प्रवचन चौथा -(कर्मः सबसे बड़ा धर्म)
मेरे प्रिय आत्मन्!कर्म-योग पर आज थोड़ी बात करनी है।
बड़ी से बड़ी भ्रांति कर्म के साथ जुड़ी है। और इस भ्रांति का जुड़ना बहुत स्वाभाविक भी है।
मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम है--बीइंग का, होने का, आत्मा का। और दूसरा आयाम है--डूइंग का, करने का, कर्म का। एक तो मैं हूं। और एक वह मेरा जगत है, जहां से कुछ करता हूं।
लेकिन ध्यान रहे, करने के पहले ‘होना’ जरूरी है। और यह भी खयाल में ले लेना आवश्यक है कि सब करना, ‘होने’ से निकलता है। करना से ‘होना’ नहीं निकलता। करने के पहले मेरा ‘होना’ जरूरी है। लेकिन मेरे ‘होने’ के पहले करना जरूरी नहीं है।