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मंगलवार, 31 मई 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--11)

मन बनिया बान न छोड़ै—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)
दिनांक 21 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र:

मन बनिया बान न छोड़ै।।
पूरा बांट तरे खिसकावै, घटिया को टकटोलै।
पसंगा मांहै करि चतुराई, पूरा कबहुं न तौले।।
घर में वाके कुमति बनियाइन, सबहिन को झकझोलै।
लड़िका वाका महाहरामी, इमरित में विष घोलै।।
पांचतत्त का जामा पहिरे, एंठा-गुइंठा डोलै।
जनम-जनम का है अपराधी, कबहूं सांच न बोलै।।
जल में बनिया थल में बनिया, घट-घट बनिया बोलै।
पलटू के गुरु समरथ साईं, कपट गांठि जो खोलै।।

जहां कुमति कै बासा है, सुख सपनेहुं नाहीं।।
फोरि देति घर मोर तोर करि, देखै आपु तमासा है।।
कलह काल दिन रात लगावै, करै जगत उपहासा है।।
निर्धन करै खाए बिनु मारै, अछत अन्न उपवासा है।।
पलटूदास कुमति है भोंड़ी, लोक परलोक दोउ नासा है।।

सोमवार, 30 मई 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--10)

प्रेम तुम्हारा धर्म हो—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक 20 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार:

1—प्रार्थना क्या है?

2—आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे। दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।

3—देश की स्थिति रोज-रोज बिगड़ती जाती है। आप इस संबंध में कुछ क्यों नहीं कहते हैं?

4—मैं विवाह करूं या नहीं? और स्वयं की पसंदगी से करूं या कि घरवालों की इच्छा से?

शनिवार, 28 मई 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--09)

चलहु सखि वहि देस—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक 19 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र:

चलहु सखी वहि देस, जहवां दिवस न रजनी।।
पाप पुन्न नहिं चांद सुरज नहिं, नहीं सजन नहीं सजनी।।
धरती आग पवन नहिं पानी, नहिं सूतै नहिं जगनी।।
लोक बेद जंगल नहिं बस्ती, नहिं संग्रह नहिं त्यगनी।।
पलटूदास गुरु नहिं चेला, एक राम रम रमनी।।


चित मोरा अलसाना, अब मोसे बोलि न जाई।।
देहरी लागै परबत मोको, आंगन भया है बिदेस।
पलक उघारत जुग सम बीते, बिसरि गया संदेस।।
विष के मुए सेती मनि जागी, बिल में सांप समाना।
जरि गया छाछ भया घिव निरमल, आपुई से चुपियाना।।
अब न चलै जोर कछु मोरा, आन के हाथ बिकानी।
लोन की डरी परी जल भीतर, गलिके होई गई पानी।।
सात महल के ऊपर अठएं, सबद में सुरति समाई।
पलटूदास कहौं मैं कैसे, ज्यों गूंगे गुड़ खाई।।

गुरुवार, 26 मई 2016

कहे होत अधीर--(प्रवचन--08)

प्रेम एकमात्र नाव है—(प्रवचन—आठवां)
दिनांक 18 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार :

1—आपने कहा कि गणित या ज्ञान से उपजा वैराग्य झूठा है; प्रेमजनित वैराग्य ही वैराग्य है। लेकिन प्रेम तो राग लाता है; उससे वैराग्य कैसे फलित होगा?
2—आप कहते हैं कि जीवित बुद्ध ही तारते हैं। तब यह कैसी विडंबना है कि बुद्धों को जीते जी निंदा मिलती है और मरने पर पूजा? यह कैसा विधान है?
3—मैं परम आलसी हूं। क्या मैं भी परमात्मा को पा सकता हूं?



पहला प्रश्न:

भगवान! आपने कहा कि गणित या ज्ञान से उपजा वैराग्य झूठा है; प्रेमजनित वैराग्य ही वैराग्य है। लेकिन प्रेम तो राग लाता है; उससे वैराग्य कैसे फलित होगा?

