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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—53 (ओशो)

आत्‍म-स्‍मरण की पहली विधि--
     ‘’हे कमलाक्षी, हे, सुभगे, गाते हुए, देखते हुए, स्‍वाद लेते हुए यह बोध बना रहे कि मैं हूं, और शाश्‍वत आविर्भूत होता है।‘’
            हम है, लेकिन हमें बोध नहीं है कि हम है। हमें आत्‍म-स्‍मरण नहीं है। तुम खा रहे हो, या तुम स्‍नान कर रहे हो, या टहल रहे हो। लेकिन टहलते हुए तुम्‍हें इका बोध नहीं है कि मैं हूं। सजग नहीं हो कि मैं हूं सब कुछ है, केवल तुम नहीं हो। झाड़ है, मकान है, चलते रास्‍ते है, सब कुछ है; तुम अपने चारों और की चीजों के प्रति सजग हो, लेकिन सिर्फ अपने होने के प्रति कि मैं हूं, सजग नहीं हो। लेकिन अगर तुम सारे संसार के प्रति भी सजग हो और अपने प्रति सजग नहीं हो तो सब सजगता झूठी है। क्‍यों? क्‍योंकि तुम्‍हारा मन सबको प्रतिबिंबित कर सकता है। लेकिन वह तुम्‍हें प्रतिबिंबित नहीं कर सकता। और अगर तुम्‍हें अपना बोध है तो तुम मन के पार चले गए।

रविवार, 29 जुलाई 2012

तंत्र सूत्र--विधि -52 (ओशो)

पांचवी तंत्र विधि--
     ‘’भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्‍वाद ही बन जाओ, और उससे भर जाओ।‘’
            हम खाते रहते है, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते है—यंत्रवत। और अगर स्‍वाद न लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो।
      तो धीरे-धीरे भोजन करो, स्‍वाद लेकिर करो और स्‍वाद के प्रति सजग रहो। और स्‍वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे-धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलने मत जाओ। आहिस्‍ता-आहिस्‍ता उसका स्‍वाद लो और स्‍वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ। और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर में फैल जायेगी। तुम्‍हें लगेगा कि मिठास—या कोई भी चीज—लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्‍वाद लेकर खाओ और स्‍वाद ही बन जाओ।

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

तंत्र सूत्र--विधि -51 (ओशो)

काम संबंधि चौथा सूत्र--
      ‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
      उस हर्ष में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ। किसी भी हर्ष से काम चलेगा। यह एक उदाहरण है।
      ‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।‘’
      तुम्‍हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत दिन, बहुत वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से, आह्लाद से भर जाते हो। लेकिन अगर तुम्‍हारा ध्‍यान मित्र पर है, हर्ष पर नहीं तो तुम चूक रहे हो। और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्‍हारा सारा ध्‍यान मित्र पर केंद्रित होगा, तुम उससे बातचीत करने में मशगूल रहोगे। तुम पुरानी स्‍मृतियों को ताजा करने में लगे रहोगे। तब तुम इस हर्ष को चूक जाओगे।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

तंत्र सूत्र--विधि -50 (ओशो)

काम संबंधि तीसरा सूत्र--
            ‘’काम-आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्‍मरण करके भी रूपांतरण होगा।‘’
     
एक बार तुम इसे जान गए तो प्रेम पात्र की, साथी की जरूरत नहीं है। तब तुम कृत्‍य का
स्‍मरण उसमे प्रवेश कर सकते हो। लेकिन पहले भाव का होना जरूरी है। अगर भाव से परिचित
हो तो साथ के बिना भी तुम कृत्‍य में प्रवेश कर सकते हो।
      यह थोड़ा कठिन है, लेकिन यह होता है। और जब तक यह नहीं होता, तुम पराधीन रहते हो। एक पराधीनता निर्मित हो जाती है। और यह प्रवेश अनेक कारणों से घटित होता है। अगर तुमने उसका अनुभव किया हो, अगर तुमने उस क्षण को जाना हो जब तुम नहीं थे, सिर्फ तरंगायित ऊर्जा एक होकर साथी के साथ वर्तुल बना रही थी। तो उस क्षण साथी भी नहीं रहता है, केवल तुम होते हो। वैसे ही उस क्षण तुम्‍हारे साथी के लिए तुम नहीं होते, वही होता है। वह एकता तुममें होती है। साथी नहीं रह जाता है। और यह भाव स्‍त्रियों के लिए सरल है। क्‍योंकि स्‍त्रियों आँख बंद करके ही संभोग में उतरती है।

