कुल पेज दृश्य

बुधवार, 31 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-16

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

हंसो, जी भर कर हंसो—(सोलहवां प्रवचन)
दिनांक २६ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—अजीब लत लगी है रोज सुबह आपके साथ बैठ कर हंसने की!
2—कल किसी प्रश्न के उत्तर में आपने बताया कि क्यों साधारण व्यक्ति की समझ में आपकी बात आती नहीं। मुझे याद आया, आप पहली बार उन्नीस सौ चौंसठ में पूना आए थे, दो दिन आपके प्रवचन सुने थे, आप को स्टेशन पर छोड़ने आया था। तब मैंने आपको पूछा था: आपकी बात साधारण आदमी की समझ में आना मुश्किल लगता है। तब आपने कहा था: माणिक बाबू, कौन व्यक्ति खुद को साधारण समझता है? क्या ज्यादातर व्यक्ति इसी भ्रांति में होते हैं? यह व्यक्ति की असाधारणता की कल्पना नष्ट करने के लिए नव संन्यास उपयुक्त है। असाधारण को साधारण बनाने की आपकी कीमिया अदभुत है! इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करें।
3—ईश्वर को देखे बिना मैं पूजा किसकी, कैसे और कहां करूं? समझाने की अनुकंपा करें!

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-15

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

एक नई मनुष्य-जाति की आधारशिला—(पंद्रहवां प्रवचन)
पंद्रहवां प्रवचन; दिनांक २५ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—आप सरल, निर्दोष चित्त की सदा प्रशंसा करते हैं। यह सरलता, यह निर्दोष चित्त क्या है?
2—क्या आप अंग्रेजी भाषा के विरोध में हैं? आप कुछ भी कहें, मैं तो अंग्रेजी सीखूंगी।
3—पूरब-पश्चिम, विज्ञान-धर्म और बाहर-भीतर का संतुलन जो आप करने का प्रयास कर रहे हैं, यह साधारण जन की समझ में क्यों नहीं आता है?

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-14

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

तथाता और विद्रोह—(चौदहवां प्रवचन)
दिनांक २४ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आप कहते हैं कि धर्म स्वीकार है, तथाता है और आप यह भी कहते हैं कि धर्म विद्रोह है। धर्म एक साथ तथाता और विद्रोह दोनों कैसे है?
2—मीरा के इस वचन पीवत मीरा हांसी रे से कई गुना अदभुत वचन तो यह है कि म्हारो देश मारवाड़ जिसके कारण मेरे हृदय में अन्य जाग्रत व्यक्तियों की अपेक्षा मीरा का अधिक सम्मान है। आप क्या कहते हैं?
3—आज तक जाने गए बुद्धपुरुषों को किसी पशु ने मारा हो ऐसा उल्लेख नहीं है और शास्त्रों में कई ऐसे भी उल्लेख हैं कि नाग या शेर या सिंह जैसे पशु भी बुद्धपुरुषों के पास आकर बैठते थे। भगवान, इसका राज क्या है?
4आपने मुझे नाम दिया है: योगानंद। इसका रहस्य समझाएं?
5—जब भी मैं आपकी बातें सुनता हूं तो मेरा शादी करने का पक्का इरादा चकनाचूर हो जाता है। लेकिन जब भी मैं अपनी ओर से सोचता हूं तो मुश्किल में पड़ जाता हूं कि शादी करूं या न करूं। आपने पिछले दो दिन में बताया कि समझदार आदमी को शादी करनी ही नहीं चाहिए। अब बताएं भगवान, मैं क्या करूं? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। कृपया मुझे मार्ग दिखावें!