बुधवार, 25 मई 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--07)

साहिब से परदा न कीजै—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक 17 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सारसूत्र :


बनत बनत बनि जाई, पड़ा रहै संत के द्वारे।।
तन मन धन सब अरपन कै कै, धका धनी के खाय।
मुरदा होय टरै नहिं टारै, लाख कहै समुझाय।
स्वान-बिरति पावै सोई खावै, रहै चरन लौ लाय।
पलटूदास काम बनि जावै, इतने पर ठहराय।।


मितऊ देहला न जगाए, निंदिया बैरिन भैली।।
की तो जागै रोगी, की चाकर की चोर।
की तो जागै संत बिरहिया, भजन गुरु कै होय।।
स्वारथ लाय सभै मिलि जागैं, बिन स्वारथ न कोय।
पर स्वारथ को वह नर जागै, किरपा गुरु की होय।।
जागे से परलोक बनतु है, सोए बड़ दुख होय।
ज्ञान-खरग लिए पलटू जागै, होनी होय सो होय।।

मंगलवार, 24 मई 2016

कोपलें फिर फूट आई--(प्रवचन--12)

कोंपलें फिर फूट आई शाख पर—(प्रवचन—बारहवां)
     दिनांक: 15 अगस्त, 1986, 
      सुमिला, जुहू, बंबई
प्रश्‍नसार—
      1—इस देश में ध्‍यान को गौरी शंकर की ऊँचाई मिली। शिव, पतंजलि,महावीर, बुद्ध, गोरख जैसी अप्रतिम प्रतिभाएं साकार हुई। फिर भी किस कारण से ध्‍यान को प्रति आकर्षण कम होता गया?
      2—उस दिन आपने कहा कि मैं अराजकवादी हूं, अनार्किस्‍ट हूं। इसे स्‍पष्‍ट करने की कृपा करे।
      अपराध,दंड ओर अपाराध—भाव की समस्‍याएं समय ओर स्‍थान के भेद से बदलती रहती है। लेकिन वे किसी ने किसी रूप में सदा ओर सर्वत्र मनुष्य का पीछा करती है। क्‍या इन पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करेंगे?

शनिवार, 21 मई 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--06)

क्रांति की आधारशिलाएं—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक 16 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार:

1—मेरा खयाल है कि आपके विचारों में, आपके दर्शन में वह सामर्थ्य है, जो इस देश को उसकी प्राचीन जड़ता और रूढ़ि से मुक्त करा कर उसे प्रगति के पथ पर आरूढ़ करा सकती है। लेकिन कठिनाई यह है कि यहां के बुद्धिवादी और पत्रकार आपको अछूत मानते हैं और आपके विचारों को व्यर्थ प्रलाप बताते हैं। इससे बड़ी निराशा होती है। कृपा कर मार्गदर्शन करें।

2—आप तो कहते हैं, हंसा तो मोती चुगै। लेकिन आज तो बात ही दूसरी है। आज का वक्त तो कहता है: हंस चुनेगा दाना घुन का, कौआ मोती खाएगा। और इसका साक्षात प्रमाण है तथाकथित पंडित-पुरोहितों को मिलने वाला आदर-सम्मान और आप जैसे मनीषी को मिलने वाली गालियां।

कोपलें फिर फूट अाई--(प्रवचन--11)

प्रेम का जादू सिर चढ़कर बोले—( प्रवचन—ग्यारहवां)
दिनांक: 9 अगस्त, 1986,
7.00 संध्या, सुमिला, जुहू, बंबई
प्रश्‍नसार:
1— भगवान, हमें जो आपमें दिखाई पड़ता है, वह दूसरों को दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा क्यों है भगवान? क्या जन्मों-जन्मों में ऐसा कुछ अर्जन करना होता है?
2—आपसे मैं मोहब्‍बत करती हूं। मेरी भौतिक देह ही सिर्फ पुरूष की है, बाकी तो मैं ह्रदय से मन आपकी प्रेमिका हूं। मेरे संन्‍यासी मित्र मुझ पर दबाव डालते है कि मैं लडकी से शादी कर लूं। मैं उसे कैसे समझाऊं की एक स्‍त्री दूसरी स्‍त्री से कैसे शादी कर सकती है?
3—अभिमान ओर स्‍वाभिमान में क्‍या भिन्‍नता है?
4—सन् 1971 में पहली बार आपको देखा ओर आपका प्रवचन सुना था, तब से आपके प्रेम में हूं, दुर्भाग्‍यवश मेरे परिवार ओर रिश्‍तेदारो में एक भी व्‍यक्‍ति आपमें रूचि नही रखता।......क्‍या यह विरोध समाप्‍त होगा? या कि यह मेरे पूरे जीवन जारी रहेगा?

