दिनांक: 15 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
साधो
देखो जग
बौराना।
सांची
कहौं तो मारन धावै, झूठे जग
पतियाना।।
हिंदू
कहत है
राम हमारा, मुसलमान रहमाना।
आपस
में दोउ लड़े मरतु हैं, मरम
कोई नहिं
जाना।।
बहुत
मिले मोहि
नेमी धरमी, प्रात करै
असनाना।
आतम
छोड़ि
पखाने पूजैं, तिनका थोथा ग्याना।।
आसन
मारि डिम्भ
धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर
पाथर पूजन लागे, तीरथ वर्त
भुलाना।।
माला
पहिरे
टोपी पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी
सबदै गावत
भूलै, आतम खबर न
जाना।।
घर घर मंत्र
जो देत
फिरत है, माया के अभिमाना।
गुरुवा
सहित सिष्य
सब बूड़ें, अंतकाल पछिताना।।
बहुतक
देखे पीर
औलिया, पढ़ै किताब कुराना।
करै
मुरीद कबर बतलावै, उनहुं खुदा न
जाना।।
हिंदू
की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से
भागी।
वह करै जिबह
वां झटका मारै, आग दोउ घर
लागी।।
या
विधि हंसी चलत
है हमको, आप कहावै
स्याना।
धर्म
क्या है? शब्दों
में, शास्त्रों
में, क्रियाकांडों में या
तुम्हारी
अंतरात्मा
में, तुममें,
तुम्हारी
चेतना की
प्रज्वलित
अग्नि में?
धर्म
कहां है? मंदिरों
में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में?
आदमी
के बनाए हुए
मंदिर—मस्जिदों
में धर्म हो
कैसे सकता है? धर्म तो
वहां है जहां
परमात्मा के
हाथ की छाप है।
और तुमसे
ज्यादा उसके
हाथ की छाप और
कहां है? मनुष्य
की चेतना इस
जगत में
सर्वाधिक
महिमापूर्ण
है। वहीं उसका
मंदिर है; वहीं
धर्म है।
धर्म
है व्यक्ति और
समष्टि के बीच
प्रेम की एक
प्रतीति—ऐसे
प्रेम की जहां
बूंद खो देती
है अपने को
सागर में और
सागर हो जाती
है; जहां
सागर खो देता
है अपने को
बूंद में और
बूंद हो जाता
है; व्यक्ति
और समष्टि के
बीच ध्यान का
ऐसा क्षण, जब
दो नहीं बचते,
एक ही शेष
रह जाता है; प्रार्थना
का एक ऐसा पल, जहां
व्यक्ति तो
शून्य हो जाता
है; और
समष्टि महाव्यक्तित्व
की गरिमा से
भर जाती है।
इसलिए तो हम
उस क्षण को
ईश्वर का
साक्षात्कार
कहते हैं।
व्यक्ति तो
मिट जाता है, समष्टि में
व्यक्तित्व
छा जाता है; सारी समष्टि
एक महाव्यक्तित्व
का रूप ले
लेती है।
धर्म
व्यक्ति और
समष्टि के बीच
घटी एक अनूठी
घटना है; लेकिन
ध्यान रहे—सदा
व्यक्ति और
समष्टि के बीच,
व्यक्ति और
समाज के बीच
नहीं। और
जिनको तुम धर्म
कहते हो, वे
सभी व्यक्ति
और समाज के
संबंध हैं।
अच्छा हो, तुम
उन्हें
संप्रदाय कहो,
धर्म नहीं।
और संप्रदाय
से धर्म का
उतना ही संबंध
है जितना जीवन
का मुर्दा लाश
से। कल तक कोई
मित्र जीवित
था, चलता
था, उठता
था, हंसता
था, प्रफुल्लित
होता था; आज
प्राण—पखेरू
उड़ गए, लाश
पड़ी रह गई—उस
व्यक्ति की
हंसी से, मुस्कराहट
से, गीत से,
उस व्यक्ति
के मनोभाव से,
उस व्यक्ति
के उठने, बैठने,
चलने से, उस व्यक्ति
के चैतन्य से,
इस लाश का
क्या संबंध है?
पक्षी उड़
गया, पिंजरा
पड़ा रह गया—वह
जो आज आकाश
में उड़ रहा है
पक्षी, उससे
इस लोहे के
पिंजरे का
क्या संबंध है?
उतना ही
संबंध है धर्म
और संप्रदाय
का।
धर्म
जब मर जाता है, तब संप्रदाय
पैदा होता है।
और जो
संप्रदाय में
बंधे रह जाते
हैं, वे
कभी धर्म को
उपलब्ध नहीं
हो पाते। धर्म
को उपलब्ध
होना हो तो
संप्रदाय की
लाश से मुक्त
होना अत्यंत
अनिवार्य है।
अगर तुम
समझदार होते
तो तुम संप्रदाय
के साथ भी वही
करते, जो
घर में कोई मर
जाता है तो
उसकी लाश के
साथ करते हो।
तुम मरघट ले
जाते, दफना
आते, आग
लगा देते। लाश
को कोई
सम्हालकर
रखता है? लेकिन
तुम समझदार
नहीं हो और
लाश को सदियों
से सम्हालकर
रखे हो—लाश सड़ती
जाती है, उससे
सिर्फ
दुर्गंध आती
है। उससे
पृथ्वी पर कोई
प्रेम का
राज्य
निर्मित नहीं
होता, सिर्फ
घृणा फैलती है,
जहर फैलता
है।
धर्म
तो एक है, लाशें
अनेक हैं; क्योंकि
धर्म बहुत बार
अवतरित होता
है और बहुत
बार तिरोहित
होता है—हर
बार लाश छूट
जाती है। तीन
सौ संप्रदाय
हैं पृथ्वी पर,
और सब आपस
में कलह से
भरे हुए हैं।
सब एक—दूसरे
की निंदा और
एक—दूसरे को
गलत सिद्ध
करने की
चेष्टा में
संलग्न हैं, जैसे घृणा
ही उनका धंधा
है।
तुम्हारे
मंदिरों, मस्जिदों,
गुरुद्वारों से अब प्रेम
के स्वर नहीं
उठते, प्रार्थना
की बांसुरी
नहीं बजती, सिर्फ घृणा
का धुआं उठता
है। यह हो
सकता है कि तुम
घृणा के धुएं
के इतने आदी
हो गए हो कि
तुम्हें पता
ही नहीं चलता;
या
तुम्हारी
आंखें उस धुएं
से इतनी भर गई
हैं कि अब और
आंखों से आंसू
नहीं गिरते; या तुम इतने
अंधे हो गए हो
कि आंख ही
तुम्हारे पास
नहीं कि जिससे
आंसू गिर
सकें।
लेकिन
धर्म मरता है।
थोड़ी हैरानी
होगी, क्योंकि
धर्म तो
शाश्वत है—धर्म
कैसे मर सकता
है? निश्चित
ही धर्म
शाश्वत है, लेकिन इस
पृथ्वी पर
उसका कोई भी रूप
शाश्वत नहीं
है। जैसे तुम
तो बहुत बार
पैदा हुए, मरोगे;
तुम्हारे
भीतर जो छिपा
शाश्वत है, वह कभी पैदा
नहीं होता, कभी नहीं
मरता। लेकिन
तुम? तुम
तो आओगे, देह
धरोगे; यह देह
मरेगी, फिर
और देह धरोगे,
वह भी
मरेगी। थोड़ी
देर सोचो, अगर
आदमियों ने यह
किया होता कि
जितने लोगों
ने अब तक देह
धरी हैं, सबकी
लाशें बचा ली
होतीं, अगर
तुम्हारी
अकेले एक
व्यक्ति की सब
लाशें बचा ली
होतीं, तो
पृथ्वी पूरी
तुम्हारी ही
लाशों से भर
जाती।
क्योंकि तुम
कभी पक्षी थे,
कभी पशु थे,
कभी पौधे
थे। हिंदू
कहते हैं, चौरासी
करोड़
योनियों से
तुम गुजरे हो।
अगर एक योनि
से एक बार
गुजरे हो—जो
कि कम से कम है,
जिसके लिए
बहुत
ज्ञानवान
होना जरूरी है
कि एक बार में
ही छुटकारा हो
जाए एक ही
योनि से—अगर
हम न्यूनतम
मान लें कि
तुम एक योनि
से एक बार
गुजरे हो तो
तुम्हारी
चौरासी करोड़
लाशें अगर
सम्हालकर रखी
जाती होतीं, तो जमीन भर
जाती, पट
जाती उनसे।
तुम्हारी
ज्योति बहुत
दीयों में जली
है। ज्योति उड़
जाती है; दीये
को सम्हालकर
रखते जाओ, मुश्किल
में पड़ जाओगे।
जिस जगह पर
तुम बैठे हो, एक—एक इंच
जगह पर करोड़ों
लाशें गड़ी
हैं। क्योंकि
कितने लोग
हैं! कितनी
आत्माएं हैं!
और कितने वर्तुल
सबने लिए हैं!
ज्योति
चली जाती है, लाश को हम
दफना आते हैं।
धर्म के साथ
ऐसा नहीं हो
पाया—ज्योति
तो चली जाती
है, लाश रह
जाती है। लाश
को हम सम्हाल
लेते हैं। लाश
सूक्ष्म है, इसलिए
दुर्गंध का भी
पता उन्हीं को
चलता है जिनके
पास बड़े तीव्र
नासापुट हैं।
लाश इतनी
सूक्ष्म है कि
कबीर जैसी
आंखें हों, तो ही दिखाई
पड़ती है।
इसीलिए
धर्म पर
संप्रदाय
इकट्ठे हो
जाते हैं और
जब भी कोई नया
दीया
आविर्भूत
होता है—सनातन
की ज्योति को
लेकर, तब
मरे हुए सारे
संप्रदाय
उसके विरोध
में खड़े हो
जाते हैं।
क्योंकि वह एक
नया
प्रतियोगी है,
और
प्रतियोगी
असाधारण है।
उसके साथ जीता
भी नहीं जा
सकता, क्योंकि
वह जीवित है, तुम मुर्दा
हो। इसलिए
सारे
संप्रदाय
धर्म के दीये
को बुझाने में
संलग्न रहते
हैं। इसलिए तो
महावीर पर
पत्थर फेंके
जाते हैं; बुद्ध
का अपमान किया
जाता है; जीसस
को सूली दी
जाती है; मंसूर
की गर्दन काटी
जाती है। वे
जो
प्रतिष्ठित
संप्रदाय हैं,
वे जब भी
धर्म की
ज्योति जगेगी,
तभी भयभीत
हो जाते हैं—खतरा
पैदा हुआ।
क्योंकि यह एक
ज्योति उन
सबको मिटा
देने के लिए
काफी है।
इस
संबंध में कुछ
बातें समझ लें
तो कबीर के सीधे—सादे
पद बड़ी गहन
गरिमा से भर जाएंगे; उनमें से
बड़ी सुवास
उठेगी।
पहली
बात—धर्म भी
वैसे ही
पृथ्वी पर आता
है, जैसे
आत्मा आती है।
जब भी कोई
व्यक्ति
तैयार हो जाता
है, और
दीया पूरा
निर्मित हो
जाता है, तत्क्षण
ज्योति उतर
आती है। इसलिए
हिंदू अपने धर्मपुरुषों
को अवतार कहते
हैं। अवतार का
मतलब है—अवतरित
होना, ऊपर
से नीचे आना।
यह अवतार शब्द
बड़ा महत्वपूर्ण
है!
बुद्ध
चालीस वर्ष तक
अवतार नहीं
थे। एक रात अचानक
सब घट गया, दूसरे दिन
सुबह वे अवतार
हो गए। क्या
हुआ उस रात?—दीया चालीस
वर्ष से तैयार
हो रहा था; जब
दीया
परिपूर्ण
तैयार हो गया,
ज्योति उतर
आई।
हम
इतना ही कर
सकते हैं, पृथ्वी पर, दीया तैयार
कर सकते हैं; ज्योति तो
इस पृथ्वी पर
है ही नहीं।
ज्योति तो आती
है अज्ञात से;
ज्योति तो
आती है अनंत
से; ज्योति
तो आती है
सनातन शाश्वत
से—जब भी कोई
दीया पूरी तरह
तैयार हो जाता
है, तब
ज्योति उतर
आती है। तुम
केवल स्थिति
पैदा कर दो
परमात्मा के
उतरने की और
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा उतर
आएगा।
अवतरण
का अर्थ है:
ऊपर से उतरता
है धर्म। पृथ्वी
पर हम दीये
बनाते हैं, ज्योति ऊपर
से आती है।
फिर जब दीया
टूट जाता है
तो टूटे खंडहर
को तुम बचा
लेते हो; ज्योति
तो फिर ऊपर
चली जाती है।
जो ऊपर से आई
थी, वह
तुम्हारे
कारण नहीं आई
थी, वह
तुम्हारे
कारण रह भी
नहीं सकती; वह जिसके
कारण आई थी, वह दीया टूट
गया—वह बुद्ध
के साथ ही
विलीन हो जाती
है। लेकिन बुद्ध
के पदचिह्न
छूट जाते हैं
रेत पर।
उन्हीं पदचिह्नों
की पूजा चलती
है। कहां तो
बुद्ध के चरण,
कहां तो उन
चरणों से बहती
हुई अनंत धारा
ऊर्जा की—कि
जिनमें भी
साहस था झुकने
का, वे
झुके और सदा
के लिए तृप्त
हो गए; कि
जिनमें भी
हिम्मत थी
बुद्ध के
चरणों को छू लेने
की, उन्होंने
छुआ, और
जैसे पारस छू
गया और लोहा
सोना हो गया—कहां
तो वे चरण, और
कहां फिर रेत
पर छोड़े हुए
सूखे चिह्न!