सोमवार, 29 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-13

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
धर्म और विज्ञान की भूमिकाएं-(तेरहवां प्रवचन)
दिनांक २३ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1--श्रेष्ठ मानव-शरीर पैदा करने का आयोजन विज्ञान कैसे कर सकता है, इसकी आपने चर्चा की। लेकिन केवल श्रेष्ठ आत्माएं विज्ञान कैसे चुन सकता है? और श्रेष्ठ आत्माओं को ही उत्कृष्ट शरीर में प्रवेश कैसे कराएगा? यह काम तो आप जैसे शुद्ध प्रबुद्ध आत्मा को ही करना पड़ेगा। विज्ञान कोई वैज्ञानिक या हिटलर पैदा कर सकेगा। लेकिन कोई कृष्ण, महावीर या बुद्ध पैदा कराने का आयोजन कैसे हो सकता है? इस बात पर प्रकाश डालने की कृपा करें।
2—क्या संसार में कोई भी अपना नहीं है?
3—आपके आश्रम में तो बिना अंग्रेजी जाने जीना मुश्किल है। जितने विदेशी मैंने यहां देखे इतने एक स्थान पर तो एकत्रित कहीं न देखे थे। अब मैं क्या करूं? मैं तो आश्रम में ही रहने आई थी। क्या अब बुढ़ापे में अंग्रेजी सीखूं?
4—हमने प्रतिभावान व्यक्तियों की क्षमता का क्या उपयोग किया! आइंस्टीन ने खोज भौतिकी का गूढ़ रहस्य और हमने उससे हिरोशिमा व नागासाकी को जला कर राख कर दिया। कभी-कभी लगता है कि काश अगर न हुए होते जीसस और मोहम्मद तो इस पृथ्वी पर लाखों-करोड़ों लोगों का खून न बहा होता! धर्म तथा विज्ञान के जगत में मिले आज तक के सभी वरदान पंडितों, राजनीतिज्ञों के हाथों में पड़ कर मनुष्य-जाति के लिए अभिशाप सिद्ध हुए हैं। क्या भविष्य में इस दुर्भाग्य से बचने की संभावना है? कल आपने प्रतिभा को जन्माने की प्रक्रिया की चर्चा की, प्रतिभाओं का सम्यक उपयोग कैसे हो, इस संबंध में आपकी क्या दृष्टि है?
5—मैं कभी-कभी विश्वविद्यालय से स्नातक हुआ हूं। संसार को बदलने की बड़ी इच्छा है। इस महान कार्य के लिए शहीद भी होना पड़े तो मैं सहर्ष तैयार हूं। मार्गदर्शन दीजिए।

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-12

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
नियोजित संतानोत्पत्ति—(बारहवां प्रवचन)

दिनांक २२ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आपने योजनापूर्ण ढंग से संतानोत्पत्ति की बात कही और उदाहरण देते हुए कहा कि महावीर, आइंस्टीन, बुद्ध जैसी प्रतिभाएं समाज को मिल सकेंगी। मेरा प्रश्न है कि ये नाम जो उदाहरण के नाते आपने दिए, स्वयं योजित संतानोत्पत्ति अथवा कम्यून आधारित समाज की उपज नहीं थे। इसलिए केवल कम्यून से प्रतिभाशाली संतानोत्पत्ति की बात अथवा संतान का विकास समाज की जिम्मेवारी वाली बात पूरी सही नहीं प्रतीत होती।
2—क्या जीवन-मूल्य समयानुसार रूपांतरित होते हैं?
3—आप कहते हैं: न आवश्यकता है काबा जाने की, न काशी जाने की। क्या आपकी दृष्टि में स्थान का कोई भी महत्व नहीं है?
4—कल आपने एक कवि के प्रश्न के संबंध में जो कुछ कहा उससे मेरे मन में भी चिंता पैदा होनी शुरू हुई है। मैं हास्य-कवि हूं। इस संबंध में आपका क्या कहना है?
5—मेरी विनम्र लघु आशा है
बनूं चरण की दासी
स्वीकृत करो कि न करो
पर हूं मैं एक बूंद की प्यासी।

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-11

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

मेरा संदेश है: ध्यान में डूबो-(ग्यारहवां प्रवचन)
दिनांक २१ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—संबोधि क्या है? और संबोधि दिवस पर आपका संदेश क्या है?
2—जैसा आपने कहा कि जब हम सब जाग जाएंगे उस दिन आप हंसेंगे। क्या इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि हम आपको कभी हंसते नहीं देख सकेंगे?
3—जब भी कोई लड़की वाला मुझसे वर के रूप में देखने आता है तो मैं फौरन अपने कमरे में देववाणी ध्यान या सक्रिय ध्यान शुरू कर देता हूं। परिवार वाले इससे नाराज हैं। क्या और भी कोई सरल उपाय है?
4—राजनीति की मूल कला क्या है?
5—मैं एक कवि हूं पर कोई मेरी कविताएं पसंद नहीं करता है--न परिवार वाले, न मित्र, न परिचित। कविताएं मेरी प्रकाशित भी नहीं होतीं। लेकिन मैं तो अपना जीवन कविता को ही समर्पित कर चुका हूं। अब आपकी शरण आया हूं। आपका क्या आदेश है?

