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शुक्रवार, 29 जून 2018

ताओ उपनिषद--प्रवचन--114

 प्रवचन-एक सौ चौदहावां 

संत को पहचानना महाकठिन है:

They Know Me Not
My teachings are very easy to understand and very easy to practise,
But no one can understand them and no one can practise them.
In my words there is a principle.
In the affairs of men there is a system.
Because they know not these,
They also know me not.
Since there are few that know me,
Therefore I am distinguished.
Therefore the Sage wears a coarse cloth on top
And carries jade within his bosom.
अध्याय 70

वे मुझे नहीं जानते

मेरे उपदेश समझने में आसान हैं, और साधने में भी आसान हैं।
लेकिन न कोई उन्हें समझ सकता है, और न कोई उन्हें साध सकता है।
मेरे शब्दों में एक सिद्धांत है।
मनुष्य के कारबार में एक व्यवस्था है।
क्योंकि इन्हें वे नहीं जानते हैं, वे मुझे भी नहीं जानते हैं।
चूंकि बहुत कम लोग मुझे जानते हैं, इसलिए मैं विशिष्ट हूं।
इसलिए संत बाहर से तो मोटा कपड़ा पहनते हैं,
लेकिन भीतर हृदय में मणि-माणिक्य लिए रहते हैं।

गुरुवार, 28 जून 2018

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--080

कठिनतम पर कोमलतम सदा जीतता है—(प्रवचन—अस्सीवां)

अध्याय 43

कोमलतम तत्व

संसार का कोमलतम तत्व
कठिनतम के भीतर से गुजर जाता है।
और जो रूपरहित है, वह
उसमें प्रवेश कर जाता है,
जो दरारहीन है;
इसके जरिए मैं जानता हूं कि
अक्रियता का क्या लाभ है।
शब्दों के बिना उपदेश करना,
और अक्रियता का जो लाभ है,
वे ब्रह्मांड में अतुलनीय हैं।

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--079

ताओ सब से परे है—(प्रवचन—उन्‍नासिवां)

अध्याय 42

हिंसक मनुष्य

ताओ से एक का जन्म हुआ;
एक से दो का; दो से तीन का;
और तीन से सृष्ट ब्रह्मांड का उदय हुआ।
सृष्ट ब्रह्मांड के पीछे यिन का वास है
और उसके आगे यान का;
इन्हीं व्यापक सिद्धांतों के योग से
वह लयबद्धता को प्राप्त होता है।
"अनाथ', "अयोग्य' और "अकेला' होने से
मनुष्य सर्वाधिक घृणा करता है।
तो भी राजा और भूमिपति अपने

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--076

अस्तित्व अनस्तित्व से घिरा है—(प्रवचन—छिहत्‍तरवां)

 अध्याय 40

 प्रतिक्रमण का सिद्धांत

प्रतिक्रमण ताओ का कर्म है। और भद्रता ताओ का व्यवहार है।
संसार की वस्तुएं अस्तित्व से पैदा होती हैं; और अस्तित्व अनस्तित्व से आता है।
 अध्याय 41 : खंड 1

 ताओपंथी के गुणधर्म

 जब सर्वश्रेष्ठ प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं,
तब वे उसके अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते हैं।
जब मध्यम प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं,
तब वे उसे जानते से भी लगते हैं और नहीं जानते से भी।
और जब निकृष्ट प्रकार के लोग ताओ को सुनते हैं,
तब वे अट्टहास कर उठते हैं--मानो इस पर

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--075

अस्तित्व में सब कुछ परिपूरक है—(प्रवचन—पिचत्‍हरवां)

अध्याय 39 : खंड 2

परिपूरकों द्वारा एकता

इसलिए अभिजात वर्ग सहारे के लिए साधारण जन पर निर्भर है;
और उच्चस्थ जन आधार के लिए निम्नस्थ पर निर्भर है।
यही कारण है कि राजा और भूमिपति अपने को
"अनाथ,' "अकेला,' और "अयोग्य' कहते हैं।
क्या यह सच नहीं है कि वे सहारे के लिए साधारण जनों पर निर्भर हैं?
सच तो यह है कि रथ के अंगों को अलग-अलग कर दो,
और कोई रथ नहीं बच रहता है।
मणि-माणिक्य की तरह झनझनाने के बजाय
चट्टानों की तरह गड़गड़ाना कहीं अच्छा है।