फिर उन
चिह्नों की
पूजा चलती है
और चिह्नों की
पूजा में भी
अर्थ हो सकता है,
लेकिन केवल
उन्हीं के लिए
जिन्होंने
बुद्ध के चरण
देखे थे।
इसलिए पहली पीढ़ी उन
चरणों में भी
बुद्ध के
वास्तविक
चरणों की भनक
पाती है।
स्वाभाविक
है।
जिन्होंने
असली चरण देखे
थे, चरणचिह्नों को देखकर भी
याद जगती है, याद का दीया
जलता है। चरण—चिह्नों
को देखकर भी
भीतर वे सब
यादें हरी हो जाती
हैं जो बुद्ध
के चरणों के
पास घटी थीं।
लेकिन
दूसरी पीढ़ी
जो सिर्फ
कहानियां सुनेगी, उसके लिए
चरण—चिह्न तो
सिर्फ रेत पर
बने चरण—चिह्न
होंगे। इसलिए
बुद्ध के चरण—चिह्नों
में और बुद्धुओं
के चरण—चिह्नों
में क्या फर्क
होगा? कोई
फर्क न होगा।
पहली पीढ़ी ने तो
जीवंत घटना
देखी थी। पहली
पीढ़ी का
तो अंतस्तल
डोला था। पहली
पीढ़ी ने
तो नृत्य किया
था अवतरित
ऊर्जा के साथ, थोड़ी देर
साथ चला था; थोड़ी देर का
संग—साथ हो
गया था! और
जैसे कोई
फूलों की
बगिया से गुजर
जाए तो भी
वस्त्र वास
पकड़ लेते हैं
फूलों की—ऐसी
हर बुद्ध के
पास रह कर
पहली पीढ़ी
ने तो थोड़ी—सी
वास पकड़ ली
थी। लेकिन
दूसरी पीढ़ी
आएगी, दूसरी
पीढ़ी के
लिए तो बुद्ध
के चरण—चिह्न
कुछ भी अर्थ न
रखेंगे। अर्थ
औपचारिक होगा।
संप्रदाय
औपचारिक है।
पिता पूजते
हैं, बेटा भी पूजेगा, पिता पूजते
हैं तो बेटे
को भी पुजवाएंगे।
पिता जा करते
हैं, वह
बेटे को भी
करने के लिए
बाध्य
करेंगे। जो पिता
ने अपने
निर्णय से
किया था, वह
बेटा पिता के
निर्णय से
करेगा। इस
प्रकार सब मर
गया।
पिता
तो बुद्ध के
पास गए थे
अपने बोध से; खींचा था
बुद्ध ने, इसलिए
गए थे; भीतर
कोई पुकार उठी
थी; भीतर
कोई आमंत्रण
मिला था, तो
गए थे। बेटे
पर आरोपण होगा,
आमंत्रण
नहीं। न तो
बुद्ध हैं
पुकारने को, न बेटे को
बुद्ध का कोई
पता है। कथाएं
हैं, कहानियां
हैं, जिन
पर बेटा भरोसा
भी नहीं कर
सकता, क्योंकि
बातें ही कुछ
ऐसी हैं कि जब
तक जानो न, भरोसा
नहीं होता।
बेटे की यह
मजबूरी है।
जिसने जाना
नहीं अवतरण को;
जिसने देखी
नहीं वह
ज्योति जो
आकाश से आती
है; जिसने
केवल पृथ्वी
की ज्योतियां
ही देखी हैं—उसके
पास कोई उपाय
भी तो नहीं है
कि भरोसा करे।
संदेह
स्वाभाविक
है। उसके
संदेह को
पुरानी पीढ़ी
दबाएगी।
पुरानी पीढ़ी
भी एक मुसीबत
में है—उसने
देखा है। और
कौन बाप न
चाहेगा कि
उसका बेटा भी
भागीदार हो
जाए उस परम
अनुभव में!
कौन मां न
चाहेगी कि
उसका बेटा भी
उस परम की
दिशा में यात्रा
पर निकल जाए!
क्योंकि, जो
भी हमने जाना
है, हम
चाहते हैं
हमारे
प्रियजन भी
जान लें। जो
हमने पिया और
तृप्त हुए हम
चाहते हैं, हमारे
प्रियजन
क्यों प्यासे क्षुधातुर
मरें!
तो बाप
की भी मजबूरी
है कि वह
चाहता है कि
बेटे को दिखला
दे। बेटे की
मजबूरी है कि
जो उसने देखा
नहीं, जो
निमंत्रण उसे
नहीं मिला, वे उसे कैसे
देख ले? इन
दोनों के बीच
संप्रदाय
पैदा होता है।
बाप थोपता है
करुणा से; बेटा
स्वीकार करता
है भय से। बाप
ताकतवर है जो
कहता है मानना
पड़ेगा, न
मानो तो
मुसीबत में
डाल सकता है।
बाप कहता है
अपने प्रेम
से! बेटा
स्वीकार करता
है अपनी निर्बलता
से। इन दोनों
के बीच में
संप्रदाय
पैदा होता है।
पहली पीढ़ी के
पास तो थोड़ी—सी
धुन होती है।
गीत तो बंद हो
गया, प्रतिध्वनि
गूंजती
रहती है।
दूसरी पीढ़ी
को न गीत का
पता है, न
प्रतिध्वनि
का। जिसने गीत
ही न सुना हो, उसे
प्रतिध्वनि
का कैसा पता
चलेगा? जो
मूल से ही चूक
गया हो, उसके
लिए
प्रतिलिपियां
काम न आएंगी।
और कितना ही
समझाओ, बात
समझाने की
नहीं है। कबीर
कहते हैं, "लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी
बात।' देखी
तो ही सही है, नहीं देखी
तो परमात्मा
से बड़ा झूठ इस
संसार में
नहीं है। देखा
तो उससे बड़ा
कोई सत्य नहीं
है। देखा तो
वही एक मात्र
सत्य है; सभी
सत्य उसमें
लीन हो जाते
हैं। नहीं
देखा तो
परमात्मा
सरासर झूठ है।
सब चीजें सत्य
हैं। रास्ते
के किनारे पर
पड़ा पत्थर भी
सत्य है; परमात्मा
झूठ है।
"लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी
बात।'
लेकिन
दूसरी पीढ़ी
कैसे देखे? बाप ने देखी
होगी; लेकिन
जिसने देखी है
सिर्फ, जिसने
बुद्ध को देखा
है, लेकिन
जो बुद्ध नहीं
हो गया, वह
केवल
कहानियां कह
सकता है, वह
दिखा नहीं
सकता। वह
स्मरण कर सकता
है। स्मरण
मधुर हैं, बड़े
रससिक्त
हैं; लेकिन
उसके स्मरण
बेटे के लिए
क्या करेंगे?
इसलिए तो
हिंदुओं के
पास किताबें
हैं जिनका नाम
है: "स्मृति', जिसका नाम
है: "श्रुति'। श्रुति का
मतलब है: सुना—किसी
ने कहा वह
सुना। स्मृति
का अर्थ है:
किसी की
याददाश्त है,
उसने
बताया। इसलिए
हिंदुओं के
पास इतिहास नहीं
हैं, पुराण
हैं। पुराण का
मतलब है कि
हमने एक ऐसी महिमा
की घटना देखी
है कि हम उसे
सिद्ध भी करना
चाहें दूसरी पीढ़ी को, तो हम
इतिहास की तरह
सिद्ध भी न कर
सकेंगे।
क्या
सिद्ध करोगे? बुद्ध का
जन्म सिद्ध हो
सकता है, उसके
गवाह मिल सकते
हैं। बुद्ध
राजा के बेटे
थे, यह
सिद्ध हो सकता
है, उसके
प्रमाण मिल
सकते हैं।
चालीस वर्ष तक
के प्रमाण मिल
जाएंगे बुद्ध
के। लेकिन चालीसवें
वर्ष में जो
घटना घटी, उसका
कौन गवाह है? किस क्षण
में गौतम
सिद्धार्थ, गौतम
सिद्धार्थ न
रहा, "गौतम
बुद्ध' हो
गया? उस
क्षण का कोई
भी तो गवाह
नहीं है। उसको
इतिहास कैसे
बनाओगे जिसका
कोई गवाह नहीं
है: इसलिए हम
इतिहास कहते
ही नहीं उसको,
हम कहते हैं,
पुराण; हम
कहते हैं, कहानी
है।
कहानी
हाथ में रह
जाती हैं। पीढ़ी
दर पीढ़ी
हम उस कहानी
को दोहराते
हैं। जैसे—जैसे
बुद्ध से दूरी
बढ़ती जाती है, वैसे—वैसे
ही हम कहानी
को सही बताने
के लिए अतिशयोक्तियों
से भरने लगते
हैं। सिद्ध
करने के लिए
नई पीढ़ियों के
सामने कि एक महिमावान
पुरुष हुआ था,
धर्म उतरा
था पृथ्वी पर।
हम कपोल
कल्पित बातें जोड़ने
लगते हैं।
कारण है कपोल
कल्पित बातों
को जोड़ने
का, क्योंकि
मूल घटना का
कोई भी प्रमाण
नहीं है। इसलिए
हम उस मूल
घटना को बड़ी
कपोल
कल्पनाओं के घेरे
में खड़ा कर
देते हैं, ताकि
तुम मूल की
बात ही न पूछ
सको। हम बड़ा
जाल खड़ा कर
देते हैं। वह
जाल ही
संप्रदाय है।
और दूसरी
पीढ़ियां मानती
हैं, क्योंकि
और पीढ़ियां
मानती थीं; क्योंकि
पिता मानते थे,
इसलिए बेटा
मानता है।
यह लाश
है। इसमें सब
मर जाता है।
इस मरी हुई लाश
को जो ढो रहा
है, वह कबीर
को न समझ
पाएगा। और मजा
तो यह है कि
कोई बुद्ध के
साथ हो, राम
के साथ हो, कृष्ण
के साथ हो, तो
ठीक है; कबीर
के साथ भी वही
हो गया। कबीरपंथी
लाश ढो रहे
हैं।
आज मैं
तुमसे जो कह
रहा हूं, कल
मेरे साथ भी
यही हो जाएगा।
तुम अपने
बच्चों को
जरूर कहना
चाहोगे जो
मैंने तुमसे
कहा है। तुम
बांटना
चाहोगे।
अभी दो
दिन पहले ही
एक मित्र आए।
पति—पत्नी
दोनों
संन्यासी
हैं। पत्नी को
गर्भ है तो वे
चाहते थे कि
उनके गर्भ के
बच्चे को अभी
संन्यास दे
दूं। बड़ा
प्रेम है! बड़ा
भाव है! लेकिन
ऐसे ही तो
संप्रदाय
निर्मित होता
है। वह गर्भ
के बच्चे को
तो कोई पता ही
नहीं। उसकी तो
स्वीकृति भी
नहीं। वह तो
अभी बेहोश है।
उनके प्रेम को
कोई दोष नहीं
दे सकता। यह
प्रीतिकर है
कि पिता और
मां सोचे कि उनका
बच्चा भी
संन्यस्त हो।
लेकिन इस
बच्चे को तो
कुछ भी पता
नहीं है। और
यह बच्चा
संन्यासी बना
दिया जाए तो
आरोपण होगा; कल यह ढोएगा
संन्यास को।
तुमने तो अपनी
प्रफुल्लता
से लिया था; तुमने तो
अपने आनंद से
लिया था; तुमने
तो किसी स्वाद
से लिया था; तुमने तो
निर्णय लिया
था; तुम्हारा
तो यह संकल्प
और समर्पण था;
लेकिन इस
बेटे पर तो
आरोपण होगा।
अगर यह छोड़ेगा
तो अपराध
अनुभव करेगा
कि माता—पिता
ने संन्यास
दिलवाया और
मैं छोड़ता हूं,
तो गिल्ट,
अपराध पैदा
होगा; अगर
पालन करेगा तो
झूठा होगा, क्योंकि मन
में तो कोई
भाव नहीं है।
सांप्रदायिक
व्यक्ति ऐसी
ही दुविधा में
फंसा होता है।
अगर न माने, न करे तो
अपराध पकड़ता
है—क्योंकि
मैं धोखा दे
रहा हूं पिता
को, माता
को, लंबी
परंपरा को; न मालूम
कितने लोगों
ने आशाएं
बांधी हैं उन
सबको मैं तोड़
रहा हूं, धोखा
दे रहा हूं।
तो अगर कोई
अपने
संप्रदाय को
छोड़ दे तो
ग्लानि होती
है, मन
अपराध से भरता
है; अगर पकड़े
रखे तो कोई
आनंद नहीं आता,
कोई नृत्य
पैदा नहीं
होता—बोझ की
तरह ढोता है।
सांप्रदायिक
व्यक्ति बड़ी
दुविधा में
जीता है।
मगर यह
स्वाभाविक
है। जिस दिन
यह समझ लिया
जाएगा पृथ्वी
पर कि यह
स्वाभाविक है, उस दिन यह
बंद हो जाएगा।
और जो व्यवहार
लाश के साथ
करते हैं, वही
व्यवहार हमें
संप्रदाय के
साथ करना चाहिए।
बहुत प्रेम है,
माना बचाने
का मन होता है;
लेकिन पिता
मर जाते हैं
तो क्या करोगे?