रविवार, 28 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

प्रार्थना की कला—(दसवां प्रवचन)
दिनांक २० मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—हे अनंत! अपने में ले ले,
तुम में मिल जाऊंगा अनजान
मिलकर तेरे साथ हृदय का,
पूरा कर लूंगा अरमान।
प्रभु, यही प्रार्थना है!
2—मैं युवा था तो कभी मृत्यु का विचार भी नहीं करता था और अब जब वृद्ध हो गया हूं तो मृत्यु सदा ही भयभीत करती है। मैं क्या करूं? क्या मृत्यु से छुटकारा संभव है?
3—मैं शांति चाहता हूं, पर घर में रह कर शांति कहां, और आप कहते हैं कि घर में रह कर ही सच्ची शांति पानी है। मेरी कुछ समझ में नहीं आता। सात बच्चे हैं, एक से एक बढ़ कर उपद्रवी, कर्कशा पत्नी है, सास अक्सर सिर पर सवार रहती है। ऐसे में क्या शांत होना संभव है?
4—पिछले दिनों जैन मुनि विद्यानंद मेरे गांव पधारे थे, चूंकि वे विश्व धर्म की जय बोलते हैं, मैंने निम्नलिखित प्रश्न उन्हें भेजे:
पहला--कल आपने कृष्ण को नारायण संबोधन दिया, पर जैन शास्त्रों के अनुसार वे सातवें नरक में है।
दूसरा--यहां कुछ लोग रजनीश के विधि-प्रयोग से ध्यान करते हैं पर संप्रदाय विशेष में जन्मे होने के कारण उस संप्रदाय के लोग विरोध करते हैं। कुछ कहें।
मेरा छोटा सा पर्चा पढ़ कर उत्तर देना तो दूर, उन्होंने कागज को ऐसे फेंका जैसे अंगारा उनके हाथ में आ गया हो और क्रोधित हो गए। बाद में प्रश्नकर्ता के बारे में उन्होंने पूछताछ की।
5आप हमें इतना हंसाते हैं मगर स्वयं कभी क्यों नहीं हंसते?

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

ध्यान का दीया—(नौवां प्रवचन)
दिनांक १९ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—अज्ञेयवाद (एग्नास्टिसिज्म) क्या है, जिसकी सराहना आप अक्सर करते हैं?
2—कई महात्मागण, साधु और मुनि आपकी बातें चुरा कर इस भांति बोलते हैं कि जैसे उन्हीं की हों। क्या इन्हें समय रहते रोकना आवश्यक नहीं है?

3—प्रायः सभी तथाकथित धर्मों में, खासकर ईसाइयत में प्रायश्चित्त को बड़ा धार्मिक गुण माना जाता है किंतु कल आपने बताया कि प्रायश्चित्त क्रोध का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। कृपा करके इस संदर्भ में आगे कुछ कहें।

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-08

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
अपने दीपक स्वयं बनो—(आठवां प्रवचन)
दिनांक १८ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—भक्ति, ज्ञान और कर्म स्वभाव से या प्रभाव से होता है? प्रभु, समझाने की कृपा करें!
2—परमात्मा को पाकर इस अनुभव को प्रकट क्यों नहीं किया जा सकता है?

पहला प्रश्न: भगवान,
भक्ति, ज्ञान और कर्म स्वभाव से या प्रभाव से होता है? प्रभु, समझाने की कृपा करें।

ओम,
यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है: या तो औरों की सुन कर, या अपनी सुनकर। या तो जीवन अनुकरण होता है और या जीवन स्वस्फूर्त। या तो भीतर की रोशनी से कोई चलता है, या उधार। जो उधार जीता है, व्यर्थ जीता है।

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-07

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

युवा होने की कला—(सातवां प्रवचन)
दिनांक १७ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आपने अक्सर भारत के बुढ़ापे की और उससे पैदा हुई उसकी जड़ता की चर्चा की है। कृपया बताएं कि क्या यह जाति फिर से युवा हो सकती है? और कैसे?
2—जाएंगे कहां सूझता नहीं
चल पड़े मगर रास्ता नहीं
क्या तलाश है कुछ पता नहीं
बुन रहे हैं ख्वाब दम-बदम!