बुधवार, 27 जून 2018

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--034

संत की पहचान: सजग व अनिर्णीत, अहंशून्य व लीलामय—(प्रवचन—चौंतीसवां) 

अध्याय 15 : खंड 1

प्राचीन समय के संतजन

प्राचीन समय में ताओ में प्रतिष्ठित एवं निष्णात संतजन सूक्ष्म
और अति संवेदनशील अंतर्दृष्टि से उसके रहस्यों को समझने में
सफल हुए। और वे इतने गहन थे कि मनुष्य की समझ के परे थे।
और चूंकि वे मनुष्य के ज्ञान के परे थे, इसलिए उनके संबंध में
इस प्रकार कुछ कहने का प्रयास किया जा सकता है कि वे अत्यंत
सतर्क व सजग हैं, जैसा कोई शीत-ऋतु में किसी नाले को पार करते
समय हो; वे सतत अनिर्णीत व चौकन्ने रहते हैं, जैसा कि
कोई व्यक्ति जो कि सब ओर खतरों से घिरा हो;
वे जीवन में जैसे कि अतिथि हों, ऐसा गंभीर अभिनय करते हैं।
उनकी अस्मिता सतत विसर्जित होती रहती है, जैसे कि प्रतिपल
बिखरता हुआ बर्फ हो; वे अपने बारे में किसी प्रकार की घोषणा
नहीं करते, जैसे कि वह लकड़ी, जिसे अभी कोई भी रूप नहीं
दिया गया है; वे एक घाटी की भांति रिक्त और
मटमैले जल की भांति विनम्र होते हैं।

ताओ उपनिषाद--प्रवचन--025

 आमंत्रण भरा भाव व नमनीय मेधा—(प्रवचन—पचीसवां)

अध्याय 10 : सूत्र 2
अद्वय की स्वीकृति

जनसमूह के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने में और शासन के
व्यवस्थापन की प्रक्रिया में क्या वह सोद्देश्य
कर्म के बिना अग्रसर नहीं हो सकता?
क्या वह स्वर्ग के अपने दरवाजे (नासारंध्र)
को खोलने और बंद करने में एक स्त्रैण
पक्षी की तरह काम नहीं कर सकता?
जब उसकी मेधा सभी दिशाओं की ओर अभिमुख हो,
तब क्या वह ज्ञानरहित होने जैसा नहीं दिख सकता?

विचारशील मनुष्य निरंतर ही पूछता है: जीवन का उद्देश्य क्या? जीएं क्यों? किसलिए? और ऐसा आज नहीं, सदा से ही विचारशील मनुष्य ने पूछा है। समस्त धर्मों का जन्म और समस्त दर्शनों का जन्म इस प्रश्न के आस-पास ही निर्मित हुआ है: उद्देश्य क्या है? प्रयोजन क्या है? लक्ष्य क्या है? अंत क्या है? और जो ऐसा नहीं पूछते हैं, विचारशील लोग सोचते रहे हैं कि वे विचारहीन हैं, अज्ञानी हैं। जो ऐसे ही जीए चले जाते हैं, बिना लक्ष्य को पूछे, उन्हें विचारशील लोग सदा से अज्ञानी समझते रहे हैं।

बुधवार, 20 जून 2018

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-08)


आठवां—प्रवचन

स्‍वप्‍नसर्जन मना विसर्जन और नित्‍य सत्‍य की उपलब्‍धि

अनित्यं ज्जगद्यज्जनित स्वप्‍न  जगअगजादि तुल्यम

तथा देहादि संघातम् मोह गणजाल कलितम्।

तद्रब्यूस्वप्‍न वत् कल्पितम्।

विष्णु विध्यादि शताभिधान लक्ष्यम्।

 अंकुशो मार्ग:।

जगत अनित्य है, उसमें जिसने जन्म लिया है, वह स्वप्‍न के संसार जैसा और आकाश के    हाथी जैसा मिथ्या है। वैसे ही यह देह आदि समुदाय मोह के गुणों से युक्त है। यह सब रस्सी              में भ्रांति से कल्पित किए गए सर्प के समान मिथ्या है।
            विष्णु, ब्रह्मा आदि सैकड़ों नाम वाला ब्रह्म ही लक्ष्य है।
                        अंकुश ही मार्ग है।

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-07)


सातवां—प्रवचन

अखंड जागरण से प्राप्‍तप्ररमानंदी तुरीयावस्‍था





                  शिवयोगनिद्रा च खेचरी मुद्रा च परमानंदी।
                              निर्गुण गुणत्रयम्।
                               विवेक लभ्यम्।
                              मनोवाग् अगोचरम्।

