंदु 1970—71

 किसे हम कहें कि अपना मित्र है और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है। एक छोटी—सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं

 कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोनेवाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख का बीज बोते हैं। निश्‍चित ही बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है, इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अकसर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य—कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं!

मै कहता आंखन देखी--(प्रवचन--28)

यह मन क्‍या है?—(प्रवचनअट्ठाईसवां)

'अमृत वाणी'
से संकलित सुधा—बिन्दु 1970—71
क आकाश, एक स्पेस बाहर है, जिसमें हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं—जहां भवन निर्मित होते हैं और खंडहर हो जाते हैं। जहां पक्षी उड़ते, शून्य जन्मते और पृथ्‍वीयां विलुप्त होती है—यह आकाश हमारे बाहर है। किंतु यह आकाश जो बाहर फैला है, यही अकेला आकाश नहीं है— 'दिस स्पेस इज नाट द ओनली स्पेस' —एक और भी आकाश है, वह हमारे भीतर है। जो आकाश हमारे बाहर है वह असीम है।
वैज्ञानिक कहते हैं, उसकी सीमा का कोई पता नहीं लगता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है, बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है— 'मल्टी डायमेंशनल इनफिनिटी' है।

शुक्रवार, 27 मार्च 2015

मन ही पूजा मन ही धूप--(संत--रैदास)

मन ही पूजा मन ही धूप—(संत—रैदास)
ओशो
(दिनाांक  01-10-1979 से  10-10-1979 तक रैदास वाणी पर प्रश्‍नोत्‍तर सहित पुणे में ओशो द्वारा दिए गए दस अमृत प्रवचनो का अनुपन संकलन)

आमुख:

 दमी को क्या हो गया है? आदमी के इस बगीचे में फूल खिलने बंद हो गए! मधुमास जैसे अब आता नहीं! जैसे मनुष्य का हृदय एक रेगिस्तान हो गया है, मरूद्यान भी नहीं कोई। हरे वृक्षों की छाया भी न रही। दूर के पंछी बसेरा करें, ऐसे वृक्ष भी न रहे। आकाश को देखने वाली आखें भी नहीं। अनाहत को सुनने वाले कान भी नहीं। मनुष्य को क्या हो गया है?
मनुष्य ने गरिमा कहां खो दी है? यह मनुष्य का ओज कहां गया? इसके मूल कारण की खोज करनी ही होगी। और मूल कारण कठिन नहीं है समझ लेना। जरा अपने ही भीतर खोदने की बात है और जड़ें मिल जाएंगी समस्या की। एक ही जड़ है कि हम अपने से वियुक्त हो गए हैं; अपने से ही टूट गए हैं अपने से ही अजनबी हो गए हैं!

गुरुवार, 26 मार्च 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--162

अकस्‍मात विस्‍फोट की पूर्व—तैयारी—(प्रवचन—बारहवां)

अध्‍याय—13
सूत्र—

            यथा प्रकाशयत्‍येक: कृत्‍स्‍नं लोकमिमं रवि:।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्‍स्‍नं प्रकाशयति भारत।। 33।।
स्थ्यैज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचमुवा।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्‍तरं च ये विदुर्यान्‍ति ते परम्।। 34।।

है अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य इस संपूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार एक ही आत्‍मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता है।
इस प्रकाश क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्‍त प्रकृति से छूटने के उपाय को जो पुरूष ज्ञान—नेत्रों के द्वारा तत्‍व से जानते है, वे महात्‍माजन परम ब्रह्म परमात्‍मा को प्राप्त होते हैं।

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--27)

मैं मृत्यु सिखाता हूं(प्रवचनसत्‍ताईसवा)

'मै कौन हूं?’
से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

 मैं प्रकाश की बात नहीं करता है वह कोई प्रश्‍न ही नहीं है। प्रश्‍न वस्तुत: आंख का है। वह है, तो प्रकाश है। वह नहीं है, तो प्रकाश नहीं है। क्या है वह, हम नहीं जानते हैं। जो हम जान सकते है, वही हम जानते हैं। इसलिए विचारणीय सत्ता नहीं, विचारणीय ज्ञान की क्षमता है। सत्ता उतनी ही ज्ञात होती है, जितना ज्ञान जागृत होता है।