शुक्रवार, 20 मई 2016

कोपलें फिर फूट आईं--(प्रवचन--10)

वर्तमान संस्कृति का कैंसर: महत्वाकांक्षा—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक : 8 अगस्त, 1986,
7.00 संध्या, सुमिला, जुहू, बंबई।
प्रश्‍नसार:
1— भगवान, आज सारी दुनिया में आतंकवाद (टेरेरिज्म) छाया हुआ है। मनुष्य की इस रुग्णता और विक्षिप्तता का मूल स्रोत क्या है? यह कैसे निर्मित हुआ? इसका निदान और इसकी चिकित्सा क्या है? क्या आशा की जा सकती है, कि कभी मनुष्यता आतंकवाद से मुक्त हो सकेगी?
2—मेरा मार्ग क्‍या है? बताने की अनुकंपा करें।
3—क्‍या इस यात्रा का कोई अंत नहीं है?
4—बुद्ध को तो उनके महापरिनिर्वाण के बाद भारत ने विदा किया ओरविश्‍व ने अपनाया। आपकोदुनया भर से निष्‍कासित किया गया, जब कि विश्‍व शिक्षित हो चुका है। यह सब से बड़े दुख की बात है।.........
5—आपने विश्‍व भर में इतने संन्‍यासियों को असीम प्रेम किया है उसका कोई ऋण चुका सकता नहीं।फिर भी कितने ऐसे संन्‍यासी है जो आपकी कृपा के बहुत नजदीक थे, तब भी वह ही अब जुदास की तरह आपसे वर्तव कर रहे है। जुदास की यह परंपरा क्‍या कभी बंद न होगी? ओर उनका क्‍या राज है?

काहे होत अधीर--(प्रवचन--05)

बैराग कठिन है—(प्रवचन—पांचवां)

दिनांक 15 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना

सारसूत्र :


जनि कोई होवै बैरागी हो, बैराग कठिन है।।

जग की आसा करै न कबहूं, पानी पिवै न मांगी हो।

भूख पियास छुटै जब निंद्रा, जियत मरै तन त्यागी हो।।

जाके धर पर सीस न होवै, रहै प्रेम-लौ लागी।

पलटूदास बैराग कठिन है, दाग दाग पर दागी हो।।



अब तो मैं बैराग भरी, सोवत से मैं जागि परी।।

नैन बने गिरि के झरना ज्यों, मुख से निकरै हरी-हरी।

अभरन तोरी बसन धै फारौं, पापी जिव नहिं जात मरी।।

लेउं उसास सीस दै मारौं, अगिनि बिना मैं जाऊं जरी।

नागिनि बिरह डसत है मोको, जात न मोसे धीर धरी।।

सतगुरु आई किहिन बैदाई, सिर पर जादू तुरत करी।

पलटूदास दिया उन मोको, नाम सजीवन मूल जरी।।




जल औ मीन समान, गुरु से प्रीति जो कीजै।।

जल से बिछुरै तनिक एक जो, छोड़ि देति है प्रान।

मीन कहै लै छीर में राखे, जल बिनु है हैरान।।

जो कछु है सो मीन के जल है, उहिके हाथ बिकान।

पलटूदास प्रीति करै ऐसी, प्रीति सोई परमान।।

गुरुवार, 19 मई 2016

कोपले फिर फूट आईं--(प्रवचन--09)

