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शनिवार, 2 जनवरी 2016

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--36)

(अध्‍याय—छत्‍तीसवां)

 सुबह पूना से बंबई जाने वाली गाड़ी डेकन क्वीन' पर दो फर्स्ट क्लास की टिकटें बुक की गई हैं। मैं बहुत —उत्साहित हूं और गाड़ी में साढ़े—तीन घंटे तक ओशो के साथ बैठने की राह देख रही हूं। सोहन हमें गाड़ी में खाने के लिए कुछ नाश्ता बनाकर देना चाहती है, पर ओशो उसे कहते हैं कि वह इस सबकी चिंता में न पड़े।


हम लोग 7 बजे तक प्लेटफार्म पर पहुंच जाते हैं। करीब बीस मित्र उन्हें विदा देने आए हैं। हमेशा की तरह, सोहन की आंखें आंसुओ से भरी हुई हैं और नल की तरह बह रही हैं। ओशो उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हैं। जवाब में, वह भी मुस्कुराती है और फिर रोने लगती है। मैं. उसके हृदय को जुदाई की पीड़ा से जलता हुआ महसूस कर सकती हूं। —कोशों उसके पति से कहते हैं, बाफना जी, सोहन के साथ नारगोल के अगले शिविर में आइए।सोहन ओशो के पास आती है और झुककर उनके पांव छूती है। वे अपना दायां हाथ उसके सिर पर रख देते हैं। वह अभी भी रो रही है। ओशो अपने हाथ से उसके सिर को थपथपाते हैं और धीरे से उसे पुकारते हैं, सोहन '। सोहन ऊपर देखती है और ओशो उसका हाथ पकड़कर उसे उठाते हैं और पूछते हैं, क्या तू नारगोल के शिविर में आ सकेगी?' वह बोल नहीं पाती, सिर्फ अपना सिर सहमति में हिला देती है। ओशो कहते हैं, यह अच्छा है।वे गाड़ी की सीढ़ियों पर खड़े होकर सबको नमस्ते करते हैं और धीरे—धीरे गाड़ी उनके प्रेमियों की नजरों से ओझल हो जाती है।

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