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शनिवार, 30 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-10

भूतभविष्य और वर्तमान के पार-(प्रवचन-दसवां) ओशो
Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

यहां शून्यता? कहा शून्यता
लेकिन असीम ब्रह्मांड सदा तुम्हारी आंखों के सामने रहता है
असीम रूप से बड़ाअसीम रूप से छोटा;
कोई भेद नहीं है
क्योंकि सभी परिभाषाएं तिरोहित हो गई हैं
और कोई सीमाएं दिखाई नहीं देतीं।
होने और न होने के साथ भी ऐसा है।
उन संदेहों और तर्कों में समय को मत गंवाओ
जिनका इसके साथ कोई संबंध नहीं है।

एक वस्तुसारी वस्तुएं
बिना किसी भेदभाव के एक- दूसरे में गति करती हैं और
घुल- मिल जाती हैं।
इस बोध में जीना अपूर्णता के विषय में चिंतारहित होना है।
इस आस्था में जीना अद्वैत का मार्ग है
क्योंकि अद्वैत व्यक्ति वह है जिसके पास श्रद्धावान मन है।

अनेक शब्द।
मार्ग भाषा के पार है
क्योंकि उसमें न बीता हुआ कल है
न आने वाला कल है न आज है।

शुक्रवार, 29 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-09

'अद्वैत'-(प्रवचन-नौवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

तथाता के इस जगत में न तो कोई स्व है और न ही स्व के अतिरिक्त कोई और।
इस वास्तविकता से सीधे ही लयबद्ध होने के लिए-जब संशय उठे, बस कहो, 'अद्वैत।
इस 'अद्वैत' में कुछ भी पृथक नहीं है कुछ भी बाहर नहीं है।
कब या कहा कोई अर्थ नहीं रखता; बुद्धत्व का अर्थ है इस सत्य में प्रवेश।
और यह सत्य समय या स्थान में घटने- बढ़ने के पार है;
इसमें एक अकेला विचार भी दस हजार वर्ष का है।

पहले तथाता' शब्द को समझने का प्रयत्न करो। बुद्ध इसी शब्द पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं। बुद्ध की अपनी भाषा में यह तथाता है। बौद्ध धर्म का सारा ध्यान इस शब्द में जीना है इस शब्द में इतनी गहनता से जीना है कि यह शब्द विलीन हो जाए और तुम स्वयं ही तथाता हो जाओ।
उदाहरण के लिए तुम बीमार हो। तथाता का भाव है उसे स्वीकार करो और स्वयं से कहो ' शरीर का यही ढंग है या ' चीजें ऐसी ही हैं।'

गुरुवार, 28 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-08

सच्ची श्रद्धा का जीवन-(प्रवचन-आठवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,
और गति और स्थिरता की दशा दोनों विलीन हो जाती हैं।
जब द्वैत नहीं रहता, तो अद्वैत भी नहीं रह सकता।
इस परम अंत की अवस्था पर कोई नियम,
या कोई व्याख्या लागू नहीं होती।
मार्ग के अनुरूप हो चुके अखंड मन के लिए
सभी आत्म- केंद्रित प्रयास समाप्त हो जाते हैं।
संदेह और अस्थिरता तिरोहित हो जाते हैं
और सच्ची श्रद्धा का जीवन संभव हो जाता है।
एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं;
न हमें कुछ पकड़ता है और न हम कुछ पकड़ते हैं।
मन की शक्ति के प्रयास के बिना,
सभी कुछ शून्य है स्पष्ट है स्व-प्रकाशित है।
यहां विचार, भाव, ज्ञान, और कल्पना का कोई मूल्य नही
गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,
और गति और स्थिरता की दशा दोनों विलीन हो जाती हैं।