रविवार, 22 जुलाई 2012

तंत्र सूत्र--विधि -49 (ओशो)

काम संबंधि दूसरा सूत्र--
‘’ऐसे काम-आलिंगन में जब तुम्‍हारी इंद्रियाँ पत्‍तों की भांति कांपने लगें उस कंपन में प्रवेश
करो।‘’
     जब प्रेमिका या प्रेमी के साथ ऐसे आलिंगन में, ऐसे प्रगाढ़ मिलन में तुम्‍हारी इंद्रियाँ पत्‍तों की तरह कांपने लगें, उस कंपन में प्रवेश कर जाओ।
      तुम भयभीत हो गए हो, संभोग में भी तुम अपने शरीर को अधिक हलचल नहीं करने देते हो। क्‍योंकि अगर शरीर को भरपूर गति करने दिया जाए तो पूरा शरीर इसमें संलग्‍न हो जाता है तुम उसे तभी नियंत्रण में रख सकते हो जब वह काम-केंद्र तक ही सीमित रहता है। तब उस पर मन नियंत्रण कर सकता है। लेकिन जब वह पूरे शरीर में फैल जाता है तब तुम उसे नियंत्रण में नहीं रख सकते हो। तुम कांपने लगोगे। चीखने चिल्‍लाने लगोगे। और जब शरीर मालिक हो जाता है तो फिर तुम्‍हारा नियंत्रण नहीं रहता।

शनिवार, 21 जुलाई 2012

तंत्र सूत्र--विधि -48 (ओशो)

काम संबंधि पहला सूत्र--


      ‘’काम-आलिंगन में आरंभ में उसकी आरंभिक अग्‍नि पर अवधान दो, और ऐसा करते हुए अंत में उसके अंगारे से बचो।‘’
      कई कारणों से काम कृत्‍य गहन परितृप्‍ति बन सकता है और वह तुम्‍हें तुम्‍हारी अखंडता पर, स्‍वभाविक और प्रामाणिक जीवन पर वापस पहुंचा सकता है। उन कारणों को समझना होगा।
      एक कारण यह है कि काम कृत्‍य समग्र कृत्‍य है। इसमें तुम अपने मन से बिलकुल अलग हो जाते हो। छूट जाते हो। यही कारण है कि कामवासना से इतना डर लगता है। तुम्‍हारा तादात्‍म्‍य मन के साथ है और काम अ-मन का कृत्‍य है। उस कृत्‍य में उतरते ही तुम बुद्धि-विहीन हो जाते हो। उसमे बुद्धि काम नहीं करती। उसमे तर्क की जगह नहीं है। कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। और अगर मानसिक प्रक्रिया चलती है तो काम कृत्‍य सच्‍चा और प्रामाणिक नहीं हो सकता। तब आर्गाज्‍म संभव नहीं है। गहन परितृप्‍ति संभव नहीं है। तब काम-कृत्‍य उथला हो जाता है। मानसिक कृत्‍य हो जाता है। ऐसा ही हो गया है।

बुधवार, 18 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—47 (ओशो)

ध्‍वनि-संबंधी अंतिम विधि:
            ‘’अपने नाम की ध्‍वनि में प्रवेश करो, और उस ध्‍वनि के द्वारा सभी ध्‍वनियों में।‘’
     मंत्र की तरह नाम का उपयोग बहुत आसानी से किया जा सकता है। यह बहुत सहयोगी होगा, क्‍योंकि तुम्‍हारा नाम तुम्‍हारे अचेतन में बहुत गहरे उतर चुका है। दूसरी कोई भी चीज अचेतन की उस गहराई को नहीं छूती है। यहां हम इतने लोग बैठे है। यदि हम सभी सो जाएं और कोई बाहर से आकर राम को आवाज दे तो उस व्‍यक्‍ति के सिवाय जिसका नाम राम है, कोई भी उसे नहीं सुनेगा। राम उसे सुन लेगा। सिर्फ राम की नींद में उससे बाधा पहुँचेगी। दूसरे किसी को भी राम की आवाज सुनाई नहीं देगी।