पहला प्रश्न: भगवान,
आपने अक्सर भारत के बुढ़ापे की और उससे पैदा हुई उसकी जड़ता की चर्चा की है। कृपया बताएं कि क्या यह जाति फिर से युवा हो सकती है? और कैसे?

आनंद मैत्रेय,

शनिवार, 27 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

मुझको रंगों से मोह—(छठवां- प्रवचन)
दिनांक १६ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—आसक्ति क्या है? हम चीजों, विचारों और व्यक्तियों से इतने आसक्त क्यों हो जाते हैं? और क्या आसक्ति से छुटकारा भी है?
2—मैं प्रार्थना करना चाहती हूं। क्या प्रार्थना करूं, कैसे प्रार्थना करूं, इसका मार्गदर्शन दें।
3—आप दल-बदलुओं के संबंध में क्यों कुछ नहीं कहते? इनके कारण ही तो देश की बरबादी हो रही है।

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

हंसा, उड़ चल वा देस—(पांचवां-प्रवचन)
दिनांक १५ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1--प्रश्न कुछ बनता नहीं, पता नहीं कुछ पूछना भी चाहती हूं या नहीं, पर आपसे कुछ सुनना चाहती हूं। मेरे लिए मेरा नाम मत लेना।
2—हमें किसी से प्रेम है या मोह है, यह कैसे जाना जा सकता है?
3—लल्लू के पट्ठों के संबंध में थोड़ा कुछ और कहें!

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
जीवन एक अभिनय—(चौथा प्रवचन)
दिनांक १४ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:

1—क्या इस बार फिर मैं आपको चूक जाऊंगा?
2—कल आपने मंगलदास को कहा कि पुराने संन्यास में डर नहीं है, नव-संन्यास में डर है। लेकिन मेरी पत्नी मेरे पुराने संन्यास व्रत-नियम आदि से डरती थी और अब पांच वर्षों से मेरे नव-संन्यास से वह डरती नहीं बल्कि उसे श्रद्धापूर्वक लेती है। वह भी आपकी संन्यासिनी है और मस्त है।
3—कल आपने वह प्यारी लखनवी कहानी कही। उत्सुकता है जानने की कि फिर उन छह-छह इंच ऊंचे और साठ-साठ वर्ष बूढ़े दोनों भाइयों का आगे क्या हुआ!

गुरुवार, 25 मई 2017

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
मेरा संन्यास वसंत है(तीसरा प्रवचन)
दिनांक १३ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

1—मैं आपके नव-संन्यास से भयभीत क्यों हूं? वैसे पुराने ढंग के संन्यास से मुझे जरा भी भय नहीं लगता है।

पहला प्रश्न: भगवान,
मैं आपके नव-संन्यास से भयभीत क्यों हूं? वैसे पुराने ढंग के संन्यास से मुझे जरा भी भय नहीं लगता है।
मंगलदास,
नए से सदा भय लगता है--नए के कारण ही। मन पुराने से सदा राजी होता है; क्योंकि मन पुराने में ही जीता है। नये में मन की मृत्यु है, पुराने में मन का पोषण है। जितना पुराना हो, मन उससे उतना ही ज्यादा राजी होता है। जितना नया हो, मन उतना ही घबड़ाता है उतना ही भागता है।
मन की पूरी प्रक्रिया तुम्हें समझनी होगी। मन का अर्थ ही होता है--अतीत। जो बीत गया, उस के संग्रह का नाम मन है। वर्तमान क्षण का कोई मन नहीं होता। बीते सारे कल, उनकी छापें, उनके संस्कार--वही तुम्हारा मन है। थोड़ी देर को अतीत को हटा कर रख दो, फिर क्या बचता है मन में? एक-एक ईंट अतीत की अलग कर लो और मन का भवन गिर जाता है। अतीत का कुछ न बचे तो मन को बचा पाओगे? मन का बचना असंभव हो जाएगा। मन तो अतीत का जोड़ है।

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

खोलो शून्य के द्वार—(दूसरा प्रवचन)
दिनांक १२ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

1—अभी न ले जाएं उस पार
इन अंधियारी रातों में अब
चंदा देखा पहली बार
क्षण भर तो जी लेने दें अब
रुक कर निरख तो लेने दें अब
कुछ कह लेने कुछ सुन लेने दें
भ्रम है सपना है यह कह कर
अभी न खोलें शून्य के द्वार
अभी न ले जाएं उस पार
2—आप क्या कहते हैं, मैं समझ नहीं पाता हूं। क्या करूं?
3—क्या संसार में कोई भी अपना नहीं है?