पति मर जाता
है तो क्या
करोगे? बेटा
मर जाता है तो
क्या करोगे? मन होता है
कि छाती से
लाश चिपका लें;
मगर कितनी
देर चिपकाए
रखोगे? अगर
लाश को ज्यादा
देर चिपकाया
तो तुम भी लाश हो
जाओगे। उसकी
दुर्गंध
तुम्हें भी
दुर्गंध से भर
देगी। आज नहीं
कल अपने को समझाकर
लाश से
छुटकारा लेना
पड़ता है। पीड़ा
होती है। इतना
रस था, इतना
प्रेम था, इतना
लगाव था आज
उसी को जलाने
जाते हैं।
लेकिन जाना ही
पड़ता है। कष्ट
से, दुख से,
रोते हुए, जार—जार
संताप से; लेकिन
जलाने जाना ही
पड़ता है।
जो लाश
के साथ होता
है, वही धर्म
के साथ होना
चाहिए—जब धर्म
मर जाए। रोते
हुए जाओ, दुखी
जाओ: लेकिन
उसे विदा दे
दो। और जब
पृथ्वी पर लोग
संप्रदायों
को विदा देने
की हिम्मत नहीं
जुटाते, तब
तक लाशें बढ़ती
जाएंगी, दुर्गंध
फैलती जाएगी।
मंदिर, मस्जिद, चर्च
मरघट हो गए हैं।
वहां बड़े महिमावान
पुरुषों की
लाशें पड़ी हैं,
यह बात सच
है; लेकिन
लाश लाश
है।
दूसरी
बात, जब भी
धर्म का अवतरण
होता है किसी
व्यक्ति में;
जब कोई
व्यक्ति आधार
बनाता है धर्म
की ज्योति को
उतार लेने का;
जब कोई
व्यक्ति इतना
सबल होता है
अपनी शांति में
कि परमात्मा
को उतरना पड़ता
है उसमें; जब
कोई इतना गहन
हो जाता है
अपने समर्पण
में कि अनंत
को आ कर के
छूना पड़ता है
उसे; जब
किसी की प्यास
परम हो जाती
है, और
किसी का रोआं—रोआं
उसकी
व्याकुलता से
भर जाता है, तो उस पर
वर्षा होती है
परमात्मा की।
जब यह घटना
घटती है तब यह
घटना इतने गहन
निविड़
अंतस्तल में
घटती है कि
वहां शब्दों
की कोई पहुंच
नहीं; वहां
भाषा का कोई
स्थान नहीं; वहां कोई
तरंग भी नहीं
पहुंचती।
वहां सब निस्तरंग
है। वहां
ज्योति अकंप
जलती है।
उस
भीतर की घटना
को जब बाहर
बताने आना
पड़ता है, तब
संप्रदाय
पैदा होता है।
लेकिन वह भी
होगा। ज्ञानी
बिना बताए
नहीं रह सकता;
क्योंकि जो
जाना है, उसे
बांटना ही
होगा; जो
पाया है उसे
बांटना ही
होगा।
दुख का
स्वभाव है कि
तुम चाहो तो
बचा सकते हो। आनंद
का स्वभाव है
कि तुम उसे
बचा नहीं सकते; तुम्हें
बांटना ही
होगा। दुखी
आदमी एक कोने
में बैठ सकता है,
आनंदित
आदमी नहीं बैठ
सकता। वह
चाहेगा कि मित्रों
को इकट्ठा कर
ले, भोज दे
दें; आज तो
पूर्णिमा की
रात है; तारों
के नीचे नाच
लें; जो
उसे मिला है, थोड़ा सा
बांट दें।
आनंद बंटना
चाहिए। जैसे
फूल जब सुगंध
से भर जाता है
तो खिल जाता
है, सुवास
लुट जाती है; बादल जब जल
से भर जाता है—तो
बरस जाता है।
ऐसी ही जब
आनंद की घटना
भीतर घटती है,
उसे
सम्हालना
असंभव है; उसे
कभी कोई नहीं
सम्हाल पाया।
दुखी आदमी चुप
हो जाए, एकांत
में बैठ जाए, गुहा में
छिप जाए; आनंदित
आदमी कितनी ही
देर गुहा में
बैठा हो, उतरकर
वापस संसार
में आ जाता है।
दुखी महावीर
जंगल जाते
हैं। आनंदित
महावीर बाजार
में लौट आते
हैं। दुखी
बुद्ध भाग
जाते हैं, महल
से, आनंदित
बुद्ध गांव—गांव
भटकते हैं
बांटने को।
दुखी आदमी
पलायन करता है
जब आनंद की
घटना घटती है,
तो वह उतर
आता है ठेठ
वहां, जहां
भीड़ है, जहां
लेनेवाले हैं,
जहां
प्यासे लोग
हैं। जहां
पृथ्वी प्यास
से तड़प
रही है, वहां
बादल बरसने को
जाता है।
पर
कठिनाई भीतरी
है। जो जाना
है, वह
निःशब्द में
जाना है। कहना
होगा शब्द में,
क्योंकि
सुननेवाले
शब्द को समझ
सकेंगे, निःशब्द
को नहीं।
इसलिए कुरान,
गीता, बाइबिल,
इंजील, तालमुद, अवेस्ता
इनका जन्म
होता है। फिर
लोग इन
किताबों को ढोते
रहते हैं; फिर
इन किताबों
में खोजते
रहते हैं। इन
किताबों में
धर्म नहीं है।
ये किताबें
धर्म से पैदा
हुई हैं, मगर
इन किताबों
में धर्म नहीं
है। और
जिन्होंने
समझा कि इन
किताबों में
ही है, वे
भटक गए; उनको
फिर कभी भी न
मिलेगा। ये
किताबें तो
इशारा हैं, ये तो मील के
पत्थर हैं। ये
तो कहती हैं,
"और आगे!' बस, सब
किताबें इतना
ही कहती हैं,
"और आगे!
यहां मत रुको
और आगे। चलो, बढ़ो—और
आगे।' सब
मील के पत्थर
हैं, जहां
तीर लगा है, "और आगे।'
कोई
किताब मंजिल
नहीं है, क्योंकि
शब्द कैसे
मंजिल हो सकता
है? निःशब्द
मंजिल है। परम
मौन मंजिल है।
बड़ी
अड़चन हो जाती
है। जाना था
निःशब्द में, जाना जा
सकता है केवल
निःशब्द में,
बताया शब्द
में। लोग शब्द
को पकड़ लेते
हैं। उनकी भी
कठिनाई है—जाहिर
है, साफ है,
क्योंकि जो
उनको बताया
गया, वह
पकड़ लेते हैं।
और कठिनाई बड़ी
सूक्ष्म और
जटिल है।
जब
बुद्ध बोलते
हैं तो शब्द
में तो सत्य
नहीं होता; लेकिन बुद्ध
के ओठों
को छूकर जो
शब्द निकलते
हैं, उनमें
सत्य की झनकार
होती है। शब्द
तो तुम जो उपयोग
करते हो, वही
बुद्ध करते
हैं, लेकिन
शब्दों का
गुणधर्म बदल
जाता है। जब
बुद्ध बोलते
हैं, जो
सिर्फ शब्द
नहीं बोले जा
रहे हैं; बुद्ध
की आंखें भी
कुछ कह रही
हैं; बुद्ध
के हाथ भी कुछ
कह रहे हैं, बुद्ध का
पूरा
व्यक्तित्व
कुछ कह रहा
है। जब बुद्ध
शब्द बोल रहे
हैं, तब
शब्द तो सिर्फ
एक छोटा अंश
है; बुद्ध
का पूरा होना
उसमें
समाविष्ट है।
तो बुद्ध जब
बोलते हैं तो
निर्जीव शब्द
भी जीवन की
प्रतीति ले
लेते हैं; साधारण
से शब्द भी
हीरों की चमक
ले लेते हैं। उस
क्षण में तुम
शब्द को अपने
भीतर ले जाते
हो। बुद्ध का
सारा
व्यक्तित्व
उस शब्द के
आसपास एक
वायुमंडल की
तरह तुम्हारे
भीतर आता है।
लेकिन गीता
में जब तुम पढ़ोगे
तो कागज पर
छपे स्याही के
अक्षर हैं; वहां कृष्ण
की मौजूदगी
नहीं है। जब
तुम धम्मपद
में पढ़ोगे
तो कागज और
स्याही है; वहां बुद्ध
के ओंठ, बुद्ध
की आंखें, बुद्ध
के हाथ, बुद्ध
का होना, वहां
कुछ भी नहीं
है।
ऐसा ही
समझो कि अगर
तुमने संगीत
की किताबें देखी
हों, चिह्नों
में संगीत
लिखा होता है।
संगीत में और
संगीत की
किताब में
जहां चिह्न
बने होते हैं
संगीत के, उसमें
जितना फर्क है—उतना
ही फर्क बुद्ध
के वचन और
धम्मपद में है,
कृष्ण के
वचन और गीता
में है। कहां
बुद्ध के वचन—उनके
भीतर की
ज्योति से
ज्योतिर्मय; उनके भीतर
की सुवास से
आंदोलित; उनके
भीतर की गंध
को लेते हुए, क्योंकि
उनसे डूबकर
आ रहे हैं, उनके
गहनतम से
आ रहे हैं!
शब्द निःशब्द
को कह नहीं
सकते, लेकिन
निःशब्द में
से डूबकर
आए हैं तो
निःशब्द की
थोड़ी से ध्वनि
उन शब्दों में
मौजूद होती
है। वही ध्वनि
प्रभावित करती
है, शब्द
प्रभावित
नहीं करते।
शब्द
तो मैं भी वही
बोल रहा हूं, जो तुम
बोलते हो।
मेरे शब्दों
के कारण तुम
मेरे पास नहीं
आ सकते।
क्योंकि एक भी
शब्द तो नया नहीं
है जो तुम
नहीं जानते।
तुम मेरे पास
किसी और कारण
से हो। शब्द
के पास—पास
कुछ और भी घट
रहा है। शब्द
के आसपास कुछ
और भी घट रहा
है। भला तुम
उसे ठीक से समझ
भी न पाओ, लेकिन
तुम्हारा
हृदय उसे
पहचानता है।
भला तुम उसे पकड़कर
मुट्ठी में
बांध ही न पाओ,
किसी को बता
भी न पाओ; लेकिन
कहीं अंतस्तल
में कोई भनक
पैदा होती है और
तुम जानते हो
कि जो मैं कह
रहा हूं वह
शब्दों में ही
नहीं है। वही
तुम्हें छूता
है, वही
तुम्हें
आंदोलित करता
है।
कई बार
तुम्हें अड़चन
होती होगी।
तुम मेरे शब्द
सुनते हो, ठीक वही
शब्द तुम जाकर
दूसरे को कहते
हो—तुम हैरान
हो जाते हो कि
तुमसे
प्रभावित ही
नहीं हो रहा
है? बात
क्या है? यह
भी हो सकता है,
तुम मेरे
शब्दों को
सुधार भी ले
सकते हो, मुझसे
भी अच्छा कर
ले सकते हो—क्योंकि
मैं कोई
शब्दों में
बहुत कुशल
नहीं हूं; व्याकरण
कोई ठिकाने की
नहीं हैं—तुम
उसे
सुव्यवस्थित
कर सकते हो; लेकिन तुम
हैरान होओगे
कि बात क्या
है, वही
मैं कह रहा
हूं?
