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सोमवार, 20 सितंबर 2010

संभोग से समाधि की ओर—12

संभोग: समय शून्‍यता की झलक—4
      जितना आदमी प्रेम पूर्ण होता है। उतनी तृप्‍ति, एक कंटेंटमेंट, एक गहरा संतोष, एक गहरा आनंद का भाव, एक उपलब्‍धि का भाव, उसके प्राणों के रग-रग में बहने लगाता है। उसके सारे शरीर से एक रस झलकने लगता है। जो तृप्‍ति का रस है, वैसा तृप्‍त आदमी सेक्‍स की दिशाओं में नहीं जाता। जाने के लिए रोकने के लिए चेष्‍टा नहीं करनी पड़ती। वह जाता ही नहीं,क्‍योंकि वह तृप्‍ति, जो क्षण भर को सेक्‍स से मिलती थी, प्रेम से यह तृप्‍ति चौबीस घंटे को मिल जाती है।

संभोग से समाधि की ओर—11


संभोग : समय-शून्‍यता की झलक—3मैत्री उस दिन शुरू होती है। जिस दिन वे एक दूसरे के साथी बनते है और उनके काम की ऊर्जा को रूपांतरण करने में माध्‍यम बन जाते है। उस दिन एक अनुग्रह एक ग्रेटीट्यूड, एक कृतज्ञता का भाव ज्ञापन होता है। उस दिन पुरूष आदर से भरता है। स्‍त्री के प्रति क्‍योंकि स्‍त्री ने उसे काम-वासना से मुक्‍त होने में सहयोग पहुंचायी है। उस दीन स्‍त्री अनुगृहित होती है पुरूष के प्रति कि उसने उसे साथ दिया और वासना से मुक्‍ति दिलवायी। उस दिन वे सच्‍ची मैत्री में बँधते है, जो काम की नहीं प्रेम की मैत्री है। उस दिन उनका जीवन ठीक उस दिशा में जाता है, जहां पत्‍नी के लिए पति परमात्‍मा हो जाता है। और पति के लिए पत्‍नी परमात्‍मा हो जाती है।

शनिवार, 18 सितंबर 2010

संभोग से समाधि की ओर—10

संभोग : समय-शून्‍यता की झलक—2
     और इसलिए आदमी दस-पाँच वर्षों में युद्ध की प्रतीक्षा करने लगता है, दंगों की प्रतीक्षा करने लगता है। और हिन्दू-मुसलमान का बहाना मिल जाये तो हिन्‍दू-मुसलमान सही। अगर हिन्‍दू-मुसलमान का न मिले तो गुजराती-मराठी भी काम करेगा। अगर गुजराती-मराठी न सही तो हिन्‍दी बोलने वाला और गेर हिन्‍दी बोलने वाला भी चलेगा।

संभोग से समाधि की ओर—9

संभोग : समय-शून्‍यता की झलक—1

      मेरे प्रिय आत्‍मन,
      एक छोटी से कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा। बहुत वर्ष बीते, बहुत सदिया। किसी देश में एक बड़ा चित्रकार था। वह जब अपनी युवा अवस्‍था में था, उसने सोचा कि मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं जिसमें भगवान का आनंद झलकता हो। मैं एक ऐसे व्‍यक्‍ति को खोजूं एक ऐसे मनुष्‍य को जिसका चित्र जीवन के जो पार है जगत के जो दूर है उसकी खबर लाता हो।

संभोग से समाधि की ओर—8

संभोग : अहं-शून्‍यता की झलक—4

      लेकिन वह बहुत महंगा अनुभव है, वह अति महंगा अनुभव है। और दूसरा कारण है कि वह अनुभव से ही अपलब्‍ध हुआ है। एक क्षण से ज्‍यादा गहरा नहीं हो सकता है। एक क्षण को झलक मिलेगी और हम वापस अपनी जगह लोट आयेंगे। एक क्षण को किसी लोक में उठ जाते है। किसी गहराई पर, किसी पीक एक्सापिरियंस पर, किसी शिखर पर पहुंचना होता है। और हम पहुंच भी नहीं पाते और वापस गिर जाते है। जैसे समुद्र की लहर आकाश में उठती है, उठ भी नहीं पाती है, पहुंच भी नहीं पाती है, और गिरना शुरू हो जाती है।