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-01

प्रितम छवि नैनन बसी-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

तेरी जो मर्जी-(पहला प्रवचन)
दिनांक ११ मार्च, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना

1—नई प्रवचनमाला को आपने नाम दिया है: प्रीतम छबि नैनन बसी! क्या इसके अभिप्राय पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

2—मैं अत्यंत आलसी हूं। इससे भयभीत होता हूं कि मोक्ष-उपलब्धि कैसे होगी। मार्ग-दर्शन दें!

3—बस यही एक अभीप्सा है:
मौन के गहरे अतल में डूब जाऊं
छूट जाए यह परिधि परिवेश
शब्दों का महत व्यापार
सीखा ज्ञान सारा
और अपने ही निबिड़ एकांत में
बैठा हुआ चुपचाप
अंतरलीन हो
सुनता रहूं मैं शून्य का संगीत
प्रतिपल।

बुधवार, 24 मई 2017

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-06

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्रनोंत्तर)-ओशो

दिनांक 13 जून सन् 1967 अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-छट्ठवां-(जीवन है द्वार)

मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं--एक मित्र ने पूछा है कि हमारे देश की क्या यह सबसे बड़ी बीमारी नहीं रही कि हमने बहुत ऊंचे विचार किए, लेकिन व्यवहार बहुत नीचा किया। सिद्धांत ऊंचे और कर्म बहुत नीचा। इसीलिए बहुत बड़े-बड़े व्यक्ति तो पैदा हो सके, लेकिन, भारत में एक बड़ा समाज नहीं बन सका?
इस संबंध में दो तीन बातें समझनी उपयोग की होंगी। पहली बात तो यह--यदि विचार श्रेष्ठ हो तो कर्म अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ हो जाता है। इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं है कि विचार हमारे श्रेष्ठ थे और फिर कर्म हमारा निकृष्ट रहा। श्रेष्ठ विचार अनिवार्यरूपेण श्रेष्ठ कर्म के जन्मदाता बनते हैं। अगर श्रेष्ठ कर्म न जन्मा हो तो जानना कि विचार ही भ्रांत रहे होंगे, श्रेष्ठ न रहे होंगे। यह असंभव है कि विचार सत्य के हो और आचरण असत्य की और चला जाए। यह असंभव है कि ज्ञान तो स्पष्ट हो और जीवन भटक जाए। यह तो ऐसे ही हुआ कि हम कहें कि आंख तो बिलकुल ठीक थी लेकिन फिर भी हम दीवार से टकरा गए। दरवाजे से न निकल सके। अगर दीवार से टकरा गए हैं, तो आंख ठीक न रही होगी। आंख वीक रही होती तो दरवाजे से निकल गए होते। दीवार से टकराने की कोई जरूरत न थी।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 10 जून 1969, शाम अहमदाबाद-चांदा।
प्रवचन-पांचवा-(साक्षी भाव है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,
पिछली चर्चाओं के आधार पर मित्रों ने बहुत से प्रश्न पूछे हैं एक मित्र ने पूछा है कि आप गांधीजी की भांति हरिजनों के घर में क्यों नहीं ठहरते हैं?

एक छोटी सी कहानी से समझाऊं। जर्मनी का सबसे बड़ा पादरी आर्च प्रीस्ट एक छोटे-से गांव के चर्च का निरीक्षण करने गया था। नियम था कि जब वह किसी चर्च की निरीक्षण करने जाए तो चर्च कि घंटियां उसके स्वागत में बजाई जाती थीं। लेकिन उस गांव के चर्च की घंटियां न बजीं। जब वह चर्च के भीतर पहुंचा तब उसने उस चर्च के पादरी को पूछा कि मेरे स्वागत में घंटियां बजती हैं हर चर्च की। तुम्हारे चर्च की घंटी क्यों नहीं बजी? उस पादरी की आदत थी, कि वह कोई भी कारण बताए, तो उसका तकिया कलाम था, वह इसी में शुरू करता था, कि इसके हजार कारण है। उसने कहा--इसके हजार कारण हैं। पहला कारण तो यह कि चर्च में घंटी भी नहीं है। उस आर्च प्रीस्ट ने कहा, बाकी कारण रहने दो, उनके बिना भी चल जाएगा। यह एक ही कारण काफी है।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जून 1969; सुबह अहमदाबाद-चांदा ।
प्रवचन—चौथा-(ध्यान है द्वार)