रविवार, 15 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—46 (ओशो)

  ध्‍वनि-संबंधी दसवीं विधि:

‘’कानों को दबाकर और गुदा को सिकोड़कर बंद करो, और ध्‍वनि में प्रवेश करो।‘’
     हम अपने शरीर से भी परिचित नहीं है। हम नहीं जानते कि शरीर कैसे काम करता है और उकसा ताओ क्‍या है। ढंग क्‍या है। मार्ग क्‍या है। लेकिन अगर तुम निरीक्षण करो तो आसानी से उसे जान सकते हो।
      अगर तुम अपने कानों को बंद कर लो और गुदा को ऊपर की और सिकोड़ो तो तुम्‍हारे लिए सब कुछ ठहर जायेगा। ऐसा लगेगा कि सारा संसार रूक गया। ठहर गया है। गतिविधियां ही नहीं, तुम्‍हें लगेगा कि समय भी ठहर गया है। जब तुम गुदार को ऊपर खींचकर सिकोड़ लेते हो। क्‍या होता है ऐसा? अगर दोनों कान बंद कर लिए जाएं तो बंद कानों से तुम अपने भीतर एक ध्‍वनि सुनोंगे। लेकिन अगर गदा को ऊपर खींचकर नहीं सिकुड़ा जाए तो वह ध्‍वनि गुदा-मार्ग से बहार निकल जाती है। वह ध्‍वनि बहुत सूक्ष्म है। अगर गुदा को ऊपर खींचकर सिकोड़ लिया जाए और कानों को बंद किया जाए तो तुम्‍हारे भीतर एक ध्‍वनि का स्‍तंभ निर्मित होगा।

शनिवार, 14 जुलाई 2012

मिस्‍टर एकहार्ट-रहस्‍य सूत्र—(057)

मिस्‍टर एकहार्ट के रहस्‍य सूत्र—(ओशो की प्रिय पुस्तकें)

एक हार्ट बहुत करीब था। एक कदम और, और संसार का अंत आ जाता—उस पार का लोक खुल जात।
     एक हार्ट जर्मन का सबसे रहस्यपूर्ण और ग़लतफ़हमियों से घिरा रहस्‍यदर्शी है। एक सदी पहले तक जर्मन रोमांटिक आंदोलन के द्वारा मिस्‍टर एकहार्ट को, ‘’एक अर्ध रहस्‍यवादी चरित्र’’  समझा जाता था। न तो उसके जन्‍म की तारीख मालूम थी, न स्‍थान। जर्मनी में किसी कब्र पर उसका नाम दिवस खुदा नहीं था। कुछ छुटपुट तथ्‍यों की जानकारी थी—मसलन वह परेसा में पढ़ा, सन 1402 में डाक्‍टर ऑफ थियॉलॉजी की उपाधि प्राप्‍त की, जर्मनी के स्‍टैसवर्ग शहर में वह उपदेशक था। 1322 में कालोन के एक विद्यापीठ में उसे ससम्‍मान आमंत्रित किया गया। और पीठाधीश बनाया गया। तब तमक एकहार्ट अपने रहस्‍यवाद से ओतप्रोत प्रवचनों के लिए प्रसिद्ध हो चुका था। कालोन के आर्चबिशप को रहस्यवाद से चिढ़ थी। उसे उसमें बगावत की बू नजर आती थी। 1326 में उसने एकहार्ट पर मुकदमा दायर किया। उस पर इलजाम था, वह सामान्‍य जनों में खतरनाक सिद्धांत फैल रहा है।

ओशो) आपको गोली क्‍यों न मार दी जाए?