संभोग से समाधि की और—7

संभोग : अहं-शून्‍यता की झलक—3

     क्‍या आपने कभी सोचा है? आप किसी आदमी का नाम भूल सकते है, जाति भूल सकते है। चेहरा भूल सकते है? अगर मैं आप से मिलूं या मुझे आप मिलें तो मैं सब भूल सकता हूं—कि आपका नाम क्‍या था,आपका चेहरा क्‍या था, आपकी जाति क्‍या थी, उम्र क्‍या थी आप किस पद पर थे—सब भूल सकते है। लेकिन कभी आपको ख्‍याल आया कि आप यह भूल सके है कि जिस से आप मिले थे वह आदमी था या औरत?  कभी आप भूल सकते है इस बात को कि जिससे आप मिले थे, वह पुरूष है या स्‍त्री? नहीं यह बात आप कभी नहीं भूल सके होगें। क्‍या लेकिन? जब सारी बातें भूल जाती है तो यह क्‍यों नहीं भूलता?

संभोग से समाधि की ओर—6

संभोग : अहं-शून्‍यता की झलक—2
    
     एक पौधा पूरी चेष्‍टा कर रहा है—नये बीज उत्पन्न करने की, एक पौधा  के सारे प्राण,सारा रस , नये बीज इकट्ठे करने, जन्‍म नें की चेष्‍टा कर रहा है। एक पक्षी  क्‍या कर रहा है। एक पशु क्‍या कर रहा है।
      अगर हम सारी प्रकृति में खोजने जायें तो हम पायेंगे, सारी प्रकृति में एक ही, एक ही क्रिया जोर से प्राणों को घेर कर चल रही है। और वह क्रिया है सतत-सृजन की क्रिया। वह क्रिया है ‘’क्रिएशन’’ की क्रिया। वह क्रिया है जीवन को पुनरुज्जीवित, नये-नये रूपों में जीवन देने की क्रिया। फूल बीज को संभाल रहे है, फल बीज को संभाल रहे है। बीज क्‍या करेगा? बीज फिर पौधा बनेगा। फिर फल बनेगा।

संभोग से समाधि की ओर—5

संभोग: अहं-शून्‍यता की झलक—1

    
मेरे प्रिय आत्‍मन,
      एक सुबह, अभी सूरज भी निकलन हीं था। और एक मांझी नदी के किनारे पहुंच गया था। उसका पैर किसी चीज से टकरा गया। झुककर उसने देखा। पत्‍थरों से भरा हुआ एक झोला पडा था। उसने अपना जाल किनारे पर रख दिया,वह सुबह के सूरज के उगने की प्रतीक्षा करने लगा। सूरज ऊग आया,वह अपना जाल फेंके और मछलियाँ पकड़े। वह जो झोला उसे पडा हुआ मिला था, जिसमें पत्‍थर थे। वह एक-एक पत्‍थर निकालकर शांत नदी में फेंकने लगा। सुबह के सन्‍नाटे में उन पत्‍थरों के गिरने की छपाक की आवाज उसे बड़ी मधुर लग रही थी। उस पत्‍थर से बनी लहरे उसे मुग्‍ध कर रही थी। वह एक-एक कर के पत्‍थर फेंकता रहा।

संभोग से समाधि की ओर—4

संभोग : परमात्‍मा की सृजन-ऊर्जा—4

      वह दूसरा सूत्र है मनुष्‍य का यह भाव कि मैं हूं’, ‘’ईगो’’, उसका अहंकार, कि मैं हूं। बुरे लोग तो कहते है कि मैं हूं। अच्‍छे लोग और जोर से कहते है ‘’मैं हूं’’—और मुझे स्‍वर्ग जाना है और मोक्ष जाना है और मुझे यह करना है और मुझे वह करना है। कि मैं हूं—वह ‘’मैं’’ खड़ा है वहां भीतर।
      और जिस आदमी का ‘’मैं’’ जितना मजबूत होगा, उतनी ही उस आदमी की सामर्थ्‍य दूसरे से संयुक्त हो जाने की कम होती है। क्‍योंकि ‘’मैं’’ एक दीवान है, एक घोषणा है कि ‘’मैं हूं’’। मैं की घोषणा कह देती है; तुम-तुम हो, मैं-मैं हूं। दोनों के बीच फासला है। फिर मैं कितना ही प्रेम करूं और आपको अपनी छाती से लगा लूं, लेकिन फिर भी  हम दो है। छातियां कितनी ही निकट आ जायें। फिर भी बीच मैं फासला है—मैं से तुम तक का। तुम-तुम हो मैं-मैं ही हूं। इसलिए निकटता अनुभव भी निकट नहीं ला पाते। शरीर पास बैठ जाते है। आदमी दूर बने रहते है। जब तक भीतर ‘’मैं’’ बैठा हुआ है, तब तक ‘’दूसरे’’ का भाव नष्‍ट नहीं होता।