निद्रा में भी जो शिव में स्थित हैं और ब्रह्म में जिनका विचरण है, ऐसे वे परमानदीं हैं।
                        वे तीनों गुणों से रहित हैं।
                  ऐसी स्थिति विवेक द्वारा प्राप्त की जाती है।
                     वह मन और वाणी का अविषय है।

सोमवार, 18 जून 2018

फूल ओर कांटे--(कथा--07)


कथा-सातवी -(कंफ्यूसियस मरणशय्या पर)


मैं जीवन में उन्हें हारते देखता हूँ जो कि जीतना चाहते थे। क्या जीतने की आकांक्षा हारने का कारण नहीं बन जाती है?
आँधी आती है तो आकाश को छूते वृक्ष टूट कर सदा के लिए गिर जाते हैं और घास के छोटे-छोटे पौधे आँधी के साथ डोलते रहते हैं और बच जाते हैं।
पर्वतों से जल की धाराएँ गिरती हैं- कोमल, अत्यंत कोमल जल की धाराएँ और उनके मार्ग में खड़े होते हैं विशाल पत्थर- कठोर शिलाखंड। लेकिन एक दिन पाया जाता है, जल तो अब भी बह रहा है लेकिन वे कठोर शिलाखंड टूट-टूटकर, रेत होकर एक दिन मालूम नहीं कहाँ खो गये हैं।

फूल ओर कांटे--(कथा--06)


 कथा—छठवां -(संत औगास्टिनस)

विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। 
क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। 
क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। 
क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। 
क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है।

संत औगास्टिनस एक सुबह सागर तट पर था। सूर्य निकल रहा था और वह अकेला ही घूमने निकल पड़ा था। अनेक रात्रियों के जागरण से उनकी आँखें थकी-मंदी थी। सत्य की खोज में वह करीब-करीब सब शांति खो चुका था।

फूल ओर कांटे--(कथा--05)


कथा—पांचवी (सहास और निरीक्षण)

सत्य की खोज में सम्यक निरीक्षण से महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम तो करीब करीब सोये-सोये ही जीते हैं, इसलिए जागरूक निरीक्षण का जन्म ही नहीं हो पाता है। जो जगत हमारे बाहर है, उसके प्रति भी खुली हुई आँखें और निरीक्षण करता हुआ चित्त चाहिए और तभी उस जगत के निरीक्षण और दर्शन में भी हम समर्थ हो सकते हैं जो कि हमारे भीतर है।

मैं आपको एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में ले चलता हूँ। कुछ विद्यार्थी वहाँ इकट्ठे हैं और एक वृद्ध वैज्ञानिक उन्हें कुछ समझा रहा है। वह कह रहा है : ‘सत्य के वैज्ञानिक अनुसंधान में दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं- साहस और निरीक्षण।

फूल ओर कांटे--(कथा--04 )


कथा—चौथी (चरवाहा और हीरा)


प्रेम जिस द्वार के लिए कुंजी है। ज्ञान उसी द्वार के लिए ताला है।
और मैंने देखा है कि जीवन उनके पास रोता है जो कि ज्ञान से भरे हैं लेकिन प्रेम से खाली हैं।

एक चरवाहे को जंगल में पड़ा एक हीरा मिल गया था। उसकी चमक से प्रभावित हो उसने उसे उठा लिया था और अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। सूर्य की किरणों में चमकते उस बहुमूल्य हीरे को रास्ते से गुज़रते एक जौहरी ने देखा तो वह हैरान हो गया, क्योंकि इतना बड़ा हीरा तो उसने अपने जीवन भर में भी नहीं देखा था।
उस जौहरी ने चरवाहे से कहा : ‘क्या इस पत्थर को बेचोगे? मैं इसके दो पैसे दे सकता हूँ?'