  ‘’28 अगस्‍त 1968 को जो क्रांति–स्‍वर उठाया था, उसका अलगा चरण प्रारंभ हुआ 28 सितंबर से। ऐतिहासिक गोवालिया टैंक मैदान में, जहां गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन की शुरू आत की थी। संयोगवश उसी वर्ष भारत छोड़ो आंदोलन की रजत जयंती के अवसर पर गोवालिया टैंक का नाम बदल कर अगस्‍त कांति मैदान कर दिया गया। उस समय कौन जानता था कि 1968 की अगस्‍त कांति पूरी मनुष्‍यता के इतिहास का ही नया खाका खींचने वाली है।‘’
      ढलते हुए मानसून का मौसम बंबई में बड़ा खूबसूरत होता है, इसलिए चार दिन को ये सभा खुले मैदान में रखने का तय हुआ था। लेकिन 28 सितंबर को सुबह से ही झड़ी लगी हुई थी। आशंका थी कि शायद काफी लोग जो आना चाहते थे वे न आ पाएँ। लेकिन शाम होते-होते बादल भी छंट गये और सभा शुरू होने से काफी पहले ही मैदान भी पूरा भर गया। इधर प्रेस भी अपने पूरे दल-बल समेत मौजूद था। अध्‍यात्‍म से जुड़े एक व्‍यक्‍ति द्वारा सेक्‍स पर चर्चा होगी। यह प्रेस के लिए एक अच्‍छी कहानी का मसाला था। लेकिन शायद इस सभा में उन्‍हें बहुत बार चौंकना था।

मंगलवार, 10 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—45 (ओशो)

ध्‍वनि-संबंधी नौवीं विधि:
            ‘’अ: से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार चुपचाप करो। और तब हकार में अनायास सहजता को उपलब्‍ध होओ।‘’
      ‘’अ: से अंत होने वाले किसी शब्‍द का उच्‍चार चुपचाप करो।‘’
कोई भी शब्‍द जिसका अंत अ: से होता है, उसका उच्‍चार चुपचाप करो। शब्‍द के अंत में अ: के होने पर जोर है। क्‍यो? क्‍योंकि जि क्षण तुम अ: का उच्‍चार करते हो, तुम्‍हारी श्‍वास बाहर जाती है। तुमने ख्‍याल नहीं किया होगा। अब ख्‍याल करना कि जब भी तुम्‍हारी श्‍वास बाहर जाती है, तुम ज्‍यादा शांत होते हो। और जब भी श्‍वास भीतर जाती है, तुम ज्‍यादा तनावग्रस्‍त होते हो। कारण यह है कि बाहर जाने वाली श्‍वास मृत्‍यु है। और भीतर आने वाली श्‍वास जीवन है। तनाव जीवन का हिस्‍सा है। मृत्‍यु का नहीं। विश्राम मृत्‍यु का अंग है, मृत्‍यु का अर्थ है पूर्ण विश्राम। जीवन पूर्ण विश्राम नहीं बन सकता। वह असंभव है। जीवन का अर्थ है तनाव, प्रयत्‍न; सिर्फ मृत्‍यु विश्रामपूर्ण है।

रविवार, 8 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—44 (ओशो)

  ध्‍वनि-संबंधी आठवीं विधि:
            ‘’अ और म के बिना ओम ध्‍वनि पर मन को एकाग्र करो।‘’
      ओम ध्‍वनि पर एकाग्र करो; लेकिन इस ओम में म न रहें। तब सिर्फ उ बचता है। यह कठिन विधि है; लेकिन कुछ लोगों के लिए यह योग्‍य पड़ सकती है। खासकर जो लोग ध्‍वनि के साथ काम करते है। संगीतज्ञ, कवि, जिनके काम बहुत संवेदनशील है, उनके लिए यह विधि सहयोगी हो सकती है। लेकिन दूसरों के लिए जिनके कान संवेदनशील नहीं है, यह विधि कठिन पड़ेगी। क्‍योंकि यह बहुत सूक्ष्‍म है।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—43 (ओशो)

    ध्‍वनि-संबंधी सातवीं विधि:
            ‘’मुंह को थोड़ा-सा खुला रखते हुए मन को जीभ के बीच में स्‍थिर करो। अथवा जब श्‍वास चुपचाप भीतर आए, हकार ध्‍वनि को अनुभव करो।‘’
      मन को शरीर में कहीं भी स्‍थिर किया जा सकता है। सामान्‍यत: हमने उसे सिर में स्‍थिर कर रखा है; लेकिन उसे  कहीं भी स्‍थिर किया जा सकता है। और स्‍थिर करने के स्‍थान के बदलने से तुम्‍हारी गुणवता बदल जाती है। उदाहरण के लिए, पूर्व के कई देशों में, जापान, चीन, कोरिया आदि में परंपरा से सिखाया जाता है कि मन पेट में है। सि में नहीं है। और इस करण उन लोगों के मन के गुण बदल जाते है। जो सोचते है कि मन पेट में है। जो लोग सोचते है कि मन सिर में है। उनके ये गुण नहीं हो सकते।