संभोग से समाधि की और—3

संभोग : परमात्‍मा की सृजन उर्जा—3

     रामानुज एक गांव से गुजर रहे थे। एक आदमी ने आकर कहा कि मुझे परमात्‍मा को पाना है। तो उन्‍होंने कहां कि तूने कभी किसी से प्रेम किया है? उस आदमी ने कहा की इस झंझट में कभी पडा ही नहीं। प्रेम वगैरह की झंझट में नहीं पडा। मुझे तो परमात्‍मा का खोजना है।
      रामानुज ने कहा: तूने झंझट ही नहीं की प्रेम की? उसने कहा, मैं बिलकुल सच कहता हूं आपसे।

संभोग से समाधि की और—02

संभोग : परमात्‍मा की सृजन उर्जा—2
      लेकिन आदमी ने जो-जो निसर्ग के ऊपर इंजीनियरिंग की है, जो-जो उसने अपने अपनी यांत्रिक धारणाओं को ठोकने की और बिठाने की कोशिश की है, उससे गंगाए रूक  गयी है। जगह-जगह अवरूद्ध हो गयी है। और फिर आदमी को दोष दिया जा रहा है। किसी बीज को दोष देने की जरूरत नहीं है। अगर वह पौधा न बन पाया, तो हम कहेंगे कि जमीन नहीं मिली होगी ठीक से, पानी नहीं मिला होगा ठीक से। सूरज की रोशनी नहीं मिली होगी ठीक से।
      लेकिन आदमी के जीवन में खिल न पाये फूल प्रेम का तो हम कहते है कि तुम हो जिम्‍मेदार। और कोई नहीं कहता कि भूमि नहीं मिली होगी, पानी नहीं मिला होगा ठीक से, सूरज की रोशनी नहीं मिली होगी ठीक से। इस लिए वह आदमी का पौधा अवरूद्ध हो गया, विकसित नहीं हो पाया, फूल तक नहीं पहुंच पाया।

संभोग से समाधि की ओर—01

संभोग : परमात्‍मा की सृजन-ऊर्जा—(1)
प्रवचन-01 

      मेरे प्रिय आत्‍मन,
प्रेम क्‍या है?
      जीना और जानना तो आसान है, लेकिन कहना बहुत कठिन है। जैसे कोई मछली से पूछे कि सागर क्‍या है? तो मछली कह सकती है, यह है सागर, यह रहा चारों और , वही है। लेकिन कोई पूछे कि कहो क्‍या है, बताओ मत, तो बहुत कठिन हो जायेगा मछली को। आदमी के जीवन में जो भी श्रेष्‍ठ है, सुन्‍दर है, और सत्‍य है; उसे जिया जा सकता है, जाना जा सकता है। हुआ जा सकता है। लेकिन कहना बहुत कठिन बहुत मुश्‍किल है।
      और दुर्घटना और दुर्भाग्‍य यह है कि जिसमें जिया जाना चाहिए, जिसमें हुआ जाना चाहिए, उसके संबंध में मनुष्‍य जाति पाँच छह हजार साल से केवल बातें कर रही है। प्रेम की बात चल रही है, प्रेम के गीत गाये जा रहे है। प्रेम के भजन गाये जा रहे है। और प्रेम मनुष्‍य के जीवन में कोई स्‍थान नहीं है।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

संतों की अपनी-अपनी कमजोरी—

धर्म गुरूओं को एक सम्‍मेलन हुआ। देश से बड़े-बड़े धर्म गुरु आये, सब ने अपने-अपने ज्ञान की गहराई ऊँचाइयों, के बखान किये, सभी श्रोता गण मंत्र मुग्‍ध हो धन्‍य हो गये। इसके बाद चारों एक कमरे में आराम करने चले गये। वहां उनकी चर्चा चली। अब सब सम्‍मेलन तो निपट गया था। वह बैठ कर आपस में चर्चा करने लगे। ऊंची बातें तो हो चुकी, नकली बातें तो हो चुकी। अब वे बैठ कर असली गप-शप कर रहे है।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

सात शरीर और सात चक्र— ( 6 )