शब्द
कुछ भी नहीं
हैं। शब्द तो
निर्जीव हैं; जीवन तो
तुम्हारे
भीतर से डाला
जाए तो ही
डाला जाता है।
बुद्ध
से जो
प्रभावित हुए, उन्होंने
शब्द
संग्रहीत कर
लिए।
स्वभावतः, इतने
बहुमूल्य
शब्द बचाए
जाने जरूरी
हैं। फिर पीढ़ी
दर पीढ़ी
उन शब्दों का
अनुस्मरण
चलता है, पाठ
चलता है, तुम
भी थोड़े हैरान
होओगे कि कबीर
के वचनों में
ऐसा कुछ खास
तो नहीं दिखाई
पड़ता, क्योंकि
तुम्हें कबीर
का एहसास नहीं
है बुद्ध के
वचनों में भी
तुम्हें कुछ
खास न दिखाई
पड़ेगा। ऐसा
क्या खास है? बड़े कवि हुए
हैं, उनके
वचनों में
ज्यादा कुछ
है। बड़े लेखक
हैं, बड़े
वक्ता हैं, उनके बोलने की
कुशलता और! न
तो बुद्ध, न
तो कबीर, न
तो मुहम्मद
कोई वक्ता हैं,
न तो कोई
लेखक हैं; भाषा
की कुशलता है
ही नहीं—फिर
क्यों इतने
लोग प्रभावित
हुए? कैसे
इतनी क्रांति
घटती हुई? नहीं,
कबीर नहीं
हैं क्रांति
के कारण, कबीर
की भाषा भी
नहीं है; कबीर
के भीतर जो
ज्योति आकाश
से उतरी है, जो अवतरण
हुआ है—वही।
सारा राज वहां
है; सारी
पूंजी वहां
छिपी है जादू
की; सारा
चमत्कार वहां
है। लेकिन वह
तो खो जाता है
कबीर के साथ; थोथे शब्द
रह जाते हैं, जैसे चली
हुई कारतूस।
चली हुई
कारतूस को तुम
सम्हाले रहते
हो। सोचते हो,
"कितना बड़ा धड़ाका हुआ
था! कारतूस तो
वही है!
सम्हाल लो।' लेकिन चली
हुई कारतूस को
सम्हाल कर भी
क्या करोगे?
कुरान, बाइबिल, इंजील,
तालमुद,
अवेस्ता, धम्मपद—सब
चली हुई
कारतूस हैं।
चल चुकीं, धड़ाका
हो चुका, अब
तुम नाहक ढो
रहे हो। अब
इसके बल पर
तुम किसी युद्ध
में मत उतर
जाना। यह चली
हुई कारतूस अब
किसी काम न
आएगी।
इससे
अड़चन होती है।
इससे बड़ी अड़चन
होती है। संप्रदाय
शब्दों से घिर
जाता है; धर्म
निःशब्द है।
संप्रदाय
शास्त्रों से
घिर जाता है; धर्म का कोई
शास्त्र
नहीं। शून्य
ही उसका शास्त्र
है। मौन ही
उसकी वाणी है।
और
तीसरी बात: जब
कभी अवतरण
होता है धर्म
का, परमात्मा
का, तो उस
व्यक्ति के
माध्यम से
बहुत सी
घटनाएं घटती
हैं। वह
व्यक्ति बहुत
तरह की
विधियों का उपयोग
करता है—तुम्हें
सहायता
पहुंचाने को,
तुम्हें
मार्ग पर
चलाने को।
बुद्ध
ने भिक्षुओं
को पीतवस्त्र
दिए। पीले
वस्त्र
प्रतीक हैं, प्रतीक हैं
मृत्यु के।
कबीर जो कह
रहे हैं कि
जीते जो मर
जाए, वही
बचेगा। जैसे
पीला हो जाता
है पत्ता तो
उसका अर्थ है
कि मौत करीब आ
रही है, पत्ता
मरने के करीब
है। फिर जब
बिलकुल पीला
हो जाता है तो
मर गया। फिर
वह किसी भी
क्षण वृक्ष से
टूट जाता है—न
वृक्ष को पता
चलता है, न
पत्ते को पता
चलता है; मौत
घट गई। पीले
पत्तों को
देखकर बुद्ध
को स्मरण आया—पीत
वस्त्र
उपयोगी
होंगे। वह
तुम्हें
याददाश्त दिलाएंगे
कि मर जाना है;
कि इस जीवन
में जीना नहीं
है, मर कर
जीना है; पीले
पत्ते की तरह
जीना है—जो
लटका है, अब
गया, अब
गया, अब
गया! किसी भी
क्षण हवा की
जरा सी लहर और
पीला पत्ता गया!
ऐसे जीना है।
क्योंकि मौत
किसी भी क्षण
घट सकती है।
मौत के प्रति
जागे हुए जीना
है। मौत को
स्वीकार करके
जीना है।
इसलिए
बुद्ध अपने
भिक्षुओं को
पीले वस्त्र दिए।
भिक्षु अब भी
पीले वस्त्र
पहने हुए हैं, लेकिन प्रतीक
जड़ हो गया। अब
उसमें कोई
जीवन नहीं है।
उन्हें कुछ
पता भी नहीं
है कि क्यों
वे पीले वस्त्र
पहने हुए हैं।
मैंने
तुम्हें
गैरिक वस्त्र
दिए हैं। जैसे
बुद्ध को पीला
पत्ता मौत का
सूचक मालूम
पड़ता है। ऐसे
ही दूसरे छोर
से गैरिक रंग
दो बातों का प्रतीक
है: एक तरफ तो
सुबह उगते हुए
सूरज का रंग
है—एक नए जीवन
का आविर्भाव; दूसरी तरफ
सांझ को डूबते
हुए सूरज का
भी रंग वही
है। एक तरफ
संसार की तरफ
से मर जाना है,
परमात्मा
की तरफ जीना
है। एक तरफ
सुबह, एक
तरफ सांझ—दोनों
एक साथ। गैरिक
रंग अग्नि का
रंग है, और
अग्नि से
गुजरे बिना कोई
भी निखरता
नहीं।
तुम्हारी
आत्मा का स्वर्ण
निखरेगा
अग्नि से
गुजरकर।
गैरिक रंग
अग्नि का रंग
है, उसका
अर्थ है कि
पूरा जीवन
अग्निशिखा
है। यहां से
तुम्हें
शुद्ध होकर
गुजरना है, अन्यथा तुम
स्वीकार न हो
सकोगे।
बहुत पुकारे
जाते हैं, बहुत कम
चुने जाते
हैं। हजार यात्रा
करते हैं, एक
पहुंचता है।
अगर तुमने
जीवन को पूरा
मौका दिया कि
तुम्हें जला
डाले; तुमने
अपने को बचाने
की कोशिश न की,
तुम स्वर्ण
की तरह अग्नि
में पड़ गए और
सब तरह से
तुमने जलने
दिया अपने को—एक
बात पक्की है
कि सोना नहीं
जलता, कचरा
ही जलता है।
तुम्हारे भीतर
जो सोना है, वह बच रहेगा;
जो कचरा है,
वह जल
जाएगा।
गैरिक
वस्त्र चिता
का रंग है, तो उनमें वह
बात तो छिपी
ही है जो पीत
वस्त्रों में
छिपी है कि
तुम जीवन को
मर कर जीना—जैसे
प्रतिपल तुम
चिता पर चढ़
रहे हो, आग
की लपटें उठ
रही हैं
तुम्हारे
चारों तरफ, तुम्हारे गैरिक
वस्त्र आग की
लपटें बनी
रहें
तुम्हारे चारों
तरफ; तुम
ऐसे जीओ
जैसे चिता पर
बैठा हुआ आदमी
जी रहा हो:
किसी भी पल जल
जाएगा, राख
पड़ी रह जाएगी।
लेकिन
यही खतरा है, पीछे लोग
पीले वस्त्र
पहने हुए चलते
रहते हैं: जड़
प्रतीक हाथ
में रह जाता
है, अर्थ
खो जाता है।
तब संप्रदाय
निर्मित हो
जाता है। तब
तुम पहनते हो
पीले वस्त्र
या गैरिक
वस्त्र या
माला, लेकिन
वहां जड़ता
हो जाती है।
अब उसमें कोई
अर्थ नहीं
हैं। अब तुम्हारे
हृदय का उससे
कोई संबंध
नहीं है। अब तुम
पहने हो, क्योंकि
पहनना है। अब
तुम पहने हो, क्योंकि सदा
से लोग पहनते
रहे हैं। अब
तुम पहने हो, क्योंकि न पहनोगे तो
लोग क्या
कहेंगे! अब और
बातों का कंसिडरेशन
है। अब और
बातों का
विचार है।
लेकिन मूल बात,
मूल अर्थ खो
गया।
अब हम
समझने की
कोशिश करें
कबीर के वचनों
को।
"साधो
देखो जग
बौराना।'
कहते
हैं, देखो, सारा
जगत पागल हो
गया है; और
पागल इसलिए हो
गया है कि
धर्म कि जगह
संप्रदाय में
जी रहा है; जीवित
धर्म को तो
भूल गया है, मृत धर्म को
पकड़ लिया है।
"सांची
कहौं तो मारन धावै,
झूठे जग
पतियाना।।'
बड़े
आश्चर्य की
बात है, कबीर
कहते हैं, कैसा
पागल है यह
संसार कि अगर
सच कहूं तो
मुझे मारने
लोग आते हैं; अगर झूठ
कहूं तो पतियाते
हैं! पतियाना
अर्थात
विश्वास
करना।
संप्रदाय
झूठ है; धर्म
सत्य है। और
जब भी तुम
धर्म की बात
करोगे, लोग
मारने आएंगे;
और जब भी
तुम झूठ की
बात करोगे, लोग पतियाएंगे।
जब भी तुम
संप्रदाय की
बात करोगे, लोग कहेंगे:
वाह, वाह!
क्योंकि तुम
उन्हीं की
मान्यताओं की
बात कर रहे हो;
तुम उन्हीं
के अहंकार की
तृप्ति कर रहे
हो। जब भी तुम
धर्म की बात
करोगे, लोग
खड़े हो जाएंगे;
दुश्मन की
तरह। क्योंकि
अब तुमने कुछ
ऐसी बात कही
जो उनके
विपरीत है।
धर्म
सदा संप्रदाय
के विपरीत है।
ज्ञानी सदा पुरोहित
के विपरीत है।
प्रबुद्ध
व्यक्ति सदा
पंडित के विपरीत
है। "साधो
देखो जग
बौराना।'
"सांची
कहौ तो मारन धावै,
झूठे जग
पतियाना।।
हिंदू
कहत है
राम हमारा, मुसलमान रहमाना।'
परमात्मा
किसी का भी
नहीं है। तुम
परमात्मा के
हो सकते हो, वह समझ में
आता है; लेकिन
तुम उलटा काम
करते हो—तुम
परमात्मा को
अपना बना लेते
हो। परमात्मा के
हो जाओ, क्योंकि
तुम बूंद हो, वह सागर है; समर्पण कर
दो अपना। लीन
हो जाओ विराट
में, समझ
में आता है।
लेकिन लीन तो
कोई नहीं होता;
लोग उलटे
परमात्मा पर
ही कब्जा कर
लेते हैं। बूंद
सागर पर कब्जा
कर रही है।
मुट्ठी में
आकाश बांधने
की कोशिश चल
रही है।
"हिंदू
कहत है
राम हमारा, मुसलमान रहमाना।'
दावेदारी
बन गई है।
धर्म तो
सिखाता है
समर्पण; संप्रदाय
करता है
दावेदारी।
धर्म तो
सिखाता है
कैसे तुम मिटो
और संप्रदाय
इस जगत में
सबसे असंभव
बात करवाता है
कि तुम
परमात्मा के
ऊपर भी कब्जा
कर लो, तुम
दावेदार हो
जाओ।
परमात्मा
तुम्हारा रक्षक
है; लेकिन
संप्रदाय
कहता है, तुम
परमात्मा की
रक्षा करो—कहीं
मुसलमान आकर
मंदिर की
मूर्ति न तोड़
दें; कहीं
मस्जिद में
कोई हिंदू आग
न लगा दे; कहीं
कुरान का कोई
अपमान न कर
दें; कहीं
गीता का कोई
विरोध न कर दे—तुम्हें
रक्षा करनी है,
जैसे
तुम्हारे
बिना
परमात्मा बड़ी
असहाय अवस्था
में पड़ जाएगा;
अगर तुम न
हुए, परमात्मा
का क्या होगा!
जगह—जगह कुटेगा,
पिटेगा;
लोग आग
लगाएंगे, मारेंगे,
काटेंगे, तोड़ेंगे! तुम ही उसे
बचा रहे हो!
परमात्मा
को तुमने समझा
क्या है? कोई
वस्तु है, जिस
पर तुम दावा
कर दो?
