'अमृत—वाणी'
से
संकलित सुधा—बिंदु
1970—71
1—परमात्मा
की चाह नहीं
हो सकती
मन मांगता
रहता है संसार
को, वासनाएं
दौड़ती रहती
हैं वस्तुओं
की तरफ, शरीर
आतुर होता है
शरीरों के लिए,
आकांक्षाएं विक्षिप्त
रहती हैं
पूर्ति के लिए।
हमारा जीवन आग
की लपट है, वासनाएं
जलती हैं उन
लपटों में— आकांक्षाएं
इच्छाएं जलती
हैं। गीला
ईंधन जलता है
इच्छा का, और
सब धुआं— धुआं
हो जाता है।
इन लपटों में
जलते हुए कभी—कभी
मन थकता भी है,
बेचैन भी
होता है, निराश
भी, हताश
भी होता है।
हताशा
में, बेचैनी
में कभी—कभी
प्रभु की तरफ
भी मुड़ता
है। दौड़ते—दौड़ते
इच्छाओं के
साथ कभी—कभी
प्रार्थना
करने का मन भी
हो आता है।
दौड़ते—दौड़ते
वासनाओं के
साथ कभी—कभी
प्रभु की
सन्निधि में आंख
बंदकर
ध्यान में डूब
जाने की कामना
भी जन्म लेती
है।