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—42 (ओशो)

ध्‍वनि-संबंधी छठवीं विधि:
          ‘’किसी ध्‍वनि का उच्‍चार ऐसे करो कि वह सुनाई दे; फिर उस उच्‍चार को मंद से मंदतर किए जाओ—जैसे-जैसे भाव मौन लयबद्धता में लीन होता जाए।‘’
     कोई भी ध्‍वनि काम देगी; लेकिन अगर तुम्‍हारी कोई प्रिय ध्‍वनि हो तो वह बेहतर होगी। क्‍योंकि तुम्‍हारी प्रिय ध्‍वनि मात्र ध्‍वनि नहीं रहती; जब तुम उसका उच्‍चार करते हो तो उसके साथ एक अप्रकट भाव भी उठता है। और फिर धीरे-धीरे वह ध्‍वनि तो विलीन हो जाएगी और भाव भर रह जाएगा।
      ध्‍वनि को भाव की तरह से जाने वाले मार्ग की तरह उपयोग करना चाहिए। ध्‍वनि मन है और भाव ह्रदय है। मन को ह्रदय से मिलने के लिए मार्ग चाहिए। ह्रदय में सीधा प्रवेश कठिन है। हम ह्रदय को इतना भुला दिए है। हम ह्रदय के बिना इतने जन्‍मों से रहते आए है कि हमें पता ही नहीं रहा कि कहां से उसमे प्रवेश करें। द्वार बंद मालूम पड़ता है।

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—41 (ओशो)

  ध्‍वनि-संबंधी पाँचवीं विधि:
     ‘’तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्‍त केंद्रित ध्‍वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्‍यापकता को उपलब्‍ध होओ।
     वही चीज।
      ‘’तार वाले वाद्यों को सुनते हुए उनकी संयुक्‍त केंद्रीय ध्‍वनि को सुनो; इस प्रकार सर्वव्‍यापकता को उपलब्‍ध होओ।‘’
      तुम किसी वाद्य को सुन रहे हो—सितार या किसी अनय वाद्य को। उसमें कई स्‍वर है। सजग होकर उसके केंद्रीय स्‍वर को सुनो। उस स्‍वर को जो उसका केंद्र हो और उसके चारों और सभी स्‍वर घूमते हों; उसकी आंतरिक धारा को सुनो, जो अन्‍य सभी स्‍वरों को सम्‍हाले हुए हो। जैसे तुम्‍हारे समूचे शरीर को उसका मेरुदंड, उसकी रीढ़ सम्‍हाले हुए है। वैसे ही संगीत की भी रीढ़ होती है। संगीत को सुनते हुए सजग होकर उसमे प्रवेश करो और उसके मेरुदंड को खोजों—उस केंद्रीय स्‍वर को खोजों जो पूरे संगीत को सम्‍हाले हुए है। स्‍वर तो आते जाते रहते है। लेकिन केंद्रीय तत्‍व प्रवाहमान रहता है। उसके प्रति जागरूक होओ।

बुधवार, 4 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—40 (ओशो)

  ध्‍वनि-संबंधी चौथी विधि:
          ‘’किसी भी अक्षर के उच्‍चारण के आरंभ में और उसके क्रमिक परिष्‍कार में, निर्ध्‍वनि में जागों।‘’
     कभी-कभी गुरूओं ने इस विधि का खूब उपयोग किया है। और उनके अपने नए-नए ढंग है। उदाहरण के लिए, अगर तुम किसी झेन गुरु के झोंपड़े पर जाओ तो वह अचानक एक चीख मारेगा और उससे तुम चौंक उठोगे। लेकिन अगर तुम खोजोंगे तो तुम्‍हें पता चलेगा कि वह तुम्‍हें महज जगाने के लिए ऐसा कर रहा है। कोई भी आकस्मिक बात जगाती है। वह आकस्‍मिकता तुम्‍हारी नींद तोड़ देती है।

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—39 (ओशो)