कोई पूछता था— आत्मा है या नहीं है? मैने कहा—आपके पास उसे देखने की आंख है, तो है, अन्यथा नहीं ही है। साधारणत: हम केवल पदार्थ को ही देखते है। इन्द्रियों से केवल वही ग्रहण होता है। देह के माध्यम से जो भी जाना जाता है वह देह से अन्य हो भी कैसे सकता है। देह, देह को ही देखती है और देख सकती है।

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--25)

महावीर: मेरी दृष्टि में—(प्रवचन—पच्‍चीसवां)

हावीर पर इतने दिनों तक बात करनी अत्यंत आनंदपूर्ण थी। यह ऐसे ही था, जैसे मैं अपने संबंध में ही बात कर रहा हूं। पराए के संबंध में बात की भी नहीं जा सकती। दूसरे के संबंध में कुछ कहा भी कैसे जा सकता है? अपने संबंध में ही सत्य हुआ जा सकता है।
और महावीर पर इस भांति मैंने बात नहीं की, जैसे वे कोई दूसरे और पराए हैं। जैसे हम अपने आंतरिक जीवन के संबंध में ही बात कर रहे हों, ऐसी ही उन पर बात की है। उन्हें केवल निमित्त माना है, और उनके चारों ओर उन सारे प्रश्नों पर चर्चा की है, जो प्रत्येक साधक के मार्ग पर अनिवार्य रूप से खड़े हो जाते हैं। महत्वपूर्ण भी यही है।

बुधवार, 25 मार्च 2015

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--26)

अहिंसा का अर्थ(प्रवचनछब्‍बीसवां)

'मैं कौन हूं?’
से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

 मैं उन दिनों का स्मरण करता हूं जब चित्त पर घना अंधकार था और स्वयं के भीतर कोई मार्ग दिखाई नहीं पड़ता था। तब की एक बात खयाल में है। वह यह कि उन दिनों किसी के प्रति कोई प्रेम प्रतीत नहीं होता था। दूसरे तो दूर, स्वयं के प्रति भी कोई प्रेम नहीं था।
फिर, जब समाधि को जाना तो साथ ही यह भी जाना कि जैसे भीतर सोए हुए प्रेम से अनन्त झरने अनायास ही सहज और सक्रिय हो गए है। यह प्रेम विशेष रूप से किसी के प्रति नहीं था। यह तो बस था, और सहज ही प्रवाहित हो रहा था। जैसे दीये से प्रकाश बहता है और फूलों से सुगंध, ऐसे ही वह भी बह रहा था। बोध के उस अदभुत क्षण में जाना था कि वह तो स्वभाव का प्रकाश है। वह किसी के प्रति नहीं होता है। वह तो स्वयं की स्फुरित है।

मैं कहता हूं अांखन देखी--(प्रवचन--25)

नीति, भय और प्रेम(प्रवचनपच्‍चीसवां)

'मैं कौन हूं?’
से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

 मैं सोचता हूं कि क्या बोलूं? मनुष्य के संबंध में विचार करते ही मुझे उन हजार आंखों का स्मरण आता है, जिन्हें देखने और जिनमें झांकने का मुझे मौका मिला है। उनकी स्मृति आते ही मैं दुखी हो जाता हूं। जो उनमें देखा है, वह हृदय में काटो की भांति चुभता है। क्या देखना चाहता था और क्या देखने को मिला! आनंद को खोजता था, पाया विषाद। आलोक को खोजता था, पाया अंधकार। प्रभु को खोजता था, पाया पाप। मनुष्य को यह क्या हो गया है?