फूल ओर कांटे--(कथा--03)


कथा--तीसरी (ग्रंथियों की खोज)

एक वृद्ध मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं : ‘नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गयी है।’ यह उनकी रोज की ही कथा है।

एक दिन मैंने उनसे एक कहानी कही : ‘एक व्यक्ति के ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में बंदर की ग्रंथियाँ लगा दी गयीं थीं। फिर उसका विवाह हुआ। और फिर कालांतर में पत्नी प्रसव के लिए अस्पताल गई। पति प्रसूतिकक्ष के बाहर उत्सुकता से चक्कर लगा रहा था। और जैसे ही नर्स बाहर आई, उसने हाथ पकड़ लिए और कहा : ‘भगवान के लिए जल्दी बोलो। लड़का या लड़की?’
उस नर्स ने कहा : ‘इतने अधीर मत होइए। वह पंखे से नीचे उतर जाये, तब तो बताऊं?'
वह व्यक्ति बोला : ‘हे भगवान! क्या वह बंदर है?'और फिर थोड़ी देर तक वह चुप रहा और पुनः बोला : ‘नयी पीढ़ी का कोई भरोसा नहीं है। लेकिन यह तो हद हो गई कि आदमी से और बंदर पैदा हो?'

फूल ओर कांटे-(कथा--02)


कथा—दूसरी (जीवन का जहाज़)

जीवन बहुत उलझा हुआ है लेकिन अक्सर जो उसे सुलझाने में लगते हैं वे उसे और भी उलझा लेते हैं।
जीवन निश्चय ही बड़ी समस्या है लेकिन उसके लिए प्रस्तावित समाधान उसे और भी बड़ी समस्या बना देते हैं।
क्यों? लेकिन एसा क्यों होता है?

एक विश्वविद्यालय में विधीशास्त्र के एक अध्यापक अपने जीवनभर वर्ष के पहले दिन की पढ़ाई तखते पर ‘चार’ और ‘दो’ के अंक लिखकर प्रारंभ करते थे। वे दोनों अंकों को लिखकर विद्यार्थियों से पूछते थे : ‘क्या हल है?'
निश्चय ही कोई विद्यार्थी शीघ्रता से कहता : ‘छः!’
और फिर कोई दूसरा कहता : ‘दो!’

फूल और कांटे-(कथा--01)


कथा-एक  (सुलतान महमूद)

मैं देखता हूं कि प्रभु का द्वार तो मनुष्य के अति निकट है लेकिन मनुष्य उससे बहुत दूर है। क्योंकि न तो वह उस द्वार की ओर देखता ही है और न ही उसे खटखटाता है।
और मैं देखता हूं कि आनंद का खजाना तो मनुष्य के पैरों के ही नीचे है लेकिन न तो वह उसे खोजता है और न ही खोदता है।
एक रात सुलतान महमूद घोड़े पर बैठकर अकेला सैर करने निकला था। राह में उसने देखा कि एक आदमी सिर झुकाए सोने के कणों के लिए मिट्टी छान रहा है। शायद उसकी खोज दिन भर से चल रही थी। क्योंकि उसके सामने छानी हुई मिट्टी का एक बड़ा ढेर लगा हुआ था। और शायद उसकी खोज निष्फल ही रही थी। क्योंकि यदि वह सफल हो गया होता तो आधी रात गए भी अपना कार्य नहीं जारी न रखता। सुलतान क्षणभर उसे अपने कार्य में डूबा हुआ देखता रहा और फिर अपना स्वर्णिम बहुमूल्य बाजूबंद मिट्टी के ढेर पर फेंक कर वायु वेग से आगे बढ़ गया।

फूल ओर कांटे--(ओशो का अप्रकासित सहित्य)


ओशो का अप्रकासित सहित्य-

ओशो ने जीवन में जो कुछ भी कहां बोल कर कहां, ओर उनकी जितनी भी पूस्तके हम ओर आप ये सारा जगत पढ़ रहा है उसमें उन्होंने 96% बोला है, अब बोले साहित्य के लिए एक तो अवेरनेश इतनी होनी चाहिए की आपने जो बोल दिया उसमें अब कांट-छांट करने की संभावना लगभग खत्म हो जाती है। ओर सच ओशो ने जीवन में जो बोल दिया उसे काटने ओर छांटनी की बात ही नहीं बचती।
शायद दूनियां में एैसे बुद्ध हुए है परंतु विज्ञानिक प्रगती के कारण हम उन्हें रिकार्ड नहीं कर सकते। तब वह श्रृति ओर स्मृति में संजो कर रखा गया जिसे ज्यादा दिन श्रेष्ठ ओर सत्य बना कर नहीं रखा जा सकता। एक पीढ़ी के बाद दूसरी-तीसरी इस तरह उसमें मिलावट हो ही जाती थी।
ओशो का ऐसा साहित्य जो उन्होंने लिखा था वह या तो पत्र थे या या बहुत पहले उन्होंने उसे बहुत पहले घर या कालेज के दिनों में लिखा था। जो कभी प्रकाशित नहीं हुए ऐसा ही कुछ सहित्य स्वामी शैलेन्द्र सरसवती (ओशो के छोटे भाई जो अब ओशो धारा के माध्यम से ओशो कार्य कर रहे है) ने मुझे कुछ ऐसा सहित्य भेजा की जिसे मैं आपना भाग्य समझता हूं ओर ओशो ने मुझे इस काबिल समझा। तब मुझे लगा की ये तो सब के पास पहूंचना चाहिए इस लिए उसे आप सब तक पहूंचा रहा हूं।