संदेह पूर्ण हो तो संदेह से मुक्ति हो जाती है। विचार पूर्ण हो तो विचार से भी मुक्ति हो जाती है। असल में जो भी पूर्ण हो जाए उससे ही मुक्ति हो जाती है। सिर्फ अधूरा बांधता है। अर्द्व बांधता है। पूर्ण कभी भी नहीं बांधता है। लेकिन संदेह पूर्ण नहीं हो पाता और विचार भी पूर्ण नहीं हो पाता। जो संदेह भी करते हैं वे भी पूरा संदेह नहीं करते हैं। जो संदेह करते हुए मालूम होते हैं,उनकी भी आस्थाएं हैं। उनकी भी श्रद्धाएं है। उनका भी अंधापन है। और जो विचार करते हैं वे भी पूरा विचार नहीं करते। वे भी कुछ चीजों का बिना विचारे ही स्वीकार कर लेते हैं। संदेह वाला भी विचार को बिना विचारे स्वीकार कर लेता है। यदि कोई पूर्ण संदेह करेगा तो अंततः संदेह के ऊपर भी संदेह आ जाएगा। और यह सवाल उठेगा कि मैं संदेह भी क्यों करूं? और यह भी सवाल उठेगा--क्या संदेह से कुछ मिल सकता है? जो विचार पूर्ण करेगा, अंततः उसे यह भी ज्ञात होगा कि क्या विचार से उसे जाना जा सकता है, जिसे मैं नहीं जानता हूं? और क्या विचार से जो जाना जाएगा वह सत्य होगा ही? इस संबंध में कल थोड़ी सी बातें सुबह मैंने कहीं--

मंगलवार, 23 मई 2017

पोनी-(एक कुत्ते की आत्म कथा)-अध्याय-07

अध्‍याय—7 (चिडियाओं का उड़ाना)

 टोनी के साथ खेलना बहुत अच्छा लगता था। एक बात और, टोनी को देख कर पहले मुझे जितना बुरा लगा, वा इतना बुरा नहीं था, वो मेरी भूल या जलन कह लो वह तो बहुत ही अच्छा था। सच कहुँ तो मुझे वह बहुत अच्छा लगने लगा था, उसके संग साथ चिपट के सोना, कैसे नरम मुलायम बाल थे उसके जब शेम्पो से धोएं होते तो केसी मधुर—मन मोहक महक आती थी। जब दोनों को खेल मैं बहुत मस्ती चढ़ जाती आपस मैं खेलते हुये जो भी पास मैं सुविधा जनक चीज़ पकड़ मैं आ जाती उसी से हम दोनों छीना झपट कर खेलना शुरू कर देते थे। अब हमारे लिए विशेष खिलौनों की आवश्यकता नहीं थी, फिर लाता भी कौन हिमांशु भैया के पास तो खिलौनों की पुरी दुकान थी। वो तो स्कूल गया होता था, मैं और टोनी उन्हे निकाल कर खूब मुहँ से पकड़ के नोचते, खिंचते, फ्फेड़ते और खूब भागते थे।
परन्तु कभी—कभी हम खेल की मस्ती मैं ऐसी चीजों से भी खेलने लग जाते थे जिसके पीछे हमे डाँट क्या एक आध चपत भी खाना पड़ता जाता था। जैसे दाँत साफ करने की बुरुश, पेस्ट, कंघी या चप्पल ऐसे ही कोई भी सामान पड़ा मिल जाता फिर उसकी खेर नहीं समझो। नये—नये निकलते सुई की तरह नुकीले दाँतों मै ने जाने क्यो इतनी खुजली होती थी।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-03

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो
दिनांक 09 जून, 1969 रात्रि अहमदाबाद-चांदा
प्रवचन-तीसरा-(तुलना रहितता है द्वार)

बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि मेरे विचार एम. एन. राय के विचारों से नहीं मिलते हैं? एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि मैं माओ के विचार से सहमत हूं। एक तीसरे मित्र ने पूछा है कि क्या कृष्णमूर्ति और मेरे विचारों के बीच कोई समानता है? और इसी तरह के कुछ और प्रश्न भी मित्रों ने पूछे हैं।
इस संबंध में कुछ बात समझ लेनी उपयोगी होगी। पहली बात तो यह कि मैं किसी से प्रभावित होने में या किसी भी प्रभावित करने में विश्वास नहीं करता हूं। प्रभावित होने और प्रभावित करने दोनों को, आध्यात्मिक रूप से बहुत खतरनाक, विषाक्त बीमारी मानता हूं। जो व्यक्ति प्रभावित करने की कोशिश करता है वह दूसरे की आत्मा को नुकसान पहुंचाता है। और जो व्यक्ति प्रभावित होता है। वह अपनी ही आत्मा का हनन करता है। लेकिन इस जगत में बहुत लोगों ने सोचा है, बहुत लोगों ने खोजा है। अगर आप भी खोज करने निकलेंगे तो उस खोज के अंतहीन रास्ते पर, उस विराट जंगल में जहां बहुत से पथ-पगडंडिया हैं बहुत बार बहुत से लोगों से थोड़ी देर के लिए मिलना हो जाएगा और फिर बिछुड़ना हो जाएगा।

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02

प्रभु मंदिर के द्वार-(अहमदाबाद-चांदा)-ओशो

दिनांक 09 जून सन् 1969
प्रवचन-दूसरा-(प्रवाह शीलता है द्वार)

विश्वास अंधा द्वार है। अर्थात विश्वास द्वार नहीं है, केवल द्वार का मिथ्या आभास है। मनुष्य जो नहीं जानता है उसे इस भांति मान लेता है, जैसे जानता हो। मनुष्य के पास जो नहीं है, उसे वह इस भांति समझ लेता है वह उसके साथ हो। और तब खोज बंद हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।
मैंने सुना है, एक अंधेरी रात में एक जंगल से दो संन्यासी गुजरते थे। एक वृद्ध संन्यासी है, एक युवा संन्यासी है। अंधेरी रात है। बियावान जंगल है। अपरिचित रास्त है, गांव कितनी दूर है, कुछ पता नहीं। वह वृद्ध संन्यासी तेजी से भागा चला जाता है। कंधे पर झोला लटकाया है, उस जोर से हाथ से पकड़े हुए हैं। और बार-बार अपने युवा संन्यासी से पूछता है, कोई खतरा तो नहीं, कोई भय तो नहीं, कोई चिंता तो नहीं? युवा संन्यासी बहुत हैरान है, क्योंकि संन्यासी को भय कैसा, खतरा कैसा? और अगर संन्यासी को भय हो, खतरा हो, तो फिर ऐसा कौन होगा जिसे भय न हो, खतरा न हो?

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रशनोंत्तर)-प्रवचन-01

प्रभु मंदिर के द्वार-(प्रशनोंत्तर)-ओशो

दिनांक 08 जून सन् 1969 अहमदाबाद-चांदा 
प्रवचन-पहला-(समग्रता है द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन,
सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पूछा है कि क्या ईश्वर है, जिसकी हम खोज करें? और भी दो तीन मित्र ने ईश्वर के संबंध में ऐसे ही प्रश्न पूछे हैं कि क्या आप ईश्वर को मानते हैं, क्या अपने ईश्वर का दर्शन किया है? कुछ मित्रों ने संदेह किया है कि ईश्वर तो नहीं है, उसको खोजें ही क्यों?

इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी होगा। मैं जब परमात्मा का, प्रभु का, या ईश्वर शब्द का प्रयोग करता हूं तो मेरा प्रयोजन है, उससे जो है। दैट, व्हिच इज। जो है। जीवन है। अस्तित्व है। हम नहीं थे तब भी अस्तित्व था। हम नहीं होंगे, तब भी अस्तित्व होगा। हमारे भीतर भी अस्तित्व है। जीवन है। जीवन की यह समग्रता, यह टोटलिटी ही परमात्मा है। इस जीवन का हमें कुछ भी पता नहीं, किया क्या है? स्वयं के भीतर भी जो जीवन है उसका भी हमें कोई पता नहीं कि वह क्या है?
एक फकीर था बायजीद--कोई उसके द्वार पर दस्तक दे रहा है। और कह रहा है, द्वार खोलो।

शुक्रवार, 19 मई 2017

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-10

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 10 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-दसवां-(प्रश्न-सार)

01—पिय को खोजन मैं चली, पिया मिलन कैसे हो?
02—कुछ दिनों से आप आंखों से पिलाते हैं, लेकिन मदहोश आंखें ढल जाती हैं। तत्क्षण अहोभाव में डूब जाता हूं और हृदय से पुकार उठती है:
गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं,
दीजो ध्यान हरिगुन गाऊं।
मन तड़पत हरि-दर्शन को आज।
03—क्या मारवाड़ियों में कुछ प्रशंसाऱ्योग्य नहीं होता है?

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-09

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 09 जून सन् 1980,
ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-नौवां-(प्रश्न-सार)

01—बेइरादा नजर तुमसे टकरा गई,
जिंदगी में अचानक बहार आ गई।
मौत क्या है जमाने को समझाऊं क्या,
एक मुसाफिर को रस्ते में नींद आ गई।
रुख से परदा उठा, चांद शरमा गया,
जुल्फ बिखरी तो काली घटा छा गई।
दिल में पहले सी अब वो हलचल नहीं,
अब मुहब्बत में मिटने की घड़ी आ गई।

02—अगर एक पुरुष अपनी पत्नी से कामत्तुष्टि नहीं पाता है तो वह दूसरी स्त्रियों के पास जाता है। ऐसा करने से वह एक अपराध-भाव अनुभव करता है, क्योंकि उसे पत्नी से और सब सुविधाएं मिलती हैं, और वह उन सब बातों के लिए उसे चाहता है। जब वह अपराध-भाव अनुभव करता है तो उसका मन तनाव से घिर आता है। उसे क्या करना चाहिए कि उसका मन तनावग्रस्त न हो अथवा उसे अपनी कामत्तृप्ति के लिए कहीं जाना बंद कर देना चाहिए?

03—आपके विवाह-संबंधी विचार सुन-समझकर, विवाह करने की इच्छा ही उड़ गई; परंतु ऐसे महत्वपूर्ण अनुभव से गुजरे बगैर रहा भी नहीं जा सकता। मुझ त्रिशंकु का मार्ग-दर्शन करें!

04—आप दलबदल करने वाले राजनीतिज्ञों के संबंध में क्या कहते हैं?

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-08

पिया को खोजन मैं चली-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

दिनांक 08 जून सन् 1980ओशो आश्रम पूना।
प्रवचन-आट्ठवां-
(प्रश्न-सार)

01—मीरा मेरी प्रेरणा-स्रोत रही है और कृष्ण मेरे इष्टदेव। शांत क्षणों में मैंने भी मीरा जैसे भक्ति-भाव की कल्पना तथा चाह की है और उसी के अनुरूप कुछ प्रयास भी किया। मगर प्राणों में उतनी पुलक नहीं उठी कि मैं नाच सकूं। फिर मैं आपके संपर्क में आया; आपका शिष्य हुआ। मैं तरंगित हुआ; मैं रोया; मैं हंसा। मगर कृष्ण से अब कुछ लगाव नहीं रहा। अब तो उस छवि के पास आते और आंखें मिलाते भी संकोच लगता है, जिसे मैंने वर्षों पूजा, जिसकी अर्चना की। यह क्या है भगवान?
02—उज्जैन के सिंहस्थ मेले में उस स्थान पर काफी भीड़ होती थी जहां नागा साधु लैंगिक प्रदर्शन करते थे। जैसे लिंग से बांध कर जीप गाड़ी को खींचना, आदि। क्यों नग्न प्रदर्शन करने व देखने में लोग उत्सुक होते हैं और उनकी तारीफ करते हैं? और जब आपके आश्रम में ऐसा कोई कृत्य नहीं होता, फिर भी लोग क्यों आप पर और आपके आश्रम पर नाराज हैं?
03—मैं जल्दी से जल्दी दुख से मुक्ति चाहता हूं और मोक्ष का आनंद भी। कोई मार्ग बतावें।