उसका जीवन जीवन भी तो नहीं मालूम होता है। जहां शांति न हो, संगीत न हो, शक्ति न हो, आनंद न हो—वहां जीवन भी क्या होगा? आनंदरिक्त, अर्थशून्य अराजकता को जीवन कैसे कहें? जीवन नहीं, बस एक दुःस्वप्न ही उसे कहा जा सकता है—एक मूर्च्छा, एक बेहोशी और पीड़ाओं की एक लंबी शृंखला।

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--24)

दुख, सुख और महावीर-आनंद—(प्रवचन—चौबीसवां)

दु, सुख और आनंद,
इन तीन शब्दों को समझना बहुत उपयोगी है।
दुख और सुख भिन्न चीजें नहीं हैं, बल्कि उन दोनों के बीच जो भेद है, वह ज्यादा से ज्यादा मात्रा का, परिमाण का, डिग्री का है। और इसलिए सुख दुख बन सकता है और दुख सुख बन सकता है। जिसे हम सुख कहते हैं, वह भी दुख बन सकता है; और जिसे दुख कहते हैं, वह भी सुख बन सकता है। इन दोनों के बीच जो फासला है, जो भेद है, वह विरोधी का नहीं है। भेद मात्रा का है।
एक आदमी को हम गरीब कहते हैं और एक आदमी को हम अमीर कहते हैं। गरीब और अमीर में भेद किस बात का है? विरोध है दोनों में?
आमतौर से ऐसा दिखता है कि गरीब और अमीर विरोधी अवस्थाएं हैं, लेकिन सचाई यह है कि गरीबी और अमीरी एक ही चीज की मात्राएं हैं। एक आदमी के पास एक रुपया है तो गरीब है और एक करोड़ रुपया है तो अमीर है।

मंगलवार, 24 मार्च 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--161

साधना और समझ—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)

अध्‍याय—13
सूत्र—

अनादित्वान्‍निर्गुणत्वात्परमात्मायमब्यय:।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करौति न लिप्‍यते।। 31।।
यथा सर्वगतं सौक्ष्‍म्यादास्काशं नोयलिप्‍यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्‍यते।। 32।।  

है अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ थी वास्तव में न करता है और न लिपायमान होता है।
जिस कार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हुआ भी आत्मा गुणातींत होने के कारण देह के गुणों से लिपायमान नहीं होता है।

महावीर मेरी दृष्‍टी में--(प्रवचन--23)

महावीर: आत्यंतिक स्वतंत्रता के प्रतीक—(प्रवचन—तेईसवां)

       प्रश्न:
 यह सच है कि आत्मा अमर है, ज्ञानस्वरूप है, फिर कैसे अज्ञान में गिरती है? कैसे बंधन में गिरती है? कैसे शरीर ग्रहण करती है--जब कि शरीर छोड़ना है, जब कि शरीर से मुक्त होना है? यह कैसे संभव हो पाता है?
 ह सवाल महत्वपूर्ण है और बहुत ऊपर से देखे जाने पर समझ में नहीं आ सकेगा। थोड़े भीतर गहरे झांकने से यह बात स्पष्ट हो सकेगी कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, इस कमरे में आप हैं और आप इस कमरे के बाहर कभी भी नहीं गए हैं, कभी गए ही नहीं। इस कमरे में आप हैं, बड़े आनंद में हैं, बड़ी शांति में हैं, बड़े सुरक्षित। न कोई भय, न कोई अंधकार, न कोई दुख; लेकिन इस कमरे के बाहर आप कभी नहीं गए हैं।

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--24)

प्रेम ही प्रभु है(प्रवचनचौबीसवां)

'मैं कौन हूं?'
से संकलित क्रांतिसूत्र 1966—67

 मैं मनुष्य को रोज विकृति से विकृति की ओर जाते देख रहा हूं उसके भीतर कोई आधार टूट गया है। कोई बहुत अनिवार्य जीवन—स्नायु जैसे नष्ट हो गए हैं और हम संस्कृति में नहीं, विकृति में जी रहे हैं।