रविवार, 17 जून 2018

कैवल्‍य उपनिषद--प्रवचन-01

   कैवल्‍य उपनिषद--ओशो 

ओशो से अनंत—अनंत फूल झरे है,
                  झरते ही जा रहे है,
            झरते ही जा रहे है.....उनका एक—एक शब्‍द
               परम सुगंध का एक जगत है।
              माउंट आबू की सुरम्‍य पहाड़ियों में
            ऐसे ही एक अनुठे फूल के रूप में प्रगटा
      कैवल्‍य उपनिषद, जिसमें शाश्‍वत की सत्रह पंखुड़ियां है।
            अपूर्व था ओशो की भगवता का यह आयाम,
           जो माउंट आबू के विभिन्‍न ध्‍यान—योग शिविरों
                के रूप में देखने—सुनने को मिला।


स्‍वयं पूर्ण का अनुभव है कैवल्‍य—पहला प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
माऊंट आबू,
25 मार्च 1972, रात्रि।
राजस्‍थान।

केनोउपनिषद--प्रवचन--17

हरेक क्षण को उत्‍सव बनाओ—सतरहवां प्रवचन

दिनांक 16 जुलाई 1973संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।

प्रश्‍न सार :


*उपनिषदों की पाप की धारणा में और बाइबिल की पाप की धारणा में क्या अंतर है?

*आत्यंतिक रहस्य सामान्यतया एक ही शिष्य को क्यों हस्तांतरित किया जाता है?


पहला प्रश्न :

सुबह आपने कहा कि जो ब्रह्म को जान लेता है वह पाप को नष्‍ट कर देता है। और ब्रह्म में भलीभांति स्‍थित हो जाता है। इस संदर्भ में कृपया स्‍पष्‍ट करें कि उपनिषदों की पाप की धारणा में और बाइबिल की पाप की धारण में क्‍या अंतर है? और कृपया यह भी समझायें कि मनुष्‍य के जीवन पर उसका क्‍या प्रभाव है?

शनिवार, 16 जून 2018

ईशावास्‍य उपनिषाद--प्रवचन--02

वह परम भोग है—दूसरा प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
माउंट आबू, राजस्‍थान।

सूत्र:

            हरि ओम,
            ईशावास्‍यमिदं सर्वं यत्किज्व जगत्या जगत्।
            तेन त्यक्तेन पुज्जीथा: मा गृध: कस्यस्विद्धनमू।। 1।।


      जगत में जो कुछ स्थावर—जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा
      आच्छादनीय है। उसके त्याग— भाव से तू अपना पालन कर; किसी
                  के धन की इच्छा न कर।। 1।।

शावास्य उपनिषद की आधारभूत घोषणा : सब कुछ परमात्मा का है। इसीलिए ईशावास्य नाम है — ईश्वर का है सब कुछ।
मन करता है मानने का कि हमारा है। पूरे जीवन इसी भ्रांति में हम जीते हैं। कुछ हमारा है — मालकियत, स्वामित्व — मेरा है। ईश्वर का है सब कुछ, तो फिर मेरे मैं को खड़े होने की कोई जगह नहीं रह जाती।

शुक्रवार, 15 जून 2018

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-06

प्रवचन—छठवां   ( प्रश्‍न एवं उत्तर)

 बंबईदिनांक 20 फरवरी 1972, रात्रि
पहला प्रश्‍न:

     भगवान, काम-वृत्ति के उदाहरण को ध्यान में रखते हुए कृपया बतलाएं कि अचेतन को प्रत्यक्ष देखने के लिए क्या-क्या प्रयोगिक उपाय हैं और कैसे कोई जाने कि वह उससे मुक्त हो गया है?