छठवाँ शरीर—आज्ञा चक्र---
      छठवाँ शरीर ब्रह्म शरीर है, काज़मिक बॉडी है; और छठवाँ केंद्र आज्ञा चक्र है। अब यहां से कोई द्वैत नहीं है। आनंद का अनुभव पांचवें शरीर पर प्रगाढ़ होगा। अस्‍तित्‍व का अनुभव छठवें शरीर पर प्रगाढ़ होगा—एग्‍ज़िसटैंस (अस्‍तित्‍व) का, बीइंग (होने) का। अस्‍मिता खो जायेगी छठवें शरी पर—हूं, यह भी चला जायेगा....हूं, ‘’मैं हूं’’—तो मैं चला जायेगा पांचवें शरीर पर हूं, चला जायेंगा पांचवें को पार कर के...है, इजनेस, का बोध होगा, ‘’तथाता का बोध होगा....ऐसा है उसमें ‘’मैं’’ कहीं भी नहीं आयेगा, उसमें अस्‍मिता कहीं नहीं आयेगी—जो है, बस वहीं हो जायेगा।

सात शरीर और सात चक्र— 5

पाँचवाँ शरीर—विशुद्ध चक्र
     पांचवां चक्र है विशुद्ध; यह कंठ के पास है। और पांचवां शरीर है स्‍पिरिचुअल बॉडी—आत्‍म शरीर है। विशुद्ध उसका चक्र है। वह उस शरीर से संबंधित है। अब तक जो चार शरीर की मैंने बात कहीं। और चार चक्रों की, वे द्वैत में बंटे हुए थे। पांचवें शरीर से द्वैत समाप्‍त हो जाता है।

सात शरीर और सात चक्र— 4

चौथा शरीर—अनाहत चक्र

      चौथा शरीर है; यह ह्रदय के पास है, हमारा मेंटल बॉडी, मनस शरीर—साइक। इस चौथे शरीर के साथ हमारे चौथे चक्र का संबंध है अनाहत का। चौथा जो शरीर है, मनस इस शरीर का जो प्राकृतिक रूप है, वह है कल्‍पना—इमेजिनेशन, स्‍वप्‍न–ड्रीमिंग। हमार मन स्‍वभावत: यह काम कल्‍पना करता रहता है। और सपने देखता रहता है। रात में भी सपने देखता है, दिन में भी सपने देखता है—और कल्‍पना करता रहता है। इसका जो चरम विकासित रूप है........

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बुद्धों के शरीर से--काम वासना कैसे तिरोहित हो जाती है?(2)

 
भोजन तिरोहित नहीं हो जाएगा; बुद्ध को भी आवश्‍यकता होगी भोजन की, क्‍योंकि यह एक निजी आवश्‍यकता है। कोई सामाजिक आवश्‍यकता नहीं है। कोई जातिगत आवश्‍यकता नहीं  है। निद्रा तिरोहित नहीं होगी, वह एक व्‍यक्‍तिगत आवश्‍यकता है। वह सब जो व्‍यक्‍तिगत है( मौजूद रहेगा। वह सब जो जातिगत है, तिरोहित हो जाएगा—और इस तिरोभाव का एक अपना ही सौंदर्य होता है।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

बुद्धों के शरीर से--काम वासना कैसे तिरोहित हो जाती है?(1)

बहुत सारी चीजें समझने जैसी है।
      पहली: कामवासना भोजन की भांति कोई सामान्‍य जरूरत नहीं है। वह बहुत असामान्‍य होती है। यदि भोजन तुम्‍हें नहीं दिया जाता है तो तुम मर जाओगे, लेकिन बिना काम वासना के तुम जी सकते हो। यदि पानी तुम्‍हें नहीं दिया जाता है तो शरीर मर जाएगा। लेकिन बिना कामवासना के तुम जी सकते हो। यदि वायु तुम्‍हें नहीं मिलती है तो तुम मर जाओगे कुछ पलों के भीतर ही। लेकिन कामवासना के बिना भी तुम जी सकते हो जीवन भर।

सात शरीर और सात चक्र—3

तीसरा शरीर—मणिपूर चक्र
तीसरा चक्र; यह नाभि से थोड़ा उपर, जहां कोड़ी होती है। मैंने कहां, एस्‍ट्रल बॉडी है, सूक्ष्‍म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्‍से है। प्राथमिक रूप से सूक्ष्‍म शरीर संदेह,विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर,ये रूपांतरित हो जायें, संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाती है। और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।