कबीर
के लिए तो
बहुत मुश्किल
रही होगी, क्योंकि
कबीर का कुछ
पक्का नहीं है
कि वे हिंदू
थे कि
मुसलमान।
कबीर जैसे
किसी आदमी का
कुछ पक्का
नहीं होता। और
उनके साथ तो
जीवन में भी घटना
ऐसी घट गई थी
कि मां—बाप
बच्चे को
सरोवर के
किनारे छोड़कर
चले गए—किसका
था, कभी
पता नहीं चला;
जायज था, नाजायज था, कुछ पता
नहीं चला; हिंदू
का था, मुसलमान
का था, कुछ
पता नहीं चला।
ऐसा खयाल ही
था लोगों का
कि मुसलमान का
बच्चा है। रहा
होगा। और एक
हिंदू संन्यासी
ने कबीर को
बड़ा किया। तो
गुरु तो हिंदू
था, मां—बाप
शायद मुसलमान
रहे होंगे।
तो
कबीर तो बड़ी
मुश्किल में
थे। हिंदू न
घुसने दे
मंदिर में
उनको, क्योंकि
वे मुसलमान
हैं; मुसलमान
न घुसने दे
मस्जिद में, क्योंकि वे
हिंदू गुरु के
शिष्य और
हिंदू घर में
पले हैं—"यहां
कहां आते हो?' जिन्होंने
जिंदगी भर
कबीर को मंदिर—मस्जिद
में न घुसने
दिया; लेकिन
मरते वक्त
उन्होंने झगड़ा
खड़ा कर दिया।
जब वे मर गए, तो
मुसलमानों ने
कहा कि हम दफनाएंगे।
मस्जिद में तो
न घुसने दिया।
कबीर ठीक ही
कहते हैं कि
"साधो देखो जग
बौराना!' और
हिंदुओं ने
कहा कि हम दफनाने
न देंगे, जलाएंगे।
जीवित
कबीर को दोनों
ने इनकार
किया। वे लाश
पर कब्जा करने
आ गए। यही तो
संप्रदाय की
कुशलता है:
धर्म को इनकार
करता है, जीवित
को इनकार करता
है; क्योंकि
जीवित के पास
तुम गए, तो
बदलोगे; मरे
के पास गए, तुम
तो बदल ही
नहीं सकते, मुर्दे पर
तुम कब्जा कर
लोगे। मरे
कबीर पर कब्जा
करने हिंदू—मुसलमान
दोनों पहुंच
गए। और यह
कहानी कुछ ऐसी
है कि लगती है
सार्वभौम है।
नानक के साथ
यही हुआ। तारण
के साथ यही
हुआ। और भी
संतों के जीवन
में ऐसा हुआ
कि मरते वक्त
लोग कब्जा
करने पहुंच
गए।
यह
कठिनाई समझ
में आती है; क्योंकि
मुर्दे पर
कब्जा किया जा
सकता है, जीवित
कबीर को तो
तुम छू भी न
सकोगे, छुओगे तो जल
जाओगे। जीवित
कबीर के पास
जाओगे तो क्रांति
घटेगी। वह तो
आग है—ऐसी आग
है जिसमें
तुम्हारा
कचरा जल जाएगा
और सोना
बचेगा। लेकिन
मरे हुए कबीर
को जलाने लोग
पहुंच गए; खुद
जलने न पहुंचे
जिंदा कबीर के
पास; और झगड़ा
खड़ा कर दिया।
अब भी, जहां
कबीर की
मृत्यु घटी, वह मकान दो
हिस्सों में
बंटा है—आधे
पर हिंदुओं का
कब्जा है, आधे
पर मुसलमान का—बीच
में एक बड़ी
दीवार है। आधे
को मुसलमान
पूजते हैं—वह
कबीर की दरगाह
है; और आधे
को हिंदू
पूजते हैं—वह
कबीर की समाधि
है।
"हिंदू
कहत है राम
हमारा, मुसलमान
रहमाना।
आपस
में दोउ लड़े मरतु हैं, मरम
कोई नहिं
जाना।।'
और
मर्म की बात
इतनी है कि
तुम परमात्मा
के हो सकते हो; परमात्मा का
तुम दावा कर
रहे हो कि
मेरा! तुम परमात्मा
के हो जाओ, काफी
है। और जो
परमात्मा का
हो गया, उसी
ने मर्म जाना।
"आपस
में दोउ लड़े मरतु हैं, मरम
कोई नहिं
जाना।।'
धर्म
को भी लोग
लड़ाई का स्थल
बना लिए हैं।
धर्म का एक ही
उपयोग है कि
उसके द्वारा
लोग अच्छी तरह
लड़ सकते हैं।
और ध्यान रखना, अधर्म के
लिए लड़ो
तो मन में
थोड़ा अपराध भी
मालूम पड़ता है;
धर्म के लिए
लड़ो तो
काम इतना
धार्मिक है कि
अपराध का तो
कोई सवाल ही
नहीं।
मुसलमान
सोचता है कि
अगर
धर्मयुद्ध
में मारे गए
तो मोक्ष निश्चित
है। हिंदू
सोचता है कि
अगर धर्म के
लिए शहीद हो
गए तो स्वर्ग
के दरवाजे पर
बैंड—बाजे
मौजूद हैं। एक
बात खयाल में
ले लेना कि अच्छी
बात के लिए
लोग लड़ना सुगम
पाते हैं; बुरी
बात के लिए
लड़ने में तो
थोड़ा—सा संकोच
भी होता है कि
क्या लड़ाई कर
रहे हो! लेकिन
अच्छी बात के
लिए? लड़ाई
में बड़ा मजा आ
जाता है।
इसलिए
लोग लड़ने के
लिए अच्छी
बातें खोज
लेते हैं; कारण तो
लड़ना है, बहाने
अच्छे खोज
लेते हैं; हिंदू—धर्म
खतरे में है—झगड़ा शुरू!
अब हिंदू—धर्म
को बचाना ही
पड़ेगा! तुमने
ठेका लिया है?
तुम धर्म के
बचाने वाले
कौन? कि
इस्लाम खतरे
में है: बस, पागलों
की दौड़ शुरू
हो गई!
और फिर
धर्म के नाम
पर झूठ बोलो; धर्म के नाम
पर अधर्म करो;
अहिंसा के
नाम पर तलवार
उठा लो! कबीर
ठीक ही कहते
हैं, "साधो
देखो जग बौराना!'
लोग बिलकुल
पागल मालूम
होते हैं:
अहिंसा के लिए
भी लोग तलवार
उठा लेते हैं,
"साधो देखो
जग बौराना!' लोग बिलकुल
पागल मालूम
होते हैं:
अहिंसा के लिए
भी लोग तलवार
उठा लेते हैं;
यह भी भूल
जाते हैं कि
तलवार उठाने
का मतलब है कि
तुमने ही
हिंसा कर दी।
धर्म के लिए
लड़ने का मतलब
तुमने ही
अधर्म करना
शुरू कर दिया।
युद्ध ही तो
अधर्म है।
प्रेम है धर्म;
घृणा है
अधर्म। और
धर्म के नाम
पर कितनी घृणा
फैलाई जाती
है! धर्म है
निरहंकार; लेकिन
धर्म के नाम
पर कितना
अहंकार चलता
है!
एक
छोटे गांव में
ऐसी ही घटना
घटी कि एक
ईसाई पादरी
आया।
आदिवासियों
का गांव है
बस्तर में। और
आदिवासियों
को समझाना हो
तो
आदिवासियों
के ढंग से
समझाया जा
सकता है।
क्योंकि बहुत
सिद्धांत की
बात करने से
तो कोई सार
नहीं। न
शास्त्र वे
जानते हैं, न शब्द वे
बहुत समझ सकते
हैं। तो उसने
एक तरकीब
निकाली और
उसने कई लोगों
को ईसाई बना
लिया। उसने
तरकीब यह
निकाली कि वह
गांव में जाता,
थोड़ा—बहुत
धर्म की बात
करता, भजन—कीर्तन
करता और फिर
दो मूर्तियां
निकालता अपने
झोले से—एक
क्राइस्ट की
और एक राम की, और दोनों को
पानी में
डालता। एक
बालटी भरवा
लेता और दोनों
को पानी में
डालता, और
कहता कि देखो,
जो खुद बचता
है वही
तुम्हें बचा
सकता है; जो
खुद ही डूब
जाए, वह
तुम्हें क्या बचाएगा!
राम की मूर्ति
लोहे की बना
ली थी और जीसस
की मूर्ति
लकड़ी की बना
ली थी। तो
जीसस तो तैरते
और राम एकदम
डुबकी मार
जाते। गांव के
आदिवासी समझे
कि बात तो
बिलकुल सच्ची
है, तर्क
साफ है—क्योंकि
इन राम के
पीछे हम फंसे
हैं, और ये
खुद ही डूब
रहे हैं! उसने
इस कारण कई
लोगों को ईसाई
बना लिया।
एक
हिंदू
संन्यासी
गांव में
मेहमान था।
उसी संन्यासी
ने ही पूरी
कहानी बताई।
वह बड़ा योग्य आदमी
था। गांव के
लोगों ने उससे
भी कहा कि यह तो
बड़ा रहस्य है, साफ है
मामला। लेकिन
लोग ईसाई हो
गए। वह भीतर गया
देखने। उसने
समझ लिया कि
मामला क्या
है। भरी सभा
में जब लोग
प्रभावित हुए
तो उसने कहा कि
ऐसा काम किया
जाए; पानी
तो ठीक है, आग
जलवाई
जाए—जो बच जाए,
वही
तुम्हें बचाएगा।
गांव के लोगों
ने कहा, "यह
तो बिलकुल साफ
मामला है।
असली चीज तो
आग है; पानी
में क्या रखा
है? वह
ईसाई पादरी
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
उसने बड़ी
कोशिश की कि
बच निकले; लेकिन
गांव के लोगों
ने पकड़ लिया।
उन्होंने कहा,
"कहां जाते
हो? यह तो
परीक्षा होनी
ही चाहिए, क्योंकि
अग्नि
परीक्षा तो
शास्त्रों
में भी कही
है। जल—परीक्षा
कभी सुनी?'
वे
जीसस जल गए!
संप्रदाय
जीते हैं
क्षुद्र
तर्कों पर, बहुत छोटे
तर्कों पर।
बहुत छोटी—छोटी
घृणा को जमा—जमा
कर धीरे—धीरे
वे अंबार खड़ा
करते हैं। एक—एक
ईंट घृणा की
है, विद्वेष
की है; दूसरे
की निंदा की
है; दूसरे
को छोटा, बुरा
बताने की है।
प्रेम तो कहीं
पता भी नहीं
चलता। और जो घृणा
फैला रहे हैं,
वे
प्रार्थना
कैसे करते
होंगे? उनकी
प्रार्थना
में भी वही
घृणा होगी।
प्रेम
फैलाओ तो ही
तुम्हारी
प्रार्थना
में प्रेम
आएगा।
क्योंकि जो
प्रेम
तुम्हारे
जीवन का
हिस्सा न बन
जाए, वह
तुम्हारी
प्रार्थना
में कभी
आविर्भूत न
होगा। तुमसे
ही तो प्रार्थना
उठेगी।
"साधो
देखो जग
बौराना।'
आपस
में दोउ लड़े मरतु हैं, मरम
कोई नहिं
जाना।'
"बहुत
मिले मोहि
नेमी धरमी, प्रात करै
असनाना।'
बड़े
नियम और धर्म
को मानने वाले
लोग—कबीर कहते
हैं—मैंने
देखे, रोज
सुबह स्नान
करते हैं काशी
में। सब
इकट्ठे ही हैं
वहीं नियमी—धर्मी।
वह काशी घर था
कबीर का। वे
रोज सुबह से चले
जा रहे हैं
गंगा का स्नान
करने।
"आतम
छोड़ि पखानै
पूजैं, तिनका थोथा ग्याना।'
लेकिन
मैं देखता हूं
कि पूजा वे
आत्मा की नहीं
करते, पत्थरों
की करते हैं।
स्नान करते
हैं, पूजा—पाठ
करते हैं, नियम—धर्म
का पालन करते
हैं—लेकिन
पूजा पत्थर की
करते हैं, चैतन्य
की नहीं; दीये
को पूजते हैं,
ज्योति को
नहीं। तो क्या
होगा
तुम्हारे
स्नान से? पाप
तुम करोगे, गंगा
तुम्हारे पाप धोएगी? गंगा
ने कौन—से पाप
किए हैं जो
तुम्हारे पाप धोए? गंगा
का क्या कुसूर
है? कितना
ही तुम स्नान
करो, शरीर
को रगड़—रगड़ कर
कितना ही धो डालो, इससे
भीतर की चेतना
तो न निखरेगी।
इसका यह मतलब
नहीं है कि
स्नान मत करो।
क्योंकि वैसे
भी लोग हैं जो
स्नान ही नहीं
करते। क्योंकि
वे कहते हैं, जब आत्मा ही
की पूजा करनी
है तो स्नान
की क्या जरूरत?
जैन
दिगंबर मुनि
हैं; वे स्नान
नहीं करते
हैं। वे स्नान
ही बंद कर देते
हैं कि जब
आत्मा की ही
पूजा करनी है
तो शरीर को
क्या धोना? लोग पागल
हैं और अतियों
पर उतर जाते
हैं।
मध्य
युग में युरोप
में ईसाइयत
स्नान के
खिलाफ हो गई
और गंदगी परमात्मा
तक पहुंचने का
रास्ता मान
लिया। एक संत
एक सौ तीस
वर्ष जीया, और कहते हैं,
उसने कभी
स्नान नहीं
किया। और उसकी
बड़ी पूजा थी, प्रतिष्ठा
थी, क्योंकि
यह है
आत्मज्ञानी!