शुक्रवार, 22 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-07


सभी स्वप्न समाप्त हो जाने चाहिए-(प्रवचन-सातवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:
शांति और अशांति भ्रांति के परिणाम है;
बुद्धत्व के साथ कोई पसंदगी और नापसंदगी नहीं होती।
सभी द्वैत अज्ञानपूर्ण निष्कर्ष से आते हैं।
वे ऐसे हैं जैसे कि सपने या आकाश- कुसुम;
उन्हें पकड़ने की चेष्टा करना मूढ़ता है।
लाभ और हानि, उचित और अनुचित,
अंत में ऐसे विचार तत्काल समाप्त कर देने चाहिए।

अगर आंख कभी नहीं सोती,
तो स्वभावत सारे स्वप्न समाप्त हो जाएंगे।
अगर मन कोई भेद नहीं करता,
दस हजार चीजें जैसी वे है? एक ही तत्व की हैं।
इस एक तत्व के रहस्य को समझ लेना
सारे बंधनों से मुक्त हो जाना है।
जब सभी वस्तुएं समान रूप से देख ली जाती हैं
तो समयातीत आत्मतत्व तक पहुंचना हो जाता है
इस कारणरहित संबंधरहित अवस्था में
कोई तुलनाएं या समानताएं संभव नहीं हैं।

मंगलवार, 19 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-06

लक्ष्य के लिए प्रयास न करे-(प्रवचन-छठवां)

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:
महापथ में जीना न तो सरल है न कठिन,
लेकिन वे जिनके विचार सीमित हैं वे भयभीत और संकल्पहीन हैं।
जितनी तीव्रता से वे शीघ्रता करते हैं उतना ही वे धीमे जाते हैं
और पकड़ सीमित नहीं हो सकती,
संबोधि के विचार से आसक्त हो जाना भी भटक जाना है।
बस वस्तुओं को अपने ढंग से होने दो और फिर न आना होगा, न जाना।

वस्तुओं के स्वभाव (तुम्हारे अपने स्वभाव) के अनुसार चलो;
और तुम मुक्त भाव से और अविचलित रह कर चलोगे।
जब विचार बंधन में होता है सत्य छिपा रहता है
क्योंकि सभी कुछ धुंधला और अस्पष्ट होता है
और निर्णय करने का बोझिल अभ्यास कष्ट और थकान लाता है।
भेदभावों और विभाजनों से क्या लाभ हो सकता है?

रविवार, 17 मई 2020

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-05)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्

पांचवां प्रवचन-(ध्यान और रेचन)

प्रश्नः कई लोगों के मन में ऐसा ख्याल है कि तीन दिनों के शिविर से क्या हो सकता है। इंसान के जीवन में इतनी आसानी से कैथार्सिस वगैरह हो जाती है और इसकी कोई आवश्यकता वगैरह है कि ध्यान खुद ही अपने आप ही आ सकता है? इसके बारे में कृपया बताएं।
ध्यान आ सकता है, स्वयं से भी आ सकता है, लेकिन पृथक्करण से नहीं आएगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हम अपने मन को एनालाइज कर दें, क्योंकि यह पृथक्करण विश्लेषण करते वक्त कहीं हमारा मन ही तो नहीं है। और यह सारा पृथक्करण हमारे ही मन को दो खंडों में तोड़ देता है। तो न तो पृथक्करण से संभव है कि मन एक हो जाए, न ही चिंतन-मनन से संभव है कि एक हो जाए। क्योंकि ये सारी क्रियाएं जिस मन से चलने वाली हैं, उसी मन को बदलना है।

बुधवार, 13 मई 2020

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-04)

शुन्यता ही एकात्मा है-(प्रवचन-चौथा)

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो

(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:
मूल की ओर लौटना अर्थ को पा लेना है
लेकिन आभासों के पीछे जाना स्रोत से चूक जाना है।
आंतरिक बुद्धत्व के क्षण में दृश्य और खालीपन का अतिक्रमण होता है।
जो परिवर्तन इस शून्य जगत में दिखाई देते हैं
उन्हें हम अपने अज्ञान के कारण वास्तविक मानते हैं।
सत्य के लिए खोज मत करो;
केवल धारणाओं को पकडना छोडू दो।
 द्वैत की स्थिति में मत रहो;
ऐसे पथों से सावधानीपूर्वक बचो।
यदि 'यह और वह:' उचित और अनुचित ' इसका थोड़ा सा निशान भी रहे,
तो मन का सार- तत्व उलझन में खो जाएगा।
यद्यपि सभी द्वैत एक से ही आते है इस एक से भी आसक्त मत हो जाओ।