ध्यान तंत्र के बिना लोकतंत्र असंभव—(प्रवचन—नौवां)
दिनांक : 7 अगस्त, 1986, 7.00 संध्या,
सुमिला, जुहू, बंबई
प्रश्‍नसार—
1—भगवान, विचार अभिव्यक्ति और वाणी-स्वतंत्रता लोकतंत्र का मूल आधार है। आपकी बातों से कोई सहमत हो या अपना विरोध प्रकट करे, इसके लिए वह स्वतंत्र है। लोग विरोध तो करते हैं, लेकिन व्यक्ति को अपना काम करने की स्वतंत्रता नहीं देना चाहते। ऐसा क्यों?
2—आपको ऐसा करना चाहिए और वैसा नहीं करना चहिए, यह ठीक है और वह गलत है, ऐसी चर्चा अक्‍सर हमआपके प्रेमी किया करते है। ऐसी चर्चाओं से ऐसा लगता है, जैसे हम आपसे ज्‍यादा जानते है ओर आपसे ज्‍यादा समझदार है।
3—तेरह वर्ष पहले आपने मुझे संन्‍यासी बना कर नया जीवन दिया। इस पूरे समय में आपने बहुत दिया।पूरा जीवन बदल गया। फिरभी प्‍यास बढ़ती जा रही है। आपके निकट रहने का भाव तीव्र होता जा रहा है। अब क्‍या करू? इस विरह में धैर्य रख सकूं, इसके लिए आप ही शक्‍ति देना।

काहे होत अधीर--(प्रवचन--04)


मौलिक धर्म—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक 14 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
प्रश्न-सार :


1—बुनियादी रूप से आप धर्म के प्रस्तोता हैं--वह भी मौलिक धर्म के। आप स्वयं धर्म ही मालूम पड़ते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि अभी आपका सबसे ज्यादा विरोध धर्म-समाज ही कर रहा है! दो शंकराचार्यों के वक्तव्य उसके ताजा उदाहरण हैं। क्या इस पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?



2—मैं बुद्ध होकर मरना नहीं चाहती; मैं बुद्ध होकर जीना चाहती हूं।



3—आप कहते हैं कि जीवन में कुछ मिलता नहीं। फिर भी जीवन से मोह छूटता क्यों नहीं? समझ में बात आती है और फिर भी समझ में नहीं आती; समझ में आते-जाते छूट जाती है, चूक जाती है।

बुधवार, 18 मई 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--03)



साजन-देश को जाना—(प्रवचन—तीसरा)
दिनांक 13 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना
सूत्र:

जेकरे अंगने नौरंगिया, सो कैसे सोवै हो।
लहर-लहर बहु होय, सबद सुनि रोवै हो।।
जेकर पिय परदेस, नींद नहिं आवै हो।
चौंकि-चौंकि उठै जागि, सेज नहिं भावै हो।।
रैन-दिवस मारै बान, पपीहा बोलै हो।
पिय-पिय लावै सोर, सवति होई डोलै हो।।
बिरहिन रहै अकेल, सो कैसे कै जीवै हो।
जेकरे अमी कै चाह, जहर कस पीवै हो।।
अभरन देहु बहाय, बसन धै फारौ हो।
पिय बिन कौन सिंगार, सीस दै मारौ हो।।
भूख न लागै नींद, बिरह हिये करकै हो।
मांग सेंदुर मसि पोछ, नैन जल ढरकै हो।।
केकहैं करै सिंगार, सो काहि दिखावै हो।
जेकर पिय परदेस, सो काहि रिझावै हो।।
रहै चरन चित लाई, सोई धन आगर हो।
पलटूदास कै सबद, बिरह कै सागर हो।।

कोपले फिर फूट आई--(प्रवचन--08)

सदगुरु शिष्य की मृत्यु है—(प्रवचन—आठवां)
6 अगस्त, 1986, 7.00 संध्या,
सुमिला जुहू, बंबई
प्रश्‍नसार:
1— भगवान, एक शिष्य ने सदगुरु से पूछा, मैं आपसे एक प्रश्न करूं? सदगुरु ने उत्तर दिया, व्हाई यू वांट टू वुण्ड यारेसेल्फ?
2—आपके स्‍वास्‍थ्‍य को देख कर बहुत चिंता होती है। आपने दुनिया को समझाने में अपनी आत्‍मा उंडेल रख दी, लेकिन लोग बदलने की बजाय आपको मिटा देना चाहित है। आप इतना श्रम क्‍यों कर रहे है?
3—क्‍या आपने अब संन्‍यास—दीक्षा देनी ओर शिष्‍य बनाना बंद कर दिया है? क्‍या मैं आपका शिष्‍य बनने से बंचित ही रह जाऊंगा?
4—आप कहते है कि जहां हो वहीं रहो, जो करते हो वही करो। फिर आप इधर—उधर क्‍यों भागते हैं?