तो
समझकर चलना, रास्ता यह
खतरनाक है।
इसमें एक अति
से दूसरी पर
मत चले जाना।
स्नान शरीर के
लिए बिलकुल
जरूरी है। स्वच्छता
सुखद है।
लेकिन शरीर के
स्नान से
आत्मा शुद्ध
नहीं होती। और
न शरीर की
गंदगी से
आत्मा शुद्ध
होती है, वह
भी स्मरण
रखना। नहीं तो
शरीर को गंदगी
में बिठा रखते
हैं। कई
परमहंस होकर
बैठ जाते हैं,
और वे वहीं
खाना खाते हैं,
वहीं मल—मूत्र
त्याग करते
हैं। कई उनकी पूजा
करने वाले भी
मिल जाते हैं
कि यह आदमी ज्ञानी
है, क्योंकि
यह आत्मा की
पूजा में लगा
है, मालूम
होता है, क्योंकि
शरीर का इसे
खयाल ही नहीं
है।
शरीर
की जरूरत है।
शरीर की जरूरत
निश्चित ही पूरी
करनी है।
लेकिन शरीर की
जरूरत को
आत्मा की
जरूरत मत समझ
लेना।
"आसन
मारि डिम्भ
धरि बैठे,
मन में बहुत
गुमाना।'
देखता
हूं कि आसन
मारकर बैठे
हैं और भीतर
सिवाय दंभ के
और गुमान के
सिवाय कुछ भी
नहीं है। तो आसन
ही मारकर
बैठने से क्या
होगा, अगर
आसन के भीतर
अहंकार ही भर
रहा है? इसका
यह अर्थ नहीं
है कि आसन का
उपयोग नहीं है।
इसका इतना ही
अर्थ है कि
आसन मार लेने
से तुम यह मत
समझ लेना कि
अहंकार मर
जाएगा।
आसन का
अपना उपयोग
है। अगर शरीर
को बिलकुल शांत, फिर करके
बैठ जाओ, तो
शरीर की थिरता
के कारण मन की
गति में बाधा पड़नी शुरू
हो जाती है।
मन शांत हो
जाएगा, ऐसा
नहीं है; लेकिन
शरीर अगर थिर
हो तो मन के
अशांत होने
में बाधा पड़ती
है। शांत शरीर
के भीतर मन के
शांत होने की
संभावना बढ़
जाती है।
स्नान करके
स्वस्थ मन से,
स्वस्थ
शरीर से तुम
पूजा करने आए
हो, तो
पूजा की
संभावना बढ़
जाती है।
गंदगी से भरे हुए,
थके—हारे, धूल—धवांस
में दबे, तुम
पूजा करने आए
हो—पूजा की
संभावना कम हो
जाती है।
लेकिन सिर्फ
स्नान कर लेना
पूजा नहीं है।
स्नान कर लेना
पूजा के लिए
सहारा हो सकता
है। स्नान कर
लेना पर्याप्त
नहीं है; जरूरी
है पर्याप्त
नहीं है। कुछ
और होना जरूरी
है। स्नान को
ही सब मत समझ
लेना। वही
धर्म और संप्रदाय
का भेद है।
धर्म जीवन की
समस्त चीजों
का उपयोग करता
है ताकि परमज्योति
जल सके।
संप्रदाय
उपयोग में ही
अटक जाता है, ज्योति की
बात ही भूल
जाता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक आदमी के घर
नौकर था। वह
बड़ा रईस आदमी
था, लेकिन
मुल्ला से
परेशान था।
उसने एक दिन
कहा कि मैं कई
बार तुम्हें
बता चुका, मगर
अब एक सीमा
होती है हर
चीज की। तीन
अंडे लाने के
लिए बाजार तीन
दफा जाने की
जरूरत नहीं है।
एक ही दफे में
ले आ सकते हो।
कुछ
दिन बाद वह
अमीर बीमार
पड़ा। उसने नसरुद्दीन
को कहा कि जाओ, वैद्य को
बुला लाओ। नसरुद्दीन
गया, वैद्य
को ले आया।
लेकिन वह बड़ी
देर बाद लौटा
तो अमीर ने
कहा कि इतनी
देर कैसे लगी?
उसने कहा, और सबको भी
बुलाने गया
था। अमीर ने
कहा, "और सब
कौन हैं? मैंने
तुम्हें
वैद्य को
बुलाने भेजा
था।' तो
उसने कहा कि
वैद्य अगर कहे
कि मालिश
करवानी है, तो मालिश
करने वाला
लाया हूं; वैद्य
अगर कहे कि
पुलटिस बंधवानी
है तो पुलटिस
बनाने वाले को
लेकर आया हूं;
वैद्य अगर
कहे कि फलां
तरह की दवा
चाहिए, तो केमिस्ट
को भी बुला
लाया हूं; और
अगर वैद्य
असफल हो जाए
तो मरघट ले
जाने वाले को
भी लाया हूं।
सब मौजूद हैं।
तीन अंडे एक साथ
ले आया हूं।
समझ
बारीक बात है, और सिर्फ क्रियाकांड
समझ नहीं है। क्रियाकांड
उसने पूरा कर
दिया, लेकिन
समझ की कोई
खबर न थी।
सांप्रदायिक
व्यक्ति एक—एक
हिसाब को पूरा
कर देता है।
सब क्रियाकांड
परिपूर्ण
होते हैं
उसके। तुम
उसमें भूल
नहीं निकाल
सकते। अब क्या
भूल निकालोगे
नसरुद्दीन
में। उसने क्रियाकांड
पूरा कर दिया।
उसने गणित साफ
कर दिया पूरा, रत्तीभर कमी
नहीं छोड़ी;
लेकिन बात
वह बिलकुल चूक
गया। गणित साफ
कर दिया लेकिन
समझ से बिलकुल
चूक गया।
सांप्रदायिक
व्यक्ति पूरा क्रियाकांड
कर देता है; एक से लेकर
सौ तक सब नियम
पूरे कर देता
है, और फिर
भी चूक जाता
है। क्योंकि
वह जो क्रियाकांड
है, सहयोगी
हो सकता है, लेकिन वही
सब कुछ नहीं
है। और वह जो क्रियाकांड
है, वह
बदला भी जा
सकता है। वह
अनिवार्य भी
नहीं है।
लेकिन जो
अनिवार्य है,
वह नहीं
बदला जा सकता।
दीया
कई ढंग का हो
सकता है, ज्योति
एक ही ढंग की
होती है। दीया
तुम गोल बनाओ,
तिरछा बनाओ,
कलात्मक
बनाओ, साधारण
बनाओ, सोने
का बनाओ, मिट्टी
का बनाओ, छोटा—बड़ा,
जैसा
तुम्हें
बनाना हो बनाओ,
दीये पर सब
तुम कर सकते
हो; लेकिन
ज्योति का
स्वभाव तो एक
ही होगा। जब
ज्योति जलेगी
तो स्वभाव एक
ही होगा। क्रियाकांड
दीये के भीतर
इतना लीन हो
जाता है, इतनी
बारीक
नक्काशी करने
लगता है दीये
पर कि दीये में
ही जीवन चुक
जाता है, ज्योति
जलाने का मौका
ही नहीं आता।
इतनी ही बात
खयाल रखना।
"आसन
मारि डिम्भ
धरि बैठे,
मन में बहुत
गुमाना।
पीपर
पाथर पूजन लागे, तीरथ वर्त
भुलाना।।'
असली
तीर्थ तो भूल
ही गया जो
भीतर है।
तीर्थ
का अर्थ है, जहां से
परमात्मा की
तरफ नाव छूटती
है। काशी में
तीर्थ नहीं है,
क्योंकि
वहां से नाव छोड़ोगे तो
दूसरी तरफ
पहुंच जाओगे,
परमात्मा
में नहीं
पहुंच जाओगे।
तीर्थ
का अर्थ होता
है: वह जगह
जहां से नाव
परमात्मा की
तरफ छूटती है।
तो वह तीर्थ
तो भूल ही गया।
वह तो भीतर
है। इस तरफ
तुम हो, उस
तरफ परमात्मा
है—बीच में
विराट जीवन की
नदी है।
"पीपर
पाथर पूजन लागे'—और लोग
वृक्षों को
पूज रहे हैं, पत्थरों को
पूज रहे हैं।
"तीरथ वर्त
भुलाना।' वर्त का
अर्थ है: व्रत,
संकल्प। न
तो कोई संकल्प
है जीवन में, न कोई व्रत
है; बस ऐसे
ही अंधे अंधों
को धक्का दिए
जा रहे हैं।
दूसरे कर रहे
हैं, तुम
भी कर रहे हो।
वही काम
संकल्प से
किया जाए तो
धार्मिक हो
जाता है; और
वही काम बिना
संकल्प के
किया जाए तो
सांप्रदायिक
हो जाता है।
जैसे
तुमने
प्रार्थना की, संकल्प से
की। संकल्प का
अर्थ है:
तुमने अपने पूरे
प्राणों को
ढाल दिया उस
प्रार्थना
में। तुमने
प्रार्थना
ऐसे की कि
जैसे
प्रार्थना जीवन
और मरण का
सवाल है।
तुमने
प्रार्थना
ऐसे की कि खुद
को पूरा दांव
पर लगा दिया—यह
व्रत का अर्थ
होता है—पूरा
दांव पर लगा
दिया। रोआं—रोआं,
श्वांस—श्वांस,
हृदय की
धड़कन—धड़कन तुमने
सब समर्पित कर
दी: यह संकल्प
का अर्थ है। ऐसी
प्रार्थना
उतार लाएगी
परमात्मा को
भी, कहीं
भी हो वह।
कहीं भी छिपा
हो वह गहन से
गहन में, ऐसी
प्रार्थना
उसे खींच लेगी
तत्क्षण।
लेकिन
एक प्रार्थना
है, तुमने की,
जैसे तुम और
काम करते हो:
खाना खाते हो,
बाजार जाते हो,
दुकान पर
जाते हो, पत्नी
से बातें करते
हो, अखबार
पढ़ते हो—ऐसी
ही तुमने
प्रार्थना
की। ऊपर से
शब्द तो एक
जैसे हो सकते
हैं, लेकिन
भीतर का
संकल्प अगर
भूल गया हो तो
प्रार्थना
व्यर्थ है; तुम समय
वैसे ही खो
रहे हो। अच्छा
था, तुम
अखबार और थोड़ा
पढ़ लेते, दुबारा
पढ़ लेते। कोई
फर्क नहीं है।
भीतर
का संकल्प ही
गुणात्मक भेद
लाता है।
ऐसा
हुआ कि बंगाल
में एक बहुत
बड़ा ज्ञानी
हुआ। भट्टोजी
दीक्षित उस
ज्ञानी का नाम
था। ऐसे वह
बड़ा व्याकरण
का ज्ञाता था
और जीवन भर
उसने कभी
प्रार्थना न
की। वह साठ
साल का हो
गया। उसके
पिता नब्बे के
करीब पहुंच
रहे थे। पिता
ने भट्टोजी
का बुलाया और
कहा कि, "सुन,
अब तू भी
बूढ़ा हो गया, और अब तक
मैंने राह
देखी कि कभी
तू मंदिर जाए;
आज तेरे साठ
वर्ष पूरे हुए,
तेरा जन्म
दिन है। अब तक
मैंने कुछ भी
तुझसे कहा
नहीं। लेकिन
अब मेरे भी
थोड़े दिन बचे
हैं। कभी मैं
चला जाऊं, कुछ
भी पता नहीं।
अब तेरे
प्रार्थना
करने का समय आ
गया है। अब
मंदिर जा। कब
तक तू यह
व्याकरण में
उलझा रहेगा और
गणित सुलझाता
रहेगा। क्या सार
है इसका? माना
कि तेरी बड़ी
प्रतिष्ठा है,
दूर—दूर तक
तेरे नाम की
कीर्ति है—पर
इसका कोई सार
नहीं। और तू
अब तक मंदिर
क्यों नहीं
गया, मैं
पूछता हूं।
तेरे जैसा
समझदार, बुद्धिमान
प्रार्थना
क्यों नहीं
करता?'
तो भट्टोजी
ने कहा कि
"प्रार्थना
तो एक दिन
करूंगा। आज कहते
हैं, आज की
करूंगा।
तैयारी ही कर
रहा था
प्रार्थना की;
लेकिन
तैयारी ही
पूरी नहीं हो
पाती थी। और
फिर आपको मैं
देख रहा हूं
कि आप जीवन भर
प्रार्थना
करते रहे, कुछ
भी न हुआ। आप
रोज जाते हैं
मंदिर और लौट
आते हैं। आपको
देखकर भी
निराशा होती
है कि यह कैसी
प्रार्थना! और
ऐसी
प्रार्थना
करने से क्या होगा?