जब ध्यान की राह पर मन विचलित नहीं होता,
तब संसार में कुछ भी चोट नहीं पहुंचाता
और जब किसी का भी चोट पहुंचाना समाप्त हो जाता है
तो मन का पुराना रंग- ढंग समाप्त हो जाता है।
 जब कोई पक्षपातपूर्ण विचार नहीं उठते,
तो पुराना मन समाप्त हो जाता है।

मंगलवार, 12 मई 2020

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-03)

         हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्
तीसरा प्रवचन-(ध्यानः अंतस अनुभूति)


प्रश्नः मैं थोड़ी साधना करती हूं, खास कर उसके बारे में मुझे पूछना है।

साधना करेगी फिर तो पूछ ही सकेगी। साधना इतनी और उतनी नहीं होती। मात्रा होती नहीं। यह हमारी बड़ी भ्रांति है। क्योंकि हम चीजों की दुनिया से परिचित हैं, इसलिए हमेशा क्वांटिटी के हिसाब से सोचते हैं। चीजों की दुनिया से परिचित होने के कारण यह भ्रांति होती है, क्योंकि चीजों में तो क्वांटिटी है और भीतर सिर्फ क्वालिटी है, क्वांटिटी नहीं है! भाव की दुनिया में कोई मात्रा नहीं है। इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि हम किसी को कम प्रेम करते हैं। या तो करते हैं या नहीं करते हैं। कम और ज्यादा प्रेम नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता। क्योंकि वहां नापने का उपाय ही नहीं है। या तो हम प्रेम करते हैं या हम नहीं करते हैं। कम प्रेम धोखे की बात है। ऐसे ही या तो हम साधना में जाते हैं या नहीं जाते हैं। कम साधना धोखे की बात है। लेकिन चूंकि हम वस्तुओं की दुनिया में ही जीते हैं और हमारा सारा चिंतन वहां से बनता है, तो वहां मात्राएं हैं। और उन्हीं मात्राओं को हम अध्यात्म में भी ले आते हैं, तब बड़ी भूल हो जाती है, तब बड़ी भूल हो जाती है।
अब यह, इसी तरह हम सीढ़ियां ले आते हैं अध्यात्म की दुनिया में। वहां सिर्फ छलांग है, वहां कोई सीढ़ियां नहीं हैं। लेकिन अगर सीढ़ियां हों तो गुरु और शिष्य का क्या हो?

सोमवार, 11 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-05

मूलस्त्रोत की और लोटना-(प्रवचन-पांचवां)


Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:
जब विचार के विषय विलीन हो जाते है
विचार करने वाला भी विलीन हो जाता है;
जैसे मन विलीन हो जाता है विषय भी विलीन हो जाते है।
वस्तुएं विषय बनती है क्योंकि भीतर विषयी मौजूद है;
वस्तुओं के कारण ही मन ऐसा है।
इन दोनों की सापेक्षता को,
और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।
इस शून्यता में इन दोनों की अलग पहचान खो जाती है
और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है
अगर तुम परिष्कृत और अपरिष्कृत में भेद नहीं करते,
तो तुम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का मोह नहीं करोगे।

संसार है तुम्हारे कारण-तुम ही इसका सृजन करते हो तुम ही इसके सष्टा हो। प्रत्येक प्राणी अपने चारों ओर एक संसार का निर्माण कर लेता है, वह उसके मन पर निर्भर है। मन भले ही माया हो लेकिन यह रचनात्मक है- यह स्वप्नों का सृजन करता है। और यह तुम पर निर्भर है कि तुम नरक का निर्माण करते हो या स्वर्ग का।