मंगलवार, 17 मई 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--02)

अमृत में प्रवेश—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 12 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न-सार :

1—कोई तीस वर्ष पूर्व, जबलपुर में, किसी पंडित के मोक्ष आदि विषयों पर विवाद करने पर दद्दाजी ने कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें, मैं तो अपनी जानता हूं कि यह मेरा अंतिम जन्म है।
एक और अवसर पर कार्यवश वे काशी गए थे। किसी मुनि के सत्संग में पहुंचे। दद्दाजी को अजनबी पा प्रवचन के बाद मुनि ने पूछा, आज से पूर्व आपको यहां नहीं देखा!
कहा, हां, मैं यहां का नहीं हूं।
पूछा, आप कहां से आए हैं और यहां से कहां जाएंगे?
कहा, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।
पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर, मां को चिंतित पाकर उन्होंने कहा था, चिंता न लो। अभी पांच वर्ष मेरा जीवन शेष है।
उनकी इन उद्घोषणाओं के रहस्य पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

2—संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ। इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं।

रविवार, 15 मई 2016

काहे होत अधीर--(प्रवचन--01)


पाती आई मोरे पीतम की—(प्रवचन—पहला)

दिनांक 11 सितम्‍बर सन् 1979,
ओशो आश्रम पूना।
सूत्र:
पूरन ब्रह्म रहै घट में, सठ, तीरथ कानन खोजन जाई।
नैन दिए हरि—देखन को, पलटू सब में प्रभु देत दिखाई।।
कीट पतंग रहे परिपूरन, कहूं तिल एक न होत जुदा है।
ढूंढ़त अंध गरंथन में, लिखि कागद में कहूं राम लुका है।।
वृद्ध भए तन खासा, अब कब भजन करहुगे।।
बालापन बालक संग बीता, तरुन भए अभिमाना।
नखसिख सेती भई सफेदी, हरि का मरम न जाना।।
तिरिमिरि बहिर नासिका चूवै, साक गरे चढ़ि आई।

सुत दारा गरियावन लागे, यह बुढ़वा मरि जाई।।
तीरथ बर्त एकौ न कीन्हा, नहीं साधु की सेवा।
तीनिउ पन धोखे ही बीते, नहिं ऐसे मूरख देवा।।
पकरी आई काल ने चोटी, सिर धुनि—धुनि पछिताता।
पलटूदास कोऊ नहिं संगी, जम के हाथ बिकाता।।
पाती आई मोरे पीतम की, साईं तुरत बुलायो हो।।

काहे होत अधीर--(संत पलटूदास)

काहे होत अधीर—(संत पलटूदास)
ओशो
ओशो द्वारा पूना में संत पलटूदास की वाणीपर दिए गये (11—09—1979 से 30—10—1979) उन्‍नीस अमृत प्रवचनों का संकलन।)
संतों का सारा संदेश इस एक छोटी सी बात में समा जाता है कि संसार सराय है। और जिसे यह बात समझ में आ गई कि संसार सराय है, फिर इस सराय को सजाने में, संवारने में, झगड़ने में, विवाद में, प्रतिस्पर्धा में, जलन में, ईष्या में, प्रतियोगिता में—नहीं उसका समय व्यय होगा। फिर सारी शक्ति तो पंख खोल कर उस अनंत यात्रा पर निकलने लगेगी, जहां शाश्वत घर है।