आप वहीं के
वहीं हैं।
लेकिन अब आपने
आज कह ही दिया
तो मैं सोचता
हूं कि अब वक्त
करीब आ रहा है,
तो आज मैं
जाता हूं; लेकिन
शायद मैं लौट
न सकूंगा।
बाप तो
कुछ समझा
नहीं।
क्योंकि बाप
ऐसे ही प्रार्थना
करता था—एक क्रियाकांड
था, एक
सांप्रदायिक
बात थी; करनी
चाहिए थी, करता
था।
भट्टोजी
वापस नहीं
लौटे। मंदिर
में
प्रार्थना
करते ही गिर
गए और समाप्त
हो
गए।...संकल्प!
भट्टोजी
ने कहा, "प्रार्थना
एक ही बार
करनी है, दुबारा
क्या करनी? क्योंकि
दुबारा का
मतलब है, पहली
दफा ठीक से
नहीं की। तो
एक दफा ही ठीक
से कर लेनी है,
सभी कुछ
दांव पर लगा
देना है। अगर
होता हो तो हो
जाए।'
तो वे
कह गए थे, "या
तो वापस नहीं
लौटूंगा या
वापस लौटूंगा
तो दुबारा
मंदिर नहीं जाऊंगा।
क्योंकि क्या
मतलब ऐसे जाने
का?'
यह
संकल्प का
अर्थ होता है!
संकल्प
का अर्थ होता
है: समस्त
जीवन को उंडेल
देना एक क्षण
में। तब
दुबारा
प्रार्थना
करने की जरूरत
नहीं है। एक
बार राम का
नाम लिया भट्टोजी
ने और राम के
नाम के साथ ही
वे गिर गए।
कबीर
कहते हैं, "न तीर्थ का
पता, न
संकल्प का पता;
पत्थर, पीपर
लोग पूजे जा
रहे हैं: "साधो
देखो जग बौराना।'
"माला
पहिरे
टोपी पहिरे,
छाप तिलक अनुमाना।
साखी
सबदै गावत
भूलै, आतम खबर न
जाना।।'
लोग
माला पहने हैं, लेकिन
उन्हें कुछ भी
पता नहीं कि
माला क्यों
पहने हुए हैं।
माला पर हाथ
चल रहे हैं, मन कहीं और
चल रहा है।
लोग
थैली बना लेते
हैं, माला
थैली में रखे
रहते हैं; और
माला चलती
रहती है थैलों
के भीतर और वे
सब काम करते
रहते हैं:
दुकान चलाते
रहते हैं, बात
करते रहते हैं,
कुत्ते को
भगा देते हैं,
ग्राहक को
लूट लेते हैं,
और एक हाथ
से माला चलती
रहती है। माला
यंत्रवत चल
रही है। हाथ
को भी काहे को उलझाए हो, एक बिजली की
छोटी मोटर लगा
लो, उस पर
माला टांग दो,
वह घूमती
रहेगी।
वैसा
भी किया है
लोगों ने।
तिब्बत में
उन्होंने एक
प्रेयर व्हील
बना लिया है।
उसको वे कहते
हैं:
प्रार्थना का
चक्का। एक
चक्का है छोटा—सा, जैसा चरखे
का चक्का होता
है, और उस
पर प्रार्थना
लिखी है। उसको
एक दफा घुमा
दिया तो वह
जितने चक्कर
लगा ले, उतनी
प्रार्थना का
लाभ है। तो
लोग रखे रहते
हैं बगल में, सब काम करते
रहते हैं; जब
वह फिर रुक
गया, फिर
एक धक्का मार
दिया; फिर
अपना काम कर
लिया, फिर
एक धक्का मार
लिया। तो दिन
भर में अनंत
प्रार्थना का
लाभ लेते हैं।
मेरे
पास एक बौद्ध
लामा कुछ दिन
मेहमान हुआ, वह चक्का
रखे रहता था।
तो मैंने कहा,
"बिलकुल
पागल है, इसको
प्लग कर दे
दीवाल से; तू
अपना काम कर, यह अपना काम
करे। चौबीस
घंटे सोओ, जागो, चोरी
करो, हत्या
करो—तुम्हें
जो करना हो, तुम करो; यह
प्रार्थना का
लाभ तो
तुम्हें
मिलता ही रहेगा।
सिर्फ बिजली
का बिल तुम
चुका देना।'
"माला
पहिरे
टोपी पहिरे,
छाप तिलक अनुमाना।'
"साखी
सबदै गावत
भूलै'—
और भजन—कीर्तन
में लोग भूल
जाते हैं, डूब जाते
हैं और सोचते
हैं कि यह
ज्ञान की घड़ी घट
रही है। कबीर
कहते हैं,
"आतम
खबर न जाना।'
वह
भूलना संगीत
का है। वह तो
वेश्या के घर
भी जो संगीत
को सुनता है, वह भी सिर डुलाने
लगता है।
उसमें तुम
बहुत मूल्य मत
समझ लेना। वह
तो अच्छा
संगीतज्ञ भी डुबा देता
है लोगों को, सराबोर कर
देता है।
"साखी
सबदै गावत
भूलै'—
तो भजन—कीर्तन
में लग जाते
हैं लोग और
सिर डुलाने
लगते हैं और
समझते हैं कि
बड़ी काम की
बात हो रही है, कि बड़ा धर्म
कमा रहे हैं, कि देखो
कैसे लीन हो
गए हैं! "आतम
खबर न जाना!' इन सब बातों
से कुछ भी न
होगा, जब
तक भीतर का
बोध न आ जाए।
और भीतर का
बोध आ जाए तो
भजन—कीर्तन, माला, पत्थर
सभी
महत्वपूर्ण
हो जाते हैं, और भीतर का
बोध न आए, तो
सभी व्यर्थ हो
जाते हैं। इस
बात को ठीक से
खयाल में
रखें।
"घर घर मंत्र
जो देत
फिरत है माया
के अभिमाना।'
"गुरुवा
सहित सिष्य
सब बूड़े, अंतकाल पछिताना।।'
और
लोगों ने धंधा
बना रखा है, घर—घर मंत्र
देते फिरते
हैं। कबीर
कहते हैं, इन
ब्राह्मणों, पंडितों ने
व्यवसाय बना
लिया है। वे
देते फिरते
हैं, बांटते
फिरते हैं, और लोग
सोचते हैं कि
बस मंत्र मिल
गया, अब
क्या करना है!
कान फूंक दिए
गुरु ने, अब
क्या करना है!
निपट गए गुरु—मंत्र
ले लिया!
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं तीस साल
हो गए, गुरु—मंत्र
लिया, अब
तक कुछ हुआ
नहीं। गुरु—मंत्र
लेने से कुछ
होगा? और
गुरु—मंत्र
दिया किसने? इसकी भी कभी
फिक्र की है
कि जिसने गुरु
मंत्र दिया, वह गुरु था
भी? न, वे
कहते हैं, ऐसा
तो कुछ नहीं; गांव का
पंडित था, उसने
दे दिया।
गुरु—मंत्र
तो केवल उसी
से मिल सकता
है जो जाग गया
हो, और तो कोई
मंत्र दे नहीं
सकता। तो
पृथ्वी पर मुश्किल
से एक, दो, तीन, चार,
पांच
उंगलियों पर
गिने जाने
वाले लोग होते
हैं, जो
मंत्र दे सकते
हैं, गुरु
मंत्र दे सकते
हैं; लेकिन
लाखों लोग दे
रहे हैं।
कबीर
कहते हैं, "गुरवा सहित सिष्य
सब बूड़े'—गुरु और
शिष्य सब डूब
जाते हैं, लेकिन
पता अंतकाल
में चलता है, उसके पहले
पता नहीं चलता
है। अंतकाल पछिताना'—जब मौत करीब
आती है तो पता
चलता है कि यह
सब जिंदगी तो
ऐसे ही गई। न
गुरु मंत्र
बचा सकता है, न माला का
फेरना बचा
सकता है, न
पत्थर का
पूजना बचाता
है—मौत सामने
खड़ी है! लेकिन
तब समय भी
नहीं बचता, कुछ करने का
उपाय भी नहीं
बचता।
मरने
के पहले सजग
हो जाना। अगर
थोड़ी ठीक से
खोज की तो तुम
गुरु को खोज
ही लोगे। ठीक
से खोज का
अर्थ है: यह
काम सस्ता
नहीं है। गुरु
के पास होने
का मतलब है
समर्पण।
मुफ्त नहीं
मिलता है मंत्र।
जब तक तुम
अपने को पूरा
ही झुका न दो, तुम अपने को
पूरा मिटा ही
न दो, तब तक
नहीं मिलता है
मंत्र। बड़े
साहस की जरूरत
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। मैं चकित
होता हूं कभी—कभी
कि लोग कुछ
सोचते भी हैं
या नहीं सोचते
हैं। कोई आता
है, वह कहता
है कि सिर्फ
माला दे दें, गेरुआ कपड़ा
मैं न पहन
सकूंगा।
गेरुआ कपड़ा
पहनने की
हिम्मत नहीं
है, जो कि
कोई बड़ी
हिम्मत नहीं
है। क्या खास
हिम्मत है? तुम्हारे
कपड़े हैं, तुम
गेरुआ रंग लो,
किसी का लेना—देना
है, किसी
से प्रयोजन है?
कपड़े तक
रंगने से इतनी
घबराहट है, आत्मा को
तुम कैसे रंग
पाओगे? इतना
भी साहस नहीं
है कि चार लोग
हंसेंगे तो हंस
लेंगे, चार
लोग पागल
कहेंगे तो कह
लेंगे। ऐसे भी
वे पागल ही
कहते हैं
तुमको।
एक
राजनीतिज्ञ
के खिलाफ किसी
अखबार ने कुछ लिख
दिया। वह बड़ा
नाराज हो गया।
वह बड़ा गुस्से
में आया।
मुल्ला नसरुद्दीन
उसके मित्र
हैं, उनके पास
पहुंचा और कहा
कि मैं इसको मिटाकर
रहूंगा, अदालत
में ले जाऊंगा।
नसरुद्दीन
ने कहा, "बैठो।
इस गांव में
कितने लोग
हैं।'
उसने
कहा, "दस
हजार।'
"कितने लोग
अखबार पढ़ते हैं?'
तो
उसने कहा, "मुश्किल से
हजार।'
"नौ हजार की
तो फिक्र छोड़
दो। हजार
अखबार पढ़ते हैं,
उनमें से
कितने लोग
तुमको जानते
हैं?'
"मुश्किल
से आधे लोग
जानते होंगे।'
"पांच
सौ बचे।
इन
पांच सौ में
से कितने लोग
पहले से ही
जानते हैं कि
तुम गड़बड़ हो? अखबार ने
कोई नई बात तो
छापी नहीं।
कोई झूठ भी
नहीं छापा।'
नसरुद्दीन
ठीक जगह पर ले
आया बात को।
उस
राजनीतिज्ञ
ने थोड़ा संकोच
करते हुए कहा, "आधे लोग।'
"तो ढाई सौ
लोग बचे। ये
ढाई सौ लोग
क्या बिगाड़ लेंगे
तुम्हारा? ढाई
सौ लाग जानते
हैं कि तुम
गड़बड़ हो, उन्होंने
क्या बिगाड़
लिया? ये
भी जान लेंगे
तो क्या बिगाड़
लेंगे? तुम
फिजूल ढाई सौ
लोगों के पीछे
पंचायत में मत
पड़ो। और
उनमें से भी
कई बाहर गए
होंगे, गांव
में न होंगे, कई को आज
अखबार न मिला
होगा। कई
उसमें से इस
खबर को चूक गए
होंगे, पढ़ा
न होगा। कई ने
पढ़ा भी होगा, लेकिन कुछ
और सोच रहे
होंगे। तुम
फिजूल की
परेशानी में
मत पड़ो।
असलियत अगर
ठीक से समझी
जाए तो
तुम्हारे सिवाय
इस अखबार को
किसी ने ठीक
से नहीं पढ़ा
है। किसको
प्रयोजन है?'
तुम
बहुत चिंता
में रहते हो
कि लोग क्या
कहेंगे! लोग!
यह भी अहंकार
का हिस्सा है
कि तुम सोचते हो
कि लोग
तुम्हारे
संबंध में सोच
रहे हैं। कौन
फिक्र पड़ी है
किसको? अपना—अपना
सोचने को काफी
है। कोई
तुम्हारे
संबंध में
नहीं सोच रहा
है। फुर्सत
किसे है? हां,
एकाध दफा
देख लेंगे तो
शायद पूछ भी
लें, शायद
हंस लें तो वे
पहले ही से
हंस रहे हैं
तुम पर। वे
पहले से जानते
थे। लोग पहले
से ही जानते
थे कि इनका
दिमाग कुछ
खराब है। अब
गेरुआ पहन लिए
हैं। कुछ नया
नहीं होगा।
इतनी—सी
छोटी घटना में
लोग इतने
परेशान मालूम
होते हैं कि
लगता है कि
जीवन में कोई
संकल्प की क्षमता
नहीं रही और
अंतर्यात्रा
के लिए कुछ भी
दांव पर लगाने
के लिए हिम्मत
नहीं है—मुफ्त
मिल जाए!