       ध्‍वनि-संबंधी तीसरी विधि:
          ‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चरण करो। जैस-जैसे ध्‍वनि पूर्णध्‍वनि में प्रवेश करती है। वैसे-वैसे तुम भी।‘’
     ‘’ओम जैसी किसी ध्‍वनि का मंद-मंद उच्‍चारण करो।‘’
      उदाहरण के लिए ओम को लो। यह एक आधारभूत ध्‍वनि है। उ, इ और म, ये तीन ध्‍वनियां ओम में सम्‍मिलित है। ये तीनों बुनियादी ध्‍वनियां है। अन्‍य सभी ध्‍वनियां उनसे ही बनी है। उनसे ही नकली है, या उनकी ही यौगिक ध्‍वनियां है। ये तीनों बुनियादी है। जैसे भौतिकी के लिए इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन और प्रोटोन बुनियादी है। इस बात को गहराई से समझना होगा।
      गुरजिएफ ने तीन के नियम की बात की है। वह कहता है कि आत्‍यंतिक अर्थ में अस्‍तित्‍व एक है। आत्‍यंतिक अर्थ में परम अर्थ में एक ही नियम है। लेकिन यह परम है। और जो कुछ हम देखते है वह सापेक्ष है। वह परम नहीं है। वह परम तो सदा प्रच्‍छन्‍न है। छिपा है। हम उसे देख नहीं सकते। क्‍योंकि जैसे ही हमें कुछ दिखाई पड़ता है, वह तीन में विभाजित हो जाता है। वह तीन में, द्रष्‍टा, दृश्‍य और दर्शन में बंट जाता है।

सोमवार, 2 जुलाई 2012

तंत्र-सूत्र—विधि—38 (ओशो)

ध्‍वनि-संबंधी दूसरी विधि:
          ध्‍वनि के केंद्र में स्‍नान करो, मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्‍वनि में स्‍नान कर रहे हो। या कानों में अंगुलि डालकर नांदों के नाद, अनाहत को सुनो।
     इस  विधि का प्रयोग कई ढंग से क्या जा सकता है। एक ढंग यह है कि कहीं भी बैठकर इसे शुरू कर दो। घ्वनियां तो सदा मौजूद है। चाहे बाजार हो या हिमालय की गुफा, घ्वनियां सब जगह है। चुप होकर बैठ जाओ।
      और ध्‍वनियों के साथ एक बड़ी विशेषता है, एक बड़ी खूबी है। जहां भी, जब भी कोई ध्‍वनि होगी, तुम उसके केंद्र होगे। सभी घ्वनियां तुम्‍हारे पास आती है, चाहे वे कहीं से आएं, किसी दिशा से आएं। आँख के साथ, देखने के साथ यह बात नहीं है। दृष्‍टि रेखाबद्ध है। मैं तुम्‍हें देखता हूं तो मुझसे तुम तक एक रेखा खिंच जाती है। लेकिन ध्‍वनि वर्तुलाकार है; वह रेखाबद्ध नहीं है। सभी घ्वनियां वर्तुल में आती है। और तुम उसके केंद्र हो। समूचे ब्रह्मांड का केंद्र। हरेक ध्‍वनि वर्तुल में तुम्‍हारी तरफ यात्रा कर रही है।

रविवार, 1 जुलाई 2012

क्यों सत्रह साल बाद दाढ़ी-बाल कटवायें?—(स्‍वामी आनंद प्रसाद)

1989 में ओशो से जुड़ने के बाद से ही मुझे लगने लगा कि दाढ़ी-बाल ध्‍यान में विशेष रूप से सहयोगी हो रहा है। जैसे-जैसे आप गहरे जा रहे है, ये आपको अति और अति शांत करती चले जाने में आपकी मदद और सहयोग कर रहे है। एक प्रकार से ध्‍यान के कच्‍चे पौधों के चारो और बागड़ का काम कर रहे थे दाढ़ी बाल। अगर ये इतना आनंद दायी न हो तो इसे रखाना एक तपस्‍या जैसा है। यह बहुत रखरखाव माँगती है। बहुत कठिन कार्य है दाढ़ी-बाल का रखना।    
      समय के साथ-साथ दाढ़ी बाल भी बढ़ते चले गये। जिस समय 1994 में मैंने सन्‍यास लिया उस समय मेरे दाढ़ी-बाल बहुत लंबे हो चुकी थी। नाचते हुए बालों के साथ झूमना, आपके नाच को की बदल देता है। एक बात और है, बाल अंदर से पोले होते है। और इसमे भरी उर्जा उसकी लंबाई के हिसाब से हमारे साथ काफ़ी दिनों तक रहती है।