पलटूदास के ये गीत तुम्हारे कानों पर पवन बन जाएं, तुम्हारी आंखों पर सूरज, तुम्हारे कानों पर पंछी के गीत—इस आशा में इन पर चर्चा होगी। यह चर्चा कोई पांडित्य की चर्चा नहीं है। यह चर्चा पलटूदास के काव्य की चर्चा नहीं है, न उनकी भाषा की। यह चर्चा तो पलटूदास के उस संदेश की चर्चा है जो सभी संतों का है; नाम ही उनके अलग हैं। फिर वे नानक हों कि कबीर, कि पलटू हों कि रैदास, कि रैदास हों कि तुलसी, भेद नहीं पड़ता। नाम ही अलग—अलग हैं। एक ही सूरज के गीत हैं। एक ही सुबह की पुकार है। सभी पंछियों का एक ही उपक्रम है—याद दिला दें तुम्हें, स्मृति दिला दें तुम्हें। क्योंकि तुम जो हो वही भूल गए हो और वह हो गए हो जो तुम नहीं हो। मान लिया है वह अपने को जो तुम नहीं हो और पीठ कर ली है उससे जो तुम हो। इस विस्मृति में दुख है। इस विस्मृति में नरक है। लौटो अपनी ओर!

कोपलें फिर फूट आई--(प्रवचन--07)

जीवित मंदिर मधुशाला है—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक : 5 अगस्त, 1976,
7. 00 संध्या, सुमिला, जुहू, बंबई।
प्रश्‍नसार:
1—हाथ हटता ही नहीं दिल से, हम तुम्‍हें किस तरह सलाम करें?
2—बहुत सी मधुशालाएं देखीं, पीने वालों को नशो में धुत देखा। मगर आपकी मधुशाला का क्‍या कहना। न कभी देखी, न कभी सुनी। आपकी मधुशाला में पीने वालों को मस्‍त देखा।..........
3—प्रश्‍न उठते है और उनमें से बहुत से प्रश्‍नों के उत्‍तर भी आ जाते है। यह सब क्‍या है?
4—कल ही मैंने पहली बार आपका प्रवचन सुना। आपमें जो संगम मैंने देखा है, वैसा संगम शायद ही पृथ्‍वी पर कभी हो। मैंने ऐसा जाना कि शायद परमात्‍मा आपके द्वारा पहली बार हंस रहा है।

शनिवार, 14 मई 2016

कोपलें फिर फूट आईं--(प्रवचन--06)

परम ऐश्वर्य: साक्षीभाव—(प्रवचन—छठवां)

दिनांक: 4 अगस्त, 1986, 7. 00 संध्या,
सुमिला, जुहू, बंबई।
प्रश्‍नसार:
1— भगवान, अध्ययन, चिंतन और श्रवण से बुद्धिगत समझ तो मिल जाती है, लेकिन मेरा जीवन तो अचेतन तलघरों से उठने वाले आवेगों और धक्कों से पीड़ित और संचालित होता रहता है। मैं असहाय हूं, अचेतन तलघरों तक मेरी पहुंच नहीं। कोई विधि, कोई जीवन—शैली, सूत्र और दिशा देने कि कृपा करें।
2—आपने ईश्‍वर तक पहुंचने के दो मार्ग—प्रेम ओर ध्‍यान बताए है। मेरी स्‍थिति ऐसी है कि प्रेम—भाव मेरे ह्रदय में उमड़ता नहीं। ऐसा नहीं है कि मैं किसी को प्रेम नहीं करना चाहती। वे मेरे व्‍यक्‍तित्‍व का प्रकार नहीं है। चुप रहना और शांत बैठना मुझे अच्‍छा लगाता है। इस लिए मैंने ध्‍यान का मार्ग चुन कर साक्षी की साधना शुरू की। अब कठिनाई यह है कि जैसे ही मैं सजग होकर देख रही हूं कि मैं विचारों को देख रही हूं, तो विचार रूक जाते है। और क्षणिक आनंद का अनुभव होता है। फिर विचारों का तांता शुरू हो जाता है...........
3—ह्रदयको सभी संतो ने अध्‍यात्‍म का द्वार कहा है और मन को विचार और बुद्धि का। ह्रदय और मन में क्‍या फर्क है? ह्रदय और आत्‍मा में क्‍या फर्क है? इस फर्क को कैसे स्‍पष्‍ट करें? कैस पहचानें?