एक
मित्र मेरे
पास आए दो दिन
पहले ही और
कहा कि "आपकी
किताबें पढ़ता
हूं, बड़ा आनंद
आता है। आधी
रात तक पढ़ता
रहता हूं, कभी
कभी सुबह
हो जाती है
मगर ध्यान में
मुझे कोई रस
नहीं है।' ध्यान
में कोई रस
नहीं है!
किताबें पढ़ने
में आनंद है!
क्या कारण
होगा? क्योंकि
सारा जो कुछ
मैं कह रहा
हूं, यह
इसलिए कह रहा
हूं कि ध्यान
में रस आ जाए।
अगर मेरे
शब्दों में रस
आया और ध्यान
में रस न आया
तो मेरा शब्द
व्यर्थ ही
गया। क्योंकि,
बोल ही
इसलिए रहा हूं
कि तुम शून्य
हो जाओ; विचार
इसलिए
तुम्हारे
सामने पेश कर
रहा हूं कि
तुम
निर्विचार हो
जाओ। और तुम
कहते हो, विचार
में बड़ा रस
आता है! तो रस
कहीं गड़बड़ है।
रस सिर्फ तर्क
में आता होगा,
और विचार
इकट्ठे कर
लेने में आता
होगा, और
बड़े पंडित हो
जाने में आता
होगा, चार
लोगों के
सामने चर्चा
करने में आता
होगा; लेकिन
रस वास्तविक
नहीं है, अन्यथा
पूरा प्रयोजन
ही यह है कि रस
ध्यान में आ
जाए।
और
ध्यान में कुछ
करना पड़ेगा।
पढ़ने में
तुम्हें क्या
करना पड़ता है? पढ़ना तो एक
निष्क्रिय
बात है। आंख
के सामने
किताब रख लो, अगर पढ़ना
आता है तो बस पढ़ना शुरू
हो गया। करना
क्या है? जीवन
को बदलने की
कोई जरूरत
नहीं होती
पढ़ने में। पढ़ना
तो इकट्ठा
होता जाता है;
जीवन वैसा
का वैसा बना
रहता है।
ध्यान में जीवन
बदलना पड़ेगा। पढ़ना
सस्ता है; ध्यान
कठिन है।
ध्यान में तुम
जैसे हो वैसे
ही न रह जाओगे;
रूपांतरण
होगा। इसलिए
ध्यान से लोग
बचते हैं।
पढ़ना
ठीक है; लेकिन
पढ़ने से तुम
ज्यादा से
ज्यादा सांप्रदायिक
हो पाओगे, मेरे
संप्रदाय के
हिस्से हो
जाओगे; लेकिन
तुम कभी
धार्मिक न हो
पाओगे। जिस
धर्म को मैं
बांट रहा हूं,
उस धर्म में
तुम भागीदार न
हो पाओगे। और
यह तो ऐसे ही
हुआ कि मैं
तुम्हें अमृत
दे रहा था और तुमने
अमृत इनकार कर
दिया और तुम
टेबल के पास रोटी
के सूखे जो
टुकड़े गिर गए
थे, उनको बीनकर ले
गए, उनको
बांधकर ले गए।
उसे तुमने
संपदा समझ
लिया।
"बहुतक
देखे पीर
औलिया, पढ़ै किताब कुराना।
करै
मुरीद कबर बतलावै, उनहुं खुदा न
जाना।।'
बहुत
देखे पीर, बहुत देखे
औलिया, गुरु
बहुत तरह के; पर इतना ही
पाया कि बस वे
किताब पढ़ रहे
हैं और
जानकारी
किताब तक
सीमित है।
"पढ़ै
किताब कुराना'—किताब यानी
बाइबिल, किताब
यानी धम्मपद।
वे पढ़ रहे हैं
किताब; लेकिन
उन्होंने
परमात्मा को
नहीं जाना।
किताब पढ़कर
कोई परमात्मा
को जानता है? काश, इतना
सस्ता होता तो
सभी ने जान
लिया होता।
जीवन
को बदल कर ही
कोई जानता है।
खुद को देकर
ही कोई जानता
है। खुद को मिटाकर
ही कोई
पहचानता है।
जब खुदी मिट
जाती है तभी खुदा
का अनुभव शुरू
होता है।
"करै
मुरीद कबर बतलावै,
उनहुं खुदा न
जाना।'
और ये
पीर—औलिया
लोगों को
शिष्य बना रहे
हैं और उनको
कब्रें दिखला
रहे हैं कि
यहां पूजा करो, यह रही
कब्र।
कब्र
के आसपास
मुसलमान
मंदिर खड़े कर
लेते हैं, कब्र बड़ी
महत्वपूर्ण
हो जाती है।
जीवन
चारों तरफ बरस
रहा है और तुम कब्रों पर
बैठे पूजा कर
रहे हो।
परमात्मा सब
तरफ मौजूद है, तुम मृत्यु
की आराधना कर
रहे हो? जब
कि मृत्यु
सबसे बड़ा झूठ
है। कोई कभी मरा
ही नहीं। मरना
घटता ही नहीं।
जीवन ही है। और
जिसको तुम
मृत्यु कहते
हे, वह एक
जीवन की तरंग
का दूसरे जीवन
की तरंग में रूपांतरित
हो जाना है।
वह सिर्फ
बदलाहट है, मृत्यु
नहीं।
"करै
मुरीद कबर बतलावै,
उनहुं खुदा न
जाना।'
"हिंदू
की दया मेहर तुरकन की, दोनों घर से
भागी।'
न तो
हिंदू के हृदय
में दया है और
न मुसलमान के हृदय
में मेहर है।
दोनों की
करुणा समाप्त
हो गई है।
दोनों का
प्रेम चुक गया
है। "दोनों घर
से भागी।'
"वह करै जिबह
वां झटका मारै,
आग दोउ घर
लागी।।'
और
दोनों घर जल
रहे हैं:
हिंदू का भी, मुसलमान का
भी—सभी के घर
जल रहे हैं।
फर्क क्या है
उनमें? फर्क
बहुत ज्यादा
नहीं है।
हिंदू भी कत्ल
करते हैं।
काली के मंदिर
में, कलकत्ते में, आज
भी कत्ल किए
जा रहे हैं।
मुसलमान भी
कत्ल करता है।
फर्क क्या है?
फर्क बड़े टेक्निकल
हैं। फर्क यह
है कि एक जिबह
करते हैं। जिबह
का मतलब है धीरे—धीरे
मारते हैं। जब
गर्दन काटते
हैं पशु की, धीरे—धीरे, धीरे—धीरे
काटते हैं—जिबह।
और दूसरे एक
ही झटके में
काटते हैं। बस
इतना ही फर्क
है उनमें। और
दोनों की
करुणा घर से
जा चुकी है, दोनों के घर
में आग लगी
है। और फर्क बचकाने
हैं। बस, ऐसे
छोटे—छोटे
फर्क हैं, इन
फर्कों
से कोई मतलब
नहीं है। असली
सवाल है कि
तुम मारते हो:
तुम जिबह
करके मारते हो
कि झटका मारते
हो—इससे क्या
फर्क पड़ता है?
पशु को क्या
फर्क पड़ता है?
वह दोनों
हालातों में
मारा जाता है।
लेकिन
सभी
संप्रदायों
में इसी तरह
के छोटे—छोटे
झगड़े हैं।
एक जैन
मंदिर में मैं
गया। वहां झगड़ा
खड़ा हो गया
था। जैनों के
दो संप्रदाय
लट्ठ लिए खड़े
थे। मारपीट हो
गई थी, पुलिस
आ गई। अब इस
मंदिर में कोई
दो साल से ताला
लगा है, पुलिस
का ताला लगा
है; अदालत
में मुकदमा चल
रहा है। मैं
मेहमान था उस
गांव में। पास
में ही मंदिर
था, तो मैं
देखने गया कि
मामला क्या है?
और जैन तो
बड़े
अहिंसात्मक
हैं, इनका झगड़ा, और
लट्ठ उठ गए और
तलवारें निकल
आईं और सिर फोड़
दिए एक—दूसरे
के—यह मामला
क्या है? मामला
बड़ा छोटा था।
महावीर की
प्रतिमा को
दोनों पूजते
हैं; लेकिन
श्वेतांबर
प्रतिमा के
ऊपर आंख लगाकर,
खुली आंख वाले
महावीर को
पूजते हैं, और दिगंबर
बंद आंख वाले
महावीर को
पूजते हैं। झगड़ा हो
गया। तो समय
बंटा हुआ है
उनका मंदिर
में: सुबह
बारह बजे तक
एक संप्रदाय
पूजता है, फिर
बारह बजे के
बाद दूसरा
संप्रदाय
पूजता है। एक
दिन किसी की
पूजा थोड़ी
लंबी चल गई, साढ़े बारह हो गए—झगड़ा खड़ा
हो गया: "अलग
करो आंख!' बंद
आंख वाले
महावीर के
भक्त आ गए।
कभी—कभी
संप्रदायों
के बीच के
झगड़े देखकर हद
मूढ़ता
दिखाई पड़ती
है। महावीर की
आंख बंद या
खुली—इससे
क्या फर्क
पड़ता है? पूजा
तुम्हें करनी
है, तुम्हारा
हृदय खुला या
बंद—इसकी
फिक्र करो।
"या
विधि हंसी चलत
है हमको, आप
कहावै
स्याना।'
कबीर
कहते हैं, इससे हमें
बड़ी हंसी आती
है, और ये
सब लोग सयाने
हैं।
"कहै
कबीर सुनो भाई
साधो, इनमें
कौन दिवाना।'
तुम
बताओ, इनमें
कौन दिवाना है?
कबीर यह कह
रहे हैं हमें
तो यह सभी
दीवाने दिखाई
पड़ते हैं; सभी
पागल हो गए
हैं। लेकिन हर
एक दावा कर
रहा है कि हम
सयाने हैं। और
सब मिलकर
परमात्मा को
काट रहे हैं:
कोई जिबह
कर रहा है; कोई
झटका मार रहा
है—कटता है
परमात्मा।
एक
छोटी सी कहानी
है, बड़ी
पुरानी है।
एक
गुरु के दो
शिष्य हैं। वे
दोनों सेवा
करते हैं।
गर्मी के दिन
हैं। गुरु
सोया है। दोनों
ने कहा कि आधा—आधा
बांट लो। तो
बायां अंग एक
ने ले लिया, दायां अंग
दूसरे ने ले
लिया। दोनों
पैर दबा रहे
हैं—गुरु के
अपने—अपने अंग
के। गुरु ने
करवट ली, गुरु
को कुछ पता
नहीं—वे सो
रहे हैं कि
बंटवारा हो
गया है। गुरु
ने करवट ली, तो बाएं पैर
पर पैर पड़
गया। तो दाएं
पैर वाले ने
कहा, "हटा
ले अपना पैर, अगर मेरे
पैर पर पड़ा
ठीक नहीं
होगा।' दूसरे
शिष्य ने कहा,
"जा—जा! कौन
हटा सकता है? अगर हो
हिम्मत तो हटा
दे।' बात
बढ़ गई। थोड़ी
देर में लट्ठ
लिए खड़े थे।
गुरु की
खींचातानी हो
गई। गुरु पिटे,
बुरी तरह पिटे।
क्योंकि
जिसका बायां
अंग था उसने
दाएं अंग को
मारा, जिसका
दायां अंग था
उसने बाएं अंग
को मारा।
परमात्मा
मिट रहा है सब
तरफ से, क्योंकि
वही है। तुम
जिसे भी काटो,
वही कटेगा।
मंदिर जलाओ तो
भी उसी का
मंदिर जलता है;
मस्जिद
जलाओ तो भी
उसी की मस्जिद
जलती है। मूर्ति
तोड़ो तो उसी
की मूर्ति
टूटती है। वेद
को जलाओ, उसी
का वेद जलता
है। वही है!
जैसे
ही किसी
व्यक्ति में
थोड़ी—सी समझ
उठनी शुरू
होती है—यह
सारा जगत उसी
का मंदिर है!
सब किताबें
उसकी, सब
पूजा—स्थल
उसके! और ऐसी
घड़ी में ही
तुम योग्य
बनते हो कि
धर्म तुम में
अवतरित हो
जाए।
सांप्रदायिक
व्यक्ति ने
कभी धर्म नहीं
जाना और कभी
जान नहीं
सकता।
जिन्हें धर्म
जानना है, उन्हें भीतर
सब
संप्रदायों
से मुक्त हो
जाना जरूरी है,
सब धारणाओं
से, सब
भेदों से; और
भीतर उसमें
लीन हो जाना
है जो
तुम्हारा स्वभाव
है। उस स्वभाव
की तैयारी ही
एक दिन तुम्हें
परमात्मा से
मिला देगी। और
कहीं और खोजना
नहीं, क्योंकि
वह तुम्हारे
भीतर है।
"कस्तूरी
कुंडल बसै!'
आज
इतना ही।
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