      अचेतन वास्तव में अचेतन नहीं है। बल्कि वह केवल कम चेतन है अतः चेतन व अचेतन में विपरीत ध्रुवों का भेद नहीं है, बल्कि मात्राओं का भेद है। अचेतन और चेतन दोनों जुड़े हुए हैं, संयुक्त हैं। वे दो नहीं हैं।

      परन्तु हमारा सोचने का जो ढंग है, वह विशेष तर्क की झूठी पद्धति पर आधारित है जो कि प्रत्येक बात को विपरीत ध्रुवों में बांट देती है। वास्तविकता उस तरह कभी भी बंटी हुई नहीं है केवल तर्क ही उस तरह विभाजित है।

      हमारा तर्क कहता है--हां या नहीं। हमारी लाजिक कहती है--प्रकाश या अंधकार। जहां तक तर्क का संबंध है, उन दोनों में कोई संबंध नहीं है।

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-05

(एक स्थिर मनः प्रभु का द्वार)-ओशो

प्रवचन—पांचवा
बंबईदिनांक 19 फरवरी 1972, रात्रि
निश्‍चल ज्ञानं आसनम।

      निश्‍चल ज्ञान ही आसान है।

      मनुष्य न तो केवल शरीर ही है और न मन ही। वह दोनों है। और यह कहना भी एक अर्थ में गलत है कि वह दोनों है क्योंकि शरीर और मन भी यदि अलग-अलग हैं, तो केवल दो शब्दों के रूप में। अस्तित्व तो एक ही है। शरीर कुछ और नहीं है वरन चेतना की सबसे बाहरी परत है, चेतना की सर्वाधिक स्थूल अभिव्यक्ति। और चेतना कुछ और नहीं बल्कि सर्वाधिक स्थूल अभिव्यक्ति। और चेतना कुछ और नहीं बल्कि सर्वाधिक सूक्ष्म शरीर है, शरीर का सबसे अधिक निखरा हुआ अंग। आप इन दोनों के मध्य में होते हैं।

      ये दो चीजें नहीं हैं, परन्तु एक ही वस्तु के दो छोर हैं। अतः जब कभी ज्ञान निश्‍चल हो जाता है, तो शरीर भी प्रभावित होता है और निश्‍चल ज्ञान से निश्‍चल शरीर भी नि£मत होता है। परन्तु इसका उल्टा सच नहीं है।

आत्म पूजा उपनिषद--प्रवचन-04

प्रवचन—चौथाा  (प्रश्‍न एवं उत्तर)

 बंबईदिनांक 18 फरवरी 1972, रात्रि
पहला प्रश्‍न:  

     भगवान, कल रात्रि आपने कहा था कि वासनाएं मृत-अतीत से कल्पित भविष्य के बीच लगती हैं। कृपया समझाएं, क्यों और कैसे यह मृत-अतीत इतना शक्तिशाली व प्राणवान साबित होता है कि यह एक व्यक्ति को अंतहीन वासनाओं की प्रक्रिया में बहने के लिए मजबूर कर देता है? कैसे कोई इस प्राणवान अतीत--अचेतन व समष्टि अचेतन से मुक्त हो?

     
      अतीत प्राणवान जरा भी नहीं है, वह पूरी तरह मृत है। परन्तु फिर भी उसमें वजन है--एक मृत-वजन। वह मृत-वजन ही काम करता है। वह शक्तिशाली बिलकुल भी नहीं। क्यों यह मृत-वजन काम करता है, इसे समझ लेना चाहिए।

सोमवार, 11 जून 2018

अष्‍टावक्र: महागीता--(प्रवचन--32)

प्राण की यह बीन बजना चाहती है—प्रवचन—दूसरा

दिनांक 12 नवंबर, 1976;
श्री रजनीश आश्रम पूना।
प्रश्‍न सार:

पहला प्रश्न :

आपने हमें संन्यास दिया, लेकिन कोई मंत्र नहीं बताया। पुराने ढब के संन्यासी मिल जाते हैं तो वे पूछते हैं, तुम्हारा गुरुमंत्र क्या है?

मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र शब्द का भी यहीं अर्थ है, मन का जाल, मन का फैलाव। मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से मुक्त होना है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और अगर मंत्र को सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा।
निश्चय ही मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया। नहीं चाहता कि तुम्हारा मन बचे। तुमसे मंत्र छीन रहा हूं। तुम्हारे पास वैसे ही मंत्र बहुत हैं। तुम्हारे पास मंत्रों का तो बड़ा संग्रह है। वही तो तुम्हारा सारा अतीत है। बहुत तुमने सीखा। बहुत तुमने ज्ञान अर्जित किया। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है। किसी का मंत्र कुरान में है, किसी का मंत्र वेद में है।