 इस विकृति और विघटन के परिणाम व्यक्ति से समष्टि तक फैल गए हैं, परिवार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक उसकी बेसुरी प्रतिध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। जिसे हम संस्कृति कहें, वह संगीत कहीं भी सुनाई नहीं पड़ता है।

मनुष्य के अंतस के तार सुव्यवस्थित हों तो वह संगीत भी हो सकता है। अन्यथा उससे बेसुरा कोई वाद्य नहीं है।

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--23)

मांगो और मिलेगा(प्रवचनतेइसवां) 

'मैं कौन हूं?'
से संकलित क्रांतिसूत्र 1966 — 67

 ह क्या देख रहा हूं? यह कैसी निराशा तुम्हारी आंखों में है? और क्या तुम्हें शात नहीं है कि जब आंखें निराश होती हैं, तब हृदय की वह अग्रि बुझ जाती है और वे सारी अभीप्साएं सो जाती हैं, जिनके कारण मनुष्य मनुष्य है।
निराशा पाप है, क्योंकि जीवन उसकी धारा में निश्‍चय ही ऊर्ध्वगमन खो देता है।
निराशा पाप ही नहीं, आत्मघात भी है क्योंकि जो श्रेष्ठतर जीवन को पाने में संलग्न नहीं है, उसके चरण अनायास ही मृत्यु की ओर बढ़ जाते हैं।

यह शाश्वत नियम है कि जो ऊपर नहीं उठता, वह नीचे गिर जाता है, और जो आगे नहीं बढ़ता, वह पीछे धकेल दिया जाता है।

सोमवार, 23 मार्च 2015

गीता दर्शन--(भाग--6) प्रवचन--160

कौन है आँख वाला—(प्रवचन—दसवां)

अध्‍याय—13
सूत्र—

            समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्‍स्‍वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति।। 27।।
समं पश्यीन्ह सर्वत्र अमवीस्थतमीश्वरम्।
न हिनस्मात्मनात्मानं ततो याति पंरा गतिम् ।। 28।।
प्रकृत्यैव च कर्मीणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं ग़ पश्यति।। 29।।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनयश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्यद्यते तदा।। 30।।

हम प्रकार जानकर जो पुरुष नष्ट होते हुl सब बराबर भूतों में नाशरीहत परमेश्वर को समभाव मे स्थित देखता है, वही देखता है।
क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ, अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।
और जो पुरुष संपूर्ण क्रमों को सब प्रकार से प्रकृति से ही किए हुए देखता है तथा आत्मा को अकर्ता देखता है वही देखता है।
और यह पुरूष जिस काल में भूतों के न्यारे— न्यारे भाव को एक परमात्मा के संकल्य के आधार स्थित देखता है तथा उस परमात्‍मा के संकल्‍प से ही संपूर्ण भूतों का विस्‍तार देखता है? उस कम में सच्चिदानंदधन ब्रह्म को प्राप्त होता है।

रविवार, 22 मार्च 2015

मैं कहता आंखन देखी--(प्रवचन--22)

आनंद की दिशा(प्रवचनबाईसवां)

'मैं कौन हूं?'
से संकलित क्रांतिसूत्र, 1966—67

 ह क्या हो गया है? मनुष्य को यह क्या हो गया है? मैं आश्रर्य में हूं कि इतनी आत्म विपन्नता, इतनी अर्थहीनता और इतनी घनी ऊब के बावजूद भी हम कैसे जी रहे हैं!
मैं मनुष्य की आत्मा को खोजता हूं तो केवल अंधकार ही हाथ आता है और मनुष्य के जीवन में झांकता हूं तो सिवाय मृत्यु के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है।
जीवन है, लेकिन जीने का भाव नहीं। जीवन है, लेकिन एक बोझ की भांति। वह सौन्दर्य, समृद्धि और शांति नहीं है। और आनन्द न हो, आलोक न हो तो निश्‍चय ही जीवन नाम—मात्र को ही जीवन रह जाता है।

क्या हम जीवन को जीना ही तो नहीं भूल गए हैं?